Monday, 17 August 2015

स्वतंत्रता एक अधूरा शब्द है !



स्वतंत्रता अधूरा शब्द है | पत्रकार-लेखक राजकिशोर ने सोचने के लिए एक अर्थ व्यंजक पद उछाला तो मेरे भीतर यह प्रश्न की तरह गूंजने लगा- क्या सचमुच  स्वतंत्रता अधूरा शब्द है ? मैं अभी ऊहापोह में था कि तुलसी याद आए | स्वतंत्रता की महिमा और उसके अधूरेपन को जैसे उन्होंने सोलहवीं शताब्दी में ही पहचान लिया था | उनकी दो अर्द्धालियाँ तत्काल कौंध गईं | दोनों का सन्दर्भ स्त्री-जीवन है | पहली है- ‘जिमी सुतंत्र भए बिगरहीं नारी |’ तात्पर्य यह कि स्वतंत्रता मिलते ही स्त्रियाँ पथभ्रष्ट हो जाती हैं | दूसरी अर्द्धाली है- ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’- पराधीनता के कारण स्त्रियों को यथार्थ जीवन तो दूर, स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता | पहली अर्द्धाली के जरिए मध्यकालीन सोच के लोग स्त्रियों की स्वतंत्रता पर तरह-तरह के अंकुश लगाते हैं | स्त्री-विरोधियों के लिए यह अर्द्धाली हथियार है | दूसरी अर्द्धाली के जरिए समाजवादी चिन्तक राममनोहर लोहिया स्त्री-स्वतंत्रता का प्रश्न बड़े जोरदार ढंग से उठाते थे | उनका मानना था कि स्त्री-जीवन की विडम्बना को व्यक्त करने वाली इससे बड़ी पंक्ति दूसरी नहीं है | स्त्री-जीवन के सन्दर्भ में तुलसी की ये दोनों अर्द्धालियाँ एक-दूसरे के विरोध में है | यह उनका अंतर्विरोध है | एक से उनके  सोच का पता चलता है तो दूसरी से उनकी मानवीय संवेदना का |
स्वतंत्रता का पक्ष-विपक्ष समझने में ये दोनों अर्द्धालियाँ बड़े काम की हैं | यथास्थितिवादियों के लिए गुलामों की स्वतंत्रता कभी भी प्रेय नहीं रही |  गुलामों को स्वतंत्रता देने से शोषण पर आधारित व्यवस्था चरमराने लगती है और मालिकों को अपना स्वर्ग संकट में पड़ता दिखाई देने लगता है | शोषक-वर्ग का स्वर्ग गुलामों के शोषण के बिना संभव नहीं है | इसलिए शोषकों द्वारा गुलामों के राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक अधिकारों में बराबर कटौती होती रही है | हम जानते हैं कि अपने अधिकारों में कटौती के खिलाफ शोषित-वंचित लोग बराबर संघर्ष करते रहे हैं और कुर्बानियाँ देते रहे हैं | हाबर्ड फ़ास्ट का उपन्यास ‘स्पार्टाकस’ गुलामों के विद्रोह का ऐतिहासिक दस्तावेज है | इस रचना से गुलामों के भीतर छिपी आजादी की आग का पता चलता है | आजादी के लिए गुलाम व्यक्ति कोई भी कुर्बानी दे सकता है | ऐसा इसलिए कि स्वतंत्रता मनुष्य को सबसे अधिक प्रिय है | मनुष्य ही क्यों, स्वतंत्रता तो जीव-मात्र का सपना है | स्वतंत्रता चूँकि हमारी नैसर्गिक आकांक्षा है, इसलिए लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने जब कहा कि ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ तो हमारा पूरा राष्ट्र आंदोलित हो उठा | यह हमारी स्वतंत्रता की ही  आकांक्षा थी जो १९२९ में लाहौर कांग्रेस में जवाहर लाल नेहरू की पूर्ण स्वराज्य की घोषणा में और १९४२ की अगस्त क्रांति के दौरान ‘करो या मरो’ के नारे में अभिव्यक्त हुई | यह स्वतंत्रता का ही स्वप्न था कि लेनिन के नेतृत्व में रूसी जनता ने जारशाही का तख़्ता उलट दिया था और यह भी स्वतंत्रता का ही स्वप्न था कि उसी जनता ने ७० वर्षों के बाद लेनिन-स्टालिन द्वारा स्थापित साम्यवादी शासन का न सिर्फ अंत कर दिया, बल्कि उनकी मूर्तियाँ भी तोड़ डाली |
कार्ल मार्क्स ने मानव-सभ्यता के विकास के इतिहास को चार चरणों में बांटा है : आदिम साम्यवाद, दास-प्रथा, सामंती समाज और पूंजीवादी समाज | आदिम साम्यवादी  समाज में मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण नहीं होता था | यह उसकी बनाई हुई व्यवस्था नहीं थी | वह प्रकृति प्रदत्त स्थिति थी, तब मानव समाज विकास की प्रारंभिक अवस्था में था | दास-प्रथा को मानव द्वारा मानव के शोषण की सबसे निकृष्ट व्यवस्था माना गया | खैर , चाहे सामंतवाद हो या पूँजीवाद, मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का सिलसिला जारी है , उसके रूप भले बदलते रहे हों | इसलिए मार्क्स ने साम्यवादी व्यवस्था का स्वप्न देखा | ऐसा समाज जो वर्गविहीन और राज्यविहीन होगा | मार्क्सवाद को आधार बनाकर ऐसी व्यवस्थाएँ जरूर स्थापित हुईं, लेकिन मानव-स्वतंत्रता की वह आदर्श स्थिति कभी नहीं आई,जिसका सपना मार्क्स ने देखा था  | जनता के नाम पर जनता की स्वतंत्रता नए रूप से बाधित हुई | स्वतंत्रता का आकांक्षी मानव-मन संतुष्ट नहीं हुआ | परिणाम जो होना था, हुआ | साम्यवादी समाज-व्यवस्था ताश के महल की तरह भरभराकर गिर गई |
मार्क्स का समय राजनीतिक तौर पर औपनिवेशिक दासता का था | इसलिए उनके एजेंडे में राजनीतिक स्वतंत्रता सर्वोपरि थी | इसी के साथ उन्होंने अर्थ को सामाजिक संरचना का मूल आधार बताया और संस्कृति को अधिरचना कहा | उनका मानना था कि आधार बदलने से अधिरचना बदल जाती है | लेकिन ऐसा हुआ नहीं | राजनीतिक-आर्थिक परिवर्तन के लिए जो व्यवस्था बनी, वह कई रूपों में मानव-मन की स्वतंत्रता के विरुद्ध थी | अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सर्वोपरि मानने वाली जनता ने अपनी ही बनाई व्यवस्था तोड़ दी |कारण यह है कि मनुष्य को मन की स्वतंत्रता सबसे अधिक प्रिय है| इस स्वतंत्रता को हासिल करने के लिए वह हमेशा से संघर्ष करता रहा है, मार्क्सवादी छाते के भीतर भी और मार्क्सवादी छाते के बाहर भी |      
सामंती समाज में मनुष्य पूर्ण स्वतंत्रता का स्वप्न नहीं देख सकता | सामंतवाद दूसरे की स्वतंत्रता को बाधित करके ही टिका रह सकता है | इसलिए एक राजा दूसरे राजा से अपनी स्वतंत्रता के लिए भले ही युद्ध कर ले, जनता को यह अधिकार नहीं था | भारत में किसी राजा के विरुद्ध जनता ने विद्रोह किया हो, इसके उदाहरण नहीं मिलते | लोहिया ने भारतीय जनता की इस प्रवृति पर  दुःख को व्यक्त किया है |उन्होंने कहा है कि जनता ने किसी राजा के खिलाफ कभी विद्रोह किया है इसका एक भी उदहारण भारतीय इतिहास में नहीं मिलता| आगे चलकर  राजनीतिक स्वतंत्रता का स्वप्न ही जनतंत्र के उदय का आधार बना | स्वतंत्रता की यह जनाकांक्षा ही थी कि धीरे-धीरे पूरी दुनिया में जनतांत्रिक  व्यवस्था आई और राजनीतिक उपनिवेशों का दौर समाप्त हुआ |बहरहाल,सामंती व्यवस्था में जनता को राजनीतिक स्वतंत्रता भले न रही हो, उसकी यह आकांक्षा साहित्य और अन्य कला रूपों में व्यक्त होती रही है | दुनिया के प्रायः सभी रचनाकारों-कलाकारों ने मूर्त-अमूर्त ढंग से मनुष्य की  स्वतंत्रता के स्वप्न को अपनी रचनाओं में व्यक्त किया है | दुनिया का सारा साहित्य और सारी कलाकृतियाँ सामंती व्यवस्था में जनता की मुक्ति -आकांक्षा का ही प्रतिफलन हैं  |
यूँ तो स्वतंत्रता राजनीतिक रूप में आधुनिक युग में सगुण-साकार हुई, लेकिन इसके बहुतेरे आयाम हैं जिनके बिना राजनीतिक स्वतंत्रता एक अधूरे प्रत्यय की तरह है | देश जब आज़ाद हुआ तब कम्युनिस्टों ने नारा लगाया था कि ‘यह आज़ादी झूठी है, देश की जनता भूखी है’ | इस नारे में आधा सच, आधा राजनीतिक स्टंट था | यह सही था कि जनता में भूखमरी और बेरोजगारी थी, लेकिन उससे औपनिवेशिक दासता से मुक्ति कैसी झूठी हो गई ? आज़ादी को सही परिप्रेक्ष्य में रचनाकार देख रहे थे | गिरिजा कुमार माथुर ने आज़ादी को बड़े परिप्रेक्ष्य में देखा | उन्होंने लिखा : ‘आज विजय की रात, पहरुए सावधान रहना |’ सावधान रहने की यह चेतावनी किस बात की थी ? उन्होंने अपनी उसी कविता में आगे  यह भी लिखा –‘शत्रु हट गया लेकिन उसकी छायाओं का डर है |’ ये डरावनी छायाएं शत्रु द्वारा बनाई गई विषमता और उसकी सांस्कृतिक गुलामी की थीं |इसका आशय यह था स्वतंत्रता तब तक नहीं पूरी होती जब तक कि आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक भेदभाव से जनता मुक्त नहीं होती | इसीलिए जब स्वतंत्र भारत का संविधान बन रहा था, तब गाँधी ने पंडित नेहरू को ‘हिन्द स्वराज’ पढ़ने की सलाह दी थी | गाँधी के ‘सपने का भारत’ सिर्फ राजनीतिक स्वतंत्रता से नहीं बनता था |जयप्रकाश नारायण ने जब कहा कि हमारे समाज में वर्ग हैं और वर्ग-भेद को मिटाने के लिए वर्ग-सत्याग्रह की ज़रूरत है तो वे आज़ादी को सही परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करने की कोशिश कर रहे थे | राममनोहर लोहिया ने स्वतंत्र भारत में दलितों, पिछड़ों और स्त्रियों की मुक्ति का सवाल बड़े जोरदार तरीके से उठाया | वे जब ऐसा कह रहे थे तब वे आज़ादी को केंद्र से हाशिए तक ले जाकर उसे व्यापक बना रहे थे | डॉ. अंबेडकर ने भारत के सबसे शोषित तबके दलितों की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मुक्ति के बिना राजनीतिक आज़ादी को अधूरा माना | स्वतंत्रता को सिर्फ राजनीतिक आशय से अलग व्यापक अर्थों में ग्रहण करने की वकालत इन भारतीय विचारकों के साथ विश्व के स्वतंत्रताकामी तमाम विचारकों ने भी की है |
किसी ने कहा है, शायद डॉ. अंबेडकर ने ही कि राजनीतिक गुलामी से भी बड़ी सांस्कृतिक गुलामी होती है | आज राजनीतिक गुलामी से तो जनता मुक्त हो चुकी है | आर्थिक क्षेत्र में भी जनता की स्थिति में थोड़ा-बहुत परिवर्तन आया है, लेकिन धार्मिक अन्धविश्वास, पाखंड, कर्मकांड, भाषाई दासता आदि से आज भी जनता  मुक्त नहीं है | इसीलिए गाँधी हर क्षेत्र में स्वदेशी की बात करते थे | वे जानते थे कि गोरे साहबों के चले जाने और सत्ता की कुर्सी पर भारतीयों के आ जाने मात्र से ही आज़ादी का सपना पूरा नहीं होता | वे असल में उस भारतीय मानस को बदलना चाहते थे जो तरह-तरह के देशी अंधविश्वासों और विदेशी प्रभावों की गिरफ्त में है |
स्वतंत्रता एक आधुनिक प्रत्यय है | स्वतंत्रता की अवधारणा आधुनिकता के साथ पैदा हुई | फ्रांसीसी क्रांति के तीन बड़े नारे थे- ‘स्वतंत्रता, समता और विश्व-बंधुत्व’ | मानव-मानव में जब तक भेद है, दुनिया के देशों में जब तक युद्ध का खतरा है, तब तक न तो स्वतंत्रता पूरी हो सकती है न समता के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है
| समता और स्वतंत्रता के साथ विश्व-बंधुत्व भी  वह आधुनिक अवधारणा है जो पूरे विश्व को शांति की ओर ले जाता है | जब तक समाज में और दुनिया में समता नहीं स्थापित होगी, तब तक शांति की कल्पना बेमानी है | दिनकर ने ठीक ही लिखा है : ‘शांति नहीं तब तक, जब तक सुख भाग न नर का सम हो; नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो |’ समाज और विश्व में विषमता का होना अशांति की जड़ है | जो लोग दूसरे का अधिकार, चाहे स्वतंत्रता का हो, चाहे समता का, जब हड़पते हैं तो वे एक तरह से अशांति को न्योता देते हैं | महाभारत की विभीषिका से द्वंद्व में पड़े युधिष्ठिर को शर-शय्या पर पड़े भीष्म के मुँह से दिनकर ने यही कहलाया है – ‘चुराता न्याय जो, रण को बुलाता भी वही है; युधिष्ठिर सत्व की अन्वेषणा पातक नहीं है |’ आशय यह है कि न्याय के लिए संघर्ष होता रहेगा और न्याय पाने वालों का संघर्ष जायज है | यह संघर्ष स्वतंत्रता और समता के व्यापक उद्देश्य से परिचालित है |
व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के पूर्ण विकास के लिए स्वतंत्रता ज़रूरी है | गुलाम व्यक्ति, समाज और राष्ट्र कभी भी विकास की पूर्णता का दावा नहीं कर सकते | गुलाम व्यक्ति अपनी स्वाभाविक चाल भूल जाता है | जिस दिन उसे अपनी स्वाभाविक प्रकृति का पता चलता है, वह गुलामी के बंधन को तोड़ने पर उतारू हो जाता है | इसलिए कि मनुष्य को स्वतंत्रता सबसे अधिक काम्य है | लेकिन यह स्वतंत्रता कभी भी निरंकुश नहीं हो सकती | एक व्यक्ति की स्वतंत्रता दूसरे व्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधक बने तो वह प्रश्नांकित होने लगेगी | यही बात समाज और राष्ट्र की स्वतंत्रता के अधिकार पर  भी लागू होती है | एक स्वतंत्र समाज और राष्ट्र से यह सहज अपेक्षा होती है कि वह दूसरे समाज और राष्ट्र की स्वतंत्रता का भी उतना ही सम्मान करे | इससे अर्थ यह निकलता है कि स्वतंत्रता की जो वाक्य रचना है, उसे भी व्याकरण की ज़रूरत है | व्याकरण से यहाँ तात्पर्य यह है कि अबाध और निरंकुश स्वतंत्रता को मर्यादा की सीमा का ध्यान रखने का सलीका आना चाहिए | अज्ञेय ने स्वतंत्रता के अधिकार को एक बड़े ही दिलचस्प उदाहरण से परिभाषित करने की कोशिश की है | एक व्यक्ति अपने हाथ में छड़ी घुमा रहा था, इसपर सामने के दूसरे व्यक्ति ने आपत्ति की और कहा कि छड़ी नचाने की आपको स्वतंत्रता है, लेकिन आपकी यह स्वतंत्रता वहाँ समाप्त होती है, जहां से मेरी नाक शुरू होती है | किसी के छड़ी नचाने का यह मतलब नहीं कि दूसरे की नाक टूट जाए | मतलब साफ़ है कि स्वतंत्रता अबाधित और अमर्यादित नहीं है | इसे भाषा और व्याकरण के उदाहरण से भी ठीक से समझा जा सकता है | बोलियों को प्रायः व्याकरण की ज़रूरत नहीं होती, लेकिन जैसे ही कोई बोली भाषा का रूप ग्रहण करती है, उसे किसी कामता प्रसाद गुरु और किशोरी दास वाजपेयी की ज़रूरत होती है | बोली की अबाध स्वतंत्रता उसके भाषा बनते ही व्याकरण की मर्यादा से मर्यादित हो जाती है | यह बात स्वतंत्रता के सन्दर्भ में जीवन के हर क्षेत्र में  लागू होती है |
मुक्ति का स्वप्न तो मनुष्य प्राचीन काल से देखता आ रहा है | मुक्ति का यह स्वप्न धार्मिक-साहित्यिक क्षेत्र में तरह-तरह के प्रतीकों-रूपकों में व्यक्त होता रहा है | हमारे यहाँ मोक्ष की अवधारणा सांसारिक बंधन से मुक्ति का ही एक रूप है | सूरदास का वृन्दावन, जायसी का सिंघलद्वीप, तुलसी का रामराज्य और कबीर का अमरपुर सामंती समाज में मानव मुक्ति के देखे गए सपने  के खूबसूरत रूपक ही तो हैं | गाँधी आधुनिक भारत के लिए जिस रामराज्य की कल्पना करते हैं, उसका रूपक भले रामायण का हो, लेकिन स्वप्न स्वतंत्रता के साथ समतामूलक समाज के निर्माण का है | ऐसे समतामूलक समाज का सपना जहाँ कोई दीन-दुखी न हो और किसी तरह का भेदभाव न हो | लोहिया सूरदास के वृन्दावन की प्रशंसा इसलिए करते थे कि स्त्रियाँ दुनिया में पुरुष के कहीं बराबर हुई तो वृन्दावन में और कान्हा के साथ | भारतीय साहित्य के इन मिथकीय चरित्रों के जरिये आधुनिक युग के हमारे राष्ट्र नायकों ने स्वतंत्रता और समता का सपना देखा|
उत्तर आधुनिक चिन्तकों के  अनुसार महावृतांत का युग समाप्त हो चुका है | मार्क्सवादी या गांधीवादी सपने के अनुसार मानव-मुक्ति के बड़े संघर्षो की भी प्रासंगिकता समाप्त हो गयी है | उसकी जगह विमर्शों ने ली है | अब स्त्री, दलित, आदिवासी आदि विमर्षों के ज़रिये मानव-मुक्ति के खंडित संघर्षो का दौर है | मानव-मुक्ति के महासंघर्ष  को इन विमर्शमूलक बहसों ने हाशिए पैर धकेल दिया है | परिणाम यह है कि स्वतंत्रता के साथ समता के एकजुट संघर्ष का जो  ज़ोरदार नारा था, वह कमजोर हुआ है | भूमंडलीकरण के दौर में  सुविधासंपन्न और वंचित तबके का फर्क कई गुना बढ़ गया है | विकास का फायदा कुछ प्रतिशत लोगों तक पंहुचा है | शेष समाज विकास के उस रिसाव का मोहताज़ है | नेहरूयुगीन  विकास नीति को देखकर विनोवा भावे ने यही कहा था कि यह नीति समाज के गरीब तबकों को विकास के रिसाव के भरोसे छोड़ देगी | रिसाव का मतलब यह था कि इस विकास नीति के जरिए  अमीरों की अमीरी का घड़ा जब भर जाएगा तब उसके रिसाव का लाभ गरीब तबके तक पहुंचेगा | नेहरू युग से आजतक गंगा का बहुत पानी बह चुका है | कल्याणकारी राज्य की योजनायें ख़त्म होती गयी हैं और उसकी जगह बेशर्म लूट-खसोट की आर्थिक-नीति का चुकी है | ऐसे में वास्तविक स्वतंत्रता का सपना बिना समतामूलक समाज की स्थापना के कैसे सगुण-साकार होगा | गाँधी ने ‘हिंदी स्वराज’ में ‘अपने मन के राज्य को स्वराज्य’ की संज्ञा दी है | ‘स्वराज्य’ यानी अपना राज्य यानी औपनिवेशिक दासता से मुक्ति | गाँधी का नाम माला की तरह जपनेवालों से एक सवाल जरुर पूछा जाना चाहिए कि भारतीय जन को जो स्वराज्य मिला है, उसमें क्या उसके मन का भी राज्य शामिल  है ?


2 comments:

  1. स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के अंतर्राषट्रीय सपने को साकार करने मे जो समस्याएं हैं उनको बहुत सटीक नजरों से पकडा है आपने।साहित्य के माध्यम से राजनीति,आर्थिक व्यवस्था और समाज के दोहरे मानदंडो की व्याख्या करते हुए अधूरी स्वतंत्रता का सटीक आकलन किया है आपने।

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  2. बहुत सार्थक विषय है। उसमे भी जिस तरह इतने विस्तार से आपने एक शब्द के माध्यम से पूरी परंपरा को व्याख्यित करते हुए सरल भाषा में प्रस्तुत किया है अपने आप में महत्वपूर्ण हो गया है। तुलसी के उदाहरण से चली आती एक लंबी विवेचना ने इसे एक लेख नहीं बल्कि शोधपत्र बना दिया है। बहुत आभार इस विषय पर इतने विस्तार से प्रस्तुति के लिए

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