‘समकालीन सोच’ के अग्रलेखों को एक साथ पढ़ना अपने समय-समाज के जरूरी सवालों के सामने खड़ा
होना है. राजनीति, भाषा, जाति, धर्म, आधुनिकता, मार्क्सवाद, सामाजिक न्याय,
धर्मनिरपेक्षता आदि के प्रश्नों से टकराने के क्रम में लिखे गए इन अग्रलेखों को
पढ़ना अपने को वैचारिक रूप से उन्नत करना और बौद्धिक रूप से समृद्ध करना है.
भूमंडलीकरण के भारत में पांव पसारने के बाद भारतीय समाज, साहित्य, राजनीति तथा
अन्य क्षेत्रों में जो बदलाव आए, उनकी पड़ताल करने का काम जिन पत्रिकाओं ने किया
उनमें अग्रणी भूमिका ‘समकालीन सोच’ और उसके अग्रलेखों की भी है. इसलिए इनका
एक जगह प्रकाशन आवश्यक था.
पी.एन. सिंह वैचारिक ऊर्जा मार्क्सवाद से प्राप्त करते हैं.
इसी के साथ वे गांधी, अम्बेडकर , लोहिया आदि समाज-चिंतकों को भी सहानुभूति के साथ अपने
दृष्ठि-पथ में रखते हैं. देश-दुनिया और अपने आस-पास की सामाजिक-राजनीतिक हलचलों पर
भी उनकी नजर रही है. इस कारण उनके चिंतन में खुलापन और गतिशीलता है. वे मार्क्सवाद
के कठमुल्लापन से मुक्त मार्क्सवादी समाज-साहित्य के गहरे अध्येता हैं. उनके कथन
में ‘पालिटिकली करेक्ट’ होने की चिंता की जगह सच को कहने का साहस है. वह
साहस जिसका इधर के वर्षों में अभाव होता गया है. वे समाज की तथ्यगत सच्चाई पर तो
नजर रखते ही हैं, समाज की ‘साइकी’ को भी अपने चिंतन के क्रम में समझने की
कोशिश करते हैं. इसी के साथ यह भी कहने दीजिए कि वे देश-दुनिया के बड़े-बड़े लेखकों
को जहाँ उद्धृत करते हैं, वहीं किसी स्थानीय व्यक्ति के अध्ययन-अनुभव को भी पूरे
सम्मान के साथ अपने चिंतन में जगह देते हैं. इन कारणों से उनका चिंतन हमारा अपना
लगता है.
हर समाज को महानायकों की जरूरत होती है. लोग अपनी समस्याओं के
निराकरण के लिए किसी ऐसे नायक की खोज करते हैं जो संघर्ष में उनका नेतृत्त्व कर
सके. स्वयं नेतृत्त्व न संभाल कर किसी अन्य के नेतृत्त्व में किसी आन्दोलन या
क्रांति में भाग लेने का मनोविज्ञान प्रायः सभी देशों और सभी कालों में होता है.
हमारे यहाँ तो अवतारवाद के मूल में यह धारणा ही काम करती है कि जब समाज पर संकट के
क्षण आते हैं तो भगवान मनुज रूप में धरती पर आते हैं. भारतीय समाज में राम-कृष्ण
अवतार लेने वाले महानायक तो हैं ही आगे चलकर अनीश्वरवादी गौतम बुद्ध को भी भगवान
का अवतार मान लिया गया. भगवान का दर्जा प्राप्त इन महानायकों के अतिरिक्त मार्क्स,
लेनिन, गांधी, माओ आदि को भी महानायकों की श्रेणी में ही रखा जाता है. आखिर ऐसे
महानायकों की जरूरत क्या है?
‘महानायकों पर कुछ विचार’ शीर्षक अपने अग्रलेख में
पी.एन. सिंह ब्रेख्त के नाटक ‘गैलिलियो का जीवन’ से दो संवाद उद्धृत करते
हैं. गैलिलियो का एक शिष्य जब कहता है कि ‘वह भूमि दुखी रहती है जिसके पास नायक
नहीं होते’ तो गैलिलियो कहता है कि ‘नहीं, उस दुखी भूमि को ही नायकों की आवश्यकता
रहती है’. ब्रेख्त के इस कथन के आलोक में पी.एन. सिंह ने महानायकों के स्वरूप,
उनकी आवश्यकता और उनकी कोटि पर चिंतन किया है. अपने यहाँ से लेकर दुनिया भर के
नायकों को दृष्टिपथ में रखते हुए वे उन्हें नायक, महानायक, महापुरुष आदि कोटियों
में रखते हैं. इसी के साथ वे लिखते हैं कि ‘नायकों का भौतिक आकार-प्रकार एवं
सांस्कृतिक स्वरूप उनके सन्दर्भ समूहों की राजनीतिक, सामाजिक शक्ति और उनके
सांस्कृतिक स्तर पर निर्भर करता है. इसी शक्ति एवं स्तर के बल पर वर्णधर्म के
पुजारियों ने राम और कृष्ण को गढ़ा, वर्गधर्म के पुजारियों ने मार्क्स, लेनिन एवं
माओ को, राष्ट्रधर्म के पुजारियों ने गांधी को और आज दलित धर्म के पुजारी अम्बेडकर
को गढ़ने में लगे हैं. कृतज्ञ पुजारी हमेशा एकांतिकता का (Exclusivism) का शिकार होता है. वह अपने धर्म
को सर्वश्रेष्ठ धर्म और अपने नायक को सर्वज्ञ, सर्वगुण संपन्न एवं सर्वश्रेष्ठ
बताता है.
नायक से
महानायक और महामानव की यात्रा के भी अपने कारण होते हैं. पी.एन. सिंह लिखते हैं कि
‘अगर इतिहास प्रवाह में किसी वर्ग-विशेष का समूह-विशेष की ‘हेजीमनी’
स्थापित होती है तो वह अपने नायक को महानायक बनाता है, उस पर अप्रतीम वीरत्व
आरोपित करता है. इसी प्रक्रिया में वह अपने महानायक को भी सुसंगत एवं परिनिष्ठित
बनाता है और उसके मानवीय एवं करुणामय रूप को ऊकेर कर उसे सार्वत्रिक एवं
सार्वकालीक बताता हुआ महामानव की श्रेणी में ले आता है’. समाज की विकास प्रक्रिया
में कभी-कभी ऐसे नायक भी महानायक मान लिए जाते हैं जो कल तक उस समाज में उतने
मान्य नहीं थे. ऐसा क्यों होता है? पी.एन. सिंह की राय है कि ‘कभी अपनी ‘हेजीमनी’
को कायम रखने की विवशता में तो कभी अपनी उन्नत सांस्कृतिक समझ के चलते वह अपने
देव-लोक में प्रतितीर्थंकरो को भी सम्मान समायोजित करता है और इस प्रकार एक विराट
सांस्कृतिक सामाजिक समझौते का प्रारूप गढ़ता है. तुलसी के राम शिव पूजक हैं और
शक्ति- पूजक भी. उन पर न शम्बूक की हत्या का अपराध है और न ही गर्भिणी सीता के
निष्कासन का. वे शबरी की जूठी बेर खाते हैं और निषादराज को अनुज बताते हैं.
नास्तिक और इसीलिए त्याज्य गौतम बुद्ध भी कालान्तर में ‘भगवान बुद्ध’ घोषित
हुए और विष्णु के अवतार मान लिए गए. इसी प्रकार ईसाइयों में विधर्मी एवं ‘चुड़ैल’
जॉन ऑफ आर्क को चर्च द्वारा संत की गरिमा प्रदान की गई और अब लूथर कैथोलिकों के
बीच भी आदरणीय हैं. समय के साथ नायकों का अर्थ विस्तार होता रहता है और कभी के
निन्दित अम्बेडकर आज विभिन्न कारणों से
सर्वाधिक सम्मानित किए जा रहे हैं’. अपने लम्बे विश्लेषण के बाद पी.एन. सिंह उस
मनोवृत्ति का विश्लेषण करते हैं जिसमें स्वार्थ प्रेरित समाज अपने
नायकों-महानायकों में से किसी की प्रशंसा और किसी का अवमूल्यन करता है. अंत में वे
हमारे समय के इस अराजक दौर में उस मनोवृत्ति की चर्चा करते हैं जहाँ महात्मा गांधी
को गोली मार दी जाती है. उनका कहना है और ठीक ही कहना है कि आज हमारे पास कोई
महानायक नहीं है, यह बौने नेताओं का समय है. वे अपने नेताओं, गांधी, अम्बेडकर ,लोहिया
आदि को उचित सम्मान नहीं देते. आज के हालात पर उनकी टिप्पणी है : “संत जॉन की ही
तरह गांधी को भी आम जन ने महात्मा और संत माना, वे बुद्धिजीवी जो उनके चमत्कारी
व्यक्तित्व को समझ सके उन्होंने यथासंभव अनुगमन किया, मतवादियों ने गालियां दीं,
निहित स्वार्थों ने जेल में रखा और धर्मान्धों ने गोली मार दी. आज भी स्थिति कहाँ
बेहतर है! बल्कि कुछ अतिरिक्त गिरावट ही आई है. छोटे-छोटे हितों में विभक्त जनता
केवल अपने-अपने बौने नेताओं को ही आज सुनने-समझने के लायक बना दी गई है. मानो किसी
महानायक के आगमन की पृष्ठभूमि बन रही हो. वह समाज तो हतभाग्य होता ही है जिसे
बार-बार महानायकों की आवश्यकता पड़ती है. किन्तु उससे भी अभागा वह समाज होता है जो
अपने महापुरुषों को उचित सम्मान देने की तमीज नहीं विकसित कर पाता. आज हम इस दोहरे
दुर्भाग्य के शिकार हैं”.
पी.एन. सिंह जब अपने अग्रलेख लिख रहे थे तब उन्हें भरोसा था
कि हिंदूवादी शक्तियां सत्ता में नहीं आएंगी! जब उनके अग्रलेख पुस्तकाकार प्रकाशित
होने को हैं तब यूपी और केंद्र दोनों जगह हिंदूवादी शक्तियां ही प्रचंड बहुमत से
सत्ता में हैं. उनके भरोसे को इस बीच का राजनीतिक परिवर्तन प्रश्नचिन्ह लगाता-सा
लगता है. ‘धार्मिक उन्माद और बुद्धिधर्मी का दायित्व’ शीर्षक अपने अग्रलेख
में वे लिखते हैं ‘ आज अचानक धर्मनिरपेक्षतावादी सुरक्षात्मक बना दिए गए हैं और
सांप्रदायिक ताकतें आक्रामक बनी हैं. यह विवेक पर नफ़रत के बढ़ते दवाब का सूचक है.
कैसा होगा वह भारत जिसमें नफ़रत जीत चुकी होगी और विवेक तथा संयम पराजित हो चुके
होंगे!’ जिसकी आशंका उन्हें थी अब वह घटित हो चुका है- विवेक तथा संयम पराजित हो
चुके हैं और सांप्रदायिक ताकतें जीत चुकी हैं. क्यों ऐसा हुआ? इसकी गहन पड़ताल करते
हुए पी.एन.सिंह मंडलवादी राजनीति, दलित राजनीति के साथ कम्युनिस्ट राजनीति की उन
कमजोरियों को रेखांकित करते हैं जिनकी वजह से सांप्रदायिक राजनीति को पैर पसारने
का मौका मिला. आज़ादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर अपने अग्रलेख ‘राष्ट्रीय आज़ादी
की स्वर्णजयंती’ में वे आज़ादी के सपनों के धीरे-धीरे टूटते जाने की बात करते
हैं और यह भी बताते हैं कि वैश्वीकरण ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी है. जाति
निरपेक्ष, धर्म निरपेक्ष और आर्थिक-सामजिक समतामूलक समाज बनाने का हमारा सपना टूट
रहा है. भ्रष्टाचार का बोलबाला है और आम आदमी परेशान हैं. पी.एन. सिंह इसी अग्रलेख
में लिखते हैं: “चारों ओर अराजकता एवं भ्रष्टाचार व्याप्त है और ये दोनों ही
गांधीवादी, लोहियावादी, मंडलवादी अथवा अम्बेडकरवादी राजनीति के मुद्दे नहीं हैं.
आम लोगों की इहलौकिक नियति से जुड़ा समाजवाद अवमूल्यित है तथा राष्ट्रीय एकता और
अखंडता की अनिवार्य शर्त ‘सेक्युलरिज्म’ अत्यंत विवादित. आज ‘सेक्युलर’
राजनीति जातिपरस्त है और राष्ट्रवादी साम्प्रदायपरस्त. इन दोनों में कोई गुणात्मक
अंतर नहीं दिखता. विचारधारा का स्थान जातिवाद अथवा क्षेत्रवाद ने और संस्कृति का
स्थान साम्प्रदायिकता ने ले लिया है. आरक्षण की साकारात्मक नीति भी आरक्षणवादी
राजनीति में विकृत होकर सत्ता हथियाने एवं सामजिक वर्चस्व स्थापित करने का उपकरण
बन गई है जिसके फलस्वरूप एक उल्टे किस्म का आक्रामक मनुवाद राजनीतिक एजेंडा है.
‘अगड़ों’, ‘पिछड़ों’, ‘दलितों’, ‘अल्पसंख्यकों’ आदि की राजनीति मूलतः ‘क्रीमीलेयर’
की राजनीति है जिसके चलते अंतिम निरीह व्यक्ति को उतने में ही छीना-झपटी कर
लहूलुहान होना है जितना इस ‘क्रीमीलेयर’ के टेबुल से जूठन के रूप में नीचे गिरता
है या उस पर छूट जाता है.”
ऊपर के उद्धरणों से साफ़ है कि पी.एन. सिंह अपने समय के गहरे
विश्लेषक हैं. वे असुविधाजनक सवालों से मुंह नहीं चुराते बल्कि अपनी राय दोटूक ढंग से रखते हैं. इधर के वर्षों में बुद्धिजीवियों में
असुविधाजनक सवालों से बचने और ‘पॉलिटकली करेक्ट’ होने की प्रवृत्ति खूब बढ़ी
है. वे अभिव्यक्ति के खतरे उठाने की बात खूब करते हैं लेकिन खतरे उठाते नहीं देखे
जाते. पी.एन. सिंह के लिखे अग्रलेख इस तरह के चतुर-चालाक बुद्धिजीवियों से उलट
असुविधाजनक सवालों से तो टकराते ही हैं, अभिव्यक्ति के खतरे भी उठाते हैं और ‘पॉलिटकली
करेक्ट’ होने की चिंता से भी पूरी तरह मुक्त होते हैं. भाजपाई राजनीति ने
मुसलमानों को अघोषित तरीके से राष्ट्रीय शत्रु घोषित कर रखा है तो मंडलवादी
राजनीति ने अगड़ों को. इस पर पी.एन. सिंह की दोटूक राय है कि, “सवर्ण अथवा मुसलमान
को राष्ट्रीय शत्रु घोषित करने वाली किसी भी राजनीतिक पहल को बंद गली में प्रविष्ट
कर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाना है”.
पी.एन. सिंह दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, हाशिए के समाज के
उत्थान के समर्थक हैं पर उत्तर-आधुनिकता के बहुत से अतिरेकों से वे बचते हैं.
कुलमिलाकर वे आधुनिकता के गर्भ से निकले मूल्यों के हिमायती दिखते हैं. उनके लिखे
पर नजर डालते हैं: “प्रबोधन युग अर्थात् औद्योगिक युग आधुनिकतावाद का विधायक सोच
का अग्रदूत और अलंबरदार था. वह ज्ञान, विज्ञान, तर्क, विवेक, प्रगति, विचारधारा
आदि की बात करता था, वह आगे देखू था. 19वीं सदी का हिंदुत्व भी कमोबेश उसका
उत्तराधिकारी था. लेकिन उद्योगोत्तर समाज अर्थात् तकनीकी क्रांति वाले समाज का
उत्तर-आधुनिकतावादी पीछे देखू है, भावात्मक विवेक की बात करता है और यह मानकर चलता
है कि व्यक्ति को तार्किक विवेक दिया ही नहीं जा सकता, वह भावना और अतर्क के पाश
में फंसे रहने के लिए अभिशप्त है.”
पी.एन. सिंह के चिंतन का क्षेत्र बहुत
व्यापक है. वे समता, स्वतंत्रता, आरक्षण, जाति, धर्म आदि के सवालों पर खुले मन और
प्रगतिशील दृष्टि से विचार करते हैं तो राहुल सांकृत्यायन, भगत सिंह, कॉडवेल और
पी.सी. जोशी के भी वैचारिक अवदानों का आकलन करते हैं. गौतम बुद्ध और प्रेमचंद यदि
एक साथ उनके लिए विचारणीय हैं तो दलित जागरण से पैदा हुए प्रश्नों पर उनकी नजर
है. कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो की वैचारिक
शक्ति और उत्तर औपनिवेशिक दौर में उसकी सीमाओं को रेखांकित करते हुए पी.एन. सिंह कहीं
अतिरेक का शिकार नहीं होते. हिंदी-उर्दू विवाद हो या हिंदी प्रदेशों का
आर्थिक-सामाजिक पिछड़ापन, राजनीति में नैतिकता के आग्रह का सवाल हो या एक
बुद्धिजीवी की समाज-निर्माण में भूमिका का सवाल- पी.एन. सिंह की गहन
विश्लेषण-क्षमता देखने लायक होती है. 1990 के
बाद के लगभग ढाई दशक के समाज, देश और देश से बाहर के हालात पर हिंदी का कोई
बुद्धिजीवी इतने व्यापक स्तर पर टिप्पणी करता रहा हो और अपनी टिप्पणी से झकझोरता
रहा हो, वह पी.एन. सिंह के अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं हो सकता. यही दौर है जब ‘हंस’
में लिखे राजेन्द्र यादव के अग्रलेख भी चर्चा में होते थे, लेकिन श्री यादव के
अग्रलेखों में दलित विमर्श और स्त्री विमर्श की प्रमुखता होती थी और विमर्शधर्मी
आरोप होते थे, वहीं पी.एन. सिंह के अग्रलेखों में वैचारिक खुलापन और दुराग्रहों से
मुक्ति दिखती थी. समाज को जागरुक बनाने वाली पी.एन. सिंह की यह बौद्धिक-वैचारिक
पहल हिंदी प्रदेश के उन बुद्धिजीवियों की कतार में उन्हें शामिल करती है जो राहुल
सांकृत्यायन, हजारी प्रसाद द्विवेदी, भगवतशरण उपाध्याय, रामविलास शर्मा आदि से
बनती है. 1990 के बाद लगभग पचीस वर्षों तक उन्होंने हिंदी के
वैचारिक माहौल को गर्माए रखने में अपने को होम कर दिया. वे हिंदी से बटोरने वाले
नहीं, उसे समृद्ध करने वाले हिंदी के सच्चे पब्लिक इंटेलेक्चुअल हैं.
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