Sunday, 31 January 2021

रेणु: कथा-शिल्प का नया नैरेटिव

‘मैला आँचल’ (1954) के प्रकाशन के कुछ महीनों बाद नलिन विलोचन शर्मा ने इस उपन्यास का महत्त्व पहचानते हुए ‘आलोचना’ पत्रिका में एक जोरदार समीक्षा लिखी – रेणु जी का ‘मैला आँचल’. उन्होंने लिखा: “यह ऐसा सौभाग्यशाली उपन्यास है,जो लेखक की प्रथम कृति होने पर भी उसे ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त करा दे कि वह चाहे तो फिर कुछ और न भी लिखे”.(नलिन विलोचन शर्मा: रचना- संचयन, पृष्ठ- 508) उस समीक्षा के बाद हिंदी संसार का ध्यान इस उपन्यास की ओर गया और इसकी धूम मच गई. अपनी समीक्षा का अंत करते हुए नलिन जी ने लिखा: “हिंदी उपन्यास-साहित्य में, यदि गत्यवरोध था, तो इस कृति से वह हट गया है.”

          नलिन जी ‘गोदान’ के बाद ही हिंदी उपन्यास साहित्य में यह गत्यवरोध देख रहे थे. ‘गोदान’ का प्रकाशन 1936 में हुआ था. जब वे गत्यवरोध की बात कर रहे थे, तो इसका आशय क्या था? नलिन जी की मान्यता थी कि प्रेमचंद ने “बिना किसी साहित्येतर सिद्धांत के आग्रह के, ‘गोदान’ जैसा महान समष्टिमूलक उपन्यास लिखा, जिसका मुख्य पात्र है तत्कालीन भारतीय जीवन.” इसके आगे उन्होंने लिखा: “... ‘मैला आँचल’ इसी प्रकार का, गोदान की परंपरा में, भारतीय भाषाओं का दूसरा उपन्यास है.” 1936 और 1954 के बीच जैनेन्द्र, अज्ञेय आदि लेखकों के उपन्यास आ चुके थे. वे ‘गोदान’ या प्रेमचंद की परंपरा के उपन्यास नहीं थे. अपने शिल्प और कथानक के जरिए उनके उपन्यासों ने प्रेमचंद से भिन्न ढंग के उपन्यास लिखे. उनकी पर्याप्त चर्चा भी हो चुकी थी. जैनेन्द्र उनके प्रिय कथाकारों में थे. लेकिन इन लेखकों के उपन्यासों का संबंध नागरिक जीवन से था. इसके बावजूद नलिन जी जब गत्यवरोध की बात कर रहे थे तब उनका आशय ग्राम आधारित उपन्यासों से था. इस बीच यशपाल के उपन्यास प्रकाशित हुए थे. लेकिन उनमें शिल्प की कोई नवीनता न थी. कुल मिलाकर उनका शिल्प प्रेमचंद का था और वे ‘साहित्येतर आग्रह’ से मुक्त न थे . भैरव प्रसाद गुप्त, नागार्जुन आदि के इस बीच उपन्यास आए थे. उनकी विषय-वस्तु गाँवों से उठाई गई थी. लेकिन कोई शिल्पगत ताजगी वहाँ भी नहीं थी. ‘मैला आँचल’ नई कथा-भाषा और नए शिल्प में जब प्रकाशित हुआ तो लगा कि प्रेमचंद से अलग का ग्राम आधारित कथा-संसार पाठक के सामने खुल रहा है. यह ऐसा उपन्यास था जिसे ‘गोदान’ के बाद भारतीय उपन्यास जैसी संज्ञा दी जा सकती है. वाकई ‘मैला आँचल’ ने उपन्यास साहित्य में आए गत्यवरोध को दूर कर दिया था.

          प्रेमचंद के कथा-शिल्प का बाद की पीढ़ी के कथाकारों पर जबर्दस्त प्रभाव था. रेणु के पूर्व यथार्थ को देखने का एक ऐसा ढर्रा विकसित हो गया था, जिससे हटना कुफ्र जैसा था. फणीश्वरनाथ रेणु ने ‘मैला आँचल’ के जरिए प्रेमचंद के कथा-शिल्प से हिंदी कथा साहित्य को एक झटके में पूरी तरह मुक्त कर दिया. जिस भाषा और शिल्प में वे गाँव को लेकर ‘मैला आँचल’ में उपस्थित हुए, वह प्रेमचंद के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त ग्रामीण यथार्थ और उसकी चित्रण शैली थी. रेणु ने यह साबित कर दिया कि यथार्थ चित्रण की कोई एक शैली नहीं होती. ‘मैला आँचल’ के बारे में रेणु ने स्वयं लिखा था: “इसमें फूल भी हैं, शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुन्दरता भी है, कुरूपता भी - मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया .” यह अपने कथा-संसार के बारे में रेणु की अपनी ही घोषणा थी. गाँव में गरीबी है, अशिक्षा है, अंधविश्वास है, जात-पात है, लेकिन उमंग-उल्लास भी है. लोक-लय और लोक-संगीत का रसमय संसार भी है, वहाँ जिंदगी की धड़कन का संगीत भी है जिसमें पूरा ग्रामीण परिवेश झूमता है. ‘तीसरी कसम’ का हिरामन अभाव ग्रस्त है, अशिक्षित है, लेकिन उसके भीतर जिंदगी की उमंग है. वह अनपढ़ चरित्र पढ़े-लिखे चरित्रों से अधिक मानवीय और सभ्य है. यह प्रेमचंद के गाँव से अलग तरह का गाँव है. प्रेमचंद के गाँव से यह अधिक मुकम्मल है. कुल मिलाकर यह कि रेणु के पास गाँव की एक पूरी तस्वीर है जिसे अनेक तरह के लोक रंगों में उन्होंने पेश किया है. इसे निर्मल वर्मा रेणु की ‘समग्र मानवीय दृष्टि’ कहते हैं.

प्रेमचंद भी गाँव में रहते हैं, लेकिन रेणु गाँव को जीते हैं. प्रेमचंद किसान नहीं थे, वे किसान जीवन को जानते थे. रेणु स्वयं किसान हैं, वे किसानी करते हैं. जिन उँगलियों से कलम पकड़कर वे अपनी कथा बुनते हैं, उन्हीं उँगलियों से वे धान के बीचड़े भी लगाते हैं. उनकी चिंताएँ सिर्फ एक बौद्धिक मध्यवर्गीय की नहीं हैं. उनकी चिंता में किसान जीवन की परेशानी भी शामिल है. वे कृषक जीवन की परेशानियों को स्वयं जीने वाले किसान हैं. नामवर सिंह को अपने गाँव ‘औराही हिंगना’ से लिखे एक पत्र में वे बारिश न होने और फसलों के सूखने पर अपनी ख़ुशी गायब होने की बात करते हैं. इसलिए उनका गाँव ज्यादा भरोसे का लगता है. प्रेमचंद कथा-भाषा रचते हैं, जो पात्रानुकूल जीवंत कथा-भाषा है. लेकिन रेणु जिंदगी से कथा-भाषा छाँटकर उठाते हैं.

प्रेमचंद के कथा-शिल्प से हिंदी कथा-साहित्य को पूरी तरह मुक्त कर नया ढंग विकसित करने का ऐतिहासिक काम रेणु ने किया. अपने कहानी संग्रह ‘ठुमरी’ की भूमिका में रेणु ने कहा कि इस संग्रह की कहानियाँ ‘ठुमरी धर्मा’ हैं. यह कहने के साथ उन्होंने यह भी कहा: “एक स्वर को लेकर, विभिन्न स्वरों से उसकी क्रमिक संगति दिखला-दिखलाकर ही किसी राग के रूप को प्रकाशित किया जाता है.” ‘ठुमरी’ की भूमिका को रेणु ने ‘स्वरलिपि’ कहा. ‘ठुमरी’ एक गायन शैली है जिसमें एक राग या अनेक रागों का मिश्रण होता है. ठुमरी में रागों का कोई बंधन नहीं होता. गायक को पूरी छूट रहती है. अपनी कहानियों को ‘ठुमरी धर्मा’ कहकर रेणु अपने कथा- शिल्प के बंधन मुक्त होने और लोकधर्मी खुलेपन की ओर संकेत करते हैं.लोक किन्हीं  नियमों से बंधा नहीं होता.उसमें नियमों से परे जाने की आजादी होती है. रेणु यथार्थवाद से भिन्न अपनी कहानियों को ‘ठुमरी धर्मा’ कहते हैं और कथा शिल्प का नया नैरेटिव बनाते हैं. नया नैरेटिव तब खड़ा होता है जब नये शिल्प के साथ नया यथार्थ रचा जाता है. नई कथा- भाषा, कहन की नई शैली, फूल और शूल से बिंधा सामाजिक यथार्थ, थोडा रूमानी अंदाज- यह सब प्रेमचंद की परंपरा का नये युग में प्रवेश था जो रेणु के हाथों घटित हो रहा था. भूमिका की पूरी शब्दावली को देखिए, वह संगीत की है. रेणु के कथा-साहित्य में जो सांगीतिकता, लोक-लय है, वह हिंदी कथा- परंपरा में बिल्कुल नई चीज है. इस लोक-लय के भीतर से रेणु के चरित्र और कथानक पैदा होते हैं.

हिंदी कथा साहित्य का यह नया नैरेटिव था जो रूमानी कलेवर के भीतर नये यथार्थ को व्यक्त कर रहा था. नामवर सिंह का एक कथन याद आ रहा है: “यथार्थवाद कोई शैली नहीं , बल्कि जीवन- दृष्टि है”. कहना यह है कि आँचलिकता भी कोई शैली नहीं, बल्कि नवीन जीवन- दृष्टि ही  है. इस नवीन जीवन-दृष्टि से संपन्न रेणु का साहित्य प्रेमचंद के बाद के समय की उपलब्धि है. उनके साहित्य के जरिए हमारे समाज का नया यथार्थ नये तरीके से व्यक्त हो रहा है.       

इस युगांतकारी नवीनता का स्वागत करने की जगह प्रगतिशील आलोचक रामविलास शर्मा को यह असफल कथा-प्रयोग लगा और उन्होंने ‘मैला आँचल’ को ‘गैर यथार्थवादी’ घोषित कर दिया. प्रेमचंद की परंपरा का यथार्थवाद की दृष्टि से महत्त्व स्थापित करते हुए उन्होंने ‘मैला आँचल’ को प्रेमचंद की परंपरा से दूर का उपन्यास घोषित करने में कोई संकोच न किया. उन्होंने लिखा है: “ ‘मैला आँचल’ में नई चीज है, लोक संस्कृति का वर्णन. लोकगीतों और लोक नृत्यों के वर्णन द्वारा लेखक ने एक अंचल-विशेष की संस्कृति का चित्र अंकित किया है. इसके साथ कथा कहने की उसकी नई पद्धति है. वह सिनेमा के चित्रों के समान बहुत-से शॉट इकट्ठे कर देता है, ये शॉट एक-दूसरे से कितने विच्छिन्न हैं, इसका ध्यान नहीं रखता, एक ही अध्याय में तीन-चार बार ‘कट’ लगाकर पाठक को चौंधिया देता है. नतीजा यह है कि चलचित्र में जो संबद्धता होती है, उसका यहाँ अभाव है. उसकी चित्रण-पद्धति यथार्थवाद से अधिक प्रकृतिवाद के निकट है. गतिशील यथार्थ में कौन-से तत्त्व अधिक प्रगतिशील हैं, कौन-से मरणशील, किन पर व्यंग्य करना चाहिए, किनका चित्रण सहानुभूति से करना चाहिए, वातावरण, घटनाओं आदि के चित्रण और वर्णन में कितनी बातें छोड़ देनी चाहिए और कितनी का उल्लेख होना चाहिए- कथा शिल्प की इन विशेषताओं में ‘मैला आँचल’ का लेखक प्रेमचंद की परंपरा से दूर जा चुका है.” (प्रेमचंद की परंपरा और आँचलिकता, आस्था और सौंदर्य, पृष्ठ-97) इस तरह रामविलास शर्मा  रेणु के कथा शिल्प को गैर यथार्थवादी  और प्रेमचंद की परंपरा से दूर का उपन्यास घोषित करते हैं.

प्रेमचंद की परंपरा का हिंदी आलोचना में इतना गैर रचनात्मक प्रयोग हिंदी पाठक के गले नहीं उतर सका. प्रेमचंद की परंपरा का इतना सरल-सपाट अर्थ हिंदी पाठक नहीं ले रहा था. रेणु के कथा-साहित्य का जादू उसके सिर चढ़कर बोलने लगा. हिंदी कथा-साहित्य में यह नए दौर की शुरुआत थी. इसी दौर के एक महत्त्वपूर्ण कथाकार शिवप्रसाद सिंह ने कहा था कि ‘प्रेमचंद हमारी मंजिल नहीं, पाथेय हैं’. इस कथन में प्रेमचंद से भिन्न कथा- मार्ग पर चलने का सचेत प्रयास दिखाई देता है. यह सही भी है कि जिन कथाकारों ने प्रेमचंद को पाथेय माना उन्होंने ही नए मिज़ाज की कृतियों से हिंदी को समृद्ध किया. यह काम ‘मैला आँचल’ के जरिए तो हुआ ही, ‘राग दरबारी’ (श्रीलाल शुक्ल), ‘आधा गाँव’ (राही मासूम रजा), ‘अलग-अलग वैतरणी’ (शिवप्रसाद सिंह) आदि नए कथा-शिल्प में आए उपन्यासों के जरिए भी हुआ. यह काम प्रेमचंद की परंपरा का कीर्तन करने वालों ने नहीं, उन्हें पाथेय मानकर अलग परंपरा की नींव रखनेवाले कथाकारों ने किया. ऐसे कथाकारों में पहला नाम फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का है, जिनके उपन्यास ‘मैला आँचल’ के जरिए हिंदी उपन्यास साहित्य में, यदि कोई गत्यवरोध था, तो दूर हो गया और नये कथा- शिल्प में नये यथार्थ का प्रवेश हुआ.

क्रांति और सृजन रेणु के कथाकार व्यक्तित्व के दो छोर हैं. औराही हिंगना की धरती और पटना का राजनीतिक परिवेश इन दो के बीच कथाकार रेणु को ऊर्जा मिलती है. रेणु सिर्फ लिखनेवाले नहीं, आंदोलनों में भाग लेने वाले और जेल जाने वाले क्रांतिकारी लेखक थे. 1942 की क्रांति से लेकर 1974 की जेपी की सम्पूर्ण क्रांति में उनकी सक्रिय हिस्सेदारी थी. उन्होंने अपने क्रांतिकारी चरित्र के जरिए साहित्यकार की सामाजिकता की नई दुनिया बनाई. यह समानांतर दुनिया प्रेमचंद की परंपरा की दुहाई देने वालों की परिभाषा का मोहताज नहीं थी. साहित्यिक रूप से ख़ूब यश अर्जित करने के बावजूद औराही हिंगना और वहाँ की जिंदगी से रेणु कभी दूर नहीं हुए और शोषण के खिलाफ़ लगातार संघर्ष करते रहे. अपनी निराशा व्यक्त करते हुए एक जगह उन्होंने लिखा है: “शोषण तो कभी बंद नहीं हुआ, बल्कि सारी विकृतियाँ दिन दूनी रात चौगुनी होकर समाज को ग्रसती गईं. जाहिर है कि मेरे पाठकों ने इनमें काल्पनिकता और कल्पनाओं का आनंद लिया और क्रमशः इन विकृतियों को जकड़ते गए. तो क्या हुआ यह सब लिख कर? मैं सोचता हूँ कि लिखने के बजाय अगर मैं किसी लड़के पर मोटी रकम तिलक में गिनाने वाले पड़ोसी के दरबाजे पर सत्याग्रह करने बैठ जाऊँ, अछूतों को सही जगह दिलाने के लिए कम से कम अपने गाँव में प्रयत्न करता या जाति-पाँति के विरुद्ध अनशन करता तो अच्छा था. एक हजार से ज्यादा पृष्ठ लिखने और उसकी भूरी-भूरी प्रशंसा और यश प्राप्त करने के बावजूद मुझे मिला यह सड़ा हुआ बिहार. सिर्फ कलम से ही नहीं, अपनी काया से भी लिखना जरूरी है.” अपनी काया और कलम से लड़ने वाले कथाकार रेणु की जो नई कथा भंगिमा है, उसे ‘प्रगतिशीलों’ ने भले महत्त्व न दिया हो, लेकिन भविष्य के कथाकारों के लिए रेणु-मार्ग उनका अपना हो गया.

जयप्रकाश नारायण और औराही हिंगना रेणु की राजनीतिक और साहित्यिक ऊर्जा के दो छोर हैं. वे अपने गाँव से भी ऊर्जा लेते हैं और जेपी की समाजवादी सोच और उनकी क्रांति से भी. रेणु की कथा-दृष्टि को ‘समग्र मानवीय दृष्टि’ कहनेवाले निर्मल वर्मा ने लिखा है: “...दोनों के भीतर एक रिश्ता है, जिसके एक छोर पर ‘मैला आँचल’ है, तो दूसरे छोर पर जयप्रकाश जी की सम्पूर्ण क्रांति. दोनों अलग-अलग नहीं हैं- वे एक ही स्वप्न, एक लालसा, एक ‘विजन’ के दो पहलू हैं. एक-दूसरे पर टिके हैं. कलात्मक ‘विजन’ और क्रांति दोनों की पवित्रता उनकी समग्र दृष्टि में निहित है, सम्पूर्णता की माँग करती है- एक ऐसी सम्पूर्णता जो समझौता नहीं करती, भटकती नहीं, सत्ता के टुकड़ों पर या कोरे सिद्धांतों की आड़ में अपने को दूषित नहीं करती. वह एक ऐसा मूल्य है जो खुली हवा में साँस लेता है और इसलिए अंतिम रूप से पवित्र और सुन्दर और स्वतंत्र है.”

रेणु जन और जन- संघर्षों से सिर्फ सहानुभूति रखनेवाले लेखक नहीं थे. वे अपादमस्तक जन संघर्षों में डूबे हुए लेखक थे. 1970 के दशक में जब बिहार के गाँव में नक्सलवाद ने पैर पसारा और भूमिहीन किसानों का हिंसक संघर्ष भूमिपतियों के ख़िलाफ बढ़ने लगा तो जयप्रकाश नारायण ने नक्सलवाद की समस्या को समझने और भूमिहीन किसानों की दशा को जानने का एक सिलसिला शुरू किया. वे मुजफ्फरपुर के मुसहरी अंचल में गए और वहाँ अपने साथियों के साथ कैम्प करते हुए अपने साहित्यिक साथी फणीश्वरनाथ रेणु को भी इस अभियान में शामिल होने का आह्वान किया. 5 दिसंबर 1970 को जेपी ने रेणु जी को एक पत्र लिखा: “...गाँव की कठोर वास्तविकताओं को निकट से देखने का यहाँ अवसर मिला है. 23 वर्षों के स्वराज्य के बावजूद भारत माता का ‘आँचल’ सचमुच कितना ‘मैला’ है! इसमें नक्सलवाद नहीं तो और क्या पलेगा? मैं चाहता हूँ कि आप जैसे समर्थ साहित्यकार इन वास्तविकताओं को आकर देखें और उनकी तस्वीर साहित्य में उतारें. ‘मैला आँचल’ लिखकर आपने साहित्य-लेखन या उपन्यास-लेखन की जो परंपरा शुरू की थी, वह समाप्त हो गई-सी लगती है. आज की पृष्ठभूमि में उसे पुनर्जीवित कर आगे बढ़ाने की जरूरत है. यह तो जाहिर है कि इस देश में भावी क्रांति का क्षेत्र गाँव ही होगा, और नव निर्माण का आरंभ भी वहीं से होगा. अतः क्रांतिकारी नव साहित्य का सृजन गाँव में बैठकर ही किया जा सकता है.” (माटी के गौरव रेणु, संपादक- भारत यायावर एवं अन्य, पृष्ठ-330)

क्रांति और साहित्य तथा गाँव की सचाई और राजनीति की सचाई से यह जीवंत रिश्ता कथाकार रेणु का है. 12 अगस्त 1974 को पूर्णिया डिस्टिक जेल से रेणु ने जेपी को लम्बा पत्र लिखा जिससे उनके आंदोलन धर्मी चरित्र का पता चलता है. पत्र का एक अंश है: “मैं पिछली 7 जुलाई से गाँव पर था और आंदोलन के पहले चरण की तैयारी कर रहा था. 1 अगस्त को सामूहिक उपवास के बाद शाम को फारबिसगंज जन-संघर्ष समिति के अध्यक्ष श्री दयानंद साहु की अध्यक्षता में सभा हुई, जिसके माध्यम से आंदोलन के सन्देश और संकल्प को दुहराया गया. इसी बीच सारे इलाके में अभूतपूर्व बाढ़ आ गई. इस प्राकृतिक प्रकोप से पीड़ितों को राहत दिलाने के उद्देश्य से, लायंस क्लब, फारबिसगंज के सहयोग से करीब 50 हजार रुपये इकट्ठे किए गए. यह योजना बनी कि छात्र एवं जन-संघर्ष समिति के सदस्य संघर्ष के साथ-साथ राहत का भी कार्य करें. इस सिलसिले में मैं स्वयं छात्रों की एक टोली के साथ नरपत गंज, फारबिसगंज के संकट ग्रस्त क्षेत्र को देख आया, और किस प्रकार राहत का कार्य किया जाए, इस संबंध में बैठकर फैसला किया...” (रेणु रचनावली-5, पृष्ठ-525-26)

इस आंदोलन धर्मी लेखक के दृष्टिकोण पर टिप्पणी करते हुए रामविलास शर्मा ने कहा है: “... कहना पड़ेगा कि जनता और उसके राजनीतिक कार्यवाही में उसकी आस्था नहीं है. उसे लोक संस्कृति प्रिय है किन्तु इस संस्कृति के रचने वालों में उसे कहीं प्रकाश की किरणें नहीं दिखाई देतीं. उसे आँचल की मिट्टी से प्रेम है. किन्तु उस मिट्टी में मरने-खपने वाले उसे पशु से भी सीधे और पशु से भी ज्यादा खूंखार दिखाई देते हैं.” (आस्था और सौंदर्य, पृष्ठ-100) क्या यह रेणु और उनके उपन्यासों के साथ आलोचक का न्याय है? निश्चित रूप से नहीं. रामविलास जी आँचलिकता को ही खारिज करते हैं और उसे यथार्थवादी नहीं मानते. उन्होंने लिखा है: “आँचलिकता के नाम पर जो कुछ लिखा जाए, वह सभी सच नहीं होता. जनता के अंधविश्वासों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया है, जमींदार के अत्याचारों को कम करके पेश किया गया है, राजनीतिक पार्टियों के दोषों को अतिरंजित और भूलों को नजरअंदाज किया गया है.” (वही, पृष्ठ-101) इसी तरह विश्वनाथ त्रिपाठी ने ‘तीसरी कसम’ कहानी पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि रेणु के यहाँ ‘दृष्टि या विचार लुप्त है’. त्रिपाठी जी को रेणु का गद्य विचारहीन लगता है. उन्हें रेणु के गद्य में विचारात्मकता नहीं दिखाई देती. (कुछ कहानियाँ: कुछ विचार, पृष्ठ-54-55)

रेणु की जो जीवन-दृष्टि है और उनके कथा संसार का जो यथार्थ है, उसे यथार्थवाद की रूढ़ समझ के जरिए नहीं समझा जा सकता. निर्मल वर्मा ने रेणु के साहित्य को ‘तनाव और उल्लास’ के बीच का साहित्य कहा है. जो जीवन में सिर्फ संघर्ष देखते हैं, या जो जीवन में सिर्फ सौंदर्य खोजते हैं, रेणु का साहित्य उनके लिए एक चुनौती है. उनके साहित्य में तनाव और उल्लास का जो द्वंद्व है उसे समझे बिना रेणु को ठीक-ठीक नहीं समझा जा सकता. गाँव की गरीबी, रानजीतिक दलों की अवसरवादिता, लोगों के स्वार्थ आदि बातें दूसरे कथाकारों के यहाँ भी हैं और रेणु के यहाँ भी. लेकिन जो चीज रेणु को विशिष्ट बनाती है वह कुछ और है. ‘परती परिकथा’ पर टिप्पणी करते हुए निर्मल वर्मा ने जो बात की है, वह उनके सम्पूर्ण साहित्य के लिए सच है. निर्मल के कथन का एक अंश है: “किन्तु इस कलह-क्लेश के बावजूद परानपुर में पूर्णिमा का चाँद उगता है. लाजमयी और मलारी का गीत-स्वर परती की सफ़ेद बालू पर पंख फड़फड़ाता हुआ उड़ता है. पाँचों कुंडों में पाँच चाँद रात भर झिलमिलाते हैं, शरद की चाँदनी में पहाड़ से उतरनेवाले पक्षियों की पहली पाँत उतरती है.... चाँदनी की यह स्वप्निल संगीतमयता ‘परिकथा’ में आद्योपांत छाई रहती है. तनाव और उल्लास रेणु के कथा साहित्य के ये दो किनारे हैं. इस तनाव और उल्लास के बीच परानपुर के निवासियों की जीवन-धारा अविरल रूप में प्रवहमान है.”

तनाव जीवन की जद्दोजहद का है और उल्लास लोक-लय का. लोक और संगीत के बिना रेणु के साहित्य के वैशिष्ट्य को नहीं समझा जा सकता. लोक गीतों के बारे में रेणु ने लिखा है: “मैं लोक गीतों की गोद में पला. इसीलिए हर मौसम में मेरे मन के कोने में उस ऋतु के लोक गीत गूँजते रहते हैं. मैं कहीं भी हूँ- इन लोक गीतों की स्मृति-ध्वनियाँ मुझे अपने गाँव में- कुछ क्षण के लिए पहुँचा देती हैं.” किस मौसम में, किस समय में, कौन-सा गीत गाया जाता है, यह रेणु को पता है. उन्हें पता है कि किस गीत में ‘फागुन की मस्ती की हल्की खुमारी और चैती की मीठी-मीठी उदासी मिली-जुली रहती है’. वे अपनी उसी टिप्पणी में लिखते हैं: “अगहन शुरू होते ही पके हुए धन-खेतों की अगहनी सुगंध के लिए मन मचलता है. अलाव तापते हुए- खलिहान में दौनी को आए हुए लोगों से बातें करने की बड़ी इच्छा होती है.” (रेणु रचनावली-5, पृष्ठ-476)

अज्ञेय रेणु के प्रिय लेखक थे और ‘शेखर एक जीवनी’ उनका एक प्रिय उपन्यास. 1943 में भागलपुर जेल में 1942 की क्रांति के सिपाही के रूप में कैदी जीवन बिताते हुए रेणु ने यह उपन्यास पढ़ा. शेखर का क्रांतिकारी चरित्र रेणु को इतना पसंद आया कि वे जीवन भर के लिए अज्ञेय के साथ हो लिए. अज्ञेय का सुंदर व्यक्तित्व, उनका क्रांतिकारी अतीत, लेखन के साथ उनकी सामाजिकता और उनके साहित्य से गहरा जुड़ाव रेणु को जीवन भर बना रहा. राजनीति में जेपी और साहित्य में अज्ञेय उनके दो अग्रज साथी रहे जिनसे संबंधों को समझे बिना रेणु के साहित्य को भी नहीं समझा जा सकता.

रेणु का जनपद मिथिलांचल है. प्रेम और सौंदर्य के कवि विद्यापति का भी यही क्षेत्र हैं. ‘नित नित नूतन’ होने वाले ‘अपरूप’ रूप के खोजी कवि हैं विद्यापति. इस ‘अपरूप’ को खोज लाने का कथा-प्रयत्न रेणु के यहाँ भी है. लेकिन एक फर्क के साथ. रेणु निम्नवर्गीय जीवन और पात्रों में इस ‘अपरूप’ को रेखांकित करते हैं. ‘रसप्रिया’ कहानी का एक वाक्य है: “चरवाहा मोहना छोड़ा को देखते ही पंचकौड़ी मिरदंगिया के मुँह से निकल पड़ा- ‘अपरूप रूप!’ यही बात इस कहानी में दूसरे ढंग से भी कही गई है: धूल में पड़े पत्थर को देखकर जौहरी की आँखों में एक नई झलक झिलमिला गई- ‘अपरूप रूप’! उनका कथा-साहित्य ‘अपरूप रूप’ के ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है. इस नये सौंदर्य बोध के कारण ही रेणु प्रेमचंद के बाद हिंदी कथा-साहित्य में वह मुकाम हासिल करते हैं जो दूसरे नहीं कर पाते.

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गोपेश्वर सिंह

हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-07

Email: gopeshwar1955@gmail.com

मो. 8826723389


Friday, 15 January 2021

सृजनात्मक आलोचना के पक्ष में

 आशोक वाजपेयी मूलतः कवि हैं. उनकी कविताएँ अपने समकालीनों में अलग तरह की  हैं- ख़ासकर अपनी  विषय-वस्तु में. इसके अतिरिक्त उन्होंने कविता और कवियों पर बड़ी संख्या में लेख और टिप्पणियाँ लिखी हैं. उनके कारण हिंदी में बहस और विवाद का माहौल बना रहा है . कहा जा सकता है कि नामवर सिंह के बाद अपने वक्तव्यों और लेखों के लिए विवादों के केंद्र में रहनेवाले अशोक पहले व्यक्ति हैं. अपने आयोजनों के जरिए जहाँ उन्होंने साहित्य के अलक्षित पक्षों की ओर हिंदी समाज का ध्यान खींचा है, वहीं प्रगतिशील- जनवादी खेमे के सामने बहस की नई चुनौतियाँ भी उछाली हैं.अज्ञेय के बाद प्रगतिशील-जनवादी मंचों की ओर से सबसे अधिक हमले अशोक वाजपेयी पर हुए हैं. हालाँकि उनसे संवाद करने में उन्होंने कभी कोताही नहीं की. हिंदी समाज में गैर कम्युनिस्ट प्रगतिशीलता के खाली स्पेस को भरने में उन्होंने अज्ञेय, साही आदि के बाद सक्रिय भूमिका निभाई . साम्प्रदायिकता विरोधी अपने सक्रिय अभियान के कारण सत्ता को असहज करने वाले आज की तारीख़ में वे हिंदी के सबसे बड़े कवि-लेखक हैं. भारत के ‘पब्लिक इंटेलेक्चुअल’ के रूप में हिंदी समाज की ओर से बोलनेवाले कवि-लेखकों में उनकी आवाज सबसे ऊँची है.

           साहित्य के अलावा कला, संगीत आदि पर लिखनेवाले अशोक वाजपेयी हिंदी के ऐसे कवि-आलोचक हैं, जिनसे तुलना के लिए दूसरा नाम ढूंढने के लिए देर तक सोचना पड़ता है. हिंदी लेखकों में कला और संगीत की बारीक समझ के साथ लिखने- बोलनेवाले बहुत कम लोग हैं. अशोक वाजपेयी अधिकारपूर्वक न सिर्फ इन विषयों पर लिखते हैं, बोलते हैं; बल्कि इन विधाओं से जुड़े हुए अपने आयोजनों के जरिए हिंदी की एक रस हो रही अभिरुचि को नित नवीन बनाने में तत्पर रहते हैं. वे साहित्य को विचारधारा का उपनिवेश बनाए जाने के विरूद्ध सतत संघर्षशील रहे हैं और इस बात पर जोर देते रहे हैं कि साहित्य की स्वायतता बनी रहे. उन्होंने इसके लिए लगातार बहस की है और प्रचुर मात्रा में लेखन कार्य किया है. इन कारणों से प्रगतिशील- जनवादी जमात में वे ‘कलावादी’, ‘रूपवादी’ और ‘अभिजनवादी’ लेखक भी कहे जाते रहे हैं. उन पर जो हमले हुए उसका एक कारण उनका भारतीय प्रशासनिक सेवा में होना भी रहा है.लेकिन इस सेवा में रहते हुए उन्होंने कवियों- लेखकों की देख- रेख का जो दायित्य निभाया है, वह अनुपम है. इस काम में दक्षिण और वाम का कभी उन्होंने ध्यान नहीं रखा. विचारधारात्मक बाड़ेबंदी से अलग हिंदी के अच्छे कवियों-लेखकों को पसंद करने, उनकी चिंता करने का काम उनका ऐसा पक्ष रहा है जो उन्हें एक ऊँचे दर्जे के साहित्य -पारखी का स्थान देता है. ‘पूर्वग्रह’ जैसी बहसधर्मी और सृजनधर्मी पत्रिका निकालना और उसे खुले मंच के रूप में प्रतिष्ठित करना उनके लोकतांत्रिक मिज़ाज का उदाहरण है. एक समय में भोपाल को कला और साहित्य के सबसे सक्रिय केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय उन्हें जाता है. नई प्रतिभाओं को पहचानने और उन्हें मंच देने में अशोक वाजपेयी की अग्रणी भूमिका रही है. इन सब कारणों से अशोक वाजपेयी कवि-लेखक के साथ हमारे समय के एक बड़े साहित्यिक नेता के रूप में दिखाई पड़ते हैं.

          काव्य- रचना के साथ कविता और कवियों पर अशोक वाजपेयी ने जिस मात्रा में और जितनी तल्लीनता के साथ लिखा है, वह उन्हें बड़े आलोचक और काव्य- चिंतक के रूप में प्रतिष्ठित करता है. कवियों और कविता पर लिखी हुई उनकी लगभग दर्जन भर पुस्तकों से गुजरने के बाद उनके काम का महत्त्व समझ में आता है. इस रूप में वे सहज ही अज्ञेय, मुक्तिबोध, साही आदि से तुलनीय हैं. उनके समकालीन या बाद के किसी कवि ने शायद ही इतनी मात्रा में गद्य- लेखन किया हो. उन्होंने अपने आलोचनात्मक लेखन से साहित्य संबंधी चिंतन में नया जोड़ा है और कुछ नई अवधारणाएं  दी हैं . उनकी स्थापनाओं और निष्पत्तियों से किसी का मतभेद हो सकता है, लेकिन उनकी चिंताओं की अनदेखी कोई नहीं कर सकता. अपने आलोचनात्मक लेखन से अशोक वाजपेयी ने हिंदी की जड़ होती हुई और सुप्त पड़ती हुई मनीषा को बार-बार झकझोरा है और बहस करने के लिए आमंत्रित किया है. ‘फ़िलहाल’, ‘कुछ पूर्वग्रह’, ‘कविता का गल्प’, ‘तीसरा साक्ष्य’, ‘समय के सामने ’, ‘ कुछ खोजते हुए’ ‘पाव भर जीरे में ब्रह्मभोज’, ‘सीढियाँ शुरू हो गई हैं,’ ‘कभी- कभार’, ‘कविता के तीन दरवाजे’  आदि लगभग एक दर्जन से ऊपर उनकी पुस्तकों से गुजरने के बाद कोई भी व्यक्ति अशोक  से बहस का आमंत्रण ठुकरा नहीं सकता. वह उस बहस में शामिल होकर हिंदी समाज और साहित्य की दो-चार सार्थक और बहस तलब अवधारणाएं तो ले ही सकता है.

          अपने प्रथम काव्य संग्रह ‘शहर अब भी संभावना है’ (1968) के लिए अशोक वाजपेयी को जितनी ख्याति मिली,उतनी ही प्रशंसा उनकी पहली आलोचना पुस्तक ‘फ़िलहाल’ (1970) की हुई. अपने आलोचनात्मक लेखों के इस संग्रह के जरिए अशोक वाजपेयी ने हिंदी कविता संबंधी अपने समय की बहस के सामने कुछ नए प्रश्न नए रूप में रखें. जाहिर है कि हिंदी संसार का ध्यान युवा लेखक के उस आलोचनात्मक प्रयत्न की ओर गया. ध्यान रहे कि यह वह समय था, जब साही, नामवर सिंह, रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, रामस्वरूप चतुर्वेदी आदि वरिष्ठ कवि- आलोचक  कविता संबंधी अपने लेखन से हिंदी के माहौल को जीवंत बनाए हुए थे. यह वह समय था जब  वरिष्ठ कवि और आलोचक के रूप में अज्ञेय और रामविलास शर्मा की उपस्थिति बनी हुई थी और उनकी रचनात्मक सक्रियता दिखाई पड़ रही थी. ऐसे समय में एक युवा कवि का बहुत ही साहस भरे अंदाज में अपनी आलोचना- पुस्तक लेकर आना और अपनी सार्थकता सिद्ध करना बड़ी बात थी. उस समय के किसी युवा आलोचक की किसी क़िताब का नाम आज याद भी नहीं आता है, लेकिन ‘फ़िलहाल’ का महत्त्व आज भी अपनी जगह है. साहित्य की दुनिया में रचनात्मक रूप से सक्रिय युवाओं के लिए पिछले दसकों में ‘फ़िलहाल’ एक ऐसी आलोचनात्मक कृति रही है जिसमें उन्हें अपना अक्स दिखाई देता है.

          अशोक वाजपेयी आलोचक के रूप में सामाजिक यथार्थ के आधार पर साहित्य के मूल्यांकन के तौर-तरीकों के कभी समर्थक नहीं रहे. यथार्थवाद जैसी साहित्यिक प्रतिमानों से उनकी दूरी बनी रही. इसके विपरीत ‘सामाजिक यथार्थ से सीधे जुड़े’ साहित्य की तरफदारी उन्होंने कभी नहीं की. वे रचना को सामाजिक यथार्थ का उपजीव्य बनाए जाने का सतत विरोध करते रहे. आलोचना की भूमिका को रेखांकित करते हुए अशोक जी ने लिखा है: “आलोचना सिर्फ रचना का नहीं, उसके माध्यम से मनुष्य का ही साक्षात्कार है. और अगर रचना सामाजिक यथार्थ को अपना उपजीव्य बताती है तो उसकी प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और वस्तुपरकता की जाँच किए बिना यह साक्षात्कार सार्थक, बल्कि पूरा भी नहीं हो सकता. हमारी समूची संस्कृति के स्वास्थ्य  के लिए यह अनिवार्य है कि आलोचना रचना में सामाजिक यथार्थ को लेकर व्याप्त सरलीकरणों, रूमानियत और राजनैतिक भोलेपन और नैतिक संवेदन हीनता के विरूद्ध लगातार संघर्ष करे ताकि साहित्य में व्यक्त अनुभव, आकलन और समझ  राजनीति, विज्ञान, पत्रकारिता, अर्थशास्त्र जैसे अनुशासनों के मुकाबले अवयस्क या अविश्वसनीय न माने जाएँ जैसा कि इन दिनों अक्सर माना जा रहा है.” इसी के साथ अशोक जी यह मानते हैं कि सामाजिक यथार्थ से अधिक जुड़ाव के बावजूद समाज में साहित्य का स्थान हाशिए पर का हो गया है, समाज को साहित्य की बहुत चिंता नहीं है. इसलिए उनकी नजर में आलोचना की जरूरत है. वे कहते हैं: “आलोचना की एक बुनियादी चिंता साहित्य को अन्य अनुशासनों के समकक्ष उसका केन्द्रीय स्थान वापस दिलाने की है और एक ऐसा माहौल और दवाब बनाए रखने की है जिसमें समकालीन रचना आज की हालत की उत्कट, वयस्क, समावेशी और वस्तुनिष्ठ पहचान बनें और बनी रह सके” (आलोचना की ज़रूरत, कुछ पूर्वग्रह-57-58).

          अपनी आलोचना पुस्तक ‘फिलहाल’ के जरिए अशोक वाजपेयी ने आलोचक के रूप में अपनी जो पहचान बनाई उसका मुख्य कारण था कविता के क्षेत्र में समकालीन रचनाशीलता से बातचीत. अपने समय की रचनाशीलता को जितने स्पष्ट और बेवाक ढ़ंग से समझने और उस पर कुछ कहने का जैसा सृजनात्मक साहस उनमें दिखाई देता है, वैसा शायद ही उस समय कहीं मिले. उनका कहना है कि नई कविता के साथ नया काव्यशास्त्र विकसित हुआ, वह पाठक को रस विभोर या आनंदित करने वाली कविता नहीं हैं. उसका ज्यादातर उद्देश्य पाठक को इस तरह विचलित करना है कि वह समकालीन सचाई को देख सके- “नई कविता विचलित करनेवाली अंतर्दृष्टि की कविता है. आदर्श स्थिति में वह हमारे समय में मनुष्य की हालत के हमारे अहसास और समझ को आगे बढ़ाती, मूर्त और गहरा करती है.” (फ़िलहाल-166) इसके विपरीत 60 के बाद के वर्षों में युवा कवियों में जो उग्रता दिखाई देती है, उससे काव्य भाषा में ‘पौरुष भरा खुरदुरापन और अक्खड़ता’ के साथ ‘प्रच्छन्न रूमानियत और कामचलाऊ-सी साहसिकता’ आयी है और अस्पष्टता बढ़ी है . इस वजह से कवियों की अपनी पहचान गायब हो रही है और काव्य भाषा में एक किस्म की नामहीनता उभर रही है. यह सब कहने के बाद अशोक वाजपेयी ने लिखा : “शायद कमलेश, धूमिल, श्रीराम वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, ऋतुराज आदि युवा कवियों का एक महत्त्व इस बात में ही होगा कि इस नामहीनता के विरुद्ध उन्होंने भाषा को पहचान और प्रासंगिकता देने की, भाषा को अपने नाम देने की, कोशिश की है.” (वही) कहने की ज़रूरत नहीं कि अपने समय की रचनाशीलता के वैशिष्ट्य को उसकी सीमाओं और संभावनाशील रचनाशीलता को युवा अशोक वाजपेयी कितनी बारीक नज़र से और कितने सही ढ़ंग से देख रहे थे. कहा जा सकता है कि साठोत्तरी कविता, जिसे अशोक युवा कविता कहते हैं, को समझने की सबसे बढ़िया आलोचना- पुस्तक ‘फ़िलहाल’ है जिसकी ताज़गी और बेबाक शैली आज भी साहित्य के विद्यार्थी को अच्छी लगती है.

           अज्ञेय के प्रशंसक हैं अशोक वाजपेयी. लेकिन अपने समय में उनकी कवि- प्रतिभा की सीमा को खोजना और उनकी चुकती हुई प्रतिभा पर टिप्पणी करना एक युवा आलोचक के साहस का प्रमाण है. अपने बहुचर्चित निबंध ‘बूढा गिद्ध क्यों पंख फैलाए’ में अज्ञेय के ‘कितनी नावों में कितनी बार’ काव्य- संग्रह के मुहावरे को ‘उत्सवधर्मी’ कहते हुए अशोक वाजपेयी ने लिखा है: “भाषा पारंपरिक बिम्बों और क्लासिकल मुद्राओं के सहारे गुँथी गई है. काव्य संसार मिथिकल-सा है लेकिन न तो उसमें मिथकों की तात्कालिक उद्दामता है और नहीं उसकी सघन मानवीयता. बल्कि वह एक ऐसा संसार है जिसमें मानवीय उपस्थिति क्षीण है...दरअसल अज्ञेय की दुनिया नाटकहीन और हवाई-सी हो गई है. इसका सीधा उदाहरण उनके बिम्ब हैं: वे ज्यादातर पारंपरिक और अविशिष्ट सामान्य हैं. उनमें न तो निजता है और न ही ठोसपन. बल्कि इस दृष्टि से सारे संग्रह में किसी तरह की ताजगी का और, इसलिए, सारी क्लासिकल मुद्राओं के बावजूद, भाषा में किसी रचनात्मक उत्तेजना का नितांत अभाव है.” (फ़िलहाल-84) अज्ञेय के कवि व्यक्तित्व में ‘अकेलेपन का वैभव’ देखने वाले अशोक वाजपेयी की यह टिप्पणी आज किसी को भी चकित कर सकती है, लेकिन सच यही है कि बिना लागलपेट के तब यही कहा था.   

                हिंदी में यह आप धारणा बनी हुई है जो प्रगतिशील- जनवादी जमात की ओर से बनायी है कि अशोक वाजपेयी विचार से परहेज़ करने वाले कवि हैं. सचाई क्या है? अशोक यह नहीं मानते कि ‘किसी महान विचार से महान कविता’ पैदा होती है. विचार से यहाँ उनका तात्पर्य ‘विचार- प्रणाली’ से है. आगे वे कहते हैं: “ शायद बिना विचारों और विचारशीलता के कोई कविता महान नहीं हो सकती.” लेकिन वे ‘विचार’ को किसी ‘विचार- प्रणाली’ से जोड़े जाने के ख़िलाफ़ हैं. उनका कहना है कि ‘कविता में विचारों का आत्यंतिक महत्त्व नहीं है’. लेकिन इसी के साथ वे यह भी जोड़ते हैं : “ ... बिना विचारों के , बिना किन्हीं विचारों में जड़ जमाए, कविता निरी ऐंद्रिक फुरफुरी या तुच्छ खिलवाड़ – भर रह सकती है. विचारहीन कविता कभी भी मनुष्य की हालत की कोई सार्थक पहचान या कोई समझ उत्तेजित नहीं कर सकती.”(विचारों की विदाई, फ़िलहाल,131-32) संक्षेप में यह कि कविता के लिए विचार ज़रूरी है,कोई विचार- प्रणाली नहीं. यह कहने के साथ अशोक वाजपेयी ने  ‘अकविता’ को विचारहीन कविता कहा: “...युवा लेखन का एक बड़ा अंश ऐसा है जिसे विचारहीन लेखन कहा जा सकता है. निश्चय ही एक ऐसा भाग भी है जो विचारहीनता की इस नई दकियानूसी से अलग है और ऐसे भी कई लेखक हैं जिनमें किसी हद तक दोनों प्रवृतियाँ देखी जा सकती हैं. लेकिन पूरे दृश्य पर अधिक आतंक विचारहीन लेखन का है और वह सबसे मुखर है”.(वही)

                  अशोक वाजपेयी मुख्य रूप से  समकालीन कविता के आलोचक हैं. नयी कविता से लेकर पिछली सदी के आठवें दशक तक की कविता में उनकी गहरी पैठ है. उन्होंने आलोचना लिखने का काम नयी काव्य- कृतिओं की समीक्षा लिखकर  शुरू किया. वे किसी आलोचक के लिए समकालीनता का बोध आवश्यक मानते हैं. लेकिन साहित्य के ‘कुछ स्थायी प्रश्नों’ का ज्ञान भी आलोचना के लिए ज़रूरी समझते हैं. उनका कहना है: ”... कोई भी आलोचना सिर्फ समकालीन कृतियों या लेखकों तक सीमित रहकर अंततः बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकती. हमेशा आलोचना का काम ऐसी वैचारिक संस्कृति को खोजना और बनाना है जिसमें साहित्य और साहित्य को प्रभावित करनेवाले सभी मानव- व्यापार ठीक से समझे और रखे- परखे जा सकें”( आठवें दशक की आलोचना, कुछ पूर्वग्रह-163). यह काम आलोचना में यदि नहीं हो रहा है तो इसका कारण अशोक की नज़र में यह है कि बहस करने वाले और प्रश्न उठाने वाले लोग कम हो गए हैं. आलोचक यह करने की जगह ‘फ़ैसला’ देने लगे हैं; जब कि आलोचक को प्रश्न उठाना चाहिए. फ़ैसला  देने वाली प्रवृत्ति ने ‘आलोचना को अवमूल्यित कर अभिमत बना दिया’ है. इसी के साथ वे यह भी कहते हैं कि वैचारिक संस्कृति में विचारों का जो ‘गहरा और सार्थक टकराव’ होना चाहिए , वह नहीं है. वैचारिक बहस की दृष्टि से नयी कविता का दौर अशोक वाजपेयी को अधिक सार्थक लगता है , जो सही भी है.

              इन सब कारणों से मत- भिन्नता के बावजूद अशोक वाजपेयी को नामवर सिंह की आलोचना अच्छी लगती है. नामवर सिंह मार्क्सवादी थे. इसके बावजूद अशोक को उनकी आलोचना पसंद आती है तो इसका कारण शुद्ध साहित्यिक है. अशोक लिखते हैं: “यह नहीं है कि नामवर सिंह साहित्य में अंतर्निहित विचारधारा या राजनीति को नजरंदाज करते हैं. 20वीं सदी में साहित्य और जीवन में हुई जद्दोजहद के बाद ऐसा करना बहुत अबोध कर्म होगा. लेकिन यह उनकी केन्द्रीय चिंता नहीं है. वे साहित्य को निरी विचारधारा या विचार-निरपेक्ष संरचना में रिड्यूस कर उसे आंकने के प्रलोभन से बराबर बच सके हैं.....”  मार्क्सवादी आलोचक नामवर सिंह की आलोचना में जो नयापन है वह अशोक वाजपेयी को प्रिय है. मार्क्सवाद के नाम पर हिंदी आलोचना में जो एक-सा पन है उसकी जगह नामवर सिंह की आलोचना में अशोक को ताजगी दिखती है. उस अंतर को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है: “आज बहुत-सी आलोचना जो ऐतिहासिक तर्क का सहारा लेती है, अपने व्यवहार में अनैतिहासिक है; वह नितांत समसामयिकता से इतनी ग्रस्त है कि उसे पन्द्रह-बीस वर्षों पहले के साहित्य से भी कोई मतलब नहीं रह गया है. अलंकरण या शोभा के लिए वह भले किसी प्राचीन का उल्लेख करे पर उसकी दृष्टि समकालीनों को अपनी और गैरों की सूची बाँटने तक ही महदूद है. नामवर सिंह ने यह खेल, जो उन्हें निश्चय ही लोकप्रिय बना सकता है, खेलने से साफ़ इंकार किया है. न केवल उन्होंने हजारी प्रसाद द्विवेदी या प्रेमचंद पर बिल्कुल नए ढंग से सार्थक विचार किया है, बल्कि यह हिम्मत भी दिखाई है कि रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा या निर्मल वर्मा जैसे लेखकों के साहित्य के महत्त्व को गंभीरता और जिम्मेदारी से स्वीकार किया और समझा जाए, भले ही उनकी विचारधारा से वे बिल्कुल असहमत हैं. यह रूचि और दृष्टि का अंतर्विरोध नहीं है. यह प्रगतिशीलता में रूपवादी रुझान भी नहीं है. यह साहित्य के प्रति लीविस के स्मरणीय शब्दों में ‘पिकूलियर कम्प्लीटनेस ऑफ़ रिस्पॉन्स’ विकसित करना है” (नामवर सिंह, कुछ पूर्वग्रह-184-85).

          आलोचक नामवर सिंह की बहुत-सी बातों का अशोक वाजपेयी ने कड़ा प्रतिवाद  किया है, उन्हें ‘अचूक अवसरवादी’ भी कहा है. लेकिन उन्होंने उनके वैशिष्ट्य की प्रशंसा की है. अपने विरोधी के गुणों की प्रशंसा का संस्कार, जो एक दुर्लभ मानवीय गुण है, अशोक वाजपेयी की आलोचना  और आचरण में है. वे नामवर जी को दृष्टि संपन्न आलोचक मानते हैं. एक विदेशी लेखक इरविंग होवे के शब्दों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने कहा है: “नामवर सिंह दृष्टि के बंदी नहीं, यायावर हैं.” (वही) साहित्य में शत्रुओं और मित्रों का खेमा बनाने का ‘सरल-दिमगीपन’ से खेला जानेवाला जो आलोचनात्मक खेल है अशोक वाजपेयी हमेशा उसके विरुद्ध है. वे नामवर सिंह को इसलिए भी पसंद करते हैं कि मार्क्सवादी होने के बावजूद सरल-दिमागीपन से खेले जा रहे आलोचनात्मक खेल में नामवर सिंह शामिल नहीं हैं. नामवर सिंह की आलोचना में जो संवादधर्मी रुझान है उसकी तारीफ़ करते हुए अशोक वाजपेयी ने लिखा है: “... अगर किसी आलोचक ने हिंदी में संवाद को आलोचना का अध्यात्म बनाया है तो नामवर सिंह ने. कृति की विशिष्टता, अद्वितीयता और वस्तुवत्ता खोजने-पहचानने के जो औजार नए रुपवादियों ने विकसित किए, उनका सतर्क और सक्षम इस्तेमाल करते हुए साहित्य को उसकी ऐतिहासिकता और सामाजिक पृष्ठभूमि में स्थित करने और आलोचनात्मक निर्णय को आलोचक की नैतिक और सामाजिक दृष्टि से जोड़कर देखने का काम नामवर सिंह ने किया है और हिंदी आलोचना को सार्थक परिपक्वता दी है” (वही 185).

          कविता के साथ सार्थक आलोचना की चिंता करनेवाले कवियों में प्रमुख नाम अशोक वाजपेयी का है. हिंदी आलोचना में आए ठहराव को देखते हुए पिछले सदी के आठवें दशक में उन्होंने ‘पूर्वग्रह’ नाम की पत्रिका निकाली. पूर्वग्रह के प्रकाशन के मूल में अशोक की कुछ चिंताएँ काम कर रही थीं. पहली तो यह कि ‘आठवें दशक तक आते-आते अकादमिक आलोचना अपनी सारी सार्थकता और प्रासंगिकता खो चुकी थी.’ उनकी दूसरी चिंता थी: “धंधई आलोचना की हालत भी कोई बेहतर न थी. नई कविता और नई कहानी के ज़माने में किसी हद तक यह आश्वासन था कि नई रचना पर धंधई आलोचक लगातार नजर रखे हुए थे और उसके संघर्ष, उपलब्धियों और असफलताओं पर नामवर सिंह जैसे सहृदय और सक्षम आलोचक टिप्पणी करने में बराबर सक्रिय थे. पर आठवें दशक के आते तक ऐसा प्रायः एक भी आलोचक नहीं रह गया जो पूरे परिदृश्य को सहेजने और उसका विश्लेषण कर समझने को उत्सुक या तैयार हो. स्वयं नामवर सिंह दुर्भाग्य से प्रायः चुप और निष्क्रिय हो गए” (तीसरा साक्ष्य, कुछ पूर्वग्रह, 164-65).

          ‘अकादमिक’ और ‘धंधई’ आलोचना से अशोक वाजपेयी का तात्पर्य क्या है? अकादमिक से शायद विश्वविद्यालय के अध्यापकों द्वारा लिखी जा रही आलोचना है जिसके श्रेष्ठ उदाहरण शायद डॉ. नगेन्द्र थे. धंधई आलोचना से तात्पर्य शायद उस आलोचना है जो सिर्फ आलोचकों द्वारा लिखी जाती है. जैसे रामचंद्र शुक्ल, नंददुलारे वाजपेयी, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, रामस्वरूप चतुर्वेदी आदि. इस तरह धंधई आलोचना वह हुई जो ऐसे लोगों द्वारा लिखी गई है जिनका धंधा ही आलोचना लिखना है, जैसे कवि का धंधा है कविता लिखना. बहुतों को ‘धंधई’ शब्द का प्रयोग ठीक नहीं लगता. शब्द- पारखी अशोक वाजपेयी ने हिंदी आलोचना की मुख्य विरासत को यह जो नाम दिया वह प्रश्न वाचक चिहन के घेरे में है. धंधई की जगह यदि ‘पेशेवर आलोचना’ कहा जाता तो अधिक ठीक रहता, हालाँकि अर्थ दोनों का एक है.  बहरहाल आकादमिक और धंधई आलोचना से अलग उन्होंने ‘सृजनात्मक आलोचना’ का प्रस्ताव दिया जो उनके अनुसार आलोचना का ‘तीसरा साक्ष्य’ है. सृजनात्मक आलोचना लिखनेवाले वे लोग थे जो रचनाकार थे, जिन्होंने आपद्धर्म के रूप में नहीं, रचनाकार का स्वाभाविक कर्म मानकर रचना की तरह ही आलोचना- कर्म किया. ऐसे सृजनधर्मी आलोचकों की जो सूची तब आशोक वाजपेयी ने पेश की थी उसमें निर्मल वर्मा, कुँवर नारायण, मलयज, रमेशचंद्र शाह, प्रभात कुमार त्रिपाठी आदि के नाम प्रमुख है. अशोक जी का मानना था कि धंधई और अकादमिक आलोचना ज्यादातर साहसहीन आलोचना रही है. जबकि सृजनात्मक आलोचना में ‘कल्पनाशील साहस’ है. उसमें ‘आंतरिकता और वैचारिक खुलापन’ है. इस कारण वह ‘विश्वसनीय और प्रामाणिक’ लगती है. आलोचना का यह तीसरा साक्ष्य है जो ‘आत्माभियोगी साक्ष्य’ की तरह अधिक ज़रूरी और विश्वसनीय है, क्योंकि यह फैसला नहीं देता, उसकी जगह सहानुभूति और हिस्सेदारी का सुख देता है’(वही 166-67). अशोक वाजपेयी की इस बात से हमारी सहमति हो, यह जरुरी नहीं . लेकिन नामवर सिंह के बाद की हिंदी आलोचना के बारे में उनकी राय यही है.  कोई यह सवाल उठा सकता है कि नवजागरण संबंधी बहस रामविलास शर्मा तक ही ठहरी हुई है या आगे भी उसका विकास हुआ है? भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल के बहुत-से रचनाकारों के बारे में नए तथ्य और मूल्यांकन सामने आए हैं. क्या यह काम तथाकथित सृजनात्मक आलोचना ने किया है? या इसमें कुछ भूमिका ‘अकादमिक’ और ‘धंधई’ आलोचना की भी है?

          अशोक वाजपेयी आलोचना में बनामों के खेल को नहीं पसंद करते. प्रेमचंद बनाम जैनेन्द्र, प्रसाद बनाम प्रेमचंद, अज्ञेय बनाम मुक्तिबोध आदि बनामों का हिंदी आलोचना में रामविलास शर्मा और नामवर सिंह के सौजन्य से जो सिलसिला शुरू हुआ उसमें अशोक जी की कोई रूचि नहीं है. वे अपने साहित्यिक जीवन के प्रारंभ से अज्ञेय, शमशेर और मुक्तिबोध को नई कविता की वृहत्रयी  के रूप में प्रतिष्ठित करते रहे. अशोक जी का जोर उनकी भिन्नता के साथ उनकी विशिष्टता की खोज पर रहा. उनका मानना है कि एक ही काव्य आंदोलन में शामिल होने के बावजूद इन तीनों का काव्य स्वर अलग-अलग था और यही इनकी काव्यगत विशिष्टता थी. इन तीनों के वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालते हुए अशोक जी ने लिखा है: “...अज्ञेय के यहाँ व्यक्ति की स्वाधीनता की खोज है, मुक्तिबोध के यहाँ सामाजिक मुक्ति के लिए विकलता है और शमशेर ‘आत्मा का कल्पतरु’ बनाना चाहते हैं. तीनों अलग-अलग साहित्य का नया शास्त्र खोजने-गढ़ने और परिभाषित करने की चेष्टा करते हैं. अज्ञेय नये व्यक्तित्व और व्यक्ति की गरिमा का आग्रह करते हैं पर यह व्यक्ति समाज-निरपेक्ष नहीं है. मुक्तिबोध नई सामाजिकता की खोज पर बल देते हैं पर यह व्यक्ति-निरपेक्ष नहीं है. शमशेर समाज और व्यक्ति के द्वंद्व के प्रति सजग रहकर नया सौंदर्य प्रस्तावित करते हैं” (कविता के तीन दरवाजे, पृष्ठ-11).

          नई कविता के उन तीन श्रेष्ठ कवियों का अशोक जी का यह मूल्यांकन रामविलाश शर्मा, नामवर सिंह आदि से  भिन्न और सकारात्मक है. इन तीनों की कुछ अन्य विशेषताओं की चर्चा करते हुए अशोक जी ने लिखा है: “...अज्ञेय आत्मबोध और आत्मान्वेषण के कवि हैं तो मुक्तिबोध आत्मालोचन और आत्माभियोग के. शमशेर आत्मविलोपन के कवि हैं... तीनों ही विषय, भाषा, शिल्प, लय आदि में प्रयोगधर्मी हैं. अज्ञेय ने सबसे अधिक छंद प्रयोग किए, सवैया से लेकर मुक्त छंद तक. पर उनकी कविता ज्ञात गोत्र की कविता है: उसमें सुगठन, अदम्य विवक्षा और सही शब्द की खोज का शास्त्र  विन्यस्त होता है. मुक्तिबोध की कविता गोत्रहीन कविता है- उसका पहले कोई मॉडेल नहीं है. उबड़ -खाबड़पन, असमाप्यता और अटपटेपन का शास्त्र उनके यहाँ रूप लेता है. शमशेर हिंदी का गोत्र बढ़ाकर उसमें उर्दू का उत्तराधिकार भी शामिल करते हैं” (वही-12). इस तरह तीनों के वैशिष्ट्य को बतलाते हुए अशोक जी अज्ञेय को ‘रूप’ का, मुक्तिबोध को ‘विरूप’ का और शमशेर को ‘बेहद नाजुक रूप’ का कवि बतलाते हैं. तीनों में ‘प्रश्नवाचकता’ है. अशोक जी की नजर में ‘तीनों हिंदी आधुनिकता के आलोचक-निर्माता हैं’. संक्षेप में यह कि तीनों कवियों की उपस्थिति अलग-अलग ढंग से सभ्यता समीक्षा का निर्माण करती है. ये तीनों ऐसी आधुनिकता गढ़ते हैं जो ‘मुक्तिकामी’ है. जिसमें मानव अस्तित्व, समाज और आत्मा की मुक्ति की चिंता है (वही-14-15).

          इन तीनों में समानता और विषमता विद्यमान हैं. उन्होंने अपने रचनाकर्म के जरिए जो किया वह ‘गहरे और समझदार अर्थ में क्रांतिकारी ’ है. ये तीनों हमारे लिए जरुरी है. अशोक जी के शब्द हैं: “...हमारा काम उनमें से किसी एक से पूरा नहीं पड़ता: हमें अज्ञेय की कविता जैसा सुगठित वितान भी चाहिए, शमशेर की कविता जैसी सौंदर्य की रंगभूमि भी अभीष्ट है और मुक्तिबोध की कविता जैसा खुरदुरा यथार्थ और बीहड़ स्थापत्य भी. हमारा अकेले अज्ञेय, अकेले मुक्तिबोध, अकेले शमशेर से काम नहीं चल सकता. अपने समय की सचाई और समाज को समझने, शब्द और भाषा की अपार संभावनाओं को खोज सकने के लिए हमें तीनों चाहिए. उनमें कोई भी दूसरे या तीसरे का स्थानापन्न नहीं हैं, न हो सकता है”(वही-16).

           यह आलोचना- विवेक अपने पूर्ववर्ती आलोचकों विजयदेवनारायण साही, नामवर सिंह आदि से भिन्न है और बनामवादी आलोचना से अप्रभावित है. यही कारण है कि अज्ञेय, शमशेर और मुक्तिबोध के अतिरिक्त रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, साही, सर्वेश्वर, श्रीकांत आदि कवियों को पसंद करनेवाले अशोक वाजपेयी ने घोषित प्रगतिशील नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन आदि को सम्मानित करने में कभी कोताही नहीं की. केदार के बारे में उनका यह कथन इस बात का प्रमाण है: “...केदारनाथ अग्रवाल की कविता इस अर्थ में सिर्फ आदमी की दुनिया की कविता नहीं है, बल्कि उस भरी-पूरी दुनिया की कविता है जिसमें आदमी है, निश्चय ही केन्द्रीय, लेकिन उसके अलावा भी बहुत कुछ है. उन्होंने असाधारण पारदर्शिता, गरमाहट और सहजता के साथ इस भरे-पूरेपन को कविता में लाने की कोशिश की है” (केदारनाथ अग्रवाल, कुछ पूर्वग्रह, पृष्ठ-180). इसी के साथ केदारनाथ अग्रवाल की कविता की एक और विशेषता बताते हुए अशोक वाजपेयी ने लिखा है: “...अपनी विनम्रता और निराकांक्षा के बावजूद केदारनाथ अग्रवाल की कविता एक तरह का सार्थक प्रगीतात्मक दृढ कथन है”(वही).

          अशोक वाजपेयी को कलावादी, रूपवादी आदि कहकर इस तरह प्रचारित करने की कुछ लोगों ने कोशिश की मानों वे समाज-निरपेक्ष व्यक्ति है. यह सही है कि अशोक जी साहित्य की स्वायतता के पक्षधर और साहित्य को विचारों का उपनिवेश बनाए जाने के खिलाफ़ हैं . स्वायतता से उनका आशय क्या है, यह उन्हीं के शब्दों में देखना चाहिए: “कविता की स्वायतता का आग्रह उसे राजनीति या जन जीवन से विमुख करना नहीं है. बल्कि इस बात पर बल देना है कि कविता की सचाई दूसरे किसी माध्यम में अनुवाद की जा सकने वाली सचाई नहीं है, कि कविता का सचाई से और इसीलिए जीवन से उतना ही सीधा और अर्द्ध समृद्धिकारी संबंध है जितना कि राजनीति का, कि कविता के लिए समकक्षता की माँग शक्ति और सत्ता के राजनीति के पक्ष में झुके संतुलन को चुनौती देना है, कि कविता राजनीति की तरह पर्याप्त कर्म है और कि कविता भाषा में ऐसा कुछ करती है और उसके माध्यम से जीवन में जो कि राजनीति या अन्य अनुशासन नहीं कर सकते” (कविता का गल्प-30).

          अशोक वाजपेयी की चिंता के केंद्र में हिंदी कविता तो है ही, हिंदी समाज भी है. वे इस बात से चिंतित हैं कि हिंदी अंचल में ‘राज’ बढ़ रहा है और ‘समाज’ घट रहा है. धीरे-धीरे राज के हस्तक्षेप से मुक्त समाज के जो क्षेत्र थे उन्हें ‘राज’ छीनता जा रहा है. अशोक जी की यह भी चिंता है कि महाराष्ट्र, गुजरात, केरल आदि की तरह हिंदी अंचल में कोई सामाजिक सक्रियता नहीं है. वे इस बात से चिंतित हैं कि हिंदी के समाज का दायरा घट रहा है और हिंदी का राज बढ़ रहा है. उनका कहना है कि समाज की कविता में दिलचस्पी होती है लेकिन राज की नहीं. लेकिन वे इस बात पर गर्व करते हैं कि हिंदी समाज में किसी तरह का धार्मिक-सांप्रदायिक लेखन संभव नहीं है. उनके शब्दों में: “इसे हिंदी की जातीय परंपरा का मूल तत्त्व ही कह सकते हैं कि उसमें दृष्टियों की बहुलता का और इसलिए समभाव का सहज और निरंतर स्वीकार है”(कविता का गल्प-25).

          अशोक वाजपेयी ने हिंदी आलोचना में कई पद प्रचलित किए हैं, मसलन ‘साहित्य का स्वराज’, ‘ईश्वर विहीन आध्यात्म’ आदि. उनका राजनीतिक विश्वास गाँधी और लोहिया के आसपास निर्मित हुआ है. धार्मिक सहिष्णुता, जाति-निरपेक्ष और भेदभाव रहित समाज व्यवस्था में उनका भरोसा है. उनका भरोसा भारत की बहुलता में है. वे मार्क्सवादी राजनीति और साहित्य- चिंतन के आत्यंतिक रूप से कायल नहीं हैं. वे  किसी भी तरह की वैचारिक तानाशाही के खिलाफ़ हैं.विश्व सहित भारत में उदार दृष्टि पर हो रहे हमलों से वे चिंतित हैं. वे मानते हैं कि साहित्य को किसी पार्टी में शामिल हुए बिना राजनीति की ‘निगरानी’ का काम करना चाहिए. साहित्य और राजनीति के संबध पर ‘पहल’ पुस्तिका के रूप में प्रकाशित अपने साक्षात्कार में उनका कहना है: “... साहित्य इसलिए हर तरह की राजनीति से दूरी बरते यही उचित है- उसका काम कुछ उदार मूल्यों की ओर से राजनीति पर निगरानी रखने और जब अनीति हो तो बिना भय के बरजने का है, जैसा कि तुलसीदास ने राम से अयोध्यावासियों को सीधे संबोधित करते हुए कहलवाया है. तथाकथित राजनीति समय की राजनीति है, साहित्य अनंत की राजनीति है”.अशोक वाजपेयी के इस कथन की अंतिम पंक्ति में लोहिया के एक कथन की रचनात्मक गूंज सुनाई पड़ती है कि राजनीति अल्पकालीन धर्म है और धर्म दीर्घकालीन राजनीति. कहा जा सकता है कि वे साहित्य को दीर्घकालीन राजनीति मानने वाले  कवि आलोचक हैं.

                                                      -  * -

                                                                      गोपेश्वर सिंह

                                                                      हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय,

                                                                      दिल्ली – 110007

                                                   इमेल-gopeshwar1955@gmail.com

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Sunday, 8 November 2020

जैनेंद्र की जीवनी:'अनासक्त आस्तिक'

 


गोपेश्वर सिंह

1980 के अक्टूबर महीने की कोई तारीख थी. संभवतः 9-10 अक्टूबर की. पटना रेलवे जंक्शन के प्लेटफ़ॉर्म नम्बर-1 पर हिंदी के अमर कथा-शिल्पी जैनेन्द्र कुमार का मैं इंतजार कर रहा था. वे श्रमजीवी एक्सप्रेस से आने वाले थे. उनके उपन्यास, उनकी कहानियाँ और उनके चरित्र मन में घूम रहे थे. अजीब रोमांच था मेरे भीतर. इतने बड़े लेखक से मिलने का सौभाग्य जो मिल रहा था. श्रमजीवी एक्सप्रेस रुकी तो सामने कोच के दरवाजे पर हाथ में बैग लिए जैनेन्द्र कुमार दिखाई पड़े -किसी को खोजते हुए-से. मैंने नमस्कार किया. उनके हाथ का थैला लेते हुए मैंने कहा कि मैं आपको लेने आया हूँ. उन्होंने मेरा नाम और परिचय पूछा. तब मैं विश्वविद्यालय का शोध-छात्र था. यह जानकर वे आश्वस्त हो गए. उन्हें लेकर मुझे सदाक़त आश्रम जाना था, जहाँ पर जयप्रकाश जयंती के उपलक्ष्य में एक आयोजन होने वाला था और जिसके मुख्य अतिथि जैनेन्द्र जी थे. जैनेन्द्र जी ने मुझसे पूछा कि क्या मैं नलिन विलोचन शर्मा का घर जानता हूँ? मैंने कहा कि हाँ, मैं कई बार वहाँ जा चुका हूँ. उन्होंने कहा कि सबसे पहले मैं नलिन के घर जाऊँगा. वहाँ उनकी पत्नी कुमुद शर्मा से मिलते हुए हम सदाक़त आश्रम चलेंगे. उन्होंने यह भी कहा कि नलिन के न रहने पर मैं जब भी पटना आता हूँ, सबसे पहले उनके घर जाता हूँ. फिर वहाँ से कहीं और. यह मेरा नियम-सा है. वे मेरे गहरे मित्र थे. पटना आते ही उनकी याद मुझे परेशान करने लगती है.

          मैं उन्हें लेकर एग्जीबिशन रोड स्थित स्व. नलिन विलोचन शर्मा के घर गया. नलिन जी की पत्नी कुमुद शर्मा अचानक जैनेन्द्र को देखकर भाव-विह्वल हो गईं. बरामदे में दोनों बैठे-बैठे चाय पीते रहे और पुराने दिनों को उलटते-पलटते रहे. शाम को जैनेन्द्र जी ने जयप्रकाश जयंती समारोह में भाग लिया और उनके आदर्शों और उनके साथ अपने संबंधों की चर्चा की. दूसरे दिन शाम की ट्रेन से वे दिल्ली रवाना हुए. उनके ठहरने की व्यवस्था आश्रम में ही की गई थी. मैं वहीं रहता था और हिंदी साहित्य का छात्र था. इसलिए आयोजकों ने जैनेन्द्र जी की देखभाल का जिम्मा मुझे सौंप ही रखा था. उनसे मैंने जितनी बातें कीं, वे सब अब मुझे याद नहीं हैं. बस इतना याद है कि वे मझौले कद के और गोरे रंग के थे. बाल सफ़ेद थे और खादी का सफ़ेद कुर्ता-पाजामा पहने हुए थे. धीरे-धीरे बोलते थे और गाँधी, जेपी आदि के बारे में बहुत ऊँची राय रखते थे. उस दौरान उनसे हुई बातचीत को यदि मैंने नोट कर लिया होता तो जैनेन्द्र से मुलाक़ात का एक जीवंत दस्तावेज मेरे पास होता. बहरहाल, हमारे समय के एक महत्त्वपूर्ण आलोचक और कला समीक्षक ज्योतिष जोशी लिखित जैनेन्द्र कुमार की जीवनी ‘अनासक्त आस्तिक’ पढ़ते हुए जैनेन्द्र कुमार से मिलने की वह घटना याद आई और याद आया उनका बहुत ही सादगीपूर्ण व्यक्तित्व और उनका व्यवहार. यह जीवनी पढ़ते हुए जैनेन्द्र के साथ भारतीय समाज, राजनीति और साहित्य का एक पूरा युग हमारे सामने दृश्यमान हो गया. इसे मैंने  पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता चला गया. लगा कि किसी बहुत रोचक उपन्यास के भीतर से गुजर रहा हूँ.

          ‘अनासक्त आस्तिक’ बहुत सार्थक नाम है. आस्तिकता को आमतौर से वस्तुनिष्ठता और प्रगतिशीलता का विरोधी भाव मानने का प्रचलन हिंदी में है. रामविलास शर्मा और नामवर सिंह सरीखे प्रगतिशील आलोचकों ने जैनेन्द्र की आस्तिकता और उनकी रचनाशीलता को प्रति-क्रांतिकारीता  का पर्याय साबित करने की ख़ूब कोशिश की है. प्रेमचंद के विलोम के रूप में जैनेन्द्र को रखा जाता रहा है और प्रेमचंद बनाम जैनेन्द्र की बेकार-सी बहस भी चलती रही है. इस जीवनी से मालूम होता है कि प्रेमचंद के सबसे करीबी युवा लेखक थे जैनेंद्र और प्रेमचंद के एक तरह से मानस पुत्र थे. अंतिम समय में प्रेमचंद के पास शिवरानी देवी के साथ जैनेन्द्र भी थे. स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी, जेल यात्रा, सत्याग्रही जीवन और गाँधी से गहरा आत्मीय जुड़ाव जैनेन्द्र के साहित्य को गहरे सामाजिक सन्दर्भों से जोड़ता है. साहित्य में प्रेमचंद और राजनीति में गाँधी- इन दो महान व्यक्तियों के संपर्क-साथ में शिक्षित जैनेन्द्र को गैर-सामाजिक सिद्ध करने का जो अपराध आलोचना ने किया, उसका जवाब आलोचना की ओर से 1950-60 में नलिन विलोचन शर्मा ने दिया था. और हमारे समय में जैनेन्द्र पर लगातार लिखकर और उनके परिप्रेक्ष्य को सही सन्दर्भों से युक्त करके ज्योतिष जोशी कर रहे है. ‘जैनेंद्र और नैतिकता’ के बाद ‘अनासक्त आस्तिक’ ज्योतिष जोशी के जैनेन्द्र संबंधी चिंतन का सगुण-साकार रूप है.

          जैनेन्द्र ने सामाजिकता की जिस वैकल्पिक समझ को जिया और अपने चिंतन का अंग बनाया, वह गाँधीवादी सामाजिकता का बहुत ही नैतिक और उज्ज्वल पक्ष है. वे समाजनीति लोकनीति और राजनीति की वैकल्पिक सभ्यता को अपने जीवन, साहित्य और चिंतन से रचते रहे. उसे दुर्भाग्य से हिंदी समाज ने कम समझा और उसे समझने योग्य बनाने में प्रगतिशील आलोचना ने बड़ा अवरोध उपस्थित किया. ‘अनासक्त आस्तिक’ के जरिए जीवनीकार ने जैनेन्द्र संबंधी चलाई गई प्रगतिशील आलोचकों की बहसों की प्रायः अनदेखी की है और ऐसा करके अच्छा किया है. लेकिन जो इसका सबसे सकारात्मक पक्ष है वह यह कि उन्होंने व्यक्ति और लेखक जैनेन्द्र के नैतिक, सामाजिक और सृजनात्मक व्यक्तित्व को खड़ा किया है. ऐसा नैतिक व्यक्ति और लेखक जो सत्ता के भय से अपने पथ से डिगता नहीं और अपने आचरण की शुद्धता पर दाग भी नहीं लगने देता. इस जीवनी को पढ़ने के बाद जैनेन्द्र का एक नया सामाजिक और लेखकीय रूप पाठक के सामने होता है.

         अलीगढ जिला के कौडियागंज क़स्बे में अति साधारण वैश्य परिवार में पैदा होने वाला बालक आनंदीलाल आगे चलकर हिंदी का महान लेखक जैनेंद्र कुमार के नाम से जाना गया. घर- परिवार की ज़िम्मेवारी संभालते हुए जैनेंद्र ने स्वतंत्रता आंदोलन में हर तरह से हिस्सा लिया. गाँधी के निकट संपर्क में रहे. जवाहरलाल, जेपी आदि बड़े नेताओं से मित्रवत संबंध रहा, लेकिन आज़ादी के बाद इस स्वाभिमानी लेखक ने मसिजीवी लेखक के रूप में जीवन निर्वाह किया, कभी अपने राजनीतिक संबंधों का फ़ायदा नहीं उठाया. इंदिरा जी ने आदरपूर्वक मदद की पेशकश की, लेकिन स्वाभिमानी जैनेद्र ने पारिवारिक दबाव के बावजूद मदद स्वीकार नहीं की. यही कारण था कि जेपी आंदोलन में इंदिरा जी का विरोध करने और आंदोलन के पक्ष में खड़ा होने में उन्हें किसी प्रकार का संकोच नहीं हुआ. अपनी कलम के बल पर गुजारा करने वाले इस स्वतंत्र चेता लेखक ने विकास की पूँजीवादी मॉडल का हमेशा विरोध किया और वैकल्पिक विकास नीति की बात की. गाँधी जिस वैकल्पिक सभ्यता की लड़ाई लड़ते हुए शहीद हुए , जैनेद्र अपने चिंतन से उसके पक्ष में जीवन भर खड़े रहे. इस जीवनी के जरिए जीवनीकार ने जैनेंद्र की सामाजिकता को बार- बार रेखांकित किया है. इस जीवनी को पढ़कर समाज सापेक्ष जैनेंद्र की जो छवि उभरती है, प्रगतिशील आलोचकों की बनाई छवि से सर्वथा भिन्न है.

        कथाकार प्रेमचंद के बेहद क़रीब थे जैनेंद्र, लेकिन कथा- लेखन की उन्होंने अलग राह पकड़ी. यह उनकी मौलिकता थी. इसे उनकी विशेषता बताने की जगह आलोचकों ने उन्हें मनोवैज्ञानिक कथा- लेखक के रूप में प्रचारित किया. 1960 के दशक में ऐसे आलोचकों को जवाब देते हुए नलिन विलोचन शर्मा ने लिखा: “पश्चिम के मनोविश्लेषणात्मक उपन्यासों की किम्वदंती सुन रखनेवाले हिंदी के आलोचकों ने जैनेंद्र के उपन्यासों पर फ्रायड का प्रभाव घोषित करके अपनी अहंमन्यता को संतुष्ट किया, स्वयं जैनेंद्र ने ईमानदारी का परिचय देते हुए सदैव इस आरोपित प्रभाव को अस्वीकार किया. सत्य भी यही है कि व्यक्ति- केंद्रित होने पर भी जैनेंद्र के उपन्यासों में मनोविश्लेषण की प्रणाली की छाया भी नहीं है. जैनेंद्र में, वस्तुतः हिंदी ने एक शरच्चंद के अभाव की पूर्ति पा ली थी. नलिन विलोचन शर्मा के अनुसार ‘परख’ और ‘त्यागपत्र’ में जैनेन्द्र शरच्चंद की छाया मात्र हैं. किन्तु ‘सुनीता’ के लेखक के रूप में वे शरच्चंद की छाया से मुक्त अधिक महत्त्व के अधिकारी हैं. ज्योतिष जोशी ने शरच्चंद के इस कथाकार रूप के महत्त्व को पहचाना है और उन्हें वे स्त्री जीवन का विशिष्ट कथाकार सिद्ध करते हैं.

          स्वतंत्रता सेनानी होने, नेहरु-जेपी समेत देश के तमाम बड़े नेताओं से परिचित होने के बावजूद जैनेन्द्र ने कभी कोई पद या राजाश्रय नहीं लिया. वे लेखक को स्वतंत्र रूप में देखना चाहते थे. वे लेखक के लिए ऐसी स्वतंत्रता चाहते थे कि जब कभी ज़रूरत हो, सत्ता के खिलाफ़ लेखक आवाज उठा सके. यही कारण था कि निरंकुश होती जा रही इंदिरा गाँधी की शासन व्यवस्था के खिलाफ़ वे जेपी के साथ आंदोलन में कूद पड़े; जबकि इंदिरा जी जैनेन्द्र का बहुत सम्मान करती थीं. राजाश्रय के संबंध में जैनेन्द्र जी का विचार था: “लेखक को किसी भी आश्रय की आवश्यकता नहीं है. हमें किसी की सहायता, किसी की अनुकम्पा, किसी की दया नहीं चाहिए.” (पृष्ठ सं. 264) इस तरह लेखक का सम्मान जीने वाले और सत्ता तंत्र से हमेशा दूरी बनाए रखने वाले स्वाभिमानी जैनेन्द्र की बचपन से लेकर अंत तक की संघर्ष से भरी जीवन-कथा ‘अनासक्त आस्तिक’ के रूप में प्रस्तुत कर हिंदी के श्रेष्ठ जीवनीकारों में ज्योतिष जोशी ने विनम्रता पूर्वक अपना भी नाम शामिल कर लिया है.

          हिंदी में लेखकों का जीवन चरित बहुत कम मिलता है. हिंदी में लेखकों ने अपनी आत्मकथाएँ भी कम लिखी हैं. ‘रज़ा न्यास’, नई दिल्ली ने लेखकों की जीवनी लिखाने की एक अच्छी शुरुआत की है. उस योजना के अंतर्गत रघुवीर सहाय की जीवनी विष्णु नागर ने ‘असहति में उठा हुआ एक हाथ’ शीर्षक से लिखी हैं और दूसरी जीवनी ज्योतिष जोशी लिखित ‘अनासक्त आस्तिक’ है. सुना है कि भारत यायावर फणीश्वरनाथ रेणु की जीवनी लिख रहे हैं. इस पहल के लिए ‘रज़ा न्यास’ और जीवनी लेखकों का हार्दिक अभिनंदन.

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Thursday, 8 October 2020

साही: एक कुजात मार्क्सवादी आलोचक


 विजयदेव नारायण साही (7 अक्टूबर 1924 - 5 नवंबर 1982) जितने महत्वपूर्ण कवि थे, उतने ही महत्वपूर्ण आलोचक भी. अपने आलोचनात्मक लेखन और बहसों के जरिए 1950 के बाद के हिंदी माहौल को वैचारिक रूप से आंदोलित करने में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई. आलोचना में उनकी मौलिक समझ और स्थापनाओं ने नई हलचल पैदा की. जब हिंदी में प्रगतिशील आलोचना का जोर था, तब साही ने वैकल्पिक प्रगतिशीलता की देशी जमीन निर्मित की. उनके तर्कों और स्थापनाओं की अनदेखी किसी के लिए भी संभव नहीं थी. 

साही ने जितना हिंदी आलोचना को जितना लिखकर समृद्ध किया, उतना ही अपने व्याख्यानों के जरिए बहसधर्मी माहौल बनाया. वे बहु भाषाविद् थे. अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, फ़ारसी आदि भाषाओं के जानकार होने के कारण उन भाषाओं का साहित्य उनके सामने था. अंग्रेजी भाषा पर अधिकार के कारण देश-दुनिया में चलने वाली साहित्य संबंधी बहसें उनके सामने थीं. यही कारण है कि उनका आलोचनात्मक लेखन विविध सन्दर्भों से समृद्ध है. लेकिन पुस्तकाकार प्रकाशन के प्रति उनकी लारवाही इस क्षेत्र में भी दिखाई देती है. जिस आलोचक ने पत्र-पत्रिकाओं में हिंदी के वैचारिक माहौल को निरंतर आंदोलित किया, उसकी कोई भी पुस्तक उसके जीवन काल में प्रकाशित न हो सकी. निधन के उपरांत उनके मित्रों और पत्नी के प्रयास से ‘जायसी’ (1983), ‘साहित्य और साहित्यकार का दायित्व’ (1983), ‘छठवाँ दशक’ (1987), ‘साहित्य क्यों’ (1988) तथा ‘वर्धमान और पतनशील’ (1991) नामक पुस्तकें प्रकाशित हुईं. लोगों का अनुमान है कि उनका अभी और भी आलोचनात्मक लेखन है, जो पत्र-पत्रिकाओं में बिखरा पड़ा है. 

साही आंदोलनधर्मी साहित्यकार थे. वे समाजवादी आंदोलन में अपादमस्तक डूबे हुए थे. लेकिन साहित्य के मूल्यांकन में राजनीतिक टूल्स का इस्तेमाल करने से प्रायः परहेज करते थे. उनके आलोचनात्मक लेखन का मुख्य आधार भारत का सामान्य मनुष्य और साहित्य की साहित्यिकता थी.  वे प्रगतिशीलों की तरह ‘साहित्य में राजनीति और राजनीति में साहित्य’ की बात करने के कायल नहीं थे. उन्होंने साहित्य को कभी राजनीतिक विचारों का उपनिवेश नहीं बनने दिया. मार्क्सवादी आलोचना की कम्युनिस्ट परिणति की वे आलोचना करते रहे. साहित्य का अपना प्रतिरोधी स्वर होता है. साही उसी प्रतिरोधी स्वर को रेखांकित करने का प्रयत्न करते रहे.

सत्य प्रकाश मिश्र ने साही को ‘कुजात मार्क्सवादी’ कहा है. राममनोहर लोहिया ने गाँधीवादियों की तीन कोटियाँ बनाई थीं- मठी गाँधीवादी, सरकारी गाँधीवादी और कुजात गाँधीवादी. लोहिया के अनुसार कुजात गाँधीवादी वे लोग थे जो गाँधीवाद का रचनात्मक विकास कर रहे थे. साही नरेन्द्रदेव की प्रेरणा से समाजवादी आंदोलन में गए थे. नरेन्द्र देव मार्क्सवादी थे. लेकिन उनका मार्क्सवाद लोकतंत्र की जमीन पर खड़ा था. उसमें भारत की परंपराएँ समाहित थीं. साही ने मार्क्सवाद के इसी सार तत्त्व को ग्रहण किया था और उसे भारतीय जमीन पर प्रतिष्ठत करने का संघर्ष किया था. जब उन्हें ‘कुजात मार्क्सवादी’ कहा जा रहा है तो उसका आशय यही है. 

साही मानते थे कि ‘साहित्य का दायित्व’ साहित्यकार के दायित्व से अलग नहीं है. वे साहित्यकार और साहित्य के दायित्व में फर्क नहीं करते थे. वे मानते थे कि जो दायित्व साहित्य का है वही दायित्व साहित्यकार का है. दायित्व का बोध साहित्य के भीतर निहित है. वे यह भी मानते थे कि समाज की ओर से बोलने का दायित्व लेखक का ही है. वे इस दायित्व के भीतर परिवर्तन की माँग करते हैं. अपने प्रसिद्ध व्याख्यान ‘साहित्य और साहित्यकार का दायित्व’ में वे कहते हैं: “......साहित्यकार को इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि वह समाज को संगुम्फित करें. क्योंकि यह जो संगुफन की चिंता घेरती है तो जस-का-तस बने रहना देना चाहिए यह प्रतीति जागती है.” इसका सीधा अर्थ है कि साहित्य और साहित्यकार के दायित्व में परिवर्तन निहित है. वे मानते थे कि कोई भी सामाजिक या साहित्यिक मूल्य जब बहुत अधिक चिंता का विषय हो जाता है तो वह ‘जस-का-तस’ बनाए रखने की ओर बढ़ता है. वे कहते हैं: “......समाज को जोड़े रहने के लिए हमें अपने जो परंपरागत सांस्कृतिक मूल्य हैं इन सांस्कृतिक मूल्यों का निरंतर नया-नया आवाहन करने की जरुरत है.” इसी के साथ वे साहित्यकार से सम्पूर्ण चेतना के दायित्व की माँग करते हैं. इस सम्पूर्ण चेतना के अंतर्गत वे अपनी संस्कृति के प्राणवान मूल्यों और परिवर्तन की चेतना के तनाव की बात करते हैं.

साहित्य के प्रति अपने इसी दायित्व बोध के साथ साही ने ‘मार्क्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति’ निबंध में उस दृष्टिकोण की तीखी आलोचना करते हैं जिसे वे कम्युनिस्ट आलोचना का नाम देते हैं. वे साहित्य को ‘हथियार’ बनाए जाने का विरोध करते हैं और साहित्य-चिंतन को पार्टी लाइन के अनुकूल ढालने का भी.

साही का इतिहास बोध वैज्ञानिकता और तर्कशीलता पर आधारित है. मानव सभ्यता के विकास को वे सामंतवाद और पूँजीवाद के रास्ते समाजवाद की ओर अग्रसर होते हुए देखने के हिमायती हैं. इस दृष्टि से उनके प्रसिद्ध निबंध ‘राजनीति और साहित्य’ को देखा जा सकता है. वे मानते हैं कि लम्बे समय तक राजनीति पर धर्म का प्रभुत्व रहा है और उस धर्म आधारित राजनीति ने साहित्य रचना को नियंत्रित किया है. पूँजीवाद ने इस व्यवस्था को चुनौती दी और राजनीति तथा धर्म के नियंत्रण से बहुत हद तक साहित्य को मुक्त किया. लेकिन उनके अनुसार पूँजीवाद एक सीमा तक ही धार्मिक बंधन को कमजोर करता है. उनका मानना है कि धर्म और धार्मिक भावना को तब तक समाप्त नहीं किया जा सकता जब तक वर्ग संघर्ष की स्थिति समाज में है. वे कहते हैं: “.....शुद्ध वैज्ञानिक मानवीय दर्शन अपने तार्किक सामंजस्य के कारण वर्गहीन समाज का ही दर्शन होगा. अतएव एक वर्ग के द्वारा दूसरे के शोषण और समाज में चलने वाले द्वंद्व का सामंजस्य कोई भी तार्किक सिद्धांत या सांस्कृतिक मूल्य नहीं कर सकते. वर्ग-समाज वर्ग-मूल्यों को ही जन्म देगा. और चूँकि वर्ग-मूल्य समस्त समाज को निर्द्वंद्व आत्मसात नहीं कर सकते, अतएव अपने अंतिम रूप में वे कभी भी तार्किक या बुद्धिवादी नहीं हो सकते. इस द्वंद्व को न्यायपूर्ण सिद्ध करने या इससे पलायन करने, दोनों ही के लिए बुद्धि विरोधी प्रवृतियों का सहारा लेना पड़ेगा. इससे स्पष्ट हो जाएगा कि क्यों धर्म को समाज से समूल नष्ट नहीं कर सकता, यद्यपि वह उसे चुनौती दे सकता और कमजोर कर सकता है. इससे यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि क्यों पूँजीवाद के दार्शनिक बुद्धि का सहारा लेकर चलते हुए भी अंत में अनिवार्यतः रहस्यवादी और ईश्वरवादी या धर्मवादी हो जाते हैं.”

पूँजीवादी समाज में धर्म और साहित्य की इस सीमा के रेखांकन के साथ साही साहित्य-रचना के लिए किसी भी एकाधिकारवाद को सही नहीं मानते. वे अगर साहित्य रचना में धार्मिक नियंत्रण की आलोचना करते हैं तो सोवियत संघ में जारी राजनितिक तानाशाही का भी. उनका मानना था कि तानाशाही पर आधारित सोवियत साहित्य प्रचार का साधन हो सकता है, कलात्मक सौंदर्य का नहीं. साहित्य संबंधी सही मार्क्सवादी समझ क्या है, यह स्पष्ट करते हुए साही लिखते हैं: “मार्क्सवाद साहित्य और कला को वर्ग संघर्ष में केवल प्रचार और शिक्षा का अस्त्र मात्र नहीं मानता, बल्कि वह उसे किसी वर्ग की कलात्मक, सौन्दर्यवान और मानवोचित प्रवृत्तियों की सांस्कृतिक और मानसिक प्रगति का चरम प्रतिफल भी मानता है जिसके कारण मनुष्य के इतिहास में किसी वर्ग अथवा वर्गहीन समाज का मूल्य है. जिस तरह आज राजनीति से साहित्य को अलग रखने का नारा लगाने वाले मध्यवर्गीय कलाकार प्रतिक्रियावादी हैं, उसी तरह राजनीति की तानाशाही में कैद कर के समस्त साहित्य को पार्टी का अस्त्र मात्र घोषित करने वाले कला के दुश्मन हैं. मार्क्स साहित्य को इन दोनों संकुचित दृष्टिकोणों से अलग समझता है. वह साहित्य को केवल पार्टी नहीं, पूरे वर्ग के सांस्कृतिक प्रयास की उत्पत्ति मानता है. यह कहने के साथ साही सिद्धांत और मूल्य में फर्क करते हैं. सिद्धांत का संबंध राजनीति से है जबकि मूल्य का संबंध साहित्य और संस्कृति से है. अपने मत पर जोर देने के लिए वे इटली के समाजवादी नेता इग्नेजियो सिलोन के कथन को याद करते हैं: “सिद्धांतों के बल पर हम संप्रदाय स्थापित कर सकते हैं, परन्तु मूल्यों के आधार पर हम संस्कृति का निर्माण कर सकते हैं. लोकतांत्रिक समाजवाद इस ऐतिहासिक अनुभव को भुलाकर उत्कृष्ट साहित्य की रचना नहीं कर सकता.”

साहित्य संबंधी अपनी इस समझ को साही ‘मार्क्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति’ नामक अपने प्रसिद्ध निबंध में विस्तार से रखते हैं. उनका मानना है कि मार्क्स और एंगल्स की साहित्य-कला संबंधी धारणाएँ अच्छी हैं. लेकिन प्लेखानोव, कॉडवेल ने जो साहित्य संबंधी मार्क्सवादी समझ विकसित की वह मार्क्स की मूल धारण के विरुद्ध है. साही का विचार है कि कला में सौंदर्य की चिंता छोड़कर ‘प्रवृत्ति’ की ओर झुकाव पैदा करने का काम बाद के मार्क्सवादी विचारकों ने किया. साही लेनिन, स्टालिन आदि की तुलना में ट्राटस्की की साहित्य संबंधी समझ को ज्यादा सही मानते हैं. मार्क्सवादी समीक्षा संबंधी अपनी समझ को स्पष्ट करते हुए साही लिखते हैं: “मार्क्स साहित्य की एक सार्वभौमिकता की कल्पना करता है जो वर्ग हित ही नहीं, सामाजिक युग को भी पार कर के नए आनंद की सृष्टि करता है. यह विशेषाधिकार अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शन आदि चेतना के अन्य स्तरों को नहीं दिया गया है.” इसके आगे साही बताते हैं कि साहित्य को ‘युग-युग व्यापी शक्ति’ प्राप्त है. मार्क्सवादी समीक्षा की कम्युनिस्ट परिणति की आलोचना करते हुए साही लिखते हैं: “.....यह हठ कि साहित्यिक कृतिकार राजनीतिक भूमिका भी ग्रहण करें, राजनीतिक क्रियाशीलता की तुलना में कलाकृतियों को हेय समझा जाए, मार्क्सवादी साहित्यिक दृष्टि की मौलिक अथवा अनिवार्य स्थापना नहीं है. यह घटना बाद में घटी है.” कला संबंधी अपनी इस समझ के समर्थन में साही ट्राटस्की की रचना ‘साहित्य और क्रांति’ से कई उद्धरण भी देते हैं. एक उद्धरण इस तरह है: “मार्क्सवादी प्रणाली और कलात्मक प्रणाली एक ही वस्तु नहीं है. पार्टी श्रमिक वर्ग का नेतृत्व करती है, इतिहास की विशाल गति का नहीं. कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिसमें पार्टी स्पष्टतः और आदेशात्मक ढ़ंग से नेतृत्व करती है..... कला का क्षेत्र वह नहीं है जिसमें पार्टी को आदेश देने की आवश्यकता हो. कला की रक्षा करना और सहायता करना पार्टी का काम है, परन्तु नेतृत्व केवल अव्यक्त रूप से ही हो सकता है.”

साहित्य संबंधी अपनी इस समझ के साथ साही ने हिंदी रचना-संसार को आलोचना के जिस व्यावहारिक धरातल पर देखा-परखा, वह हिंदी आलोचना का ऐसा उदहारण है, जिसके मुकाबले दूसरा कोई नाम शायद ही मिले! अपने बहुचर्चित निबंध ‘लघु मानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस’ में उन्होंने छायावाद-युग को ‘सत्याग्रह युग’ की संज्ञा दी और गाँधी को ‘हिंदुस्तान की जिन्दागी की लय की अभिव्यक्ति’ माना. वे मानते थे कि ‘हिंदी के छायावदी काव्य में सत्याग्रह युग की भारतीय अनुभूति की पूरी कथा’ लगभग मौजूद है. साही ने इस तरह छायावाद की जो व्याख्या की वह बहुतेरी अन्य व्याख्याओं से सर्वथा भिन्न है. साही लिखते हैं: “जिस तरह छायावादी युग की चरम आस्था यह है कि अंतर्जगत का सत्य और बहिर्जगत का सत्य एक ही है और दोनों में कभी भी व्यवधान नहीं पैदा हो सकता, उसी तरह उसकी मान्यता की दूसरी आधारशीला यह है कि नैतिक विजन और कल्पनाशील विजन दोनों वस्तुतः एक हैं और इन दोनों में कभी भी दरार नहीं पड़ सकती. इस प्रकार महत्त की महत्ता में एक अभूतपूर्व सहज आकर्षण शक्ति उत्पन्न हो जाती है. राष्ट्रीय संघर्ष के स्तर पर नैतिक और कल्पनाजन्य महत्ताएँ राष्ट्रीय नेतृत्व की महत्ताएँ में घुलमिलकर एकाकार हो जाती है. छायावाद की हर रचना एक ही साथ नैतिक भी है, कल्पनात्मक भी है और राजनैतिक भी है. इससे काव्य में अर्थ और लय की गूँज -अनुगूँज की संभावना बहुत बढ़ जाती है. उदाहरण के लिए प्रसाद का ‘बीती विभावरी जाग री’ या निराला का ‘राम की शक्तिपूजा’ या पंत का ‘धूम धुआँ रे काजर कारे’ या महादेवी का ‘जाग तुझको दूर जाना’...... एक साथ ही नैतिक, कल्पनात्मक और राजनैतिक स्तरों पर झंकृत होता है.”

छायावाद का इस व्यापक आधार पर मूल्यांकन करते हुए साही ने उसमें ‘दार्शनिक मुद्रा, विराट नाटकीयता और नैतिक तथा कल्पनात्मक स्वप्न लोकों का विशिष्ट अनुपात में सम्मिश्रण’ देखते हुए उसकी आलोचना भी की. उनकी मुख्य स्थापना यह है कि इस सबके बावजूद छायावाद महामानव की कविता है. सामान्य मनुष्य या ‘लघु मानव’ की कविता नयी कविता है. साही मानते हैं कि मनुष्य की हर परिभाषा मूलतः ‘सहज मनुष्य’ की परिभाषा है. वे यह भी मानते हैं कि ‘बारंबार मनुष्य को बदलते हुए देश-काल में परिभाषित करना साहित्य की जिम्मेदारी है.’ साही का यह ‘सहज मनुष्य’ ही उनका लघु मानव है जो नयी कविता के केंद्र में है. 

इस लघु को अपने समय की कविता में और स्पष्ट करते हुए साही ने लिखा है: “छायावाद में उसका रूप लघु की महानता का है, तीसरे दशक में लघु की महिमा का है और उसके बाद की कविता में लघु के ‘महत्त्व’ का है.” इसके आगे साही कहते हैं कि नयी कविता के कवि छायावाद के दार्शनिक पथ और बच्चन आदि के भावनात्मक मार्ग से होकर निकले हैं. उनकी समस्या सिर्फ दार्शनिक नहीं, मूलतः अनुभूति की है. अज्ञेय इसे सूत्रबद्ध कर के पुरानी परंपरा से जोड़ते हैं. ‘प्रसाद’ को छायावाद के केंद्र में रखते हुए साही नयी कविता के केंद्र में अज्ञेय को रखते हैं और लिखते हैं: “अज्ञेय का महत्त्व इस बात में है कि उन्होंने ‘समरसता का दर्शन’ के बजाय ‘निर्वैयक्तिक अनुभूति’ का प्रश्न पूछ कर एक बार फिर दर्शन को अनुभूति में घुला देने की राह निकाली, विवेक और हृदय, संकल्प और विवशता को एक नए ‘योग’ से बाँधा. इसीलिए, अज्ञेय हिंदी काव्य की धारा को मोड़ते हुए-से प्रतीत होते हैं.” 

साही की आलोचना का उत्कर्ष उनकी ‘जायसी’ नामक पुस्तक है. यह उनके आलोचनात्मक लेखन की उपलब्धि है. इस पुस्तक के जरिए वे नए जायसी को ‘डिस्कवर’ करते हैं. कवि जायसी की ऐसी सरस और आत्मीय व्याख्या हिंदी आलोचना में अब तक देखने को न मिली थी. कहा जा सकता है कि ‘जायसी’ न सिर्फ साही की बल्कि 1950 के बाद की सबसे बड़ी आलोचनात्मक उपलब्धि है. 

जायसी को सूफी कवि मानने की धारणा हिंदी आलोचना में व्यापक रूप से फैली हुई थी. साही ने इस धारणा का खंडन किया और उन्हें कवि के रूप में प्रतिष्ठित किया. इसी के साथ उन्होंने जायसी को हिंदी का ‘पहला विधिवत कवि’ माना. वे लिखते हैं: “सबसे पहले जिस बात को अच्छी तरह मन में बैठना जरुरी है, वह यह है कि जायसी हिंदी के पहले विधिवत् वरिष्ठ कवि हैं. कबीरदास श्रेष्ठ हैं: लेकिन विधिवत् कवि भी हैं, ऐसा उनका दावा नहीं है. मूलतः वे संत हैं. कवि होना कबीरदास के लिए लक्ष्य नहीं था.”

जायसी को साही हिंदी का पहला विधिवत् कवि तो मानते ही हैं, वे उन्हें ‘आत्म-सजग’ कवि भी मानते हैं. साही ने लिखा है : “जायसी केवल कवि नहीं हैं, वे आत्म-सजग कवि हैं. अपने कवि का, गुणी होने का उन्हें पूरा भरोसा बल्कि गर्व है. अपने कवि और गुणी होने का जिक्र ‘पद्मावत’ में जायसी ने आरंभ, मध्य और अंत में बार-बार प्रत्यक्षतः या परोक्षतः किया है.” यह ध्यान देने की बात है कि मध्यकाल के प्रायः सभी कवियों का जोर कवि कहलाने की जगह भक्त कहलाने पर है. जायसी ही हैं जिन्हें अपनी कविता पर गर्व है. साही ने ‘पद्मावत’ से इस आशय के कई काव्यांश उद्धृत किए हैं. एक दोहे को यहाँ देखा जा सकता है, जिसमें अपने कवि होने पर जायसी गर्व करते हुए दिखाई पड़ते हैं-

मुहमद कबि जो प्रेम का ना तन रकत न माँसु.

जेइं मुँह देखा तेइं हँसा सुना तो आए आँसु..

हिंदी के इस पहले विधिवत् और आत्म-सजग कवि को किसी मतवाद के तहत देखे जाने का साही खंडन करते हैं और उसे मनुष्यता और कविता के धरातल पर देखने का आग्रह करते हैं. साही ने अनेक तरह से जायसी के सूफी होने का खंडन किया है और उनमें ‘स्वाधीन चिंतन’ के साथ ‘प्रखर बौद्धिक चेतना’ के लक्षण को रेखांकित किया है. साही ने लिखा है: “जायसी में अपने स्वाधीन चिंतन और प्रखर बौद्धिक चेतना के लक्षण मिलते हैं जो गद्दियों और सिलसिलों की मीठी या सरकारी नीतियों से अलग है. इस अर्थ में जायसी सूफी हैं तो कुजात सूफी हैं.” जायसी को साही जब ‘कुजात सूफी’ कहते हैं तो इसका आशय यह है कि जो किसी मतवाद के आग्रह से बंधा हुआ नहीं है. 

साही ने जायसी को सूफी माने जाने की हिंदी आलोचना में फैली धारणा का खंडन बहिर्साक्ष्य के आधार पर तो किया ही है, अन्तः साक्ष्य के आधार पर भी किया है. इससे भी किसी मतवाद में जायसी के बंधे होने की धारणा का खंडन होता है. साही ने लिखा है: “पद्मावत में कुछ स्थलों पर जायसी ने अपनी कविता की प्रकृति, या अपने अनुसार कविता-मात्र की प्रकृति का भी संकेत दिया है. वह दोहा, जिसमें जायसी ने कहा है कि लोगों को उनकी कविता सुनकर आंसू आए, पहले उद्धृत किया जा चुका है. इसका सीधा आशय यह है कि कविता की प्रकृति जायसी के लिए भावना के सम्प्रेषण की है. इसी तरह अन्यत्र उन्होंने कहा है कि कवि रस का भरपूर कटोरा है. कविता के अभिप्रेत प्रभाव की उपमा उन्होंने कमल की सुगंध से दी है जिसे दूर-दूर से भँवरे आकर प्राप्त करते हैं. ये सभी उक्तियाँ कविता, विशेषतः पद्मावत, के केंद्र में अनुभूति को स्थापित करती हैं, किसी मतवाद या दार्शनिक सिद्धांत को नहीं.” 

जायसी को खासकर उनके ‘पद्मावत’ को सूफी मतवाद के भीतर देखने-दिखाने की जो परंपरा रही है, उसका खंडन करने के साथ साही ‘पद्मावत’ में उस ‘विषाद दृष्टि’ (ट्रैजिक विजन) को रेखांकित करते हैं जो उसकी रचना के केंद्र में है. साही मानते हैं कि जायसी के समय में कई तरह के मतवाद थे. उन पर इनका कुछ असर हो सकता है. लेकिन जायसी की चिंतनशीलता में अनुभूति का आत्मसात होना ही उसकी विशिष्टता है. साही के शब्दों में: “अपने सम्पूर्ण प्रसार में यह चिंतनशीलता पूरी कथा में एक तरल विषाद-दृष्टि का सृजन करती है जिसमें मानवीय व्यापार के प्रति पीड़ा है, किन्तु अवसाद नहीं है; हल्का वैराग्य है, लेकिन गहरी संसक्ति भी है; तटस्थता है, लेकिन स्पष्ट नैतिक विवेक भी है. यही वह सुगंध है जो फूल के मरने के बाद भी नहीं मरता.”

साही मानते हैं कि हिंदी आलोचना में जोर ‘पद्मावती’ पर है, जबकि जोर ‘पद्मावत’ पर होना चाहिए. ‘पद्मावत’ पर जोर का ही नतीजा है कि जायसी साही को ‘20वीं शताब्दी का कवि’ लगते हैं. साही ने लिखा है: “जायसी ने लिखा चाहे मध्यकाल में हो, लेकिन वस्तुतः वे 20वीं शताब्दी के कवि हैं. जबकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उन्हें उठाकर तुलसीदास की बगल में खड़ा कर दिया.” 20वीं शताब्दी का कवि होने का अर्थ यह है कि जायसी की ‘समीक्षा का विषय धर्म नहीं, मनुष्य है’. इसी कारण जायसी के भीतर ‘वह गहरा विवेक’ है ‘जो मनुष्य की आखिरी पीड़ा’ को जानता है और ‘मानुष प्रेम के बैकुंठी’ हो जाने की अनुभूति जगाता है. साही के शब्दों में इसीलिए जायसी न समाज सुधारक हैं और न दार्शनिक और न किसी मतवाद के प्रचारक. वे शुद्ध कवि हैं, प्रेम के कवि, ऐसा प्रेम जो संसार को नए रूप में परिभाषित करता है. 

‘छठवाँ दशक’ आलोचक साही के बहसधर्मी रूप का उदाहरण है तो ‘जायसी’ उनकी रचनात्मक आलोचना का पूर्ण विकास. वे आरंभ से ही किसी वैचारिक या दार्शनिक एकाधिकारवादी प्रवृत्ति का साहित्य रचना में विरोध करते रहे और अपने आलोचना-कर्म को भी उससे मुक्त रखा. इसका श्रेष्ठ उदाहरण उनकी आलोचनात्मक कृति ‘जायसी’ है.

(शीघ्र प्रकाश्य ‘विजयदेवनारायण साही: रचना-संचयन’ की भूमिका से)

:गोपेश्वर सिंह