‘मैला आँचल’ (1954) के
प्रकाशन के कुछ महीनों बाद नलिन विलोचन शर्मा ने इस उपन्यास का महत्त्व पहचानते
हुए ‘आलोचना’ पत्रिका में एक जोरदार समीक्षा लिखी – रेणु जी का ‘मैला आँचल’. उन्होंने लिखा: “यह ऐसा सौभाग्यशाली उपन्यास है,जो लेखक की प्रथम कृति
होने पर भी उसे ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त करा दे कि वह चाहे तो फिर कुछ और न भी लिखे”.(नलिन
विलोचन शर्मा: रचना- संचयन, पृष्ठ- 508) उस समीक्षा के बाद हिंदी संसार का ध्यान इस
उपन्यास की ओर गया और इसकी धूम मच गई. अपनी समीक्षा का अंत करते हुए नलिन जी ने
लिखा: “हिंदी उपन्यास-साहित्य में, यदि गत्यवरोध था, तो इस कृति से वह हट गया है.”
नलिन जी ‘गोदान’ के बाद ही हिंदी
उपन्यास साहित्य में यह गत्यवरोध देख रहे थे. ‘गोदान’ का प्रकाशन 1936 में हुआ था.
जब वे गत्यवरोध की बात कर रहे थे, तो इसका आशय क्या था? नलिन जी की मान्यता थी कि
प्रेमचंद ने “बिना किसी साहित्येतर सिद्धांत के आग्रह के, ‘गोदान’ जैसा महान
समष्टिमूलक उपन्यास लिखा, जिसका मुख्य पात्र है तत्कालीन भारतीय जीवन.” इसके आगे
उन्होंने लिखा: “... ‘मैला आँचल’ इसी प्रकार का, गोदान की परंपरा में, भारतीय
भाषाओं का दूसरा उपन्यास है.” 1936 और 1954 के बीच जैनेन्द्र, अज्ञेय आदि लेखकों
के उपन्यास आ चुके थे. वे ‘गोदान’ या प्रेमचंद की परंपरा के उपन्यास नहीं थे. अपने
शिल्प और कथानक के जरिए उनके उपन्यासों ने प्रेमचंद से भिन्न ढंग के उपन्यास लिखे.
उनकी पर्याप्त चर्चा भी हो चुकी थी. जैनेन्द्र उनके प्रिय कथाकारों में थे. लेकिन
इन लेखकों के उपन्यासों का संबंध नागरिक जीवन से था. इसके बावजूद नलिन जी जब
गत्यवरोध की बात कर रहे थे तब उनका आशय ग्राम आधारित उपन्यासों से था. इस बीच यशपाल
के उपन्यास प्रकाशित हुए थे. लेकिन उनमें शिल्प की कोई नवीनता न थी. कुल मिलाकर
उनका शिल्प प्रेमचंद का था और वे ‘साहित्येतर आग्रह’ से मुक्त न थे . भैरव प्रसाद
गुप्त, नागार्जुन आदि के इस बीच उपन्यास आए थे. उनकी विषय-वस्तु गाँवों से उठाई गई
थी. लेकिन कोई शिल्पगत ताजगी वहाँ भी नहीं थी. ‘मैला आँचल’ नई कथा-भाषा और नए
शिल्प में जब प्रकाशित हुआ तो लगा कि प्रेमचंद से अलग का ग्राम आधारित कथा-संसार पाठक
के सामने खुल रहा है. यह ऐसा उपन्यास था जिसे ‘गोदान’ के बाद भारतीय उपन्यास जैसी
संज्ञा दी जा सकती है. वाकई ‘मैला आँचल’ ने उपन्यास साहित्य में आए गत्यवरोध को
दूर कर दिया था.
प्रेमचंद के कथा-शिल्प का बाद की पीढ़ी
के कथाकारों पर जबर्दस्त प्रभाव था. रेणु के पूर्व यथार्थ को देखने का एक ऐसा
ढर्रा विकसित हो गया था, जिससे हटना कुफ्र जैसा था. फणीश्वरनाथ
रेणु ने ‘मैला आँचल’ के जरिए प्रेमचंद के कथा-शिल्प से हिंदी कथा साहित्य को एक
झटके में पूरी तरह मुक्त कर दिया. जिस भाषा और शिल्प में वे गाँव को लेकर ‘मैला
आँचल’ में उपस्थित हुए, वह प्रेमचंद के प्रभाव से पूरी तरह
मुक्त ग्रामीण यथार्थ और उसकी चित्रण शैली थी. रेणु ने यह साबित कर दिया कि यथार्थ
चित्रण की कोई एक शैली नहीं होती. ‘मैला आँचल’ के बारे में रेणु ने स्वयं लिखा था: “इसमें फूल भी हैं, शूल भी,
धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुन्दरता भी है, कुरूपता भी - मैं किसी
से दामन बचाकर निकल नहीं पाया .” यह अपने कथा-संसार के बारे में रेणु की अपनी ही
घोषणा थी. गाँव में गरीबी है, अशिक्षा है, अंधविश्वास है, जात-पात है, लेकिन उमंग-उल्लास
भी है. लोक-लय और लोक-संगीत का रसमय संसार भी है, वहाँ जिंदगी की धड़कन का संगीत भी
है जिसमें पूरा ग्रामीण परिवेश झूमता है. ‘तीसरी कसम’ का हिरामन अभाव ग्रस्त है, अशिक्षित
है, लेकिन उसके भीतर जिंदगी की उमंग है. वह अनपढ़ चरित्र पढ़े-लिखे चरित्रों से अधिक
मानवीय और सभ्य है. यह प्रेमचंद के गाँव से अलग तरह का गाँव है. प्रेमचंद के गाँव
से यह अधिक मुकम्मल है. कुल मिलाकर यह कि रेणु के पास गाँव की एक पूरी तस्वीर है
जिसे अनेक तरह के लोक रंगों में उन्होंने पेश किया है. इसे निर्मल वर्मा रेणु की
‘समग्र मानवीय दृष्टि’ कहते हैं.
प्रेमचंद भी गाँव में रहते हैं, लेकिन रेणु गाँव को जीते
हैं. प्रेमचंद किसान नहीं थे, वे किसान जीवन को जानते थे. रेणु स्वयं किसान हैं, वे
किसानी करते हैं. जिन उँगलियों से कलम पकड़कर वे अपनी कथा बुनते हैं, उन्हीं
उँगलियों से वे धान के बीचड़े भी लगाते हैं. उनकी चिंताएँ सिर्फ एक बौद्धिक
मध्यवर्गीय की नहीं हैं. उनकी चिंता में किसान जीवन की परेशानी भी शामिल है. वे कृषक
जीवन की परेशानियों को स्वयं जीने वाले किसान हैं. नामवर सिंह को अपने गाँव ‘औराही
हिंगना’ से लिखे एक पत्र में वे बारिश न होने और फसलों के सूखने पर अपनी ख़ुशी गायब
होने की बात करते हैं. इसलिए उनका गाँव ज्यादा भरोसे का लगता है. प्रेमचंद कथा-भाषा
रचते हैं, जो पात्रानुकूल जीवंत कथा-भाषा है. लेकिन रेणु जिंदगी से कथा-भाषा छाँटकर
उठाते हैं.
प्रेमचंद के कथा-शिल्प से हिंदी कथा-साहित्य को पूरी तरह
मुक्त कर नया ढंग विकसित करने का ऐतिहासिक काम रेणु ने किया. अपने कहानी संग्रह
‘ठुमरी’ की भूमिका में रेणु ने कहा कि इस संग्रह की कहानियाँ ‘ठुमरी धर्मा’ हैं. यह
कहने के साथ उन्होंने यह भी कहा: “एक स्वर को लेकर, विभिन्न स्वरों से उसकी क्रमिक
संगति दिखला-दिखलाकर ही किसी राग के रूप को प्रकाशित किया जाता है.” ‘ठुमरी’ की
भूमिका को रेणु ने ‘स्वरलिपि’ कहा. ‘ठुमरी’ एक गायन शैली है जिसमें एक राग या अनेक
रागों का मिश्रण होता है. ठुमरी में रागों का कोई बंधन नहीं होता. गायक को पूरी
छूट रहती है. अपनी कहानियों को ‘ठुमरी धर्मा’ कहकर रेणु अपने कथा- शिल्प के बंधन
मुक्त होने और लोकधर्मी खुलेपन की ओर संकेत करते हैं.लोक किन्हीं नियमों से बंधा नहीं होता.उसमें नियमों से परे
जाने की आजादी होती है. रेणु यथार्थवाद से भिन्न अपनी कहानियों को ‘ठुमरी धर्मा’
कहते हैं और कथा शिल्प का नया नैरेटिव बनाते हैं. नया नैरेटिव तब खड़ा होता है जब
नये शिल्प के साथ नया यथार्थ रचा जाता है. नई कथा- भाषा, कहन की नई शैली, फूल और
शूल से बिंधा सामाजिक यथार्थ, थोडा रूमानी अंदाज- यह सब प्रेमचंद की परंपरा का नये
युग में प्रवेश था जो रेणु के हाथों घटित हो रहा था. भूमिका की पूरी शब्दावली को
देखिए, वह संगीत की है. रेणु के कथा-साहित्य में जो सांगीतिकता, लोक-लय है, वह
हिंदी कथा- परंपरा में बिल्कुल नई चीज है. इस लोक-लय के भीतर से रेणु के चरित्र और
कथानक पैदा होते हैं.
हिंदी कथा साहित्य का यह नया नैरेटिव था जो रूमानी कलेवर
के भीतर नये यथार्थ को व्यक्त कर रहा था. नामवर सिंह का एक कथन याद आ रहा है: “यथार्थवाद
कोई शैली नहीं , बल्कि जीवन- दृष्टि है”. कहना यह है कि आँचलिकता भी कोई शैली
नहीं, बल्कि नवीन जीवन- दृष्टि ही है. इस
नवीन जीवन-दृष्टि से संपन्न रेणु का साहित्य प्रेमचंद के बाद के समय की उपलब्धि
है. उनके साहित्य के जरिए हमारे समाज का नया यथार्थ नये तरीके से व्यक्त हो रहा
है.
इस
युगांतकारी नवीनता का स्वागत करने की जगह प्रगतिशील आलोचक रामविलास शर्मा को यह
असफल कथा-प्रयोग लगा और उन्होंने ‘मैला आँचल’ को ‘गैर यथार्थवादी’ घोषित कर दिया. प्रेमचंद
की परंपरा का यथार्थवाद की दृष्टि से महत्त्व स्थापित करते हुए उन्होंने ‘मैला
आँचल’ को प्रेमचंद की परंपरा से दूर का उपन्यास घोषित करने में कोई संकोच न किया. उन्होंने
लिखा है: “ ‘मैला आँचल’ में नई चीज है, लोक संस्कृति का वर्णन. लोकगीतों और लोक
नृत्यों के वर्णन द्वारा लेखक ने एक अंचल-विशेष की संस्कृति का चित्र अंकित किया
है. इसके साथ कथा कहने की उसकी नई पद्धति है. वह सिनेमा के चित्रों के समान
बहुत-से शॉट इकट्ठे कर देता है, ये शॉट एक-दूसरे से कितने विच्छिन्न हैं, इसका
ध्यान नहीं रखता, एक ही अध्याय में तीन-चार बार ‘कट’ लगाकर पाठक को चौंधिया देता
है. नतीजा यह है कि चलचित्र में जो संबद्धता होती है, उसका यहाँ अभाव है. उसकी
चित्रण-पद्धति यथार्थवाद से अधिक प्रकृतिवाद के निकट है. गतिशील यथार्थ में कौन-से
तत्त्व अधिक प्रगतिशील हैं, कौन-से मरणशील, किन पर व्यंग्य करना चाहिए, किनका चित्रण
सहानुभूति से करना चाहिए, वातावरण, घटनाओं आदि के चित्रण और वर्णन में कितनी बातें
छोड़ देनी चाहिए और कितनी का उल्लेख होना चाहिए- कथा शिल्प की इन विशेषताओं में
‘मैला आँचल’ का लेखक प्रेमचंद की परंपरा से दूर जा चुका है.” (प्रेमचंद की परंपरा
और आँचलिकता, आस्था और सौंदर्य, पृष्ठ-97) इस तरह रामविलास शर्मा रेणु के कथा शिल्प को गैर यथार्थवादी और प्रेमचंद की परंपरा से दूर का उपन्यास घोषित
करते हैं.
प्रेमचंद
की परंपरा का हिंदी आलोचना में इतना गैर रचनात्मक प्रयोग हिंदी पाठक के गले नहीं
उतर सका. प्रेमचंद की परंपरा का इतना सरल-सपाट अर्थ हिंदी पाठक नहीं ले रहा था. रेणु
के कथा-साहित्य का जादू उसके सिर चढ़कर बोलने लगा. हिंदी कथा-साहित्य में यह नए दौर
की शुरुआत थी. इसी दौर के एक महत्त्वपूर्ण कथाकार शिवप्रसाद सिंह ने कहा था कि ‘प्रेमचंद
हमारी मंजिल नहीं, पाथेय हैं’. इस कथन में प्रेमचंद से भिन्न कथा- मार्ग पर चलने
का सचेत प्रयास दिखाई देता है. यह सही भी है कि जिन कथाकारों ने प्रेमचंद को पाथेय
माना उन्होंने ही नए मिज़ाज की कृतियों से हिंदी को समृद्ध किया. यह काम ‘मैला
आँचल’ के जरिए तो हुआ ही, ‘राग दरबारी’ (श्रीलाल शुक्ल), ‘आधा गाँव’ (राही मासूम
रजा), ‘अलग-अलग वैतरणी’ (शिवप्रसाद सिंह) आदि नए कथा-शिल्प में आए उपन्यासों के
जरिए भी हुआ. यह काम प्रेमचंद की परंपरा का कीर्तन करने वालों ने नहीं, उन्हें
पाथेय मानकर अलग परंपरा की नींव रखनेवाले कथाकारों ने किया. ऐसे कथाकारों में पहला
नाम फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का है, जिनके उपन्यास ‘मैला आँचल’ के जरिए हिंदी उपन्यास
साहित्य में, यदि कोई गत्यवरोध था, तो दूर हो गया और नये कथा- शिल्प में नये
यथार्थ का प्रवेश हुआ.
क्रांति
और सृजन रेणु के कथाकार व्यक्तित्व के दो छोर हैं. औराही हिंगना की धरती और पटना
का राजनीतिक परिवेश इन दो के बीच कथाकार रेणु को ऊर्जा मिलती है. रेणु सिर्फ
लिखनेवाले नहीं, आंदोलनों में भाग लेने वाले और जेल जाने वाले क्रांतिकारी लेखक
थे. 1942 की क्रांति से लेकर 1974 की जेपी की सम्पूर्ण क्रांति में उनकी सक्रिय
हिस्सेदारी थी. उन्होंने अपने क्रांतिकारी चरित्र के जरिए साहित्यकार की सामाजिकता
की नई दुनिया बनाई. यह समानांतर दुनिया प्रेमचंद की परंपरा की दुहाई देने वालों की
परिभाषा का मोहताज नहीं थी. साहित्यिक रूप से ख़ूब यश अर्जित करने के बावजूद औराही
हिंगना और वहाँ की जिंदगी से रेणु कभी दूर नहीं हुए और शोषण के खिलाफ़ लगातार
संघर्ष करते रहे. अपनी निराशा व्यक्त करते हुए एक जगह उन्होंने लिखा है: “शोषण तो
कभी बंद नहीं हुआ, बल्कि सारी विकृतियाँ दिन दूनी रात चौगुनी होकर समाज को ग्रसती
गईं. जाहिर है कि मेरे पाठकों ने इनमें काल्पनिकता और कल्पनाओं का आनंद लिया और
क्रमशः इन विकृतियों को जकड़ते गए. तो क्या हुआ यह सब लिख कर? मैं सोचता हूँ कि
लिखने के बजाय अगर मैं किसी लड़के पर मोटी रकम तिलक में गिनाने वाले पड़ोसी के दरबाजे
पर सत्याग्रह करने बैठ जाऊँ, अछूतों को सही जगह दिलाने के लिए कम से कम अपने गाँव
में प्रयत्न करता या जाति-पाँति के विरुद्ध अनशन करता तो अच्छा था. एक हजार से
ज्यादा पृष्ठ लिखने और उसकी भूरी-भूरी प्रशंसा और यश प्राप्त करने के बावजूद मुझे
मिला यह सड़ा हुआ बिहार. सिर्फ कलम से ही नहीं, अपनी काया से भी लिखना जरूरी है.”
अपनी काया और कलम से लड़ने वाले कथाकार रेणु की जो नई कथा भंगिमा है, उसे
‘प्रगतिशीलों’ ने भले महत्त्व न दिया हो, लेकिन भविष्य के कथाकारों के लिए रेणु-मार्ग
उनका अपना हो गया.
जयप्रकाश
नारायण और औराही हिंगना रेणु की राजनीतिक और साहित्यिक ऊर्जा के दो छोर हैं. वे
अपने गाँव से भी ऊर्जा लेते हैं और जेपी की समाजवादी सोच और उनकी क्रांति से भी. रेणु
की कथा-दृष्टि को ‘समग्र मानवीय दृष्टि’ कहनेवाले निर्मल वर्मा ने लिखा है: “...दोनों
के भीतर एक रिश्ता है, जिसके एक छोर पर ‘मैला आँचल’ है, तो दूसरे छोर पर जयप्रकाश
जी की सम्पूर्ण क्रांति. दोनों अलग-अलग नहीं हैं- वे एक ही स्वप्न, एक लालसा, एक
‘विजन’ के दो पहलू हैं. एक-दूसरे पर टिके हैं. कलात्मक ‘विजन’ और क्रांति दोनों की
पवित्रता उनकी समग्र दृष्टि में निहित है, सम्पूर्णता की माँग करती है- एक ऐसी
सम्पूर्णता जो समझौता नहीं करती, भटकती नहीं, सत्ता के टुकड़ों पर या कोरे
सिद्धांतों की आड़ में अपने को दूषित नहीं करती. वह एक ऐसा मूल्य है जो खुली हवा
में साँस लेता है और इसलिए अंतिम रूप से पवित्र और सुन्दर और स्वतंत्र है.”
रेणु
जन और जन- संघर्षों से सिर्फ सहानुभूति रखनेवाले लेखक नहीं थे. वे अपादमस्तक जन
संघर्षों में डूबे हुए लेखक थे. 1970 के दशक में जब बिहार के गाँव में नक्सलवाद ने
पैर पसारा और भूमिहीन किसानों का हिंसक संघर्ष भूमिपतियों के ख़िलाफ बढ़ने लगा तो
जयप्रकाश नारायण ने नक्सलवाद की समस्या को समझने और भूमिहीन किसानों की दशा को
जानने का एक सिलसिला शुरू किया. वे मुजफ्फरपुर के मुसहरी अंचल में गए और वहाँ अपने
साथियों के साथ कैम्प करते हुए अपने साहित्यिक साथी फणीश्वरनाथ रेणु को भी इस
अभियान में शामिल होने का आह्वान किया. 5 दिसंबर 1970 को जेपी ने रेणु जी को एक
पत्र लिखा: “...गाँव की कठोर वास्तविकताओं को निकट से देखने का यहाँ अवसर मिला है.
23 वर्षों के स्वराज्य के बावजूद भारत माता का ‘आँचल’ सचमुच कितना ‘मैला’ है!
इसमें नक्सलवाद नहीं तो और क्या पलेगा? मैं चाहता हूँ कि आप जैसे समर्थ साहित्यकार
इन वास्तविकताओं को आकर देखें और उनकी तस्वीर साहित्य में उतारें. ‘मैला आँचल’
लिखकर आपने साहित्य-लेखन या उपन्यास-लेखन की जो परंपरा शुरू की थी, वह समाप्त हो
गई-सी लगती है. आज की पृष्ठभूमि में उसे पुनर्जीवित कर आगे बढ़ाने की जरूरत है. यह
तो जाहिर है कि इस देश में भावी क्रांति का क्षेत्र गाँव ही होगा, और नव निर्माण
का आरंभ भी वहीं से होगा. अतः क्रांतिकारी नव साहित्य का सृजन गाँव में बैठकर ही
किया जा सकता है.” (माटी के गौरव रेणु, संपादक- भारत यायावर एवं अन्य, पृष्ठ-330)
क्रांति
और साहित्य तथा गाँव की सचाई और राजनीति की सचाई से यह जीवंत रिश्ता कथाकार रेणु
का है. 12 अगस्त 1974 को पूर्णिया डिस्टिक जेल से रेणु ने जेपी को लम्बा पत्र लिखा
जिससे उनके आंदोलन धर्मी चरित्र का पता चलता है. पत्र का एक अंश है: “मैं पिछली 7
जुलाई से गाँव पर था और आंदोलन के पहले चरण की तैयारी कर रहा था. 1 अगस्त को सामूहिक
उपवास के बाद शाम को फारबिसगंज जन-संघर्ष समिति के अध्यक्ष श्री दयानंद साहु की
अध्यक्षता में सभा हुई, जिसके माध्यम से आंदोलन के सन्देश और संकल्प को दुहराया
गया. इसी बीच सारे इलाके में अभूतपूर्व बाढ़ आ गई. इस प्राकृतिक प्रकोप से पीड़ितों
को राहत दिलाने के उद्देश्य से, लायंस क्लब, फारबिसगंज के सहयोग से करीब 50 हजार
रुपये इकट्ठे किए गए. यह योजना बनी कि छात्र एवं जन-संघर्ष समिति के सदस्य संघर्ष
के साथ-साथ राहत का भी कार्य करें. इस सिलसिले में मैं स्वयं छात्रों की एक टोली
के साथ नरपत गंज, फारबिसगंज के संकट ग्रस्त क्षेत्र को देख आया, और किस प्रकार
राहत का कार्य किया जाए, इस संबंध में बैठकर फैसला किया...” (रेणु रचनावली-5,
पृष्ठ-525-26)
इस
आंदोलन धर्मी लेखक के दृष्टिकोण पर टिप्पणी करते हुए रामविलास शर्मा ने कहा है:
“... कहना पड़ेगा कि जनता और उसके राजनीतिक कार्यवाही में उसकी आस्था नहीं है. उसे लोक
संस्कृति प्रिय है किन्तु इस संस्कृति के रचने वालों में उसे कहीं प्रकाश की
किरणें नहीं दिखाई देतीं. उसे आँचल की मिट्टी से प्रेम है. किन्तु उस मिट्टी में
मरने-खपने वाले उसे पशु से भी सीधे और पशु से भी ज्यादा खूंखार दिखाई देते हैं.”
(आस्था और सौंदर्य, पृष्ठ-100) क्या यह रेणु और उनके उपन्यासों के साथ आलोचक का
न्याय है? निश्चित रूप से नहीं. रामविलास जी आँचलिकता को ही खारिज करते हैं और उसे
यथार्थवादी नहीं मानते. उन्होंने लिखा है: “आँचलिकता के नाम पर जो कुछ लिखा जाए,
वह सभी सच नहीं होता. जनता के अंधविश्वासों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया है, जमींदार
के अत्याचारों को कम करके पेश किया गया है, राजनीतिक पार्टियों के दोषों को अतिरंजित
और भूलों को नजरअंदाज किया गया है.” (वही, पृष्ठ-101) इसी तरह विश्वनाथ त्रिपाठी
ने ‘तीसरी कसम’ कहानी पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि रेणु के यहाँ ‘दृष्टि या
विचार लुप्त है’. त्रिपाठी जी को रेणु का गद्य विचारहीन लगता है. उन्हें रेणु के
गद्य में विचारात्मकता नहीं दिखाई देती. (कुछ कहानियाँ: कुछ विचार, पृष्ठ-54-55)
रेणु
की जो जीवन-दृष्टि है और उनके कथा संसार का जो यथार्थ है, उसे यथार्थवाद की रूढ़
समझ के जरिए नहीं समझा जा सकता. निर्मल वर्मा ने रेणु के साहित्य को ‘तनाव और
उल्लास’ के बीच का साहित्य कहा है. जो जीवन में सिर्फ संघर्ष देखते हैं, या जो
जीवन में सिर्फ सौंदर्य खोजते हैं, रेणु का साहित्य उनके लिए एक चुनौती है. उनके
साहित्य में तनाव और उल्लास का जो द्वंद्व है उसे समझे बिना रेणु को ठीक-ठीक नहीं
समझा जा सकता. गाँव की गरीबी, रानजीतिक दलों की अवसरवादिता, लोगों के स्वार्थ आदि
बातें दूसरे कथाकारों के यहाँ भी हैं और रेणु के यहाँ भी. लेकिन जो चीज रेणु को
विशिष्ट बनाती है वह कुछ और है. ‘परती परिकथा’ पर टिप्पणी करते हुए निर्मल वर्मा
ने जो बात की है, वह उनके सम्पूर्ण साहित्य के लिए सच है. निर्मल के कथन का एक अंश
है: “किन्तु इस कलह-क्लेश के बावजूद परानपुर में पूर्णिमा का चाँद उगता है. लाजमयी
और मलारी का गीत-स्वर परती की सफ़ेद बालू पर पंख फड़फड़ाता हुआ उड़ता है. पाँचों
कुंडों में पाँच चाँद रात भर झिलमिलाते हैं, शरद की चाँदनी में पहाड़ से उतरनेवाले
पक्षियों की पहली पाँत उतरती है.... चाँदनी की यह स्वप्निल संगीतमयता ‘परिकथा’ में
आद्योपांत छाई रहती है. तनाव और उल्लास रेणु के कथा साहित्य के ये दो किनारे हैं.
इस तनाव और उल्लास के बीच परानपुर के निवासियों की जीवन-धारा अविरल रूप में प्रवहमान
है.”
तनाव
जीवन की जद्दोजहद का है और उल्लास लोक-लय का. लोक और संगीत के बिना रेणु के
साहित्य के वैशिष्ट्य को नहीं समझा जा सकता. लोक गीतों के बारे में रेणु ने लिखा
है: “मैं लोक गीतों की गोद में पला. इसीलिए हर मौसम में मेरे मन के कोने में उस
ऋतु के लोक गीत गूँजते रहते हैं. मैं कहीं भी हूँ- इन लोक गीतों की
स्मृति-ध्वनियाँ मुझे अपने गाँव में- कुछ क्षण के लिए पहुँचा देती हैं.” किस मौसम
में, किस समय में, कौन-सा गीत गाया जाता है, यह रेणु को पता है. उन्हें पता है कि
किस गीत में ‘फागुन की मस्ती की हल्की खुमारी और चैती की मीठी-मीठी उदासी
मिली-जुली रहती है’. वे अपनी उसी टिप्पणी में लिखते हैं: “अगहन शुरू होते ही पके
हुए धन-खेतों की अगहनी सुगंध के लिए मन मचलता है. अलाव तापते हुए- खलिहान में दौनी
को आए हुए लोगों से बातें करने की बड़ी इच्छा होती है.” (रेणु रचनावली-5,
पृष्ठ-476)
अज्ञेय
रेणु के प्रिय लेखक थे और ‘शेखर एक जीवनी’ उनका एक प्रिय उपन्यास. 1943 में
भागलपुर जेल में 1942 की क्रांति के सिपाही के रूप में कैदी जीवन बिताते हुए रेणु
ने यह उपन्यास पढ़ा. शेखर का क्रांतिकारी चरित्र रेणु को इतना पसंद आया कि वे जीवन
भर के लिए अज्ञेय के साथ हो लिए. अज्ञेय का सुंदर व्यक्तित्व, उनका क्रांतिकारी
अतीत, लेखन के साथ उनकी सामाजिकता और उनके साहित्य से गहरा जुड़ाव रेणु को जीवन भर
बना रहा. राजनीति में जेपी और साहित्य में अज्ञेय उनके दो अग्रज साथी रहे जिनसे
संबंधों को समझे बिना रेणु के साहित्य को भी नहीं समझा जा सकता.
रेणु
का जनपद मिथिलांचल है. प्रेम और सौंदर्य के कवि विद्यापति का भी यही क्षेत्र हैं.
‘नित नित नूतन’ होने वाले ‘अपरूप’ रूप के खोजी कवि हैं विद्यापति. इस ‘अपरूप’ को
खोज लाने का कथा-प्रयत्न रेणु के यहाँ भी है. लेकिन एक फर्क के साथ. रेणु
निम्नवर्गीय जीवन और पात्रों में इस ‘अपरूप’ को रेखांकित करते हैं. ‘रसप्रिया’
कहानी का एक वाक्य है: “चरवाहा मोहना छोड़ा को देखते ही पंचकौड़ी मिरदंगिया के मुँह
से निकल पड़ा- ‘अपरूप रूप!’ यही बात इस कहानी में दूसरे ढंग से भी कही गई है: धूल
में पड़े पत्थर को देखकर जौहरी की आँखों में एक नई झलक झिलमिला गई- ‘अपरूप रूप’!
उनका कथा-साहित्य ‘अपरूप रूप’ के ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है. इस नये सौंदर्य बोध
के कारण ही रेणु प्रेमचंद के बाद हिंदी कथा-साहित्य में वह मुकाम हासिल करते हैं
जो दूसरे नहीं कर पाते.
***
गोपेश्वर सिंह
हिंदी विभाग, दिल्ली
विश्वविद्यालय, दिल्ली-07
Email: gopeshwar1955@gmail.com
मो. 8826723389
Sir pranam.aapne renuji ko bahut hi achhe se vyakhyayit kiya.
ReplyDeleteबहुत ही शानदार और मार्मिक लेखनी से आपने रेणू जी को व्यक्त किया या कहिये आपने पूरी परंपरा को जो साहित्य के वजूद को जिन्दा कर सके उसको नापने का प्रयास किृा है सर। वास्तव में बहुत कुछ नया और जानकारी से युक्त चीजें आपको पढकर मिलती है। धन्यवाद!
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