Sunday, 8 November 2020

जैनेंद्र की जीवनी:'अनासक्त आस्तिक'

 


गोपेश्वर सिंह

1980 के अक्टूबर महीने की कोई तारीख थी. संभवतः 9-10 अक्टूबर की. पटना रेलवे जंक्शन के प्लेटफ़ॉर्म नम्बर-1 पर हिंदी के अमर कथा-शिल्पी जैनेन्द्र कुमार का मैं इंतजार कर रहा था. वे श्रमजीवी एक्सप्रेस से आने वाले थे. उनके उपन्यास, उनकी कहानियाँ और उनके चरित्र मन में घूम रहे थे. अजीब रोमांच था मेरे भीतर. इतने बड़े लेखक से मिलने का सौभाग्य जो मिल रहा था. श्रमजीवी एक्सप्रेस रुकी तो सामने कोच के दरवाजे पर हाथ में बैग लिए जैनेन्द्र कुमार दिखाई पड़े -किसी को खोजते हुए-से. मैंने नमस्कार किया. उनके हाथ का थैला लेते हुए मैंने कहा कि मैं आपको लेने आया हूँ. उन्होंने मेरा नाम और परिचय पूछा. तब मैं विश्वविद्यालय का शोध-छात्र था. यह जानकर वे आश्वस्त हो गए. उन्हें लेकर मुझे सदाक़त आश्रम जाना था, जहाँ पर जयप्रकाश जयंती के उपलक्ष्य में एक आयोजन होने वाला था और जिसके मुख्य अतिथि जैनेन्द्र जी थे. जैनेन्द्र जी ने मुझसे पूछा कि क्या मैं नलिन विलोचन शर्मा का घर जानता हूँ? मैंने कहा कि हाँ, मैं कई बार वहाँ जा चुका हूँ. उन्होंने कहा कि सबसे पहले मैं नलिन के घर जाऊँगा. वहाँ उनकी पत्नी कुमुद शर्मा से मिलते हुए हम सदाक़त आश्रम चलेंगे. उन्होंने यह भी कहा कि नलिन के न रहने पर मैं जब भी पटना आता हूँ, सबसे पहले उनके घर जाता हूँ. फिर वहाँ से कहीं और. यह मेरा नियम-सा है. वे मेरे गहरे मित्र थे. पटना आते ही उनकी याद मुझे परेशान करने लगती है.

          मैं उन्हें लेकर एग्जीबिशन रोड स्थित स्व. नलिन विलोचन शर्मा के घर गया. नलिन जी की पत्नी कुमुद शर्मा अचानक जैनेन्द्र को देखकर भाव-विह्वल हो गईं. बरामदे में दोनों बैठे-बैठे चाय पीते रहे और पुराने दिनों को उलटते-पलटते रहे. शाम को जैनेन्द्र जी ने जयप्रकाश जयंती समारोह में भाग लिया और उनके आदर्शों और उनके साथ अपने संबंधों की चर्चा की. दूसरे दिन शाम की ट्रेन से वे दिल्ली रवाना हुए. उनके ठहरने की व्यवस्था आश्रम में ही की गई थी. मैं वहीं रहता था और हिंदी साहित्य का छात्र था. इसलिए आयोजकों ने जैनेन्द्र जी की देखभाल का जिम्मा मुझे सौंप ही रखा था. उनसे मैंने जितनी बातें कीं, वे सब अब मुझे याद नहीं हैं. बस इतना याद है कि वे मझौले कद के और गोरे रंग के थे. बाल सफ़ेद थे और खादी का सफ़ेद कुर्ता-पाजामा पहने हुए थे. धीरे-धीरे बोलते थे और गाँधी, जेपी आदि के बारे में बहुत ऊँची राय रखते थे. उस दौरान उनसे हुई बातचीत को यदि मैंने नोट कर लिया होता तो जैनेन्द्र से मुलाक़ात का एक जीवंत दस्तावेज मेरे पास होता. बहरहाल, हमारे समय के एक महत्त्वपूर्ण आलोचक और कला समीक्षक ज्योतिष जोशी लिखित जैनेन्द्र कुमार की जीवनी ‘अनासक्त आस्तिक’ पढ़ते हुए जैनेन्द्र कुमार से मिलने की वह घटना याद आई और याद आया उनका बहुत ही सादगीपूर्ण व्यक्तित्व और उनका व्यवहार. यह जीवनी पढ़ते हुए जैनेन्द्र के साथ भारतीय समाज, राजनीति और साहित्य का एक पूरा युग हमारे सामने दृश्यमान हो गया. इसे मैंने  पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता चला गया. लगा कि किसी बहुत रोचक उपन्यास के भीतर से गुजर रहा हूँ.

          ‘अनासक्त आस्तिक’ बहुत सार्थक नाम है. आस्तिकता को आमतौर से वस्तुनिष्ठता और प्रगतिशीलता का विरोधी भाव मानने का प्रचलन हिंदी में है. रामविलास शर्मा और नामवर सिंह सरीखे प्रगतिशील आलोचकों ने जैनेन्द्र की आस्तिकता और उनकी रचनाशीलता को प्रति-क्रांतिकारीता  का पर्याय साबित करने की ख़ूब कोशिश की है. प्रेमचंद के विलोम के रूप में जैनेन्द्र को रखा जाता रहा है और प्रेमचंद बनाम जैनेन्द्र की बेकार-सी बहस भी चलती रही है. इस जीवनी से मालूम होता है कि प्रेमचंद के सबसे करीबी युवा लेखक थे जैनेंद्र और प्रेमचंद के एक तरह से मानस पुत्र थे. अंतिम समय में प्रेमचंद के पास शिवरानी देवी के साथ जैनेन्द्र भी थे. स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी, जेल यात्रा, सत्याग्रही जीवन और गाँधी से गहरा आत्मीय जुड़ाव जैनेन्द्र के साहित्य को गहरे सामाजिक सन्दर्भों से जोड़ता है. साहित्य में प्रेमचंद और राजनीति में गाँधी- इन दो महान व्यक्तियों के संपर्क-साथ में शिक्षित जैनेन्द्र को गैर-सामाजिक सिद्ध करने का जो अपराध आलोचना ने किया, उसका जवाब आलोचना की ओर से 1950-60 में नलिन विलोचन शर्मा ने दिया था. और हमारे समय में जैनेन्द्र पर लगातार लिखकर और उनके परिप्रेक्ष्य को सही सन्दर्भों से युक्त करके ज्योतिष जोशी कर रहे है. ‘जैनेंद्र और नैतिकता’ के बाद ‘अनासक्त आस्तिक’ ज्योतिष जोशी के जैनेन्द्र संबंधी चिंतन का सगुण-साकार रूप है.

          जैनेन्द्र ने सामाजिकता की जिस वैकल्पिक समझ को जिया और अपने चिंतन का अंग बनाया, वह गाँधीवादी सामाजिकता का बहुत ही नैतिक और उज्ज्वल पक्ष है. वे समाजनीति लोकनीति और राजनीति की वैकल्पिक सभ्यता को अपने जीवन, साहित्य और चिंतन से रचते रहे. उसे दुर्भाग्य से हिंदी समाज ने कम समझा और उसे समझने योग्य बनाने में प्रगतिशील आलोचना ने बड़ा अवरोध उपस्थित किया. ‘अनासक्त आस्तिक’ के जरिए जीवनीकार ने जैनेन्द्र संबंधी चलाई गई प्रगतिशील आलोचकों की बहसों की प्रायः अनदेखी की है और ऐसा करके अच्छा किया है. लेकिन जो इसका सबसे सकारात्मक पक्ष है वह यह कि उन्होंने व्यक्ति और लेखक जैनेन्द्र के नैतिक, सामाजिक और सृजनात्मक व्यक्तित्व को खड़ा किया है. ऐसा नैतिक व्यक्ति और लेखक जो सत्ता के भय से अपने पथ से डिगता नहीं और अपने आचरण की शुद्धता पर दाग भी नहीं लगने देता. इस जीवनी को पढ़ने के बाद जैनेन्द्र का एक नया सामाजिक और लेखकीय रूप पाठक के सामने होता है.

         अलीगढ जिला के कौडियागंज क़स्बे में अति साधारण वैश्य परिवार में पैदा होने वाला बालक आनंदीलाल आगे चलकर हिंदी का महान लेखक जैनेंद्र कुमार के नाम से जाना गया. घर- परिवार की ज़िम्मेवारी संभालते हुए जैनेंद्र ने स्वतंत्रता आंदोलन में हर तरह से हिस्सा लिया. गाँधी के निकट संपर्क में रहे. जवाहरलाल, जेपी आदि बड़े नेताओं से मित्रवत संबंध रहा, लेकिन आज़ादी के बाद इस स्वाभिमानी लेखक ने मसिजीवी लेखक के रूप में जीवन निर्वाह किया, कभी अपने राजनीतिक संबंधों का फ़ायदा नहीं उठाया. इंदिरा जी ने आदरपूर्वक मदद की पेशकश की, लेकिन स्वाभिमानी जैनेद्र ने पारिवारिक दबाव के बावजूद मदद स्वीकार नहीं की. यही कारण था कि जेपी आंदोलन में इंदिरा जी का विरोध करने और आंदोलन के पक्ष में खड़ा होने में उन्हें किसी प्रकार का संकोच नहीं हुआ. अपनी कलम के बल पर गुजारा करने वाले इस स्वतंत्र चेता लेखक ने विकास की पूँजीवादी मॉडल का हमेशा विरोध किया और वैकल्पिक विकास नीति की बात की. गाँधी जिस वैकल्पिक सभ्यता की लड़ाई लड़ते हुए शहीद हुए , जैनेद्र अपने चिंतन से उसके पक्ष में जीवन भर खड़े रहे. इस जीवनी के जरिए जीवनीकार ने जैनेंद्र की सामाजिकता को बार- बार रेखांकित किया है. इस जीवनी को पढ़कर समाज सापेक्ष जैनेंद्र की जो छवि उभरती है, प्रगतिशील आलोचकों की बनाई छवि से सर्वथा भिन्न है.

        कथाकार प्रेमचंद के बेहद क़रीब थे जैनेंद्र, लेकिन कथा- लेखन की उन्होंने अलग राह पकड़ी. यह उनकी मौलिकता थी. इसे उनकी विशेषता बताने की जगह आलोचकों ने उन्हें मनोवैज्ञानिक कथा- लेखक के रूप में प्रचारित किया. 1960 के दशक में ऐसे आलोचकों को जवाब देते हुए नलिन विलोचन शर्मा ने लिखा: “पश्चिम के मनोविश्लेषणात्मक उपन्यासों की किम्वदंती सुन रखनेवाले हिंदी के आलोचकों ने जैनेंद्र के उपन्यासों पर फ्रायड का प्रभाव घोषित करके अपनी अहंमन्यता को संतुष्ट किया, स्वयं जैनेंद्र ने ईमानदारी का परिचय देते हुए सदैव इस आरोपित प्रभाव को अस्वीकार किया. सत्य भी यही है कि व्यक्ति- केंद्रित होने पर भी जैनेंद्र के उपन्यासों में मनोविश्लेषण की प्रणाली की छाया भी नहीं है. जैनेंद्र में, वस्तुतः हिंदी ने एक शरच्चंद के अभाव की पूर्ति पा ली थी. नलिन विलोचन शर्मा के अनुसार ‘परख’ और ‘त्यागपत्र’ में जैनेन्द्र शरच्चंद की छाया मात्र हैं. किन्तु ‘सुनीता’ के लेखक के रूप में वे शरच्चंद की छाया से मुक्त अधिक महत्त्व के अधिकारी हैं. ज्योतिष जोशी ने शरच्चंद के इस कथाकार रूप के महत्त्व को पहचाना है और उन्हें वे स्त्री जीवन का विशिष्ट कथाकार सिद्ध करते हैं.

          स्वतंत्रता सेनानी होने, नेहरु-जेपी समेत देश के तमाम बड़े नेताओं से परिचित होने के बावजूद जैनेन्द्र ने कभी कोई पद या राजाश्रय नहीं लिया. वे लेखक को स्वतंत्र रूप में देखना चाहते थे. वे लेखक के लिए ऐसी स्वतंत्रता चाहते थे कि जब कभी ज़रूरत हो, सत्ता के खिलाफ़ लेखक आवाज उठा सके. यही कारण था कि निरंकुश होती जा रही इंदिरा गाँधी की शासन व्यवस्था के खिलाफ़ वे जेपी के साथ आंदोलन में कूद पड़े; जबकि इंदिरा जी जैनेन्द्र का बहुत सम्मान करती थीं. राजाश्रय के संबंध में जैनेन्द्र जी का विचार था: “लेखक को किसी भी आश्रय की आवश्यकता नहीं है. हमें किसी की सहायता, किसी की अनुकम्पा, किसी की दया नहीं चाहिए.” (पृष्ठ सं. 264) इस तरह लेखक का सम्मान जीने वाले और सत्ता तंत्र से हमेशा दूरी बनाए रखने वाले स्वाभिमानी जैनेन्द्र की बचपन से लेकर अंत तक की संघर्ष से भरी जीवन-कथा ‘अनासक्त आस्तिक’ के रूप में प्रस्तुत कर हिंदी के श्रेष्ठ जीवनीकारों में ज्योतिष जोशी ने विनम्रता पूर्वक अपना भी नाम शामिल कर लिया है.

          हिंदी में लेखकों का जीवन चरित बहुत कम मिलता है. हिंदी में लेखकों ने अपनी आत्मकथाएँ भी कम लिखी हैं. ‘रज़ा न्यास’, नई दिल्ली ने लेखकों की जीवनी लिखाने की एक अच्छी शुरुआत की है. उस योजना के अंतर्गत रघुवीर सहाय की जीवनी विष्णु नागर ने ‘असहति में उठा हुआ एक हाथ’ शीर्षक से लिखी हैं और दूसरी जीवनी ज्योतिष जोशी लिखित ‘अनासक्त आस्तिक’ है. सुना है कि भारत यायावर फणीश्वरनाथ रेणु की जीवनी लिख रहे हैं. इस पहल के लिए ‘रज़ा न्यास’ और जीवनी लेखकों का हार्दिक अभिनंदन.

***

हिंदी विभाग,

दिल्ली विश्वविद्यालय,

दिल्ली-110007

Email ID: gopeshwar1955@gmail.com

M: 8826723389     

 

Thursday, 8 October 2020

साही: एक कुजात मार्क्सवादी आलोचक


 विजयदेव नारायण साही (7 अक्टूबर 1924 - 5 नवंबर 1982) जितने महत्वपूर्ण कवि थे, उतने ही महत्वपूर्ण आलोचक भी. अपने आलोचनात्मक लेखन और बहसों के जरिए 1950 के बाद के हिंदी माहौल को वैचारिक रूप से आंदोलित करने में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई. आलोचना में उनकी मौलिक समझ और स्थापनाओं ने नई हलचल पैदा की. जब हिंदी में प्रगतिशील आलोचना का जोर था, तब साही ने वैकल्पिक प्रगतिशीलता की देशी जमीन निर्मित की. उनके तर्कों और स्थापनाओं की अनदेखी किसी के लिए भी संभव नहीं थी. 

साही ने जितना हिंदी आलोचना को जितना लिखकर समृद्ध किया, उतना ही अपने व्याख्यानों के जरिए बहसधर्मी माहौल बनाया. वे बहु भाषाविद् थे. अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, फ़ारसी आदि भाषाओं के जानकार होने के कारण उन भाषाओं का साहित्य उनके सामने था. अंग्रेजी भाषा पर अधिकार के कारण देश-दुनिया में चलने वाली साहित्य संबंधी बहसें उनके सामने थीं. यही कारण है कि उनका आलोचनात्मक लेखन विविध सन्दर्भों से समृद्ध है. लेकिन पुस्तकाकार प्रकाशन के प्रति उनकी लारवाही इस क्षेत्र में भी दिखाई देती है. जिस आलोचक ने पत्र-पत्रिकाओं में हिंदी के वैचारिक माहौल को निरंतर आंदोलित किया, उसकी कोई भी पुस्तक उसके जीवन काल में प्रकाशित न हो सकी. निधन के उपरांत उनके मित्रों और पत्नी के प्रयास से ‘जायसी’ (1983), ‘साहित्य और साहित्यकार का दायित्व’ (1983), ‘छठवाँ दशक’ (1987), ‘साहित्य क्यों’ (1988) तथा ‘वर्धमान और पतनशील’ (1991) नामक पुस्तकें प्रकाशित हुईं. लोगों का अनुमान है कि उनका अभी और भी आलोचनात्मक लेखन है, जो पत्र-पत्रिकाओं में बिखरा पड़ा है. 

साही आंदोलनधर्मी साहित्यकार थे. वे समाजवादी आंदोलन में अपादमस्तक डूबे हुए थे. लेकिन साहित्य के मूल्यांकन में राजनीतिक टूल्स का इस्तेमाल करने से प्रायः परहेज करते थे. उनके आलोचनात्मक लेखन का मुख्य आधार भारत का सामान्य मनुष्य और साहित्य की साहित्यिकता थी.  वे प्रगतिशीलों की तरह ‘साहित्य में राजनीति और राजनीति में साहित्य’ की बात करने के कायल नहीं थे. उन्होंने साहित्य को कभी राजनीतिक विचारों का उपनिवेश नहीं बनने दिया. मार्क्सवादी आलोचना की कम्युनिस्ट परिणति की वे आलोचना करते रहे. साहित्य का अपना प्रतिरोधी स्वर होता है. साही उसी प्रतिरोधी स्वर को रेखांकित करने का प्रयत्न करते रहे.

सत्य प्रकाश मिश्र ने साही को ‘कुजात मार्क्सवादी’ कहा है. राममनोहर लोहिया ने गाँधीवादियों की तीन कोटियाँ बनाई थीं- मठी गाँधीवादी, सरकारी गाँधीवादी और कुजात गाँधीवादी. लोहिया के अनुसार कुजात गाँधीवादी वे लोग थे जो गाँधीवाद का रचनात्मक विकास कर रहे थे. साही नरेन्द्रदेव की प्रेरणा से समाजवादी आंदोलन में गए थे. नरेन्द्र देव मार्क्सवादी थे. लेकिन उनका मार्क्सवाद लोकतंत्र की जमीन पर खड़ा था. उसमें भारत की परंपराएँ समाहित थीं. साही ने मार्क्सवाद के इसी सार तत्त्व को ग्रहण किया था और उसे भारतीय जमीन पर प्रतिष्ठत करने का संघर्ष किया था. जब उन्हें ‘कुजात मार्क्सवादी’ कहा जा रहा है तो उसका आशय यही है. 

साही मानते थे कि ‘साहित्य का दायित्व’ साहित्यकार के दायित्व से अलग नहीं है. वे साहित्यकार और साहित्य के दायित्व में फर्क नहीं करते थे. वे मानते थे कि जो दायित्व साहित्य का है वही दायित्व साहित्यकार का है. दायित्व का बोध साहित्य के भीतर निहित है. वे यह भी मानते थे कि समाज की ओर से बोलने का दायित्व लेखक का ही है. वे इस दायित्व के भीतर परिवर्तन की माँग करते हैं. अपने प्रसिद्ध व्याख्यान ‘साहित्य और साहित्यकार का दायित्व’ में वे कहते हैं: “......साहित्यकार को इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि वह समाज को संगुम्फित करें. क्योंकि यह जो संगुफन की चिंता घेरती है तो जस-का-तस बने रहना देना चाहिए यह प्रतीति जागती है.” इसका सीधा अर्थ है कि साहित्य और साहित्यकार के दायित्व में परिवर्तन निहित है. वे मानते थे कि कोई भी सामाजिक या साहित्यिक मूल्य जब बहुत अधिक चिंता का विषय हो जाता है तो वह ‘जस-का-तस’ बनाए रखने की ओर बढ़ता है. वे कहते हैं: “......समाज को जोड़े रहने के लिए हमें अपने जो परंपरागत सांस्कृतिक मूल्य हैं इन सांस्कृतिक मूल्यों का निरंतर नया-नया आवाहन करने की जरुरत है.” इसी के साथ वे साहित्यकार से सम्पूर्ण चेतना के दायित्व की माँग करते हैं. इस सम्पूर्ण चेतना के अंतर्गत वे अपनी संस्कृति के प्राणवान मूल्यों और परिवर्तन की चेतना के तनाव की बात करते हैं.

साहित्य के प्रति अपने इसी दायित्व बोध के साथ साही ने ‘मार्क्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति’ निबंध में उस दृष्टिकोण की तीखी आलोचना करते हैं जिसे वे कम्युनिस्ट आलोचना का नाम देते हैं. वे साहित्य को ‘हथियार’ बनाए जाने का विरोध करते हैं और साहित्य-चिंतन को पार्टी लाइन के अनुकूल ढालने का भी.

साही का इतिहास बोध वैज्ञानिकता और तर्कशीलता पर आधारित है. मानव सभ्यता के विकास को वे सामंतवाद और पूँजीवाद के रास्ते समाजवाद की ओर अग्रसर होते हुए देखने के हिमायती हैं. इस दृष्टि से उनके प्रसिद्ध निबंध ‘राजनीति और साहित्य’ को देखा जा सकता है. वे मानते हैं कि लम्बे समय तक राजनीति पर धर्म का प्रभुत्व रहा है और उस धर्म आधारित राजनीति ने साहित्य रचना को नियंत्रित किया है. पूँजीवाद ने इस व्यवस्था को चुनौती दी और राजनीति तथा धर्म के नियंत्रण से बहुत हद तक साहित्य को मुक्त किया. लेकिन उनके अनुसार पूँजीवाद एक सीमा तक ही धार्मिक बंधन को कमजोर करता है. उनका मानना है कि धर्म और धार्मिक भावना को तब तक समाप्त नहीं किया जा सकता जब तक वर्ग संघर्ष की स्थिति समाज में है. वे कहते हैं: “.....शुद्ध वैज्ञानिक मानवीय दर्शन अपने तार्किक सामंजस्य के कारण वर्गहीन समाज का ही दर्शन होगा. अतएव एक वर्ग के द्वारा दूसरे के शोषण और समाज में चलने वाले द्वंद्व का सामंजस्य कोई भी तार्किक सिद्धांत या सांस्कृतिक मूल्य नहीं कर सकते. वर्ग-समाज वर्ग-मूल्यों को ही जन्म देगा. और चूँकि वर्ग-मूल्य समस्त समाज को निर्द्वंद्व आत्मसात नहीं कर सकते, अतएव अपने अंतिम रूप में वे कभी भी तार्किक या बुद्धिवादी नहीं हो सकते. इस द्वंद्व को न्यायपूर्ण सिद्ध करने या इससे पलायन करने, दोनों ही के लिए बुद्धि विरोधी प्रवृतियों का सहारा लेना पड़ेगा. इससे स्पष्ट हो जाएगा कि क्यों धर्म को समाज से समूल नष्ट नहीं कर सकता, यद्यपि वह उसे चुनौती दे सकता और कमजोर कर सकता है. इससे यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि क्यों पूँजीवाद के दार्शनिक बुद्धि का सहारा लेकर चलते हुए भी अंत में अनिवार्यतः रहस्यवादी और ईश्वरवादी या धर्मवादी हो जाते हैं.”

पूँजीवादी समाज में धर्म और साहित्य की इस सीमा के रेखांकन के साथ साही साहित्य-रचना के लिए किसी भी एकाधिकारवाद को सही नहीं मानते. वे अगर साहित्य रचना में धार्मिक नियंत्रण की आलोचना करते हैं तो सोवियत संघ में जारी राजनितिक तानाशाही का भी. उनका मानना था कि तानाशाही पर आधारित सोवियत साहित्य प्रचार का साधन हो सकता है, कलात्मक सौंदर्य का नहीं. साहित्य संबंधी सही मार्क्सवादी समझ क्या है, यह स्पष्ट करते हुए साही लिखते हैं: “मार्क्सवाद साहित्य और कला को वर्ग संघर्ष में केवल प्रचार और शिक्षा का अस्त्र मात्र नहीं मानता, बल्कि वह उसे किसी वर्ग की कलात्मक, सौन्दर्यवान और मानवोचित प्रवृत्तियों की सांस्कृतिक और मानसिक प्रगति का चरम प्रतिफल भी मानता है जिसके कारण मनुष्य के इतिहास में किसी वर्ग अथवा वर्गहीन समाज का मूल्य है. जिस तरह आज राजनीति से साहित्य को अलग रखने का नारा लगाने वाले मध्यवर्गीय कलाकार प्रतिक्रियावादी हैं, उसी तरह राजनीति की तानाशाही में कैद कर के समस्त साहित्य को पार्टी का अस्त्र मात्र घोषित करने वाले कला के दुश्मन हैं. मार्क्स साहित्य को इन दोनों संकुचित दृष्टिकोणों से अलग समझता है. वह साहित्य को केवल पार्टी नहीं, पूरे वर्ग के सांस्कृतिक प्रयास की उत्पत्ति मानता है. यह कहने के साथ साही सिद्धांत और मूल्य में फर्क करते हैं. सिद्धांत का संबंध राजनीति से है जबकि मूल्य का संबंध साहित्य और संस्कृति से है. अपने मत पर जोर देने के लिए वे इटली के समाजवादी नेता इग्नेजियो सिलोन के कथन को याद करते हैं: “सिद्धांतों के बल पर हम संप्रदाय स्थापित कर सकते हैं, परन्तु मूल्यों के आधार पर हम संस्कृति का निर्माण कर सकते हैं. लोकतांत्रिक समाजवाद इस ऐतिहासिक अनुभव को भुलाकर उत्कृष्ट साहित्य की रचना नहीं कर सकता.”

साहित्य संबंधी अपनी इस समझ को साही ‘मार्क्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति’ नामक अपने प्रसिद्ध निबंध में विस्तार से रखते हैं. उनका मानना है कि मार्क्स और एंगल्स की साहित्य-कला संबंधी धारणाएँ अच्छी हैं. लेकिन प्लेखानोव, कॉडवेल ने जो साहित्य संबंधी मार्क्सवादी समझ विकसित की वह मार्क्स की मूल धारण के विरुद्ध है. साही का विचार है कि कला में सौंदर्य की चिंता छोड़कर ‘प्रवृत्ति’ की ओर झुकाव पैदा करने का काम बाद के मार्क्सवादी विचारकों ने किया. साही लेनिन, स्टालिन आदि की तुलना में ट्राटस्की की साहित्य संबंधी समझ को ज्यादा सही मानते हैं. मार्क्सवादी समीक्षा संबंधी अपनी समझ को स्पष्ट करते हुए साही लिखते हैं: “मार्क्स साहित्य की एक सार्वभौमिकता की कल्पना करता है जो वर्ग हित ही नहीं, सामाजिक युग को भी पार कर के नए आनंद की सृष्टि करता है. यह विशेषाधिकार अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शन आदि चेतना के अन्य स्तरों को नहीं दिया गया है.” इसके आगे साही बताते हैं कि साहित्य को ‘युग-युग व्यापी शक्ति’ प्राप्त है. मार्क्सवादी समीक्षा की कम्युनिस्ट परिणति की आलोचना करते हुए साही लिखते हैं: “.....यह हठ कि साहित्यिक कृतिकार राजनीतिक भूमिका भी ग्रहण करें, राजनीतिक क्रियाशीलता की तुलना में कलाकृतियों को हेय समझा जाए, मार्क्सवादी साहित्यिक दृष्टि की मौलिक अथवा अनिवार्य स्थापना नहीं है. यह घटना बाद में घटी है.” कला संबंधी अपनी इस समझ के समर्थन में साही ट्राटस्की की रचना ‘साहित्य और क्रांति’ से कई उद्धरण भी देते हैं. एक उद्धरण इस तरह है: “मार्क्सवादी प्रणाली और कलात्मक प्रणाली एक ही वस्तु नहीं है. पार्टी श्रमिक वर्ग का नेतृत्व करती है, इतिहास की विशाल गति का नहीं. कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिसमें पार्टी स्पष्टतः और आदेशात्मक ढ़ंग से नेतृत्व करती है..... कला का क्षेत्र वह नहीं है जिसमें पार्टी को आदेश देने की आवश्यकता हो. कला की रक्षा करना और सहायता करना पार्टी का काम है, परन्तु नेतृत्व केवल अव्यक्त रूप से ही हो सकता है.”

साहित्य संबंधी अपनी इस समझ के साथ साही ने हिंदी रचना-संसार को आलोचना के जिस व्यावहारिक धरातल पर देखा-परखा, वह हिंदी आलोचना का ऐसा उदहारण है, जिसके मुकाबले दूसरा कोई नाम शायद ही मिले! अपने बहुचर्चित निबंध ‘लघु मानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस’ में उन्होंने छायावाद-युग को ‘सत्याग्रह युग’ की संज्ञा दी और गाँधी को ‘हिंदुस्तान की जिन्दागी की लय की अभिव्यक्ति’ माना. वे मानते थे कि ‘हिंदी के छायावदी काव्य में सत्याग्रह युग की भारतीय अनुभूति की पूरी कथा’ लगभग मौजूद है. साही ने इस तरह छायावाद की जो व्याख्या की वह बहुतेरी अन्य व्याख्याओं से सर्वथा भिन्न है. साही लिखते हैं: “जिस तरह छायावादी युग की चरम आस्था यह है कि अंतर्जगत का सत्य और बहिर्जगत का सत्य एक ही है और दोनों में कभी भी व्यवधान नहीं पैदा हो सकता, उसी तरह उसकी मान्यता की दूसरी आधारशीला यह है कि नैतिक विजन और कल्पनाशील विजन दोनों वस्तुतः एक हैं और इन दोनों में कभी भी दरार नहीं पड़ सकती. इस प्रकार महत्त की महत्ता में एक अभूतपूर्व सहज आकर्षण शक्ति उत्पन्न हो जाती है. राष्ट्रीय संघर्ष के स्तर पर नैतिक और कल्पनाजन्य महत्ताएँ राष्ट्रीय नेतृत्व की महत्ताएँ में घुलमिलकर एकाकार हो जाती है. छायावाद की हर रचना एक ही साथ नैतिक भी है, कल्पनात्मक भी है और राजनैतिक भी है. इससे काव्य में अर्थ और लय की गूँज -अनुगूँज की संभावना बहुत बढ़ जाती है. उदाहरण के लिए प्रसाद का ‘बीती विभावरी जाग री’ या निराला का ‘राम की शक्तिपूजा’ या पंत का ‘धूम धुआँ रे काजर कारे’ या महादेवी का ‘जाग तुझको दूर जाना’...... एक साथ ही नैतिक, कल्पनात्मक और राजनैतिक स्तरों पर झंकृत होता है.”

छायावाद का इस व्यापक आधार पर मूल्यांकन करते हुए साही ने उसमें ‘दार्शनिक मुद्रा, विराट नाटकीयता और नैतिक तथा कल्पनात्मक स्वप्न लोकों का विशिष्ट अनुपात में सम्मिश्रण’ देखते हुए उसकी आलोचना भी की. उनकी मुख्य स्थापना यह है कि इस सबके बावजूद छायावाद महामानव की कविता है. सामान्य मनुष्य या ‘लघु मानव’ की कविता नयी कविता है. साही मानते हैं कि मनुष्य की हर परिभाषा मूलतः ‘सहज मनुष्य’ की परिभाषा है. वे यह भी मानते हैं कि ‘बारंबार मनुष्य को बदलते हुए देश-काल में परिभाषित करना साहित्य की जिम्मेदारी है.’ साही का यह ‘सहज मनुष्य’ ही उनका लघु मानव है जो नयी कविता के केंद्र में है. 

इस लघु को अपने समय की कविता में और स्पष्ट करते हुए साही ने लिखा है: “छायावाद में उसका रूप लघु की महानता का है, तीसरे दशक में लघु की महिमा का है और उसके बाद की कविता में लघु के ‘महत्त्व’ का है.” इसके आगे साही कहते हैं कि नयी कविता के कवि छायावाद के दार्शनिक पथ और बच्चन आदि के भावनात्मक मार्ग से होकर निकले हैं. उनकी समस्या सिर्फ दार्शनिक नहीं, मूलतः अनुभूति की है. अज्ञेय इसे सूत्रबद्ध कर के पुरानी परंपरा से जोड़ते हैं. ‘प्रसाद’ को छायावाद के केंद्र में रखते हुए साही नयी कविता के केंद्र में अज्ञेय को रखते हैं और लिखते हैं: “अज्ञेय का महत्त्व इस बात में है कि उन्होंने ‘समरसता का दर्शन’ के बजाय ‘निर्वैयक्तिक अनुभूति’ का प्रश्न पूछ कर एक बार फिर दर्शन को अनुभूति में घुला देने की राह निकाली, विवेक और हृदय, संकल्प और विवशता को एक नए ‘योग’ से बाँधा. इसीलिए, अज्ञेय हिंदी काव्य की धारा को मोड़ते हुए-से प्रतीत होते हैं.” 

साही की आलोचना का उत्कर्ष उनकी ‘जायसी’ नामक पुस्तक है. यह उनके आलोचनात्मक लेखन की उपलब्धि है. इस पुस्तक के जरिए वे नए जायसी को ‘डिस्कवर’ करते हैं. कवि जायसी की ऐसी सरस और आत्मीय व्याख्या हिंदी आलोचना में अब तक देखने को न मिली थी. कहा जा सकता है कि ‘जायसी’ न सिर्फ साही की बल्कि 1950 के बाद की सबसे बड़ी आलोचनात्मक उपलब्धि है. 

जायसी को सूफी कवि मानने की धारणा हिंदी आलोचना में व्यापक रूप से फैली हुई थी. साही ने इस धारणा का खंडन किया और उन्हें कवि के रूप में प्रतिष्ठित किया. इसी के साथ उन्होंने जायसी को हिंदी का ‘पहला विधिवत कवि’ माना. वे लिखते हैं: “सबसे पहले जिस बात को अच्छी तरह मन में बैठना जरुरी है, वह यह है कि जायसी हिंदी के पहले विधिवत् वरिष्ठ कवि हैं. कबीरदास श्रेष्ठ हैं: लेकिन विधिवत् कवि भी हैं, ऐसा उनका दावा नहीं है. मूलतः वे संत हैं. कवि होना कबीरदास के लिए लक्ष्य नहीं था.”

जायसी को साही हिंदी का पहला विधिवत् कवि तो मानते ही हैं, वे उन्हें ‘आत्म-सजग’ कवि भी मानते हैं. साही ने लिखा है : “जायसी केवल कवि नहीं हैं, वे आत्म-सजग कवि हैं. अपने कवि का, गुणी होने का उन्हें पूरा भरोसा बल्कि गर्व है. अपने कवि और गुणी होने का जिक्र ‘पद्मावत’ में जायसी ने आरंभ, मध्य और अंत में बार-बार प्रत्यक्षतः या परोक्षतः किया है.” यह ध्यान देने की बात है कि मध्यकाल के प्रायः सभी कवियों का जोर कवि कहलाने की जगह भक्त कहलाने पर है. जायसी ही हैं जिन्हें अपनी कविता पर गर्व है. साही ने ‘पद्मावत’ से इस आशय के कई काव्यांश उद्धृत किए हैं. एक दोहे को यहाँ देखा जा सकता है, जिसमें अपने कवि होने पर जायसी गर्व करते हुए दिखाई पड़ते हैं-

मुहमद कबि जो प्रेम का ना तन रकत न माँसु.

जेइं मुँह देखा तेइं हँसा सुना तो आए आँसु..

हिंदी के इस पहले विधिवत् और आत्म-सजग कवि को किसी मतवाद के तहत देखे जाने का साही खंडन करते हैं और उसे मनुष्यता और कविता के धरातल पर देखने का आग्रह करते हैं. साही ने अनेक तरह से जायसी के सूफी होने का खंडन किया है और उनमें ‘स्वाधीन चिंतन’ के साथ ‘प्रखर बौद्धिक चेतना’ के लक्षण को रेखांकित किया है. साही ने लिखा है: “जायसी में अपने स्वाधीन चिंतन और प्रखर बौद्धिक चेतना के लक्षण मिलते हैं जो गद्दियों और सिलसिलों की मीठी या सरकारी नीतियों से अलग है. इस अर्थ में जायसी सूफी हैं तो कुजात सूफी हैं.” जायसी को साही जब ‘कुजात सूफी’ कहते हैं तो इसका आशय यह है कि जो किसी मतवाद के आग्रह से बंधा हुआ नहीं है. 

साही ने जायसी को सूफी माने जाने की हिंदी आलोचना में फैली धारणा का खंडन बहिर्साक्ष्य के आधार पर तो किया ही है, अन्तः साक्ष्य के आधार पर भी किया है. इससे भी किसी मतवाद में जायसी के बंधे होने की धारणा का खंडन होता है. साही ने लिखा है: “पद्मावत में कुछ स्थलों पर जायसी ने अपनी कविता की प्रकृति, या अपने अनुसार कविता-मात्र की प्रकृति का भी संकेत दिया है. वह दोहा, जिसमें जायसी ने कहा है कि लोगों को उनकी कविता सुनकर आंसू आए, पहले उद्धृत किया जा चुका है. इसका सीधा आशय यह है कि कविता की प्रकृति जायसी के लिए भावना के सम्प्रेषण की है. इसी तरह अन्यत्र उन्होंने कहा है कि कवि रस का भरपूर कटोरा है. कविता के अभिप्रेत प्रभाव की उपमा उन्होंने कमल की सुगंध से दी है जिसे दूर-दूर से भँवरे आकर प्राप्त करते हैं. ये सभी उक्तियाँ कविता, विशेषतः पद्मावत, के केंद्र में अनुभूति को स्थापित करती हैं, किसी मतवाद या दार्शनिक सिद्धांत को नहीं.” 

जायसी को खासकर उनके ‘पद्मावत’ को सूफी मतवाद के भीतर देखने-दिखाने की जो परंपरा रही है, उसका खंडन करने के साथ साही ‘पद्मावत’ में उस ‘विषाद दृष्टि’ (ट्रैजिक विजन) को रेखांकित करते हैं जो उसकी रचना के केंद्र में है. साही मानते हैं कि जायसी के समय में कई तरह के मतवाद थे. उन पर इनका कुछ असर हो सकता है. लेकिन जायसी की चिंतनशीलता में अनुभूति का आत्मसात होना ही उसकी विशिष्टता है. साही के शब्दों में: “अपने सम्पूर्ण प्रसार में यह चिंतनशीलता पूरी कथा में एक तरल विषाद-दृष्टि का सृजन करती है जिसमें मानवीय व्यापार के प्रति पीड़ा है, किन्तु अवसाद नहीं है; हल्का वैराग्य है, लेकिन गहरी संसक्ति भी है; तटस्थता है, लेकिन स्पष्ट नैतिक विवेक भी है. यही वह सुगंध है जो फूल के मरने के बाद भी नहीं मरता.”

साही मानते हैं कि हिंदी आलोचना में जोर ‘पद्मावती’ पर है, जबकि जोर ‘पद्मावत’ पर होना चाहिए. ‘पद्मावत’ पर जोर का ही नतीजा है कि जायसी साही को ‘20वीं शताब्दी का कवि’ लगते हैं. साही ने लिखा है: “जायसी ने लिखा चाहे मध्यकाल में हो, लेकिन वस्तुतः वे 20वीं शताब्दी के कवि हैं. जबकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उन्हें उठाकर तुलसीदास की बगल में खड़ा कर दिया.” 20वीं शताब्दी का कवि होने का अर्थ यह है कि जायसी की ‘समीक्षा का विषय धर्म नहीं, मनुष्य है’. इसी कारण जायसी के भीतर ‘वह गहरा विवेक’ है ‘जो मनुष्य की आखिरी पीड़ा’ को जानता है और ‘मानुष प्रेम के बैकुंठी’ हो जाने की अनुभूति जगाता है. साही के शब्दों में इसीलिए जायसी न समाज सुधारक हैं और न दार्शनिक और न किसी मतवाद के प्रचारक. वे शुद्ध कवि हैं, प्रेम के कवि, ऐसा प्रेम जो संसार को नए रूप में परिभाषित करता है. 

‘छठवाँ दशक’ आलोचक साही के बहसधर्मी रूप का उदाहरण है तो ‘जायसी’ उनकी रचनात्मक आलोचना का पूर्ण विकास. वे आरंभ से ही किसी वैचारिक या दार्शनिक एकाधिकारवादी प्रवृत्ति का साहित्य रचना में विरोध करते रहे और अपने आलोचना-कर्म को भी उससे मुक्त रखा. इसका श्रेष्ठ उदाहरण उनकी आलोचनात्मक कृति ‘जायसी’ है.

(शीघ्र प्रकाश्य ‘विजयदेवनारायण साही: रचना-संचयन’ की भूमिका से)

:गोपेश्वर सिंह


Sunday, 5 May 2019

राम कथा का बहुवचानात्मक पाठ


....कमलानन्द झा की पुस्तक ‘तुलसीदास का काव्य-विवेक और मर्यादाबोध ऐसे समय में प्रकाशित हुई है, जब तुलसीदास पर लगातार हमले हो रहे हैं. तुलसीदास की कविताओं का कुपाठ करके उनपर श्रद्धा करने वाले भी हमला कर रहे हैं और तुलसी को वर्ण-व्यवस्था समर्थक सिद्ध करने वाले या उन्हें प्रतिक्रियावादी कवि बताने वाले भी कर रहे हैं. ऐसे समय में तुलसीदास पर तर्कपूर्ण पुस्तक का प्रकाशन एक शुभ-संकेत है. यह आलोचना की एक दिलचस्प किताब है- सचमुच की आलोचना के अर्थ में. दिलचस्प इस अर्थ में कि कमलानन्द ने आलोचना में रचनात्मकता की गुंजाईश खोजी है. यह तुलसीदास पर लगातार बहस करती हुई किताब है. आजकल तुलसीदास पर लोग लिख नहीं रहे हैं, यह कहना ज्यादे मुनासिब होगा कि तुलसीदास पर सही-सही बात करने से बच रहे हैं. यह पुस्तक तुलसीदास के काव्य-विवेक को रेखांकित करते हुए उनके मर्यदाबोध की समीक्षा करती है.
इस किताब की एक अच्छी बात यह है कि यह न तो तेजाबी भाषा में  लिखी गई है और न ही तेजाबी शैली में. इसके विपरीत यह तर्कपूर्ण वाद-विवाद शैली में लिखी गई है. तुलसी का अध्ययन यहाँ निर्धारित ढाँचे में नहीं किया गया है, यहाँ तुलसी को साहित्यिक के साथ सामाजिक-राजनीतिक सन्दर्भों में भी देखने की कोशिश की गई है. सामाजिक-राजनीतिक सन्दर्भों में भी उस तरह से नहीं, जिस तरह आजकल किताब से किताब और विमर्श से विमर्श चलाने की प्रक्रिया चल रही है और साहित्य का अध्ययन करते हुए टेक्स्ट प्रायः छूट जाता है और  दूसरों की कही बातों पर ही सारी बहस होती रह जाती है. सामाजिक-राजनीतिक सन्दर्भ होते हुए भी इस किताब के केंद्र में कविता है और तुलसीदास का टेक्स्ट है. इसलिए यह किताब आज की तारीख में महत्वपूर्ण है. एक अन्य कारण से भी पुस्तक की प्रासंगिकता बढ़ जाती है. यह पुस्तक अस्मितामूलक विमर्श के दौर में लिखी जा रही है और इसमें तुलसीदास की कड़ी आलोचना की गई है, लेकिन यहाँ विमर्शमूलक दबाव नहीं है, इसके बरक्स यहाँ बहसधर्मी- चेतना है. यही कारण है कि यहाँ दृष्टि की सम्पूर्णता नज़र आती है, एकआयामिता नहीं.
इधर के वर्षों में साहित्य को पढ़ने-पढ़ाने के क्रम में टेक्स्ट कम हुआ है और साहित्य-सिद्धांत की बातें ज्यादा होने लगी हैं. टेरी इगलटन ने इस तरह की प्रवृत्ति पर चिंता व्यक्त की है कि हमारे विद्यार्थी कविता पर कम बात करते हैं और साहित्य-सिद्धांत पर अधिक. इसमें दोष छात्रों का नहीं हम शिक्षकों का है कि हमारे अध्यापन में टेक्स्ट हाशिये पर चला गया है. ऐसे समय में यह देखकर अच्छा लगता है कि कमलानंद की यह पुस्तक टेक्स्ट के इर्द-गिर्द घूमती है. इस पुस्तक में तुलसी अध्ययन सम्बन्धी सारे मुद्दे, जटिलताएं, विरोधाभास आदि पर गंभीर बहस टेक्स्ट को केंद्र में रखकर की गई है. इस कारण पुस्तक की विश्वसनीयता बनी रहती है.
परिशिष्ट को छोड़कर कुल सात अध्यायों में यह किताब लिखी गई है. हर अध्याय एक-एक समस्या को लेकर बहुत ही योजनबद्ध और सिलसिलेवार ढंग से आगे बढ़ता है. पहले ही अध्याय ‘तीन सौ रामायण : अर्थांतरण की महिमा’ में हमारा साक्षात्कार एक जरूरी बहस से होता है. ए. के. रामानुजन के तीन सौ रामायण पर आधारित महत्वपूर्ण शोधकार्य को केंद्र में रखकर रामकथा के एक पाठ को ही असली पाठ बना देने की राजनीति और रणनीति पर इस किताब में  खुल कर बात की गई है. अपने उक्त शोधकार्य में रामानुजन जोर देकर कहते हैं कि अलग-अलग भाषाओं में, अलग-अलग समयों पर, रामायण के अलग-अलग पाठ रहे हैं. कमलानन्द झा पूरे आत्मविश्वास के साथ इस बात को प्रतिपादित करने की कोशिश करते हैं कि रामकथा का कोई एक पाठ नहीं है और कोई भी पाठ किसी भी दूसरे पाठ से कम महत्वपूर्ण नहीं है. कहने की आवश्यकता नहीं कि रामानुजम दक्षिण भारतीय भक्ति साहित्य के जाने-माने विद्वान् रहे हैं. 15-20 साल पहले ‘मानुषी’ पत्रिका में उनका एक अत्यंत महत्वपूर्ण साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने एक मार्के की बात यह कही थी कि भक्ति साहित्य पर बात करते हुए हमारी आदत ‘सिंगुलर’ में बात करने की है, जबकि भक्ति साहित्य का पूरा चरित्र ‘प्लुरल’ है. बहस का मुद्दा भक्ति की ‘सिंगुलर’ दृष्टि और ‘प्लुरल’ दृष्टि का है. ‘तुलसीदास का काव्य-विवेक और मर्यदाबोध’ पुस्तक का पूरा जोर भक्ति साहित्य की इसी बहुलतावादी दृष्टि पर है. यही इस अध्ययन का वैशिष्ट्य है और इसे आगे ले जाने की जरूरत है. रामकथा को जैसे ही ‘सिंगुलर’ दृष्टि से एक पाठ में बदलने की कोशिश की जाएगी, और उसे प्रचारित करने का प्रयास किया जाएगा, उसके साथ एक ख़ास तरह की राजनीति शुरू हो जाएगी और वह राजनीति फासिज्म की होगी, इसमें दो राय नहीं.
पुस्तक के अन्य अध्यायों के नाम ही विषय-वस्तु के बारे में बहुत कुछ कह जाते हैं, जैसे- रामराज्य का सांस्कृतिक निहितार्थ, कलियुग और रामराज्य का अंतर्द्वंद,  तुलसीदास का मर्यादाबोध बजरिये आलोचक, रामराज्य से मोहभंग : एक साक्ष्य, आधुनिक रामकथा :रामराज्य का नया पाठ तथा रामराज्य बरक्स मैथिली रामायण की सीता. सभी अध्याय प्रत्यक्षतः अलग-अलग किन्तु परोक्ष रूप में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. वर्ण-व्यवस्था का खंडन लेखक शुरू से अंत तक करता है- तुलसी के सन्दर्भ में भी और रामचंद्र शुक्ल के सन्दर्भ में भी. उसके अनुसार तुलसी भी वर्णवादी ठहरते हैं और शुक्लजी भी. लेखक की यह स्थापाना शुक्लजी की व्यावहारिक आलोचना के आधार पर  विशेषकर तुलसी के सन्दर्भ में की गई है. लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि शुक्लजी ने सैद्धांतिक और वैचारिक निबंध भी लिखा है और काफी व्यवस्थित ढंग से लिखा है. इस दृष्टि से उनके वैचारिक निबंधो को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए था. अंग्रेजी में उनका एक लेख है जो बाद में हिंदी में अनूदित हुआ, ‘जाति व्यवस्था’. जाति की व्यर्थता को जिस तल्ख़ भाषा में उसमें प्रस्तुत किया गया है वह लेखक कमलानंद के निष्कर्ष से उलट है. इस निबंध में शुक्लजी कहते हैं कि जिसे हम हिन्दू जाति कहते हैं, वह कोई एक जाति नहीं है. यहाँ न जाने कितनी जातियाँ आयीं और यहाँ आकर बस गईं, यहीं की होकर रह गईं.  यह बात वे 1924 में कह रहे थे. 1948 में हजारी प्रसाद द्विवेदी ‘अशोक के फूल’ नामक निबंध में  इसी बात को आगे बढ़ाते हैं कि यहाँ शक आए, हूण आए. आशय यह कि यहाँ कुछ भी अविशुद्ध नहीं है. यह बात शुक्लजी ‘जाति व्यवस्था निबंध में रेखांकित कर रहे हैं. शुक्लजी  की व्यावहारिक आलोचना और वैचारिक-सैद्धांतिक आलोचना में जो तनाव है, वह ‘तुलसीदास का काव्य-विवेक’ पुस्तक में नज़र नहीं आता.
    पुस्तक का पांचवाँ अध्याय ‘रामराज्य से मोहभंग : एक साक्ष्य’ है जो विलक्षण है और साथ ही बहसतलब एवं समस्यापरक भी. इस अध्याय की मूल स्थापना यह है कि तुलसीदास रामचरितमानस में जिस भव्य आदर्श रामराज्य की कल्पना करते हैं, वह ‘कवितावली’ और ‘हनुमानबाहुक’ तक आते-आते टूट जाती है. रामराज्य के माध्यम से तुलसीदास वेद, वर्ण और स्त्री सम्बन्धी जिन नैतिक मानदंडों की सिफारिस करते हैं, वह उनकी बाद की रचनाओं में देखने को नहीं मिलते. ‘मानस’ में आदर्श में जीनेवाले, स्वप्न में जीनेवाले, रामराज्य का सपना देखने वाले और वर्ण-व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने वाले जो तुलसीदास हैं, उनका ‘कवितावली’ में मोहभंग हो जाता है. लेखक प्रश्न शैली में उत्तर देते हुए लिखता हैं कि, “मानस के उत्तरकाण्ड में यहाँ से वहाँ तक रामराज्य का गुणगान किया गया है, लेकिन ‘कवितावली’ के उत्तरकाण्ड (जो आधे से अधिक भाग में है) में प्रसंगवश ही रामराज्य की चर्चा हुई है, क्या यह रामराज्य से तुलसी का मोहभंग नहीं है?...मानस के उत्तरकाण्ड में वर्णाश्रम को वैध ठहराने की जी-तोड़ कोशिश तुलसीदास ने की है, इसके विपरीत ‘कवितावली’ के उत्तरकाण्ड में ही विशेष रूप से वर्णाश्रम की इस वैधता को नकारा गया है”. (पृष्ठ 110) इतना ही नहीं ‘कवितावली’ की पंक्ति उद्धृत करते हुए रामराज्य की असमंजसता को लक्षित किया है- ‘संकट समाज असमंजस में रामराज’. रमेश कुंतल मेघ, बच्चन सिंह और विश्वनाथ त्रिपाठी के तुलसी संबंधी अध्ययन को महत्वपूर्ण मानते हुए उनकी स्थापनाओं से लेखक ने अपनी सहमति जताई है.
लेखक की इस स्थापना से यह साफ़ ध्वनित होता है कि तुलसीदास अगर महत्वपूर्ण हैं तो ‘कवितावली’ और ‘हनुमानबाहुक’ के आधार पर. यह विचारणीय सवाल है. यहाँ प्रश्न है कि तुलसीदास यदि महाकवि हैं तो क्या वे ‘कवितावली’ और ‘हनुमानबाहुक’ के कारण हैं? क्या यह तुलसीदास का सही-सही मूल्यांकन है? मुझे आलोचना की ऐसी समझ पर संदेह है. तुलसी का जो भी कद है और वे जिस बड़ाई में हैं; वे यदि महाकवि हैं तो उसमें ‘रामचरितमानस’ की बड़ी भूमिका है. ‘मानस’ की वैचारिक सीमाएँ हो सकती हैं, लेकिन तुलसी के कवित्व का शिखर ‘रामचरितमानस’ ही है. उस शिखर में योगदान उनकी अन्य रचनाओं का भी है. लेकिन अगर हम मानस को हटाकर तुलसी के कवित्व पर बात करेंगे, महत्व पर बात करते हैं तो एक तरह से हम तुलसीदास के वास्तविक महत्त्व को रेड्युस कर रहे हैं, उन्हें कमतर कर रहे हैं.
पुस्तक रामराज्य के बहाने सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक सरोकारों से भी मुठभेड़ करती प्रतीत होती है. लेखक ने तुलसी के रामराज्य की तुलना गाँधी के रामराज्य से की है और कहा है कि गांधी का रामराज्य सत्य और अहिंसा का है, वहाँ वर्ण-व्यवस्था की कोई बात नहीं है. पुस्तक में अवध के किसान आन्दोलन के  सन्दर्भ में बाबा रामचद्र भी आते हैं, यह भी आता है कि उन्होंने इस आन्दोलन में  किस तरह  तुलसी की रचनाओं का रचनात्मक उपयोग किया. पुस्तक में गाँधी के रामराज्य को अत्यंत संक्षेप में चलताऊ ढंग से निपटा दिया गया है. जबकि आज के सन्दर्भ में तुलसीदास के रामराज्य की बात करते हुए, रामराज्य को मेटाफर के रूप में आधुनिक राजनीति के सन्दर्भ में यदि किसी ने रखा है तो गांधी ने. गांधी ने उसे एक  मुहावरा बना दिया, जिसके कारण उनकी आलोचना भी हुई, प्रशंसा भी हुई और उनकी राजनीति को लोकप्रियता भी मिली. पुस्तक की भूमिका में जिस सामजिक-राजनीतिक सदर्भ की बात की गई है, उस रूप में वह सन्दर्भ पुस्तक में नहीं दिखता है.
गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया है कि मुझे तुलसीदास की रामायण का जो संस्कार मिला, वह जीवन भर काम आया. गाँधी को जब-जब संकट आया उन्होंने तुलसी की रामायण से और भक्त कवियों से शक्ति ली. जिस समय हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के सभी राजनेता जश्ने आज़ादी मना रहे थे गाँधी अपने चंद साथियों के साथ नोआखोली के साम्प्रदायिक दंगे में निर्भीक होकर ‘वैष्णव जण ते तेणे रे कहिये’ गाते हुए मोर्चे पर डटे हुए थे. गांधीजी की प्रपौत्री मधुबेन की 1946 से 1948 तक की डायरी से पता चलता है कि ऐसा अभय गाँधी को कहाँ से मिला. यह अभय उन्हें भक्ति-काव्य से मिला, तुलसी से मिला, नरसीं से मिला. और यह अभय कब आता है और कहाँ से आता है? आपके भीतर साहस तब आता है जब आपके भीतर सत्य होता है. गांधीजी को लगा कि सांप्रदायिक सौहार्द ही सत्य है, इसके लिए जान भी चली जाय तो कोई बात नहीं. सामाजिक-राजनीतिक सन्दर्भ के बीच खड़े होकर तुलसी के साहित्य पर जब विचार किया जाय तो यह सन्दर्भ आने चाहिए. आम तौर पर गाँधी को तुलसी से जोड़ा तो जाता है, लेकिन उचित सन्दर्भ में जोड़ने की कोशिश कम हो पायी है. इस सन्दर्भ को जोड़ते हुए गाँधी के प्रतीकों और आशयों को समझना जरूरी है. तब हम समझ पाते हैं कि वे किस तरह भक्त कवियों से शक्ति ग्रहण करते हैं. तुलसी के रामराज्य और गाँधी के रामराज्य में फर्क यह है कि गाँधी के रामराज्य में श्रम-भेद नहीं है. इसलिए गाँधी मानते हैं कि श्रम-भेद ही जाति-भेद का मूल कारण है. शौचालय साफ करने से लेकर पोथी  लिखने तक का काम जब सभी लोग करेंगे तो वर्ण-व्यवस्था अपने आप समाप्त हो जाएगी. वर्ण-व्यवस्था समाप्त करने का यह अहिंसक तरीका था गाँधी का. गाँधी ने एक तरफ़ तुलसी से रामराज्य लिया तो चरखा लिया कबीर से. यह अध्यात्म और उद्योग का मणिकांचन योग है. रामराज्य के सन्दर्भ में राम मनोहर लोहिया का सन्दर्भ भी महत्वपूर्ण है. लोहिया ने रामचरितमानस और रामराज्य पर विचार किया है. ये सारे सन्दर्भ भी पुस्तक में आने  चाहिए थे.
लेखक का यह संकेत कि तुलसी के रामराज्य में कोई परिवर्तनकारी सपना नहीं है, पूर्ण सच नहीं है. इस सन्दर्भ में हिंदी में सगुण बनाम निर्गुण पर लम्बी बहस चली. इस बहस में निर्गुण भक्त कवि ज्यादे परिवर्तकामी सिद्ध हुए हैं. दादू के सन्दर्भ में इतिहासकार हरबंस मुखिया ने लिखा है कि भक्त कवियों के पास व्यवस्था के प्रति क्षोभ तो है लेकिन इस सामंती व्यवस्था का कोई विकल्प उनके पास नहीं है. वे बुरे राजा का विकल्प अच्छे राजा में देखते हैं.  तुलसीदास के पास भी बुरे राजा का विकल्प अच्छा राजा ही है. जिस राज्य में प्रजा दुखी हो, वैसा राजा तुलसीदास को भी नहीं चाहिए. तुलसीदास को आज के आन्दोलनकारी के रूप में मान कर उनपर विचार नहीं किया जा सकता है. कहने का आशय यह कि तुलसीदास अपनी रचना यात्रा में थोड़ा इधर से उधर हुए हैं जरूर, लेकिन उनकी यात्रा कुल मिलाकर एक अच्छे राजा की खोज ही है. 
     (दिनांक-15 फ़रवरी 2018 को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कला संकाय सभागार में इरफ़ान हबीब की अध्यक्षता में ‘तुलसीदास का काव्य-विवेक और मर्यादाबोध’ पुस्तक पर संपन्न विचार-गोष्ठी में दिए गए वक्तव्य का किंचित संशोधित-संपादित रूप जो 'बया' के नए अंक में प्रकाशित है.)

Wednesday, 17 April 2019

नामवर सिंह : आलोचक का आत्मावलोकन


                                 
                                                                                       
     शेर का यह टुकड़ा  नामवर सिंह अक्सर दोहराते थे:‘जो सुलझ जाती है गुत्थी,उसको उलझाता हूँ मैं’.यह नामवर सिंह के आलोचक व्यक्तित्व की बुनियाद में है. आलोचना को अक्सर साहित्यिक गुत्थियों को सुलझाने वाली विधा माना जाता है. नामवर सिंह की आलोचना की खूबी सुलझ चुकी गुत्थियों को भी नई गुत्थियों की ओर ले जाना रहा है. वे आलोचना का धर्म गुत्थी सुलझाना नहीं, गुत्थी उलझाना मानते रहे हैं. यहाँ ‘गुत्थी’ से अर्थ संभवतः अंग्रेजी के ‘एम्बिग्युटी’, ‘कॉम्प्लेक्सिटी’, ‘आयरनी’ आदि  से  या इन सबके मिले-जुले रूप से है .हिंदी में इसे  ‘गांठ लगाना’ या ‘गिरह लगाना’  कहेंगे. आलोचना का काम रचना की एक गांठ को खोलना और भविष्य के पाठक –आलोचक के लिए नयी गांठ लगाना है.  सरलीकरण के सख्त विरोधी नामवर सिंह जिस गुत्थी को उलझाने की बात करते हैं, उसका अर्थ शायद यही है. इस कारण उनकी आलोचना निरंतर बहस और विवाद को जन्म देती रही है.
          अज्ञेय के बाद हिंदी संसार की हलचलों के केंद्र में नामवर सिंह ने अपनी जगह बनाई. यह पहली बार हुआ कि हिंदी का कोई आलोचक साहित्य का केन्द्रीय व्यक्तित्व बन जाए. अज्ञेय के जीते जी उनके  सामने केन्द्रीयता हासिल करना आसान नहीं था. अज्ञेय बहुमुखी प्रतिभा संपन्न रचनाकार थे. कविता, उपन्यास, सम्पादन आदि क्षेत्रों में उन्होंने अपने युग का नेतृत्त्व किया था. उनका व्यक्तित्व आकर्षक था. उनका वस्त्र-विन्यास भी उनके पाठकों-प्रशंसकों के आकर्षण का विषय था. वे नागरिक रूचि के व्यक्ति थे. एक किस्म का आभिजात्य उनके व्यक्तित्व का अनिवार्य हिस्सा था.इन कारणों से  हिंदी का मध्यवर्ग उनकी ओर आकृष्ट था. उनके जीवन काल में ही ग्रामीण पृष्ठभूमि से आए नामवर सिंह हिंदी की बौद्धिक दुनिया के आकर्षण बन गये .धोती-कुर्ता के अपने ख़ास पहरावे और बनारसी पान की अदा  के साथ  कवि त्रिलोचन द्वारा ‘पुस्तक पकी आँखें’ के विशेषण से नवाजे गए आलोचक नामवर सिंह का  हिंदी की बौद्धिक दुनिया का केन्द्रीय व्यक्तित्व बन जाना कम आश्चर्यजनक नहीं है. यह पहली बार हुआ कि कोई आलोचक किसी नगर-कस्बे में बोलने जाए तो उसे सुनने के लिए छात्रों-अध्यापकों के अतिरिक्त प्रबुद्ध नागरिकों की भी बड़ी भीड़ इकट्ठी हो.यह भी पहली बार हुआ कि नामवर सिंह को सुनने वालों में मार्क्सवादियों के साथ गैर-मार्क्सवादी नागरिकों की एक बड़ी जमात होती थी.
                  नामवर सिंह ने अपने लिखे से हिंदी भाषी जनता को जितना शिक्षित किया उससे अधिक अपने व्याख्यानों के जरिए उन्होंने यह काम किया. ‘कविता के नए प्रतिमान’ (1968) के बाद ‘दूसरी परंपरा की खोज’ (1982) के प्रकाशन के बीच एक लंबा अंतराल है. इस बीच उनकी कोई किताब नहीं आई. लेकिन वे घूम-घूमकर आसेतु हिमालय व्याख्यान देते रहे. किताब नहीं आ रही थी और व्याख्यानों की संख्या बढ़ती जा रही थी जिसे देखते हुए विरोधियों ने व्यंग्य में उन्हें ‘वाचिक परंपरा का आलोचक’ कहना शुरू किया. ऐसा कहने वालों की मंशा यह होती थी कि नामवर सिंह लिखते नहीं,सिर्फ बोलते हैं. लेकिन आगे चलकर प्रशंसक ही नहीं,विरोधी भी यह महसूस करने लगे कि व्याख्यान भी जनता के बौद्धिक शिक्षण का एक माध्यम है. कवि नागार्जुन ने नामवर सिंह की भाषण-कला की प्रशंसा करते हुए और नामवर -विरोधियों को जवाब देते हुए जो कहा है वह देखने लायक है. नागार्जुन कहते हैं : “अपने देश में आम जनता तक बातों को ले जाने की दृष्टि से, पुस्तकों से दूर कर दिए गए लोगों तक विचारों को पहुँचाने के लिए लिखना जितना जरुरी है, उससे ज्यादा जरुरी है बोलना. स्थापित (और स्थावर भी ) विश्वविद्यालयों की तुलना में यह जंगम विद्यापीठ ज्यादा जरुरी है. नामवर इस जंगम विद्यापीठ के कुलपति हैं. इस विद्यापीठ का कोई मुख्यालय नहीं होता.यह जगह-जगह जाकर ज्ञान का वितरण सत्र आयोजित करता है.”  इधर के वर्षों में उनके व्याख्यानों के लिखित रूप जो पुस्तकाकार आए हैं उनसे पता चलता है कि उन्होंने अपने व्याख्यानों को  विश्वविद्यालय और उसके बाहर की दुनिया के बीच जन-संवाद का कितना बढ़िया माध्यम बनाया. अब तक हिंदी में यह काम कोई दूसरा आलोचक नहीं कर पाया था. इस रूप में नामवर सिंह के आलोचक व्यक्तित्व  का विस्तार हुआ. वे ‘पब्लिक इंटेलेक्चुअल’ कहे जाने लगे.
          ‘छायावाद’ (1955) तथा ‘इतिहास और आलोचना’ (1957) से नामवर सिंह के आलोचक व्यक्तित्व की पहचान बनी. ‘कहानी: नई कहानी’ (1964) और ‘कविता के नए प्रतिमान’ (1968) के जरिए वे आलोचक के रूप में प्रतिष्ठित हुए. ‘दूसरी परंपरा की खोज’ (1982) से वे हिंदी आलोचना की बहस के केंद्र में वर्षों तक बने रहे. ‘वाद-विवाद-संवाद’ (1989) के जरिए उन्होंने अपने विवादप्रिय आलोचक व्यक्तित्व को बनाए रखा. ‘आलोचना’ पत्रिका का कई दशकों तक उन्होंने संपादन किया और नई आलोचनात्मक समझ का विकास किया. इन सब कामों के जरिये हिंदी आलोचना को भारतीय सन्दर्भों के साथ वैश्विक साहित्यिक समझ से जोड़ने और नई पीढ़ी के आलोचकों के बौद्धिक क्षितिज का विस्तार करने में नामवर सिंह का ऐतिहासिक योगदान है.
     छायावाद को लोगों ने अबूझ पहेली बना रखा था. शांतिप्रिय द्विवेदी, नंददुलारे वाजपेयी और नगेन्द्र के छायावाद सम्बन्धी लेखन  के बावजूद वह हिंदी पाठक के सामान्य बोध का हिस्सा नहीं बना था. रामविलास शर्मा के निराला संबंधी लेखन से कवि निराला का महत्त्व सामने आ रहा था, छायावाद तब भी  हिंदी पाठक की समझ से लगभग बाहर था. ‘छायावाद’ नामक अपनी पुस्तक के जरिए इस नई काव्य प्रवृत्ति को नामवर सिंह ने बड़े परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा. छायावादी कविता में ‘राष्ट्रीय जागरण का पर्याप्त आभास’ देखने वाले इस युवा आलोचक ने लिखा: “छायावाद के काव्य सौंदर्य के विवेचन से स्पष्ट है कि यह सारा सौंदर्य व्यक्ति की स्वाधीनता की भावना से उत्पन्न हुआ है. और वह स्वाधीनता भी व्यक्ति के माध्यम से सम्पूर्ण समाज की स्वाधीनता की अभिव्यक्ति है....छायावाद की कविताएँ अपने पीछे एक विशाल परिदृश्य का पता देती हैं. छायावाद में जो सार्वभौम और शाश्वत तत्त्व दिखाई पड़ते हैं वे  सौंदर्यशास्त्र के किसी अलौकिक नियम से नहीं आए हैं. बल्कि उसके ऐतिहासिक कार्यों के ही पुरस्कार हैं”. छायावाद को भक्तिकाव्य के समान महत्त्व देते हुए नामवर सिंह ने कहा कि ‘यह गौरव असाधारण’ है.
          नामवर सिंह की प्रगतिशील आलोचक के रूप में पहचान उनकी पुस्तक ‘इतिहास और आलोचना’ से बनी. वह शीतयुद्ध का ज़माना था. हिंदी में भी प्रगतिशील और गैर-प्रगतिशील जमात के बीच अंतर्वस्तु और रूप को लेकर तीखी बहस चल रही थी. ‘इतिहास और आलोचना’ के अपने लेखों के जरिए युवा नामवर सिंह ने प्रगतिशील मोर्चे का नेतृत्त्व किया. इस किताब के कारण प्रगतिशील जमात में उन्हें व्यापक लोकप्रियता और प्रतिष्ठा मिली. लेकिन बाद के वर्षों में नई कविता पर बात करते हुए गैर-प्रगतिशील कवियों- रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर, श्रीकांत वर्मा आदि की कविताओं पर भी उन्होंने विचार किया तथा  तनाव, विडम्बना आदि को भी कविता के मूल्यांकन में आधार बनाया. उन्होंने  कविता की अंतर्वस्तु  के साथ जब उसके रूप पक्ष पर भी जोर दिया तो प्रगतिशील जमात में उनके प्रतिमान विवाद के घेरे में आ गए. ‘कविता के नए प्रतिमान’ की  कड़ी आलोचना प्रगतिशील जमात में हुई. नामवर सिंह पर रुपवाद के आरोप लगे. उनकी यह आलोचना-पुस्तक मार्क्सवाद से उनके विचलन के रूप में देखी जाने लगी. लेकिन विचलित हुए बिना वे अपनी राह चलते रहे और  गैर-प्रगतिशील कवियों-कहानीकारों को भी पसंद किए जाने के कारण बराबर विवाद के केंद्र में रहे.
नामवर सिंह की पूरी आलोचना यात्रा नए रास्ते की खोज है. हिंदी में जो इकहरी मार्क्सवादी समझ उस जमाने में काम कर रही थी, उसे बदलने में मुक्तिबोध के साथ नामवर सिंह ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस क्रम में वे रुढ़िवादी मार्क्सवादियों से टकराने में भी न हिचके और गैर-मार्क्सवादी लेखकों से संवाद करने से भी उन्होंने परहेज नहीं किया. अपने समकालीनों में विजयदेव नारायण साही से उनका आलोचनात्मक संवाद हमेशा बना रहा तो अंग्रेजी के एफ.आर. लीविस भी उनके प्रिय आलोचक थे. नामवर सिंह ने मार्क्सवादी साहित्य चिंतकों से सीखा ही, गैर-मार्क्सवादी साहित्य चिंतन का भी सर्वोत्तम उनके सामने था. मुक्तिबोध की तरह गैर-प्रगतिशील लेखकों की कला संबंधी समझ से सीखने में उन्होंने कभी परहेज नहीं किया. पाव्लो नेरुदा और मुक्तिबोध जैसे मार्क्सवादी माने जाने वाले कवियों की तरह कविता में तनाव को देखने की आलोचनात्मक पहल उन्होंने की तथा  कविता की परख के लिए यथार्थवाद को आत्यंतिक रूप से  आधार कभी नहीं बनाया.
नामवर सिंह मूलतः कविता के आलोचक माने जाते हैं. मित्रों, खासतौर तौर से भैरव प्रसाद गुप्त  के आग्रह पर वे कहानी आलोचना के क्षेत्र में आए. लेकिन जिस संलग्नता के साथ उन्होंने कहानी समीक्षा की एक पद्धति विकसित की, उसका ऐतिहासिक  महत्त्व है. नामवर सिंह के पहले कहानी समीक्षा की कोई पद्धति नहीं थी. कहानी के तत्त्वों के आधार पर समीक्षा लिखी जाती थी. नामवर सिंह ने उस यांत्रिक विश्वविद्यालयी ढांचे से कहानी को निकालकर समीक्षा की नई जमीन पर रखकर देखा. उन पर आरोप लगे कि उन्होंने कविता के आलोचनात्मक टूल्स का इस्तेमाल कहानियों के मूल्यांकन में किया है.उन्होंने  काव्यात्मकता, संगीतात्मकता आदि की चर्चा की, लेकिन सबसे अधिक जोर उनका ‘कहानीपन’ और कहानी में आते  संवेदनात्मक बदलावों पर था. कहानी में नवीनता की खोज का उनका आग्रह बराबर बना रहा  इस बात की उन्होंने परवाह नहीं की कि कौन प्रगतिशील जमात का कहानीकार है और कौन नहीं. नई कहानी पर विचार के क्रम में जहाँ निर्मल वर्मा, उषा प्रियंवदा आदि की नवीनता को उन्होंने जहाँ रेखांकित किया वहीं बहुत से प्रगतिशील कहे जाने वाले कहानीकारों को वह महत्व नहीं दिया जिसकी अपेक्षा प्रगतिशील जमात को थी.नामवर सिंह की आलोचनात्मक पहल के कारण कहानी हिंदी की प्रमुख विधा के रूप में देखी जाने लगी. ठीक ही विजयमोहन सिंह ने उन्हें ‘हिंदी कहानी का प्रथम विधिवत आलोचक’ कहा है.
          नामवर सिंह मानते थे कि आलोचक की असली पहचान यह है कि वह किन रचनाओं को चुनता है और उनसे किन अंशों को रेखांकित करता है. रचना के मर्म का रेखांकन किसी भी आलोचक की आलोचनात्मक समझ का प्रमाण है. यदि वह अच्छी और ख़राब रचना में फर्क नहीं करता है तो वह साहित्य सिद्धांत की चाहे जितनी ऊँची बातें करे, वह अच्छा आलोचक नहीं माना जाएगा. इस अर्थ में आलोचक नामवर सिंह का लोहा उनके प्रतिपक्षियों ने भी माना. रामचंद्र शुक्ल जितने बड़े साहित्य चिन्तक थे उतने बड़े रचना के मर्मी आलोचक भी थे. कविता के मार्मिक अंशों की पहचान में शुक्ल जी का जोड़ नहीं है. शुक्ल जी के बाद जिस आलोचक ने साहित्य सिद्धांत के साथ रचना के मर्म का उद्घाटन किया, वे नामवर सिंह हैं. यही कारण है कि समकालीन से लेकर नई पीढ़ी तक के रचनाकार नामवर सिंह की आलोचनात्मक राय को महत्त्व देते रहे. यह अकारण नहीं है कि तमाम विवादों के बावजूद प्रगतिशील-गैर प्रगतिशील दोनों खेमों में वे आकर्षण के केंद्र बने. यह सम्मान कोई दूसरा मार्क्सवादी आलोचक हासिल नहीं कर सका. नामवर सिंह मानते थे कि मार्क्सवादी आलोचना की सार्थकता तब है जब मार्क्सवादी विशेषण की उसे जरूरत न रह जाए.
           नामवर सिंह अपने युग की रचनात्मक मनीषा की अगली नोक की पहचान पर बल देने वाले आलोचक हैं. वे रचना में आती नयी से नयी मानवीय संवेदना को रेखांकित करना आलोचक का धर्म मानते हैं.वे किसी आलोचक के निष्कर्ष को महत्वपूर्ण मानने की जगह उसके पीछे जो चिंतन प्रणाली है उस पर जोर देते हैं. ‘समकालीन आलोचना की समस्याएं’ शीर्षक अपने एक प्रकाशित व्याख्यान में अपनी आलोचना सम्बन्धी धारणा पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा है : “...आलोचक के निष्कर्ष महत्वपूर्ण नहीं हुआ करते, निष्कर्ष के पीछे जो चिंतन-प्रणाली है, वह महत्वपूर्ण हुआ करती है. इसके साथ ही एक और चीज होती है तर्क और युक्ति. तर्क और युक्ति और मूल्य प्रणाली के साथ ही किसी आलोचक की पहचान उसकी संवेदनशीलता से जानी जाती है, आंकी जाती है. किसी कवि पर बहुत बड़ा पोथा कोई आलोचक लिख सकता है,लेकिन पूरा ग्रन्थ पढने के बाद भी कभी-कभी पता नहीं लगता है कि सचमुच इस कवि की दो पंक्तियाँ ऐसी नयी, मौलिक खोजकर उसने निकाली हो जिनपर किसी की नजर न गयी हो.इसलिए अपने तईं  मैंने आलोचना पुस्तकों के बारे में एक नुस्खा यह बना रखा है: किसी कविता की आलोचना-पुस्तक है तो उसके उद्धरणों में देखता हूँ कि उसमे वही उद्धरण तो नहीं दिए गए हैं, जो दूसरे आलोचकों ने दिए हैं, या आलोचक ने एक पंक्ति ऐसी भी उद्धृत की है,जो और पुस्तकों में नहीं है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इतिहास को जांचना हो तो उसमें कवियों की, उदाहरण के रूप में दी हुई, रचनाओं को देखिए. उससे समझ में आएगा कि यह वह आदमी है, जो समूचे हिंदी साहित्य से चुनकर उद्धरण रखता है. कहा भी गया है कि हिंदी साहित्य में ‘गोल्डेन ट्रेजरी’ कोई तैयार नहीं की गयी, लेकिन आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जो इतिहास है, स्वयं हिंदी काव्य की ‘गोल्डन ट्रेजरी’ है. यह अचूक पहचान है, अच्छे आलोचक की. युक्ति हो, सिद्धांत हो, मानदंड हो, ज्ञान हो, विद्वता हो, सारी चीजें हों, लेकिन यह मूल वस्तु ग्रहणशीलता, संवेदनशीलता- यदि आलोचक में नहीं है, तो वह चाहे जितना बड़ा पंडित हो, विद्वान हो, शोधक हो, वह आलोचक नहीं है.” यह  लम्बा उद्धरण देने का एक ही तात्पर्य है कि साहित्यिक आलोचना से नामवर सिंह का जो आशय  है उसे समझा जा सके.
          ठसपन और अतिशय सुसंगतता आलोचक नामवर सिंह की फितरत नहीं थी. इसलिए प्रारम्भ में जिस कहानीकार निर्मल वर्मा को वे नई कहानी के केंद्र में रखते रहे और ‘परिंदे’ को नई कहानी का प्रथम रचनात्मक विस्फोट माना और जिसकी विषयवस्तु एवं कला की भूरी-भूरी तारीफ़ की, उसी निर्मल वर्मा की बाद की रचनात्मक परिणतियों को उन्होंने  ‘बाबावाद’ कहकर तीखी आलोचना की. ‘कविता के नए प्रतिमान’ में कवि अज्ञेय उनके निशाने पर थे. लेकिन बाद के वर्षों में अज्ञेय की कविता के  वे प्रशंसक हो गए. कभी जिस ‘असाध्य वीणा’ में उन्हें सबकुछ बासी नजर आया था, वही ‘असाध्य वीणा’ उन्हें अच्छी कविता लगने लगी. अज्ञेय की ‘नाच’ कविता की उन्होंने अनेक गोष्ठियों में मार्मिक व्याख्या की और तनी हुई रस्सी पर चलते हुए एक नट का जो तनाव होता है उस रूपक से अज्ञेय के कवि व्यक्तित्व को जोड़ा.
 जिस मुक्तिबोध को नामवर सिंह नई कविता का केन्द्रीय और शीर्ष व्यक्तित्व साबित कर चुके थे उसी मुक्तिबोध की काव्यभाषा को लेकर बाद के वर्षों में वे प्रशंसक नहीं रह गये थे. ‘दूसरी परंपरा की खोज’ के जरिए आलोचक-इतिहासकार हजारीप्रसाद द्विवेदी के क्रांतिकारी व्यक्तित्व को गढ़ने वाले नामवर सिंह ने रामचंद्र शुक्ल की रचनावली का संपादन किया और महान आलोचक के रूप में उन्हें प्रतिष्ठित किया. उन्होंने रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास पर टिप्पणी करते हुए लिखा: “आचार्य रामचंद्र शुक्ल का इतिहास उन ग्रंथों में से है जिन्हें मैं नित्य पढ़ता हूँ...... हिंदी साहित्य का कोई विद्यार्थी यदि आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इतिहास को नियमित रूप से नहीं पढ़ता है, तो मैं उसे हिंदी साहित्य का अधिकारी अध्येता नहीं मान पाता”. आचार्य शुक्ल की आलोचना की प्रशंसा करते हुए उन्होंने लिखा: “हिंदी साहित्य का पहला व्यवस्थित इतिहास लिखने वाले, आचार्य शुक्ल अपने युग के सबसे जागरुक आलोचक थे- बल्कि वे मूलतः आलोचक ही थे. उनके ‘इतिहास’ का स्थायित्व उनके आलोचनात्मक मूल्यांकन के कारण है”. उनके महत्त्व पर और अधिक जोर देते हुए उन्होंने लिखा: “यह हिंदी आलोचना का सौभाग्य है कि उसकी प्रतिष्ठा एक ऐसे समालोचक द्वारा हुई, जो शुद्ध साहित्यिक आलोचक नहीं था, सिर्फ अलंकार और रस की मीमांसा करने वाला काव्य विवेचक नहीं था, बल्कि साहित्य को व्यापक सामाजिक सन्दर्भों में देखने वाला और साहित्य की सामाजिक सार्थकता की प्रतिष्ठा करने वाला आलोचक था. आचार्य रामचंद्र शुक्ल दुनिया के महान आलोचकों के समान ही भारत के पहले गंभीर समालोचक दिखाई पड़ते हैं”.
             ‘दूसरी परंपरा की खोज’ को आधार बनाकर अब जो लोग हिंदी आलोचना में शुक्ल बनाम द्विवेदी का खेल खेलते हैं, वे खेलते रहें, अज्ञेय बनाम मुक्तिबोध का भी जो खेल खेलते हैं, वे भी खेलते रहें.नामवर सिंह हिंदी आलोचना में बनामों के इस खेल में किधर हैं यह कहना कठिन है. दूसरी परंपरा की खोज करना एक बात है, कबीर की प्रशंसा करना एक बात है, नामवर सिंह के लिए महान कवि तो तुलसीदास और महान आलोचक रामचंद्र शुक्ल ही हैं. इसलिए उनके आलोचना-कर्म में  सुसंगतता  ढूंढने पर उनके प्रशंसकों को निराशा हाथ लगेगी. अपनी आलोचना-यात्रा के दौरान जो आदमी आत्मावलोकन भी करे और आत्मालोचन के लिए प्रस्तुत भी रहे, वह शत-प्रतिशत सुसंगत हो भी नहीं सकता. अपनी बातचीत में इधर के वर्षों में नामवर सिंह यह स्वीकार करने लगे थे कि ‘कविता के नए प्रतिमान’ तक  उनकी जो आलोचना-यात्रा है , उस पर शीत युद्धकालीन छाया का प्रभाव है. ‘इतिहास और आलोचना’ नामक अपनी पुस्तक की ‘विज्ञप्ति’ में 1978 में ही उनकी यह स्वीकारोक्ति आ चुकी थी : “.... यह पुस्तक छठें दशक के वैचारिक संघर्ष का एक विवादमूलक  दस्तावेज है. इस वैचारिक संघर्ष में प्रगति-विरोधी विचारों का जवाब देने में इन निबंधों ने भी एक भूमिका अदा की थी. प्रकृति से विवादमूलक होने के कारण कुछ स्थलों पर अतिसरलीकरण और अतिरिक्त आग्रह भी मिल सकता है.” ऐसी  स्वीकारोक्ति उसी आलोचक की हो सकती है जो सुसंगतता को आत्यंतिक रूप से जरुरी नहीं मानता और जो अपने को नए तथ्य और सत्य के आलोक में बदलने को तैयार रहता है.
             आलोचना को वाद-विवाद-संवाद मानने वाले नामवर सिंह की आलोचनात्मक समझ के निर्माण में निस्संदेह मार्क्सवाद की बड़ी भूमिका है. उन्होंने न सिर्फ मार्क्सवाद को ठीक से पढ़ा था बल्कि दुनिया भर के मार्क्सवादी चिंतकों का भी अध्ययन-मनन किया था. लेकिन सब कुछ को देखने-समझने का उनका अपना नजरिया था. वे लकीर के फ़कीर नहीं थे. मार्क्सवाद की अपनी समझ का उल्लेख करते हुए अपने एक प्रकाशित व्याख्यान ‘कार्ल मार्क्स और साहित्य’ में वे कहते हैं : “लेनिन ने मार्क्सवाद के तीन मूल स्रोतों का उल्लेख किया है ....वे तीन मूल स्रोत हैं: जर्मन दर्शन, ब्रिटिश अर्थशास्त्र और फ्रेंच समाजवाद. मैं एक अरसे से यह अनुभव करता रहा हूँ कि एक चौथा स्रोत और है जिसका उल्लेख किया जाना चाहिए और यह चौथा स्रोत साहित्यिक है.मेरी दृष्टि में वह चौथा स्रोत ग्रीक ट्रेजेडी है.” ग्रीक ट्रेजेडी का  प्रसिद्ध चरित्र प्रमथ्यु मार्क्स को बहुत प्रिय था. मार्क्स को ट्रेजेडी का प्रसिद्ध लेखक शेक्सपीयर भी बहुत प्रिय था.
      दूसरे विद्वानों की तरह नामवर सिंह भी मानते हैं  कि मार्क्स ने साहित्य के बारे में जो कहा है वह बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन उतना ही महत्वपूर्ण है मार्क्स का वह भावबोध जो साहित्य को आत्मसात करके बना था. नामवर सिंह कहते हैं : “ साहित्य से प्राप्त होने वाली यह भाव-संपदा है साहस,धैर्य, करुणा और क्रोध की मानवीय शक्तियां. जब तक मनुष्य में ये गुण न हों तब तक वह क्रांतिकारी नहीं हो सकता...केवल विचारों से ही यदि क्रान्तिकारी बनते होते, तो अनेक व्यक्ति द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की पोथियों को पढ़कर,उसके जानकार बनकर क्रांतिकारी के रूप में गली-गली मारे-मारे फिरते.” मार्क्स के निर्माण में साहित्य की भूमिका का यह उल्लेख 1983 में नामवर सिंह ने किया था. लगता है कि वे  हिंदी के उन उत्साही मार्क्सवादियों को, जो उन्हें संशोधनवादी कहते थे, नयी गांठ लगाते हुए मार्क्सवाद का अधिक रचनात्मक पाठ सौंप रहे थे !
   
     
                                                                                    

Tuesday, 9 October 2018

राजकिशोर :सबसे योग्य और नैतिक आवाज




मूल्य और विचार आधारित पत्रकारिता की जो परंपरा रही, उसके संभवतः अंतिम और बड़े नाम राजकिशोर थे. उनकी उपस्थिति मूल्य आधारित पत्रकारिता की याद दिलाती थी. उन्होंने मूल्यों और विचारों से कभी समझौता नहीं किया. हमारे समय में राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी और राजकिशोर हिंदी पत्रकारिता की ऐसी त्रयी थे जिनके होने मात्र से मूल्यों और विचारों के बचे रहने का भरोसा जगता था. तीनों की अलग-अलग शैलियाँ और अंदाज थे. लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि इनके लिखे में हिंदी पत्रकारिता की सबसे नैतिक और योग्य आवाज सुनाई देती थी. माथुर साहब और प्रभाष जोशी तो प्रतिष्ठित राष्ट्रीय दैनिकों के संपादक हुए और उन्हें वह सबकुछ मिला जो उन जैसे बड़े पत्रकारों को मिलना चाहिए. लेकिन इस मामले में राजकिशोर बड़भागी न रहे. वे किसी बड़े दैनिक के संपादक न बन सके. दैनिक पत्रों के वे संपादक मंडल में ही रहे. कुछ मासिक पत्रिकाओं का संपादन उन्होंने जरुर किया. वे जिस भी पत्र में होते, संपादक या उप-संपादक के रूप में, उनके होने मात्र से उसमें एक नयी चमक आ जाती थी.
            कलकत्ता में जन्मे (2 मार्च 1947), पले, बढ़े और शिक्षित हुए. राजकिशोर 1990 में राजेन्द्र माथुर के बुलावे पर दिल्ली आए और ‘नव भारत टाइम्स’ में सहायक संपादक के रूप में काम शुरू किया. उसके पहले कलकत्ता के ‘रविवार’ साप्ताहिक और ‘परिवर्तन’ का वे संपादन कर चुके थे. इन पत्रों के जरिए वे दृष्टि संपन्न और विचारशील पत्रकार के रूप में ख्याति अर्जित कर चुके थे. लेकिन दिल्ली आए तो दिल्ली के होकर ही रहे. कलकत्ता के लिए कभी हाय-हाय नहीं किया, जैसा कि हम आमतौर पर अपनी छुटी हुई जगहों के लिए किया करते हैं. दिल्ली में अलग तरह का संघर्ष और चुनौतियाँ थीं, लेकिन यहाँ काम करने का अवसर भी था. ‘नव भारत टाइम्स’ से विद्यानिवास मिश्र के कार्यकाल में हटा दिए जाने के बाद उन्होंने संघर्ष भी खूब किया और लिखा भी खूब. ‘आज के प्रश्न’ श्रृंखला में लगभग दो दर्जन पुस्तकों का संपादन किया. साथ ही ‘सुनंदा की डायरी’ (उपन्यास), ‘एक अहिंदू का घोषणा-पत्र’, ‘एक भारतीय के दुःख’, गाँधी मेरे भीतर’, ‘स्त्रीत्व का दुःख’ आदि महत्त्वपूर्ण पुस्तकों की रचना की. अभी बड़ी संख्या में उनका लेखन बिखरा हुआ है. इसे संकलित और प्रकाशित करने से हिंदी की वैचारिक दुनिया समृद्ध होगी.
            राजकिशोर के वैचारिक मानस के निर्माण में भारत के समाजवादी आंदोलन, विशेषकर राममनोहर लोहिया के विचारों का गहरा प्रभाव था. लोहिया की मौलिकता और गद्य का जो खुरदुरापन था, उससे राजकिशोर का लेखकीय व्यक्तित्व बना था. वे दूसरे लोहियावादियों की तरह मार्क्स के विरोधी नहीं थे. वे मार्क्स से जरूरत पड़ने पर वैचारिक ऊर्जा लेते थे. लेकिन भारत के कठमुल्लावादी कम्युनिस्टों को उन्होंने कभी पसंद नहीं किया. इधर के वर्षों में डॉ. अम्बेडकर के विचारों से वे प्रभावित हुए थे और भारतीय समाज में दलित समस्या  के समाधान की दिशा में बोलने और लिखने लगे थे. लेकिन वहाँ भी वे किसी वैचारिक जड़ता को पसंद नहीं करते थे. ‘आज के प्रश्न’ श्रृंखला में ‘दलित राजनीति की समस्याएं’ नामक पुस्तक के जरिए उन्होंने दलित राजनीति को भी आलोचनात्मक ढंग से देखा. उन्होंने अपने संपादाकीय में लिखा कि- “दलित राजनीति को अक्सर दलित आन्दोलन का पर्याय मान लिया जाता है. इसमें क्या शक है कि दलित आन्दोलन न होता, तो दलित राजनीति कहाँ से आती. लेकिन इसमें शक है कि दलित राजनीति दलित आन्दोलन को आगे बढ़ा रही है. महाराष्ट्र में डॉ. अम्बेडकर की जुझारू राजनीतिक परंपरा तो ख़त्म-सी हो ही चली है, उत्तर भारत में बहुजन समाजवादी पार्टी पूरी तरह से नैतिक और वैचारिक क्षय की शिकार है. आत्म-सम्मान के लिए संघर्षरत दलित मध्यवर्ग के आन्दोलन से निकली बसपा की आकांक्षा यह थी कि पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को अपने भीतर समेटते हुए वह भारत के वंचित शोषित बहुजन का प्रतिनिधित्व करेगी. लेकिन आज न वह केवल दलितों की पार्टी बन गई है, बल्कि दलित राजनीति को किसी ऊंचाई पर ले जाने में असमर्थ दिखाई देती है”. राजकिशोर जी यह मानते थे कि दलित ही  अपनी समस्याओं को ठीक से समझ सकते हैं, वे दलित राजनीति का भी अच्छा विश्लेषण कर सकते हैं . लेकिन इसी के साथ वे यह भी मानते थे कि दलितों के संघर्ष में गैर-दलितों को भी सहकार करना चाहिए. उनका विश्वास था कि अन्य लोगों द्वारा की गई समीक्षा के प्रकाश में दलित समुदाय अपनी राजनीति का वस्तुपरक विश्लेषण कर सकता है. इसीलिए उन्होंने अपनी किताब में दलित विचारकों के साथ गैर-दलितों को भी शामिल किया.
            राजकिशोर जी धुंआधार लिखने वाले विचारक पत्रकार थे. ‘नवभारत टाइम्स’ से हटने के बाद उनके लेखन में और गति आई. वे हम जैसे मित्रों से भी निरंतर लिखने की अपेक्षा करते थे. वे जिस पत्रिका से जुड़े होते थे, उसमें लिखने के लिए हमसे भी आग्रह करते थे. उनके पास विषय और शीर्षक के नएपन की भरमार थी. वे कोई फड़कता  हुआ रचनात्मक शीर्षक सुझाते और लिखने का आग्रह करते. उनके आग्रह पर कभी-कभी लिखा भी मैंने. लेकिन कभी-कभी असमर्थता भी व्यक्त की कि लिखने के लिए सन्दर्भ पुस्तकों को देखना भी जरूरी है और उसके लिए अभी मेरे पास समय नहीं है तो वे हमें झकझोरते कि लिखना तो आनंद का काम है, टिप्पणियाँ स्मृतियों के सहारे लिखनी चाहिए, रेफरेंस की जरुरत अकादमिक लेखन में होनी चाहिए. लिखना उनके लिए आनंद का काम इसलिए था कि वे लिखने को सामाजिक और बौद्धिक एक्टिविजम समझते थे.
            राजकिशोर का लेखन साहित्यिक संवेदना और अस्मितामूलक विमर्शों की चेतना से लैश था. वे गरीबी, जाति, स्त्री, रंग आदि के प्रश्न की अनदेखी करके लिखने वाले लेखक नहीं थे. उनके लिखे में साहित्यिक सन्दर्भ भी बार-बार आते हैं जिसके कारण उनके लेखों का प्रभाव कई गुणा बढ़ जाता था. वे हिंदी के बहुपठित पत्रकार-लेखक थे. हिंदी समेत दुनिया के अनेक लेखकों-विचारकों के सन्दर्भ उनके लेख में आते जो उनकी व्यापक अध्ययनशीलता का प्रमाण देते थे. भाषा की शुद्धता और समझ को लेकर वे बहुत आग्रहशील थे. वे अपने नजदीकी मित्र के लेखन में भी भाषाई दोष को नजरंदाज नहीं करते थे. वे जिस किसी नए लेखक से लिखने का आग्रह करते, यह पहले जाँच लेते कि उसकी भाषाई क्षमता कैसी है. इस अर्थ में वे पुरानी परंपरा के बहुपठित और बहुभाषी पत्रकारों की जमात के आदमी थे. उनसे जैसी भी असहमति हो, ज्ञान और भाषा की उनकी समझ से असहमति किसी की नहीं होती थी.
            मित्रवत्सलता राजकिशोर के व्यक्तित्व का ऐसा गुण था जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता. मेरी एक किताब का पुस्तक मेले में लोकार्पण होना था, मैंने कहा कि आप ही उसका लोकार्पण कर दें. वे आने की मनःस्थिति में नहीं थे, लेकिन मेरे आग्रह पर आए और खूब बोले भी. अगले सप्ताह एक अखबार में ‘मेले में गोपेश्वर’ नाम से टिप्पणी भी लिखी जो एक तरह से मेरी किताब की समीक्षा थी. समीक्षा का यह उनका अपना ढंग था. वह साहित्यिक कम सामाजिक महत्त्व पर अधिक जोर देने वाला था.
            इधर के दिनों में वे समाजवादी आन्दोलन के बिखर जाने से बहुत बेचैन थे. फोन पर या मिलने पर राजनीति और समाज संबंधी अपनी बेचैनी भी शेयर करते थे. इसी सिलसिले में वे कई बार मेरे घर भी आए. एक बार उनके साथ विमला भाभी भी थीं. वे चाहते थे कि दिल्ली में गाँधी, लोहिया, अम्बेडकर आदि की वैचारिकी से प्रभावित जो बुद्धिजीवी हैं, जो कठमुल्ले नहीं हैं, उनका एक मंच होना चाहिए. उन्हीं की पहल पर कुछ साथियों की मदद से ‘संवेदन’ नाम का एक वैचारिक मंच बना जिसके जरिए कुछ अच्छे आयोजन हमने दिल्ली में किये. राजकिशोर जी हर आयोजन में उत्साहपूर्वक शामिल हुए. इधर के दिनों में देश और समाज में जो राजनीतिक सामाजिक स्थितियां हो गई हैं उससे वे बहुत बेचैन थे. वे कहते थे कि इन हालातों से कोई पार्टी ईमानदारीपूर्वक नहीं लड़ रही है. वे अक्सर कहते कि हमलोगों को एक नए राजनीतिक दल का गठन करना चाहिए और सही परिवर्तन के लिए संघर्ष करना चाहिए. हम उन्हें बताते कि राजनीतिक दल का गठन हम आप जैसे बुद्धिजीवियों से संभव नहीं है, उसकी अनेक कठिनाइयां हैं तब भी वे राजनीतिक दल बनाने की अपनी बात पर अड़े रहते थे. उनके आग्रह पर जब मुझ जैसे साथियों ने ध्यान नहीं दिया, तब उनका जोर इस बात पर पड़ा कि हमें एक ऐसी वैचारिक पत्रिका निकालनी चाहिए जिसकी प्रसार संख्या ज्यादा हो. इसके जरिए वे जन सामान्य को वैचारिक रूप से समृद्ध करने का भाव रखते थे. पत्रिका का निकलना शायद संभव होता तबतक उनके ऊपर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा.
            राजकिशोर जी की मित्रवत्सलता भी बहुत रचनात्मक होती थी. तीन साल पहले मेरे जन्मदिन से एक दिन पूर्व उन्होंने फोन किया कि जन्मदिन पर मैं क्या कर रहा हूँ. मैंने जब उन्हें बताया कि मैं अपना जन्मदिन नहीं मनाता हूँ तब उन्होंने एक बहुत ही रचनात्मक सुझाव दिया. उन्होंने कहा कि कल के दिन मैं आपके साथ रहना चाहता हूँ. आप अपने किसी वैचारिक हीरो पर बोलिए. मैंने कहा कि यह संभव है लेकिन तब जब आप उपस्थित रहेंगे. मैंने कहा कि मैं राममनोहर लोहिया की संस्कृति चिंता पर बोलूँगा. वे सहर्ष आए और दिल्ली विश्वविद्यालय के मानसरोवर छात्रावास में हमलोग मिले. दिल्ली विश्वविद्यालय के अनेक अध्यापकों और छात्रों के बीच लोहिया की संस्कृति चिंता पर बात करते हुए और चाय पीते हुए उनकी अध्यक्षता में मेरा 60वाँ जन्मदिन मनाया गया. उन्होंने उस दिन एक महत्त्वपूर्ण बात कही. उन्होंने कहा कि यदि हमें अपना जन्मदिन मनाना ही है तो हमें उस दिन उस आदमी को याद करना चाहिए जिनका हमारे निर्माण में महत्त्व है. 
            खुरदुरापन राजकिशोर जी के व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा था. रहन-सहन से लेकर बोली-बानी और लेखन सब में खुरदुरापन था. वैसा ही खुरदुरापन जैसा गाँधी युगीन खादी में हुआ करता था. अपने लेखन और व्यक्तित्व में इसी खुरदुरे सौंदर्य को उन्होंने जीवन भर बनाए रखा.  इसी कारण समाज का अंतिम जन उनकी चिंता के केंद्र में हमेशा रहा. लिखा तो उन्होंने कई विधाओं में लेकिन सबसे अधिक याद किया जाएगा उनका वह वैचारिक लेखन जो गाँधी, लोहिया और अम्बेडकर के जादुई स्पर्श से नई चमक के साथ हिंदी समाज को प्रकाशित करता रहा.


Saturday, 18 August 2018

कविता परोक्ष की विधा है


तात्कालिक किसी घटना या प्रसंग से कविता का क्या सम्बन्ध है? कविता क्या एक तरह राजनीतिक बयान है जिसकी दरकार किसी नेता से समाज को है? क्या हर समय घट रही किसी घटना पर कवि का कविता में बोलना उचित है? ये सारे प्रश्न इसलिए कि इधर सोशल मीडिया पर दिन-प्रतिदिन की घटनाओं पर आधारित कविताओं की भरमार है. सोशल मीडिया अभिव्यक्ति का बड़ा मंच है जो हर किसी को उपलब्ध है. वहाँ कोई सम्पादक नहीं जो कविता के गुण-दोष बताए. यहाँ जगह की कमी नहीं; समय का बंधन नहीं. सो जब लिखें, जितना लिखें छपने की सुविधा है. यहाँ किसी संपादक की तथाकथित तानाशाही की जगह उड़ान के लिए खुला आकाश है. इस कारण ऐसी कविताएँ भी आती हैं जो किसी सामयिक घटना पर कवि की प्रतिक्रिया भर होती है. लोगों की शिकायत रहती है कि उस प्रतिक्रिया को कविता बन जाने लायक जिस समय और संवेदना की दरकार है वह उसे नहीं मिली है.
            कविता के इतिहास में झांकने पर पता चलता है कि कविता ने तात्कालिकता से कभी मुंह नहीं मोड़ा लेकिन उससे उसकी दूरी हमेशा बनी रही है. भारत में वाल्मीकि को ‘आदिकवि’ कहा जाता है. माना जाता है कि कविता की शुरुआत उन्हीं से हुई. एक घटना की चर्चा की जाती है कि मिथुनरत क्रौंच पक्षी का एक बहेलिया द्वारा वध देखकर महर्षि वाल्मीकि की करुणा उमड़ पड़ी और उनके मुंह से एक श्लोक फुट पड़ा. ‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः...’ कहा गया कि यह छंदबद्ध कविता है और वाल्मीकि को महाकाव्य लिखना चाहिए. वाल्मीकि ने काव्य रचना के लिए नायक की खोज शुरू की. एक दिन उन्होंने महर्षि नारद के सामने नायक संबंधी जिज्ञासा प्रकट की- “को न्वस्मिन साम्प्रतं लोके..........” सम्प्रति इस लोक में नायक होने लायक कौन है? नारद द्वारा राम का नाम लेने के बाद उन्होंने ‘रामायण’ की रचना की  और वाल्मीकि को ‘आदिकवि’ के विशेषण से विभूषित किया गया.
            वाल्मीकि वाले इस प्रसंग से पता चलता है कि तात्कालिक घटनाएँ कविता के लिए प्रेरक होती हैं. लेकिन कविता की संवेदना तक पहुँचने में उसे वक्त लगता है. प्रसाद, निराला, अज्ञेय, नागार्जुन आदि आधुनिक कवियों ने भी  तात्कालिक घटनाओं पर आधारित कविताएँ लिखी हैं. वे बुरी भी नहीं हैं. उनका भी महत्त्व है. लेकिन इन कवियों की कीर्ति का मूलाधार वे कविताएँ हैं जिनमें प्रत्यक्ष किसी घटना का दवाब नहीं है. ‘सम्राट अष्टम एडवर्ड के प्रति’ या ‘काले-काले बादल आए, न आए वीर जवाहर लाल’ जैसी निराला की कविताएँ तत्कालीन घटनाओं से प्रभावित कविताएँ हैं.  ये अच्छी हैं लेकिन ‘तुलसीदास’, ‘सरोज स्मृति’, ‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘बादल राग’ का जब हम स्मरण करते हैं तो ये कविताएँ हमें नहीं याद आती. भारत विभाजन पर अज्ञेय ने दर्जन भर कविताएँ लिखी हैं. उन कविताओं के जरिए अज्ञेय के सेक्युलर मिजाज और उनके कविकर्म के विस्तार का पता चलता है. पर अज्ञेय को विशिष्ट कवि बनाने में उनकी दूसरी कविताओं की भूमिका है. राजनीतिक घटनाओं पर सर्वाधिक कविताएँ नागार्जुन  ने लिखी हैं. उस कारण उनकी लोकप्रियता भी रही है. लेकिन उनके भी कविकर्म की सार्थकता के लिए उनकी दूसरी कविताएँ देखी जाती हैं. ‘बादल को घिरते देखा है’, ‘कालिदास सच सच बतलाना’, ‘अकाल और उसके बाद’, ‘बहुत दिनों के बाद’ आदि कविताओं की बात ही कुछ और है! बेलछी हत्याकांड पर नागार्जुन ने ‘हरिजन गाथा’ लिखी. ब्रिटेन की रानी के भारत आने की तैयारी में लगी नेहरु सरकार पर व्यंग्य करते हुए ‘आओ रानी हम ढोएंगे पालकी’ कविता लिखी. इन कविताओं के पीछे घटनाएँ हैं लेकिन यहाँ कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं हैं. तात्कालिक प्रतिक्रिया ‘जयप्रकाश पर पड़ी लाठियाँ लोकतंत्र की’ जैसी कविताओं में है जो जाहिर है उनकी अच्छी कविताओं में नहीं गिनी जातीं.
            ‘प्रार्थना गुरु कबीरदास के लिए’ शीर्षक कविता में विजयदेव नारायण साही जिस ‘दहाड़ते आतंक के बीच फटकार कर सच’ बोलने की बात करते हैं उसके पीछे आपात्कालीन स्थितियों की मौजूदगी से इनकार नहीं किया जा सकता. यह कविता आज जो स्थिति है उसमें भी प्रासंगिक है. इससे पता चलता है कि किसी कविता का आधार कोई घटना हो सकती है पर वह दीर्घजीवी तभी होगी जब वह उस घटना के पार जाएगी. यानी उसकी गूंजें-अनुगूंजें अपने समय के साथ होने पर भी उसका अतिक्रमण करने में समर्थ होंगी.
            रघुवीर सहाय और धूमिल दोनों राजनीतिक कवि हैं. दोनों ने अपने समय को अपनी कविता में ढाला. दोनों में अपने समय का दवाब तो है लेकिन दोनों में कविता के जरिए तात्कालिकता के अतिक्रमण का कवि कौशल है. फिर भी धूमिल की तुलना में रघुवीर सहाय ज्यादा बड़ा प्रभाव पैदा करते हैं. उनकी कविता ‘रामदास’ को याद कीजिए- ‘रामदास उस दिन उदास था/अंत समय आ गया पास था/उसे बता यह दिया गया था/उसकी हत्या होगी’. यह कविता आँखों देखे रामदास सरीखे किसी गरीब आदमी के जीवन प्रसंग से प्रभावित हो सकती है, लेकिन यह तात्कालिकता का अतिक्रमण करती है और युग व्यापी प्रभाव पैदा करते हुए लोकतंत्र में निस्सहाय आम आदमी का प्रतीक बन जाती है जिसे एक हत्यारा बीच सड़क पर पर दिन दोपहर में मार सकता है. यह आज़ादी के बाद आम आदमी की हालत है. रघुवीर सहाय अपने समय के सच को अपने युग का सच बनाकर कविता में रूपांतरित करने में समर्थ होते हैं. इसलिए उनकी कविता समकालीन भी है और दीर्घजीवी भी. समय का सच हू-ब-हू कविता का सच नहीं होता. समय के सच को कविता का सच बना लेने का हुनर रघुवीर सहाय जैसे कवि के पास खूब है. 1960 के दशक का ‘रामदास’ हमारे समय में हत्यारे के चाक़ू से नहीं मारा जाता. व्यवस्था ने उसे मारने के बहुत ही सूक्ष्म हथियार विकसित कर लिए हैं. इस तरह की विषयवस्तु पर शोर मचाती हुई बहुतेरी कविताएँ मिलेंगी. लेकिन ऐसे भी कवि हैं जो उस समसामयिकता को युग के सच की तरह कविता में प्रस्तुत करते दिखाई देते हैं. इधर के कवि चन्दन सिंह की एक कविता पर इस प्रसंग में ध्यान जाता है. कविता का शीर्षक है ‘उसकी हत्या में हथियार शामिल नहीं होंगे’. इस कविता में रघुवीर सहाय के काव्य सच का सही अर्थों में विकास दिखाई देता है. यह कविता भी रामदास सरीखे आम आदमी के मारे जाने की कविता है. कविता के प्रारंभिक अंश को देखें- ‘यह तय है कि वह मारा जाएगा/पर, उसकी हत्या में/हथियार शामिल नहीं होंगे/सब्जी काटने से भले ही गंदा हो जाए कोई चाक़ू/उसके खून से तो हरगिज नहीं...किसी दिन वह गाड़ी के नीचे/नहीं आएगा बचकर बगल से गुजरता/उसकी खूबसूरती से मारा जाएगा’. इस कविता में भी तात्कालिकता है लेकिन उसे अतिक्रमित करने का उपक्रम भी है. ‘रामदास’ या इस तरह की कविताएँ न तो कबीर के युग में लिखी जा सकती थीं, न तो निराला के युग में. लेकिन इन कविताओं में तात्कालिकता को अतिक्रमित कर युगव्यापी बनाने की जो तड़प है वही इन्हें समकालीन बनाती है और विशिष्ट भी.
            कविता प्रत्यक्ष की भी विधा है लेकिन वह प्रत्यक्ष से अधिक  परोक्ष की विधा है. वह सामने से जितना कहती है उससे अधिक ओट से कहती है. यूँ तो यह बात साहित्य मात्र पर लागू होती है लेकिन सबसे अधिक कविता पर ही लागू होती है. इसका ध्यान दुनिया के पुराने-नए सभी कवियों ने रखा है. फैज़ का शेर है- ‘वो बात फ़साने में जिसका जिक्र न था/वो बात उन्हें बहुत नागवार गुजरी है’. यह प्रत्यक्ष की तुलना में परोक्ष को शायरी में महत्त्व देने की ओर संकेत है. प्रत्यक्ष को परोक्ष बनाने में कविता समय लेती है. इसलिए तात्कालिकता के दवाब में जो कविताएँ लिखी जाएँगी उनका अधिक जोर प्रत्यक्ष पर होगा. प्रत्यक्ष की कविता बयान होगी. यह अलग बात है कि कभी-कभी बयान भी कविता बन जाता है. ऐसी ही एक कविता राकेश रंजन की है- ‘क्या होऊँ’. हमारे समय की सांप्रदायिक समस्या पर एक बयानधर्मी बात कैसे कविता बनती है इसका सुन्दर उदाहरण है यह कविता- ‘हरा होता हूँ/तो हिन्दू मारते हैं/केसरिया होता हूँ तो मुसलमान/हत्यारे और दलाल मारते हैं/सफ़ेद होने पर/ तुम्हीं कहो मेरे देश/क्या होऊँ/जो बचा रहूँ शेष’.