तात्कालिक किसी घटना या
प्रसंग से कविता का क्या सम्बन्ध है? कविता क्या एक तरह राजनीतिक बयान है जिसकी
दरकार किसी नेता से समाज को है? क्या हर समय घट रही किसी घटना पर कवि का कविता में
बोलना उचित है? ये सारे प्रश्न इसलिए कि इधर सोशल मीडिया पर दिन-प्रतिदिन की
घटनाओं पर आधारित कविताओं की भरमार है. सोशल मीडिया अभिव्यक्ति का बड़ा मंच है जो
हर किसी को उपलब्ध है. वहाँ कोई सम्पादक नहीं जो कविता के गुण-दोष बताए. यहाँ जगह
की कमी नहीं; समय का बंधन नहीं. सो जब लिखें, जितना लिखें छपने की सुविधा है. यहाँ
किसी संपादक की तथाकथित तानाशाही की जगह उड़ान के लिए खुला आकाश है. इस कारण ऐसी
कविताएँ भी आती हैं जो किसी सामयिक घटना पर कवि की प्रतिक्रिया भर होती है. लोगों
की शिकायत रहती है कि उस प्रतिक्रिया को कविता बन जाने लायक जिस समय और संवेदना की
दरकार है वह उसे नहीं मिली है.
कविता के इतिहास में झांकने पर पता
चलता है कि कविता ने तात्कालिकता से कभी मुंह नहीं मोड़ा लेकिन उससे उसकी दूरी
हमेशा बनी रही है. भारत में वाल्मीकि को ‘आदिकवि’ कहा जाता है. माना जाता है कि
कविता की शुरुआत उन्हीं से हुई. एक घटना की चर्चा की जाती है कि मिथुनरत क्रौंच
पक्षी का एक बहेलिया द्वारा वध देखकर महर्षि वाल्मीकि की करुणा उमड़ पड़ी और उनके
मुंह से एक श्लोक फुट पड़ा. ‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः...’ कहा
गया कि यह छंदबद्ध कविता है और वाल्मीकि को महाकाव्य लिखना चाहिए. वाल्मीकि ने
काव्य रचना के लिए नायक की खोज शुरू की. एक दिन उन्होंने महर्षि नारद के सामने
नायक संबंधी जिज्ञासा प्रकट की- “को न्वस्मिन साम्प्रतं लोके..........” सम्प्रति
इस लोक में नायक होने लायक कौन है? नारद द्वारा राम का नाम लेने के बाद उन्होंने
‘रामायण’ की रचना की और वाल्मीकि को ‘आदिकवि’
के विशेषण से विभूषित किया गया.
वाल्मीकि वाले इस प्रसंग से पता चलता
है कि तात्कालिक घटनाएँ कविता के लिए प्रेरक होती हैं. लेकिन कविता की संवेदना तक
पहुँचने में उसे वक्त लगता है. प्रसाद, निराला, अज्ञेय, नागार्जुन आदि आधुनिक
कवियों ने भी तात्कालिक घटनाओं पर आधारित
कविताएँ लिखी हैं. वे बुरी भी नहीं हैं. उनका भी महत्त्व है. लेकिन इन कवियों की
कीर्ति का मूलाधार वे कविताएँ हैं जिनमें प्रत्यक्ष किसी घटना का दवाब नहीं है.
‘सम्राट अष्टम एडवर्ड के प्रति’ या ‘काले-काले बादल आए, न आए वीर जवाहर लाल’ जैसी
निराला की कविताएँ तत्कालीन घटनाओं से प्रभावित कविताएँ हैं. ये अच्छी हैं लेकिन ‘तुलसीदास’, ‘सरोज स्मृति’,
‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘बादल राग’ का जब हम स्मरण करते हैं तो ये कविताएँ हमें
नहीं याद आती. भारत विभाजन पर अज्ञेय ने दर्जन भर कविताएँ लिखी हैं. उन कविताओं के
जरिए अज्ञेय के सेक्युलर मिजाज और उनके कविकर्म के विस्तार का पता चलता है. पर
अज्ञेय को विशिष्ट कवि बनाने में उनकी दूसरी कविताओं की भूमिका है. राजनीतिक
घटनाओं पर सर्वाधिक कविताएँ नागार्जुन ने
लिखी हैं. उस कारण उनकी लोकप्रियता भी रही है. लेकिन उनके भी कविकर्म की सार्थकता
के लिए उनकी दूसरी कविताएँ देखी जाती हैं. ‘बादल को घिरते देखा है’, ‘कालिदास सच
सच बतलाना’, ‘अकाल और उसके बाद’, ‘बहुत दिनों के बाद’ आदि कविताओं की बात ही कुछ
और है! बेलछी हत्याकांड पर नागार्जुन ने ‘हरिजन गाथा’ लिखी. ब्रिटेन की रानी के
भारत आने की तैयारी में लगी नेहरु सरकार पर व्यंग्य करते हुए ‘आओ रानी हम ढोएंगे
पालकी’ कविता लिखी. इन कविताओं के पीछे घटनाएँ हैं लेकिन यहाँ कोई तात्कालिक
प्रतिक्रिया नहीं हैं. तात्कालिक प्रतिक्रिया ‘जयप्रकाश पर पड़ी लाठियाँ लोकतंत्र
की’ जैसी कविताओं में है जो जाहिर है उनकी अच्छी कविताओं में नहीं गिनी जातीं.
‘प्रार्थना गुरु कबीरदास के लिए’ शीर्षक
कविता में विजयदेव नारायण साही जिस ‘दहाड़ते आतंक के बीच फटकार कर सच’ बोलने की बात
करते हैं उसके पीछे आपात्कालीन स्थितियों की मौजूदगी से इनकार नहीं किया जा सकता. यह
कविता आज जो स्थिति है उसमें भी प्रासंगिक है. इससे पता चलता है कि किसी कविता का
आधार कोई घटना हो सकती है पर वह दीर्घजीवी तभी होगी जब वह उस घटना के पार जाएगी.
यानी उसकी गूंजें-अनुगूंजें अपने समय के साथ होने पर भी उसका अतिक्रमण करने में
समर्थ होंगी.
रघुवीर सहाय और धूमिल दोनों राजनीतिक
कवि हैं. दोनों ने अपने समय को अपनी कविता में ढाला. दोनों में अपने समय का दवाब
तो है लेकिन दोनों में कविता के जरिए तात्कालिकता के अतिक्रमण का कवि कौशल है. फिर
भी धूमिल की तुलना में रघुवीर सहाय ज्यादा बड़ा प्रभाव पैदा करते हैं. उनकी कविता
‘रामदास’ को याद कीजिए- ‘रामदास उस दिन उदास था/अंत समय आ गया पास था/उसे बता यह
दिया गया था/उसकी हत्या होगी’. यह कविता आँखों देखे रामदास सरीखे किसी गरीब आदमी
के जीवन प्रसंग से प्रभावित हो सकती है, लेकिन यह तात्कालिकता का अतिक्रमण करती है
और युग व्यापी प्रभाव पैदा करते हुए लोकतंत्र में निस्सहाय आम आदमी का प्रतीक बन
जाती है जिसे एक हत्यारा बीच सड़क पर पर दिन दोपहर में मार सकता है. यह आज़ादी के
बाद आम आदमी की हालत है. रघुवीर सहाय अपने समय के सच को अपने युग का सच बनाकर
कविता में रूपांतरित करने में समर्थ होते हैं. इसलिए उनकी कविता समकालीन भी है और
दीर्घजीवी भी. समय का सच हू-ब-हू कविता का सच नहीं होता. समय के सच को कविता का सच
बना लेने का हुनर रघुवीर सहाय जैसे कवि के पास खूब है. 1960 के दशक का ‘रामदास’
हमारे समय में हत्यारे के चाक़ू से नहीं मारा जाता. व्यवस्था ने उसे मारने के बहुत
ही सूक्ष्म हथियार विकसित कर लिए हैं. इस तरह की विषयवस्तु पर शोर मचाती हुई
बहुतेरी कविताएँ मिलेंगी. लेकिन ऐसे भी कवि हैं जो उस समसामयिकता को युग के सच की
तरह कविता में प्रस्तुत करते दिखाई देते हैं. इधर के कवि चन्दन सिंह की एक कविता
पर इस प्रसंग में ध्यान जाता है. कविता का शीर्षक है ‘उसकी हत्या में हथियार शामिल
नहीं होंगे’. इस कविता में रघुवीर सहाय के काव्य सच का सही अर्थों में विकास दिखाई
देता है. यह कविता भी रामदास सरीखे आम आदमी के मारे जाने की कविता है. कविता के
प्रारंभिक अंश को देखें- ‘यह तय है कि वह मारा जाएगा/पर, उसकी हत्या में/हथियार
शामिल नहीं होंगे/सब्जी काटने से भले ही गंदा हो जाए कोई चाक़ू/उसके खून से तो
हरगिज नहीं...किसी दिन वह गाड़ी के नीचे/नहीं आएगा बचकर बगल से गुजरता/उसकी
खूबसूरती से मारा जाएगा’. इस कविता में भी तात्कालिकता है लेकिन उसे अतिक्रमित
करने का उपक्रम भी है. ‘रामदास’ या इस तरह की कविताएँ न तो कबीर के युग में लिखी
जा सकती थीं, न तो निराला के युग में. लेकिन इन कविताओं में तात्कालिकता को अतिक्रमित
कर युगव्यापी बनाने की जो तड़प है वही इन्हें समकालीन बनाती है और विशिष्ट भी.
कविता प्रत्यक्ष की भी विधा है लेकिन
वह प्रत्यक्ष से अधिक परोक्ष की विधा है.
वह सामने से जितना कहती है उससे अधिक ओट से कहती है. यूँ तो यह बात साहित्य मात्र
पर लागू होती है लेकिन सबसे अधिक कविता पर ही लागू होती है. इसका ध्यान दुनिया के
पुराने-नए सभी कवियों ने रखा है. फैज़ का शेर है- ‘वो बात फ़साने में जिसका जिक्र न
था/वो बात उन्हें बहुत नागवार गुजरी है’. यह प्रत्यक्ष की तुलना में परोक्ष को
शायरी में महत्त्व देने की ओर संकेत है. प्रत्यक्ष को परोक्ष बनाने में कविता समय
लेती है. इसलिए तात्कालिकता के दवाब में जो कविताएँ लिखी जाएँगी उनका अधिक जोर
प्रत्यक्ष पर होगा. प्रत्यक्ष की कविता बयान होगी. यह अलग बात है कि कभी-कभी बयान
भी कविता बन जाता है. ऐसी ही एक कविता राकेश रंजन की है- ‘क्या होऊँ’. हमारे समय
की सांप्रदायिक समस्या पर एक बयानधर्मी बात कैसे कविता बनती है इसका सुन्दर उदाहरण
है यह कविता- ‘हरा होता हूँ/तो हिन्दू मारते हैं/केसरिया होता हूँ तो
मुसलमान/हत्यारे और दलाल मारते हैं/सफ़ेद होने पर/ तुम्हीं कहो मेरे देश/क्या
होऊँ/जो बचा रहूँ शेष’.
कविता प्रत्यक्ष की भी विधा है और प्रत्यक्ष से अधिक परोक्ष की विधा है.
ReplyDeleteपरोक्षप्रिया: हि देवा :
यहाँ तो प्रत्यक्ष और परोक्ष का ही सवाल खड़ा हो गया है ?
आपने तात्कालिकता के अतिक्रमण की बात कही है , निश्चित ही वह महत्त्वपूर्ण है !
ReplyDeleteकवि अपने क्षण को कितना व्यापक विस्तार दे सकता है , आपने इसके उदाहरण भी दिये ही हैं !
कवि में वह सामर्थ्य है कि वह अपने क्षण को युग बना दे , चिरन्तन- सत्य को झकझोरने की ओर प्रवृत्त कर दे !
इतने पर भी यह सच है कि उसका अपना परिवेश तो उसकी कविता में जीवित रहेगा ही !
अपने परिवेश का कितना अतिक्रमण वह करता है , यह बात गहरी है !
क्षण युग में समा जाते हैं किन्तु युग भी अभिव्यक्त तो क्षण में ही होते हैं !
लेकिन प्रत्यक्ष और परोक्ष का सवाल अपनी परिभाषा की माँग कर रहा है !
बेहतर लिखा है | बधाई आपको |
ReplyDeleteकविता प्रत्यक्ष की भी विधा है लेकिन वह प्रत्यक्ष से अधिक परोक्ष की विधा है. वह सामने से जितना कहती है उससे अधिक ओट से कहती है -- एकदम ठीक बात।
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