Saturday, 10 March 2018

महात्मा गाँधी और भक्ति काव्य


अच्छी कविता मनुष्य को संस्कारित करती है. इसके सर्वोत्तम उदाहरण मोहनदास करमचंद गाँधी हैं. उन्हें भक्ति साहित्य का संस्कार नहीं मिला होता तो वे और चाहे जो होते महात्मा गाँधी नहीं हुए होते. उनके निर्माण में देश-दुनिया के अनेक लोगों और पुस्तकों की भूमिका है, लेकिन बड़ी भूमिका भक्ति साहित्य की है. आदमी के निर्माण में दर्शन, विचारधारा आदि की भी भूमिका होती है. लेकिन उस पर सबसे गहरा और कोमल प्रभाव कविता का होता है. जैसे घनानंद को उनकी कविता ने निर्मित किया- ‘मोहिं कौ मेरो कवित्त बनावत’,  वैसे ही गाँधी को भक्ति साहित्य ने निर्मित किया.
गाँधी पर भक्त कवियों के प्रभाव की छानबीन के लिए उनके जीवन-प्रसंग और लेखन को देखना जरूरी है. अपनी ‘आत्मकथा’ के दसवें प्रसंग धर्म की झांकी में उन्होंने भक्ति काव्य के प्रभाव को स्वीकार किया है. गाँधी मानते हैं कि धर्म का अर्थ ‘आत्मबोध’ या ‘आत्मज्ञान’ है. वे वैष्णव परिवार में पैदा हुए थे. उन्हें उस तरह के मंदिरों में जाने का मौका मिलता था. लेकिन वे वहाँ चलने वाले वैभवशाली आयोजनों से प्रभावित नहीं हुए. उन्होंने अपनी नौकरानी रंभा की चर्चा की है जिसने उन्हें रामनाम जपना सिखाया. गाँधी लिखते हैं.. “बचपन में जो बीज बोया गया, वह नष्ट नहीं हुआ. आज राम नाम मेरे लिए अमोघ शक्ति है. मैं मानता हूँ कि उसके मूल में रंभाबाई का बोया हुआ बीज है.”1 रंभाबाई के बाद उन्होंने अपने चचेरे भाई द्वारा राम रक्षा पाठ में नियमित शामिल होने की बात की है. रामायण पाठ की चर्चा करते हुए गाँधी ने लिखा है... “जिस चीज का मेरे मन पर गहरा असर पड़ा वह था रामायण का पारायण....उस समय मेरी उम्र 13 साल की रही होगी, पर याद पड़ता है कि उनके पाठ में मुझे खूब रस आता था. यह रामायण श्रमण, रामायण के प्रति मेरे आत्मिक प्रेम की बुनियाद है. आज मैं तुलसीदास की रामायण को भक्ति मार्ग का सर्वोत्तम ग्रंथ मानता हूँ.”2 उस समय गाँधी के मन पर जो असर हुआ उसकी चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा है... “एक चीज ने मन में जड़ जमा ली- यह संसार नीति पर टिका हुआ है. नीति मात्र का समावेश सत्य में है. सत्य को तो खोजना ही होगा. दिन पर दिन सत्यता की महिमा मेरे निकट बढ़ती गई. सत्य की व्याख्या विस्तृत होती गई, और अभी भी हो रही है.”3
          हम जानते हैं कि गाँधी जी की प्रार्थना सभा में बहुत-सी प्रार्थनाएँ गाई जाती थीं. उनमें ‘रामधुन’ के साथ गुजराती संत कवि नरसीं मेहता का यह प्रिय भजन भी होता था-
वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे
पर दुख्खे उपकार करे तोये मन अभिमान न आणे रे
सकल लोक माँ सहने वन्दे, निंदा न करे केनी रे
वाच काछ मन निश्छल राखे, धन धन तेनी रे......
यह भजन गाँधी को क्यों प्रिय था? इसलिए कि इसके जरिए उनके वैष्णव संस्कार का सामाजिकीकरण होता था कि वैष्णव वह है जो किसी दीन-दुखी का दर्द समझता है आदि-आदि. इस पर टिप्पणी करते हुए बिनोवा भावे ने लिखा है: “.....उस वक्त साबरमती आश्रम में था. उस वक्त वैष्णव जण तो तेणे कहिए भजन समय-समय पर गाया जाता था. उसमें भक्त के लक्षण बताए हैं.... मेरी नजर के सामने बापू का जीवन था. इस वास्ते उनके जीवन में ये लक्षण किस तरह और कहाँ दृष्टिगोचर होते हैं, इसका विचार भी मन में चलता है. तब मेरे मन में आता कि लगभग सभी लक्षण बापू पर लागू होते हैं.”4  इससे पता चलता है कि गाँधी की राजनीति यदि लोकनीति की ओर हमेशा झुकी रही तो उसकी एक बड़ी वजह भक्ति साहित्य के आदर्शों का उनके जीवन में समावेश था. शब्द और कर्म की एकता, अपरिग्रह, त्याग, सत्य, सादगी, लोभ-लाभ रहित जीवन का जो उनका आदर्श था वह नरसीं मेहता एवं अन्य भक्त कवियों के कितना करीब था! यह अकारण नहीं है कि उनकी प्रिय पुस्तकों की सूची में तुलसीदास की रामायण भी थी. और यह भी अकारण नहीं है कि गाँधी के कारण हमारे स्वतंत्रता सेनानियों में त्याग-बलिदान, सच्चाई, सादगी और सेवा का भाव कमोबेश बना रहा.
          दुनिया की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति से संघर्ष करने वाले बीसवीं सदी के महानायक महात्मा गाँधी को जब हम याद करते हैं तो देखते हैं कि संघर्ष में उनके दोनों हाथों में जो लड़ाई के हथियार हैं वे भक्त कवियों से लिए गए हैं. उनके एक हाथ में कबीर का चरखा था तो दूसरे हाथ में तुलसीदास का रामचरित मानस. चरखा के जरिए उन्होंने गुलाम भारत को स्वाबलंबन और श्रम की शिक्षा दी तो मानस से उन्होंने रामराज्य की अवधारणा ली जो समतामूलक समाज-रचना का उनका सपना था. कबीर के लिए चरखा सिर्फ रोजी-रोटी का जरिया ही नहीं था, वह उनकी आध्यात्मिक साधना का आधार भी था. कबीर मानते थे, जैसे वे जुलाहा बनकर चरखा चला रहे हैं, वैसे ही ब्रह्म रूपी जुलाहा दुनिया रूपी चरखे को चला रहा है. इस प्रक्रिया में जो संगीत फूटता है वही अनहद नाद है, जिसे उन जैसे साधक ही सुन पाते हैं. यूरोपीय रहस्यवाद की विशेषज्ञ और अँग्रेजी की कवयित्री एवलिन अंडरहिल ने ‘पोयम्स ऑफ कबीर’ (रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा किए गए अंग्रेजी अनुवाद की पुस्तक) की भूमिका में लिखा है कि कबीर अध्यात्म और उद्योग का मेल करते हैं और एक नयी संस्कृति को जन्म देते हैं. गाँधी भी जब चरखा कातते हैं तो सिर्फ उसे स्वाबलंबन के औज़ार के रूप में ही नहीं देखते, वे उससे निकलता संगीत भी सुनते  हैं. उसके एक-एक धागे में उन्हें कबीर की तरह ईश्वर दिखाई देता है. 1926 में यंग इंडिया में लिखी अपनी टिप्पणी चरखे का संगीत में वे लिखते हैं: “मैं जितनी बार चरखे पर सूत निकालता हूँ उतनी ही बार भारत के गरीबों का विचार करता हूँ. भूख की पीड़ा से व्यक्ति और पेट भरने के सिवा और कोई इच्छा न रखने वाले मनुष्य के लिए उसका पेट ही ईश्वर है. उसे जो रोटी देता है वही उसका मालिक है. उसके द्वारा वह ईश्वर के भी दर्शन कर सकता है. ऐसे लोगों को, जिनके हाथ-पैर सही सलामत हैं, दान देना अपना और उनका दोनों का पतन करना है, उन्हें तो किसी न किसी तरह के धंधे की जरूरत है, और वह धंधा, जो करोड़ों को काम देगा, केवल हाथ कताई का ही हो सकता है....इसलिए चरखे पर जो मैं सूत निकालता हूँ उसके एक-एक धागे में मुझे ईश्वर दिखाई देता है.”5   गाँधी के इस कथन का मिलान कबीर के ‘उद्योग और अध्यात्म’ के मेल वाले उद्यम से करने पर भक्ति काव्य और गाँधी-दोनों के नए अर्थ खुलते हैं. ‘उद्योग और अध्यात्म’ का मेल करनेवाले कबीर ने श्रमशील और गार्हस्थ संन्यास की नींव रखी थी. यह नए समाज की रचना का सपना था जिसे उन्होंने अपने कर्म और वाणी से जमीन पर उतारने की कोशिश की. आधुनिक युग में ऐसी कोशिश गाँधी ने की. उनका जीवन भी कबीर की तरह श्रम, सन्यास और गार्हस्थ की अद्भुत त्रिवेणी है!
          गाँधी कबीर के चरखा के जरिए जिस स्वाबलंबी और स्वतंत्र भारत का सपना देखते हैं वह श्रम और अध्यात्म के संगीत से भरा हुआ भारत है. इसी के साथ वे कुटीर उद्योगों के जरिए एक ऐसी आर्थिक और रोजगार नीति भी प्रस्तावित करते हैं जो मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते का बहुत ही सुंदर और कोमल उदाहरण है. वे जानते हैं कि बड़े बाँधों, बड़े कारखानों और बड़ी पूंजी के खेल से संचालित जो विकास नीति है वह थोड़े लोगों को सम्पन्न बनाती है और अधिक से अधिक लोगों को उजाड़ती है. गांधी ने चरखे के रूप में विकास की जो रुपरेखा देश के नीति-निर्माताओं के सामने रखी उसको न मानने का परिणाम आज हमारे सामने है. गाँव उजड़ रहे हैं, लोग विस्थापित हो रहे हैं और बेरोजगारों की फौज बढ़ती जा रही है. विकास का जो पूंजीवादी मॉडल हमने अख़्तियार किया है वह भारत जैसे देश में सफल नहीं होगा. गाँधी के ही विचारों को आगे बढ़ाने वाले लोहिया, किशन पटनायक और सच्चिदानद सिंहा जैसे विचारकों ने बार-बार इस बात को रेखांकित किया है कि पूंजीवाद जिन देशों में आया वह उपनिवेशों की लूट से संभव हो सका. भारत किसे उपनिवेश बनाएगा कि यहाँ पूंजीवादी विकास संभव होगा? अगर पूंजीवादी विकास की यह नीति रही तो देश में ही आंतरिक उपनिवेश बनेंगे. नर्मदा घाटी में विशाल बाँधों के निर्माण, वहाँ से विस्थापन की भारी समस्या और मेधा पाटेकर के संघर्ष को आज याद करें तो पूंजीवादी विकास नीति की व्यर्थता सामने आएगी और गाँधी के कुटीर उद्योग का महत्त्व भी समझ में आएगा.
          गाँधी की आलोचना उनके जिन राजनीतिक मुहावरों के लिए हुई उनमें एक पद रामराज्य भी है. यह पद उन्होंने तुलसीदास के रामचरितमानस के उत्तर कांड से लिया है. इसके जरिए वे समतामूलक भारत का स्वप्न देखते हैं. जाति, धर्म, अमीरी-गरीबी आदि का जो भेदभाव है उसकी समाप्ति का स्वप्न वे रामराज्य के रूपक में देखते हैं. गाँधी जाति-व्यवस्था को अपने तरीके से कमजोर करना चाहते थे. वे जातिगत भेदभाव के विरुद्ध थे. वे सामंती भारतीय मानस को श्रमशील भारत में बदलना चाहते थे. उनके रामराज्य में किसी तरह के भेद के लिए स्थान नहीं था. ‘राम प्रताप विषमता खोई’- तुलसी के रामराज्य के इस आदर्श को जीवन और समाज में उतारना चाहते थे. वे अपने को सनातनी हिन्दू मानते थे और अपने को वर्णव्यवस्था का समर्थक कहते थे, लेकिन वर्णों में जो भेदभाव है, उसके वे खिलाफ थे. वे भेदभाव रहित वर्णव्यवस्था के समर्थक थे. इसलिए वे सबके लिए श्रम करना अनिवार्य मानते थे. श्रम भेद के कारण ही जाति -भेद है. श्रम-भेद समाप्त होगा तो जाति-भेद भी समाप्त होगा, यह गाँधी जानते थे. जाति-भेद समाप्त करने का यह उनका अहिंसक एवं गाँधीवादी तरीका था. जिन लोगों को तुलसी के रामराज्य में सिर्फ वर्णव्यवस्था का समर्थन और हिन्दू मन दिखाई देता है उन्हें ‘गाँधी की कहानी’ लिखने वाले लुई फिशर का यह कथन ध्यान में रखना चाहिए कि “धर्म विहीन जिन्ना एक धार्मिक राज्य बनाना चाहते थे. पूर्णतया धार्मिक गाँधी धर्म निरपेक्ष राज्य चाहते थे.”6   भारत विभाजन पर अड़े जिन्ना को लुई फिशर ने भी समझाने की कोशिश की और विभाजन से उत्पन्न खतरे का संकेत किया तो जिन्ना ने उन्हें आदर्शवादी कहा. लुई फिशर ने लिखा है: “...गाँधी जी राष्ट्रीयता की लेही से भारत को एक करना चाहते थे. जिन्ना धर्म की बारूद का उपयोग करके उसके दो टुकड़े करना चाहते थे.7  मेरा खयाल है कि जिन्ना ने यदि भक्ति काव्य या सूफी कविता पढ़ी होती तो शायद वे दूसरे जिन्ना होते, तब शायद भारत-विभाजन नहीं होता, ऐसी भीषण त्रासदी न घटित होती!
          भक्त कवियों ने निजी मोक्ष को सामाजिक मोक्ष में बदल दिया. ‘कबीरा सोई पीर है जो जानै पर पीर’ या ‘परहित सरिस धरम नहीं भाई’ का भाव उसका सर्वोपरि सन्देश बन गया. गाँधी ने जिस राम को लिया वह मूर्तियों में बसने वाला दसरथ नन्दन राम नहीं हैं- ‘मेरा राम खुद भगवान ही है.’8  वे मूर्ति पूजा नहीं करते थे- “मैं खुद मूर्तियों को नहीं मानता, मगर मैं मूर्ति पूजकों की उतनी ही इज्जत करता हूँ....”9  जिस राम को वे जपते थे, वह उनकी आत्मशक्ति एवं राष्ट्र सेवा का ही दूसरा रूप था. गरीब की सेवा में ही गाँधी ने मोक्ष माना: “....रामनाम से मनुष्य में अनासक्ति और समता आती है....गरीब से गरीब लोगों की सेवा किए बिना या उनके हित में अपना हित माने बिना मोक्ष पाना मैं असंभव मानता हूँ.”10  इस सामाजिक मोक्ष का ही परिणाम था कि भक्ति आंदोलन में बड़ी संख्या में निम्न जातियाँ और स्त्रियाँ शामिल हुईं . और यही स्थिति गाँधी के आंदोलन की भी है.
          भारत का भक्ति साहित्य आधुनिक भारतीय भाषाओं में रचनात्मक विस्फोट का सबसे उज्ज्वल अध्याय है. साहित्यिक रचनाधर्मिता का ऐसा भव्य उत्सव उसके पहले नहीं हुआ था और शायद बाद में भी नहीं हुआ. संस्कृत और फारसी जैसी भाषाओं से अलग भारत की दर्जनों भाषाओं की रचनात्मक पहचान इस काल में कायम हुई. हजारों की संख्या में देश के लगभग सभी प्रदेशों में भक्त कवियों की बाढ़ आ गई. भक्ति काव्य के रूप में भारतीय भाषाओं के जरिए भाषायी वैविध्य का जो सुंदर माहौल निर्मित हुआ था आज उस पर खतरा उपस्थित हो रहा है. भूमंडलीकरण ने न सिर्फ आर्थिक साम्राज्यवादी पकड़ भारत पर बनानी शुरू कर दी है, बल्कि उसकी गिरफ्त में भारत का भाषाई वैविध्य भी है. अनेक क्षेत्रिय भाषाएँ संकट के दौर से गुजर रही हैं, जो कभी हमारी साहित्यिक, सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम थीं. भारत के भाषाई वैविध्य को बचाने का एक बड़ा आधार भारतीय भाषाओं में रचा गया भक्ति काव्य है जिसे सामाजिक और आध्यात्मिक मुक्ति के लिए बार-बार पढ़ा जाना चाहिए.
          इस भाषाई वैविध्य को बचाने की सबसे बड़ी लड़ाई गाँधी ने लड़ी. वे मातृभाषा में शिक्षा और लिखा-पढ़ी के समर्थक थे. भक्तिकाल में जिस तरह मातृभाषाओं में रचनात्मक विस्फोट हुआ उसी तरह गाँधी युगीन भारत में भी भाषाई रचनात्मक विस्फोट हुआ. अंग्रेजी पढ़े-लिखे गाँधी की मातृभाषा गुजराती थी और वे गुजराती में ही लिखते थे. वे गुजराती के अच्छे लेखक थे. उनके जमाने के बहुत-से नेताओं ने अंग्रेजी में लिखा-पढ़ी की. लेकिन गाँधी गुजराती में ही लिखते रहें. उनके प्रिय लेखक रवीन्द्रनाथ ठाकुर थे जो अपनी मातृभाषा बांग्ला में लिखते थे और दूसरों को भी अपनी मातृभाषा में लिखने के लिए प्रेरित करते थे. मातृभाषा में रचनात्मक लेखन की शक्ति का पता गाँधी को भी था और रवीन्द्र को भी.
          भारत के भक्ति काव्य के जरिए सुंदर संसार का स्वप्न हमारे कवियों ने देखा. हर बड़े कवि के पास अपना एक स्वप्न लोक है- कबीर का अमरपुर, जायसी का सिंघलद्वीप, सूर का वृंदावन, तुलसी का रामराज्य. भक्त कवियों द्वारा देखे गए सुंदर संसार के सपनों के कुछ उदाहरण हैं. रैदास के सपने का तो कहना ही क्या! बेगमपुरा शहर को नाउ- जब वे कहते हैं तो एक ऐसे संसार की प्रस्तावना रखते हैं जो दुख रहित तो है ही, इतना अनुशासित है कि वहाँ किसी थानेदार, किसी बादशाह की जरूरत नहीं है. ऐसा स्वप्न 19वीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स ने देखा था जब उन्होंने वर्ग विहीन और राज्य विहीन समाज का प्रस्ताव दिया दिया था. ऐसा स्वप्न 20वीं सदी में महात्मा गाँधी ने रामराज्य के जरिए देखा था जो किसी भी तरह के भेद भाव से रहित था.
          12 मार्च 1930 को गाँधी ने साबरमती आश्रम से दांडी के लिए अपने 78 साथियों के साथ प्रस्थान किया. उद्देश्य था- नमक कानून को तोड़ना. इसीलिए इसे ‘नमक सत्याग्रह’ या ‘दांडी मार्च’ भी कहा जाता है. इस सत्याग्रह की सफलता को लेकर बहुतों में संदेह का भाव था. लेकिन कहा जाता है कि टैगोर को कोई संदेह नहीं था. कहा यह भी जाता है कि 1905 में लिखे उनके प्रसिद्ध गीत ‘एकला चलो रे....’ का पोस्टर प्रसिद्ध चित्रकार नन्दलाल बोस ने बनाया. और रात में चुपके-चुपके दांडी मार्च में गाँधी के चित्र बना-बनाकर जगह-जगह भेजे. यह साहित्य-कला की ओर से गाँधी के दांडी मार्च को नैतिक समर्थन था. आगे का इतिहास हम जानते हैं कि 78 लोगों की उस यात्रा में दिनों-दिन लोग जुड़ते गए और कारवाँ बनता गया. एक शायर की भविष्यवाणी सच हुई. रवीन्द्र का यह गीत गाँधी के ‘अभय मंत्र’ का ही दूसरा नाम है. साहित्य और समाज में ‘अभय’ की यह विरासत टैगोर और गाँधी को भक्ति काव्य परंपरा से मिली थी! यू. आर. अनंतमूर्ति ने ‘एकला चलो रे...’ गीत में अकेले व्यक्ति का जो बिम्ब रचा गया है उसकी तुलना गाँधी के दांडी मार्च से की है और कहा है कि साहित्य में जब बड़े बिम्ब आते हैं तो समाज में भी देर-सवेर उसकी परिणति दिखाई पड़ती है. दांडी के समुद्र में गाँधी ने एक मुट्ठी नमक उठाकर दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य को चुनौती दी थी. सामने समुद्र और क्षितिज का अनंत विस्तार था और आकाश की ओर तनी हुई गाँधी की मुट्ठी थी. साहित्य और समाज के इन बड़े बिम्बों को याद कीजिए, ये भारत और भारतीय जन के मुक्ति के बिम्ब हैं.       
भारत विभाजन के आगे-पीछे सांप्रदायिक दंगों में देश जब जलने लगा तब उस दौर के नेताओं में अकेले गाँधी थे जो घायल हो रही मनुष्यता को बचाने में लगे रहे. जब भारत और पाकिस्तान के सभी बड़े नेता ‘जश्न-ए-आज़ादी’  में मशगूल थे, अपने थोड़े-से साथियों के साथ अकेले गाँधी नोआखाली में जान हथेली पर लेकर दंगे की आग में जल रहे लोगों के बीच घूमते रहे. उनकी टोली पर हमले हो रहे थे, सबको जान का खतरा था, लेकिन गाँधी अभय होकर लोगों की प्राण रक्षा में जुटे रहे. वैसे माहौल में गाँव-गाँव घूमते हुए गाँधी और उनके साथी ‘रामधुन’ और ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए.....’ के साथ टैगोर का गीत ‘एकला चलो रे...’ भी गाते थे. इन गीतों के जरिए वे भय से ग्रस्त समाज में अभय का संचार कर रहे थे. गाँधी के यहाँ अभय और सत्याग्रह का जो भाव है, उस विरासत की कड़ी भक्ति काव्य से जुड़ी हुई है.
          गाँधी के अंतिम वर्षों में लगातार उनके साथ रहनेवाली उनकी प्रपौत्री मनुबेन गाँधी ने नोआखाली में ‘रामधुन’, ‘वैष्णव जन तो....’ और ‘एकला चलो रे...’ के साथ उनके उस अभियान का बड़ा ही जीवंत चित्र उपस्थित किया है. मनुबेन लिखती हैं: “बापू की नोआखाली की सच्ची यात्रा चंडीपुर से शुरू हुई. उस दिन चलने के पहले कई बहनों ने बापू को तिलक किया और सबने प्रार्थना की. बापू की सूचना थी कि उस दिन ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ भजन गाया जाए. (यह भजन कभी प्रसंग से ही गाया जाता था, हमेशा नहीं.) लेकिन उसमें इतना फर्क कर दिया जाए कि हर कड़ी पर सिलसिले से ‘वैष्णव जन’ की जगह एक-एक बार ‘मुस्लिम जन’, ‘ख्रिस्ति जन’, ‘शीख जन’, ‘पारसी जन’, ‘हरिना जन’ रखा जाए. उन्होंने खुद भी गाने में सूर मिलाया था.”11   नोआखाली की ओर गाँधी की यात्रा के प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए मनुबेन आगे लिखती हैं: “चंडीपुर से ठीक सुबह 7:30 बजे एक हाथ मेरे कंधे पर रखे और दूसरे हाथ में डंडा लिए नारियल और सुपारी के वन में सबसे पहले कविवर टैगोर का ‘एकला चलो रे’ गीत गाते हुए बापू ने अपनी यात्रा शुरू की-
जदि तोर डाक शुने केओ ना आसे
तबे एकला चलो रे!
एकला चलो, एकला चलो,
एकला चलो रे......!”12  
 अपने जीवन के उस कठिन दौर में नरसीं मेहता जैसे भक्त कवि के साथ टैगोर को शामिल कर गाँधी ने दो समयों की कविताओं की न सिर्फ दूरी पाट दी बल्कि उन्हें नए अर्थ-संकेतों से भर दिया.
 हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने प्रसिद्ध निबंध मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है में लिखते हैं: “इस देश में हिन्दू हैं, मुसलमान हैं, ब्राह्मण हैं, चांडाल हैं, धनी हैं, गरीब हैं- विरुद्ध संस्कारों और विरोधी स्वार्थों की विराट् वाहिनी हैं....इन समस्त विरोधों और संघर्षों से बड़ा और सबको छापकर विराज रहा है मनुष्य. इस मनुष्य की भलाई के लिए आप अपने आप को निःशेष भाव से देकर ही सार्थक हो सकते हैं. सारा देश आपका है, भेद और विरोध ऊपरी है, भीतर मनुष्य एक हैं.” इसके बाद वे कबीर को याद करते हैं-
कबीर इस संसार को समझाऊँ कै बार |
पूंछ जु पकड़े भेद का, उतरा चाहे पार ||
भेदभाव रखकर इस भव सागर से मुक्ति संभव नहीं है. यही सम्पूर्ण भक्ति काव्य का निष्कर्ष है और यही गाँधी के कर्म एवं जीवन का भी निष्कर्ष है. उनकी भक्ति निर्गुण-सगुण के मेल से बनी ऐसी भक्ति थी जिसमें सभी वर्गों और धर्मों की समाही थी. वे निर्गुण भक्ति के सगुण रूप थे.
          हिंदी में निर्गुण-सगुण विवाद और कबीर-तुलसी विवाद को जरूरत से अधिक महत्त्व खींचा गया. निर्गुण-सगुण का अंतर तो है लेकिन वह भक्ति काव्य का केंद्रीय भाव नहीं है और न उसके जरिए अखिल भारतीय भक्ति आंदोलन का सही पता-ठिकाना मिलता है. असम के शंकरदेव, बंगाल के चैतन्य महाप्रभु, उड़ीसा के पंचसखा, महाराष्ट्र के वारकरी आंदोलन और दक्षिण के भक्ति काव्य के जरिए जिस  अभेदमूलक मानवीय संसार की रचना होती है उसे बार-बार समझने की जरूरत है. भक्ति काव्य का प्रभाव उस समय से लेकर आधुनिक काल तक हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन पर है और उसे बनाए रखने की जरूरत है. मराठी के लेखक भालचंद नेमाड़े ने वारकरी आंदोलन पर लिखते हुए जो लिखा है वह सम्पूर्ण भक्ति आंदोलन पर लागू होता है. वे लिखते हैं: “साहित्यिक संस्कृति का कोई भी अध्येता वारकरी आंदोलन में विकसित हुई असाधारण अभिव्यक्त शैली की उपेक्षा कर ही नहीं सकता. भारतीय मन की सर्जनशीलता का पिछले एक हजार वर्ष में सर्वाधिक अर्थपूर्ण उद्रेक ही भक्ति मार्ग का आंदोलन है. 17वीं सदी की शिवाजी की राजनीति से लेकर 20वीं सदी के महात्मा गाँधी तक के- भारतीय उप-महाद्वीप के विभिन्न सामाजिक और राजनैतिक विद्रोही आंदोलनों पर इन संप्रदायों का सर्जनशील प्रभाव कम अधिक मात्रा में हुआ ही है......”13   
          दिनकर ने अपनी पुस्तक शुद्ध कविता की खोज की भूमिका में लिखा है कि क्रांति, कविता और ईश्वर को जीवन के समुच्चय में प्रवेश किए बिना नहीं समझा जा सकता. भक्तिकाल की कविता ईश्वर से संबंधित तो है ही, वह क्रांति भी है और कविता भी, जिसके लिए जीवन के विस्तार और गहराई में उतरने की जरूरत है. भक्ति सम्पूर्ण जीवन-दर्शन है. उसके संस्कार से निर्मित गाँधी का जीवन और जीवन-संदेश भी एक सम्पूर्ण दृष्टि है. भक्ति को भक्त कवियों ने चार वर्णों से ऊपर पांचवां वर्ण माना और नए समाज का स्वप्न देखा. भक्ति काव्य से प्रभावित गाँधी भी अपने ‘सुराज’ में ऐसे ही समाज का सपना देखते हैं. 
रेमंड विलियम्स ने भविष्यवाणी की है कि समाजवादी व्यवस्था में कला की अलग से जरुरत नहीं रह जाएगी, क्योंकि लोग स्वयं ही कला हो जाएँगे.14 मालूम नहीं कि उनकी यह भविष्यवाणी सच साबित होगी या नहीं, पर इतना तय है कि भारतवर्ष में जो भक्ति साहित्य रचा गया उसका साक्षात्कार जिसने भी किया वह स्वयं कविता हो गया. गाँधी हमारे समय में भक्ति कविता के चलते-फिरते उदहारण थे. वे बीसवीं शताब्दी में भक्ति काव्य के आधुनिक भाष्य थे.



संदर्भ सूची:                                                                                                              
1.   आत्मकथा; नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद-14, पुनर्मुद्रण - 2005, पृष्ठ सं. 27
2.   वही, पृष्ठ- 28
3.   वही, पृष्ठ- 30
4.   गाँधी: जैसा देखा-समझा विनोबा ने, सर्वसेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी- 221001, वर्ष फरवरी, 1883, दूसरा संस्करण, पृष्ठ सं. 133-34  
5.   मेरे सपनों का भारत, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद-14, सातवाँ पुनर्मुद्रण- अप्रैल- 2004 पृष्ठ सं. 121
6.   गाँधी की कहानी, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन,  नई दिल्ली- 110001,  संस्करण 2013,पृष्ठ सं. 157
7.   वही,
8.   रामनाम, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद- 380014, पृष्ठ- 8-9
9. वही,
10. वही, पृष्ठ सं. 8-9
11. बापू- मेरी माँ, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद- 14, छठा पुनर्मुद्रण, मई 2013, पृष्ठ- 40
12. वही, पृष्ठ- 41  
13. टीका स्वयंवर, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली- 110001,  प्रथम संस्करण 2016, पृष्ठ- 51
14. Post-Theory: New Direction in Criticism, Edited by Martin McQuillan and others, Edinburgh University Press, Edinburgh, Page-63


Wednesday, 28 February 2018

लोक सहज अभिव्यक्ति है तो शास्त्र सचेत|


आलोचक गोपेश्वर सिंह का 'समसामयिक सृजन' की सह-संपादक अंकिता चौहान द्वारा लिया गया साक्षात्कार
Ø लोक को परिभाषित किया जा सकता है?
आप लोक शब्द को लोक बनाम शास्त्र के अर्थ में देखती हैं. मैं यहाँ कहना चाहूँगा कि लोक इसलिए लोक है क्योंकि वह शास्त्र नहीं बना है, तो उसकी कोई निश्चित परिभाषा भी नहीं है. लोक की जिस कला को, लोक की जिस बात को, लोक के जिस रहन-सहन को आप नियमबद्ध करेंगे, व्याकरण का जामा पहनाएंगे, उसी दिन वह शास्त्र बन जाएगा. इसलिए मुझे लगता है कि लोक को परिभाषित नहीं किया जा सकता . परिभाषित किया जा सकता है तो शास्त्र को. इस अर्थ में आप कह सकती हैं कि लोक अपरिभाषित है और शास्त्र परिभाषित.
Ø साहित्य के इतिहासकारों ने लिखित को ही साहित्य माना है, तो लोक साहित्य को क्या कहा जाए? क्योंकि उसका बहुत हिस्सा तो मौखिक है?
लोक साहित्य को संरक्षित करने का मतलब यह नहीं है कि हम उसे परिभाषा में बांध दें. लोक साहित्य को संरक्षित करना जरूरी है, किया जाना चाहिए. लेकिन उसको हम किसी परिभाषा में बांध देंगे यह जरूरी नहीं है. अब जो बहुत-सारे लोक-नाट्य रूप हैं उन्हें किस परिभाषा में आप बांधेंगे? परिभाषा में लोक-नाट्य का वह रूप अट नहीं रहा था, तभी तो भिखारी ठाकुर के नाटकों को बिदेसिया नाम दे दिया गया. बिदेसिया कोई शास्त्रीय नाम तो है नहीं. एक शैली है. फिर सवाल उठता है कि वह शैली क्या है? वह ‘लवंडा नाच’ का एक रूप है जिसे भिखारी ठाकुर ने ही ईजाद किया हो ऐसा नहीं है. इस इलाके में लवंडा नाच होता रहा है. भिखारी ठाकुर भी इसी लवंडा नाच का संचालन करते थे और उनके नाटकों ने वह लोकप्रियता हासिल की. उसमें सामाजिकता के कुछ तत्त्व ऐसे आए जिसके कारण उनका नाटक बिदेसिया के रूप में प्रचलित हुआ. चूंकि बिदेसिया  बहुत लोकप्रिय हो गया था और उसके गीत भोजपुरी अंचल में गूंजने लगे थे, इसलिए भिखारी ठाकुर के अन्य नाटकों की तुलना में उसे ज्यादा प्रसिद्धि मिली और जनस्वीकृति भी. इसलिए हमने उसे बिदेसिया नाम दे दिया. भिखारी ठाकुर ने अपनी शैली के लिए उसे बिदेसिया नाम दिया नहीं था. यदि आप उसे परिभाषित करना चाहें तो एक परिभाषा में बांध सकते हैं कि वह बिदेसिया शैली का नाटक है. स्वयं भिखारी ठाकुर ने उसे कोई नाम नहीं दिया है. शायद उन्हें पता भी नहीं था कि मैं जिस तरह के नाटक करता हूँ उसे आगे चलकर लोग इस तरह की शैली में पुकारेंगे. लोक जीवन की जो समस्याएँ थीं, लोक जीवन की जो धुनें थीं, लोक जीवन की जो पीड़ाएँ थीं और लोक जीवन में घुली हुई जो कहानियाँ थीं उसे भिखारी ठाकुर ने अपने नाटकों में संवार दिया.
Ø आपने भिखारी ठाकुर को कभी बोलते हुए देखा है?
भिखारी ठाकुर का नाच मैंने देखा नहीं है. पहली बात तो आप यह जान लीजिए कि भिखारी ठाकुर का नाच, जिसे आज बिदेसिया कहा जाता है, उन्हें नाटक नहीं कहा जाता था. उन्हें नाच कहा जाता था. नाटक तो वह होता है जो स्टेज बनाकर किया जाता है. भिखारी ठाकुर का नाच तो आमतौर से लोगों के बीच में डांस, गीत, संगीत और उसी में कथा, कहानी,  संवाद आदि के साथ  चलता  था  जो नौटंकी से थोड़ा भिन्न था. नौटंकी तो मंच पर करते थे. परंतु इसका मंच उस तरह का नहीं बनता था कि तख्त लगाकर थोड़ा ऊंचा कर दिया जाए, पर्दे लगा दिए जाएँ . वह बिना पर्दे का नाच था. भिखारी ठाकुर जिस तरह का नाच करते थे वह पूरी तरह व्यावसायिक था. भोजपुरी में इसे कहते थे- साटा पर जाना, या अनुबंध पर जाना. बाकायदा एक अनुबंध पत्र लिखा जाता था. लोग  शादी-ब्याह, मुंडन और मनोरंजन के लिए इन्हें बुलाते थे. एक करारनामा होता था.  दोनों पक्ष नाच पार्टी के मालि और जिनके यहाँ जाना है उस घर के मुखिया मिलकर यह करारनामा लिखते थे कि अमुक तारीख को यह नाच पार्टी आएगी, इसमें इतने कलाकार होंगे और ये रात में अपना नाच दिखाएंगे. इसके बदले में इन्हें इतना पैसा दिया जाएगा. कई बार आने-जाने की व्यवस्था भी की जाती थी. भिखारी ठाकुर का नाच ऐसा ही होता था जैसे दूसरे नाच होते थे. भिखारी ठाकुर ने अपने नाच को, जो बिलकुल ही मनोरंजन का साधन माना जाता था, शादी-विवाह में, तीज-त्यौहार में किसी खास अवसर पर, उसे मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक संदेश बना दिया.
Ø भिखारी ठाकुर के समकक्ष कोई और भी ऐसा व्यक्तित्व रहा हो जो भिखारी ठाकुर से ज्यादा अच्छा काम कर रहा हो, लेकिन भिखारी ठाकुर के नाम ने उसे दबा दिया हो?
नहीं. पहले तो मैं बता दूँ कि आपने इससे पहले प्रश्न किया था कि भिखारी ठाकुर को आपने देखा है? मैंने भिखारी ठाकुर को देखा नहीं है. जब मैं मैट्रिक में था तब हमारे गाँव के आस-पास संभव है कि भिखारी ठाकुर की नाच पार्टी आई भी हो तो हमें मालूम न हो. क्योंकि नाच पार्टी अपना प्रदर्शन अक्सर रात दस बजे से सुबह पाँच-छः बजे तक करती थी और उसे देखने की  हम बच्चों को मनाही होती थी. यह माना जाता था कि यह आवारगी का काम है, इसलिए घर के अभिभावक जाने नहीं देते थे. हमलोग चोरी-चोरी जाते थे. लेकिन ऐसा अवसर आया नहीं होगा. मैंने दूसरी-दूसरी नाच पार्टियों को तो देखा, उनके प्रदर्शन देखें लेकिन भिखारी ठाकुर के नाच का प्रदर्शन नहीं देखा. हाँ, मैं यह सुनता था कि एक भिखरिया है जिसका नाच बहुत प्रसिद्ध है. मैंने उनका महत्त्व नहीं समझा, क्योंकि मेरी नजर में वे एक नचनिया थे, नाचनेवाले थे. हमारा समाज पिछड़ा था और सामंती समाज था. उसमें नाचने-गाने वालों की कोई प्रतिष्ठा नहीं थी. नाचने वाले को भोजपुरी में नचनिया समझा जाता था जिसमें थोड़ा हिकारत का भाव है. लेकिन भिखारी ठाकुर ने इस नचनिया शब्द को सम्मानजनक बना दिया और जो हिकारत के  भाव से देखा जाने वाला शब्द था उसे ऊपर उठा दिया. भिखारी ठाकुर का सम्मान उनके जीवन काल में ही बढ़ गया. लोग कहते थे कि भिखरिया की नाच पार्टी आई है. भिखारी के लिए सम्मान था लोगों में और वह सभी वर्गों में था. भिखारी ठाकुर बहुत सभ्य व्यवहार करने वाले व्यक्ति थे. जब मैं मैट्रिक में था या मैट्रिक पास कर गया था तो भिखारी ठाकुर का निधन हुआ. अखबार में खबर छपी थी. मैंने तो उनका नाच नहीं देखा था लेकिन आस-पास के लोगों ने देखा था जो उनके बारे में बताते थे. लेकिन जब उनका निधन हुआ तो प्रसिद्ध नाटककार और उस जमाने के बड़े नौकरशाह जगदीशचन्द्र माथुर ने उन पर एक लेख लिखा साप्ताहिक हिंदुस्तान या धर्मयुग में. शीर्षक था भरतमुनि  की परंपरा में लोक नर्तक भिखारी ठाकुर. जगदीशचन्द्र माथुर आई. सी. एस. थे और बिहार सरकार में सचिव के पद पर रह चुके थे. उन्होने भिखारी ठाकुर को सम्मानित किया था और राज्य सरकार की तरफ से उनके नाटकों के प्रदर्शन की व्यवस्था साल में एक बार करवाई. जगदीशचन्द्र माथुर साहित्य से जुड़े होने के कारण भिखारी ठाकुर के महत्त्व को समझते थे और उनका सम्मान करते थे. उन्होने भरतमुनि  की परंपरा में रखकर भिखारी ठाकुर को देखा. जगदीशचन्द्र माथुर को मैं जानता था क्योंकि उनका एक संस्मरण हमने हाई स्कूल के पाठ्यक्रम में पढ़ रखा था. उनसे हम प्रभावित थे और जानते थे कि यह आदमी बिहार सरकार का बहुत बड़ा अधिकारी रहा है और उस समय वो दिल्ली में आकाशवाणी के डाइरेक्टर जनरल थे जिस कारण काफी व्यस्त थे. उन्होने भिखारी ठाकुर पर देश की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका में लिखा. तब हमाऋ  समझ में आया कि जिस पर इतना बड़ा अधिकारी लिख रहा है और भरतमुनि की परंपरा में रख कर उसे देख रहा है वह कोई साधारण नचनिया नहीं रहा होगा, जरूर असाधारण रहा होगा. इस तरह से पहली बार मैंने  जगदीशचन्द्र माथुर के लेख से भिखारी ठाकुर के साहित्यिक अवदान को जाना.
Ø पिछले लोक साहित्य के अंक में हमें पता चला कि उनके पुत्र रघुनाथ जी उनकी परंपरा को बढ़ाना चाहते हैं. सरकार से उन्हें सपोर्ट नहीं मिलता जबकि अन्य संस्थाएं भिखारी ठाकुर के नाम पर बहुत कमा-धमा रही हैं. आपको क्या लगता है?
देखिए, जब आप भोजपुरी अंचल में घूमेंगी तो बिदेसिया शैली में जो नाटक होते थे आज उस रूप में नहीं हो रहे हैं. आज भिखारी ठाकुर रहते तो उनका प्रदर्शन लोकप्रिय नहीं होता. क्योंकि आज जनता की आकांक्षा दूसरी हो गई है. मनोरंजन के कई साधन उपलब्ध हो गए हैं. भिखारी ठाकुर की नाच पार्टी तब चलती थी जब मनोरंजन के इतने साधन नहीं थे. जब सिनेमा नहीं था, टेलीविजन नहीं आया था, धारावाहिक नहीं आया था. लोगों के पास एकमात्र साधन था नाच नौटंकी और नाटक देखना. कभी-कभी किसी इलाके में ये आयोजन होते थे, प्रदर्शन होते थे. लोग टूटकर आते थे. तब उसमें भी कई तरह के मसाले होते थे. गीत-संगीत भी होता था, अभिनय भी होता था, एक कथा भी होती थी, थोड़ा हास्य भी होता था, थोड़ी फूहड़ता भी होती थी. क्योंकि इसके बिना जहाँ दस-दस हजार की भीड़ जमा होती थी उसको बांधे रखना वो भी रात भर संभव नहीं था. जो प्रदर्शन रात दस बजे शुरू हुआ उसे सूर्योदय के साथ ख़त्म होना है तभी लोग उठते थे. रात भर के मनोरंजन का इंतजाम ये नाच पार्टियाँ करती थीं. अब अगर भिखारी ठाकुर के पोते ये उम्मीद कर रहे हों, वैसे मैं जानता नहीं हूँ कि उन नाटकों को वो किस  रूप में खेलते हैं इसलिए वो करते भी हैं तो एक धरोहर के रूप में हम उन्हें देख सकते हैं. लेकिन कोई जरुरी नहीं है कि भिखारी ठाकुर के नाटकों को जो रिस्पोंस मिला था या जिस तरह जनभावना से उसका जुड़ाव हुआ था वो उनके पोते के साथ भी हो. और जहाँ  सरकारी संरक्षण की बात रही, भिखारी ठाकुर को भी बहुत कम सरकारी संरक्षण मिला. पर सरकारी संरक्षण उनके वंशजों को ही क्यों मिले? इस तरह से नाटक करने वाली बहुतेरी टोलियाँ हैं. वैसे सरकार को चाहिए कि उनको संरक्षित करे और जो टोलियाँ लोकनाट्य रूपों को जीवित रखे हुए हैं, उन्हें प्रदर्शन के जरिए बचाते हैं, जनता से जोड़ते हैं, उनका संरक्षण करना तो सरकार का काम है और करना चाहिए. लेकिन सिर्फ भिखारी ठाकुर के नाम पर हो जाएगा, ऐसा मुझे नहीं लगता. भिखारी ठाकुर के जो साथी हैं उनके जो वंशज हैं, वे आज के समय को नहीं पहचान रहे हैं. आज उस तरह के नाटकों की खपत शायद न हो. लोग उस तरह के नाटकों को आज नहीं देखना चाह रहे हैं. लोग रात-रात भर नाच देखना नहीं चाहते हैं. अब तो दो तीन घंटे में ही लोग उब जाएंगे. अब तो जो होगा दो तीन घंटे में ही आपको करना होगा. तो आपका नाटक, आपका गीत-संगीत, आपका जो कुछ भी है तीन घंटे से अधिक होने लगेगा तो लोग झेल नहीं पाएँगे. क्योंकि लोगों की मानसिकता बदल गई है. उनके सामने मनोरंजन के सैकड़ों, दर्जनों विकल्प है. और वैसे मैं कहूँ कि आधुनिक तकनीक ने मनोरंजन के जितने साधन हमारे सामने परोसे हैं, उससे जो पुराने लोकनाट्य हैं वो सब मर चुके हैं. मेरे इलाके में जितनी नाच पार्टियाँ थीं वो ख़त्म हो गई और आर्केस्ट्रा में बदल गई हैं. अगर वो पुराने ढ़र्रे पर चलेंगी तो कोई उन्हें साटा पर नहीं ले जाएगा. अब लोग ले जाते हैं उसमें नाचने वाली नाचती हैं और फ़िल्मी गीतों का कैसेट बजा दिया जाता है जिस पर वो नाच रही हैं पर उनका रूप वो नहीं रहा जो भिखारी ठाकुर के समय में था.
Ø हिन्दी का कोई ऐसा साहित्यकार जिसने जितना हिन्दी में काम किया है उतना ही भोजपुरी साहित्य में अपना योगदान दिया हो?
देखिए, एक तो सबसे पहले मैं राहुल सांकृत्यायन का नाम लूँगा. वे तो महापंडित ही कहलाते हैं. भोजपुरी में भी उन्होने महत्त्वपूर्ण काम किया है, उनके  नाटक भी हैं .वे  सोशल एंड पोलिटिकल एक्टिविस्ट थे . आप कह सकती हैं कि वे पेशेवर नाटककार, रंग-निर्देशक नहीं थे. उन्होने हिन्दी में भी लिखा और भोजपुरी में भी. ‘मेहरारून के दुर्दशा’ जैसा कालजयी नाटक भी लिखा.रामेश्वर सिंह काश्यप ने  अपने ढंग का अनोखा नाटक लिखा-‘लोहा सिंह’ जो एक तरह से वो भारत का पहला ऐसा  नाटक था जिसे  वर्षों  धारावाहिक रूप में सुनने के लिए रेडियो सेट के पास लगभग सौ-दो सौ लोग इकट्ठे हो जाते थे. यह सप्ताह में एक बार प्रसारित होता था. लेकिन वे भिखारी ठाकुर के शैली के नाटककार नहीं थे. और लोग भी हैं हमारे समय में,  हिन्दी में लिखते हैं, नाटक लिखते है जिसमें भोजपुरी का बहुत कुछ होता है.
Ø हमारे लोक की  मुक्ति का सबसे बड़ा सवाल क्या हो सकता है?
मुक्ति तो कई तरह की होती है. मुक्ति सिर्फ आर्थिक, सामाजिक या सांस्कृतिक नहीं होती, मुक्ति तो संपूर्णता में होती है. यह कहेंगे कि आप आर्थिक रूप से मुक्त हो गए, सामाजिक रूप से मुक्त हो गए. मुक्ति और लोक का अर्थ व्यापक जनसमुदाय है. मुक्ति तब तक नहीं होगी जब तक विषमता मूलक समाज है. जो आगे ले जानेवाली भविष्योन्मुखी विचारधाराएँ हैं वो तो इसी समता का स्वप्न देख रहे हैं. समता आज के जमाने का नैतिक कर्म है. जैसे किसी जमाने में ईश्वर को नैतिक कहां जाता था. हम कुछ भी गलत करते थे तो कहते थे कि ईश्वर देख रहा है. दूसरे का धन चुराते थे तो हमारे भीतर भय व्याप्त हो जाता था कि वह आदमी तो नहीं देख रहा है लेकिन ईश्वर देख रहा है. अब चूंकि स्वयं की दृष्टि विकसित हो चुकी है तो नैतिकता का अभिप्राय क्या है? मुझे लगता है कि नैतिकता का अर्थ समता है मानव-मानव के बीच, ब्राह्मण-शूद्र के बीच, हिन्दू-मुस्लिम के बीच, स्त्री-पुरुष के बीच, प्राणी मात्र के बीच बराबरी का भाव हो. ये है समता का भाव. इसका मतलब यह नहीं कि प्रोफेसर और छात्र एक बराबर है. प्रोफेसर प्रोफेसर हैं, छात्र छात्र हैं. लेकिन यह भाव न आए कि ये प्रोफेसर हो गए तो ये देवता हो गए और हम छात्र हैं तो हम दानव हो गए. बराबर ही हैं, एक समय है, हम भी कल प्रोफेसर बन सकते हैं. बराबर हो सकते हैं. ये जो समता का प्रश्न है आज समय में मानव मुक्ति इसी समता भाव से होगी. लोक का अर्थ मैं इसी व्यापक जनसमुदाय को मानता हूँ. इसकी मुक्ति समता से होगी.
Ø लोक और शास्त्र के द्वंद्व को आप कैसे देखते हैं?
लोक और शस्त्र में द्वंद्व तो हमेश रहा है. आप कह सकती हैं कि हम जो बहुत ही अस्त-व्यस्त ढंग से बोल रहे होते हैं, व्याकरण के नियमों की परवाह किए बिना, लोक कुछ इस तरह से होता है. लेकिन जब हम मंच पर बोल रहे होते हैं, हम लिख रहे होते हैं तो हम स्वतंत्र होते हैं कि हमारी या आपकी रचना व्याकरण के नियमों के अनुसार ही हो. शास्त्र व्याकरण के नियम हैं. समाज को संचालित करने में सहायक है. आपने संविधान बनाया वो शास्त्र है. आपने व्याकरण बनाया तो वो ग्रामर हैं जैसे हिन्दी में कामता प्रसाद गुरु का व्याकरण, किशोरीदास वाजपेयी का व्याकरण. अगर व्याकरण ही नहीं होगा तो सब अपने ढंग से बोलेंगे. उसकी कोई उपयोगिता नहीं होगी और वह भाषा सम्प्रेषण का माध्यम नहीं बन सकती. इसलिए हमेशा लोक को ज्यादा प्रश्रय देना और शास्त्र को पीटना, यह ठीक नहीं है. मेडिकल साइंस ने जो अचीव किया है वो मेडिकल शास्त्र है इसीलिए तो उसे चिकित्सा शास्त्र कहते हैं. संगीत में जो विकास हुआ है, संगीत का एक क्रम बना है, वह शास्त्र है. शास्त्र निंदनीय नहीं है. जितना आमतौर पर लोग लोक-लोक चिल्लाते हैं. लोक हमारी हमारी सहज अभिव्यक्ति है तो शास्त्र हमारी सचेत अभिव्यक्ति है. हम क्या चौबीस घंटे सहज ही रहना चाहेंगे या सचेत भी होंगे? सभ्यता के विकास में लोक की भूमिका होती है लेकिन शास्त्र की भी है.
Ø हमारी लोककथाओं और लोकगीत में प्रतिरोध की संस्कृति शुरू से रही है. स्त्री मुक्ति का स्वर भी उसमें रहा है. तो इसको आप किस तरह से देखेंगे?
देखिए लोकगीतों में प्रतिरोध रहा होगा मैं इससे इंकार नहीं करता हूँ. लेकिन आधुनिक दृष्टि से उस पर लादना ठीक नहीं जैसे स्त्रियों के प्रेमभाव के गीत हैं या उसी तरह उनसे जुड़े और गीत हैं. एक गीत मैं आपके सामने सुनाना चाहूँगा जो बचपन में मैंने अपनी माँ से सुना था और इसमें जो स्त्री जीवन की पीड़ा है वो बड़ी से बड़ी कविता से भी बड़ी है. इसमें एक स्त्री गा रही है कि-
“गोड़ तोहे लागीले सइयाँ ए गोसइयाँ ए अजोधावासी,
तिरिया जनमवा मत हो देहूँ, ए अजोधावासी
मैं तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ कि हे अयोध्यावासी राम! स्त्री का जन्म मुझे मत देना.
“तीरीय जनमवा जब देहले ए गोसइयाँ ए अजोधावासी,
अधिकों सुरतिया मत हो देहूँ, ए अजोधावासी”
अगर स्त्री का जन्म दे ही दिया तो कोई बात नहीं. फिर भी मैं तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ कि मुझे अधिक सुंदर मत बनाना.
“अधिकौ सुरतिया जब दिहनीं ए गोसइयाँ ए अजोधावासी,
मुरुख पुरुखवा मत देहूँ, ए अजोधावासी”
अगर अधिक सुंदरता भी दे दी तो मूर्ख पुरुष मुझे मत देना. सामर्थ्यशाली पुरुष देना, पति देना. जो मेरी रक्षा कर सकें. फिर कहती हैं कि-
मुरुख पुरुखवां जब दिहनीं ए गोसइयाँ ए अजोधावासी,
गोदी में बालकवां जलदी देब, ए अजोधावासी”
अब आप देखें कि इसमें पहले तो उसकी प्रार्थना है कि अयोध्यावासी राम, मैं तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ, स्त्री का जन्म फिर मत देना, स्त्री का जन्म दे भी दिया तो मुझे अधिक सुंदर मत बनाना. अयोध्यावासी राम! अगर अधिक सुंदर बना भी दिया तो मूर्ख पति मत देना और अगर कमजोर पति दे भी दिया तो गोदी में बच्चा जल्दी देना ताकि मैं बाल-बच्चेदार हो जाऊँ. मेरा सौन्दर्य जल्दी बिगड़ जाए. तो इसमें पूरी पीड़ा जो है वो एक स्त्री की है. ये सारी जो स्त्री जीवन की विडंबनाएं हैं, इस लोकगीत में ध्वनित हुई हैं . धुन भी इतनी कारुणिक है और इसके भाव भी इतने करुण हैं कि मुझे लगता है कि स्त्री जीवन पर लिखी हुई सौ कविताओं को इस एक गीत पर कुर्बान किया जा सकता है.
Ø यह मान लें कि समय के परिवर्तन के साथ यह होना ही था या फिर इसे चिंता के रूप में लिया जाए? मतलब जो हमारा लोक था उस पर बाज़ार का इतना प्रभाव आ गया कि चीजें विकृत हो गईं. जहाँ लवंडा नाच जिसमें जो लोग नाचते थे जिनकी उम्र 20-22 वर्ष थी वो जब आज 60-70 वर्ष के हो गए हैं तो वे बताते हैं कि हम मजबूरी में नाचते थे. पेट की खातिर. लेकिन हमारे साथ जबर्दस्ती भी होती थी. रात में हमें उठा लिया जाता था और हमें मजबूरन उनकी बात माननी पड़ती थी. इसको आप आप किस तरह देखते हैं?
आपने सही सवाल पूछा है और मैं इस पर आना चाहता था. लवंडा नाच क्यों होता था? स्वेच्छा से अभिनेता या अभिनेत्री बनना एक अलग बात है. आज नाटकों में, फिल्मों में या सीरियल में जो अभिनय करने लोग जाते हैं वे स्वेच्छा से जाते हैं. उन्हें अभिनय करना प्रिय है. उसमें कहानी लिखना, गीत-संगीत लिखने में योगदान करना उन्हें प्रिय है, इसके वे दीवाने हैं. लेकिन आमतौर पर जो नाच पार्टियां थीं उसमें समाज के निचले तबके के लोग ही थे. अपवाद स्वरूप ऊँचे तबके के लोग भी आ जाते थे. नाच गाने का शौक है तो कोई पंडित भी आ गया, कोई ठाकुर भी आ गया. लेकिन ज़्यादातर लोग निम्न जाति के होते थे. वे स्वेच्छा से नहीं जाते थे, वो जीविका के लिए जाते थे क्योंकि उनके पास खेती-बाड़ी बहुत कम थी. वे जीविका के लिए खेतों में मजदूरी करते थे और खेतों में मजदूरी बारह महीने चलती थी. किसानों के पास जो खेत थे वह मौसम पर निर्भर थे. इसलिए उनके पास सालों भर काम नहीं होता था. वो करें क्या? इसलिए वे नाच पार्टी बना लेते थे. इसमें वे नाचना-गाना सीख लेते थे. कुछ गीत-संगीत सीखते थे. इसमें बहुत सारे अनपढ़ लोग थे. मेरे गाँव में ही एक बिसराम भगत की नाच पार्टी थी जिसमें हमारे गाँव के अनुसूचित जाति या गौण वर्ण के लोग या अति पिछड़ी जाति के लोग काम करते थे. कभी-कभी हमलोग देखते थे कि वे लोग खेतों में कटाई कर रहे हैं, मजदूरी कर रहे हैं तो हमलोग हँसते थे कि अरे! यही रात में मुकुट-वुकुट लगा के शाहजहाँ बना था- अमर सिंह राठौर नाटक में. उन्हें अच्छी हिन्दी बोलनी नहीं आती थी. ऊटपटाँग हिंदी बोलते थे. यानी वे कोई प्रशिक्षित लोग नहीं थे. उन्हें बढ़िया अभिनय भी नहीं आता था. वे अपनी संवाद की अदायगी भी नहीं कर पाते थे. और नाटक तो वे स्वयं लिखते थे. इस तरह से मजबूरी में संचालित होनेवाला नाटक करते थे. और ये आपने सही कहा कि ये लौंडे माने जाते थे. लौंडा मतलब होता था कि जो कमसिन उम्र के लड़के होते थे. जो चिकने-चुपड़े होते थे, नाजुक और पतले होते थे. उन्हें नाचने की कला सिखाई जाति थी और वे नाचते थे. फिर उनके साथ ज्यादातियाँ भी होती थी. कमाल यह था कि दूसरी जातियों के लोग, दबंग लोग तो करते ही थे, नाच पार्टी वाले भी करते थे. इसका अनुभव हमलोगों को है कि जो शोषण था उसमें नाचने वालों का भी था. यह लौंडाबाजी शब्द वहीं से चला है. लौंडों की वजह से. यह कहा जाता था कि जो नाच पार्टी का मालिक है वह तो स्वयं बड़ा लौंडाबाज होता है. भिखारी ठाकुर के बारे में प्रसिद्ध है कि वे बड़े भक्त किस्म के आदमी थे. रामचरितमानस उनका प्रिय ग्रंथ है. चौपाई उन्हें बहुत याद थी. वे भक्ति भाव से अपने नाटक करते थे और अपने नाटकों में तो वे चौपाई भी गाते थे. कुछ चौपाइयाँ उन्होने बना रखी थीं. आपका यह कहना सही है और जिन कलाकारों से आपने बात की है उनका जो अनुभव है वही मेरा भी अनुभव है कि उनका नाटक खेलना खुशी की बात नहीं थी. वो भीतर की उमंग के साथ नहीं खेलते थे. जीविका का एक साधन था. सामंती समाज था. नाचने वालों के प्रति, गानेवालों के प्रति यहाँ तक कि कोई अगर ब्राह्मण भी कुछ गा लेता था, उसके प्रति भी लोगों की धारणा अच्छी नहीं थी. लोग कहते थे कि गवईय्या है, तबलची है मतलब यह कि सामंती मानसिकता में नाच और गाने के प्रति सम्मान का भाव बहुत नहीं था. सामंत संरक्षण  देते थे- बड़े गायकों को, बड़े कलाकारों को, लेकिन नाच वालों को सम्मान नहीं देते थे.
Ø भोजपुरी सिनेमा की भाषा और संवेदना पर क्या कहना चाहेंगे?
इधर की किसी भोजपुरी फिल्म को मैंने पूरा-पूरा नहीं देखा है. लेकिन थोड़ी-थोड़ी झलक जो मैंने देखी  है वो बड़ा फूहड़ है. भोजपुरी फिल्मों की शुरुआत जब हुई थी- गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबौ या लागी नाहीं छूटे राम इस तरह की फिल्मों से.  वहाँ भोजपुरी संस्कृति को व्यक्त करने की और भोजपुरी संस्कृति को समझने की एक बेचैनी थी और उन लोगों ने वो फिल्में बनाई थीं जो भोजपुरी संस्कृति से प्यार करते थे. जो चाहते थे कि हमारी लोक संपदा बाहर भी देखी जाए जैसे नाजीर हुसैन, लक्ष्मण शाहबादी ने ऐसा ही किया. चित्रगुप्त ने संगीत दिया था भोजपुरी फिल्मों के लिए. वे हिंदी फिल्मों के प्रसिद्ध संगीतकार थे. लेकिन थे वे भोजपुरी माटी के. हमारे गाँव के पास ही उनका घर था. लेकिन वो समझते थे भोजपुरी संगीत. अब जो नए लोग आ रहे हैं वो भोजपुरी को एक बाज़ार समझ कर आ रहे हैं. वो फिल्मों में पैसा लगा रहे हैं तो कोई खतरा भी मोल नहीं ले सकते. इसलिए इसका खतरा भी वो नहीं समझ पा रहे हैं. फिल्म चलाने के जितने मसाले हो सकते हैं सब डालते हैं. फिल्म के साथ दिक्कत यह है कि मानिए मैं कोई किताब लिख रहा हूँ प्रयोग कर रहा हूँ. किताब नहीं बिकेगी तो सिर्फ मेरा श्रम व्यर्थ जाएगा लेकिन फिल्म बनाने में तो करोड़ों-करोड़ों की लागत है. इसके डूबने का मतलब है करोड़ों की पूंजी का  डूब जाना. इसमें दो बाते हैं. एक तो भोजपुरी संस्कृति को न समझने वाले ये फिल्में बना रहे हैं. दूसरा, जो भोजपुरी के लोग काम कर रहे हैं उनके पास दृष्टि नहीं है.
Ø भोजपुरी एक मजबूत भाषा होकर भी उपेक्षित क्यों है? जबकि भोजपुरी गीतों में अभिव्यक्ति की क्षमता हिंदी से अधिक है. आप क्या कहेंगे?
 कोई एक भाषा मजबूत भाषा है और दूसरी कमजोर- मैं इसमें नहीं पड़ूँगा. मेरी मातृभाषा भोजपुरी है इसका मतलब यह थोड़े ही है कि हरियाणवी कमजोर है, अवधी  कमजोर भाषा है या मैथिली कमजोर भाषा है. सारी भाषाओं की अपनी खूबियाँ और अभिव्यक्ति का अपना सौन्दर्य है. हाँ, भोजपुरी का क्षेत्र बहुत बड़ा है और उसकी लोक संपदा बहुत बड़ी है. भोजपुरी से तो बहुत सारी चीजें हिंदी फिल्मों में आई हैं. उदाहरण के तौर पर एक लोकगीत हमने सुना था.  उसमें एक प्रसंग था. हो सकता है कि यह ब्रिटिश के जमाने का हो. एक सिपाही हवलदार बन जाता है. वह इतना खुश है कि हवलदार बन जाने पर वह उत्सव मनाता है, फायर करता है. फायर कहाँ करता है? तो उसकी पत्नी नथिया पहनी है उस पर वह गोली चलाता है, जिस पर वह गाती है- “जबसे सिपाही से भइला हवलदार हो, नथुनिए पर गोली मारे सइयाँ हमार हो”. इसी तर्ज पर हिंदी फिल्म में गीत आया- “ अँखियों से गोली मारे, लड़की कमाल हो”. बिलकुल धुन वही, जमीन वही, बल्कि उससे भी खराब जमीन. वह गीत ज्यादा रोमांटिक है और ज्यादा कल्पनाशील है. इस तरह से हिंदी फिल्मों ने बहुतेरी धुनों को लिया है. चूंकि हमारी स्मृति कमजोर होती जा रही है. हम आधुनिक तकनीक के जमाने में हैं. पहले सबके फोन नंबर याद रहते थे लेकिन आज जब किसी का नंबर लेना होता है तो अपना फोन निकालते हैं. इसका कारण तकनीक पर हमारी निर्भरता है. एक फर्क ये भी समझना चाहिए कि तकनीकी विकास जब होता है तब बहुत सारे संबंध बदलते हैं. आज तकनीक के कारण  ही कलाकारों की कीमत बढ़ गई है. तकनीक नहीं होती तो मुकेश और मन्ना डे इतना थोड़े ही बिकते. भीम सिंह जोशी, कुमार गंधर्व की भी इतनी कीमत नहीं होती. अमिताभ बच्चन की कीमत बढ़ी है तो तकनीक के कारण.  तकनीक नहीं होती तो ये अभिनेता होते और अपने-अपने क्षेत्र में नाचते. कलाकार का जो महत्त्व बढ़ा है उसमें तकनीक का बहुत योगदान है. तकनीक ने बहुत सारी चीजों को संरक्षित किया है. उनकी आर्थिक स्थिति, उनके प्रति हमारी जो सोच है वह बदली है. अब सोचिए आज से साठ-सत्तर साल पहले हिंदी फिल्मों में एक भी अभिनेत्री नहीं मिलती थी. लेकिन आज अच्छे घरों की लड़कियां आ रही हैं. आज अभिनय करना, नचनिया बनना गलत बात नहीं है. कलाकारों का महत्त्व बढ़ा है. इसका कारण यही है कि सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ी है, आर्थिक हैसियत बढ़ी है. तकनीक को इस रूप में भी देखना चाहिए. समय के प्रवाह ने हमसे हमारी वर्णमाला छीन ली, शब्द छीन लिए. लेकिन ये तो पता है ना कि छापेखाने की मशीन ने हमारे सारे ज्ञान को नष्ट होने से बचा लिया और ज्ञान का लोकतांत्रिकरण किया. तकनीक की भूमिका को इस रूप में देखा जाना चाहिए.
Ø लिखित ही साहित्य की श्रेणी में आता है तो वह लोक, जो गीत बनकर लोगों के कंठ और कोहबरों में समाया है उसका इतिहास कैसे लिखा जाएगा?
 देखिए लोकगीत है या लोक कला है वो कभी लिखित तो रहा नहीं है, वह लोककंठ में ही रहा है.  अब जबसे लिखने का प्रचलन बढ़ा है, तब से लोकगीतों की रचना भी बंद हुई. और लोकगीत को कोई एक व्यक्ति थोड़े ही लिखता है, यह एक समूहिक रचना है. मुझे नहीं लगता है कि लोकगीत, लोककथा उस रूप में फिर लौटने को है जिस रूप में उसने जन्म लिया था या उसका चलन शुरू हुआ था. आदमी के पास सुकून के क्षण बहुत कम हैं. शाम के समय हमारे गाँव में लोग बैठकर गप्प ही मारते थे. किसी से कहा जाता था कि कुछ सुनाओ तो वह कुछ सुनाने लगता था. कोई कहानी सुना रहा है. अब गाँव में भी टेलीविज़न आ गए तो सब बैठकर उसे देखते रहते हैं. ये सारी चीजें आप कह सकती हैं कि हमारी अविकास के समय की चीजें हैं. उन्हें आप वापस नहीं ला सकते हैं. इतिहास अपने आप को दोहराता नहीं है. ये अगर दोहराता है तो या तो त्रासदी होती है या कॉमेडी होती है.

Sunday, 21 January 2018

संस्मरण और ईमानदारी

मुक्तिबोध रचनाकार के लिए चरित्र और आलोचक के लिए ईमानदारी जरूरी मानते थे। चरित्र और ईमानदारी ही वह चीज है जो रचना और आलोचना को विश्वसनीय बनाती है। रचनाकार से मुक्तिबोध का आशय मुख्यतः कवि, कथाकार और नाटककार से है। लेकिन संस्मरण और आत्मकथा ऐसी विधाएँ हैं जिनके लेखक की ईमानदारी पर ही इसकी विश्वसनीयता टिकी है। ईमानदारी के कारण ही किसी संस्मरणात्मक या आत्मकथात्मक कृति में आग पैदा होती है। इन विधाओं में लेखक की ईमानदारी साफ-साफ दिखाई देती है। संस्मरण जिन लोगों पर लिखा जाता है, वे लोग उसकी विश्वसनीयता की पुष्टि करने के लिए प्रायः जीवित नहीं होते। यूँ सही या गलत तथ्यों की प्रामाणिकता का पता सिर्फ लेखक को होता है, फिर भी उसकी गलतबयानी पाठक की नजर में आ जाती है और वह कृति बार-बार प्रश्नांकित होती रहती है।
          यशपाल की संस्मरणात्मक कृति सिंहावलोकन स्वतंत्रता के लिए जूझते और आग से खेलते क्रांतिकारियों की घटनाओं से जुड़ा हुआ है। भगत सिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारियों की शहादत का जीवित साक्ष्य होते-होते यह कृति रह गई तो इस कारण कि भगवतीचरण बोहरा और आज़ाद के निधन के प्रसंग में यशपाल की ईमानदारी बार-बार प्रश्नांकित होती रही। इसी तरह क्या भूलूँ क्या याद करूँ में कहा गया कि बच्चन ने यशपाल और प्रकाशवती के साथ न्याय नहीं किया। कहने का आशय यह है कि संस्मरण या आत्मकथा में लेखकीय ईमानदारी पहली आवश्यक शर्त है। इसके बिना न तो संस्मरण पठनीय भरोसा अर्जित करेगा और न आत्मकथा।
          ईमानदारी की दृष्टि से महात्मा गाँधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग भारत में प्रथम कोटि की रचना कही जाएगी। इसे पढ़ते हुए पाठक को कहीं भी यह नहीं लगता है कि इस पुस्तक का लेखक अपने को छुपा रहा है। गाँधी ने पूरी तरह अपने को खोलकर रख दिया है। पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की आत्मकथा अपनी खबर लेखकीय ईमानदारी की दृष्टि से हिंदी की सर्वश्रेष्ठ आत्मकथा कही जाएगी। इसका कारण यह है कि ‘उग्र’ ने अपने गोपन पक्ष को भी इस तरह प्रस्तुत किया है कि वह पाठकीय भरोसा अर्जित कर लेती है। कुल्लीभाट’ और ‘बिल्लेसुर बकरिहा निराला की ऐसी संस्मरणात्मक या शब्दचित्रात्मक रचनाएँ हैं जिनमें विधाओं की सीमाएँ टूटती हैं और लेखकीय ईमानदारी का जबर्दस्त प्रभाव पाठक महसूस करता है। कुल्लीभाट में निराला की जो आत्म स्वीकृति है वह इस रचना को अनुपम बना देती  है। कुल्लीभाट एक ऐसे चरित्र के रूप में हमारे सामने आते हैं जो निराला की ईमानदार कलम की देन हैं। नेहरू ने अपनी आत्मकथा में अपने निजी जीवन को कम खोला है, पर सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन की सच्चाइयों से इतना ईमानदार आत्म-साक्षात्कार किया है कि वह सिर्फ उनकी कृति न रहकर स्वतंत्रता संग्राम के तूफानी दौर का एक दस्तावेज बन जाती है। इसी तरह से पाब्लो नेरुदा की रचना मेम्वायर्स भी नेरुदा के व्यक्तिगत संस्मरणों से ऊपर उठकर साहित्यिक सोच-विचार का जीवित दस्तावेज बन जाती है। वह निजी प्रसंग हो या साहित्यिक प्रसंग, नेरुदा की साफगोई और ईमानदारी पाठक वर्ग को छू जाती है।
          बहुत लोग संस्मरण को दूसरों की निंदा या उनके चरित्र हनन का औज़ार बना देते हैं। संस्मरण में अपने युग का इतिहास भी छिपा होता है और वह  समकालीनों को बदनाम करने का जरिया भी बनता है। रवीन्द्र कालिया लिखित गालिब छुटी शराब खिलंदड़ी  भाषा और शानदार अंदाजे बयां के बावजूद एक बहुत अच्छी कृति बनते-बनते इसलिए रह जाती है कि इसमें आए लोगों के प्रति लेखक जितना तल्ख और निर्मम हैं उतना अपने प्रति नहीं हैं। इसी तरह दूधनाथ सिंह की संस्मरणात्मक कृति लौट आओ धार में लेखक वर्णित लोगों के प्रति जितना आलोचनात्मक हैं उतना अपने प्रति नहीं हैं। इसलिए बहुत रचनात्मक और काव्यात्मक भाषा के बावजूद वह कृति उम्दा किस्म का साहित्यिक दस्तावेज नहीं बन पाती। उसकी तुलना में उनकी कृति महादेवी ज्यादा उम्दा मानी जाएगी और दूधनाथ सिंह की पुस्तकों में सबसे अच्छी भी। इसलिए कि लेखक ने इस संस्मरण को आलोचनात्मक स्पर्श के साथ एक ऐसी भाषा में रचा है जो उसे दूधनाथ सिंह की सबसे अच्छी पुस्तक बनाती है।
          संस्मरण और आत्मकथा साहित्य की आधुनिक विधा है। हिंदी में इस विधा का जन्म भारतेन्दु काल में हुआ। तब से यह विधा निरंतर विकसित होती रही। लेकिन यह विधा हिंदी में उस ऊंचाई पर कभी नहीं पहुँची जहाँ कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना और नाटक पहुँचे। कहा जा सकता है कि संस्मरण हिंदी की गौण विधा है। इसका कारण यह है कि संस्मरण या आत्मकथा लेखन के लिए जिस साहस और ईमानदारी की जरूरत है उसका हिंदी लेखकों में अभाव है। हिंदी समाज बौद्धिक रूप से पिछड़ा हुआ है और नैतिकता के उसके प्रतिमान अभी भी बहुत पुराने हैं। कथा सम्राट प्रेमचंद ने इसीलिए अपना जीवनवृत्त बहुत संक्षेप में प्रस्तुत किया। उसमें प्रेमचंद की सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक स्थितियाँ तो दर्ज हैं ही, उनका साहित्यिक संघर्ष भी सामने आता है। लेकिन उसमें प्रेमचंद का अलक्षित जीवन खुलकर सामने नहीं आता। शिवरानी देवी की संस्मरणात्मक कृति प्रेमचंद घर में के जरिए प्रेमचंद का वह  अलक्षित पक्ष सामने आता है जिसे प्रेमचंद या उनके आलोचकों ने जाने अनजाने ढँक रखा है। हिंदी लेखकों के पुत्र-पुत्री या पत्नियाँ उनके संस्मरण लिखें और ईमानदारी से लिखें तो लेखकों का ‘देवत्व’ थोड़ा कम होगा और उसका वास्तविक रूप हिंदी पाठक के सामने आएगा।
           हिंदी के पेशेवर लेखकों से भिन्न समाज और राजनीति में काम करनेवाले कुछ लोगों के संस्मरणों से भारतीय समाज का इतिहास बनता हुआ दिखाई देता है। इन संस्मरणों को किसी भी पेशेवर लेखक के संस्मरण से कमतर नहीं कहा जा सकता। चंपारण सत्याग्रह के संदर्भ में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा  लिखित बापू के कदमों में या अन्य संस्मरणों को पढ़ें तो मालूम पड़ता है कि चंपारण सत्याग्रह का इतिहास इसके बिना पूरा नहीं होता। इसलिए कि लेखक ने बड़ी ही ईमानदारीपूर्वक अपनी सीमाओं और सत्याग्रह से जुड़े लोगों के कार्यों की गहरी छानबीन की है। बिनोवा भावे की संस्मरणात्मक कृति गाँधी जैसा मैंने देखा को पढ़कर गाँधी के व्यक्तित्व की बारीकियाँ समझ में आती हैं। आमतौर से बिनोवा को गाँधी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माना जाता है। लेकिन इस पुस्तक से पता चलता है कि गाँधी के भरोसेमंद होने पर भी बिनोवा कितनी ईमानदारी से गाँधी के जीवन और कार्यों पर आलोचनात्मक नजर रखते थे।
  हिंदी में संस्मरण लेखन जितना रचनात्मक अर्ज के तहत लिखा जाता है उससे अधिक हिसाब चुकता करने के लिए लिखा जाता है.कांतिकुमार जैन के लिखे संस्मरणों  में ये दोनों प्रवृत्तियां दिखाई देती हैं.यही स्थिति राजेंद्र यादव की ‘मुड़-मुड़ के देखता हूँ’ और मैत्रेयी पुष्पा की ‘वो सफ़र था कि मुकाम था’ की है.यह प्रवृत्ति हिंदी के बहुत सारे संस्मरण लेखकों में है.संस्मरण लेखन एक विशिष्ट रचनात्मक कार्य है इसका ध्यान बहुत कम लोग रखते हैं.संस्मरण एक व्यक्ति का छोटा इतिहास और उसका मूल्याङ्कन भी होता है,इस बात का ध्यान कम रखा जाता है.दिनकर की ‘संस्मरण और श्रद्धांजलियां’,जगदीश चन्द्र माथुर की संस्मरणात्मक कृति ‘दस तसवीरें’,अज्ञेय की ‘स्मृति लेखा’,शिवपूजन सहाय की ‘वे दिन वे लोग’,केसरी कुमार की  ‘हिंदी का तडपता राजहंस’,काशीनाथ सिंह की ‘याद हो कि न याद हो’ आदि को जिन लोगों ने पढ़ा है वे स्वीकार करेंगे कि संस्मरण लेखन कितना गंभीर रचनात्मक कार्य है.इन संस्मरणात्मक कृतियों के जरिये वर्णित विषय या व्यक्ति नए रूप में सृजित होता हुआ दिखाई देता है.संस्मरण के भीतर ही यात्रा-संस्मरण को गिना जाना चाहिए.यात्रा-संस्मरणों के जरिये लेखक अपनी भाषा के बौद्धिक क्षितिज का विस्तार करता है,साथ ही जीवन और प्रकृति के विस्तार का पाठक के लिए झरोखा भी बनता है.ऐसी कृतियों को याद करना हो तो बेनीपुरी की पुस्तक ‘पैरों में पंख बांधकर’,ब्रजकिशोर नारायण का ‘यूरोप कुछ ऐसे कुछ वैसे’,प्रभाकर माचवे का ‘गोरी नज़रों में हम’ हिंदी के कुछ ऐसे यात्रा-संस्मरण हैं जो अपने रचनात्मकता के लिए सहज ही याद आते हैं.ऊपर जिन कृतियों का उल्लेख हुआ है उनके लेखकों का उद्देश्य न तो पर निंदा है और न ही आत्म प्रदर्शन,उद्देश्य सिर्फ एक ही है इनके जरिये हिंदी में कुछ नया निर्मित करना .

      अज्ञेय ने कहा है कि आत्मकथा लेखन एक तरह का आत्म प्रदर्शन है.वे यह भी मानते हैं कि इसके मूल में यह भाव निहित है कि हम कुछ ऐसा मूल्यवान जानते हैं जिसे दुनिया को बताया जाना चाहिए.इसके ठीक उलट इधर के वर्षों में दलितों और स्त्रियों ने जो आत्मकथा लेखन किया है वह आत्म प्रदर्शन की जगह उनकी अथाह पीड़ा का दस्तावेज अधिक है.निश्चित रूप से मुख्यधारा के लेखकों से भिन्न दलितों और स्त्रियों का अपने जीवन को अपनी ही आँखों से देखना साहित्य में नए युग की शुरुआत है.आत्मकथा चाहे जिस धारा की हो उसके केंद्र में लेखक का अपना जीवन होता है लेकिन संस्मरण के केंद्र में दूसरा व्यक्ति या दूसरा प्रसंग होता है.इस भिन्नता के बावजूद दोनों ही विधाओं में ईमानदारी आवश्यक है.ईमानदारी के अभाव में कोई आत्मकथात्मक या संस्मरणात्मक कृति  कुछ दिन तक शोर-शराबे पैदा कर ले उसका स्थायी प्रभाव नहीं पड़ता.इधर आने वाली बहुत-सी संस्मरणात्मक कृतियों में पाठक को उस ईमानदारी की कमी नजर आती है जो किसी रचना को औसत से ऊपर उठाकर विशिष्ट बनाती है.अपने आग्रहों-दुराग्रहों और संस्कारों की सीमा में बंधा हुआ व्यक्ति जब तक इनका अतिक्रमण नहीं करेगा अच्छा संस्मरण नहीं लिख सकता.यहाँ यह कहना चाहिए कि अपनी सीमाओं का अतिक्रमण वही व्यक्ति करता है जो भीतर से ईमानदार होता है.अच्छे संस्मरण लेखन में कई दफा विचारधारा भी बाधक होती है.भिन्न विचारधारा के व्यक्ति पर संस्मरण लिखते हुए संस्मरण लेखक प्रायः अनुदार होते हैं.इस अनुदारता के दृश्य हिंदी में आम हैं.इसलिए मुक्तिबोध ने किसी भी लेखक के लिए विचारधारा के साथ अंतःकरण की आवाज सुनने पर जोर दिया है.यह अंतःकरण और कुछ नहीं लेखक की ईमानदारी का पर्याय है.

Wednesday, 17 January 2018

आलोचना: साहित्य के जनतंत्र में प्रतिपक्ष



साहित्य के जनतंत्र में आलोचना प्रतिपक्ष की रचनात्मक भूमिका निभाने वाली विधा है
             (वरिष्ठ आलोचक गोपेश्वर सिंह से अनुराधा गुप्ता की बातचीत )


गोपेश्वर सिंह हमारे समय के महत्त्वपूर्ण आलोचक व चिन्तक हैं. आधुनिक साहित्य के साथ भक्ति साहित्य  को अलग नजरिए से देखने और उसके महत्त्वपूर्ण आयाम उद्घाटित करने में उनका विशेष योगदान है.उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं - नलिन विलोचन शर्मा, साहित्य से संवाद, आलोचना का नया पाठ तथा भक्ति आंदोलन और काव्य. उनके द्वारा संपादित महत्त्वपूर्ण पुस्तकें हैं: भक्ति आंदोलन के सामाजिक आधार, शमशेर बहादुर सिंह: संकलित कविताएँ, ‘कल्पनाकाउर्वशीविवाद, नलिन विलोचन शर्मा: रचना संचयन आदि.
उत्कृष्ट आलोचना कर्म के लिए उन्हें ‘केदारनाथ अग्रवाल स्मॄति संस्थान’ का प्रतिष्ठित  रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान’ दिया जा रहा है. गोपेश्वर सिंह से उनके लम्बे लेखकीय और जीवनगत अनुभवों के साथ समकालीन आलोचना से जुड़े कई महत्त्वपूर्ण  मुद्दों पर बात करने का अवसर मिलाप्रस्तुत हैं  बातचीत के  कुछ अंश ..
प्रश्न- गोपेश्वर जी, सबसे पहले रामविलास शर्मा पुरस्कार मिलने की आपको बहुत-बहुत बधाई. आप कैसा महसूस कर रहे हैं?
उत्तर- मैं आभारी हूँ रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान देने वाले संस्थान का और निर्णायकों का उन्होंने मुझे इस योग्य माना. रामविलास शर्मा का जीवन और कर्म मेरे लिए हमेशा प्रेरक रहा है. उनका विशाल ज्ञान, लेखन के प्रति समर्पण, जनपक्षधर रुझान, दुनिया के छल-छंद से निर्लिप्त, लाभ-लोभ की राजनीति से दूर रहने वाली प्रवृत्ति के लिए मेरे मन में गहरा सम्मान है. इस लिए इस सम्मान को दिए जाने की सूचना जब विभूति नारायण राय ने दी तो मुझे बेहद खुशी हुई. खुशी एक तो अपने आलोचना कर्म के पहचाने जाने की तथा दूसरी, जिन रामविलास शर्मा को हिंदी आलोचना का मैं शिखर मानता हूँ, उनके नाम पर मिले इस सम्मान की.
प्रश्न- आलोचना आपकी प्रिय विधा रही है, ऐसा क्यों?
उत्तर- लिखने के लिहाज से आलोचना मेरी प्रिय विधा है. वैसे मेरी सर्वाधिक प्रिय विधा तो कविता है, लेकिन एक पाठक के तौर पर. मुझे जो बहुत सारे अफ़सोस हैं उनमें से एक  कवि न होने का भी है . बचपन में कुछ कविताएँ लिखी थीं लेकिन अंतत: कविता मुझसे सध न सकी और कविता से मेरा प्रेम सिर्फ़ पढ़ने तक सीमित हो गया. अच्छी कविता पढ़ने पर मुझे समाधि में जाने का सुख मिलता है. लेकिन मैं लिखता तो हूँ आलोचना. आलोचना में मैं क्यों आया मैं कह नहीं सकता, उसकी कोई तैयारी नहीं थी. परिचित सम्पादक मित्रों ने आलोचना लिखने के काम में लगा दिया और मैं तब से लगा हुआ हूँ. आलोचना अब मैं इसलिए लिखता हूँ कि साहित्य के जनतंत्र में वह प्रतिपक्ष की रचनात्मक भूमिका में है. आलोचना के बिना ग़लत के विरुद्ध सही समय पर सही आवाज़ नहीं उठ सकती. साहित्य के जनतंत्र में आलोचना प्रतिपक्ष की रचनात्मक भूमिका निभाने वाली विधा है.
प्रश्न- आज के समय में आलोचना की वास्तविक भूमिका क्या है और ये क्यों जरूरी है?
उत्तर- आलोचना का जो आधुनिक रूप है उसका गहरा संबंध लोकतंत्र, लोकतांत्रिक आकांक्षा और लोकतांत्रिक मिजाज़ से है. मैं अगर कह रहा हूँ कि आलोचना साहित्य के जनतंत्र का प्रतिपक्ष है तो उसके पीछे यह भाव निहित है कि उसका जन्म लोकतंत्र के उदय से जुड़ा हुआ है. पहले जब राजतंत्र था तब जिसे साहित्य शास्त्र कहते हैं उसका ज़माना था. चूंकि हम राजतंत्र में राजा की अलोचना नहीं कर सकते, क्योंकि आलोचना का अधिकार जनता को नहीं था इसलिए उस ज़माने की आलोचना यानी साहित्य शास्त्र, रस-छन्द, अलंकार , वक्रोक्ति आदि के माध्यम से तैयार हुआ. वहाँ साहित्य के कंटेट पर जोर कम और रूप विधान पर अधिक है लेकिन जब लोकतांत्रिक समाज व्यवस्था का जन्म हुआ तब सत्ता पक्ष के साथ प्रतिपक्ष का भी जन्म हुआ. संसद में जो भूमिका प्रतिपक्ष की है साहित्य में वही भूमिका आलोचना की है. प्रतिपक्ष के बिना आधुनिक साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती . आलोचना समाज और साहित्य को जन आकांक्षाओं के अनुरूप बनाए रखने का सबसे बड़ा हथियार है.
प्रश्न- आप हिन्दी के किन आलोचकों को महत्त्वपूर्ण मानते हैं और क्यों?
उत्तर- मेरे  प्रिय आलोचक हैं जो हमेशा मेरी आँखों में रहते हैं, वे हैं रामचंद्र शुक्ल, रामविलास शर्मा, नलिन विलोचन शर्मा, विजयदेव नारायण साही और नामवर सिंह .और भी बहुत से आलोचक हैं जिनसे मैंने बहुत कुछ सीखा है लेकिन बहुधा जिन्हें मैं उद्धॄत करता हूँ और जो मेरे दॄष्टि पथ में प्राय: रहते हैं वे यही हैं. सीखने के लिए तो हमने अंग्रेजी के और दूसरी भाषा के आलोचकों से भी बहुत कुछ सीखा है लेकिन हिंदी का होने के नाते मेरे दॄष्टि पथ में यही आलोचक रहते हैं.
प्रश्न- जिन आलोचकों का आपने जिक्र किया उनकी कौन सी बात आपको अच्छी लगती है?
उत्तर- रामचंद्र शुक्ल मुझे इसलिए अच्छे लगते हैं कि उनकी आलोचना में सिद्धांत और व्यवहार का मणि कांचन योग है. उनके यहाँ दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे रचना के मर्म को पहचानने वाले आलोचक हैं. शुक्ल जी ने कहा कि महाकवि वह  होता है जिसे जीवन के मार्मिक स्थलों की पहचान हो. इसी वजन पर मैं कहना चाहूँगा कि आलोचक भी बड़ा वह  होता है जो रचना के मर्म को पहचानता है. शुक्ल जी ने यदि कह दिया कि केशव को कवि हॄदय नहीं मिला था तो साहित्य के आचार्य अज्ञेय और विश्वविद्यालय के आचार्य विजयपाल सिंह के कलम तोड़ लिखाई के बावजूद उन्हें कवि हॄदय नहीं मिला. शुक्ल जी की ही तरह रचना के मर्म को उद्घाटित करने में नामवर सिंह की आलोचक प्रतिभा कमाल करती रही है. रामविलास शर्मा इसलिए प्रिय हैं कि आज हिन्दी पाठक का जो कामनसेंस है उसका अधिकांश  उन्हीं का बनाया हुआ  है. भारतेन्दु, प्रेमचंद, रामचन्द्र शुक्ल, निराला, हिन्दी नवजागरण, हिन्दी जाति, लोकजागरण का जो बोध हिन्दी पाठक के पास है वह रामविलास शर्मा का निर्मित किया हुआ है, यह कोई सामान्य बात नहीं. यह काम कोई असाधारण मेधा वाला आलोचक ही कर सकता है. इनके अलावा नलिन विलोचन शर्मा बहुत प्रिय रहे हैं. वे मानते थे कि आलोचना वही अच्छी है जो किसी कॄति का निर्माण करे. रचना के रूप पक्ष की घनघोर सराहना करने वाले नलिन जी ने विज्ञान सम्मत साहित्य  दॄष्टि पर जोर दिया और किसी भी तरह की चमत्कार प्रियता, वह चाहे धर्म की हो या साहित्य की, का विरोध किया. विजय देव नारायण साही ने समाज सापेक्ष जिस आलोचना की प्रस्तावना लिखी वह समाज सापेक्षता बहुत हद तक भारतीय ज़मीन से जुड़ी हुई है. इन्हीं सब कारणों से ये आलोचक मुझे प्रिय लगते हैं. लेकिन इनमें से किसी एक को चुनने की मज़बूरी हो तो मैं रामचंद्र शुक्ल को ही चुनूँगा.
प्रश्न- आपकी आलोचना और  भाषा में कोई उलझाव नहीं. वह बेहद सम्प्रेषणीय और साफ़ है. यह गुण आपने किस आलोचक से अर्जित किया?
उत्तर- हाँ, यह कहना आपका सही है कि मेरी भाषा और मेरे कथन में सफ़ाई है. सफ़ाई का सीधा संबंध आपकी साफ़ समझ और साफ़ दॄष्टि और साफ़ मन से है. मैं वही लिखता हूँ जिसके बारे में मेरी समझ साफ़ है और जो मेरी समझ का हिस्सा है. मैं मानता हूँ कि हमारे कहने में उलझाव तब पैदा होता है जब हमारी दॄष्टि और हमारी समझ में उलझाव हो. उलझी समझ और उलझी दॄष्टि के साथ मैं नहीं लिखता. मैं उन्हीं विषयों और व्यक्तियों के बारे में लिखता हूँ जिनके बारे में दॄष्टि और समझ साफ़ हो. साफ़गोई मेरे जीवन व्यवहार में भी है और आलोचना व्यवहार में भी. जहाँ तक भाषा की सफ़ाई की बात है तो वह गुण मैंने हिन्दी के दो कवियों से लेने की कोशिश की. लोगों को आश्चर्य तो होगा लेकिन मेरे लिए यह सत्य है कि साफ़-सुथरा गद्य लिखने की कला मैंने बच्चन और दिनकर से सीखी. इन दोनों का गद्य हिन्दी प्रकॄति का है, कर्ता कर्म और क्रिया वाला गद्य. उस पर अंग्रेजी वाक्य रचना का प्रभाव बिल्कुल नहीं. यह गुण रामविलास शर्मा के गद्य में भी है. तो कहने की सफ़ाई मैंने इन्हीं लोगों से सीखी. यों सीखने के लिए तो हम बहुतों से बहुत कुछ सीखते रहते हैं. साही की बहसधर्मी भाषा और नामवर सिंह की काव्यात्मक  भाषा मुझे अच्छी लगती रही है. इसी के साथ ही मैं यह भी कह दूँ कि जब मैं आलोचना लिखता हूँ तो अपने आप को मंच पर खड़े वक्ता के रूप में देखता हूँ और मुझे लगता है कि मेरे पाठक जो हैं वो मेरे श्रोता की तरह हैं जो मेरे कथन के उलझाव को समझने की जगह साफ़-साफ़ कहते-लिखते देखना चाहते हैं इसलिए मेरी कोशिश होती है कि जो मैं कहूँ वह पढ़ने वाले की समझ से सीधे टकराए. मेरा कहा हुआ या तो मेरे पाठक को बदल देगा या वह उसे अस्वीकार करके मुँह पर दे मारेगा. मैं अपने लिखे शब्दों की ताकत इसी रूप में आजमाना चाहता हूँ.
प्रश्न- आलोचना के लिए जिस समाज दॄष्टि की जरूरत की बात की जाती है, वह आपने किस तरह अर्जित की?
उत्तर-दॄष्टि और समझ के निर्माण में बहुत सारे दार्शनिकों, विचारकों, समाज-सुधारकों नेताओं लेखकों आदि का योगदान होता है. किसका कौन सा योगदान हमारे चेतन-अवचेतन में किस रूप में बैठा हुआ है कहना मुश्किल है. मेरी चेतना के निर्माण में सचेत रूप से जिनका योगदान मैं महसूस करता हूँ वे हैं बुद्ध, विवेकानंद, गाँधी और राममनोहर लोहिया. जे०पी० आंदोलन में मैं रहा हूँ अपने छात्र जीवन के दो वर्ष मैंने धरना प्रदर्शन, लाठी खाने, जेल जाने, नारे लगाने आदि में बिताए हैं तो जयप्रकाश जी के क्रांतिकारी व्यक्तित्व का भी असर है. बाद में मैने मार्क्सवाद का अध्ययन  किया. जयप्रकाश जी की प्रेरणा से मार्क्सवाद का भी असर मेरे सोच-विचार पर है. अम्बेडकर के लेखन से भी बहुत कुछ सीखा है. समाजवादी नेताओं में मैं स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर के करीब रहा हूँ. इन सबका मिला-जुला असर मेरी चेतना पर होगा. लेकिन बुद्ध, विवेकानन्द और गाँधी मेरी चेतना के तीन नेत्र हैं. जिनका विस्तार अन्य लोगों के जरिए भी हुआ.
प्रश्न- प्राय: यह शिकायत सुनने को मिलती है कि आलोचना वह दायित्व नहीं निभा रही है जो पहले की आलोचना निभाती रही है. दूसरे शब्दों में यह आरोप लगता है कि नामवर सिंह के बाद आज हिन्दी में कोई बड़ा आलोचक नहीं है.
उत्तर- नामवर सिंह निश्चित रूप से पिछले दौर के महत्त्वपूर्ण आलोचक रहे हैं लेकिन यह सही नहीं है कि आज सार्थक आलोचना नहीं लिखी जा रही. नामवर सिंह के बाद लिखी गई आलोचना पर आप नज़र डालें तो पाएंगे कि आलोचनात्मक विवेक का विस्तार हुआ है और उसके कई नए आयाम उद्घाटित हुए हैं. पिछले दौर की, रामविलास शर्मा, साही, नामवर सिंह आदि की आलोचना अच्छी रही है. लेकिन इधर लिखी जा रही आलोचना पर यदि ध्यान दे तो आप को आश्चर्यजनक रूप से हमारे इन महान आलोचकों की आलोचना दॄष्टि की सीमाएं नज़र आएंगी. अब यथार्थवाद, लघुमानव या व्यंग्य विडंबना और तनाव तक ही हिंदी आलोचना सीमित नहीं है. उसमें स्त्री दॄष्टि, दलित दॄष्टि और हाशिए के समाज को मुख्यधारा में लाने की संघर्ष करती हुई दॄष्टि भी शामिल है. उपन्यास और लोकतंत्र को लेकर मैनेजर पांडेय की चिंता, हिन्दी नवजागरण की बहस को आगे ले जाने वाली शम्भूनाथ और वीरभारत तलवार की चिंता, कथा साहित्य को स्त्री नज़रिए से देखने वाली रोहिणी अग्रवाल की चिंता और दलित नज़रिए से हिन्दी साहित्य को देखने वाले धर्मवीर, कंवल भारती या बजरंग बिहारी तिवारी की दॄष्टि को देखते हुए कैसे कहा जा सकता है कि हिन्दी आलोचना कहीं से भी पिछड़ी हुई है. आज भक्ति काल, रीति काल आदि के बारे में हमारी वही धारणा नहीं जो ३०-४० साल पहले थी.
प्रश्न- हिन्दी आलोचना में भी क्या आप उतनी ही निर्भीकता और ईमानदारी देखते हैं? क्या वर्तमान हिन्दी आलोचना अभिव्यक्ति के खतरे उठाती दिखती है?
उत्तर- आपकी चिंता वाज़िब है. रचनाकारों और आलोचकों के चरित्र, ईमानदारी आदि को लेकर आज तरह-तरह की बातें की जाती हैं. अवसरवादी प्रवॄत्ति भी आज, पहले की तुलना में, लेखकों में ज़्यादा है. किसी बड़े आदर्श, किसी बड़े नेता या कहें किसी महास्वप्न के अभाव का यह दौर है.बाजारवादी प्रवृत्तियां और लाभ-लोभ की प्रवृत्ति अपने विकॄत और विकराल रूप में हमारे चारों ओर फैली हुई  है. स्वाभाविक रूप से इसका असर  जीवन और समाज के सभी क्षेत्रों पर पड़ा है. मुक्तिबोध का यह शताब्दी वर्ष है और वे ऐसे कवि-आलोचक हैं जिनका असर लेफ्ट-राइट सभी पर है. उनकी एक बात ध्यान देने लायक है वे रचनाकार की ईमानदारी और आलोचक के चरित्र पर बहुत जोर देते हैं. उसके अभाव में रचना और आलोचना दोनों की चमक थोड़ी मद्धिम पड़ेगी. जो अपने को आलोचक मानते हैं और जिनकी प्रतिबद्धता इस विधा से है वे अवश्य ही अभिव्यक्ति के खतरे उठाते हैं. आप के प्रश्न में जो आपकी आशंका है वह निर्मूल नहीं है. हमारे समय ने जिस तरह रचना के सामने संकट उपस्थित किए हैं उसी तरह आलोचना के मार्ग में भी बाधाएं उपस्थित की हैं. लेखक संगठनों की गुटबाजी, लेखकों के अपने गुट, लाभ-लोभ और पुरस्कारों की राजनीति में आलोचना ने अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने की प्रवॄत्ति को कमजोर किया है. नई पीढ़ी के रचनाकारों की आकांक्षा भी निर्भीक और तटस्थ आलोचना के मार्ग की बाधा हैं. रचनाकार आलोचना का अर्थ सिर्फ़ अपनी प्रशंसा मानने लगे हैं वे आलोचकों से प्रतिकूल टिप्पणी सुनना नहीं चाहते. मेरा ख़्याल है कि इन सबका असर आलोचना पर कहीं न कहीं तो पड़ता ही है. दलित लेखक तो अपनी आलोचना हरगिज़ नहीं सुनना चाहते. स्वस्थ आलोचना के लिए स्वस्थ लोकतांत्रिक माहौल और स्वस्थ संवाद की जरूरत है. दुर्भाग्य से जिसका हिंदी में कुछ क्षरण हुआ है.
प्रश्न- आलोचना के क्षेत्र में सोशल मीडिया की क्या कोई भूमिका है? यदि है तो आप उसे कैसे देखते हैं? आपने अपने एक लेख में वर्तमान पुस्तक समीक्षा के चलतेट्रैंडको देखते हुए आलोचना के गिरते स्तर की बात की थी उसी परिप्रेक्ष्य में सोशल मीडिया का जिक्र भी आया था. क्या सोशल मीडिया में तुरत-फुरत आती प्रतिक्रियाएँ और आम आदमी की सहभागिता आलोचना का अच्छा संकेत है या फिर इसने आलोचना का बिगाड़ ही किया है?
उत्तरसोशल मीडिया नि:संदेह एक ऐसा माध्यम या मंच है जिसके जरिए बेजुबानों को ज़ुबान मिली है. वैसे लोग जिनकी अभिव्यक्ति की भूख मर जाया करती थी वे इस माध्यम के जरिए अपनी रचनात्मक क्षमता की अभिव्यक्ति कर रहे हैं. लेकिन यह बहुत तेज़ी से भागता तुरंता माध्यम है इसका न कोई सम्पादक है, न एक-दूसरे को जानने- समझने का कोई  उपाय हैं यहाँ . इसलिए सोशल साइट्स पर बेतहाशा रचनाएं आ रही हैं और जा रही हैं उससे कोई गम्भीर साहित्यिक कॄति सामने आ रही हो ऐसा मुझे नहीं लगता. वहाँ विचार की उपस्थिति और गंभीर रचनाकर्म की संभावना अभी कम है. मुझे फेसबुक के माध्यम से नीलिमा चौहान की किताबपतनशील पत्नियों के नोट्सपढ़ने का मौका मिला. मुझे खुशी हुई कि स्त्री-विमर्श की सैद्धान्तिकी के बोझ से परे बहुत ही खिलंदड़ी भाषा और अंदाज़ में स्त्री जीवन की विभिन्न समस्याओं को लेखिका ने उठाया है. लेकिन हिंदी सोशल साइट्स पर मिलने वाले ऐसे उदाहरण बहुत कम ही देखने को मिले हैं. इसी के साथ एक बात और जोड़ना बहुत जरूरी है कि यह अब बहुत तेज़ी से भागता हुआ ओवर क्राउडेड माध्यम है. यहाँ अच्छी से अच्छी सामग्री को ठहर कर इत्मीनान से पढ़ने का अवकाश नहीं है. फिर भी सोशल साइट्स की भूमिका लोकमत के निर्माण और साहित्य के प्रचार-प्रसार में तो है ही.लेकिन  उससे आलोचना की कोई गंभीर ज़मीन नहीं बनती. ....आप ने मेरे जिस लेखआभासी दुनिया के राग रंगपर उठे बवाल की चर्चा की तो सुन लीजिए कि उसके बाद सोशल साइट्स पर मुझे कितनी गालियाँ दी गई. मेरा चरित्र हनन किया गया और अपने  व्यक्तिगत स्वार्थ के मुद्दों को भी उससे जोड़ दिया गया. निश्चित रूप से इन प्रतिक्रियाओं को वहीं छपना चाहिए जहाँ मेरा लेख छपा है . लेकिन चूंकि वहाँ एक सम्पादक बैठा है और वह गाली गलौज नहीं छपने देगा. ऐसी स्थिति में सोशल साइट्स ने कुछ अलेखकों या कुलेखकों को यह  सुविधा तो दे ही रखी है कि वे जिस पर चाहें हमले करें या गालियाँ दें. फिर भी मैं सोशल साइट्स के महत्त्व से इंकार नहीं कर रहा. यह नए ज़माने की नई तकनीक है, जो समता और स्वतंत्रता की हमारी आकांक्षा को उड़ने का नया  प्लेटफार्म   देती  है.