Sunday, 1 October 2017

गाँधी का 'अभय' मंत्र

विनोबा भावे की एक छोटी-सी पुस्तक है - ‘गाँधी जैसा मैंने देखा’.उसमें साबरमती आश्रम में गाँधी के साथ बिताए दिनों की यादें हैं. ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए...’ भजन वहां गया जाता था. विनोबा के मन में यह सवाल उठा कि इस भजन में एक वैष्णव व्यक्ति के जो लक्षण बताए गए हैं वे गाँधी में कितने हैं! अपने अनुभव के आधार पर बिनोवा भावे ने लिखा है कि एक सच्चे वैष्णव के सभी गुण गाँधी में थे. वे गुण थे- सादगी, सच्चाई, अपरिग्रह, अभय, निरभिमान आदि. इन गुणों को गाँधी ने भारत की राजनीति से जोड़कर नए भारत का और नयी सभ्यता का सपना देखा.गाँधी राजनीति और समाज को जिन गुणों से जोड़ना चाहते थे,उन्हें अब कोई याद भी नहीं करता.राजनीति में जब सारा जोर ‘राज’ पर हो और उससे ‘नीति’ गायब हो, जब ‘ग्राम स्वराज’ की कल्पना स्थगित कर दी गई हो और देश ‘स्मार्ट सिटी’ के सपने में मुबत्तिला हो, तब गाँधी को याद करने का अर्थ क्या है?
     ‘सत्याग्रह’ के रूप में गाँधी ने सामजिक और राजनीतिक प्रतिरोध का नया औजार भारत को दिया. इस सत्याग्रह के जरिए उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में नयी जान फूँक दी. जो ‘इंडियन नेशनल कांग्रेस’ सिर्फ प्रस्ताव पारित करने वाली जमात थी, उसे गाँधी ने जन आन्दोलन में बदल दिया. उनके ‘सत्याग्रह’ की प्रथम प्रयोगशाला चंपारण है जिसका 2017 शताब्दी वर्ष है.उन्होंने सत्याग्रहियों की एक बड़ी फ़ौज खड़ी की और नए स्वतंत्र भारत का सपना देखा. गाँधी के सपनों का यह भारत वैकल्पिक सभ्यता का भारत था जो अतिशय भोग को नकारता था और अतिशय मशीनीकृत दुनिया के समानांतर श्रम आधारित सभ्यता को महत्त्व देता था.गाँधी ने मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के फर्क को ख़त्म किया और शौचालय की सफाई से लेकर राष्ट्र निर्माण के काम को एक ही समान माना.इस तरह उन्होंने हर तरह के श्रम को नए सिरे से परिभाषित किया और श्रम-विभाजन पर टिकी  भेदभाव कारी वर्ण-व्यवस्था पर चोट की.
     भक्ति साहित्य ने यदि उन्हें मोहनदास करमचंद गाँधी से महात्मा गाँधी बनने में बड़ी भूमिका निभाई तो आधुनिक साहित्य से प्राप्त गहरे संस्कारों ने भी उनके आत्मबल को मजबूत किया. गाँधी जब दांडी मार्च पर जाने को थे और उसकी सफलता को लेकर बहुतों के मन में संदेह था, तब टैगोर ने अपने प्रसिद्ध गीत ‘एकला चलो रे’ पर पोस्टर बनाकर कलकत्ते में लगाया था और गाँधी को इस तरह अपना नैतिक समर्थन दिया था. उस पोस्टर के चित्र नंदलाल बोस ने बनाए थे. वही गाँधी जब 1947 में अपनी जान जोखिम में डालकर दंगाग्रस्त नोआखाली में घूमते हुए लोगों के जख्मों पर मरहम लगा रहे थे, तब उनके साथी ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ के साथ ‘एकला चलो रे’ भी गाते थे. भारतीय राजनीति के सबसे भयावह दौर में जब जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा से वे गुजर रहे थे, तब उनके आत्मबल को बनाए रखने में कविताओं की बड़ी भूमिका रही. यह भारत की आधुनिक राजनीति का साहित्य से जुड़ाव का परिणाम था. इसका असर उस समय की राजनीति पर व्यापक रूप से पड़ा. राजनीति से साहित्य के जुडाव का यह सिलसिला आज़ादी के बाद लगभग दो-ढाई दशक तक कमोबेश चलता रहा. लेकिन उसके बाद से राजनीति यदि संस्कारहीन हुई तो उसका मुख्य कारण उसका साहित्य-संस्कृति के सरोकारों से वंचित होना है .
    
     गाँधी ने सत्याग्रही का ‘अभय’ होना अनिवार्य माना. आज देश में गाँधी के मंत्र अभय की बहुत जरूरत है. चंपारण सत्याग्रह के दौरान गाँधी ने जो अनेक काम किए उनमें सबसे पहला स्थान अभय का है. चंपारण की जनता ‘निलहों’ के अत्याचार से पीड़ित तो थी ही, बहुत डरी हुई भी थी. लोग अत्याचार सहना पसंद करते थे, लेकिन अत्याचार के खिलाफ बोलना नहीं.गाँधी जब गए तब उनके साथ खड़े होने वाले राजकुमार शुक्ल समेत बहुत कम लोग थे. इसका कारण यह था कि जनता में अंग्रेजों का भय व्याप्त था. गाँधी ने वहाँ सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए अभय होकर न्याय के लिए लड़ना सिखाया. गाँधी के विदेशी साथी चार्ली और एंड्रूज जब चंपारण से वापस लौटने लगे तो वहाँ के लोग चाहते थे कि ये चंपारण में ही बने रहें. कारण यह था कि गोरों  की उपस्थिति चंपारण की जनता को मानसिक तोष देती थी कि इनके रहते अंग्रेज गोरे उन पर अत्याचार नहीं करेंगे. गाँधी ने लोगों की यह कमजोरी महसूस की और अपने दोनों साथियों को जाने दिया. गाँधी चाहते थे कि न्याय के रास्ते पर लोग निर्भय होकर चलना सीखे. लोगों ने उनकी यह बात मानी और चंपारण सत्याग्रह में व्यापक जन भागीदारी हुई. गाँधी का यह मंत्र आज भी किसी फासिस्ट कारवाई के विरुद्ध सबसे कारगर हथियार है.
     गाँधी का मानना था कि देश में जो भी नीति बने, उसे बनाते समय ध्यान में रखा जाए कि समाज के सबसे कमजोर आदमी पर उसका क्या असर होगा. राजनीति की जगह गाँधी की यह लोकनीति थी. कहने की जरूरत नहीं कि हमारी वर्त्तमान राजनीति की चिंता के केन्द्र में समाज का वह आखिरी आदमी नहीं है जो गाँधी की लोकनीति में पहला स्थान रखता है. हमारी विकास नीति अब आखिरी व्यक्ति को ध्यान में रखकर नहीं बनती, पूंजीपतियों को ध्यान में रखकर बनती है. इस कारण समाज में सुविधा संपन्न और वंचित तबके के बीच गैर-बराबरी की खाई चौड़ी हुई है. दुखद यह है कि गाँधी की लोकनीति को दरकिनार करके विकास की जो फसल उगाई जा रही है वह गरीबों के हित में नहीं. इस विकासनीति से उपजा हुआ जो मध्यवर्ग है वह समाज चिंता से कटा हुआ मध्यवर्ग है. वह भारतीय नवजागरण की चेतना वाला मध्यवर्ग नहीं है जिसकी चिंता के दायरे में समतामूलक समाज का एजेंडा था. नए वेतनमानों से अघाया हुआ यह मध्यवर्ग आत्मकेंद्रित और लालची मध्यवर्ग है. यही कारण है कि एक तरफ गंडा ताबीज बेचने वाले बाबाओं की देश में बाढ़ आ गई है जिनके ज्यादातर भक्त इसी मध्यवर्गीय समाज से आते हैं. एक कहावत है कि लालचियों के गाँव में ठग कभी भूखे नहीं रहते.  इसका दूसरा पहलू यह है कि इस विकासनीति को चुनौती देने वाले सत्याग्रहियों के साथ जो व्यापक जन भागीदारी होनी चाहिए थी, उसका सर्वथा अभाव है.
     गाँधी ने ‘हिन्द स्वराज’ में कहा था कि यह धरती दुनिया के सभी लोगों की जरूरतें पूरी करने के लिए काफी है, लेकिन एक लालची व्यक्ति के लिए छोटी है. उस पृथ्वी का दोहन जब हम अपनी जरूरत के लिए नहीं, लालच के लिए कर रहे हैं और संकट को आमंत्रित कर रहे हैं, तब जो व्यक्ति सबसे पहले याद आता है वह गाँधी हैं. गाँधी अपने घर की खिड़कियाँ खुली रखना चाहते थे ताकि बाहर की हवा आ सके, लेकिन इतनी नहीं कि बाहर की आँधी उसे उड़ा ले जाए. नयी आर्थिक नीति के समय में हमने सिर्फ खिड़कियाँ ही नहीं बल्कि सारे दरवाजे भी खोल रखे हैं, फल यह है कि बाहर से आई विकास की आँधी हमारी परंपरा और संस्कार समेत घर की सारी वस्तुओं को उड़ाए लिए जा रही है. गाँधी ऐसे समय में बरबस याद आते हैं,और याद आता है उनका स्वदेशी का अभियान.
     गाँधी की कहानी लिखने वाले अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर ने गाँधी और जिन्ना की तुलना करते हुए लिखा है कि गाँधी हर हाल में भारत विभाजन रोकना चाहते थे और जिन्ना हर हाल में पाकिस्तान बनाना चाहते थे. विभाजन के लिए गाँधी अपनी हर कुर्बानी देने को तैयार थे और पाकिस्तान प्राप्त करने के लिए जिन्ना हर तरह की बर्बादी देखने को तैयार थे. फिशर ने इस विडम्बना पर आश्चर्य व्यक्त किया है कि नास्तिक जिन्ना धर्म के आधार पर पाकिस्तान बनाना चाहते थे और धार्मिक गाँधी धर्म निरपेक्ष अविभाजित भारत चाहते थे. दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन्ना जीते और गाँधी अपने मिशन में कामयाब नहीं हुए.धर्म की राजनीति करने वालों को इससे सीखने की जरूरत है.

     गाँधी बुद्धि के साथ अतःकरण पर जोर देने वाले व्यक्ति थे. बुद्धि और अन्तः करण के मेल का अद्भुत समन्वय उनके जीवन में दिखाई देता है. इस अर्थ में वे भक्त कवियों से जुड़ते हैं जिनके यहाँ शब्द और कर्म में कोई द्वैत नहीं है. गाँधी को याद करने का मतलब अपने आचरण और अपने अन्तःकरण को फिर से  टटोलना है. 

Saturday, 16 September 2017

एक जन बुद्धिजीवी के वैचारिक नोट्स

‘समकालीन सोच’ के अग्रलेखों को एक साथ पढ़ना अपने समय-समाज के जरूरी सवालों के सामने खड़ा होना है. राजनीति, भाषा, जाति, धर्म, आधुनिकता, मार्क्सवाद, सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता आदि के प्रश्नों से टकराने के क्रम में लिखे गए इन अग्रलेखों को पढ़ना अपने को वैचारिक रूप से उन्नत करना और बौद्धिक रूप से समृद्ध करना है. भूमंडलीकरण के भारत में पांव पसारने के बाद भारतीय समाज, साहित्य, राजनीति तथा अन्य क्षेत्रों में जो बदलाव आए, उनकी पड़ताल करने का काम जिन पत्रिकाओं ने किया उनमें अग्रणी भूमिका ‘समकालीन सोच’ और उसके अग्रलेखों की भी है. इसलिए इनका एक जगह प्रकाशन आवश्यक था.
          पी.एन. सिंह वैचारिक ऊर्जा मार्क्सवाद से प्राप्त करते हैं. इसी के साथ वे गांधी, अम्बेडकर , लोहिया आदि समाज-चिंतकों को भी सहानुभूति के साथ अपने दृष्ठि-पथ में रखते हैं. देश-दुनिया और अपने आस-पास की सामाजिक-राजनीतिक हलचलों पर भी उनकी नजर रही है. इस कारण उनके चिंतन में खुलापन और गतिशीलता है. वे मार्क्सवाद के कठमुल्लापन से मुक्त मार्क्सवादी समाज-साहित्य के गहरे अध्येता हैं. उनके कथन में ‘पालिटिकली करेक्ट’ होने की चिंता की जगह सच को कहने का साहस है. वह साहस जिसका इधर के वर्षों में अभाव होता गया है. वे समाज की तथ्यगत सच्चाई पर तो नजर रखते ही हैं, समाज की ‘साइकी’ को भी अपने चिंतन के क्रम में समझने की कोशिश करते हैं. इसी के साथ यह भी कहने दीजिए कि वे देश-दुनिया के बड़े-बड़े लेखकों को जहाँ उद्धृत करते हैं, वहीं किसी स्थानीय व्यक्ति के अध्ययन-अनुभव को भी पूरे सम्मान के साथ अपने चिंतन में जगह देते हैं. इन कारणों से उनका चिंतन हमारा अपना लगता है.
          हर समाज को महानायकों की जरूरत होती है. लोग अपनी समस्याओं के निराकरण के लिए किसी ऐसे नायक की खोज करते हैं जो संघर्ष में उनका नेतृत्त्व कर सके. स्वयं नेतृत्त्व न संभाल कर किसी अन्य के नेतृत्त्व में किसी आन्दोलन या क्रांति में भाग लेने का मनोविज्ञान प्रायः सभी देशों और सभी कालों में होता है. हमारे यहाँ तो अवतारवाद के मूल में यह धारणा ही काम करती है कि जब समाज पर संकट के क्षण आते हैं तो भगवान मनुज रूप में धरती पर आते हैं. भारतीय समाज में राम-कृष्ण अवतार लेने वाले महानायक तो हैं ही आगे चलकर अनीश्वरवादी गौतम बुद्ध को भी भगवान का अवतार मान लिया गया. भगवान का दर्जा प्राप्त इन महानायकों के अतिरिक्त मार्क्स, लेनिन, गांधी, माओ आदि को भी महानायकों की श्रेणी में ही रखा जाता है. आखिर ऐसे महानायकों की जरूरत क्या है?
          ‘महानायकों पर कुछ विचार’ शीर्षक अपने अग्रलेख में पी.एन. सिंह ब्रेख्त के नाटक ‘गैलिलियो का जीवन’ से दो संवाद उद्धृत करते हैं. गैलिलियो का एक शिष्य जब कहता है कि ‘वह भूमि दुखी रहती है जिसके पास नायक नहीं होते’ तो गैलिलियो कहता है कि ‘नहीं, उस दुखी भूमि को ही नायकों की आवश्यकता रहती है’. ब्रेख्त के इस कथन के आलोक में पी.एन. सिंह ने महानायकों के स्वरूप, उनकी आवश्यकता और उनकी कोटि पर चिंतन किया है. अपने यहाँ से लेकर दुनिया भर के नायकों को दृष्टिपथ में रखते हुए वे उन्हें नायक, महानायक, महापुरुष आदि कोटियों में रखते हैं. इसी के साथ वे लिखते हैं कि ‘नायकों का भौतिक आकार-प्रकार एवं सांस्कृतिक स्वरूप उनके सन्दर्भ समूहों की राजनीतिक, सामाजिक शक्ति और उनके सांस्कृतिक स्तर पर निर्भर करता है. इसी शक्ति एवं स्तर के बल पर वर्णधर्म के पुजारियों ने राम और कृष्ण को गढ़ा, वर्गधर्म के पुजारियों ने मार्क्स, लेनिन एवं माओ को, राष्ट्रधर्म के पुजारियों ने गांधी को और आज दलित धर्म के पुजारी अम्बेडकर को गढ़ने में लगे हैं. कृतज्ञ पुजारी हमेशा एकांतिकता का (Exclusivism) का शिकार होता है. वह अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ धर्म और अपने नायक को सर्वज्ञ, सर्वगुण संपन्न एवं सर्वश्रेष्ठ बताता है.
नायक से महानायक और महामानव की यात्रा के भी अपने कारण होते हैं. पी.एन. सिंह लिखते हैं कि ‘अगर इतिहास प्रवाह में किसी वर्ग-विशेष का समूह-विशेष की ‘हेजीमनी’ स्थापित होती है तो वह अपने नायक को महानायक बनाता है, उस पर अप्रतीम वीरत्व आरोपित करता है. इसी प्रक्रिया में वह अपने महानायक को भी सुसंगत एवं परिनिष्ठित बनाता है और उसके मानवीय एवं करुणामय रूप को ऊकेर कर उसे सार्वत्रिक एवं सार्वकालीक बताता हुआ महामानव की श्रेणी में ले आता है’. समाज की विकास प्रक्रिया में कभी-कभी ऐसे नायक भी महानायक मान लिए जाते हैं जो कल तक उस समाज में उतने मान्य नहीं थे. ऐसा क्यों होता है? पी.एन. सिंह की राय है कि ‘कभी अपनी ‘हेजीमनी’ को कायम रखने की विवशता में तो कभी अपनी उन्नत सांस्कृतिक समझ के चलते वह अपने देव-लोक में प्रतितीर्थंकरो को भी सम्मान समायोजित करता है और इस प्रकार एक विराट सांस्कृतिक सामाजिक समझौते का प्रारूप गढ़ता है. तुलसी के राम शिव पूजक हैं और शक्ति- पूजक भी. उन पर न शम्बूक की हत्या का अपराध है और न ही गर्भिणी सीता के निष्कासन का. वे शबरी की जूठी बेर खाते हैं और निषादराज को अनुज बताते हैं. नास्तिक और इसीलिए त्याज्य गौतम बुद्ध भी कालान्तर में ‘भगवान बुद्ध’ घोषित हुए और विष्णु के अवतार मान लिए गए. इसी प्रकार ईसाइयों में विधर्मी एवं ‘चुड़ैल’ जॉन ऑफ आर्क को चर्च द्वारा संत की गरिमा प्रदान की गई और अब लूथर कैथोलिकों के बीच भी आदरणीय हैं. समय के साथ नायकों का अर्थ विस्तार होता रहता है और कभी के निन्दित अम्बेडकर  आज विभिन्न कारणों से सर्वाधिक सम्मानित किए जा रहे हैं’. अपने लम्बे विश्लेषण के बाद पी.एन. सिंह उस मनोवृत्ति का विश्लेषण करते हैं जिसमें स्वार्थ प्रेरित समाज अपने नायकों-महानायकों में से किसी की प्रशंसा और किसी का अवमूल्यन करता है. अंत में वे हमारे समय के इस अराजक दौर में उस मनोवृत्ति की चर्चा करते हैं जहाँ महात्मा गांधी को गोली मार दी जाती है. उनका कहना है और ठीक ही कहना है कि आज हमारे पास कोई महानायक नहीं है, यह बौने नेताओं का समय है. वे अपने नेताओं, गांधी, अम्बेडकर ,लोहिया आदि को उचित सम्मान नहीं देते. आज के हालात पर उनकी टिप्पणी है : “संत जॉन की ही तरह गांधी को भी आम जन ने महात्मा और संत माना, वे बुद्धिजीवी जो उनके चमत्कारी व्यक्तित्व को समझ सके उन्होंने यथासंभव अनुगमन किया, मतवादियों ने गालियां दीं, निहित स्वार्थों ने जेल में रखा और धर्मान्धों ने गोली मार दी. आज भी स्थिति कहाँ बेहतर है! बल्कि कुछ अतिरिक्त गिरावट ही आई है. छोटे-छोटे हितों में विभक्त जनता केवल अपने-अपने बौने नेताओं को ही आज सुनने-समझने के लायक बना दी गई है. मानो किसी महानायक के आगमन की पृष्ठभूमि बन रही हो. वह समाज तो हतभाग्य होता ही है जिसे बार-बार महानायकों की आवश्यकता पड़ती है. किन्तु उससे भी अभागा वह समाज होता है जो अपने महापुरुषों को उचित सम्मान देने की तमीज नहीं विकसित कर पाता. आज हम इस दोहरे दुर्भाग्य के शिकार हैं”.
          पी.एन. सिंह जब अपने अग्रलेख लिख रहे थे तब उन्हें भरोसा था कि हिंदूवादी शक्तियां सत्ता में नहीं आएंगी! जब उनके अग्रलेख पुस्तकाकार प्रकाशित होने को हैं तब यूपी और केंद्र दोनों जगह हिंदूवादी शक्तियां ही प्रचंड बहुमत से सत्ता में हैं. उनके भरोसे को इस बीच का राजनीतिक परिवर्तन प्रश्नचिन्ह लगाता-सा लगता है. ‘धार्मिक उन्माद और बुद्धिधर्मी का दायित्व’ शीर्षक अपने अग्रलेख में वे लिखते हैं ‘ आज अचानक धर्मनिरपेक्षतावादी सुरक्षात्मक बना दिए गए हैं और सांप्रदायिक ताकतें आक्रामक बनी हैं. यह विवेक पर नफ़रत के बढ़ते दवाब का सूचक है. कैसा होगा वह भारत जिसमें नफ़रत जीत चुकी होगी और विवेक तथा संयम पराजित हो चुके होंगे!’ जिसकी आशंका उन्हें थी अब वह घटित हो चुका है- विवेक तथा संयम पराजित हो चुके हैं और सांप्रदायिक ताकतें जीत चुकी हैं. क्यों ऐसा हुआ? इसकी गहन पड़ताल करते हुए पी.एन.सिंह मंडलवादी राजनीति, दलित राजनीति के साथ कम्युनिस्ट राजनीति की उन कमजोरियों को रेखांकित करते हैं जिनकी वजह से सांप्रदायिक राजनीति को पैर पसारने का मौका मिला. आज़ादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर अपने अग्रलेख ‘राष्ट्रीय आज़ादी की स्वर्णजयंती’ में वे आज़ादी के सपनों के धीरे-धीरे टूटते जाने की बात करते हैं और यह भी बताते हैं कि वैश्वीकरण ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी है. जाति निरपेक्ष, धर्म निरपेक्ष और आर्थिक-सामजिक समतामूलक समाज बनाने का हमारा सपना टूट रहा है. भ्रष्टाचार का बोलबाला है और आम आदमी परेशान हैं. पी.एन. सिंह इसी अग्रलेख में लिखते हैं: “चारों ओर अराजकता एवं भ्रष्टाचार व्याप्त है और ये दोनों ही गांधीवादी, लोहियावादी, मंडलवादी अथवा अम्बेडकरवादी राजनीति के मुद्दे नहीं हैं. आम लोगों की इहलौकिक नियति से जुड़ा समाजवाद अवमूल्यित है तथा राष्ट्रीय एकता और अखंडता की अनिवार्य शर्त ‘सेक्युलरिज्म’ अत्यंत विवादित. आज ‘सेक्युलर’ राजनीति जातिपरस्त है और राष्ट्रवादी साम्प्रदायपरस्त. इन दोनों में कोई गुणात्मक अंतर नहीं दिखता. विचारधारा का स्थान जातिवाद अथवा क्षेत्रवाद ने और संस्कृति का स्थान साम्प्रदायिकता ने ले लिया है. आरक्षण की साकारात्मक नीति भी आरक्षणवादी राजनीति में विकृत होकर सत्ता हथियाने एवं सामजिक वर्चस्व स्थापित करने का उपकरण बन गई है जिसके फलस्वरूप एक उल्टे किस्म का आक्रामक मनुवाद राजनीतिक एजेंडा है. ‘अगड़ों’, ‘पिछड़ों’, ‘दलितों’, ‘अल्पसंख्यकों’ आदि की राजनीति मूलतः ‘क्रीमीलेयर’ की राजनीति है जिसके चलते अंतिम निरीह व्यक्ति को उतने में ही छीना-झपटी कर लहूलुहान होना है जितना इस ‘क्रीमीलेयर’ के टेबुल से जूठन के रूप में नीचे गिरता है या उस पर छूट जाता है.”
          ऊपर के उद्धरणों से साफ़ है कि पी.एन. सिंह अपने समय के गहरे विश्लेषक हैं. वे असुविधाजनक सवालों से मुंह नहीं चुराते बल्कि अपनी राय दोटूक ढंग से रखते हैं. इधर के वर्षों में बुद्धिजीवियों में असुविधाजनक सवालों से बचने और ‘पॉलिटकली करेक्ट’ होने की प्रवृत्ति खूब बढ़ी है. वे अभिव्यक्ति के खतरे उठाने की बात खूब करते हैं लेकिन खतरे उठाते नहीं देखे जाते. पी.एन. सिंह के लिखे अग्रलेख इस तरह के चतुर-चालाक बुद्धिजीवियों से उलट असुविधाजनक सवालों से तो टकराते ही हैं, अभिव्यक्ति के खतरे भी उठाते हैं और ‘पॉलिटकली करेक्ट’ होने की चिंता से भी पूरी तरह मुक्त होते हैं. भाजपाई राजनीति ने मुसलमानों को अघोषित तरीके से राष्ट्रीय शत्रु घोषित कर रखा है तो मंडलवादी राजनीति ने अगड़ों को. इस पर पी.एन. सिंह की दोटूक राय है कि, “सवर्ण अथवा मुसलमान को राष्ट्रीय शत्रु घोषित करने वाली किसी भी राजनीतिक पहल को बंद गली में प्रविष्ट कर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाना है”.
          पी.एन. सिंह दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, हाशिए के समाज के उत्थान के समर्थक हैं पर उत्तर-आधुनिकता के बहुत से अतिरेकों से वे बचते हैं. कुलमिलाकर वे आधुनिकता के गर्भ से निकले मूल्यों के हिमायती दिखते हैं. उनके लिखे पर नजर डालते हैं: “प्रबोधन युग अर्थात् औद्योगिक युग आधुनिकतावाद का विधायक सोच का अग्रदूत और अलंबरदार था. वह ज्ञान, विज्ञान, तर्क, विवेक, प्रगति, विचारधारा आदि की बात करता था, वह आगे देखू था. 19वीं सदी का हिंदुत्व भी कमोबेश उसका उत्तराधिकारी था. लेकिन उद्योगोत्तर समाज अर्थात् तकनीकी क्रांति वाले समाज का उत्तर-आधुनिकतावादी पीछे देखू है, भावात्मक विवेक की बात करता है और यह मानकर चलता है कि व्यक्ति को तार्किक विवेक दिया ही नहीं जा सकता, वह भावना और अतर्क के पाश में फंसे रहने के लिए अभिशप्त है.”
          पी.एन. सिंह के चिंतन का क्षेत्र बहुत व्यापक है. वे समता, स्वतंत्रता, आरक्षण, जाति, धर्म आदि के सवालों पर खुले मन और प्रगतिशील दृष्टि से विचार करते हैं तो राहुल सांकृत्यायन, भगत सिंह, कॉडवेल और पी.सी. जोशी के भी वैचारिक अवदानों का आकलन करते हैं. गौतम बुद्ध और प्रेमचंद यदि एक साथ उनके लिए विचारणीय हैं तो दलित जागरण से पैदा हुए प्रश्नों पर उनकी नजर है.  कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो की वैचारिक शक्ति और उत्तर औपनिवेशिक दौर में उसकी सीमाओं को रेखांकित करते हुए पी.एन. सिंह कहीं अतिरेक का शिकार नहीं होते. हिंदी-उर्दू विवाद हो या हिंदी प्रदेशों का आर्थिक-सामाजिक पिछड़ापन, राजनीति में नैतिकता के आग्रह का सवाल हो या एक बुद्धिजीवी की समाज-निर्माण में भूमिका का सवाल- पी.एन. सिंह की गहन विश्लेषण-क्षमता देखने लायक होती है. 1990 के बाद के लगभग ढाई दशक के समाज, देश और देश से बाहर के हालात पर हिंदी का कोई बुद्धिजीवी इतने व्यापक स्तर पर टिप्पणी करता रहा हो और अपनी टिप्पणी से झकझोरता रहा हो, वह पी.एन. सिंह के अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं हो सकता. यही दौर है जब ‘हंस’ में लिखे राजेन्द्र यादव के अग्रलेख भी चर्चा में होते थे, लेकिन श्री यादव के अग्रलेखों में दलित विमर्श और स्त्री विमर्श की प्रमुखता होती थी और विमर्शधर्मी आरोप होते थे, वहीं पी.एन. सिंह के अग्रलेखों में वैचारिक खुलापन और दुराग्रहों से मुक्ति दिखती थी. समाज को जागरुक बनाने वाली पी.एन. सिंह की यह बौद्धिक-वैचारिक पहल हिंदी प्रदेश के उन बुद्धिजीवियों की कतार में उन्हें शामिल करती है जो राहुल सांकृत्यायन, हजारी प्रसाद द्विवेदी, भगवतशरण उपाध्याय, रामविलास शर्मा आदि से बनती है. 1990 के बाद लगभग पचीस वर्षों तक उन्होंने हिंदी के वैचारिक माहौल को गर्माए रखने में अपने को होम कर दिया. वे हिंदी से बटोरने वाले नहीं, उसे समृद्ध करने वाले हिंदी के सच्चे पब्लिक इंटेलेक्चुअल हैं.

Saturday, 5 August 2017

उपवास और प्रतिरोध

उपवास प्रतिरोध का सबसे पवित्र और अहिंसक हथियार है| इसे राजनीतिक और सामाजिक प्रतिरोध का साधन महात्मा गाँधी ने बनाया | गाँधी के पहले इसका प्रयोग व्यक्तिगत प्रतिरोध के तौर पर होता था | प्रतिरोध के इस पवित्र, नैतिक और अहिंसक हथियार के जरिए साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में उन्होंने नई जान डाल दी | तब से यह जनता के लिए प्रतिरोध का सबसे कारगर हथियार है |
उपवास प्रतिरोध का ऐसा साधन है जो उपवास करने वाले को तो नैतिक बनाता ही है, जिसके विरुद्ध किया जा रहा है उसे भी नैतिक बनाता है | एक तरह से पक्ष–विपक्ष दोनों को बदलने की ताक़त प्रतिरोध के इस साधन में है | ऐसी ताक़त प्रतिरोध के दूसरे तरीक़ों में शायद ही हो! धरना, प्रदर्शन, आक्रमण आदि भी विरोधी को झुकाने और उसे पराजित करने के साधन रहें हैं, लेकिन उन साधनों में उन्हें भौतिक रूप से पराजित करने पर ज़ोर अधिक है; जबकि उपवास के जरिए विरोधी को भौतिक के साथ आत्मिक रूप सेम मित्र बनाने पर जोर है| किसी अनैतिक व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले उपवास के उद्देश्य को सही ठहराने के पूर्व लोग सौ बार सोचेंगे | इसीलिए प्रतिरोध के रूप में जब कोई व्यक्ति उपवास का प्रयोग करता है तो उसका शत-प्रतिशत नैतिक होना जरुरी है |
उपवास सत्याग्रह का ही दूसरा नाम है | किसी गलत उद्देश्य और आचरण का व्यक्ति इस हथियार का प्रयोग नहीं कर सकता | सत्य के आग्रह के साथ ही उपवास का प्रयोग शोभनीय और नैतिक है | सत्याग्रह को महात्मा गाँधी ने ‘आत्मबल’ का ही समानार्थी माना है, जिसे अंग्रेजी में ‘पैसिव रेसिस्टेंस’ कहते हैं | गाँधी के शब्दों में यह ‘शस्त्र बल’ के उलटा है | इसके आगे सत्याग्रह की और साफ़ व्याख्या करते हुए उन्होंने ‘हिन्द स्वराज’ में लिखा है कि “मुझे जो काम पसंद न हो उसे मैं न करूँ तो मैं सत्याग्रह या आत्मबल से काम लेता हूँ | मिसाल के लिए मान लीजिए सरकार ने एक कानून बनाया जो मुझ पर लागू होता है | वह मुझे पसंद नहीं है | अब अगर मैं सरकार पर हमला करके उसे वह कानून रद्द करने को मजबूर करूँ तो मैंने शस्त्र बल से काम लिया | पर मैं उस क़ानून को मंजूर ही न करूँ और उसे न मानने की जो सजा मिले उसे ख़ुशी से भुगत लूँ तो मैंने आत्मबल से काम लिया अथवा सत्याग्रह किया | सत्याग्रह में अपनी ही बलि देनी पड़ती है” | इसी के साथ गाँधी ने यह भी जोड़ा कि ‘पर बल’ से ‘आत्मबल’ ज्यादा बड़ी चीज है | प्रतिरोध के इसके रास्ते में ‘पर बलि’ है | जबकि सत्याग्रह ‘आत्म-बलि’ पर आधारित है |
सत्याग्रह के रास्ते पर चलने वाले आदमी के स्वाभाव का अनिवार्य हिस्सा विनम्रता होती है | इस रास्ते में बौद्धिक या शारीरिक शक्ति की बजाय आत्मा की शक्ति और आचरण पर जोर दिया जाता है | इसलिए अहंकार के लिए सत्याग्रही के जीवन में कोई जगह नहीं है | प्रतिरोध के दूसरे मार्गों के जो राही है उनमें अपनी शक्ति का, वह चाहे बौद्धिक हो या शारीरिक, अहंकार प्रायः देखने को मिलता है | विनम्रता भयजनित नहीं होती. उसके पीछे सत्याचरण की शक्ति होती है | इसलिए सत्याग्रही में जहाँ अहंकार की जगह विनम्रता होती है, वहीँ वह दयनीयता से मुक्त आत्मविश्वास से भरा होता है |
सत्याग्रही के लिए बलशाली होना या अपने समर्थकों की बड़ी फ़ौज इकट्ठी करना कतई जरुरी नहीं | शरीर से वह कमजोर है या बलवान, वह अकेले है या उसके पास समर्थकों की बड़ी भीड़ है, ये सारे प्रश्न उसके लिए फिजूल है | गाँधी कहते हैं “सत्याग्रह के लिए जिस हिम्मत और मर्दानगी की जरुरत होती है वह तोप-बंदूक का बल रखने वालों के पास हो ही नहीं सकती | सत्याग्रही को फ़ौज खड़ी करने की जरुरत नहीं पड़ती. कुश्ती की कला सीखने की भी जरुरत नहीं होती | उसने अपने मन को वश में किया कि फिर बलराज सिंह की तरह दहाड़ करता है और उसकी गर्जना जो लोग उनके दुश्मन बने बैठे हों, उन्हें कंपा देती है” |
सत्याग्रही के लिए गाँधी लोभ रहित जीवन की वकालत करते हैं. वे सत्याग्रही के लिए गरीबी का जीवन आवश्यक मानते हैं. गरीबी का जीवन से आशय है कम से कम में जीवन यापन करना. वे मानते हैं कि सत्याग्रही के पीछे सत्य का बल काम करता है. इसलिए उसे सत्य की राह कभी नहीं छोड़नी चाहिए.
सत्याग्रही के लिए अभय होना जरुरी है | अभय हुए बिना सत्याग्रही की यात्रा एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकती | गाँधी के शब्दों में “उसे सब प्रकार और सभी बातों में निर्भय होना चाहिए | धन-दौलत, झूठा मान-सम्मान, नेह-नाता, राज दरबार, चोट-मृत्यु सबके भय से मुक्त हो जाए तभी सत्याग्रह का पालन हो सकता है” |
आज़ाद भारत में सत्याग्रह को प्रतिरोध का हथियार जेपी और लोहिया ने बनाया | वे सत्याग्रह को ‘सिविल नाफरमानी’ कहते थे | लोहिया उपवास के पक्ष में नहीं थे, लेकिन सत्याग्रह के जरिए शांतिपूर्ण प्रतिरोध के हिमायती थे | शांतिपूर्ण धरना, मार्च, प्रदर्शन आदि को वे सिविल नाफरमानी कहते थे | उनकी नजर में सिविल नाफरमानी अन्याय के प्रतिकार का सबसे कारगर औजार है | सिविल नाफरमानी की परिभाषा करते हुए उन्होंने कहा है, “सिविल नाफरमानी अथवा अन्याय से शांतिपूर्ण लड़ना अपने आप में एक कर्तव्य है...सिविल नाफरमानी का एक मतलब यह होता है कि विरोधी के दिल से गुस्सा दूर करे, तो इसका मतलब होता है कि जनता के दिल की कमजोरी को दूर करें...अगर सिविल नाफरमानी करने वाले लोगों के काम के नतीजे से हिंदुस्तान के करोड़ों लोगों के दिल से कमजोरी और डरपोकपन दूर हो जाए तो सिविल नाफरमानी कामयाब समझी जाएगी” |
उपवास सिविल नाफरमानी का ही एक तरीका है. इसके जरिए बड़े प्रतिरोध का आधार तैयार होता है, लेकिन सबसे पहले उपवास हमें अभय करता है. अभय होकर हम क्रूर से क्रूर सत्ता की अनीति का विरोध करने का नैतिक साहस हासिल करते हैं. रघुवीर सहाय कहते हैं:
“न टूटे न टूटे तिलिस्म सत्ता का मेरे अन्दर एक
कायर टूटेगा”

इसे पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि सहाय जी लोहिया के प्रतिरोध के औजार सिविल नाफरमानी को ही कविता का सुन्दर बाना पहना रहे थे | जिसके पास न अनुयायियों की बड़ी भीड़ है और न प्रतिरोध को इवेंट बना देने की एनजीओ मार्का तरकीब है, ऐसा हमारा एक साथी जब सरकार की जन विरोधी नीतियों के खिलाफ जंतर-मंतर पर उपवास का रास्ता चुनता है तब वह गाँधी के सत्याग्रह और लोहिया के सिविल नाफरमानी वाले रास्ते पर चलकर नैतिक प्रतिरोध के लिए हमारे सामने एक सगुण उदहारण बन जाता है |

(नर्मदा सरोवर बाँध से विस्थापित लोगों के समुचित पुनर्वास हेतु हमारे समय की महान सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटेकर पिछले दस दिनों से उपवास पर हैं |उनकी हालत ठीक नहीं है|हमारा ध्यान उनकी सेहत और उन कारणों की ओर जाना चाहिए जिनके लिए वे उपवास पर हैं|25 जून से 3 जुलाई 2017 तक हमारे एक समाजवादी साथी प्रेम सिंह ‘मॉब लिंचिन’ के खिलाफ सात दिन उपवास पर थे|प्रतिरोध स्वरुप  अपने इन साथियों के उपवास के समर्थन में लिखी गयी यह टिप्पणी आज 06/08/2017 के 'जनसत्ता' अखबार में प्रकाशित है|) 

Friday, 21 July 2017

प्रेमचंद की नज़र में राष्ट्र


रामविलास शर्मा ने 1936 ई. को इस अर्थ में विशिष्ट माना है कि इस वर्ष तीन ऐसी रचनाएँ प्रकाशित हुईं जिनमें भविष्य के भारत का सपना था। इनमें पहली रचना आधुनिक भारत के निर्माता जवाहर लाल नेहरू की ‘आत्मकथा’ है। दूसरी रचना लोकनायक जयप्रकाश नारायण की समाजवाद ही क्यों?’ (‘why socialism?’) है जबकि तीसरी रचना प्रेमचंद का निबंध महाजनी सभ्यता है। पहली दोनों रचनाएँ पुस्तक रूप में थीं और अंग्रेजी में लिखी गई थीं। ‘आत्मकथा’ सिर्फ नेहरू की निजी कथा न होकर स्वतंत्रता आन्दोलन और स्वतंत्र भारत के आधुनिक जनतांत्रिक सपने की भी कथा है। समाजवाद ही क्यों? भारत में समाजवादी व्यवस्था की आवश्यकता पर जोर देने वाली पहली व्यवस्थित पुस्तक है। नेहरू और जे.पी. प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी, अपने-अपने समय के युवा ह्रदय सम्राट तथा गाँधी के बाद देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता थे। ऐसे महानों की अति प्रसिद्ध पुस्तकों के साथ रामविलास जी ने हिंदी के लेखक प्रेमचंद के एक निबंध को याद किया है तो इसका विशेष अर्थ है| वे ऐसे लेखक थे जिनकी नजर वर्तमान के साथ बेहतर भविष्य पर भी थी। इसलिए यह अकारण नहीं है कि नेहरू और जे.पी. की पुस्तकों के साथ रामविलास शर्मा प्रेमचंद के निबंध का नाम लेते हैं जो उनकी लेखकीय दृष्टि को समझने के खयाल से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। महाजनी सभ्यता यानी पूँजीवादी सभ्यता। पूँजीवाद के पहले सामंतवादी सभ्यता थी। ये दोनों सभ्यताएँ जनता के शोषण और सामजिक भेदभाव पर आधारित थीं। जो सभ्यता शोषण और भेदभाव पर आधारित हो वह प्रेमचंद को किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं थी। उन्होंने उस सभ्यता का स्वागत किया जिसका सूर्य पश्चिम में उग रहा था। निस्संदेह पश्चिम के उस सूर्य से तात्पर्य रूस में स्थापित समाजवादी व्यवस्था से है। प्रेमचंद ने पूँजीवादी सभ्यता की कठोरतम आलोचना करने के बाद लिखा: “परन्तु अब नई सभ्यता का सूर्य सुदूर पश्चिम से उदय हो रहा है जिसने इस नारकीय महाजनवाद या पूँजीवाद की जड़ खोदकर फेंक दी है जिसका मूल सिद्धांत यह है कि प्रत्येक व्यक्ति, जो अपने शरीर या दिमाग से मेहनत करके कुछ पैदा कर सकता है, राज्य और समाज का परम सम्मानित सदस्य हो सकता है और जो दूसरों की मेहनत या बाप-दादों के जोड़े हुए धन पर रईस बना फिरता है वह पतीततम प्राणी है।”1
प्रेमचंद भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के गर्भ से पैदा हुए ऐसे लेखक थे जिसके लिए स्वतंत्रता का अर्थ राजनीतिक मुक्ति के साथ सामजिक और आर्थिक मुक्ति भी है। वे पूँजीवादी व्यवस्था के जितने खिलाफ थे, उतने ही सामंती व्यवस्था के भी। जाति, संप्रदाय और गरीबी के सवाल उनके शब्द-कर्म के जरूरी एजेंडे थे। पुराना क्या है जो अप्रासंगिक हो चुका है और नया क्या है जो प्रासंगिक है, उसकी जितनी साफ़ समझ उनके पास थी, वैसी हिंदी के उनके समकालीन किसी दूसरे लेखक के पास शायद ही हो! वे यदि 1936 में ‘महाजनी सभ्यता’ का क्रीटिक तैयार करते हैं तो इसका कारण यह है कि वे पुराने समय और नए समय में फर्क करना ठीक से जानते हैं। 1919 में प्रकाशित उनके ‘पुराना जमाना: नया जमाना’ शीर्षक निबंध को देखने से पता चलता है कि 1936 में वे जहाँ पहुंचे थे उसकी तैयारी वे बहुत पहले से कर रहे थे। अपने उस निबंध में वे लिखते हैं: ”आने वाला जमाना अब जनता का है, और वह लोग पछताएंगे जो ज़माने के कदम-से-कदम मिलाकर न चलेंगे।”2
ज़माने के कदम-से-कदम मिलाकर चलने की जो सबसे बड़ी कसौटी प्रेमचंद की थी वह थी किसानों की हालत। उनके सारे रचनात्मक और वैचारिक लेख के मूल में किसान जीवन की वास्तविकता और उनकी चिंता सर्वोपरि है। जैसे महात्मा गाँधी के ‘स्वराज’ के केंद्र में गाँव था और गाँव के किसान थे, वैसे ही प्रेमचंद के लेखकीय चिंतन के केंद्र में किसान हैं। ‘पूस की रात’ का हलकू हो या ‘गोदान’ का होरी या उनका वैचारिक लेखन, किसान जीवन की दशा-दुर्दशा और उसका भविष्य उनकी सजग-सचेत नजर से कभी ओझल नहीं होता। ‘पुराना जमाना, नया जमाना’ का एक अंश इस दृष्टि से देखा जा सकता है:  ”क्या यह शर्म की बात नहीं कि जिस देश में नब्बे फीसदी आबादी किसानों की हो उस देश में कोई किसान सभा, कोई किसानों की भलाई का आन्दोलन, कोई खेती का विद्यालय, किसानों की भलाई का कोई व्यवस्थित प्रयत्न न हो... मगर नए ज़माने ने नया पन्ना पलटा है। आने वाला जमाना अब किसानों और मजदूरों का है। दुनिया की रफ़्तार इसका साफ़ सबूत दे रही है। हिंदुस्तान इस हवा से बेअसर नहीं रह सकता। हिमालय की चोटियाँ उसे इस हमले से नहीं बचा सकतीं। जल्द या देर से, शायद जल्द ही, हम जनता को केवल मुखर ही नहीं, अपने अधिकारों की माँग करने वाले के रूप में देखेंगे और तब वह आपकी किस्मतों की मालिक होगी।”3
प्रेमचंद जिस आधुनिक भारत का सपना देख रहे थे वह ऐसा राष्ट्र-राज्य है जिसमें किसान-मजदूर खुद अपनी किस्मत के मालिक होंगे। वे यह तो मानते हैं कि ‘वर्तमान सभ्यता का सबसे अच्छा पहलू राष्ट्रीयता की भावना का जन्म लेना है।’4 लेकिन सच्ची राष्ट्रीयता उनकी नजर में तब तक नहीं आ सकती जब तक कि सामजिक, आर्थिक और शैक्षणिक गैर बराबरी जनता में है। वे कहते हैं: ”आपका आधुनिक शिक्षा से वंचित भाई आपको इस ठाट में देखता है और यह समझता है कि यह आदमी हममें नहीं है, हम उनके नहीं हैं। फिर चाहे आप कितनी बुलंद आवाज से राष्ट्रीयता की हाँक लगाएँ।”5 वे राष्ट्रीयता को आधुनिक सभ्यता का सबसे अच्छा पहलू कहते हैं लेकिन वे यह भी बताते चलते हैं कि ‘जनतांत्रिक’ का समावेश ‘आधुनिक सभ्यता का सबसे प्रधान गुण है।”6 इससे पता चलता है कि प्रेमचंद के लिए जो भविष्य का भारत है उसका ताना-बाना जनतांत्रिकता और आधुनिकता के रेशे से निर्मित है जिसमें किसान-मजदूर अपनी किस्मत के मालिक हैं। लगभग सौ वर्ष पूर्व देखा गया भारतीय राष्ट्र-राज्य का प्रेमचंद का सपना मुहावरे के अर्थ में अब भी सपना है! किसान मजदूर अब भी अपनी किस्मत के मालिक नहीं हैं! हमारी जनतांत्रिक आकांक्षाओं पर अब भी पहरेदारी है! आर्थिक और शैक्षणिक गैर बराबरी की तो बात ही मत पूछिए! “किसानों की हालत और खराब है. गरीबों और अमीरों के बीच खाई और चौड़ी हो चुकी है. समाजवादी दुनिया बिखर चुकी है. ऐसे पूँजीवाद की उनके द्वारा की गई आलोचना का महत्त्व और बढ़ गया है. रामविलास शर्मा ने ठीक ही गणेश शंकर विद्यार्थी के बाद प्रेमचंद को पूँजीवाद का सबसे महत्त्वपूर्ण आलोचक कहा है|7
भारत के राष्ट्री आन्दोलन में प्रेमचंद सदेह शामिल नहीं थे। कुछ लोगों को आश्चर्य हो सकता है कि जनता की मुक्ति की बात करने वाला लेखक जनता के मुक्ति-संघर्ष में सदेह शामिल क्यों नहीं होता? उस ज़माने में हिंदी विभिन्न भारतीय भाषाओं के अनेक लेखक स्वतंत्रता संग्राम में सदेह शामिल थे और उस कारण उन्हें तरह-तरह की यातनाएँ भी झेलनी पड़ीं। ऐसे सभी लेखकों से भारत के मुक्ति-संग्राम को बल मिला। उनके कर्म से भी और उनके शब्द से भी। लेकिन ऐसे भी बहुतेरे लेखक थे जो स्वतंत्रता संग्राम में सदेह शामिल न होकर मनसा-वाचा शामिल थे। नके लिखे से भारतीय राष्ट्र-राज्य का नया रूप बन रहा था। नका एक-एक शब्द हजारों-लाखों को प्रेरित-प्रभावित कर रहा था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ऐसे ही लेखक थे जिनसे भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम को नयी ऊर्जा मिलती थी। प्रेमचंद भी ऐसे ही लेखक थे जो भारतीय समाज और राष्ट्र की मुक्ति के मार्ग में बाधक सभी तत्त्वों से लड़ते रहे। अमृत राय ने ‘कलम का सिपाही’ नाम से उनकी जीवनी लिखी है। सही अर्थों में वे कलम के सिपाही थे। वे कलम से स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने वाले हिंदी के सबसे बड़े लेखक थे।
कलम से जिस तरह जनता और राष्ट्र की मुक्ति की लड़ाई प्रेमचंद लड़ रहे थे, सका सही पता-ठिकाना तभी चलता है जब हम उनके रचनात्मक साहित्य के साथ उनके वैचारिक लेखन को भी देखते हैं। अपने लेखन काल के प्रारंभ से लेकर मृत्यु पर्यंत लगभग तीन दशक का उनका जो वैचारिक लेखन है वह भारत की स्वतंत्रता, स्वावलंबन, आर्थिक-सामजिक गैरबराबरी और विश्व बंधुत्व जैसी अनेक चिंताओं से मुठभेड़ का प्रतिफल है। हम अक्सर उन्हें आर्य समाजी, गाँधीवादी और मार्क्सवादी प्रभावों के सन्दर्भ में देखते-दिखाते हैं। उनके साहित्य पर इनके प्रभाव से किसी को इंकार भी नहीं है। लेकिन उनकी चेतना सबसे अधिक स्वतंत्रता आन्दोलन के मूल्यों से संचालित है। विदेशी दासता से मुक्ति के लिए स्वशासन जरूरी था। लेकिन कैसा स्वशासन? वे सही अर्थों में जनता के शासन के पक्ष में थे और जनता का शासन तब आएगा जब बेजबानों की ताकत जाहिर होने लगेगी। उन्हीं के शब्द देखें...”अब एक फाकाकश मजदूर भी अपनी अहमियत समझने लगा है और धन-दौलत की ड्योढ़ी पर सर झुकाना पसंद नहीं करता। उसे अपने कर्त्तव्य चाहे न मालूम हों लेकिन अपने अधिकारों का पूरा ज्ञान है। वह जानता है कि इस सारे राष्ट्रीय वैभव और प्रभुत्व का कारण मैं हूँ। यह सारा राष्ट्रीय विकास और उन्नति मेरे ही हाथों का करिश्मा है। अब वह मूक संतोष और सर झुकाकर सबकुछ स्वीकार कर लेने में विश्वास नहीं रखता।”8 तो प्रेमचंद इसी मजदूर की हिस्सेदारी स्वशासन में सुनिश्चित करना चाहते थे।
‘स्वदेशी आन्दोलन’ स्वतंत्रता संग्राम का एक बड़ा एजेंडा था। स्वदेशी के बिना भारत राष्ट्र के रूप में खड़ा नहीं हो सकता था। स्वतंत्रता आन्दोलन में महात्मा गाँधी के प्रवेश के बहुत पहले स्वदेशी की माँग जोर-शोर से उठने लगी थी। महात्मा गाँधी के आने के बाद इस आन्दोलन ने और जोर पकड़ा जब वे 1915 में भारत आए। प्रेमचंद 1905 में ‘देशी चीजों का प्रचार कैसे बढ़ सकता है’9  शीर्षक निबंध लिखकर घरेलू उद्योग-धंधों के विकास और उनकी मार्केटिंग के मार्ग में आने वाली बाधाओं की चिंता करते हैं। वे उसी वर्ष ‘स्वदेशी आन्दोलन’ की वकालत करते हैं और उसे ‘देशभक्तिपूर्ण आन्दोलन’10 की संज्ञा देते हैं। ‘स्वराज से किसका अहित होगा?’ (1930) शीर्षक अपने निबंध में वे निर्भय होकर इस संग्राम में सम्मिलित होने की मांग करते हैं। 1931 में ‘देश की वर्त्तमान परिस्थिति’ की चर्चा करते हुए वे किसानों से अपील करते हैं कि ‘महात्मा जी के मार्ग’ से यदि वे हटे तो उन्हें पछताना पड़ेगा। ‘स्वदेशी आन्दोलन’ का जबर्दस्त समर्थन करने के साथ प्रेमचंद भारत और पूरी दुनिया में गोरी जातियों की सभ्यता के अन्यायपूर्ण आचरण और दमन-शोषण की आलोचना करते हैं और उके पाखंड पर चोट करते हैं। ‘गोरी जातियों का प्रभाव क्यों कम है’ (1931) शीर्षक निबंध में वे लिखते हैं कि “...गोरों ने आदि से ही प्रेम के बल पर नहीं, आतंक के बल पर संसार पर प्रभुत्व जमाया है। वह कालों की नज़रों से अपने ऐबों को छिपाकर अपनी नीतिमता की साख बिठाये थे|”11 अंग्रेजों की अन्यायपूर्ण नीति और गरीब जनता को टैक्स के जरिए लूटने की उकी आदत के कारण प्रेमचंद को ‘स्वराज की कामना’ का भारतीय जन में जन्म लेना स्वाभाविक जान पड़ता है।
      प्रेमचंद के लिए राष्ट्र का अर्थ सिर्फ कोई निश्चित भू-भाग ही नहीं, उसके आगे भी बहुत कुछ है। उनके लिए राष्ट्र का अर्थ सबसे पहले उस भू-भाग की शोषित, पीड़ित जनता है। ‘नवयुग’ (1932) शीर्षक अपने एक निबंध में राष्ट्र और राष्ट्रीयता की ओर संकेत करते हुए वे लिखते हैं: “राष्ट्र केवल एक मानसिक प्रवृत्ति है। जब यह प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है तो किसी प्रांत या देश के निवासियों में भ्रातृभाव जागरित हो जाता है। तब उनमें रुढियों से पैदा होने वाले भेद, पुराने संस्कारों से उत्पन्न होनेवाली विभिन्नताएँ और ऐतिहासिक तथा धार्मिक विषमताएँ, एक प्रकार से मिट जाती हैं।”12 जब तक ‘विविधताएँ’ और ‘विषमताएँ’ किसी राष्ट्र में मौजूद हैं तब तक वह सही अर्थों में राष्ट्र नहीं है। जनता का जिस तरह शोषण है, गरीबी का जैसा साम्राज्य है, गाँवों की जो हालत है, उस पर वे ‘दमन की सीमा’ (1932) शीर्षक निबंध में गंभीर और तल्ख़ टिप्पणी करते हैं। ब्रिटिश सरकार, प्रशासन और जमींदारों को कठघरे में खड़ा करते हुए कहते हैं: “देहात से, सुधार और सहयोग और शिक्षा और स्वास्थ्य और सभी आयोजनाएँ, जिनसे राष्ट्र बनता है, जिनसे उसका विकास होता है, लापता हैं।”13 इसीलिए औरों के लिए राष्ट्र और राष्ट्रीयता का जो भी अर्थ हो, प्रेमचंद के लिए उसका ठेठ भारतीय अर्थ है। उनकी दो टूक राय है,  “राष्ट्रीयता की पहली शर्त वर्ण-व्यवस्था, ऊँच-नीच के भेदभाव और धार्मिक पाखण्ड की जड़ खोदना है।”14
      जाति भेद की समस्या को भारतीय राष्ट्रीयता की केन्द्रीय समस्या मानते हुए ऐसे लोगों पर प्रेमचंद जोरदार हमला करते हैं जो जाति की श्रेष्ठता और धार्मिक विद्वेष की भावना से भरे हुए हैं। राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद के नकली प्रवक्ताओं को ‘क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं?’ (1934) शीर्षक निबंध लिखकर वे कठघरे में खड़ा करते हैं। वे लिखते हैं: “हम अभी तक केवल मुँह से राष्ट्र-राष्ट्र का गुल मचाते हैं, हमारे दिलों में अभी वही जाति भेद अन्धकार छुपा हुआ है। और यह कौन नहीं जानता कि जाति भेद और राष्ट्रीयता दोनों में अमृत और विष का अंतर है।”15 इसलिए जो पुजारी, पुरोहित और पंडे जातिभेद करते हैं उन्हें वे ‘टके पंथी’ और हिन्दू जाति का कलंक कहकर संबोधित करते हैं।
      भारत का विशाल भू-भाग, शस्य श्यामला धरती और यहां की पुरानी अच्छी बातें उन्हें भाती हैं। इस अर्थ में वे सच्चे देश-प्रेमी हैं। इसलिए वे औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति की बात जोरदार ढंग से उठाते हैं। काँग्रेस और महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चलने वाले राष्ट्रीय आन्दोलन की जोरदार वकालत करते हैं। इस विषय पर लिखते हुए उनका राष्ट्रवादी रुझान और उनकी राष्ट्रीयता पूरी बुलंदी पर है। इसलिए ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ जैसी भावना प्रधान देशभक्तिपूर्ण कहानी हो या ‘कर्मभूमि’ जैसा स्वाधीनता संग्राम के झंझावतों से भरा उपन्यास, ‘देशी चीजों का प्रसार कैसे बढ़ सकता है’ (1905) और ‘स्वदेशी आन्दोलन’ (1905) जैसे प्रारम्भिक वैचारिक लेख हों या आर्य समाज, गाँधीवाद और मार्क्सवाद जैसी विचारधाराओं के प्रभाव से गुजरने के बाद अंतिम दिनों के लेख, प्रेमचंद साम्राज्यवाद से भारत की मुक्ति के हमेशा पक्षधर हैं। लेकिन मुक्ति से प्रेरित उनकी राष्ट्रीयता सिर्फ कुछ प्रतीकों तक सीमित नहीं है। वे सिर्फ अपनी सरकार बन जाने से संतुष्ट होने वाले राष्ट्रप्रेमी नहीं हैं। राष्ट्र, जो मेहनतकश जनता से बनता है, वे उस राष्ट्र की मुक्ति के पक्षधर हैं। इसलिए ऐसे राष्ट्रवादियों को जिनके एजेंडे में भेदभाव मिटाना नहीं है, फटकार लगाते हुए वे कहते हैं “राष्ट्रीयता की पहली शर्त है, साम्य का दृढ होना। इसके बिना राष्ट्रीयता की कल्पना ही नहीं की जा सकती।”16  
      सच्ची राष्ट्रीयता का विकास कब होगा? जब समतामूलक समाज बनेगा, जब जाति भेद न होगा। प्रेमचंद हिंदी के इस अर्थ में अकेले लेखक हैं जो जीवन भर जातिप्रथा का विरोध करते रहे। उनका सारा साहित्य जातिप्रथा के विरुद्ध सतत संघर्ष का साहित्य है। सामजिक समता के लिए संघर्ष करते हुए वे कभी आर्थिक गैर बराबरी को नहीं भूलते। इसीलिए वे स्वराज्य के साथ-साथ आर्थिक स्वराज्य का प्रश्न उठाते हैं। अपनी एक टिप्पणी ‘आर्थिक स्वराज्य’ (1933) में वे आर्थिक और राजनैतिक स्वराज्य दोनों को एक-दूसरे का पूरक मानते हुए दिखाई देते हैं। उसी वर्ष की अपनी एक दूसरी टिप्पणी ‘अविश्वास’ में वे यही बात और साफ़ तरीके से कहते हुए दिखाई देते हैं। वे लिखते हैं “अधिकांश भारतीय स्वराज्य इसलिए नहीं चाहते कि अपने देश के शासन में उनकी आवाज ही पहले सुनी जावे, पर स्वराज्य का अर्थ उनके लिए आर्थिक स्वराज्य होता है। अपने प्राकृतिक साधनों पर अपना अधिकार, अपनी प्राकृतिक उपजों पर अपना नियंत्रण, अपनी वस्तुओं का स्वच्छंद उपभोग और अपनी पैदावार पर अपनी इच्छानुसार मूल्य लेने का स्वत्व- यही उनकी सबसे बड़ी, सबसे पहली, सबसे उत्कृष्ट माँग है। यह माँग स्वराज्य का अंग नहीं, स्वराज इसी माँग का अंग है।”17 इस तरह प्रेमचंद का स्वराज्य, उनके भारत का सपना, आर्थिक आत्मनिर्भरता से अलग नहीं था। भारत में आज भी किसानों-मजदूरों और आदिवासियों की आर्थिक पर निर्भरता, उनके अपने ही साधनों पर अपने अधिकार न होने पर हिंदी के कितने लेखक चिंतित दिखाई देते हैं? प्रेमचंद स्वराज्य के साधन के रूप में सबसे पहला स्थान इसीलिए ‘स्वावलंबन’ को देते हैं।18    
यह सही है कि प्रेमचंद भारत के लिए जिस स्वराज्य का स्वप्न देखते थे, वह ‘आर्थिक स्वराज्य’ से भिन्न न था। लेकिन वे उसके आगे सोशलिज्म का समर्थन करते हुए भी देखे जाते हैं। अपनी एक टिप्पणी ‘रूस में समाचार पत्रों की उन्नति’ (1933)  में जहाँ वे सोवियत संघ की प्रशंसा करते हैं, वहीँ वे भारत के नेताओं में जवाहरलाल नेहरू की उनके समाजवादी विचारों के लिए खुलकर तारीफ़ करते हैं। नेहरू के एक व्याख्यान की चर्चा करते हुए लिखते हैं, जैसे नेहरू उनके ही मन की बात कह रहे हों। प्रेमचंद के शब्द हैं, “श्री जवाहर लाल नेहरू ने अपने व्याख्यानों में वैज्ञानिक साम्यवाद (साइंटिफिक सोशलिज्म) शब्द का प्रयोग किया। आपका अभिप्राय यह था कि वर्तमान समाज में मनुष्य-मनुष्य में जो भीषण असमानता है, वह दूर हो। यह ठीक नहीं है कि एक मनुष्य के पास अथाह धन भरा पड़ा हो और दूसरा मनुष्य भूखा मरता हो। समाज का इस प्रकार संगठन होना चाहिए जिससे कोई मनुष्य भूखा न रहने पावे, सबको पर्याप्त अन्न और वस्त्र मिले और सबको उन्नति करने का समान अवसर हो।”19 1930 के दशक में जवाहर लाल नेहरू की जो छवि जनता में थी वह प्रेमचंद के उक्त कथन में दिखती है।
      प्रेमचंद की राष्ट्रीय भावना कभी अंध-राष्ट्रवाद का रूप ग्रहण नहीं करती। वे अपने राष्ट्र से प्रेम तो करते हैं, पर विश्वबंधुत्व की भावना को तिलांजलि देकर नहीं। वे राष्ट्रीय आन्दोलन के समर्थक हैं, लेकिन उस अंध-राष्ट्रवाद के समर्थक नहीं हैं जो विश्वबंधुत्व का शत्रु है। इसीलिए वे अंध-राष्ट्रवाद की आलोचना करते हैं और अंतरराष्ट्रीयता को भारत के पुरातन सन्देश ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ से जोड़कर देखते हैं। राष्ट्र की सेवा, उसकी स्वतंत्रता आदि सवालों को वे राष्ट्री भावना के अंतर्गत रखते हैं, लेकिन जब हमारा राष्ट्रीय हित पड़ोसी मुल्क के हित के खिलाफ हो जाए, दूसरे देशों के अस्तित्व के लिए खतरा हो जाए तो वह अंध-राष्ट्रवाद में बदल जाता है। प्रेमचंद ऐसी अन्ध-राष्ट्रीयता के विरोध में हैं। अपनी एक टिप्पणी ‘राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता’ (1933) में वे अंध-राष्ट्रीयता की तुलना मध्ययुगीन साम्प्रदायिकता से करते हैं। वे लिखते हैं: “राष्ट्रीयता वर्त्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह मध्यकालीन युग का कोढ़ साम्प्रदायिकता थी। नतीजा दोनों का एक है। साम्प्रदायिकता अपने घेरे के अन्दर पूर्ण शांति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थी, मगर उस घेरे के बाहर जो संसार था उसको नोचने-खसोटने में उसे जरा भी मानसिक क्लेश न होता था। राष्ट्रीयता भी अपने अपरिमित क्षेत्र के अन्दर रामराज्य का आयोजन करती है। उस क्षेत्र के बाहर का संसार उसका शत्रु है। सारा संसार ऐसे ही राष्ट्रों या गिरोहों में बंटा हुआ है और सभी एक-दूसरे को हिंसात्मक संदेह की दृष्टि से देखते हैं और जब तक इसका अंत न होगा संसार में शांति का होना असंभव है। जागरुक आत्माएँ संसार में अंतरराष्ट्रीयता का प्रचार करना चाहती है और कर रही हैं। लेकिन राष्ट्रीयता के बंधन में जकड़ा हुआ संसार उन्हें ड्रीमर या शेखचिल्ली समझकर उनकी उपेक्षा करता है।”20 उसके आगे वे लिखते हैं: “इसमें तो कोई संदेह नहीं कि अंतरराष्ट्रीयता मानव संस्कृति और जीवन का बहुत ऊँचा आदर्श है और आदि से संसार के विचारकों ने इसी आदर्श का प्रतिपादन किया है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ इसी आदर्श का परिचायक है।”
      अंतरराष्ट्रीयता के सम्बन्ध में प्रेमचंद की यह धारणा अचानक नहीं बनती है। देश में जो स्वाधीनता संघर्ष चल रहा था उसका लक्ष्य निश्चित रूप से स्वतंत्रता की प्राप्ति था। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारतवासियों में राष्ट्रीय भावना का जागरण आवश्यक था। किन्तु हमारे राष्ट्र नायकों ने दूसरे राष्ट्रों की कीमत पर अपने राष्ट्र की मुक्ति और उन्नति की कामना नहीं की। उसका प्रभाव भारतीय साहित्य और हिंदी साहित्य पर भी पड़ा। हिंदी साहित्य की चेतना स्वस्थ राष्ट्रीयता के साथ उदार अंतरराष्ट्रीयता से निर्मित हुई। प्रेमचंद की राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता उसी चेतना की उपज है। इस सम्बन्ध में प्रेमचंद के पूर्ववर्ती महावीर प्रसाद द्विवेदी के भी विचारों को देखना उचित होगा। राष्ट्र-प्रेम जब संकुचित होकर दूसरे देश के विरोध में चला जाए, इसको द्विवेदी जी ‘धूर्तों के भयंकर ढोंग’ के अंतर्गत रखते हुए अंतरराष्ट्रीयता को प्रमुखता से रेखांकित करते हैं और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के प्राचीन भारतीय आदर्श को आधुनिक सन्दर्भ में प्रासंगिक बताते हैं।21 द्विवेदी जी ने ठीक ही इस सम्बन्ध में रवीन्द्रनाथ ठाकुर को भी याद किया है जिनका चिंतन राष्ट्रीयता के साथ अंतरराष्ट्रीयता के विचारों को पुष्ट करता है। द्विवेदी जी अंधराष्ट्रीयता को यूरोप की देन मानते हैं और इसे भारत की स्वाभाविक वृत्ति नहीं मानते। कहने की जरुरत नहीं कि प्रेमचंद उसी धारा से निकले हिंदी चेतना के मुखर स्वर हैं।
      एक तरफ काँग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन चल रहा था तो दूसरी तरफ मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की सांप्रदायिक राजनीति थी। प्रेमचंद लीग और सभा दोनों की सांप्रदायिक राजनीति का विरोध करते हैं और कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाले मुक्ति संघर्ष के पक्ष में खड़े रहते हैं। साम्प्रदायिकता को वे राष्ट्रीयता का शत्रु मानते हैं और सभी सम्प्रदायों के बीच मेल मुहब्बत का माहौल बनाने में अपनी सारी लेखकीय ऊर्जा झोंक देते हैं। वे धर्म के आधार पर आधुनिक राष्ट्र-राज्य की कल्पना के विरुद्ध हैं। अपनी एक टिप्पणी ‘पाकिस्तान की नयी उपज’ (1933) में वे न सिर्फ मुहम्मद इकबाल के धर्म के आधार पर पाकिस्तान के निर्माण संबंधी प्रस्ताव का विरोध करते हैं, बल्कि यह भी कहना नहीं भूलते कि धर्म राष्ट्र निर्माण का आधार नहीं हो सकता।”22 वे धर्म के ऊँचे भावों का सम्मान करते  हैं, उसे जीवन में उतारने की बात करते भी हैं, लेकिन उसके संकीर्ण अर्थ का हमेशा विरोध करते हैं।
      सांप्रदायिक ढंगों पर, हिन्दू-मुस्लिम समस्याओं पर उन्होंने जितनी अधिक मात्रा में जोरदार टिप्पणियाँ लिखी है, उतनी और वैसी हिन्दी के किसी दूसरे लेखक ने शायद ही लिखी हों। सांप्रदायिकता को विष समझनेवाले प्रेमचंद सांप्रदायिक राजनीति के पीछे की उस चतुराई को भी बेनकाब करते हैं जो संस्कृति का रूप धारण कर तरह-तरह से राष्ट्रीय जीवन में जहर घोलने का काम करती है। सांप्रदायिकता और संस्कृति(1934) नामक अपने प्रसिद्ध निबंध में उन्होंने साफ शब्दों में कहा है: “सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रौब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति मगर हम आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोए चले जाते हैं।“23 सांप्रदायिकता, अंधविश्वास आदि की आलोचना करते हुए वे आगे लिखते हैं: “ये जमाना सांप्रदायिक अभ्युदय का नहीं है। ये आर्थिक युग है और आज वही नीति सफल होगी जिससे जनता अपनी आर्थिक समस्याओं को हल कर सके, जिससे ये अंधविश्वास और ये धर्म के नाम पर किया गया पाखंड या नीति के नाम पर गरीबों को दुहने की कथा मिटाई जा सके।”24
       प्रेमचंद का एक प्रसिद्ध वाक्य कहावत की तरह हिंदी समाज में लोगों की जुबान पर है, जो उनकी कहानी आहुति का है: “ऐसे स्वराज का आना व्यर्थ है जिसमें जॉन की जगह गोविंद गद्दी पर बैठ जाए।” इसीलिए ठीक ही रामविलास शर्मा ने उन्हें ‘स्वाधीनता-संग्राम के सैनिक साहित्यकार’25 के रूप में याद किया है|उनके मन में स्वराज और राष्ट्र का जो चित्र था वह बहुत साफ था। वे सिर्फ पात्र परिवर्तन के नहीं, व्यवस्था परिवर्तन के हिमायती थे। वे जाति-भेद के सवाल पर अम्बेडकर की तरह, संप्रदाय-भेद पर गाँधी की तरह और अमीरी-गरीबी के सवाल पर एक समाजवादी की तरह सोचते थे। जीवन, समाज और राष्ट्र के इतने व्यापक धरातल को छूने वाले वे हिंदी के सबसे बड़े लेखक थे। गाँधी के नेतृत्व में काँग्रेस ने प्रस्ताव पारित कर स्वराज के जिस रूप का संकल्प लिया था, उस पर प्रेमचंद ने अपनी एक टिप्पणी काँग्रेस (1931) में लिखा: “अब काँग्रेस का ध्येय राष्ट्र के सामने है। वह गरीबों की संस्था है, गरीबों के हितों की रक्षा उसका प्रधान कर्तव्य है। उसके विधान में मजदूरों, किसानों और गरीबों के लिए वही स्थान है जो अन्य लोगों के लिए। वर्ग, जाति, वर्ण आदि के भेदों को उसने एकदम मिटा दिया है।”26 प्रेमचंद की नजर में स्वराज्य के लिए लड़ने वाली काँग्रेस का यही रूप था! अफसोस यह है कि यह देखने के लिए वे जीवित न रहे ! स्वराज्य तो आया किन्तु भारत वैसा राष्ट्र-राज्य नहीं बन सका जिसका वे सपना देखते थे|
संदर्भ सूची:
1.     Anavaratblogspot.in
2.       विविध प्रसंग; भाग-1, पृष्ठ- 269
3.       वही, पृष्ठ- 268
4.       वही, पृष्ठ- 259
5.       वही
6.       वही
7.       भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद, पृष्ठ- 275
8.       वही, पृष्ठ- 264
9.       वही, पृष्ठ- 15
10.   वही, पृष्ठ- 20
11.   विविध प्रसंग; भाग-2, पृष्ठ- 77-78
12.   वही, पृष्ठ- 98
13.   वही, पृष्ठ- 92
14.   वही, पृष्ठ- 476
15.   वही, पृष्ठ- 470
16.   वही, पृष्ठ- 471
17.   वही, पृष्ठ- 152
18.   वही, पृष्ठ- 272
19.   वही, पृष्ठ- 222
20.   वही, पृष्ठ- 334
21.   महावीर प्रसाद द्विवेदी रचना संचयन; संपादक: भरत यायावर, समस्या शीर्षक निबंध।
22.   विविध प्रसंग; भाग-2, पृष्ठ- 409-10
23.    Krantiswarblogspot.in
24.   वही
25.   प्रेमचंद और उनका युग ,पृष्ठ -122
26.   वि.प्र.,भाग-2, पृष्ठ-75