Tuesday, 19 July 2016

भक्ति-आन्दोलन और मुक्तिबोध

कवि-आलोचकों में मुक्तिबोध का विशेष महत्व है | वे न सिर्फ नई कविता के शीर्ष कवि हैं बल्कि शीर्ष सिद्धांतकार और व्याख्याकार भी हैं | नई कविता की आधार भूमि को उनके बिना नहीं समझा जा सकता | वे नई कविता के सिद्धांत और व्यवहार दोनों हैं | इस तरह वे नई कविता आन्दोलन के सबसे प्रखर व्यक्तित्व हैं | उनकी प्रखरता में जितना योग उनकी कविता का है, उससे कम उनकी आलोचना का नहीं है | आलोचक के रूप में उन्होंने साहित्य के जिस पक्ष या रचनाकार पर लिखा, अपने वैशिष्ट्य के कारण वह सबके विचार का केंद्र बना |लेकिन उन्होंने कुछ ऐसी भी आलोचना लिखी जो हमेशा विवादों में रही और जिनसे बहुत लोगों की असहमतियां हमेशा बनी रहीं| इसका सबसे सुन्दर उदाहरण ‘मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन का एक पहलू’ शीर्षक उनका लेख है, जो भक्ति-विषयक उनकी एकमात्र रचना है | एकमात्र होने के बावजूद इस लेख का ऐतिहासिक महत्व है | इसके जरिए जब-तब सगुण भक्ति , तुलसी दास, रामचंद्र शुक्ल, रामविलास शर्मा आदि पर वैचारिक गोले  दागे जाते रहे हैं | शुक्ल जी और रामविलास जी की भक्ति-विषयक धारणा पर प्रहार के लिए कभी कुछ प्रगतिशीलों द्वारा और बाद में  दलित लेखकों द्वारा इस लेख को आधार बनाया जाता रहा है और अब  भी बनाया जाता है |
1955 ई. में लिखे इस लेख के निष्कर्ष के रूप में निम्न बिन्दुओं को चिह्नित किया जा सकता है :
1.    कबीर तुलसीदास की तुलना में आधुनिक लगते हैं |
2.    भक्ति साहित्य का ठीक-ठीक विश्लेषण तब तक नहीं हो सकता जब तक हम उस युग की मूल गतिमान सामाजिक शक्तियों से बनने वाले सांस्कृतिक इतिहास को ठीक-ठीक न जान लें |
3.    भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास के सुसंबद्ध इतिहास के लिए आवश्यक सामग्री का बड़ा अभाव है | 
4.    निर्गुण मत के विरुद्ध सगुण मत का संघर्ष निम्न वर्गों के विरुद्ध उच्चवंशीय संस्कारशील अभिरुचि वालों का संघर्ष था | 
5.    दार्शनिक क्षेत्र का निर्गुण मत जब व्यावहारिक रूप से ज्ञानमार्गी भक्तिमार्ग बना, तो उसमें पुराण-मतवाद को स्थान नहीं था | कृष्णभक्ति के द्वारा पौराणिक कथाएँ घुसीं, पुराणों ने रामभक्ति के रूप में आगे चलकर वर्णाश्रम धर्म की पुनर्विजय की घोषणा की | 
6.    पं. रामचंद्र शुक्ल जो निर्गुण मत को कोसते हैं, वह यों ही नहीं | इसके पीछे उनकी सारी पुराण- मतवादी चेतना बोलती है |  
7.    रामभक्ति शाखा के अंतर्गत एक भी प्रभावशाली और महत्वपूर्ण कवि निम्नजातीय शूद्र वर्गों से नहीं आया | 
8.    जो भक्ति आन्दोलन जन साधारण से शुरू हुआ और जिसमें सामाजिक कट्टरपन के विरुद्ध जन साधारण की आशा-आकांक्षाएँ बोलती थीं, उसका ‘मनुष्य सत्य’ बोलता था, उसी भक्ति आन्दोलन को उच्चवर्गियों  ने आगे चलकर अपनी तरह बना लिया, और उससे समझौता करके, फिर उसपर अपना प्रभाव कायम करके, और अनंतर जनता के अपने तत्वों को उनमें से निकालकर, उन्होंने उस पर पूरा प्रभुत्व स्थापित कर लिया |
भक्ति आन्दोलन को निर्गुण और सगुण धारा में बाँटकर देखने वाली यह दृष्टि दोनों को परस्पर विरोधी धारा मानकर चलती है |इसके अनुसार निर्गुण धारा में प्रगतिशीलता और आधुनिकता के तत्व हैं तथा सगुण धारा सवर्णवादी और प्रतिगामी है |इसके पहले  रामचंद्र शुक्ल ने भी ऐसा विभाजन किया था , जिसमें सगुण धारा लोक कल्याणकारी थी  और निर्गुण धारा लोक-मर्यादा की विरोधी | हजारी प्रसाद द्विवेदी निर्गुण मत और कबीर के सामाजिक पक्ष का उद्घाटन बड़े जोरदार ढंग से करते हैं पर वे भक्ति आन्दोलन की केन्द्रीय धुरी ‘प्रेम’ को ही मानते हैं |रामविलास शर्मा निर्गुण मत की अपेक्षा सगुण भक्ति धारा को अधिक महत्व देते हैं पर वे निर्गुण-सगुण विवाद को व्यर्थ मानते हैं और उनका भी जोर ‘प्रेम’ पर है | उनके अनुसार कबीर, सूर, तुलसी सभी प्रेममार्गी हैं |
मुक्तिबोध के सामने यह प्रश्न है कि कबीर तुलसी की तुलना में अधिक आधुनिक क्यों लगते हैं ?आधुनिक होने का अर्थ यहाँ मुक्तिबोध के लिए वर्णव्यवस्था और मंदिर-मस्जिद का विरोध है जो समतामूलक समाज की रचना में बाधक हैं | इसके विपरीत तुलसीदास के यहाँ वर्णव्यवस्था का समर्थन है, वेद-पुराण समर्थित धर्म का समर्थन है जो वर्ण व्यवस्था का मूल आधार है | यदि आधुनिकता को वर्णव्यवस्था विरोध तथा समर्थन तक ही सीमित माना जाए तो कबीर तुलसी की तुलना में जरूर आधुनिक हैं, लेकिन आधुनिकता का अर्थ स्त्री-पुरुष समानता भी है तो इस अर्थ में कबीर आधुनिक नहीं हैं | कुंडलिनी, इंगला, पिंगला, सुषुम्ना आदि भी कबीर की  आधुनिकता की राह के रोड़े हैं, जिनकी उनके साहित्य में भरमार है | असल में आधुनिकता की आज की कसौटी पर जब आधुनिक युग-पूर्व के किसी भी कवि-लेखक को देखेंगे तो उसके अंतर्विरोध सामने आएँगे ही | तुलसी के रामराज्य में यदि एक ओर वर्णव्यवस्था अपने आदर्श रूप में कायम है तो दूसरी ओर ऐसा बहुत कुछ है जो समाज में समता का सूचक है | उस रामराज्य में कोई दीन-दुखी नहीं है, सभी लोग परस्पर प्रीति करते हैं, स्त्रियाँ यदि पतियों का सम्मान करती हैं तो पति भी एक पत्नी व्रती हैं, कहीं कोई भेद नहीं है- भेद है भी तो सिर्फ संगीत में - राग-रागिनियों के भेद के अर्थ में – मानो वर्ग-विहीन समाज हो | इस अर्थ में तुलसी आधुनिक लगते हैं, लेकिन वर्ण व्यवस्था के समर्थक के रूप में नहीं लगते | कबीर भी एक अर्थ में आधुनिक हैं तो दूसरे अर्थ में मध्यकालीन |
आधुनिकता की जिस तुला पर मुक्तिबोध कबीर और तुलसी को तोलते हैं और आधुनिकता के पक्ष में कबीर का पलड़ा झुकाते हैं, वह तुलसी के सन्दर्भ में आधुनिक युग के कई साक्ष्यों के मेल में नहीं है | कहा जाता है कि मॉरीशस, फ़िजी आदि देशों में जब गिरमिटिया मजदूर ले जाए गए तो वे अपने साथ ‘रामचरितमानस’ की प्रति भी लेकर गए थे | विपरीत परिस्थितियों में उस काव्य-ग्रंथ ने उन्हें जीने का संबल दिया|वहाँ जाकर देखने पर तथा उन देशों के भारतवंशी लोगों से बात करने पर आज भी यह तथ्य सहज ढंग से सामने आता है | जो भारतवंशी वहाँ गए, उनमें  ज्यादातर पिछड़ी जाति के थे | वे अपने साथ ‘रामचरितमानस’ की ही प्रति लेकर क्यों गए थे ?इसलिए कि दुखमय जीवन को संभालने की शक्ति उस काव्य ग्रन्थ ने उन्हें दी| राममनोहर लोहिया ने ठीक ही लिखा है: “तुलसी एक रक्षक कवि थे|जब चारों तरफ से अझेल हमले हों,तो बचाना,थामना,टेक देना,शायद ही तुलसी से बढ़कर कोई कर सकता है|” 1  जीवन-संघर्ष में लाखों-करोड़ों लोगों को जीवन जीने की ताकत जो ग्रन्थ देता है, उसे गैर आधुनिक मानने का अर्थ है आधुनिकता को कुछ बिन्दुओं तक सीमित कर देना |स्त्री-पुरुष में समानता आधुनिक होने का बड़ा आधार है|लोहिया इस आधार की मजबूती पर बल देते हैं|तुलसीदास की स्त्री-दृष्टि पर बात करते हुए वे कहते हैं: “... नारी स्वतंत्रता और समानता की जितनी जानदार कविता मैंने तुलसी की पढ़ी और सुनी उतनी और कहीं नहीं,कम से कम इससे ज्यादा जानदार कहीं नहीं| अफ़सोस है कि नारी-हीनता वाली कविता तो हिन्दू नर के मुंह पर चढ़ी रहती है लेकिन नारी-सम्मान वाली कविता तो वह भुलाए रहता है|…यदि दृष्टि ठीक है तो राम-कथा  और तुलसी-रामायण  की कविता सुनने या पढ़ने से नर-नारी के सम स्नेह की ज्योति मिल सकती है|”2  किसी कवि की आधुनिकता पर जब हम बात करें तो एक बड़ा आधार स्त्री-पुरुष समानता भी है,जिसे नजर अंदाज नहीं किया जा सकता|
‘रामचरितमानस’ आधुनिक काल में जनता के मुक्ति-संघर्ष में किस तरह सहायक रहा है, इसका दिलचस्प उदाहरण अवध का किसान आन्दोलन है, जिसके नेता बाबा रामचंद्र दास थे | उन्होंने शोषण-दमन के खिलाफ जनता को ‘मानस’ की पंक्तियाँ सुनाकर जगाया और किसान जागरण का उदघोष किया | उस आन्दोलन की और रामचंद्र दास की चर्चा करते हुए जवाहरलाल नेहरु ने, जो तब अवध के गाँवों में घूम रहे थे, लिखा है : “रामचंद्र महाराष्ट्रीय था और कुली-प्रथा के अन्दर मजदूर बनकर फ़िजी चला गया था | वहाँ से लौटने पर धीरे-धीरे वह अवध के जिलों की तरफ आ गया | तुलसीदास की रामायण गाता हुआ और किसानों के कष्टों और दुखों को सुनाता हुआ वह इधर-उधर घूमने लगा |  ....... उसने भारी संगठन शक्ति का परिचय दिया | उसने किसानों को आपस में समय-समय पर सभा करना और अपनी तकलीफों पर चर्चा करना सिखलाया और हर तरह उनमें एके का भाव पैदा किया | कभी-कभी बड़ी भारी-भारी सभाएँ होतीं और उनसे उन्हें एक बल का अनुभव होता | यों ‘सीताराम’ एक पुरानी और प्रचलित धुन है, मगर उसने उसे करीब-करीब एक युद्ध-घोष का रूप दे दिया और जरुरत के वक्त लोगों को बुलाने का तथा जुदा-जुदा गाँव को आपस में बाँधने का चिन्ह बना दिया | ...रामायण का गान और प्रासंगिक दोहे-चौपाइयों की मिसाल देना बाबा रामचंद्र का एक खास तर्ज था |”3 बाबा रामचंद्र की चर्चा के साथ अवध के किसानों की दुर्दशा का बड़ा ही मार्मिक वर्णन नेहरु ने अपनी आत्मकथा में किया है |जिन किसानों को रामचंद्र ने जगाया था,उनके बीच घूमते हुए नेहरु खुद इस तथ्य से परचित हुए थे| प्रश्न है कि जब बाबा रामचंद्र दास मानस की पंक्तियाँ सुनाकर जनता को शोषण के विरुद्ध गोलबंद कर रहे थे,तब मानस प्रासंगिक था या नहीं?
मुक्तिबोध का यह कथन भी दूर तक उनका साथ नहीं देता कि रामभक्ति शाखा में एक भी शूद्र कवि नहीं हुआ |ऐसा कहते हुए ‘भक्तमाल’ के रचयिता नाभादास उनके ध्यान में क्यों नहीं आए?प्रसिद्द है कि वे दलितों में भी अति निम्न डोम जाति के थे|नाभादास ने अपने ‘भक्तमाल’ में निर्गुण-सगुण,ब्राह्मण-शूद्र,हिन्दू-मुसलमान सभी भक्त कवियों पर समान आदर के साथ आलोचनात्मक टिप्पणियाँ  लिखीं |तेलगु भक्ति कविता में स्त्री भक्त मोल्ला  का विशेष स्थान है,जिसका समय सोलहवीं सदी है|उनकी लिखी ‘मोल्ला रामायण’ तेलगु भाषा का अत्यंत प्रसिद्ध ग्रन्थ है|मोल्ला स्त्री तो थीं  ही,वे अति पिछड़ी कुम्हार जाति की भी थीं| भारतीय भक्ति साहित्य की छानबीन करने पर और भी उदाहरण मिल जाएँगे|उक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि मुक्तिबोध निर्गुण-सगुण का जो सपाट जातीय आधार बनाते हैं,वह वैसा है नहीं|दोनों धाराओं में सभी जातियों के कवि मिल जाएँगे|और यदि मान लिया जाए कि रामभक्ति शाखा में एक भी दलित कवि नहीं हुआ तो भी इस कारण क्या इसकी कोई सकरात्मक भूमिका थी ही नहीं?मैनेजर पाण्डेय ने इस मुद्दे पर ठीक ही प्रश्न उठाया कि प्रगतिशील आन्दोलन में भी कोई दलित लेखक नहीं था,ज्यादातर ऊँची जातियों के लोग थे,तो क्या उसकी भूमिका समाप्त हो गई?निर्गुण-सगुण विवाद में जाति और वंश वाले मुक्तिबोध के तर्क के  साथ ही नामवर सिंह के भी  तर्क को मैनेजर पाण्डेय ने ठीक ही ‘विचित्र’ कहा है और उसे ‘फूहड़ समाजशास्त्र’ की कोटि में रखा है|सूर की जाति निरपेक्षता,मीरा की विद्रोही चेतना और तुलसीदास के गहन आत्मसंघर्ष की अनदेखी करके सबको उच्चजातीय मान लेने की प्रवृति की आलोचना करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है : ‘...सगुण भक्तों को उच्चवंशी और उच्चजातीय वर्गों के प्रभुत्व का पोषक कहना सूर की प्रेम-भावना,मीरा की विद्रोही चेतना और तुलसी के आत्मसंघर्ष का अपमान करना है|”4
मुक्तिबोध का यह लेख अंतर्विरोधपूर्ण है|एक तरफ़ वे कहते हैं कि किसी भी युग के सांस्कृतिक इतिहास को जानने के लिए जरुरी है कि उस युग की मूल गतिमान सामाजिक शक्तियों का ठीक-ठीक पता हो|दूसरी तरफ वे कहते हैं कि निर्गुण मत के विरुद्ध सगुण मत का संघर्ष निम्न वर्गों के विरुद्ध उच्चवंशीय संस्कारशील अभिरुचियों का संघर्ष था| ‘मूल गतिमान सामाजिक शक्तियों’ के ज्ञान का अर्थ है,उस काल में हो रहे सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों का ज्ञान|इसके अभाव में सांस्कृतिक इतिहास को ठीक-ठीक जानना मुश्किल है|यह बात मुक्तिबोध भी जानते हैं कि ‘आवश्यक सामग्री का बड़ा अभाव है|’फिर भी वे निर्णयात्मक स्थापना देते हैं और निर्गुण भक्ति धारा को पिछड़ी जाति से और सगुण भक्तिधारा से अगड़ी  जाति को आत्यंतिक रूप से जोड़कर कर देखते हैं|भक्ति की भावधारा का इतना सरल बंटवारा उसके वैविध्य और जटिल स्वरुप को न समझने का परिणाम है |इस तरह के विभाजन से जो निष्कर्ष निकलेंगे वे इसी तरह स्याह-सफ़ेद रेखाओं वाले होंगे |जो ‘मूल गतिमान सामाजिक शक्तियां’ निर्गुण भक्ति के उभ्युदय में सहायक थीं,तुलसीदास के काल में क्या वे निष्क्रिय हो चुकी थीं?जिस रामानंद को निर्गुणपंथी कबीर,रैदास आदि का गुरु और उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन का सूत्रधार माना जाता है,वे क्या सगुण भक्ति के विरोधी थे? ‘आरती कीजै हनुमान लला की...’ जैसी कविता से उनकी सगुण भक्ति का भी प्रमाण मिलता है |भक्ति आन्दोलन की भावधारा और उसके भीतर का सच क्या परस्पर विरोधी विचारधारा की तरह संचालित है?क्या  निर्गुण मत का एकमात्र लक्ष्य जाति व्यवस्था का खात्मा था?मुझे लगता है कि कई लक्ष्यों में से एक लक्ष्य यह भी था|यदि था भी तो प्रश्न है कि तब निर्गुणपंथी संतों के सैकड़ों सम्प्रदाय क्यों बने?सम्प्रदायों का आधिक्य क्या निर्गुणपंथी भक्तिधारा के भीतर सक्रिय व्यक्तिवाद का द्योतक नहीं है?यदि निर्गुणपंथ का लक्ष्य जाति व्यवस्था की समाप्ति है तो काशी में रहते हुए कबीर और रैदास के संप्रदाय अलग-अलग क्यों हैं?इतिहासकारों ने सम्प्रदायों की अधिकता को उसके उद्देश्य में बाधक माना है |इतिहासकार हरबंस मुखिया ने दादू दयाल का विशेष अध्ययन करते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि निर्गुण पंथी संतों के पास मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं था|उन्होंने दादू के एक पद का उदाहरण दिया है|उस पद में ईश्वर के दरबार की जो झांकी दिखाई गई है ,प्रो.मुखिया के अनुसार,वह मुग़ल बादशाहों के दरबार से मिलती-जुलती है|प्रो.मुखिया का कहना है कि सामाजिक राजनीतिक परिवर्तन का कोई विकल्प इन संतों के पास नहीं है,वे ख़राब राजा की जगह अच्छे राजा की कामना करते हैं|6 कहा जा सकता है कि  सम्प्रदायों में बंटे और निश्चित विकल्प से रहित संतों के पास नए सामाजिक-राजनीतिक बदलाव के लिए जरुरी संकल्प और संगठन का अभाव था|ऐसी स्थिति में मुक्तिबोध के निष्कर्ष कितने सही हैं?
सगुण भक्ति का आधार मठ-मंदिर थे|मठों-मंदिरों के विकल्प के रूप में निर्गुण पंथियों ने अपने-अपने मठ-मंदिर बनाए |इससे सगुण ईश्वर पूजा के केन्द्र मठ-मंदिरों  को कोई चुनौती नहीं मिली|चुनौती मिलती भी कैसे ?जितने निर्गुण पंथी संत थे सबके अपने-अपने संप्रदाय थे|हाँ, इन सम्प्रदायों ने सगुण भक्ति के आधार केन्द्रों को कोई चुनौती तो नहीं दी ,लेकिन अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में जनता को धार्मिक-आध्यात्मिक विकल्प ज़रूर दिए|इन विकल्पों का पैदा होना ही उस युग में बड़ी बात थी|उन लोगों को-  जिनका कोई ईश्वर नहीं था,कोई पूजास्थल, कोई धर्म ग्रन्थ नहीं था- ईश्वर भी मिला ,अपना पूजा गृह भी मिला और अपनी गुरुवाणी भी मिली |गुरुवाणी का अर्थ था-अपना धर्मग्रन्थ|निर्गुण भक्ति ने इतना किया कि निम्न श्रेणी की जनता को धार्मिक-अध्यात्मिक विकल्प दिए|उस ज़माने में इतना भी काफी था|सामाजिक-राजनितिक परिवर्तन के लिए जिस संगठन और नेतृत्व की दरकार होती है,उसका एक सिरे से अभाव था|कबीर द्वारा की गई धार्मिक-सामाजिक –आलोचना से विभेदकारी समाज-व्यवस्था के प्रति उनका आक्रोश तो झलकता है,उससे काशी में ही ,जो उनकी कर्मभूमि-जन्मभूमि दोनों है,जाति व्यवस्था के सामने कोई चुनौती उपस्थित हो गयी हो इसका प्रमाण नहीं मिलता|भेदभाव से भरी समाज व्यवस्था की वे आलोचना करते हैं और अपने लिए ‘स्पेस’ बनाते हैं|ऐसा ही ‘स्पेस’ अन्य निर्गुणपंथी संत अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में बनाते हैं|निर्गुण पंथ के जरिए धार्मिक सत्ता के सैकड़ों केंद्र विकसित हुए और उसके जनतान्त्रीकरण की प्रक्रिया तेज हुई|इस तरह बहु वैकल्पिक धार्मिक समाज की रचना हुई,जिसमें सभी वर्गों,जातियों सम्प्रदायों के लिए धार्मिक अवकाश की पूर्ण स्वतंत्रता थी |इससे कोई प्रत्यक्ष चुनौती सगुण भक्ति के केंद्र यानी मठ-मंदिरों को नहीं मिली|वे अपनी जगह बने रहे |
मुक्तिबोध ने रामचंद्र शुक्ल की ‘पुराण मतवादी’ के रूप में आलोचना की है|क्या वे ‘पुराण मतवादी चेतना’ के आलोचक हैं और अपनी इस चेतना के तहत वे कबीर और निर्गुण पंथ को कोसते हैं?पुराणवादी चेतना का कहने का अर्थ है,उन्हें ब्राह्मणवादी कहना जो आजकल फैशन में है|क्या शुक्ल जी ब्राह्मणवाद के समर्थक हैं ?ब्राह्मण जाति में पैदा होना एक बात है और ब्राह्मणवादी  होना दूसरी बात|आज ब्राह्मण होने मात्र से बहुतेरे लोगों को आलोचनात्मक प्रहार झेलना पड़ता है |बहरहाल,क्या रामचंद्र शुक्ल ब्राह्मणवादी थे?ब्राह्मणवाद भारत की वर्चस्वशाली चिंतन परंपरा है,जिसके चार मुख्य आधार हैं- 1.वर्ण व्यवस्था ,2.पुनर्जन्म,3-अवतारवाद और 4-कर्मकांड |जो व्यक्ति इन चार व्यवस्थाओं में कमोबेश विश्वास करता है ,वह ब्राह्मणवादी कहलायेगा,चाहे वह जिस जाति में पैदा हुआ हो|रामचंद्र शुक्ल के साहित्य से उनके ब्राह्मणवादी होने के प्रमाण नहीं मिलते|1924 ई. के लगभग का उनका एक लेख है-‘जाति व्यवस्था’,जिसमें जाति-प्रथा की कड़ी आलोचना है |भारतीय रक्तवर्ण में मिलावट है,वह शुद्ध नहीं है,शुक्ल जी यह बात हजारी प्रसाद द्विवेदी से पहले कह गए हैं|जाति-प्रथा की जिन शब्दों में उन्होंने व्यर्थता बतलाई है,उसे देखिए- “जाति संस्था ने प्रजाति की शुद्धता को सुरक्षित रखने का असफल प्रयत्न किया है|इतिहास का हर छात्र जानता है कि भारतीय रक्त शक,यवन,यूची,हूण,मंगोल,आर्य,तथा द्रविण रक्तों का मिश्रण है|जाति व्यवस्था के विरुद्ध सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि इसने मनुष्य का स्तरों और श्रेणियों में रूढ़ विभाजन कर दिया है|...कुलीन और ऊपर से दैवीय कहे जाने वाले ब्राह्मण अन्य सबको हेय दृष्टि से देखते हैं|क्रमशः प्रत्येक जाति अपने से नीची जाति को तुच्छ समझती है|इस तरह हम हतभाग्य अस्पृश्यों और वर्गहीन जाति बहिस्कृतों के विशाल जन समूह तक नीचे उतरते हैं|इस प्रकार जाति व्यवस्था हार्दिक सहयोग या प्रतिक्रिया,प्रेम ,विश्वास,पारस्परिक प्रभाव या आचरण की स्वतंत्रता के अवरोध का कारण बनती है|” 7 जाति व्यवस्था को भारतीय संस्कृति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा मानते हुए आगे शुक्ल जी आगे लिखते हैं –‘...जाति व्यवस्था ने वर्गीय भावना और वर्गीय अहम् का पोषण किया है,इसे यदि समाप्त नहीं किया गया तो भारतीय संस्कृति और शिष्टता,राष्ट्रभक्ति और देशभक्ति की मृत्यु निश्चित है|” 8 शुक्ल जी जिस शिक्षित भारतीय मध्यवर्ग के व्यक्ति थे,वह भारतीय नवजागरण और स्वंत्रता आन्दोलन की चेतना से संचालित मध्यवर्ग था|आधुनिक शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान ने इसके मानस को झकझोर कर बदल दिया था|वह अपने गाँव,मुहल्ले और नगर तक सीमित कुंए का मेढ़क नहीं था|आधुनिक संचार माध्यमों के जरिए वह दुनिया की अच्छाइयों  के आलोक में अपनी बुराइयों को देखने लगा था|ब्राह्मणवाद पर हमला करते हुए शुक्ल जी ने लिखा है-“जाति पूर्वी सभ्यता की देन है |विश्व में और कहीं भी इसका अस्तित्व नहीं है|मानवता का (यह) रूढ़ विभाजन स्वार्थी पंडितों द्वारा छद्म धर्म में जोड़ा गया पृष्ठ भाग हैं|वे निर्धन पद दलितों की कीमत पर खुद को समृद्ध करते हैं,आनंद लेते हैं और अज्ञानी जन समूह की सामान्य भ्रांतियों को बढ़ाते हैं|”उस काल के आधुनिक और शिक्षित व्यक्ति के लिए जाति व्यवस्था क्या अर्थ रखती है,यह बताते हुए शुक्ल जी ने आगे लिखा है :-‘जाति व्यवस्था ने अब हम लोगों में से प्रबुद्ध,सुसंस्कृत या सत्यतः शिक्षित व्यक्तियों को आकर्षित करना छोड़ दिया है|ऐसे व्यक्ति अब दूसरी निंदा करते हैं –कुछ प्रकट रूप में स्पष्ट शब्दों में,कुछ संयमित भाषा में और कुछ मात्र ह्रदय में |रामायण काल से ही भारतीय समाज की प्रगति में निर्दयी जाति या वर्ण (व्यवस्था)सबसे बड़ी बाधा रही है|जब तक इस अप्राकृतिक व्यवस्था का चलन है तब तक समाज अभिशप्त  है और उसके साथ हम सब भी|” 9 इसके बाद भी रामचंद्र शुक्ल को वर्ण व्यवस्थावादी  कहने की कोई गुंजाईश बनती है?
जाति की ही तरह धर्म के बारे में भी रामचंद्र शुक्ल का मत जान लेना चाहिए |संसार में जो धर्म प्रचलित हैं,उनसे शुक्ल जी सहमत नहीं लगते|वैज्ञानिक और तकनीकी विकास ने संसार को देखने और इसकी व्याख्या की दिशा बदल दी है|एक तरफ धार्मिक रुढ़िवादियों-यथास्थितिवादियों का समाज है तो दूसरी तरफ विकास की नई रोशनी का स्वागत करने वाला नए लोगों का नया समाज|स्वाभाविक रूप से रूढ़िवादियों की आलोचना उन लोगों को सहनी पड़ती है जो नए विश्व के लिए नए धर्म का सपना देखते हैं|शुक्ल जी नए धर्म का सपना देखने वालों के साथ हैं|उस ज़माने में यथास्थितिवादियों और परिवर्तनवादियों के बीच जो संघर्ष था,उसमें शामिल होते हुए शुक्ल जी ने 1924 ई. में एक लेख लिखा,जिसका शीर्षक है: ‘ सभ्य संसार का भावी धर्म’ |पुराने धर्म के ध्वजवाहकों और सभ्य संसार का भावी धर्म’ के ध्वजवाहकों के बीच अंतर करते हुए और उन पर टिप्पणी करते हुए शुक्ल जी ने अपने उस लेख में लिखा है : ‘...जिनका विश्वास है कि मानव-स्वभाव में मानवीय दुर्बलताओं के साथ साथ मानवोचित उन्नतिशिलता  भी मौजूद है और तमाम कठिनाइयों के होते हुए भी कभी- न कभी मनुष्य उन पर विजय प्राप्त करेगा ही|ऐसे लोगों में इस समय इस बात की खास तलाश है कि इस वर्तमान अस्त-व्यस्त अवस्था का अंत कैसे होगा|इन तमाम घटनाओं का रुख किस ओर है |इन्हीं लोगों का एक दल यह समझता है कि इस व्यापक विप्लव का प्रभाव संसार के धार्मिक जीवन पर भी पड़ेगा और उसमें एक गहरा परिवर्तन होगा |उनका ख्याल है कि जहां संसार में,लोगों में विरोधी दलों के प्रति अविश्वास बढ़ता जाता है,वहाँ साथ ही संसार की वर्तमान अवस्था का एक लक्षण यह भी है कि संसार भर के सभी देशों की दलित जातियों में एक प्रकार की पारस्परिक सहानुभूति भी है|मजदूर,अराजकतावादी,स्त्रियाँ,स्काउट्स,काली जातियां-सभी अपने संगठनों का अन्तर्जातीय रूप देना चाहती हैं भौगोलिक हद्दों की अवहेलना करके पारस्परिक सहयोग करने के लिए तैय्यार हैं| ‘संघे शक्ति कलियुगे’ के सिद्धांत को लोग चरितार्थ करके दिखा रहे हैं |रेल,तार,छापेखाने और अख़बारों ने दुनिया को इतना तंग और सन्निकट कर दिया है कि एक दूसरे के आदर्शों को अब थोड़ी-सी चेष्टा करने पर सहज ही समझ सकते हैं|”10 नए संसार का सपना देखनेवालों को शुक्ल जी आशावादी कहते हैं|वे आशावादियों का जोरदार पक्ष लेते हैं और लिखते  हैं :-“इन सभी बातों को वे आशावादी निरीक्षक संसार के धार्मिक जीवन के लिए शुभ लक्षण समझते हैं|यद्यपि वे इस बात से भी अपरिचित नहीं हैं कि इन सब बातों के होते हुए भी संसार के वर्त्तमान संगठित धर्म के अधिकारी,चाहे वे ईसाई पादरी हों अथवा हिन्दू पंडित,मुसलमान मुल्ला या बौद्ध भिक्षु,अपने पुराने ढंग पर ही चले जाते हैं,नई आकांक्षाओं और नए उत्साह से लाभ नहीं उठाते,और उन्नतशील उदार व्यक्तियों को उच्छृंखल कहकर अपने-अपने मंडल से निकालने पर उद्यत हो जाते हैं|पुरोहितों,पुजारियों और पंडितों की इस अदूरदर्शिता पर खेद प्रकट करते हुए भी आशावादी घबराते नहीं,बल्कि इसे भी परिवर्तन का एक प्रामाणिक लक्षण ही समझते हैं,क्योंकि वे कहते हैं कि धार्मिक संस्थाओं की यह कट्टरता भी इस बात की सूचना देती है कि एक धार्मिक युग का अंत हो रहा है और दूसरे का आरम्भ |” 11
किंचित लम्बा उद्धरण  देने का उद्देश्य यहाँ यह है कि शुक्ल जी के धर्म सम्बन्धी विचारों को उनके ही शब्दों में देखा जाए |शुक्ल जी जिस भावी धर्म की कल्पना करते हैं,वह ऐसा विश्वधर्म है,जो विज्ञान सम्मत है और भेदभाव से रहित है|शुक्ल जी के सपनों का जो सभ्य संसार है उसमें मजदूरों,काली जातियों,स्त्रियों आदि की चिंता है|अपने भावी धर्म की रूपरेखा स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं :-“जिस तरह बौद्ध और ईसाई धर्म ने अपने समय की वंश-प्रतिष्ठा के भीषण स्वरुप का प्रबल विरोध करके सभी को धार्मिक अधिकार दिया था उसी तरह भावी धर्म रंग और राष्ट्र के अभिमान का विरोधी होगा|न केवल पड़ोसी और पीड़ित को प्यार करने की यह शिक्षा देगा बल्कि परदेशी और परतंत्रों के प्रति अनुराग पैदा कराएगा |यह सन्देश किसी जाति अथवा देश में सन्निहित न होकर वर्तमानकालिक रेल,तार और वायुयान के सहारे-संसार व्यापी होगा |इसमें ईश्वरोपासना को एक नया स्वरुप दिया जाएगा जिसके अनुसार ईश्वरभक्त लोग मानवजाति के ही रूप में भगवान् को प्यार करना सीखेंगे |सेवा-धर्म की महिमा बढ़ेगी और बच्चों की शिक्षा और पालन पर अधिक जोर दिया जाएगा|राजभक्ति एक नया रूप धारण करेगी जिसके अनुसार लोग ‘राजा’ की भक्ति से ‘राज्य’ की भक्ति को अधिक महत्व देंगे|भिन्न-भिन्न प्रचलित धर्म नष्ट न होकर अधिक उदार हो जाएगा और इन धर्मों के नाम और रूप की रक्षा करते हुए भी लोग इस नए विश्व प्रेमी धर्म की दीक्षा लेंगे|”12 इसके  बाद भी शुक्ल जी को यदि कोई साम्प्रदायिक और ब्राह्मणवादी कहता है तो उसकी मंशा संदेह से परे नहीं मानी जायेगी|शुक्ल जी न तो कम्युनिस्ट हैं और न आत्यंतिक रूप से नास्तिक,इसके बावजूद वे विश्व के लिए जिस भावी धर्म का सपना देखते है वह विज्ञान सम्मत समतामूलक मानवीय गरिमा से पूर्ण विश्व का है|ऐसे व्यक्ति की चेतना को हिन्दू ‘पुराण मतवाद’ तक सीमित करने वाली एक संकीर्ण  परिपाटी प्रगतिशील आन्दोलन में  रही है,जिसके उदाहरण रांगेय राघव के भक्ति साहित्य विषयक लेखन में तो हैं  ही,मुक्तिबोध के इस लेख में भी हैं|
मुक्तिबोध  जब उच्चवंशीय जातियां कहते हैं तो उनका आशय सवर्ण जातियों से हैं , जिसमें ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य आदि जातियाँ आती हैं,लेकिन जब वे उच्चवंशीय के अतिरिक्त सबको शूद्र जाति में रखते हैं,तब वे तथ्य को उलझा देते हैं|शूद्र से उनका आशय क्या है?शूद्र’ एक पुराना शब्द है,जिसके अंतर्गत आज की कौन-सी जाति है और कौन-सी जाति नहीं,कहना मुश्किल है |सवर्ण जातियों के अतिरिक्त पिछड़ा वर्ग और दलित वर्ग की सैकड़ों जातियां हैं जिनके अपने अंतर्विरोध हैं|पिछड़े और दलित एक नहीं हैं|दलितों की दुर्दशा में जितनी भूमिका सवर्ण जातियों की है,उससे कम पिछड़ी जातियों –जिसे अब अन्य पिछड़ा वर्ग कहा जाता है-की नहीं है|सवर्ण जातियों द्वारा श्रेणीक्रम में नीचे माने जाने की पिछड़ों को शिकायत रही है,जो वाजिब है,लेकिन यही पिछड़ी जातियां दलितों के साथ वही व्यवहार करती रही हैं|कौन नहीं जानता की शक्ति पाते ही इन पिछड़ी जातियों ने भी दलितों पर अत्याचार की सारी हदें तोड़ दी है|1977 में बिहार में घटित ‘बेलछी काण्ड’ अभी पुराना नहीं पड़ा|बिहार में दलित दहन की यह पहली घटना थी,जिसे अंजाम देने का आरोप एक समृद्ध दबंग पिछड़ी जाति पर लगा  था |तब बिहार के मुख्यमंत्री पिछड़ी जाति के समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर थे|पिछड़ों के  आरक्षण की वकालत करने वाले राममनोहर लोहिया को इसकी आशंका थी कि राजशक्ति पाते ही पिछड़ों में जो दबंग जातियां हैं उनका व्यवहार बदल जाएगा|लोहिया ने लिखा है “नीची जातिवाला जब उठता है तो वह ऊँची जातिवाले की नक़ल करके उन्हीं के जैसा बनना चाहता है|”13 इसलिए लोहिया उस मन को बदलना चाहते थे जिसमें ऊंच-नीच का भेद भरा है| लेकिन मुक्तिबोध शूद्र के भीतर आनेवाली सैकड़ों जातियों के भीतर के अंतर्विरोधों की अनदेखी करते हैं और सवर्ण और शूद्र का सपाट बंटवारा करते हैं |जिस शिवाजी में वे गैर सवर्ण चेतना देखते हैं,उसी शिवाजी का इस्तेमाल शिवसेना और भाजपा जैसी पार्टियां मजे में कर रही हैं |भारतीय जाति व्यवस्था की जटिलता और भक्ति आन्दोलन के वैविध्य-विस्तार को पूरी समग्रता में न देखे जाने पर जैसे इकहरे निष्कर्ष सामने आएँगे,मुक्तिबोध का यह लेख उसका श्रेष्ठ उदाहरण है|
सगुण भक्ति और तुलसीदास का समर्थन रामचंद्र शुक्ल क्यों करते हैं ?इसलिए कि निर्गुण पंथ और कबीर में उन्हें रहस्यवाद और योग आदि की उपस्थिति दिखती है|रहस्यवाद उनकी दृष्टि में लोकमंगलकारी नहीं है,विज्ञान सम्मत भी नहीं है|उन्हें लोकमंगलकारी लगती है सगुण भक्ति,उसमें भी तुलसी की भक्ति|लेकिन तुलसी में जहां नारी निंदा है,वर्ण व्यवस्था का समर्थन है,वह उनके आधुनिक मन के अनुकूल नहीं है |ऐसी स्थिति में वे मासूम-सा तर्क देते हैं कि तुलसीदास साधु-महात्मा थे,और साधु-महात्माओं की बात का बुरा नहीं मानना चाहिए|रामविलास शर्मा तुलसी के साहित्य को सामंत विरोधी मूल्य और किसान चेतना की कसौटी पर खरा पाते हैं,पर वर्ण व्यवस्था और स्त्री प्रसंग उन्हें क्षेपक और तुलसी विरोधियों की करतूत प्रतीत होते  हैं|इन दोनों समर्थ आलोचकों की ऐसी दलीलों से तुलसीदास की रक्षा संभव नहीं है|वे बड़े कवि हैं तो इन सबके बावजूद हैं|इसी तरह कबीर भी महान हैं तो इंगला-पिंगला और नारी-निंदा के बावजूद महान हैं|इन सबसे आँख मूंदकर कबीर को आधुनिक घोषित करने का मुक्तिबोध का प्रयास स्वस्थ और संतुलित आलोचना का लक्षण नहीं है |मुक्तिबोध निर्गुण भक्ति को जनवादी और सगुण भक्ति को गैर जनवादी की कोटि में जिस सरलता से रखते हैं,वैसा है नहीं|भक्ति आन्दोलन और साहित्य का अखिल भारतीय विस्तार-वैविध्य इसकी छूट भी नहीं देता|असम के शंकरदेव तो कृष्णभक्त हैं,पर उनके यहाँ योग आदि निर्गुण भक्ति साधना की बहुत सी बातें मिलती हैं|शुक्ल जी का विश्वास किसी धार्मिक कर्मकांड में नहीं है,न वे किसी धार्मिक पाखण्ड के समर्थक हैं|वे राम के चरित्र को अवतार के कारण नहीं महत्व देते|वे राम में कर्म का सौन्दर्य देखते हैं|तब वे किस अर्थ में ब्राह्मणवादी हैं ?इसका कोई माकूल जवाब न तो मुक्तिबोध के उक्त लेख में मिलता है और न शुक्ल जी को ब्राह्मणवादी कहने वाले अन्य लेखकों के लेखन में|
भक्ति साहित्य को लेकर प्रगतिशील आन्दोलन के प्रारंभ में एक सिरे से नकार का भाव था|प्रगतिशील आन्दोलन के अनुसार वह जीवन की वास्तविकताओं से पलायन का साहित्य था|बाद में प्रगतिशीलों के बीच दो तरह के लेखक आये|रामविलास शर्मा ने सगुण भक्ति और तुलसीदास पर अधिक जोर दिया और सामंत विरोधी चेतना का नया पक्ष तैयार किया,जिसमें आधुनिकता के तत्व भरे पड़े हैं|शुक्ल जी की तरह रामविलास जी ने निर्गुण पंथ और निर्गुणियों की निंदा तो नहीं की,पर अधिक जोर उनका सगुण भक्ति पर अंत-अंत तक बना रहा|दूसरी तरफ प्रगतिशील चेतना वाले रांगेय राघव और मुक्तिबोध थे|इनके लिए सगुण भक्ति और तुलसीदास ब्राह्मणवाद के कट्टर पोषक थे|वे निर्गुण भक्ति को प्रगतिशील और आधुनिक मानते रहे|निर्गुण भक्ति को प्रगतिशील और आधुनिक मानने के इस अभियान को दलितों-पिछड़ों ने जोर शोर से आगे बढाया|आज दलित विमर्श के भीतर कबीर समर्थन और तुलसी विरोध की जो अतिरेकी गर्जना है,उसका उत्स मुक्तिबोध का यह लेख है |
निश्चित रूप से कबीर ने जाति-पांति,मंदिर-मस्जिद,वेद-कुरान,पंडित-मौलवी और धार्मिक कर्मकांड की आलोचना की है|निश्चित रूप से तुलसी ने निर्गुण भक्ति की तीखी भर्त्सना की है|लेकिन यह इनके काव्य संसार का एक पक्ष है|यह केन्द्रीय भाव नहीं है|केन्द्रीय भाव वहाँ है,जहाँ इनका मन रमता है|इनके काव्य का केन्द्रीय भाव है –मानव पीड़ा का संज्ञान जो सर्वोपरि है|कबीर कहते हैं: ‘कबीरा सोई पीर है जो जाने पर पीर’| तुलसी कहते है: ‘परहित सरिस धरम नहीं भाई,पर पीड़ा सम नहीं अधमाई|’न सिर्फ कबीर-तुलसी के काव्य में,बल्कि समूचे भक्ति साहित्य में यही ‘पीर’ केन्द्रीय भाव है|भक्ति काव्य यदि महान है तो इस कारण की वह मानव जाति की अथाह पीड़ा का आत्मीय इतिहास है|वह निर्गुण-सगुण विवाद के कारण महान नहीं है|जिनकी आँखें इस विवाद को ही देखने में थक जाती हैं,वे पीड़ा के अथाह सागर में नहीं उतर पाते|इस निर्गुण-सगुण विवाद के बावजूद भक्त कवियों के कुछ सामान्य विश्वास हैं,जिनकी चर्चा हजारी प्रसाद द्विवेदी ने की है|14 उनमें अलगाव के जितने सूत्र हैं,उससे कई गुना मानव जाति की एकता के सूत्र हैं|हिंदी आलोचना का दुर्भाग्य यह है कि वह एकता के सूत्र पर कम अलगाव पर ज्यादा ध्यान देती रही है,जिसका एक मुख्य आधार मुक्तिबोध का भक्ति काव्य विषयक उक्त लेख भी है|
हिंदी में निर्गुण-सगुण विवाद पर ज़रूरत से अधिक जोर दिया गया|तिल को ताड़ बनाना इसी को कहते हैं|निर्गुण-सगुण विवाद के बावजूद भक्ति की भावधारा की दिशा एक है|वह दिशा है ऐसी सामजिक-धार्मिक व्यवस्था की,जिसमें सबकी समाही है|निर्गुण-सगुण अलग हैं,लेकिन उनमें एकता के सूत्र भी हैं,जो ज्यादा महत्व के हैं|लोहिया ने निर्गुण-सगुण के द्वंद्व पर विचार किया और लिखा है : “...निर्गुण संपूर्ण आदर्श है,एक हवा,एक भीनी किन्तु सर्वव्यापी महक,एक सपना जो बहुत जल्दी टूट भी सकता है,लेकिन जिसमें यह भी ताकत है कि दुनिया को पलट दे और सगुण है एक ठोस तथा पकड़ में आने वाली चीज,एक इंतजाम,घटना या रस उभाड़ने वाली प्रक्रिया,खून में प्रेम या गुस्से की गर्मी लाने वाला किस्सा,लेकिन ऐसा भी जो आदमी को तेली के बैल की तरह एक बंधी हुयी लीक पर चला दे |निर्गुण है आदर्श या सपना,सगुण है उसके अनुरूप मनुष्य या घटना|दोनों अलग हैं|दोनों को अलग रहना चाहिए|किन्तु दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं और एक दूसरे के साथ सब कोर जुड़े हुए हैं|दिमाग में दोनों के खाने अलग-अलग रहना चाहिए,लेकिन दोनों में निरंतर आवागमन होना चाहिए|किसी भी सिद्धांत को गेंद की तरह सगुण और निर्गुण दोनों दिमागी कीतों में लगातार फेंकते रहने से ही एक सजीव आदर्श गढ़ा जाता है| पूरा अलगाव करने से पाखंड और असभ्यता की सृष्टि होती है|पूरा एकत्व कर देने से क्रूरता या बेमतलब दौड़ की सृष्टि होती है|सिर्फ सगुण में ही फंस जाने से आदमी दकियानूसी हो जाता है |सगुण को पूरी तरह निर्गुण ही मान लेने से आदमी के क्रूर होने की सम्भावना है|”15   


सन्दर्भ और टिप्पणी :
1-राममनोहर लोहिया रचनावली,भाग-8 (सं.-मस्तराम कपूर) में संकलित ‘रामायण मेला’ शीर्षक टिप्पणी से उद्धृत,पृ.-88,प्रकाशक-अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड,नई दिल्ली-2,संस्करण-2013
2-वही ,पृ.-95
3-मेरी कहानी,पृष्ठ:76,संस्करण 2011,सस्ता साहित्य मंडल,नई दिल्ली-11
4-संकलित निबंध,पृष्ठ-29,प्र.-नेशनल बुक ट्रस्ट,नई दिल्ली-70,पहला संस्करण 2008
5-वही
6-हरबंस मुखिया की पुस्तक ‘मध्यकालीन भारत:नए आयाम’ (राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली-2) में ‘भक्ति आन्दोलन की विचारधारा :दादू दयाल का दृष्टान्त’ शीर्षक लेख को इस क्रम में देखा जा सकता है|
7-आ.रा.शु. ग्रंथावली,खंड-4,सं.-ओमप्रकाश सिंह,प्रकाशन संस्थान,नई दिल्ली-2 ,प्रथम संस्करण,पृष्ठ-203
8-वही, पृष्ठ- 203
9-वही,पृष्ठ-204
10-वही,पृष्ठ-193
11-वही,पृष्ठ-194
12-वही,पृष्ठ-196
13-राममनोहर लोहिया रचनावली ,खंड-2 ,पृष्ठ-210
14-‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ नामक पुस्तक में ‘मध्य युग के संतों का सामान्य विश्वास’ शीर्षक अध्याय को इस प्रसंग में देखा जा सकता है|इस अध्याय में निर्गुण और सगुण भक्त कवियों के कुछ सामान्य विश्वासों की चर्चा की गयी है ,इन सामान्य विश्वासों को द्विवेदी जी ने इस क्रम में रखा है-(1) मोक्ष नहीं प्रेम सबसे बड़ा पुरुषार्थ है|(2) भगवान् के प्रति प्रेम ही सब कुछ है|(3) भक्त भगवान् से बड़ा है| (4)शास्त्र ज्ञान और पांडित्य भक्ति के अभाव में व्यर्थ हैं| (5) भगवान् के रूप से उसके  नाम का महात्म्य अधिक है आदि |

15-राममनोहर लोहिया रचनावली ,खंड-4,पृष्ठ-25 

Monday, 25 January 2016

गीत को देश -निकाला

 एक प्रश्न आजकल मुझे अक्सर परेशान करता है कि क्या हिंदी कविता एक लुप्त होती हुई विधा है ? इसका कारण यह है कि अभी जो कविता लिखी जा रही है, उसके पाठक नहीं हैं, जो हैं वे अपवाद स्वरुप हैं | कभी-कभी लगता है कि हिंदी में कवि अधिक हैं और पाठक कम | कवि लिखते हैं, कवि पढ़ते हैं या वे लोग पढ़ते हैं जो साहित्य पढ़ने-पढ़ाने का धंधा करते हैं | समकालीन हिंदी कविता के पास अब प्रायः वैसे पाठक नहीं हैं, कविता जिनका धंधा न हो, फिर भी कविता के आत्मिक सुख के लिए पढ़ते हैं | हिंदी में बड़ी मात्रा में कविता रची जा रही है, लेकिन छोटी मात्रा में भी उसकी खपत हिंदी समाज में दिखाई नहीं पड़ती | ख़राब कविता कि बात जाने दीजिए, हिंदी में खूब बारीक, खूब जटिल, खूब कलात्मक कविताएँ लिखने वाले कवियों के पास भी नाम मात्र के पाठक हैं | मुख्य धारा के नाम पर जो कविताएँ लिखी जा रही हैं, छप रही हैं और प्रशंसित-पुरस्कृत हो रही हैं, वे सब हिंदी पाठक की समझ से परे हैं | ऐसी स्थिति में क्या यह ठहरकर सोचने का समय नहीं आ गया है कि हिंदी कविता कि इस दशा के जिम्मेदार  कारणों पर विचार किया जाए ? मैं तो उस दिन कि कल्पना नहीं कर सकता जिस दिन हमारे साहित्य में कविता नामक विधा नहीं होगी |
वैसे तो हिंदी समाज में साहित्य मात्र के पाठक कम हैं | जितना बड़ा हिंदी क्षेत्र है, उसकी तुलना में पाठक वर्ग बहुत छोटा है | इसके सामाजिक, आर्थिक और साहित्यिक कारणों पर विचार होना चाहिए | लेकिन हिंदी साहित्य की जिस विधा के लिए सबसे पहले और सबसे अधिक चिंतित होने की जरुरत है वह कविता ही है | कविता मैं जब कह रहा हूँ तो उसका अर्थ तुकांत-अतुकांत सबसे है यानी सभी काव्यरूपों से | लेकिन अतुकांत कविता के अलावा तुकांत काव्यरूपों के लिए हिंदी कविता की तथाकथित मुख्यधारा में कोई जगह नहीं है | तुकांत काव्यरूपों में पहला स्थान गीत का है और दूसरा गजल का | हिंदी कविता ने प्रयोगवाद के साथ और उसके बाद जिस काव्यरूप को अवहेलित, उपेक्षित किया, वह गीत ही था | नई कविता के दौरान यह भाव और तीव्र हुआ | क्या प्रगतिशील और क्या गैर प्रगतिशील, सबने गीत को हिंदी कविता के देश से निकाला दे दिया | विजयदेव नारायण साही, नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी आदि ने ऐसे काव्य-निकष बनाए और ऐसी कविताओं कि पोथी ठोकी कि गीत लिखना दोयम दर्जे का कवि कर्म लगने लगा |गजल उर्दू का लोकप्रिय काव्य रूप है|हिंदी कवियों ने भी इसे अपनाया|भारतेंदु,निराला,शमशेर,त्रिलोचन,जानकीवल्लभ शास्त्री आदि ने अच्छी गजलें लिखीं लेकिन गजल को हिंदी आलोचना ने कभी स्वीकृति नहीं दी|हालाँकि हिंदी में गजल लिखने वालों की एक बड़ी जमात है|हिंदी में गजलें लिखी जा रही हैं|लेकिन हिंदी गजलों को हिंदी के आलोचक कभी उद्धृत नहीं करते|इस महादेश के वैज्ञानिक विकास के लिए समर्पित एक पत्रिका ने तो लगभग घोषित कर रखा था कि उसके वहाँ गीत और गजल प्रकाशनार्थ न भेजें|इस घोषणा में गीत गजल के लिए हिकारत का भाव है|दुष्यंत कुमार की गजलें हिंदी समाज में सबसे अधिक लोकप्रिय हुईं|लोग अक्सर उनके शेर उद्धृत करते हैं|लेकिन दुष्यंत को प्रगतिशील गैर प्रगतिशील किसी खेमे में गंभीरता से नहीं लिया जाता|निष्कर्ष यह कि हिंदी में गीत-गजल की रचना तो हुई पर उसे आलोचकों का प्रमाण पत्र नहीं मिला|एक धारणा-सी बना दी गई कि गीत-गजल लिखने वाले प्रायः मेडियाकर हैं|
गीत हिंदी का अपना एक लोकप्रिय काव्यरूप है|व्यक्ति सुख-दुःख में गीत गुनगुनाता है|माना जाता है कि गीत दिल का सीधा उद्गार है|उसमें विचार कम दिल की भावनाएं अधिक व्यक्त होती हैं|हिंदी में गीत लेखन की लम्बी परंपरा रही है|भारतेंदु से लेकर प्रसाद-निराला तक|महादेवी सिर्फ गीत लिखकर छायावाद का चौथा स्तम्भ हैं|निराला ने छंद के बंधन जरूर तोड़ें पर गीतों से उनका संग साथ कभी न छूटा|यदि गंभीर पाठकों के लिए उन्होंने ‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘सरोज स्मृति’ जैसी कविताएँ लिखीं,तो सामान्य पाठक के दिल को छूने वाली ‘सरस्वती वंदना’ भी लिखी |हिंदी में गीत भावना और विचार दोनों को वहन करने वाला सशक्त काव्यरूप रहा है|
गीत हिंदी का जातीय काव्यरूप तो है ही,सबसे लोकप्रिय काव्य रूप भी रहा है|गीत एक तरह से हिंदी कविता का लोकप्रिय चेहरा रहा है|भक्तिकाल में पद के नाम से यह गीत ही था,जो सूर,तुलसी,मीरा,कबीर आदि की अमरवाणी का वाहक बना|महाकाव्य और खंडकाव्य जैसे कठिन काव्य-दुर्ग में प्रवेश की गीत भूमिका तैयार करता रहा|कविता के कठिन दुर्ग में सभी प्रवेश नहीं करते|जो प्रवेश करते हैं उनको काव्य मर्मज्ञ बनाने में गीत प्राथमिक पाठशाला का काम करते रहे हैं|जो काव्य मर्मज्ञ नहीं हैं,साधारण जन हैं ,वैसे पाठक के शुष्क ह्रदय को सरस बनाने में गीतों की सदियों से भूमिका रही है|इसलिए गीत की ताकत को आधुनिक कल के पूर्व के कवि तो जानते ही थे,आधुनिक काल के भी बड़े  कवियों ने भी इसे पहचाना|भारतेंदु,मैथिलीशरण गुप्त,प्रसाद,निराला आदि ने हिंदी गीत को अमरता दी|गीत आधुनिक हिंदी कविता की जमीन को उपजाऊ बनाने में हमेशा सहायक रहे|गीत और गीत लिखने वाले कवियों की ओर हिंदी समाज हमेशा प्रेम और सम्मान से देखता रहा|जब तक हिंदी कविता में गीत रचना होती रही और उसे प्रबुद्ध समाज का प्यार मिलता रहा,हिंदी समाज कभी कविता विमुख नहीं हुआ,और कविता एवं कवियों के प्रति जनता में आदर बना रहा|गीत के प्रति उदासीनता का सिलसिला प्रयोगवाद-नई कविता के साथ शुरू हुआ|पश्चिमी काव्य प्रतिमानों का थोड़ा प्रभाव तो छायावाद पर भी था,किन्तु प्रयोगवाद-नई कविता के साथ हिंदी कविता पश्चिमी काव्यादर्शों के सम्मुख खडी दिखाई देने लगी|क्षणवाद,व्यंग्य,विडंबना,तनाव आदि हिंदी कविता के मुख्य प्रतिमान बन गए|कविता रचना छंद से पूरी तरह मुक्त हो गई|अज्ञेय,मुक्तिबोध आदि ने भले कभी-कभार गीत लिखे हों,उनकी मुख्य अभिव्यक्ति का माध्यम गीत नहीं थे|गीत के प्रति सम्मान और गंभीरता का वह भाव जाता रहा,जो प्रयोगवाद के पूर्व था|नई कविता के बाद कविता पूरी तरह छंदमुक्त और अतुकांत हो गई|ऐसी स्थिति में गीत लिखने वाले कवियों की एक अलग जमात सामने आई|शम्भुनाथ सिंह,ठाकुर प्रसाद सिंह आदि नई कविता के सामानांतर नवगीत के गीतकार कहे जाने लगे|इस तरह कवि और गीतकार की दो श्रेणियां पहली बार हिंदी कविता में बनीं|कवि प्रथम श्रेणी के रचनाकार और गीतकार द्वितीय श्रेणी के,जैसी अघोषित धारणा विकसित होती गई|कवियों में अपने लिए श्रेष्ठता बोध और गीतकारों के लिए उपेक्षा का भाव आता गया|कवि और गीतकार का यह विभाजन हिंदी कविता और समाज के लिए शुभंकर नहीं हुआ|
कवि और गीतकार के विभाजन ने एक और काम किया|कवि सम्मेलनों में काव्यपाठ के जरिए कविता और जनता को जोड़ने का जो काम होता था,वह भी विभाजित हो गया|कवियों ने कवि सम्मेलनों में जाना एक तरह से बंद कर दिया|कवि सम्मलेन अब पूरी तरह गीतकारों के हवाले हो गया|नागार्जुन,भवानीप्रसाद मिश्र ,जानकीवल्लभ शास्त्री आदि संभवतः अतिम पीढ़ी के कवि थे,जो कवि सम्मेलनों में जाते रहे और कविताएँ सुनते-सुनाते रहे|कवि सम्मेलनों में काव्यपाठ जनता के काव्य बोध को बनाए रखने और उसे विकसित करने का एक सशक्त माध्यम था,जिसकी हिंदी की मुख्य धारा के कवियों ने उपेक्षा की|फल यह हुआ कि कवि-सम्मेलनों का मंच पूरी तरह सस्ते गीतकारों और फूहड़ हास्य कवियों के हवाले हो गया|
गीतों की रचना में बाधक बने वे काव्य निकष जो नई कविता के दौरान विकसित हुए|क्षणवाद,व्यंग्य,विडम्बना,तनाव आदि को अच्छी और श्रेष्ठ कविता की कसौटी माना गया और इन्हें ही श्रेष्ठ काव्य मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित किया गया|श्रव्यता को पुरानी कविता का गुण घोषित करके उसे पठ्य बनाने पर जोर दिया गया|अज्ञेय ने तो बाजाप्ता इस पर लिखा भी और आधुनिक कविता के लिए श्रव्यता को अच्छा गुण नहीं माना|उस दौर में प्रतिष्ठित और अत्यंत लोकप्रिय कवि दिनकर ‘रेटारिक’ के कवि कहे जाते रहे|
हिंदी कविता जब छंद से मुक्त हुई थी तो कहा गया कि लय मुख्य है|बनावट-बुनावट की लय,भाषा की लय और भाव-विचार की लय के सहारे नई कविता और उसके बाद की कविता लिखी जाती रही|इधर के वर्षों वैचारिक लय की प्रधानता बढ़ी|ऐसी कविताओं ने यथार्थ के सूक्ष्म अंकन के सुन्दर उदाहरण पेश किए,लेकिन पाठक से उसकी दूरी कम नहीं हुई,कुछ बढ़ी ही|ऐसे में प्रश्न उठता है कि उर्दू कविता क्यों गजल और नज्म के अपने जातीय रूप विधान में आधुनिक और समकालीन बनी रही|उसको सराहने वाले भी बने रहे और उसका कोई-कोई शेर हम कभी-कभार उद्धृत करते रहें|क्यों अहमद फराज समकालीन भी लगते हैं और शायरी प्रेमियों में लोकप्रिय भी हैं?हिंदी के पास कोई अहमद फराज क्यों नहीं है?
उर्दू काव्य रूपों- गजल और नज्म- की तुलना में हिंदी में अनेक काव्यरूप हैं|गीत उसका सफल और दिल को छूनेवाला शक्तिशाली काव्यरूप है|उसको तुक्कड़ कवि सम्मेलनी कवियों के भरोसे छोड़कर हिंदी कविता का भला नहीं हो सकता |सम्प्रेषनियता किसी कविता का दोष नहीं होती|व्यंग्य,विडम्बना,तनाव ही कविता के सार्वभौम और स्थायी निकष नहीं हैं|यूँ हिंदी के अच्छे गीतकारों ने इस कसौटी की अनदेखी नहीं की|रमेश रंजक के एक गीत का टुकड़ा इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य है :
अजगर के पाँव दिए जीवन को और समय को डैने,
ऐसा क्या पाप किया था मैंने |
समय  की विडम्बना यहाँ भी है|जरुरत है गीत के प्रति आलोचना दृष्टि बदलने की|माना कि गीत में महाकाव्यात्मक संवेदना की समाही नहीं है, मगर उतनी कम समाही भी नहीं है ,जितना कि समझ लिया गया है और समझा दिया गया है|    


Tuesday, 8 December 2015

हिंदी नवरत्न

हिंदी नवरत्न’ का प्रकाशन संवत  1967 (सन 1910) में हुआ,जिसके लेखक मिश्रबंधु थे|मिश्रबंधु से तात्पर्य उन तीन भाइयों से है,जिनका  नाम गणेश बिहारी मिश्र,श्याम बिहारी मिश्र और शुकदेव बिहारी मिश्र था|ये तीनों हिंदी में मिश्र बंधु नाम से प्रसिद्ध हुए और इसी नाम से उन्होंने हिंदी में अनेक ग्रंथों की रचना की|हिंदी नवरत्न के लेखक के रूप में मिश्र बंधु ही छपा है,लेकिन दूसरे पृष्ठ पर ‘मिश्रबंधु’ के नीचे गणेश बिहारी मिश्र और शुकदेव बिहारी मिश्र का नाम छपा है|इससे पता चलता है कि ‘नवरत्न’ के लेखक यही दोनों भाई हैं|
   ‘हिंदी नवरत्न’ में लम्बी भूमिका के बाद नौ अध्याय हैं,जिनमे मध्यकाल से लेकर आधुनिक काल तक के एक-एक कवि को रखा गया है|क्रम इस प्रकार है:1-गोस्वामी तुलसीदास,2-महात्मा सूरदास,3-महाकवि देवदत्त (देव),4-महाकवि बिहारीलाल,5-त्रिपाठी-बंधु: (क)महाकवि भूषण त्रिपाठी, (ख)महाकवि मतिराम त्रिपाठी,6-महाकवि केशवदास ,7-महात्मा कबीरदास,8-महाकवि चंदबरदाई ,9-भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र |यहाँ कवियों का क्रम काल क्रमानुसार नहीं रखा गया है|मिश्र बंधुओं ने अपनी काव्य-धारणा के अनुसार कवियों की गुणवत्ता को ध्यान में रखकर यह क्रम बनाया है|इसमें कबीरदास और सूरदास के नाम के आगे ‘महात्मा’ विशेषण है तो कुछ कवियों के नाम के आगे महाकवि|तुलसीदास और भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाम के आगे लोक प्रचलित पद रहने दिया गया है|आज मिश्र बंधुओं का क्रम निर्धारण और विवेचन विश्लेषण शायद ही किसी को स्वीकार्य हो|’हिंदी नवरत्न” में कवियों का जीवन चरित,ग्रन्थ परिचय,रचना विवेचन,काव्यांशों के उदहारण आदि बातें दी  गयीं हैं|हिंदी कविता के विकास को समझने में इससे कोई विशेष मदद नहीं मिलती|हिंदी आलोचना के विकास में अब इस पुस्तक का ऐतिहासिक महत्व भर है|आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में ‘हिंदी नवरत्न’पर टिप्पणी करते हुए लिखा है: ‘कवियों का बड़ा भरी इतिवृत्त संग्रह (मिश्रबंधु विनोद) तैयार करने के पहले मिश्रबन्धुओं ने ‘हिंदी नवरत्न’ नामक समालोचनात्मक ग्रन्थ निकाला था जिसमें सबसे बढ़कर नई बात यह थी कि ‘देव’ हिंदी के सबसे बड़े कवि हैं|हिंदी के पुराने कवियों को समालोचना के लिए सामने लाकर मिश्रबंधुओं ने बेशक जरुरी काम किया |उनकी बातें समालोचना कहीं जा सकतीं हैं या नहीं ,यह दूसरी बात है|” मिश्र बंधुओं ने ‘हिंदी नवरत्न’ में तुलसीदास ,देव,बिहारी,आदि का जो मूल्याङ्कन किया है ,वह हिंदी समाज को मान्य नहीं हुआ|शुक्ल जी ने ‘हिंदी नवरत्न’ की कड़ी आलोचना करते हुए लिखा है: ‘.........दैन्य भाव की उक्तियों को लेकर तुलसीदास जी खुशामदी कहे गए हैं| ‘देव’ को बिहारी से बड़ा सिद्ध करने के लिए बिना दोष के दोष ढूंढे गए हैं |.....इसी प्रकार की बेसिर पैर की बातों से पुस्तक भरी है|कवियों की विशेषताओं के मार्मिक निरूपण की आशा में जो इसे खोलेगा,वह निराश ही होगा’ |
    ‘हिंदी नवरत्न’ के अनुसार तुलसीदास सबसे बड़े  कवि  हैं,सूर का स्थान दूसरा है और देव तीसरे स्थान पर आतें हैं|मिश्रबंधु लिखते हैं : ‘...भाषा-साहित्य में सूरदास,तुलसीदास और देव,ये सर्वोच्च तीन कवि हैं|इनमें न्यूनाधिक बतलाना मत-भेद से खाली नहीं है|...हम लोगों का अब यह मत है कि हिंदी में तुलसीदास सर्वोत्कृष्ट कवि हैं|उन्हीं के पीछे सूरदास का नंबर आता है,और तब देव का|”(पृ.176) सातवें अध्याय के ‘उपसंहार’ से पता चलता है कि ‘नवरत्न’ के प्रथम संस्करण में कबीरदास नहीं थे,उन्हें दूसरी आवृत्ति में शामिल किया गया|मिश्र बंधु लिखते हैं: -...हिंदी-नवरत्न की द्वितीयावृत्ति प्रकाशित होते समय विचार उठा कि इस ग्रन्थ में कबीरदास को न रखना ठीक नहीं है है,परन्तु जिन कवियों को एकबार नवरत्न में लिख चुके हैं ,उनमें से किसी को निकालना भी अच्छा न लगा |परन्तु कठिनाई यह आई कि नव के स्थान पर दस कवि आने से ग्रन्थ ‘नवरत्न’ कैसे रह जाएगा?अतएव भूषण और मतिराम को ‘त्रिपाठी बंधु’ कहकर एक ही मान लिया,और कबीर को भी स्थान दे दिया|आप वास्तव में पैगम्बर (ईश्वर के बसीठी),मिस्टिक ,सिद्ध,योगी,ब्रह्मानंदी ,समाधिस्थ आदि पहले हैं,और कवि पीछे|इसलिए हमने हिंदी के नवरत्नों में आपको सातवाँ नंबर दिया|”(420) ‘नवरत्न’ के अन्य कवियों के बारे में मिश्रबंधुओं के विचार हैं: ‘भूषण ने जातीयता का सन्देश दिया,और बड़े सुन्दर ढंग से|उनकी जातीयता में राष्ट्रीयता का भाव कम,हिंदुत्व का विशेष आता है|फिर भी यह कहना पड़ता है कि उस समय हिंदुत्व का सन्देश ही एक प्रकार से भारतीयता का सन्देश था ...केशवदास के कथन अच्छे हैं,और उनकी रचना में व्यक्ति का सन्देश माना गया है,किन्तु हम इससे सहमत नहीं हैं|...मतिराम का सन्देश साहित्योन्नति और उनकी भाषा अत्यंत ललित है|चंदबरदाई ने कथा अच्छी कही है,और उनके वर्णन भी ठीक हैं|(32,छठे संस्करण की भूमिका से) 

Friday, 11 September 2015

गाँव में घर

                                        

  1974 ई.में मैं उच्च शिक्षा के लिए अपने गाँव से मुजफ्फ़रपुर के लिए निकला था, हाथ में टीन का बक्सा और कंधे पर झोला उठाए| बस पर बैठा तो रो पड़ा | लगा कलेजा मुँह को आ जायेगा| गावं जो छूट रहा था| एक बार जो निकला तो गाँव फिर वापसी नहीं हुई| मुजफ्फ़रपुर से पटना, हैदराबाद होते हुए लगभग ग्यारह वर्षों से दिल्ली में हूँ|अब उम्मीद यही है कि शेष जीवन दिल्ली में ही कटेगा, गाँव में वापसी नहीं होगी| दिल्ली को अपना परदेस कहने वाले लोग भी कहाँ लौटे कि मैं वापस होऊंगा ! गाँव में अब रखा भी क्या है कि लौटूं ? जमीन – जायदाद न के बराबर है| माँ- बाप हैं नहीं, बहनें सब अपने- अपने घर हैं| मेरे भाई और चचेरे भाइयों की अब अपनी – अपनी दुनिया है| मतलब यह कि गाँव जाने का न कोई भौतिक आकर्षण है और न कोई भावनात्मक बंधन, फिर भी मैं हूँ कि साल में दो-तीन बार गाँव हो ही आता हूँ|अब दो- तीन वर्षों की दौड़ धूप और लगभग बीस लाख खर्च करने के बाद वहाँ एक छोटा घर भी बना लिया है| पैसों की  व्यवस्था मैंने की, लेकिन भवन निर्माण की सारी परेशानियाँ पत्नी और पुत्रों ने उठाई|
दिल्ली में अभी मेरे पास कोई फ़्लैट नहीं है|दो कमरे का एक फ़्लैट खरीदने की योजना में लगा हूँ| लेकिन अपनी जेब थोड़ी छोटी पड़ रही है| गाँव में घर नहीं बनाया होता तो उतनी मुश्किल नहीं आती|गाँव में जब घर बनाने जा रहा था तो दिल्ली के मेरे मित्रों ने यह मूर्खता न करने की नेक सलाह दी थी|उन लोगों के उदहारण दिए थे, जिन्होंने दिल्ली में होते हुए अपने गाँव में घर बनाए और जो अनेक कारणों से वहां रह नहीं सके| सबसे बड़ा उदहारण दिल्ली विश्वविद्यालय, हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष स्व. प्रो. उदयभानु सिंह का था| प्रो. सिंह ने आज़मगढ़ जिला स्थित अपने गाँव में बढ़िया मकान बनवाया था|गाँव में रहने भी लगे थे , लेकिन गांववालों की खुराफात और सेहत ने वहां उन्हें टिकने नहीं दिया| दिल्ली वापस होना पड़ा- पुत्रों के पास | अंतिम साँस भी दिल्ली में ही ली|
मैं जानता हूँ कि जब रहना नहीं है तो घर बनाना भावुकता है| लेकिन मैं सारे लाभकारी तर्कों को छोड़कर अपनी इस भावुकता के साथ जीना चाहता हूँ| मै यह भी जानता हूँ कि भावुक होना कोई अच्छी बात नहीं है| फिर भी घर बनाया तो अपने कुछ निजी भावुक कारण थे| मैं अपने गाँव से इतना जुड़ा हूँ कि उससे पूरी तरह कट जाने की कल्पना भी नहीं कर सकता| गाँव में घर मुझे अपना स्थाई पता- ठिकाना लगता है| मेरे जीवन में ही शहर बदलते रहे|मुहल्ले बदले, आवास बदले| पचासों बार पत्राचार के पते बदले, फोन न. बदले | इस बदलते रहने ने मुझे आर्थिक- अकादमिक रूप से थोड़ा विस्तृत किया| इस भूमंडलीकृत दुनिया में जब सब कुछ तेजी से परिवर्तनशील है तो मैं उससे अछूता कैसे रहता! फिर भी मैं गाँव में घर की तरह खान-पान की कुछ आदतों, रिश्तेदारी, मित्रता आदि को स्थाई भाव से जीता हूँ| सो दिल्ली में घर के पहले मैंने गाँव के घर के बारे में सोचा|
मुझे लगता है कि गाँव में घर के कारण मेरे भीतर थोडा देसीपन, लोकतत्व, रागात्मकता, संबंधों में स्थायित्व का भाव आदि चीजें बची रहेंगी| मैं उन लोगों में नहीं हूँ जो गाँव छोड़कर महानगरों में बस चुके हैं, भूलकर भी गाँव नहीं जाते, लेकिन कविता- कहानी, आलोचना आदि में लोकतत्व की महिमा गाते रहते हैं| यूँ तो ग़ालिब ‘बेदरो दीवार का एक घर बनाया चाहिए’, जैसी दार्शनिकता के साथ भौतिक घर की व्यर्थता बतला चुके हैं, पर मैं उतने ऊँचे दार्शनिक घर में जीना नहीं चाहता| मुझे तो हिंदी के दो छोटे कवियों की घर विषयक परेशानी अपनी ही लगती है| दुष्यंत कुमार ने लिखा है ‘ जान पहचान नहीं, शेष हैं रिश्ते घर में,घर किराए पे लिए घर की तरह लगते हैं|’ रमेश रंजक ने लिखा है : ‘कहाँ है घर? घर जिसे आराम कहते हैं, थकी- माँदी शाम कहते हैं, एक ठंडी साँस लेकर राम कहते हैं| कहाँ है घर ?’ नगरों और घरों-संबंधों में बेगानेपन की तीव्र अनुभूति है इनमें |नगरों में रहते हुए मैं इस बेगानेपन से हमेशा परेशान रहा हूँ|गाँव का घर इस परेशानी के बीच सुकून का पड़ाव है मेरे लिए|गाँव में घर के कारण मेरे माता-पिता,चाचा-चाची ,भाई-बहन,गंवई रिश्तेदार-दोस्त मेरी स्मृति में बने रहते हैं|स्मृतियों में जीना मुझे अच्छा लगता है|मेरी स्मृति में अपना मिट्टी का वह घर टंका हुआ है,जहां मेरा जन्म हुआ और पांच वर्ष तक जिसमें रहने का सौभाग्य मिला|फिर 1960 में मेरे पिता और चाचाओं ने ईंट का छतदार घर बनाया,जो कभी पूरा नहीं बन सका,और जो दो साल पहले तक गाँव में हमारा पुश्तैनी घर था|वह घर हमारे रहने लायक नहीं रह गया था|उसे तोड़कर हमने नया घर बना लिया है,जो नए मन- मिजाज के अनुकूल है|उस घर के कारण मैं,मेरी पत्नी,मेरे बेटे बार-बार गाँव जाते हैं| हमारे पास स्थायी घर और पता-ठिकाना जो है |
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Monday, 17 August 2015

स्वतंत्रता एक अधूरा शब्द है !



स्वतंत्रता अधूरा शब्द है | पत्रकार-लेखक राजकिशोर ने सोचने के लिए एक अर्थ व्यंजक पद उछाला तो मेरे भीतर यह प्रश्न की तरह गूंजने लगा- क्या सचमुच  स्वतंत्रता अधूरा शब्द है ? मैं अभी ऊहापोह में था कि तुलसी याद आए | स्वतंत्रता की महिमा और उसके अधूरेपन को जैसे उन्होंने सोलहवीं शताब्दी में ही पहचान लिया था | उनकी दो अर्द्धालियाँ तत्काल कौंध गईं | दोनों का सन्दर्भ स्त्री-जीवन है | पहली है- ‘जिमी सुतंत्र भए बिगरहीं नारी |’ तात्पर्य यह कि स्वतंत्रता मिलते ही स्त्रियाँ पथभ्रष्ट हो जाती हैं | दूसरी अर्द्धाली है- ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’- पराधीनता के कारण स्त्रियों को यथार्थ जीवन तो दूर, स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता | पहली अर्द्धाली के जरिए मध्यकालीन सोच के लोग स्त्रियों की स्वतंत्रता पर तरह-तरह के अंकुश लगाते हैं | स्त्री-विरोधियों के लिए यह अर्द्धाली हथियार है | दूसरी अर्द्धाली के जरिए समाजवादी चिन्तक राममनोहर लोहिया स्त्री-स्वतंत्रता का प्रश्न बड़े जोरदार ढंग से उठाते थे | उनका मानना था कि स्त्री-जीवन की विडम्बना को व्यक्त करने वाली इससे बड़ी पंक्ति दूसरी नहीं है | स्त्री-जीवन के सन्दर्भ में तुलसी की ये दोनों अर्द्धालियाँ एक-दूसरे के विरोध में है | यह उनका अंतर्विरोध है | एक से उनके  सोच का पता चलता है तो दूसरी से उनकी मानवीय संवेदना का |
स्वतंत्रता का पक्ष-विपक्ष समझने में ये दोनों अर्द्धालियाँ बड़े काम की हैं | यथास्थितिवादियों के लिए गुलामों की स्वतंत्रता कभी भी प्रेय नहीं रही |  गुलामों को स्वतंत्रता देने से शोषण पर आधारित व्यवस्था चरमराने लगती है और मालिकों को अपना स्वर्ग संकट में पड़ता दिखाई देने लगता है | शोषक-वर्ग का स्वर्ग गुलामों के शोषण के बिना संभव नहीं है | इसलिए शोषकों द्वारा गुलामों के राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक अधिकारों में बराबर कटौती होती रही है | हम जानते हैं कि अपने अधिकारों में कटौती के खिलाफ शोषित-वंचित लोग बराबर संघर्ष करते रहे हैं और कुर्बानियाँ देते रहे हैं | हाबर्ड फ़ास्ट का उपन्यास ‘स्पार्टाकस’ गुलामों के विद्रोह का ऐतिहासिक दस्तावेज है | इस रचना से गुलामों के भीतर छिपी आजादी की आग का पता चलता है | आजादी के लिए गुलाम व्यक्ति कोई भी कुर्बानी दे सकता है | ऐसा इसलिए कि स्वतंत्रता मनुष्य को सबसे अधिक प्रिय है | मनुष्य ही क्यों, स्वतंत्रता तो जीव-मात्र का सपना है | स्वतंत्रता चूँकि हमारी नैसर्गिक आकांक्षा है, इसलिए लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने जब कहा कि ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ तो हमारा पूरा राष्ट्र आंदोलित हो उठा | यह हमारी स्वतंत्रता की ही  आकांक्षा थी जो १९२९ में लाहौर कांग्रेस में जवाहर लाल नेहरू की पूर्ण स्वराज्य की घोषणा में और १९४२ की अगस्त क्रांति के दौरान ‘करो या मरो’ के नारे में अभिव्यक्त हुई | यह स्वतंत्रता का ही स्वप्न था कि लेनिन के नेतृत्व में रूसी जनता ने जारशाही का तख़्ता उलट दिया था और यह भी स्वतंत्रता का ही स्वप्न था कि उसी जनता ने ७० वर्षों के बाद लेनिन-स्टालिन द्वारा स्थापित साम्यवादी शासन का न सिर्फ अंत कर दिया, बल्कि उनकी मूर्तियाँ भी तोड़ डाली |
कार्ल मार्क्स ने मानव-सभ्यता के विकास के इतिहास को चार चरणों में बांटा है : आदिम साम्यवाद, दास-प्रथा, सामंती समाज और पूंजीवादी समाज | आदिम साम्यवादी  समाज में मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण नहीं होता था | यह उसकी बनाई हुई व्यवस्था नहीं थी | वह प्रकृति प्रदत्त स्थिति थी, तब मानव समाज विकास की प्रारंभिक अवस्था में था | दास-प्रथा को मानव द्वारा मानव के शोषण की सबसे निकृष्ट व्यवस्था माना गया | खैर , चाहे सामंतवाद हो या पूँजीवाद, मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का सिलसिला जारी है , उसके रूप भले बदलते रहे हों | इसलिए मार्क्स ने साम्यवादी व्यवस्था का स्वप्न देखा | ऐसा समाज जो वर्गविहीन और राज्यविहीन होगा | मार्क्सवाद को आधार बनाकर ऐसी व्यवस्थाएँ जरूर स्थापित हुईं, लेकिन मानव-स्वतंत्रता की वह आदर्श स्थिति कभी नहीं आई,जिसका सपना मार्क्स ने देखा था  | जनता के नाम पर जनता की स्वतंत्रता नए रूप से बाधित हुई | स्वतंत्रता का आकांक्षी मानव-मन संतुष्ट नहीं हुआ | परिणाम जो होना था, हुआ | साम्यवादी समाज-व्यवस्था ताश के महल की तरह भरभराकर गिर गई |
मार्क्स का समय राजनीतिक तौर पर औपनिवेशिक दासता का था | इसलिए उनके एजेंडे में राजनीतिक स्वतंत्रता सर्वोपरि थी | इसी के साथ उन्होंने अर्थ को सामाजिक संरचना का मूल आधार बताया और संस्कृति को अधिरचना कहा | उनका मानना था कि आधार बदलने से अधिरचना बदल जाती है | लेकिन ऐसा हुआ नहीं | राजनीतिक-आर्थिक परिवर्तन के लिए जो व्यवस्था बनी, वह कई रूपों में मानव-मन की स्वतंत्रता के विरुद्ध थी | अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सर्वोपरि मानने वाली जनता ने अपनी ही बनाई व्यवस्था तोड़ दी |कारण यह है कि मनुष्य को मन की स्वतंत्रता सबसे अधिक प्रिय है| इस स्वतंत्रता को हासिल करने के लिए वह हमेशा से संघर्ष करता रहा है, मार्क्सवादी छाते के भीतर भी और मार्क्सवादी छाते के बाहर भी |      
सामंती समाज में मनुष्य पूर्ण स्वतंत्रता का स्वप्न नहीं देख सकता | सामंतवाद दूसरे की स्वतंत्रता को बाधित करके ही टिका रह सकता है | इसलिए एक राजा दूसरे राजा से अपनी स्वतंत्रता के लिए भले ही युद्ध कर ले, जनता को यह अधिकार नहीं था | भारत में किसी राजा के विरुद्ध जनता ने विद्रोह किया हो, इसके उदाहरण नहीं मिलते | लोहिया ने भारतीय जनता की इस प्रवृति पर  दुःख को व्यक्त किया है |उन्होंने कहा है कि जनता ने किसी राजा के खिलाफ कभी विद्रोह किया है इसका एक भी उदहारण भारतीय इतिहास में नहीं मिलता| आगे चलकर  राजनीतिक स्वतंत्रता का स्वप्न ही जनतंत्र के उदय का आधार बना | स्वतंत्रता की यह जनाकांक्षा ही थी कि धीरे-धीरे पूरी दुनिया में जनतांत्रिक  व्यवस्था आई और राजनीतिक उपनिवेशों का दौर समाप्त हुआ |बहरहाल,सामंती व्यवस्था में जनता को राजनीतिक स्वतंत्रता भले न रही हो, उसकी यह आकांक्षा साहित्य और अन्य कला रूपों में व्यक्त होती रही है | दुनिया के प्रायः सभी रचनाकारों-कलाकारों ने मूर्त-अमूर्त ढंग से मनुष्य की  स्वतंत्रता के स्वप्न को अपनी रचनाओं में व्यक्त किया है | दुनिया का सारा साहित्य और सारी कलाकृतियाँ सामंती व्यवस्था में जनता की मुक्ति -आकांक्षा का ही प्रतिफलन हैं  |
यूँ तो स्वतंत्रता राजनीतिक रूप में आधुनिक युग में सगुण-साकार हुई, लेकिन इसके बहुतेरे आयाम हैं जिनके बिना राजनीतिक स्वतंत्रता एक अधूरे प्रत्यय की तरह है | देश जब आज़ाद हुआ तब कम्युनिस्टों ने नारा लगाया था कि ‘यह आज़ादी झूठी है, देश की जनता भूखी है’ | इस नारे में आधा सच, आधा राजनीतिक स्टंट था | यह सही था कि जनता में भूखमरी और बेरोजगारी थी, लेकिन उससे औपनिवेशिक दासता से मुक्ति कैसी झूठी हो गई ? आज़ादी को सही परिप्रेक्ष्य में रचनाकार देख रहे थे | गिरिजा कुमार माथुर ने आज़ादी को बड़े परिप्रेक्ष्य में देखा | उन्होंने लिखा : ‘आज विजय की रात, पहरुए सावधान रहना |’ सावधान रहने की यह चेतावनी किस बात की थी ? उन्होंने अपनी उसी कविता में आगे  यह भी लिखा –‘शत्रु हट गया लेकिन उसकी छायाओं का डर है |’ ये डरावनी छायाएं शत्रु द्वारा बनाई गई विषमता और उसकी सांस्कृतिक गुलामी की थीं |इसका आशय यह था स्वतंत्रता तब तक नहीं पूरी होती जब तक कि आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक भेदभाव से जनता मुक्त नहीं होती | इसीलिए जब स्वतंत्र भारत का संविधान बन रहा था, तब गाँधी ने पंडित नेहरू को ‘हिन्द स्वराज’ पढ़ने की सलाह दी थी | गाँधी के ‘सपने का भारत’ सिर्फ राजनीतिक स्वतंत्रता से नहीं बनता था |जयप्रकाश नारायण ने जब कहा कि हमारे समाज में वर्ग हैं और वर्ग-भेद को मिटाने के लिए वर्ग-सत्याग्रह की ज़रूरत है तो वे आज़ादी को सही परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करने की कोशिश कर रहे थे | राममनोहर लोहिया ने स्वतंत्र भारत में दलितों, पिछड़ों और स्त्रियों की मुक्ति का सवाल बड़े जोरदार तरीके से उठाया | वे जब ऐसा कह रहे थे तब वे आज़ादी को केंद्र से हाशिए तक ले जाकर उसे व्यापक बना रहे थे | डॉ. अंबेडकर ने भारत के सबसे शोषित तबके दलितों की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मुक्ति के बिना राजनीतिक आज़ादी को अधूरा माना | स्वतंत्रता को सिर्फ राजनीतिक आशय से अलग व्यापक अर्थों में ग्रहण करने की वकालत इन भारतीय विचारकों के साथ विश्व के स्वतंत्रताकामी तमाम विचारकों ने भी की है |
किसी ने कहा है, शायद डॉ. अंबेडकर ने ही कि राजनीतिक गुलामी से भी बड़ी सांस्कृतिक गुलामी होती है | आज राजनीतिक गुलामी से तो जनता मुक्त हो चुकी है | आर्थिक क्षेत्र में भी जनता की स्थिति में थोड़ा-बहुत परिवर्तन आया है, लेकिन धार्मिक अन्धविश्वास, पाखंड, कर्मकांड, भाषाई दासता आदि से आज भी जनता  मुक्त नहीं है | इसीलिए गाँधी हर क्षेत्र में स्वदेशी की बात करते थे | वे जानते थे कि गोरे साहबों के चले जाने और सत्ता की कुर्सी पर भारतीयों के आ जाने मात्र से ही आज़ादी का सपना पूरा नहीं होता | वे असल में उस भारतीय मानस को बदलना चाहते थे जो तरह-तरह के देशी अंधविश्वासों और विदेशी प्रभावों की गिरफ्त में है |
स्वतंत्रता एक आधुनिक प्रत्यय है | स्वतंत्रता की अवधारणा आधुनिकता के साथ पैदा हुई | फ्रांसीसी क्रांति के तीन बड़े नारे थे- ‘स्वतंत्रता, समता और विश्व-बंधुत्व’ | मानव-मानव में जब तक भेद है, दुनिया के देशों में जब तक युद्ध का खतरा है, तब तक न तो स्वतंत्रता पूरी हो सकती है न समता के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है
| समता और स्वतंत्रता के साथ विश्व-बंधुत्व भी  वह आधुनिक अवधारणा है जो पूरे विश्व को शांति की ओर ले जाता है | जब तक समाज में और दुनिया में समता नहीं स्थापित होगी, तब तक शांति की कल्पना बेमानी है | दिनकर ने ठीक ही लिखा है : ‘शांति नहीं तब तक, जब तक सुख भाग न नर का सम हो; नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो |’ समाज और विश्व में विषमता का होना अशांति की जड़ है | जो लोग दूसरे का अधिकार, चाहे स्वतंत्रता का हो, चाहे समता का, जब हड़पते हैं तो वे एक तरह से अशांति को न्योता देते हैं | महाभारत की विभीषिका से द्वंद्व में पड़े युधिष्ठिर को शर-शय्या पर पड़े भीष्म के मुँह से दिनकर ने यही कहलाया है – ‘चुराता न्याय जो, रण को बुलाता भी वही है; युधिष्ठिर सत्व की अन्वेषणा पातक नहीं है |’ आशय यह है कि न्याय के लिए संघर्ष होता रहेगा और न्याय पाने वालों का संघर्ष जायज है | यह संघर्ष स्वतंत्रता और समता के व्यापक उद्देश्य से परिचालित है |
व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के पूर्ण विकास के लिए स्वतंत्रता ज़रूरी है | गुलाम व्यक्ति, समाज और राष्ट्र कभी भी विकास की पूर्णता का दावा नहीं कर सकते | गुलाम व्यक्ति अपनी स्वाभाविक चाल भूल जाता है | जिस दिन उसे अपनी स्वाभाविक प्रकृति का पता चलता है, वह गुलामी के बंधन को तोड़ने पर उतारू हो जाता है | इसलिए कि मनुष्य को स्वतंत्रता सबसे अधिक काम्य है | लेकिन यह स्वतंत्रता कभी भी निरंकुश नहीं हो सकती | एक व्यक्ति की स्वतंत्रता दूसरे व्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधक बने तो वह प्रश्नांकित होने लगेगी | यही बात समाज और राष्ट्र की स्वतंत्रता के अधिकार पर  भी लागू होती है | एक स्वतंत्र समाज और राष्ट्र से यह सहज अपेक्षा होती है कि वह दूसरे समाज और राष्ट्र की स्वतंत्रता का भी उतना ही सम्मान करे | इससे अर्थ यह निकलता है कि स्वतंत्रता की जो वाक्य रचना है, उसे भी व्याकरण की ज़रूरत है | व्याकरण से यहाँ तात्पर्य यह है कि अबाध और निरंकुश स्वतंत्रता को मर्यादा की सीमा का ध्यान रखने का सलीका आना चाहिए | अज्ञेय ने स्वतंत्रता के अधिकार को एक बड़े ही दिलचस्प उदाहरण से परिभाषित करने की कोशिश की है | एक व्यक्ति अपने हाथ में छड़ी घुमा रहा था, इसपर सामने के दूसरे व्यक्ति ने आपत्ति की और कहा कि छड़ी नचाने की आपको स्वतंत्रता है, लेकिन आपकी यह स्वतंत्रता वहाँ समाप्त होती है, जहां से मेरी नाक शुरू होती है | किसी के छड़ी नचाने का यह मतलब नहीं कि दूसरे की नाक टूट जाए | मतलब साफ़ है कि स्वतंत्रता अबाधित और अमर्यादित नहीं है | इसे भाषा और व्याकरण के उदाहरण से भी ठीक से समझा जा सकता है | बोलियों को प्रायः व्याकरण की ज़रूरत नहीं होती, लेकिन जैसे ही कोई बोली भाषा का रूप ग्रहण करती है, उसे किसी कामता प्रसाद गुरु और किशोरी दास वाजपेयी की ज़रूरत होती है | बोली की अबाध स्वतंत्रता उसके भाषा बनते ही व्याकरण की मर्यादा से मर्यादित हो जाती है | यह बात स्वतंत्रता के सन्दर्भ में जीवन के हर क्षेत्र में  लागू होती है |
मुक्ति का स्वप्न तो मनुष्य प्राचीन काल से देखता आ रहा है | मुक्ति का यह स्वप्न धार्मिक-साहित्यिक क्षेत्र में तरह-तरह के प्रतीकों-रूपकों में व्यक्त होता रहा है | हमारे यहाँ मोक्ष की अवधारणा सांसारिक बंधन से मुक्ति का ही एक रूप है | सूरदास का वृन्दावन, जायसी का सिंघलद्वीप, तुलसी का रामराज्य और कबीर का अमरपुर सामंती समाज में मानव मुक्ति के देखे गए सपने  के खूबसूरत रूपक ही तो हैं | गाँधी आधुनिक भारत के लिए जिस रामराज्य की कल्पना करते हैं, उसका रूपक भले रामायण का हो, लेकिन स्वप्न स्वतंत्रता के साथ समतामूलक समाज के निर्माण का है | ऐसे समतामूलक समाज का सपना जहाँ कोई दीन-दुखी न हो और किसी तरह का भेदभाव न हो | लोहिया सूरदास के वृन्दावन की प्रशंसा इसलिए करते थे कि स्त्रियाँ दुनिया में पुरुष के कहीं बराबर हुई तो वृन्दावन में और कान्हा के साथ | भारतीय साहित्य के इन मिथकीय चरित्रों के जरिये आधुनिक युग के हमारे राष्ट्र नायकों ने स्वतंत्रता और समता का सपना देखा|
उत्तर आधुनिक चिन्तकों के  अनुसार महावृतांत का युग समाप्त हो चुका है | मार्क्सवादी या गांधीवादी सपने के अनुसार मानव-मुक्ति के बड़े संघर्षो की भी प्रासंगिकता समाप्त हो गयी है | उसकी जगह विमर्शों ने ली है | अब स्त्री, दलित, आदिवासी आदि विमर्षों के ज़रिये मानव-मुक्ति के खंडित संघर्षो का दौर है | मानव-मुक्ति के महासंघर्ष  को इन विमर्शमूलक बहसों ने हाशिए पैर धकेल दिया है | परिणाम यह है कि स्वतंत्रता के साथ समता के एकजुट संघर्ष का जो  ज़ोरदार नारा था, वह कमजोर हुआ है | भूमंडलीकरण के दौर में  सुविधासंपन्न और वंचित तबके का फर्क कई गुना बढ़ गया है | विकास का फायदा कुछ प्रतिशत लोगों तक पंहुचा है | शेष समाज विकास के उस रिसाव का मोहताज़ है | नेहरूयुगीन  विकास नीति को देखकर विनोवा भावे ने यही कहा था कि यह नीति समाज के गरीब तबकों को विकास के रिसाव के भरोसे छोड़ देगी | रिसाव का मतलब यह था कि इस विकास नीति के जरिए  अमीरों की अमीरी का घड़ा जब भर जाएगा तब उसके रिसाव का लाभ गरीब तबके तक पहुंचेगा | नेहरू युग से आजतक गंगा का बहुत पानी बह चुका है | कल्याणकारी राज्य की योजनायें ख़त्म होती गयी हैं और उसकी जगह बेशर्म लूट-खसोट की आर्थिक-नीति का चुकी है | ऐसे में वास्तविक स्वतंत्रता का सपना बिना समतामूलक समाज की स्थापना के कैसे सगुण-साकार होगा | गाँधी ने ‘हिंदी स्वराज’ में ‘अपने मन के राज्य को स्वराज्य’ की संज्ञा दी है | ‘स्वराज्य’ यानी अपना राज्य यानी औपनिवेशिक दासता से मुक्ति | गाँधी का नाम माला की तरह जपनेवालों से एक सवाल जरुर पूछा जाना चाहिए कि भारतीय जन को जो स्वराज्य मिला है, उसमें क्या उसके मन का भी राज्य शामिल  है ?


Thursday, 18 June 2015

कबीर के बारे में : एवेलिन अंडरहिल

(प्रस्तुत लेख रवींद्रनाथ ठाकुर की पुस्तक ‘पोएम्स ऑफ़ कबीर’ की श्रीमती एवेलिन अंडरहिल लिखित भूमिका है| रवि बाबू को कबीर बहुत प्रिय थे| उनका रहस्यभाव उन्हें विशेष रूप से आकर्षित करता था|उन्होनें कबीर की सौ कविताओं का अंगरेजी में अनुवाद किया|वे कविताएँ ‘पोएम्स ऑफ़ कबीर’ नाम से १९१५ में लन्दन से प्रकाशित हुईं|इस पुस्तक की लम्बी भूमिका इंट्रोडक्शन’ नाम से अंडरहिल ने लिखी|उस पुस्तक के प्रकाशन में उन्होंने भी विशेष दिलचस्पी दिखाई| ‘पोएम्स ऑफ़ कबीर’ के अनुवाद और प्रकाशन का मूल उद्देश्य था-कबीर के प्रतिभा से यूरोपीय पाठकों को परचित कराना|

   ऐवलिन अंडरहिल(१८७५-१९४१)इंगलैंड निवासी थीं|वे अंग्रेजी की लेखिका और कवयित्री थीं|लेकिन उन्हें विशेष प्रसिद्धि रहस्यवाद की विशेषज्ञ के रूप में मिली|यूरोपीय रहस्यवाद की तो वे अधिकारी विदुषी मानी जाती हैं|अपने  समकालीन बौद्धिकों के बीच रहस्यात्मक ब्रह्म विज्ञान को एक प्रतिष्ठित अनुशासन बनाने में उन्होंने ऐतिहासिक भूमिका निभाई|कविता संग्रहों के अतिरिक्त उनकी प्रसिद्द पुस्तकें हैं-मिस्टिसिज्म’,दि मिस्टिक वे’, ‘वरशिप’, ‘मैन एंड दि सुपरनेचुरल’, ‘दि मिस्ट्री ऑफ़ सेक्रिफायस’ आदि|मिस्टिसिज्म (१९११) उनकी सर्वाधिक चर्चित और विश्वप्रसिद्ध पुस्तक है|

   ‘पोएम्स ऑफ़ कबीर’ में प्रायः वे कवितायें हैं,जिनका सम्बन्ध कबीर की रहस्य-भावना से है|विषय की मांग और रहस्यवाद में अपनी विशेष दिलचस्पी के कारण अंडरहिल ने कबीर की रहस्य-भावना के गहन विवेचन के साथ उसकी बहुत-सी ऐसी विशेषताएं खोज निकाली हैं,जिनको हिंदी आलचकों ने प्रायः नहीं देखा है|सामाजिक संदर्भो से जुड़ी कबीर की कविताओं की बड़ी चर्चा होती है|लेकिन सामाजिकता के आग्रही आलोचकों के लिए भी कबीर की रहस्य-भावना का कोई सुसंगत सामाजिक आधार खोजना प्रायः मुश्किल होता है|बहुत-से लोगों का आज भी यह विचार है कि रवींद्रनाथ और अंडरहिल ने ‘पोएम्स ऑफ़ कबीर’ के जरिए कबीर की रहस्यवादी मूर्ति गढ़ने की कोशिश की|अंडरहिल का प्रस्तुत लेख इस दृष्टि से ऐतिहासिक महत्व का है कि इसमें संभवतः पहली बार कबीर के रहस्यवाद के सामाजिक सन्दर्भों को बहुत हद तक समझने की कोशिश दिखाई पड़ती है|कबीर के रहस्यवाद के इस विश्लेषण से हिंदी के विद्वान तो परिचित हैं,लेकिन पुस्तक की अनुपलब्धता के कारण अब आम पाठकों के लिए यह आसानी से सुलभ नहीं है|प्रस्तुत अनुवाद का उद्देश्य कबीर की छः सौवीं जयंती के अवसर पर कबीर सम्बन्धी इस दुर्लभ चर्चा की याद को ताजा करना है|

    रहस्य-भावना प्रत्यक्ष सच्चाई नहीं,बल्कि व्यक्तिगत भाव और अनुभूति है |व्यक्तिगत भाव और अनुभूति भी सामान्य स्तर की नहीं,विशेष स्तर की|कबीर की गहन रहस्य-भावना का रहस्यवाद की एक विदुषी लेखिका द्वारा अंगरेजी भाषा में किया गया यह गहन अध्ययन अपने अनुवाद कार्य के लिए जिस गहन धैर्य,योग्यता और सहानुभूति की मांग करता है,वह मुझमें नहीं है|फिर भी कबीर के प्रति प्रेम के कारण इस कार्य को पूरा करना पड़ा|कबीर की साधना और उनके प्रतीकों को समझना जितना कठिन है उतना ही कठिन है किसी विदेशी व्यक्ति द्वारा किये गए अध्ययन को हिंदी पाठकों के लायक बनाना|श्रीमती अंडरहिल ने यह भूमिका यूरोप के पाठकों को ध्यान में रखकर लिखी थी|उन्होंने सूफी और ईसाई रहस्यवादियों से तुलना करते हुए कबीर की जो व्याख्या की है,उसे निर्विवाद नहीं कहा जा सकता|जिस देश-काल के वे उपज थे,उससे भिन्न देश-काल और भाषा में किया गया अध्ययन निर्विवाद हो भी नहीं सकता|अंडरहिल ने रहस्य-भावना की व्याख्या के लिए अंगरेजी भाषा में जिस संश्लिष्ट शैली का प्रयोग किया है,वह हिंदी भाषा के प्रकृति के मेल में नहीं|अनुवाद में मूल वाक्य को बार-बार तोडना पड़ा है|कुछ शब्द अंगरेजी में जो अर्थ देते हैं,हिंदी में वह अर्थ नहीं होता|इन सारी कठिनाइयों के साथ यह अनुवाद कार्य किया|कहीं-कहीं मूल शब्द को कोष्ठक में रख दिया गया है|कुछ जगह अधिक स्पष्टता के लिए कोष्ठक में अपनी ओर से हिंदी शब्द दे दिए गए है1)- अनुवादक

                   कबीर भारतीय रहस्यवाद के इतिहास में सर्वाधिक दिलचस्प व्यक्तियों में से एक हैं|उनके गीतों का यह संग्रह अंगरेजी            पाठकों के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है|बनारस में या उसके आस-पास मुसलमान माता-पिता के घर १४४० ई. के लगभग पैदा होने वाले कबीर जीवन के प्रारंभ में ही प्रख्यात हिन्दू संत रामानंद के शिष्य हो गये थे|जिस धार्मिक नवजागरण की शुरुआत १२ वीं शताब्दी के महान ब्राह्मणवादी सुधारक रामानुज ने दक्षिण(भारत) में की थी,उत्तर में उसे रामानंद ले आये|यह नवजागरण अंशतः सनातनी पूजा पद्धति के रीतिवाद के फैलाव के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया था|यह (नवजागरण) अंशतः वेदांत-दर्शन के तीव्र बुद्धिवाद के विरुद्ध ह्रदय के पुकार पर जोर दे रहा था|वेदान्त दर्शन के तीव्र बुद्धिवाद का दावा अतिरंजना के साथ अद्वैत दर्शन में था|रामानुज के उपदेशों में भगवान् विष्णु के प्रति तीव्र भक्तिभाव ईश्वरीय सृष्टि(divine nature) की निजी अवधारणा के रूप में प्रकट हो रहा था|वह रहस्यात्मक ‘प्रेम का धर्म’ आध्यात्मिक संस्कृति के निश्चित सतह पर फैला है|उसके सिद्धांत और दर्शन अहिंसक हैं|यद्यपि हिन्दू धर्म में ऐसी भक्ति-भावना पहले से है और इसकी अभिव्यक्ति ‘भगवतगीता’ के बहुत से अनुच्छेदों में मिलती है,तथापि मध्यकालीन नवजागरण में इसके समन्वय का बड़ा तत्व मौजूद था|कहा जाता है कि रामानंद के माध्यम से भक्ति की भावधारा कबीर तक आई|रामानंद व्यापक धार्मिक संस्कृति और मिशनरी उत्साह के व्यक्ति थे|जब महान फ़ारसी रहस्यवादी अतर,सादी,जलालुद्दीन और हाफिज की भाववेगपूर्ण कविता और गंभीर दर्शन भारतीय धार्मिक चिंतन को जोरदार ढंग से प्रभावित कर रहा था,रामानंद ने ब्राह्मणवाद के परंपरित ब्रह्म विज्ञान के साथ इस तीव्र और व्यक्तिगत मुसलमानी रहस्यवाद के मेल-मिलाप का सपना देखा|कुछ लोगों का मानना है कि ये दोनों धार्मिक नेता(फ़ारसी रहस्यवादी और रामानंद)ईसाई चिंतन और जीवन से भी प्रभावित है|लेकिन इस मुद्दे पर सक्षम विद्वानों में व्यापक मतभेद हैं|इसलिए इस विवाद को यहाँ नहीं उठाया जा रहा है|फिर भी हम दावा कर सकते हैं कि उनकी शिक्षाओं में दो या तीन स्पष्टतः प्रतिकूल तीव्र आध्यात्मिक सांस्कृतिक धाराएँ मिलती हैं,जैसे यहूदी और यूनानी चिंतन का ईसाई गिरजाघरों में मेल हुआ था|कबीर की प्रतिभा की उत्कृष्ट विशिष्टताओं में से एक यह है कि वे अपनी कविता में उन सबका समन्वय करने में समर्थ हुए|

  कबीर एक महान धार्मिक सुधारक और एक पंथ के संस्थापक थे,जिससे लाखों उत्तर भारतीय हिन्दू आज भी जुड़े हैं|कबीर अब भी एक गहरे रहस्यवादी कवि के रूप में हमारे सामने हैं| ‘सत्य’ को अभिव्यक्त करने वाले,धार्मिक एकान्तवाद से घृणा करने वाले और मनुष्य को भगवान् की संतान मानकर उसे समता की प्रतीति कराने वाले इस व्यक्ति की नियति यह है कि जिन बंधनों को तोड़ने का उन्होंने जीवन-भर कठोर यत्न किया,उन्हीं बंधनों में उन्हें बांधकर उनके अनुयायियों ने उन्हें सम्मानित किया है|लेकिन उनके अदभुत गीत,उनकी दृष्टि और प्रेम के अबाध प्रवाह के कारण,न कि उनके नाम पर चलने वाले शिक्षात्मक उपदेशों के कारण आज भी जीवित हैं|उनकी अमर वाणी दिल को छू जाती है|उनकी कविता में रहस्य-भावना की व्यापक अभिव्यक्ति हुयी है|उनकी अक्खड़ तन्मयता,असीम के प्रति अन्यतम लौकिक आवेग और ईश्वर की अत्यंत आत्मीय निजी अनुभूति हिन्दू और मुसलमानी आस्था से प्राप्त घरेलू रूपकों एवं धार्मिक प्रतीकों में व्यक्त हुई है|उन कविताओं के रचयिता के बारे में यह कहना मुश्किल है कि वह ब्राह्मण था या सूफी,वेदांती था या वैष्णव ;क्योंकि उन्होंने खुद अपने बारे में कहा है कि ‘वे एक साथ अल्लाह और राम की संतान हैं|’वह ‘परम सत्ता’ जिसे वे जानते थे और जिसकी आराधना करते थे तथा जिसकी आनंदपूर्ण मैत्री (छवि)दूसरों की आत्मा में देखते थे,अनुभवातीत है| ‘उसमें’ सभी आध्यात्मिक कोटियाँ तथा सारी धार्मिक परिभाषाएं समाहित हैं|फिर भी प्रत्येक व्यक्ति ने उस असीम और अनलंकृत समष्टि को कुछ हद तक उपलब्ध किया है| ‘जो’ उनके मापदंडो के अनुसार अपने आपको धर्ममतों के श्रद्धालु प्रेमियों के लिए प्रकट करता है|

  कबीर का जीवन परस्पर विरोधी किंवदंतियों से भरा हुआ है,जिनमें से किसी पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता|इनमें से कुछ हिन्दू स्रोतों और कुछ मुसलमानी स्रोतों से निकली हैं|वे किम्वदंतियां  कबीर को कभी सूफी तो कभी ब्राह्मण संत बताती हैं|फिर भी उनका नाम अंतिम रूप से व्यवहारिक रूप में उनके मुसलमान होने का अंतिम प्रमाण है|सर्वाधिक प्रचलित कहानी उन्हें बनारस के मुसलमान बुनकर की असली या गोद ली गई  संतान के रूप में प्रस्तुत करती है|बनारस शहर में ही उनके जीवन की प्रमुख घटनाएँ घटित हुईं |

 पंद्रहवीं शताब्दी तक बनारस में भक्ति धर्म की समन्वयवादी प्रवृतियां पूरे उत्कर्ष पर थीं|सूफी और ब्राह्मण शास्त्रार्थ करते हुए दिखते हैं|दोनों धर्ममतों के सर्वाधिक धार्मिक लोग रामानंद की शिक्षाओं के निरंतर संपर्क में है |उस समय रामानंद की प्रसिद्धि अपने शिखर पर थी|कबीर में धार्मिक भाव जन्मजात था|बालक कबीर ने रामानंद को भगवान द्वारा नियत गुरु के रूप में देखा|लेकिन एक हिन्दू गुरु एक मुसलमान को शिष्य एक रूप में स्वीकार करेगा,इसके संयोग बहुत कम थे|यह बात उन्हें मालूम भी थी,इसलिए वे गंगा नदी की सीढ़ियों पर छिप गए|रामानंद वहाँ स्नान करने के अभ्यस्त थे|पानी की ओर नीचे आते समय स्वामीजी का कबीर के शरीर से अप्रत्याशित ढंग से स्पर्श हुआ|वे विस्मय से चिल्ला उठे-‘राम!राम!’ रामानंद राम की पूजा भगवान् के अवतार के रूप में करते थे|उसके बाद कबीर ने घोषणा की कि रामानंद के मुंह से उन्हें दीक्षा का मन्त्र मिल गया है और उन्होंने रामानंद का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया है|कट्टरपंथी ब्राह्मण और मुसलमान दोनों समान रूप से कबीर के ईश्वरीय मीमांसा सम्बन्धी काम को अवज्ञा मानते थे|उनके विरोध के बावजूद कबीर अपनी बात पर डंटे रहे|इस तरह उन्होंने क्रिया रूप में नए धर्म (रिलेजियस-सिंथेसिस)के उस सिद्धांत का प्रचार किया,जिसे रामानंद ने अपने चिंतन में स्थापित किया था|रामानंद उनके गुरु के रूप में दिखते हैं,यद्यपि मुसलमानी किम्वदंती झांसी के प्रसिद्द सूफी पीर तकी को उनके जीवन के उत्तरार्ध का उस्ताद मानती है|लेकिन हिन्दू संत ही मानव रूप में उनके गुरु दिखते हैं,जिनके प्रति अपने गीतों में उन्होंने श्रद्धा व्यक्त की है|

  कबीर के बारे में हमें जो थोड़ी-सी जानकारी है,वह उस प्राच्य रहस्यवादी से सम्बंधित तत्कालीन बहुत-सी धारणाओं का खंडन करती है|साधना(displine) के वे सोपान जिनसे वे गुजरे,वे तौर-तरीके जिनमें उनकी धार्मिक प्रतिभा विकसित हुई,उनसे हम पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं|वे वर्षों रामानंद के शिष्य रहे |रामानंद अपने समय के सभी महान मुल्लाओं और ब्राह्मणों से ब्रह्म विज्ञानी और दार्शनिक शास्त्रार्थ करते थे|इस आधार पर शायद हम कबीर की हिन्दू और सूफी दर्शन से सम्बन्ध की जानकारी पा सकते हैं|हो सकता है कि हिन्दू या सूफी ध्यान-मनन की परम्परागत शिक्षा उन्हें मिली भी हो और नहीं भी|लेकिन यह स्पष्ट है कि उन्होंने पेशेवर सन्यासी का जीवन ग्रहण नहीं किया था या ध्यानशीलता,तप एवं विशिष्ट खोज में अपने आपको समर्पित करके वे संसार से विरक्त नहीं हुए थे|वे कुशल संगीतज्ञ और कवि थे|उनकी आराधना के अन्तरंग जीवन की कलात्मक अभिव्यक्ति उनके संगीत और कविता में हुई है|वे स्वस्थचित्त और मिहनती स्वाभाव के पूरबिया दस्तकार थे|सभी किम्वदंतियां इस बात पर एकमत हैं कि कबीर बुनकर थे|वे अपनी जीविका करघा से चलाते थे|वे एक निरक्षर आदमी थे|टेंट निर्माता पॉल,मोची बोह्मो,ठठेरे बनियन की तरह वह जानते थे कि विजन और उद्योग का मिलान कैसे किया जाता है|ध्यान के भाव में विघ्न डालने की अपेक्षा उनका हस्तशिल्प इसमें मदद करता था|शरीर मात्र को कष्ट देने वाले तप से उन्हें घृणा थी|वे सन्यासी नहीं एक शादीशुदा आदमी थे|वे एक परिवार के पिता थे|तपोमय जीवन पर जोर देने वाली हिन्दू किम्वदंतिया इस तथ्य की अनदेखी करती हैं|उन्होंने अलौकिक प्रेम के अपने हर्षोन्मत गीतों में जो कुछ गाया,वह सामान्य लोगों की समझ से परे है|उनका कर्म उनके जीवन की परम्परित कथा की पुष्टि करता है|प्रेम और त्याग के अवसरों के लिए घरेलू जीवन की तथा दैनिक अस्तित्व के महत्व और यथार्थ के वे बार-बार प्रशंशा करते हैं|पेशेवर योगी की पवित्रता की अवहेलना करते हुए वे कहते हैं-‘योगी ने लम्बी दाढ़ी बढ़ा रखी है और उसकी जटाएं उलझी हुयी हैं|इस कारण वह बकरे की तरह दीखता है|’वह योगी इससे भी आगे बढ़कर प्रेम,ख़ुशी और सुन्दरता से बने संसार से पलायन कर जाना चाहता है|उस संसार से,जो आदमी की खोज की सबसे उपयुक्त जगह है|उस ‘सत्य’ को नहीं पाया जा सकता है|इस सम्पूर्ण संसार में उसके प्रेम की जोत फैली हुयी है|

  वैसे देश-काल में उस निडर और मौलिक मनोवृत्ति की पहचान के लिए संत साहित्य के अधिक ज्ञान की जरुरत नहीं है|हिन्दू या मुसलमान दोनों तरह की कट्टरपंथी पवित्रता के लिहाज से कबीर विशुद्ध विधर्मी थे|सभी सांस्थानिक धर्मो और बाह्याचारो को वे उसी तीव्रता और सम्पूर्णता में नकारते थे,जैसे क्वैकर्स नकारते थे|जहां तक इनके धार्मिक विचारों का सवाल है,उनकी छवि एक खतरनाक आदमी की थी| ‘अलौकिक सत्य’ के साथ ‘सहज समाधि’ का उन्होंने निरंतर गुणगान किया|वह ‘अलौकिक सत्य’ प्रत्येक आत्मा की ख़ुशी और कर्तव्य में है|वह कर्मकांड और शारीरिक तप दोनों से परे है|उनका भगवान् न तो काबा में है,न कैलाश में|जिन्हें उसकी खोज है,उन्हें दूर जाने की जरुरत नहीं|वह हर कहीं है|एक स्वयंसिद्ध पवित्र आदमी की तुलना में ‘एक धोबी और एक बढ़ई’ में उसे ढूँढना अधिक आसान है|इसलिए हिन्दू और मुसलमान दोनों की धर्मपरायणता के सारे उपकरणों-मंदिर और मस्जिद,मूर्ति और पवित्र जल तथा धर्मग्रन्थ और पुजारी-का समान रूप से इस विद्रोही कवि ने खंडन किया|उन्होंने आत्मा और प्रेम के मध्य आने वाली सभी मृत चीजों का तिरस्कार किया है-

       सारे बिंब जीवनहीन हैं,
      वे बोल नहीं सकते,       
      मैं जानता हूँ,
      उनके लिए मैं बहुत रोया, 
      पुराण और कुरआन शब्द मात्र हैं, 
      परदा उठाकर मैंने सब देखा है|

   इस तरह की बात किसी संगठित मठ के द्वारा बर्दाश्त नहीं की जा सकती|यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि पुजारी प्रभावित अपने कर्म-क्षेत्र बनारस में कबीर उत्पीडित किये गये हों|एक बहुज्ञात किम्वदंती के अनुसार ब्राह्मणों ने एक सुन्दर गणिका को उनके पास उन्हें लुभाने और परवर्तित करने के लिए भेजा था-मैगाडाले की तरह|उच्च प्रेम के स्रष्टा से उस गणिका का अचानक मिलन इस बात का प्रमाण है कि तत्कालीन धार्मिक शक्तियां कितने भय और अनादर से कबीर को देखती थी|कम से कम एक बार किसी को स्वस्थ कर देने के काल्पनिक चमत्कार की उपलब्धि के बाद उन्हें बादशाह सिकंदर लोदी के पास लाया गया और दैवीय शक्ति के वाहक का दावा करने वाले के रूप में आरोपित किया गया|लेकिन सिकंदर लोदी एक महत्वपूर्ण संस्कृति का राजा था|अपनी निजी आस्था से सम्बंधित मौजी प्रकृति के संत लोगों के प्रति उदार था|जन्मना मुसलमान कबीर ब्राह्मण धर्माधिकारियों के लिए बाहरी और सूफियों के वर्ग के थे,जिन्हें महान ब्रह्मविज्ञानी स्वातंत्र्य प्राप्त था|यद्यपि शांति कायम रखने के लिए उन्हें बनारस से निर्वासित कर दिया गया था,फिर भी वे अपने काम में लगे रहे|यह घटना १४९५ ई. की लगती है,जब वे साठ के करीब थे|उनके जीवन की यह अंतिम घटना है,जिसकी हमें निश्चित जानकारी है|तत्पश्चात वे उत्तर भारत के नगरों में घूमते हुए दिखाई देते हैं|वे नगर उनके शिष्यों के केंद्र-स्थल हैं|प्रेम के प्रचारक और कवि के रूप में उन्होंने अपना निर्वासित जीवन व्यतीत किया|प्रेम,जिसके बारे में अपने एक गीत में वे कहते हैं, ‘काल के प्रारंभ से’ वह नियत है|अब वे बूढ़े और कमजोर हो गये थे|उनके हाथ इतने दुर्बल हो गये थे कि वे अपना प्रिय वाद्य भी नहीं बजा सकते थे|१५१८ में गोरखपुर के नजदीक मगहर में उनकी मृत्यु हो गयी|

  एक बहुत खूबसूरत किम्वदंती है कि उनकी मृत्यु के बाद उनके हिन्दू और मुसलमान शिष्यों में उनके शव के स्वामित्व को लेकर विवाद उठ खड़ा हुआ|मुसलमान शिष्य दफनाना चाहते थे तो हिन्दू शिष्य जलाना|वे जब आपस में बहस कर रहे थे,तब कबीर उनके सामने प्रकट हुए और उनसे कहा कि वे कफ़न उठाये और नीचे देखें कि क्या कुछ पडा है|उन्होंने ऐसा ही किया और पाया कि वहाँ फूलों का ढेर है|उसमें से आधा मुसलामानों ने मगहर में दफनाया और आधा हिन्दू बनारस जलाने के लिए ले आये|दो महान धर्मों के सर्वाधिक सुन्दर सिद्धांतो को सुगन्धित बनाने वाले व्यक्ति के कर्मरत जीवन का यह उपसंहार था|

                                                                         (2)   

एक तरह से रहस्यवादी कविता ‘सत्य दर्शन’ के प्रति स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में परिभाषित की जा सकती है,दूसरी ओर यह भविष्यवाणी का एक रूप है|दो बिन्दुओं को मिलाने वाली रहस्यवादी चेतना की यह विशेष खासियत है|ऊपरी तौर पर यह ईश्वर की आराधना है,लेकिन आंतरिक रूप से पारलौकिक जीवन के रहस्यों की दूसरे लोगों के लिए अभिव्यक्ति है|इसलिए इस चेतना की कलात्मक अभिव्यक्ति दोहरे चरित्र की है|यह प्रेम-कविता है,लेकिन ऐसी प्रेम कविता, जो प्रायः मिशनरी उद्देश्य से लिखी जाती है|

 कबीर के गीत हर्षातिरेक और प्रेम से भरे हैं|वे साहित्यिक भाषा में नहीं, लोकप्रिय हिंदी में लिखे गये हैं| जाको पॉल दा तोदी और रिचार्ड रॉल की देसी भाषा में लिखी कविताओं की तरह कबीर ने अपने गीत जानबूझकर जनता को संबोधित करके लिखे|उन्होंने पेशेवर धार्मिक वर्ग को संबोधित करके नहीं लिखा|सामान्य जीवन से लिए गये बिम्बों से वे प्रभावित हैं|वे गीत सार्वदेशिक अनुभवों से भरे हैं|अत्यंत ईमानदार अपील से भरे ये गीत सरलतम रूपकों में हैं|ऐसे आवेग और सम्बन्ध से भरे रूपक,जिन्हें हर कोई जानता है,जैसे दूल्हा-दुल्हन,गुरु-शिष्य,तीर्थयात्री,किसान तथा प्रवासी पक्षी यानी आत्मा (हंसा)|आत्मा और परमात्मा का संयोग अनुभवातीत है|यह हंसा सच्चे और तीव्र विश्वास के साथ हमें घर (ईश्वर के) जाने के लिए प्रेरित करता है|उसकी दुनिया में ‘लोक’ और ‘लोकोत्तर’ के बीच कोई दीवार नहीं है|प्रत्येक वस्तु ईश्वर की लीला है,इसलिए हर वस्तु यहाँ तक कि विनम्रतम प्रार्थना भी सृष्टिकर्ता के मन के रहस्य को व्यक्त करने में सक्षम है|

 महानतम रहस्यवादियों की यह सामान्य विशेषता है कि अलौकिक सच्चाइयों को प्रस्तुत करने के लिए वे भौतिक साधनों का प्रयोग करते हैं| जब वे अंततः सच्ची समाधि प्राप्त कर लेते हैं,तब उनके लिए सृष्टि की सारी चीजें समान अधिकार से युक्त हो जाती हैं|समान अधिकार यानी भगवान् की उपस्थति की सांस्कारिक घोषणाएं|घरेलू एवं शारीरिक प्रतीकों का उनका निर्भय नियोजन तथा प्रायः आश्चर्यजनक और अनभ्यस्त स्वाद के प्रति विद्रोह भी उनके आध्यात्मिक जीवन के आनंदातिरेक के प्रत्यक्ष हिस्से हैं|महान सूफियों और जाको पॉल दा तोदी,रुजब्रोक,बोह्मो जैसे ईसाइओं के साहित्य इस तरह के चित्रों से भरे हुए हैं|इसलिए हमें कबीर के गीतों में उनकी भाव समाधि की अभिव्यक्ति के दुःसाहसी प्रयास को देखकर आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए|ठोस एवं आध्यात्मिक भाषा के निरंतर सान्निध्य के जरिए वे दूसरों को भी इस अनुभव के लिए राजी करते हैं|इस एकांतरण के लिए स्वाभाविक तौर पर मन को बदलना जरुरी है,जिससे आदमी काम लेता है|मन में ही पुराने बोध जड़ जमाए हुए हैं|इसे  हम ठीक से समझने का प्रयास करें तो उनकी कविता हमारी समझ से दूर नहीं होगी|   कबीर सर्वोच्च रहस्यवादियों के उस छोटे से समूह में परिगणित हैं जिनमें संत अगस्थिन,रुजब्रोक और सूफी शायर जलालुद्दीन रूमी आदि प्रमुख हैं|उन्होंने वह उपलब्ध किया है,जिसे ईश्वर का संश्लिष्ट विजन कहा जा सकता है|उन्होंने ईश्वर की वैयक्तिक और अवैयक्तिक,अनुभवातीत और अन्तस्थ,स्थिर और गतिशील अवधारणाओं तथा दर्शन की ‘परम सत्ता’ एवं भक्ति धर्म के ‘सच्चे मित्र’ के मध्य निरंतर विरोध देखा है|एक के बाद दूसरी असंगत अवधारणाओं को स्पष्टतया अपनाकर उन्होंने यह नहीं किया है,बल्कि एक आध्यात्मिक लोक,जिसके वे वासी हैं,की उच्चता का आरोहण करके ऐसा किया है|रुजब्रोक ने जैसा कहा है-एक सत्ता में मिलना और समाहित होना,पूर्ण समग्रता के विरोधों को आत्मसात करते हुए महसूस करना है|यह काम दोनों के लिए अपरिहार्य है|कबीर और रुजब्रोक इसके प्रति श्रद्धा प्रकट करते हैं|उनके अनुसार सृष्टि के तीन क्रम  हैं-‘जो हो रहा है’, ‘जो है’ और-उनसे ‘अधिक जो होने वाला है’|यही तीनों क्रम ईश्वर हैं|भगवान् जो अनुभूत होता है,वह कोई अंतिम कल्पना नहीं,बल्कि एक वास्तविकता है|वह प्रेरित करता है,वह सहारा देता है और वह सचमुच में है|अस्तित्व ग्रहण करता हुआ ससीम संसार और अस्तित्वमान असीम संसार दोनों अपनी वास्तविकताओं के बावजूद अनुभवातीत हैं|वह सर्वव्यापी परम सत्य’ है,जिसमे ‘सबकुछ व्याप्त’ है|उसमें दुनिया माया की तरह है|उनकी व्यक्तिगत अवधारणा में ‘वह’ प्रियतम है जो प्रत्येक आत्मा को शिक्षित करने वाला और जोडने वाला साथी है|अन्तर्यामी शक्ति के रूप में मान्य वह ‘योगियों का योगी’ है|लेकिन ये सभी उसकी प्रकृति के श्रेष्ठ आंशिक रूप हैं,जो परस्पर दोष निवारक हैं| त्रिक के ईसाई सिद्धांतों से यह ब्रह्म विज्ञानी रेखालेख(डायग्राम) अदभुत सादृश्य रखता है|ईसाई सिद्धान्त के ये लोग ‘शाश्वत एकता’ के ऐसे भिन्न और पूर्ण अनुभवों के रूप में व्यक्त करते हैं,जिसमें वे समाहित हैं|जैसे रूजब्रोक यथार्थ का एक धरातल देखता है, जिस पर हम पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा’ के बारे में अधिक कुछ नहीं कह सकते हैं | हम अधिक से अधिक उस ‘एक अस्तित्व’ को अनुभव करते हैं | उन अमर लोगों का सार यह है कि वह एक अस्तित्व है | इसलिए कबीर कहते हैं कि असीम और ससीम दोनों के परे शुद्ध यथार्थ ‘वही’ है |

ब्रह्म एक अनिर्वचनीय तथ्य है, जिसकी तुलना ‘प्रतिअनुकूलित  अनुकूलित भिन्नता से की गई है | वह मात्र एक शब्द है |’ एक नज़र में वह पूर्ण अनुभवातीत एवं भाववादी दर्शन है | वह हमारी आत्मा का प्रेमी है | वह सबके प्रति समान और प्रत्येक के प्रति विशेष है, जैसा कि   एक ईसाई रहस्यवादी के लिए होता है | यथार्थ वर्णन के लिए इन दोनों रास्तों की आवश्यकता का कबीर द्वारा महसूस किया जाना उनके आध्यात्मिक अनुभव की  समृद्धि और संतुलन का प्रमाण है, जिसे न तो दैवीय और न मानवतारोपी प्रतीक अकेले व्यक्त कर सकते हैं | अतः ब्रह्म दर्शन की सभी अवधारणाओं और सभी भावपूर्ण अंतर्ज्ञानों से युक्त हो जाने पर वह पूर्ण से अधिक पूर्ण और मानव मस्तिष्क से अधिक अपना है | वह एक महान शब्द का केंद्र, जीवन और प्रेम का माध्यम तथा इच्छा की अद्भुत तुष्टि है | उसका रचनात्मक शब्द ‘ओम’ या ‘अनंत हाँ’ है |

दैवीय प्रकृति से निकलने वाले नकारात्मक दर्शन के सारे गुण ईश्वर को उस रूप में वर्णित करते हैं जो वह नहीं है |  वे उसे ‘रिक्तता’ के स्तर तक घटा देते हैं | यह बात इस महान कवि के लिए घृणित वस्तु है | कबीर कहते हैं – “ब्रह्म निराकार में कभी नहीं पाया जा सकता |” उसके प्रेम की ज्योति संसार में व्याप्त है | उसकी पूर्णता को सिर्फ प्रेम की आँखों से देखा जा सकता है | उसे जानने वाले इसी रूप में  उससे तादात्म्य स्थापित करते हैं, यद्यपि वे उसे व्यक्त नहीं करते | वह आनंदपूर्ण एवं अनिर्वचनीय रहस्य है |

कबीर दैवीय प्रकृति की  निजी और ब्रह्मांडीय अवधारणा के बीच संश्लेषण करके उन तीन खतरों से बच निकलते हैं, जो रहस्यात्मक  धर्म के लिए अहितकर हैं |

प्रथम, वे अतिशय भावुकता से बचते हैं | भावुकता एक विशेष मानवतारोपी समर्पण की प्रवृत्ति है, जो दैवीय व्यक्तित्व के अनियंत्रित रूप का परिणाम है – विशेष रूप से अवतारी रूप के अंतर्गत, जो भारतवर्ष में कृष्ण आराधना की अतिशयोक्ति  में तथा यूरोप में कुछ विशेष ईसाई संतों की भावुकतापूर्ण उच्छृंखलताओं में दिखता है |

दूसरे, वे शुद्ध अद्वैत के आत्महंता निष्कर्षों से बचते हैं | यद्यपि आत्यंतिक रूप से तार्किक अद्वैत का आशय एकता पर बल देता है | यह आत्मा और परमात्मा के बीच एकता का तत्व है | आध्यात्मिक जीवन के उद्देश्य के रूप में एक पूर्ण अद्वैतवादी के लिए आत्मा सत्य है और तत्वतः ईश्वर से अभिन्न है | मनुष्य का सच्चा ध्येय अव्यक्त पहचान का प्रत्यक्षीकरण है | वह प्रत्यक्षीकरण ही अद्वैतवादी सिद्धांत सूत्र की  अभिव्यक्त अनुभूति है | उस अनुभूति की कला ही ईश्वर है | लेकिन कबीर कहते हैं – ब्रह्म और जीव “सदा पृथक हैं और अंततोगत्वा सदा संयुक्त हैं |” आदमी के लिए आध्यात्मिक और साथ ही साथ भौतिक जगत की पहचान ईश्वर की पाद पीठ से अधिक नहीं है | ईश्वर के साथ आत्मा का संयोग प्रेम का संयोग है | दोनों का परस्पर निवास आवश्यक है | द्वैत सम्बन्ध जिसे सभी रहस्यात्मक धर्म व्यक्त करते हैं, ऐसा आत्मविसर्जन नहीं, जिसमें व्यक्तित्व के लिए कोई स्थान नहीं हो | शाश्वत पृथकता तथा ईश्वर और आत्मा के पृथकत्व में रहस्यात्मक मेल संतुलित रहस्यवाद का आवश्यक सिद्धांत है | जो आस्था इस पृथकता और संयोग के रहस्य को नहीं मानती, वह आत्मा के आध्यात्मिक संसार में विलय का अंश मात्र भी नहीं व्यक्त कर सकती | इसका अभिकथन (समर्थन) रामानुज द्वारा उपदेशित वैष्णवी सुधार का विशिष्ट गुण है, जिसकी नीतियाँ रामानंद के जरिए कबीर तक पहुँचीं | अंतिम, प्रेम की सर्वोच्च सत्ता के रूप में ईश्वर का प्रत्यक्ष एवं उष्मित मानवीय बोध तथा आत्मा के साथी, शिक्षक और दूलहा के रूप में उसका बोध कबीर की कविता में आवेगपूर्ण ढंग से निरंतर अभिव्यक्त हुआ है | ये भाववादी प्रवृत्तियाँ उनकी यथार्थ दृष्टि के आध्यात्मिक पक्ष का जन्मजात गुण है, जो उसे बौद्धिक सूत्र की निष्प्राण पूजा में विकृत होने से रोकती हैं | निष्प्राण पूजा वेदांती स्कूल का अभिशाप हो गई थी | निरी बौद्धिकता और निरी भक्तिमूलकता का वे कम समर्थन करते हैं | प्रेम उनका ‘एकमात्र पूर्ण स्वामी’ है | वह अधिक स्वच्छंद जीवन का अद्भुत स्रोत है, जिसका वे आनंद लेते हैं | वह असीम और ससीम संसार को मिलाने का सामान्य कारक तत्व है | सबकुछ उसके प्रेम में सराबोर है | प्रेम जिसका वर्णन जोहानिन की भाषा में प्रायः ईश्वर के रूप में किया गया है | सारी सृष्टि शाश्वत प्रेमी की लीला है | जीवित होना, परिवर्तित होना तथा विकसित होना सब ब्रह्म के प्रेम और आनंद की अभिव्यक्ति है | मानव जीवन की उत्पत्ति को ये दोनों (प्रेम और आनंद) आवेग संचालित करते हैं, इसलिए सुख और दुःख के कुहासे के परे, कबीर उन्हें (प्रेम और आनंद को) ईश्वर की रचनात्मक क्रीड़ा को संचालित करते हुए पाते हैं | प्रेम ही उसका प्रकट रूप है, आनंद उसकी अभिव्यक्ति है | स्वीकार की प्रसन्न क्रीड़ा- अनंत हाँ (ओम)- से सृष्टि बनती है, वह दैवीय प्रकृति के गर्भ में निरंतर प्रकाशित है| यह बात हिन्दू धार्मिक विचारों के सामान्य कोष से गृहीत बहुत से अभिप्रायों में से एक है, जो उनकी कवि प्रतिभा से ज्योतित हुई है | स्पंदन, लय और निरंतर परिवर्तन कबीर के यथार्थ बोध के अभिन्न अंग हैं | यद्यपि अनंत और पूर्ण उनकी चेतना में बने रहते हैं, फिर भी ईश्वरीय प्रकृति की उनकी अवधारणा निश्चित रूप से गतिशील है | गति के ही प्रतीकों के जरिए, वे हम तक ‘उसे’ संप्रेषित करने की  प्रायः कोशिश करते हैं, जैसे नृत्य के अपने सुस्थिर सन्दर्भ में या प्रेम के रज्जू से झूलने वाले सृष्टि के शाश्वत झूले के विलक्षण आधुनिक चित्र के रूप में |

यह रहस्यात्मक साहित्य का चिह्नित किया जाने वाला गुण है कि महान धर्म संघ अतीन्द्रिय भाईचारे की  अपनी प्रकृति को संप्रेषित करने के अपने प्रयास में अनिवार्यतः ऐसे ऐन्द्रिय बिम्बों को रचते हैं, जो अश्लील और गलत भी होते हैं | हमारी सामान्य मानवीय चेतना इस तरह स्वातंत्र्य प्रेमी है कि अंतर्ज्ञान का फल अपने आप सहज ज्ञान से उन बिम्बों से संदर्भित हो जाता है | अंतर्ज्ञान में रहस्यवादियों को सभी धुंधली लालसाओं और आंशिक इन्द्रिय  आकांक्षाओं की पूर्ण परिपूर्ति होती लगती है | तब वे अटल घोषणा करते हैं कि वे अविद्यमान ज्योति के दर्शन करते हैं, वे दिव्य संगीत का श्रवण करते हैं, वे प्रभु के माधुर्य का आनंद लेते हैं, वे अनिर्वचनीय सुवास को जानते हैं और वे प्रेम के संयोग को महसूस करते हैं | वस्तुतः ‘उसके’ दर्शन करना और ‘उसे’ पूरी तरह महसूस करना, ‘उसका’ आध्यात्मिक श्रवण, ‘उसकी’ प्रीतिकर सुरभि और प्यास बुझाने वाली घूँट नौरविच के जुलियन सी है, जिनकी मनोसंवेदी स्वचलतायें तीक्ष्ण हैं, वे इन्द्रिय और आत्मा की बराबरी को अपनी चेतना में भ्रमों के रूप में महसूस करते हैं | ‘वह’ सुसो द्वारा देखी गई ज्योति की तरह, राल द्वारा सुने गए दिव्य संगीत की तरह, सेना सेल के सेंट कैथरीन ने जिसे आत्मसात किया, उस दिव्य सुरभि की तरह तथा सेंट फ्रांसिस एवं सेंट टेरेसा द्वारा अनुभूत शारीरिक घाव की तरह है | प्रतीकवाद की ये अतिनाटकीयताएँ हैं, जिसके अंतर्गत रहस्यवादी सतह की चेतना के प्रति सहज ज्ञान से अपने आध्यात्मिक अंतर्ज्ञान को प्रस्तुत करने के लिए अभिमुख होता है | वह विशेष ज्ञान, जिसका वे (कबीर) अनुभव करते हैं, अधिक व्यंजक यथार्थ है, जो समन्वय के रूप में व्यक्त होता है |

 कबीर से जैसी उम्मीद की जा सकती है-उनकी आध्यात्मिक कोटि की प्रतिक्रिया अनुभूतिजन्य प्रतीकों के कारण बहुत व्यापक और विभिन्नता युक्त है|वे कहते हैं कि उन्होंने ब्रह्म की दीप्ति बिना दृश्य के देखी है,ब्रह्म की शाश्वत सुधा चखी है,परम के साथ आह्लाद से भरे संयोग का अनुभव किया है और स्वर्गिक फूलों के सुवास को सूंघा है|लेकिन वे आत्यंतिक रूप से एक कवि और संगीतज्ञ थे |लय और संगीत उनके पोशाक की शोभा और सच्चाई थे|इसलिए रिचर्ड रॉल की तरह अपने गीतों में वे अपने आपको व्यक्त करते हैं|वे सबसे पहले एक सांगीतिक रहस्यवादी थे|वे बार-बार कहते हैं कि सृष्टि संगीत (अनहदनाद) से भरी हुयी है,यह संगीतमय है|सृष्टि के ह्रदय पर ‘उज्ज्वल संगीत बज रहा है|’प्रेम राग बुनता है जबकि सन्यास काल को मारता है|इसे घर और स्वर्ग कहीं भी सुना जा सकता है|इसे सामान्य जन वैसे ही कानों से सुन सकता है,जैसे एक तपोनिष्ठ सन्यासी अपनी अनुभूतियों से|इसके अतिरिक्त प्रत्येक मनुष्य का शरीर एक वीणा है,जिसे ब्रह्म बजाता है|ब्रह्म हर तरह के संगीत का स्रोत है|हर जगह कबीर असीम के संगीत को सुनते हैं|वैसा दिव्य संगीत,जिसे देवदूत सेंट फ्रांसिस के लिए बजाते हैं तथा वैसी आध्यात्मिक सिम्फनी जो रॉल की आत्मा को उल्लसित आनंद से भर देती है|एक चित्र जिसे उन्होंने हिन्दू देवकुल से लिया है और जिसका वे निरंतर प्रयोग करते हैं,वे अमर बांसुरी वादक कृष्ण हैं|लयात्मक स्पंदन ब्रह्म के सम्मुख सृष्टि का रहस्यमय नृत्य है,जो एक ही साथ पूजा की क्रिया और सर्वव्यापी ईश्वर के असीम हर्षोल्लास की अभिव्यक्ति है|इस लयात्मक स्पंदन के दृश्यात्मक मूर्तमान रूप में कबीर दिव्य संगीत(अनहद नाद) सुनते हैं|

सृष्टि के इस व्यापक और हर्षमिश्रित विज़न के बावजूद कबीर दैनिक अस्तित्व और सामान्य जीवन को कभी नहीं भूलते | उनके पाँव दृढ़तापूर्वक धरती पर जमे हैं | उनका अक्खड़ और आवेगमय बोध संतुलित और तेजस्वी बुद्धि से निरंतर नियंत्रित है | यह नियंत्रण ऐसे सतर्क कॉमन सेंस के द्वारा संभव होता है, जो प्रायः वास्तविक रहस्यात्मक प्रतिभा में पैदा होता है | सादगी और डायरेक्टनेस का निरंतर आग्रह, हर तरह की अमूर्तता, दार्शनिकता तथा बाह्याचार की निष्ठुर आलोचना उनकी चिह्नित की जाने वाली विशेषताएँ हैं |  सभी तरह के प्रत्यक्षीकरण का मूल उद्गम ईश्वर है, जो भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही रूपों में सामान है | ईश्वर आदमी की  एकमात्र आवश्यकता है – “जब तुम मूल में जाओगे सारी खुशियाँ तुम्हारी होंगी |” अतः वे अपनी आँख ‘एकमात्र आवश्यकता’ पर रखते हैं | उनके लिए संप्रदाय, धर्ममत, धार्मिक समारोह, दर्शन के निचोड़ तथा संन्यास के अनुशासन तुलनात्मक रूप से व्यर्थ की बातें हैं |  कबीर ऐसा भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं, जिससे आत्मा ब्रह्म से सहज संयोग कर सकती है | यही आत्मा का ध्येय है | ब्रह्म के साथ आत्मा का सहवास ही इसकी उपलब्धि है | इसलिए कबीर की  यह कट्टर उदारता है कि कभी वे वेदांती लगते हैं और कभी वैष्णव, कभी सर्वेश्वरवादी हैं तो कभी अनुभवातीतवादी और कभी ब्राह्मण हैं तो कभी सूफ़ी | ब्रह्म उनके जीवन का नियंता है | वह अतिविस्तृत है और एकदम पास भी | उस अनिर्वचनीय भावबोध के बारे में सत्य कहने के प्रयास में वे उस गुत्थी को एकसाथ समझ लेते हैं, जैसे वे अपने करघे पर परस्पर विरोधी धागों को बुनते हैं | वह करघा जो उनके सर्वाधिक उग्र और परस्पर विरोधी दर्शनों और आस्थाओं से निकले प्रतीकों और विचारों का प्रतिरूप है | सभी आस्थाएँ एवं दर्शन ‘उसे’ समझने में सहायक हैं | उपनिषद ने ‘उसे’ सूर्य-सा ज्योतित बतलाया है | वह अंधकार से परे है | उज्ज्वल प्रकाश की प्रचुरता को दर्शाने के लिए सभी रंगों के वर्णक्रम को देखना जरूरी है | इस तरह अपने इस्तेमाल के लिए वे पारंपरिक तरीकों को अनुकूल बनाते हुए रहस्यवादियों में सामान्य रूप में प्रचलित एक तरीके का अनुसरण करते हैं | वे रूप की मौलिकता के लिए किसी तरह का विशेष प्रेम विरले ही प्रदर्शित करते हैं | वे अपनी शराब प्रायः उसी बर्तन में रखते हैं जो हाथ में आता हो | वे आमतौर पर उन्हें प्राथमिकता देते हैं, जो सौंदर्य तथा अर्थवत्ता के धरातल को उन्नत करते हैं तथा जो अपने समय के प्रचलित धार्मिक या दार्शनिक सूत्र हैं | इस तरह हम पाते हैं कि कबीर की कुछ श्रेष्ठतम कविताएँ विषयवस्तु के रूप में हिन्दू दर्शन और धर्म की घिसी-पीटी बातों की है, जैसे  - ईश्वर की लीला, परमानन्द का सागर, आत्मा का पक्षी (हंसा), माया, सहस्रदल कमल और रूपहीन रूप | फिर बहुत सी कविताएँ सूफी बिम्बों और भावों से सराबोर हैं | दूसरी विशेषता है उनकी रचना में भारतीय जीवन की सामान्य परिस्थितियों और प्रसंग, जैसे मंदिर की घंटियाँ, दीपक का समारोह, विवाह , सती और मौसम की  विशेषताएँ | उनके द्वारा अनुभूत सारी चीजें अपने रहस्यात्मक रूप में ब्रह्म से आत्मा के सम्बन्ध की  प्रतीक-सी हैं | इनमे से कई में विशेष रूप से सुन्दर और भारतीय भाव प्रकृति के प्रति प्रकट हुए हैं |

यहाँ अनूदित गीतों के संग्रह में ऐसे उदाहरण मिलेंगे जो कबीर के चिंतन के करीब सभी पक्षों को उद्घाटित करते हैं | सभी पक्ष यानी एक रहस्यवादी के मनोभाव के सभी उतार-चढ़ाव, जैसे समाधि, निराशा, नीरव परमानन्द, उग्र आत्मसमर्पण, विस्तृत ज्योति की  चमक और आत्म विभोर प्रेम के क्षण | संसार का उनका व्यापक और गहरा ज्ञान, सृष्टि का शाश्वत खेल, ईश्वर के अस्तित्व में संसार का ‘मनकों की तरह होना’ यहाँ दिखता है | शाश्वत प्रेमी के साथ आत्मीय घनिष्ठता के उनके प्यारे और सुकुमार भाव तथा सबके ऊपर उनकी सुन्दर कविता भी यहाँ है | सत्ता के ये स्पष्ट विरोधाभासी विचार ब्रह्म में नियोजित हैं, इसलिए दूसरे सभी प्रतिमुख- दासता और मुक्ति, प्रेम और त्याग तथा आनंद और पीड़ा- ब्रह्म में मिल जाते हैं | ब्रह्म के साथ संयोग आत्मा के लिए महत्वपूर्ण है | यदि हम उसे अपनावें तो उसकी आवश्यकता, संयोग और ईश्वर की  खोज सब कुछ सरल और अत्यंत स्वाभाविक है | संयोग प्रेम से उत्पन्न होता है- ज्ञान या औपचारिक रीति-रिवाजों से नहीं |  और ज्ञान से संयोग होता है | वह अकथनीय है | वह ‘न तो यह है, न वह’, जैसा रुजब्रोक कहता है | वास्तविक पूजा और सहभागिता ‘आत्मा’ में और सत्य में है, इसलिए मूर्तिपूजा ‘शाश्वत प्रेमी’ का अपमान है | दिखावटी (प्रोफेशनल) पवित्रता के साधन व्यर्थ हैं | आत्मा की उदारता और शुद्धता से अलग कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं | सभी चीजों में और विशेष रूप से मनुष्य के ह्रदय में ब्रह्म निवास करता है, सबकुछ ब्रह्म  आविष्ट है | ‘वह’ कहीं भी पाया जा सकता है- सामान्य मानवीय एवं दैहिक अस्तित्व में भी तथा भौतिक जीवन और पंक में भी | हम बिना पथ पार किए ध्येय तक पहुँच सकते हैं | घर आदमी की साधना की सबसे उपयुक्त जगह है, मठ नहीं | और यदि वह वहां ईश्वर को नहीं पाता है तो उसे बाहर आशा नहीं करनी चाहिए |  ‘घर सच्चाई है |’ वहाँ प्रेम और विमुखता, दासता और स्वतंत्रता तथा ख़ुशी और दुःख आत्मा के ऊपर बारी-बारी से खेलते हैं ; और यह उनका द्वंद्व है जो असीम आनंद के अनहद संगीत से उपजता है | कबीर कहते है- “ब्रह्म के सिवा इस लय को कोई दूसरा नहीं उत्पन्न कर सकता |”

                                                                             (3)                                    

कबीर के गीतों का यह अनुवाद मुख्य रूप से रवीन्द्रनाथ टैगोर ने किया है | कबीर की रहस्यात्मक प्रतिभा की प्रवृत्ति उनमें  भी मिलती है | वे सभी, जो इन कविताओं को देखेंगे, टैगोर को कबीर की दृष्टि और विचार का विशेष सहृदय व्याख्याकार पाएँगे | यह संग्रह मुद्रित हिंदी टेक्स्ट के साथ श्री क्षितिमोहन सेन के बांगला अनुवाद पर आधारित है, जिन्होंने कबीर की  कविताओं को विभिन्न स्रोतों से इकट्ठा किया है | उन्होंने कभी पुस्तकों और पाण्डुलिपियों से, कभी घुमंतू साधुओं और गायकों के मुख से गाए जाने वाले भजनों और कविताओं के विशाल संग्रह से, जिनसे कबीर का नाम जोड़ दिया गया है, अपना संग्रह तैयार किया है | उन्होंने प्रामाणिक गीतों को सावधानीपूर्वक, कबीर के नाम पर प्रचलित अप्रामाणिक साहित्य से, अलग किया है | उनके उन श्रम साध्य कार्यों से ही यह वर्तमान दायित्व संभव हो पाया है |


श्री क्षितिमोहन सेन के टेक्स्ट से पहले हमने श्री अजीत कुमार चक्रवर्ती द्वारा ११६ गीतों के अंग्रेजी अनुवाद की पांडुलिपि का भी अवलोकन किया है | उसमें कबीर पर लिखा उनका एक निबंध भी है | उससे हमने काफी मदद ली है | अनुवाद से यथेष्ट पाठ यहाँ हमने लिए हैं | निबंध में उल्लिखित बहुत से तथ्यों को इस परिचय में मिला लिया गया है | श्री अजीत कुमार चक्रवर्ती अत्यंत उदार और निःस्वार्थ स्वभाव के व्यक्ति हैं | हमारे काम के लिए उन्होंने अपनी पांडुलिपि हमें सौंप दी | वे कृतज्ञता से भरे हमारे धन्यवाद के पात्र हैं |                                                                                                                                    (1999)
                                                                                                           

                  ( मेरी आलोचना पुस्तक “साहित्य से संवाद” में यह अनुवाद शामिल है | )