Thursday, 16 April 2015

हर कोशिश है एक बगावत


राजेंद्र कुमार को आप जानते हैं| वो इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर-अध्यक्ष रह चुके हैं| वे जितने अच्छे अध्यापक हैं उतने ही अच्छे मनुष्य| सादगी, सरलता और मित्र-वत्सलता उनके व्यक्तित्व के अभिन्न हिस्से हैं| वे चेतना से प्रगतिशील हैं, जन संस्कृति मंच से उनका जुड़ाव है, लेकिन उनमे वैचारिक कठमुल्लापन बिलकुल नहीं है| वैचारिक चेतना से अधिक उनके व्यक्तित्व में नैतिक चेतना की आभा है| वे जितने अच्छे आलोचक हैं, उतने ही अच्छे कवि भी| उन्होंने कुछ बेहतरीन कहानियां भी  लिखी हैं, लेकिन उनके कवि-कहानीकार पक्ष पर कम ध्यान दिया गया है| इसका कारण वे स्वयं हैं| अपने इस रचनात्मक पक्ष से वे स्वयं उदासीन रहते हैं| कविता- कहानी लिखना उनके लेखकीय जीवन का कभी-कभार है| उनकी बौद्धिक चेतना अक्सर आलोचना का ही पक्ष लेती रहती है और  इस क्षेत्र में उनकी बहुत ही साफ़ और समर्थ पहचान भी है.... लगभग तीन दशक पहले उनका पहला काव्य-संग्रह "ऋण-गुणा-ऋण" नाम से आया था| यह संग्रह मुझे पसंद आया था|  मैंने इसकी  समीक्षा पटना के "दैनिक-जनशक्ति" में "कविता में धनात्मक योगदान" शीर्षक से लिखी थी| लगभग तीन दशक बाद उनका दूसरा काव्य-संग्रह "हर कोशिश है एक बगावत" नाम से एक-डेढ़ साल पहले आया तो मुझे ख़ुशी हुई| कई अर्थों में यह एक बढ़िया काव्य-संग्रह है| इस संग्रह में कई अच्छी कविताएँ हैं जो कई नामी कवियों की कविताओं से बीस पड़ती हैं| इसमें कुछ गंभीर और जटिल कवितायेँ हैं तो कुछ सादगीपूर्ण लेकिन व्यंजकता से भरी हुई सुन्दर कवितायेँ भी, जिनने  मुझ जैसे पाठक का ध्यान आकृष्ट किया| इस संग्रह में "मनमोहनी अदा का दावतनामा" शीर्षक कविता है जो अपनी सादगी और व्यंजकता की बेजोड़ बानगी प्रस्तुत करती है| मेरा आग्रह है की इस संग्रह की ओर  हिंदी पाठक- समाज का ध्यान जाना चाहिए| फ़िलहाल इस संग्रह से उपर्युक्त कविता आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है-
आइए जहाँपनाह, मुल्क की तरक्की के

अपने ईजाद किये गुर हमे बताइए!
राज हमारा भी चले और आपका भी चले,
जुगत कोई अच्छी-सी ऐसी भिडाइए! 
खेल में हम आपके शरीक होंगे मोहरे बन
अपनी बिसात जैसी चाहिए, बिछाइए!
यह मनमोहनी अदा का दावतनामा है
करिए क़ुबूल, हमें अपना बनाइये!

वह जो हमारा ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन था,
उससे हम आज बहुत बढ़ आए हैं!
अब तो यह दौर है उदारता की वार्ता का,
‘असहयोग’ आदि तो इतिहास की बलाएं हैं!
मल्टीनेशनली विकास का तकाजा है- 
भारत को पकड़े जो भारत में आए हैं!
देश अब स्वदेश नहीं ऐसा बाज़ार बने-
जहाँ, जो भी अपने हैं वो भी पराएँ हैं!

जनता की फ़िक्र में जो दुबला है, हुआ करे
आपको क्या, आप अपनी सेहत बनाइए!
चुन लीजिये कुछ अच्छे-अच्छे-से व्याख्याकार
नीतियों की मनमाफिक व्याख्या कराइए!
यहाँ किसे फुर्सत हैं जाँच-परख करने की
परदा बन सबकी आँखों पर पड़ जाइए!
सारी आवाज़े गुम हों, जिसके बजने पर,
ढफली कुछ ऐसी चहुँ ओर बजवाइए!

कभी इस मुल्क में हुआ था कोई मोहनदास,
गाँधी था वह तो, उसे माला पहनाइए!
अब तो जो सामने है, आपका मनमोहन है
जैसे मन करे, इसे वैसे आजमाइए!
चाँदी रहे हम दोनों राजकाज वालों की, 
यही हम मानते हैं, आप भी मनाइए!
मछलियाँ किसी भी तालाब की हों, मनचाही- 
हम भी फंसायें और आप भी फंसाइए!
यह मनमोहनी अदा का दावतनामा है,
करिए क़ुबूल, हमें  ग्लोबल बनाइए!

Saturday, 11 April 2015

रेणु और राजनीति

११ अप्रैल अमर कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की पुण्य तिथि है| उनकी याद आई तो अपना प्रिय नगर पटना भी याद आया| राजेंद्र नगर स्थित उनका फ्लैट, कॉफ़ी हाउस, मैगज़ीन सेंटर आदि वो सारी जगहें याद आयीं, जिनसे उनका जीवंत संपर्क था| कॉफ़ी हाउस का वो कोना याद आया, जहाँ वे नियमित तौर पर लेखकों से घिरे बैठते थे| साहित्य, राजनीति और पत्रकारिता के तब के वे नौजवान चेहरे याद आए जिनके भीतर परिवर्तन का तूफानी जज्बा था और जो रेणु के आस-पास हमेशा दिखाई देते थे| रेणु उनके साहित्यिक ही नहीं राजनीतिक प्रेरणा पुरुष भी थे| वे सभी आज अपने-अपने क्षेत्र में उसी जज्बे से काम कर रहे हैं| किसी लेखक ने अपने इर्द-गिर्द के इतने लोगों को प्रेरित और प्रभावित किया हो, इसके उदाहरण बहुत कम मिलेंगे|
      रेणु ने साहित्य और राजनीति के संबंधों की परिभाषा बदल दी और उसे एक नयी दिशा दी| वे विचारों से समाजवादी थे और जे. पी.-लोहिया वाली सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य रह चुके थे| सुना है कि पटना में नया टोला स्थित जो पार्टी कार्यालय था उसमे वे नियमित बैठते थे और कार्यालय सचिव थे| जय प्रकाश नारायण उनके राजनीतिक गुरु-नेता थे जिनके विरुद्ध कुछ भी सुनना उन्हें पसंद नहीं था| जे. पी.- लोहिया के कारण नेपाली राजशाही के खिलाफ चले आन्दोलन में भी उनकी प्रमुख भूमिका थी| लेकिन जे. पी. जब समाजवाद को अलविदा कह कर सर्वोदय में चले गए तो रेणु भी सक्रिय राजनीति से लगभग निष्क्रिय हो गए| १९७२ में पता नहीं किस भरोसे उन्होंने बिहार विधान सभा का चुनाव अपने इलाके से निर्दलीय उमीदवार के तौर पर लड़ा, जिसमे उनकी जमानत ज़ब्त हो गयी थी| उस दौरान किसी साप्ताहिक पत्र में उनका एक इंटरव्यू छपा था| पत्रकार ने पूछा था कि आप लोगों से कैसे वोट मांगेंगे? उन्होंने बड़ा दिलचस्प जवाब दिया था| उन्होंने कहा था कि मैं उन्हें रामचरित मानस के दोहे- चौपाईयां और दिनकर की कविताएँ सुनाऊंगा| जाहिर है कविता से वोट नहीं मिलना था और नहीं मिला| वे हार गए| रेणु की राजनीतिक सक्रियता बढ़ी १९७४ में जब छात्र आन्दोलन की कमान छात्र नेताओं के आग्रह पर जे. पी. ने संभाली| रेणु तन-मन-धन, तीनो के साथ जे. पी के पीछे खड़े हो गए| उस आन्दोलन में बड़ी संख्या में साहित्यकार और पत्रकार शामिल हुए जिसमे सबसे अग्रणी भूमिका फनीश्वर नाथ रेणु की थी| धरना-प्रदर्शन, जेल यात्रा, सबकुछ किया रेणु ने| उनके नेतृत्व में पटना समेत बिहार के अन्य नगरों में नुक्कड़ काव्यपाठ का सिलसिला शुरू हुआ जो अपनी तरह का साहित्य और राजनीति का जीवंत सम्बन्ध था| आन्दोलन के दौरान जे. पी पर जब लाठी-चार्ज हुआ तो विरोध-स्वरुप रेणु ने अपनी पद्मश्री के उपाधि तो लौटाई ही, बिहार सरकार से प्रति माह लेखकों को मिलने वाली आर्थिक मदद भी लौटा दी, जब की वे मसिजीवी लेखक थे|
      रेणु गहरे और व्यापक अर्थों में राजनीतिक लेखक थे| मैला आँचल भारत के गाँव की धड़कती तस्वीर पेश करने वाले गोदान के बाद हिंदी का दूसरा उपन्यास है| मैला आँचल में आजाद भारत की राजनीतिक दशा-दिशा जितने रचनात्मक ढंग से चित्रित हुई है उसकी मिसाल अन्यत्र शायद ही देखने को मिले| रेणु ने साहित्य को राजनीति का पिछलग्गू न बनने दिया| वे सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता  जरूर थे लेकिन अपने उपन्यास मैला आँचल में उन्होंने उसकी चीर-फाड़ में कोई कोताही नहीं बरती| वे महान लेखक इस लिए बन सके क्योंकि उन्होंने अपनी राजनैतिक लाइन का अतिक्रमण किया| कहा जाता है कि रेणु कबीर पंथी थे| पर इससे क्या? उन्होंने मैला आँचल में कबीर-पंथी मठ की जैसी आलोचना की वैसी आलोचना की उम्मीद किसी अनुयायी से तो नहीं ही की जाती| यही कारण है कि मैला आँचल का बावन दास आज़ादी के बाद के आए हिंदी उपन्यासों का सबसे कद्दावर चरित्र है| काला बाजारियों के हाथों बावन दास की मृत्यु दरअसल स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा देखे गए सपनों की मृत्यु है| स्वतंत्र भारत की राजनीति के व्यवहार और आदर्श के द्वंद्व की मैला आँचल जैसी त्रासद कथा हिंदी में दूसरी नहीं है| मार्क्सवादी लेखक राजनीति से अपने संबंधों को अक्सर महिमा मंडित करते रहते हैं और गैर मार्क्सवादियों को अराजनीतिक बताते रहते हैं| जे. पी.- लोहिया के नेतृत्व में चलने वाला समाजवादी आन्दोलन इस बात का साक्ष्य प्रस्तुत करता है कि इसने लेखकों की कितनी बड़ी जमात को प्रेरित-प्रभावित किया| रामवृक्ष बेनीपुरी, विजयदेव नारायण साही, फणीश्वर नाथ रेणु आदि लेखकों की सक्रिय राजनीतिक कार्यवाहियों से पता चलता है कि क्रांति-आन्दोलन आदि सिर्फ मार्क्सवादी लेखकों के ही हवाले नहीं है| जनता और जनसरोकारों की चिंता करने वाली एक दूसरी साहित्यिक धारा भी हिंदी में हैं, जिसकी अनदेखी प्रायः मार्क्सवादी लेखकों-आलोचकों ने की है|
      सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन के गर्भ से पैदा हुई जनता-सरकार की विफलता और विभत्सता देखने के लिए अपने राजनीतिक गुरु जे. पी. की तरह रेणु भी जीवित न रहे| जनता-सरकार बनने के कुछ ही दिनों बाद पेप्टिक-अल्सर के ऑपरेशन के दौरान उनकी मृत्यु हो गयी................ उनकी मृत्यु के कुछ दिनों बाद हमारी मुलाकात कवि नागार्जुन से हुई| वे एक फूटपाथी दूकान में, जहाँ अक्सर मजदूर और रिक्शे वाले भोजन करते हैं, रोटी खा रहे थे| यह दृश्य हम नौजवानों के लिए आश्चर्यजनक था| हमारे एक साथी ने पूछा, “ बाबा, रेणु जी यहाँ बैठ कर रोटी खाते या नहीं?” नागार्जुन कुछ देर चुप रहे| फिर संजीदगी से बोले,’ रेणु यहाँ रोटी नहीं खाते, लेकिन वे इन लोगों के लिए गोली खा लेते|” जनता के एक लेखक द्वारा जनता के ही  दूसरे लेखक की यह नयी पहचान थी| जनता का लेखक सिर्फ वही नहीं होता जो उनके बीच उठता-बैठता है, वह भी होता है जो उनके लिए लड़ता है| यह कम्युनिस्ट नागार्जुन द्वारा सोशलिस्ट रेणु को दी गयी स्वीकृति थी| कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट लेखक आम तौर से आपस में लड़ा करते हैं| क्या वे इस उदहारण से कुछ सीखेंगे? रेणु जब अपने गाँव जाते थे तो कभी-कभी नागार्जुन भी वहाँ जाते थे| रेणु फक्कड़ कवि नागार्जुन का स्वयं बहुत ख्याल रखते थे|  
     
       

Saturday, 4 April 2015

नलिन विलोचन शर्मा :एक 'सिग्नीफिकेंट' आलोचक


कहा जाता है कि हिंदी समाज कुछ अर्थों में स्मृतिहीन समाज है| हिंदी आलोचना में तो कमोबेस यही स्थिति है|रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा जैसे कुछ नामों को छोड़ दिया जाये तो हमें बहुत से ऐसे महत्वपूर्ण आलोचक मिलेंगे, जिनकी याद शायद ही कभी हिंदी समाज को कभी आए| हिंदी-आलोचना में इसके सर्वोत्तम उदहारण नलिन विलोचन शर्मा हैं
नलिन (जन्म :18-2-1916) ने अनेक विधाओं में लिखा है, लेकिन उनकी सबसे बड़ी देन आलोचना के क्षेत्र में है |उन्होंने हिंदी आलोचना का नया मापदंड निर्मित किया|अपने प्रखर आलोचनात्मक लेखों,साहित्यिक टिप्पणियों और पुस्तक समीक्षाओं के जरिये वे हिंदी-संसार को नये ढंग से आंदोलित करने में सफल हुए| नए-पुराने सभी लेखकों के बीच के आलोचक के रूप में समान रूप से प्रतिष्ठित थे| पुराने साहित्य के बारे में उनकी पसंद का जितना महत्व था, उतना ही नए साहित्य के बारे में भी| उनकी लिखित आलोचना पुस्तकों की संख्या बहुत अधिक नहीं है| उनके जीवन-काल में "दृष्टिकोण" और "साहित्य का इतिहास दर्शन" नामक दो आलोचना पुस्तकें प्रकाशित हुईं| मरणोपरांत उनकी तीन आलोचना पुस्तकें- 'मानदंड', 'हिंदी उपन्यास-विशेषतः प्रेमचंद', तथा 'साहित्य: तत्व और आलोचना' - अस्त-व्यस्त ढंग से प्रकाशित हुई| ये पुस्तकें भी बाज़ार में आज ठीक से उपलब्ध नहीं हैं|इधर मेरे संपादन में उनके चुने हुए आलोचनात्मक लेखों का एक चयन नलिन विलोचन शर्मा:संकलित निबंध शीर्षक से नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित हुआ है,लेकिन अभी भी उनके सैकड़ों निबंध पत्र-पत्रिकाओं में बिखरे पड़े हैं

मौलिक और नयी आलोचना दृष्टि और साहित्येतिहास विषयक चिंतन के अलावा नलिन जी अपने प्रयोगधर्मी रचनाशीलता के लिए भी जाने जाते रहे | 'प्रपद्यवाद' नाम से एक नए काव्य-आन्दोलन का प्रवर्तन करके उन्होंने हिंदी-संसार को एकबारगी झकझोर दिया था| विलक्षण शैली और सर्वथा भिन्न मन मिजाज़ की अपनी प्रपद्यवादी कविताओं के ज़रिये उन्होंने हिंदी कविता को आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न करने की कोशिश की| नए ढंग से तराशी गयी उनकी कहानियां भी प्रगति-प्रयोग और मनोविश्लेषण का समन्वित उदाहरण प्रस्तुत करती हैं|

नलिन जी के पिता महामहोपाध्याय पंडित रामावतार शर्मा संस्कृत के विद्वान् होने के साथ हिंदी नवजागरण के अग्रदूत थे| वे बहुभाषाविद थे| संस्कृत और दर्शन के वे अपने समय में विलक्षण और अप्रतिम आचार्य थे| संस्कृत के अलावा शर्मा जी का हिंदी,अंग्रेजी, लैटिन, फ्रेंच, जर्मन, आदि भाषाओँ पर भी अधिकार था| वे अनीश्वरवादी थे और आधुनिकता और वैज्ञानिकता के पक्षधर थे| पंडितों के बीच में उनकी ख्यति 'नव्य चार्वाक' के रूप में थी| नलिन जी को यह सारी चीजें विरासत में मिली थीं| हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत पर उनका एक सा अधिकार था | काम चलाऊं ज्ञान फ्रेंच,जर्मन, लैटिन का भी था| बहुत कम उम्र में लोग इनके नाम से पहले आचार्य जोड़ने लगे

नलिन विलोचन शर्मा रूपवादी आलोचक थे| हिंदी में आमतौर से रूपवाद को निंदनीय माना जाता है और इसके आधार पर अज्ञेय, अशोक वाजपेयी आदि की आलोचना की जाती है| यह नासमझ-सी समझदारी बनी हुई है कि जो प्रगतिशील नहीं है, वह रूपवादी है और अंततः वह जन विरोधी है| नलिन जी घोषित तौर पर रूप को साहित्य का उद्देश्य मानते थे| वे मानते थे कि साहित्य में 'व्हाट' की जगह 'व्हाई' प्रमुख होना चाहिए| साहित्य में रूप पर जोर देने के काम को जन-विरोधी कहने वालों से उनकी घनघोर असहमति थी| उन्होंने लिखा : 'कलाकार को पूरा अधिकार है, अगर वह ऐसा चाहता है कि अपने समय की सामजिक या राजनैतिक क्रांतियो की उपेक्षा करे और अगर वह महान कलाकार है तो वह ऐसा करके अपने अमर बन जाने की संभावनाओ में वृद्धि कर सकता है|'
इसलिए वे कहते थे कि कविता का विषय कुछ भी हो, वह उतना महतवपूर्ण नहीं है| महतवपूर्ण यह है कि वह कैसे लिखी गयी है | वे कविता को मनुष्यता के दो-चार दुर्लभ पर्यायों  में से एक मानते थे| इसलिए कविता के रूप की चर्चा का अर्थ उनकी दृष्टि में जन-विरोधी होना नहीं, बल्कि मनुष्य-समर्थक होता था| लेकिन उनके और अज्ञेय आदि के रूपवाद में एक बुनयादी फर्क है| नलिन रूपवादी होते हुए भी रहस्यवाद के विरोधी थे| अज्ञेय आदि के यहाँ रहस्यानुभूति का भरपूर समावेश था| नलिन जी कवि के लिए 'वैज्ञानिक दृष्टिकोण' और विज्ञान सम्मत दर्शन की आवश्यकता पर बल देते हैं| वे मानते हैं कि कविता का उद्देश्य 'सत्य का संधान' है और कविता के ज़रिये इस काम में विज्ञान बहुत बड़ी भूमिका अदा करता है| कविता के लिए भावना नहीं, बुद्धि आवश्यक है, यह बताने के लिए उन्होंने ने विनोद भाव से दो पंक्तियों की कविता लिखी थी-
                         
                          दिल हुआ बेकार है, जो कुछ है सो ब्रेन
                           गाय हुई बकेन है, कविता हुई नकेन

यहाँ नकेन से तात्पर्य नलिन, केसरी कुमार और नरेश की प्रपद्यवादी कविताओं से है जिसे आम तौर से इन तीन नामों के प्रथमाक्षरों से भी पुकारा जाने लगा था| नलिन जी आलोचना में टी.एस. एलियट के समर्थक थे, लेकिन एलियट की तरह वे न तो धर्म के समर्थक थे, न ही राजतन्त्र के| उनकी आस्था विज्ञान के साथ जनता और समाजवाद में थी|लेकिन मार्क्सवादी आलोचकों की रूढ़िवादिता और मूर्तिपूजा से उन्हें बेहद चिढ़ थी |वे साहित्य के मूल्यांकन के लिए किसी साहित्येतर आधार को महत्तव नहीं देते थे|वे भारतीय और पाश्चात्य साहित्य शास्त्र के निष्णात आलोचक थे |अकादमिक,प्रगतिवादी और अज्ञेयवादी आलोचना रुढियों से वे निरंतर संघर्ष करते रहे और हिंदी आलोचना में उन्होंने नए मानदंड निर्मित किये |साहित्य के लिए 'मुक्ति' और 'स्वच्छंदता' को आवश्यक कसौटी  मानते थे| इनमें भी 'मुक्ति' को वे नए और उत्कृष्ट साहित्य का जरुरी आधार मानते थे|उनके अनुसार मुक्ति भी दो तरह की होती है-रूपगत और विषयगत |वे बर्नाड शॉ और पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' को 'विषयगत स्वच्छंदता' का लेखक मानते हैं| वे डी.एच.लॉरेंस को मुक्त और स्वच्छंद रचनाकार के रूप में चिन्हित करते हैं|हिंदी में निराला,उनके अनुसार,ऐसे विराट व्यक्तित्व के रचनाकार हैं जो सभी तरह की रुढियों को तोड़कर नया साहित्य रचते हैं | उनके अनुसार प्रेमचंद भी ऐसे ही रचनाकार हैं जिनके यहाँ मुक्ति और स्वच्छंदता दोनों है

वैसे तो नलिन जी ने अनेक विधाओं में  और अनेक  लेखकों पर लिखा है लेकिन मुझे सर्वाधिक मूल्यवान उनका उपन्यास और प्रेमचंद सम्बन्धी लेखन लगता है| प्रेमचंद और निराला को वे आधुनिक हिंदी साहित्य का शिखर मानते थे और इसके लिए उन्होंने निरंतर संघर्ष किया| हिंदी में पहली बार उन्होंने उपन्यास का शास्त्र निर्मित करने की कोशिश की| कला की दृष्टि से प्रेमचंद को प्रतिष्ठित करने वाले वे हिंदी के एकमात्र आलोचक थे| प्रेमचंद की कला का नलिन विलोचन शर्मा सरीखा पारखी आलोचक दूसरा नहीं हुआ| नलिन जी साहित्य में खेमेबाज़ी के विरोधी थे| इसलिए रूपवादी होते हुए भी उन्होंने अज्ञेय आदि की कड़ी आलोचना की और विज्ञान समर्थक होने पर भी प्रगतिवादियों की| प्रगतिवादियों के बारे में उन्होंने लिखा, 'उन्होंने पुरानी जंजीरें तोड़ फेकीं हैं, लेकिन उन्होंने जिसे गले का हार समझ कर प्रसन्नता पूर्वक पहना है वह हाथ-पैर का नहीं ह्रदय और मष्तिष्क का बंधन बन गया| उन्होंने गुरु पूजा का त्याग किया है पर वीर पूजा अपनाने के लिए, मूर्ति-पूजा से छुटकारा पाया है किन्तु जनपूजा  के लिए, कर्मकांड में फसने के लिए और शास्त्र की संकीर्णता के विरुद्ध सफल विद्रोह किया है, लेकिन सिद्धांत की चारदीवारी में कैद हो जाने के लिए|'

नलिन आलोचना को सृजन मानते थे किन्तु ऐसा सृजन जो किसी 'कृति  का निर्माण करे| वे यह भी मानते हैं की 'आलोचना कला का शेषांश है|' इसलिए उनकी आलोचना में भाषा, शिल्प आदि पर जितना बल है उतना साहित्य की विषयवस्तु पर नहीं|

नलिन को काल ने बहुत कम समय दिया| मात्र छियालीस साल में उनकी मृत्यु (१२ सितम्बर १९६१) हो गयी| इतनी कम उम्र पाकर भी उन्होंने विपुल साहित्य की रचना की| आलोचना, कविता, कहानी, संस्मरण आदि कई विधाओं में उन्होंने मौलिक रचनाशीलता का अद्वितीय उदहारण प्रस्तुत किया| हिंदी के प्रोफेसर और अध्यक्ष के रूप में पटना विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग को उन्होंने वह स्तरीयता  और प्रतिष्ठा दिलाई जिससे तुलना के लिए बहुत कम नाम मिलेंगे| अध्यापन, शोध-लेखन आदि क्षेत्रों में उन्होंने योग्य-शिष्यों की एक बड़ी फ़ौज बहुत कम समय में खड़ी कर दी| उनका परिवार अतिशिक्षित और साधन संपन्न था| फिर भी आज उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है
    
(बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्,पटना की शोध-पत्रिका परिषद्-पत्रिकाजुलाई-सित.२०१३ में प्रकाशित)


  




Friday, 27 March 2015

'अँधेरे में' और हिंदी कविता के पचास वर्ष

.........इस गोष्ठी का विषय है- ‘मुक्तिबोध और हिंदी कविता के पचास वर्ष, लेकिन मैं इस विषय पर बोलने की जगह ‘अँधेरे में और हिंदी कविता के पचास वर्ष’ पर बोलना पसंद करूँगा | यह विषय पहले की तुलना में अपेक्षाकृत छोटा है | वैसे उतना छोटा भी नहीं है कि मुझे बोलने के लिए आधे घंटे की जो अवधि दी गई है, उसमें विषय के विस्तार को समेट सकूँ | 1964 में ‘अँधेरे में’ कविता का प्रकाशन हुआ था और उसी वर्ष मुक्तिबोध का निधन भी हुआ | इस तरह ‘अँधेरे में’ कविता के प्रकाशन के पचास वर्ष पूरे हो रहे हैं | इस कविता के प्रकाशन की अर्द्धशती के अवसर पर देश में कई आयोजन हुए और उसी क्रम में आपका यह आयोजन..... इस सिलसिले का शायद अंतिम कार्यक्रम | मुझे याद नहीं कि आधुनिक हिंदी साहित्य की किसी रचना को उसकी  अर्द्धशती के अवसर पर इस तरह याद किया गया हो | इस अर्थ में यह हिंदी की अद्वितीय रचना है | यह सौभाग्य शायद ही किसी एक कविता को मिला हो !
          ‘कामायनी’ की तरह ‘अँधेरे में’ कविता भी विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप से शामिल है | जैसे ‘उसने कहा था’ के बिना हिंदी कहानी का कोई प्रतिनिधि संकलन नहीं तैयार किया जा सकता, वैसे ही ‘कामायनी’ और ‘अँधेरे में’ को अलग रखकर आधुनिक हिंदी कविता पर बात नहीं हो सकती | दूसरे कई महत्वपूर्ण कवि हैं जो कवि रूप में आधुनिक हिंदी कविता पर चर्चा के क्रम में अवश्य ही शामिल किये जाते हैं, लेकिन उनकी कोई एक कविता चर्चा का आधार रहे और उस काल की कविता की मुख्य प्रस्तावना भी, ऐसा संभवतः दूसरा उदहारण देखने को नहीं मिलेगा | ‘कामायनी’ महाकाव्य है, न सिर्फ काव्य-रूप में, बल्कि अपने प्रभाव में भी; जबकि ‘अँधेरे में’ एक लम्बी कविता भर है- लगभग 40 पृष्ठों की, लेकिन इसका प्रभाव भी वैसा ही महाकाव्यात्मक है और युगव्यापी भी |  ‘कामायनी’ आलोचकों के लिए चुनौती रही, इसलिए उसकी बहुतेरी व्याख्याएँ हुईं, उनमें से एक व्याख्या मुक्तिबोध की भी है-‘कामायनी: एक पुनर्विचार’ नाम से | उस व्याख्या से पता चलता है कि प्रसाद और ‘कामायनी’ का मुक्तिबोध के लिए क्या महत्व था | वे अपनी ‘सभ्यता-समीक्षा’ में ‘कामायनी’ और प्रसाद को एक बड़ी चुनौती के रूप में देखते हैं | कुछ आलोचकों ने इस ओर इंगित किया है कि क्यों मुक्तिबोध आधुनिक कविता के इतिहास में ‘कामायनी’ को इस महत्व के साथ अपने दृष्टि-पथ में रखते हैं | आखिर किसी दूसरे कवि की रचना मुक्तिबोध के लिए वैसी चुनौती क्यों नहीं ? ‘कामायनी’ की तरह ‘अँधेरे में’ कविता भी आलोचकों के लिए चुनौती रही है | इसकी भी अनेक व्याख्याएं-कुव्याख्याएं हुई हैं | नामवर सिंह और रामविलास शर्मा की व्याख्याएं ज्यादा चर्चित और बहसतलब रही हैं | एक व्याख्या नन्द किशोर नवल कि भी है, जो फासीवाद के सन्दर्भ में इस कविता को देखती है .......मुक्तिबोध की एक व्याख्या इस गोष्ठी के अध्यक्ष दूधनाथ सिंह की भी है | कुछ लोग कहते हैं कि वह व्याख्या किसी काम की नहीं | लेकिन कोई बात नहीं | वह कविता पचास वर्ष बाद भी अपनी व्याख्या के नए-नए द्वार खोलती जा रही है | यह उसके कालजयित्व और श्रेष्ठता का बड़ा प्रमाण है |
              ‘अँधेरे में’ ‘नई कविता’ की सबसे बड़ी उपलब्धि है | वह न सिर्फ ‘नई कविता’ की, बल्कि सम्पूर्ण छायावादोत्तर दौर की सबसे बड़ी उपलब्धि है | वह ‘कामायनी’ और ‘राम की शक्ति पूजा’ के बाद हिंदी की सबसे महान कविता है | महत्वपूर्ण और बड़ी कविताएँ अनेक हैं, अनेक प्रगतिशील और गैर प्रगतिशील कवि भी हैं, हिंदी कविता के विकास में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है, लेकिन ‘अँधेरे में’ के मुकाबले किसी दूसरी कविता को नहीं रखा जा सकता | यह अपना उदाहरण अपने आप है | नई कविता दौर की ही एक महत्वपूर्ण उपलब्धि अज्ञेय की लम्बी कविता ‘असाध्य वीणा’ भी है | वह भी महत्वपूर्ण कविता है | उसके भी अनेक पाठ-कुपाठ हुए हैं | एक कुपाठ नामवर सिंह का भी है | ‘कविता के नए प्रतिमान’ में ‘असाध्य वीणा’ की जो व्याख्या है, उससे आप परचित होंगे |  उस कविता का सब कुछ नामवर सिंह के लिए ‘बासी’ है | रामविलास जी को तो उसमें नव रहस्यवाद नजर आया | लेकिन आज जब मैं उस कविता को पढ़ता हूँ तो इन कुपाठों से अलग वह एक सुन्दर और महत्वपूर्ण कविता के रूप में मुझे दिखाई देती है | यहाँ हमें ध्यान रखना चाहिए कि रामविलास शर्मा और नामवर सिंह ने अज्ञेय का विरोध जरूर किया, लेकिन उन्हें अछूत नहीं माना | इस तथ्य की ओर ध्यान देने की जरूरत है कि मुक्तिबोध की विरासत को संभालने का दावा करने वाली जो नई पीढ़ी है वह अपने ‘विरोधी’ विचार के कवि-लेखक को पढ़ती ही नहीं | सुने-सुनाये आधारों पर बयान देने और हमले करने का प्रचलन इधर के दौर में ज्यादा बढ़ा है........बहरहाल एक ही दौर में लिखी गयी दो बड़ी कविताएँ हैं- ‘अँधेरे में’ और ‘असाध्य वीणा’ | एक में जगत-समीक्षा है तो दूसरी में कला-समीक्षा | एक अपने समय की तमाम उथल-पुथल को समेटे हुए है तो दूसरे में कला-साधना का समाधि-भाव है | मैं अनावश्यक रूप से दोनों कवियों और कविताओं की  तुलना करके एक को श्रेष्ठतर और दूसरे को कमतर, परीक्षोपयोगी मूल्यांकन प्रणाली वाली समीक्षा के विरुद्ध हूँ......फिर भी दोनों के बारे में मेरी राय जानना चाहें तो मैं कहना चाहूँगा कि ‘अँधेरे में’ मेरी लिए ऐसी कविता है, जिसे मैं जीवन भर बार-बार पढ़ना चाहूँगा |
         आज जब हम ‘अँधेरे में और हिंदी कविता के पचास वर्ष’ पर बात कर हैं तो कुछ बातें साफ़ हो जानी चाहिए | ‘अँधेरे में’ कविता जब लिखी गयी थी तब वह शीतयुद्ध का समय था | दुनिया दो खेमों में बंटी हुई थी | समाजवादी खेमा और गैर समाजवादी खेमा | हिंदी में भी दो ध्रुव थे-प्रगतिशील और गैरप्रगतिशील |   मुक्तिबोध के सामने पक्ष बिलकुल साफ़ था | वे विश्वस्तर पर समाजवादी खेमे के पक्ष में थे | हिंदी  में प्रगतिशील चेतना के पक्ष में अपने पक्ष को लेकर मुक्तिबोध के सामने कोई दुविधा नहीं थी | वे बड़े मजे में पूछ सकते थे कि ‘पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?’, इस पक्ष में हो कि उस पक्ष में ? आज सोवियत संघ समेत तमाम समाजवादी मुल्क बिखर चुकें हैं, दुनिया दो ध्रुवीय न रहकर एक ध्रुवीय हो गयी है | वैसे में आज कवि को अपना पक्ष बनाने में मुक्तिबोध के समय से अधिक सतर्कता और सचेतता की जरुरत है | यह समस्या मुक्तिबोध के सामने नहीं रही होगी | भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन बिखराव और हताशा के दौर से गुजर रहा है | वह भारतीय युवा वर्ग को आकर्षित करने और उसके भीतर मानव-मुक्ति का नया स्वप्न जगाने में उस तरह कारगर नहीं है | आज कम्युनिस्ट होना मुक्तिबोध के समय की तरह अग्निपथ पर चलने की तरह भी नहीं है | इसलिए आज के कवि के सामने वे चुनौतियां भी नहीं हैं, जो मुक्तिबोध के सामने थीं |
         इस कविता के अपने ऊपर प्रभाव की चर्चा करूँ तो मैं कहना पसंद करूँगा कि इसका प्रभाव मेरे ऊपर वैसा ही पड़ता है जिस तरह कबीर, सूर, रैदास, तुलसी, नानक, मीरा आदि भक्त कवियों को पढ़ने पर पड़ता है | ‘अँधेरे में’ की विषयवस्तु भक्ति विषयक नहीं है | वह हमारे समय के झंझावातों की कविता है | उसका प्रभाव मेरे ऊपर अगर भक्ति कविता की तरह पड़ता है तो इस अर्थ में नहीं कि मुझे उससे कोई धार्मिक-आध्यात्मिक चेतना और तोष प्राप्त होता है, बल्कि इसलिए कि भक्ति-कविता में जो शब्द और कर्म की नैतिक आभा है, वह आभा मुझे यहाँ भी दिखाई देती है | भक्ति कविता को पढ़ते हुए कवि के शब्द और कर्म में हम कोई द्वैत नहीं पाते, मुझे ‘अँधेरे में’ को पढ़ते हुए उसी भाव-भूमि की अनुभूति होती है | ‘अँधेरे में’ मेरे लिए छायावादोत्तर युग की सबसे बड़ी उपलब्धि है तो इसकी एक वजह और है | वह यह कि यह कविता सिर्फ दिमाग की ही नहीं, दिल की भी बेचैनी के साथ पाठक के सामने उपस्थिति होती है | इसी के साथ यह कि ‘करुण रसाल और ह्रदय’ के संयोग से बनी इस कविता का स्वर छायावादोत्तर दौर का सबसे भिन्न और पाठकीय भरोसे का स्वर है | यह बेचैनी एक लय की तरह पूरी कविता में व्याप्त है | यह बेचैनी किसी भावुक प्रसंग की नहीं, गहन-गंभीर विचार की है, जो संगीत की तरह पूरी कविता में सुनाई देती है | मुक्तिबोध कहते हैं ‘आज उस पागल ने मेरी चैन भुला दी / मेरी नींद गँवा दी’, तो यूँ ही नहीं कहते | यह चैन भुलाने और नींद गंवाने की भाव-भूमि से पैदा हुई कविता है | यह कविता सिर्फ विचार से नहीं पैदा हुई है | विचार के साथ हृदयपक्ष भी जुड़ा है- ‘करुण रसाल वे ह्रदय के स्वर हैं’| विचार के साथ ‘ह्रदय के स्वर’ इस कविता की शिराओं में अपनी पूरी गति और ऊष्मा से भरे हुए हैं | यह इसका सबसे मजबूत पक्ष है |
 मुक्तिबोध की यह कविता मुझे इसलिए भी प्रिय है कि उसमें गीतात्मक अनुगूँज है | इसके कारण इसमें गजब का प्रवाह है |  गीतात्मक अनुगूँज कहीं प्रकट होकर तो कहीं लय बनकर पूरी कविता में व्याप्त है | बानगी के तौर पर कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं -  


अब युग बदला है वाकई 
कहीं आग लग गई,कहीं गोली चल गई

भागता मैं दम छोड़ 
घूम गया कई मोड़

ओ मेरे आदर्शवादी मन 
 ओ मेरे सिद्धांतवादी मन

हाय-हाय नुमा,टॉलस्टॉय नुमा
‘अँधेरे में’ कविता अपने जटिल वितान के बावजूद ऐसा बहुत कुछ कहती है जो बहुत सहज ढंग से सिद्धांत-सूत्र की तरह आदर्श वाक्य के रूप में नई पीढ़ी की जुबान पर है | किसी कविता का इस तरह सिद्धांत वाक्य बनकर जन-समाज में लोकप्रिय होना मामूली बात नहीं है | यह भूमिका वही कविता अदा करती है, जो जीवन की आग से पैदा होती है | कुछ उदहारण देखे जा सकते हैं-
कविता में कहने की आदत नहीं,पर कह दूँ

वर्तमान समाज चल नहीं सकता| 
पूँजी से जुड़ा हुआ ह्रदय,बदल नहीं सकता| 
स्वातंत्र्य व्यक्ति का वादी 
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को 
जन को |

दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर 
दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट 
कोई भी मुर्गा 
यदि बांग दे उठे जोरदार 
 बन जाए मसीहा

अभिव्यक्ति के खतरे 
उठाने ही होंगे 
 तोड़ने होंगे ही गढ़ और मठ सब
हिंदी कविता का कौन-सा प्रेमी पाठक मुक्तिबोध की ऐसी पंक्तियों को दुहराता न मिलेगा !
     ‘अँधेरे में’ कविता का एक और वैशिष्ट्य मुझे बार-बार आकर्षित करता है | वह है, उसका नाटकीयता से भरपूर रचाव | एक-एक पंक्ति नाटक के संवाद की तरह कसी हुई है और किसी नाटक के संवाद की तरह प्रभाव डालती है | नाटक के दृश्यों की ही तरह ‘अँधेरे में’ के दृश्य बदलते हैं | प्रसाद के नाटकों की संवाद-योजना से ‘अँधेरे में’ की नाटकीयता का मिलान करके इसको देखा जा सकता है | जिन्होंने ‘अँधेरे में’ कविता का नाट्य मंचन देखा है, वे उसके नाट्यधर्मी प्रभाव के कायल हुए बिना नहीं रहेंगे :
खुला-खुला कमरा है, सांवली हवा है 
झांकते हैं खिड़की से, अँधेरे में टंके हुए सितारे 
फैली है बर्फीली साँस-सी, वीरान 
तितर-बितर सब फैला है सामान
  इस कविता को पढ़ते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि मुक्तिबोध को देश में मार्शल लॉ का खतरा उपस्थित होता हुआ दिखाई दे रहा था | वे उस स्थिति की भी कल्पना कर रहे थें, जिसमें दिन के उजाले में जन-समर्थन का स्वांग करने वाले लोग रात के अँधेरे में मार्शल लॉ के समर्थन में थे | मुक्तिबोध के सामने जनता की मुक्ति की एक ही राह थी और वह थी- जनक्रांति | ‘अँधेरे में’ कविता उस जनक्रांति के स्वप्न की कविता है | वह जनक्रांति बहुत कुछ बोल्शेविक क्रांति का समरूप है | आज वैसी जनक्रांति की बात न कोई करता है और न उसकी गूँज इधर की कविता में सुनाई पड़ती है | अब कविता में प्रतिरोध का जनक्रांति वाला स्वर नहीं है | प्रतिरोध के अब अनेक मंच हैं और अनेक तरह के स्वर हैं | अब दलित, स्त्री, आदिवासी, अल्पसंख्यक अपने प्रतिरोध को कविता में वैसे नहीं दर्ज करते जिसे ‘अँधेरे में’ की स्पष्ट विरासत कहा जाए | अनामिका ‘दरवाजा’ शीर्षक कविता में कहती हैं :


मैं एक दरवाजा थी
मुझे जितना पीटा गया
मैं उतना ही खुलती गई|
अन्दर आए आनेवाले तो देखा-
चल रहा है एक वृहत्चक्र- चक्की रूकती है तो चरखा चलता है
चरखा रुकता है तो चलती है कैंची- सुई
गरज यह कि चलता ही रहता है अनवरत कुछ-कुछ ! 
.........और अंत में सब पर चल जाती है झाड़ू 
तारे बुहारती हुई बुहारती हुई पहाड़, वृक्ष, पत्थर-
सृष्टि के सब टूटे- बिखरे कतरे जो 
एक टोकरी में जमा करती जाती है 
मन की दुछत्ती पर |
यह काव्य-स्वर ‘अँधेरे में’ कविता से अलग हिंदी कविता में एक नए प्रस्थान की तरह है | मुक्ति का स्वप्न तो इसमें भी है | इसी तरह गगन गिल ‘अँधेरे में बुद्ध’ सीरीज की कवितायें जब लिखती हैं तो स्त्री-मुक्ति का नया ही सन्दर्भ उभरता है | ‘यह आकांक्षा समय नहीं’ संग्रह में उनकी एक कविता है ‘वह सचमुच’ | उसे भी जरा देखिए :
दरवाजा भड़भड़ा रहा  है                                                                                                                          
जाने कब से
घंटी बज रही है                                                                                                                             
फोन की                                                                                                                                  
तुम्हारे खाली कमरे में
                                                                                                                                                  
वह खड़ी है                                                                                                                           
तुम्हारी खिड़की के बाहर                                                                                                                 
पिछले कई दिन-रात से
                                                                                                                                                  
मंडरा रही है                                                                                                                                 
तुम्हारी सोई आँखों के पास
देख रही है                                                                                                                                   
निकाल कर                                                                                                                               
तुम्हारा दिल
रात के इस सन्नाटे में
                                                                                                                                                  
रोक रही है रास्ता                                                                                                                      
पकड़ कर तुम्हारा चीवर
                                                                                                                                            
मैं तुम्हे जाने नहीं दूंगी                                                                                                                       
मैं तुम्हे जाने नहीं दूंगी

नहीं                                                                                                                                           
 यह                                                                                                                                             
हवा नहीं है
                                                                                                                                              
भ्रम नहीं है
वह                                                                                                                                            
सचमुच आन पहुंची है                                                                                                                    
तुम्हारे एकांत में
दलित कवयित्री रजनी अनुरागी की  मुक्ति का स्वप्न कुछ दूसरा है-

अगर पढ़ सको तो पढ़ो                                                                                                                     
हमको ही                                                                                                                                    
 हमारी कविता की तरह                                                                                                                    
 हम औरतें भी                                                                                                                                
 एक कविता ही तो हैं |

अँधेरे में से आगे और उससे अलग हिंदी कविता का यह नया इलाका है | एकदम नया और उर्वर | मुक्ति को नया अर्थ देता हुआ | हिंदी कविता के आकाश में नए क्षितिज को उद्घाटित करता हुआ | मुक्ति का यह सपना ‘अँधेरे में’ के स्वप्न का विस्तार है या कुछ अलग है, इसपर विचार होना चाहिए |
मुक्तिबोध की चेतना जिस विचारधारा से संचालित है, जनक्रांति उसकी अनिवार्य परिणति है | भविष्य में जनक्रांति होगी और जनता की मुक्ति की सारी बाधाएं दूर हो जाएंगी, इसे लेकर ‘अँधेरे में’ कविता के रचनाकार को कोई दुविधा नहीं है | उस जमाने में विश्वस्तर पर और भारतीय समाज में मार्क्सवाद की जो मोहक उपस्थिति थी, उसे देखते हुए मुक्तिबोध के जनक्रांति के सपने को यथार्थ मानने में तब भला किसे आपत्ति हो सकती थी ! लेकिन पचास वर्षों बाद दुनिया और भारत के नक़्शे पर जनक्रांति का आदर्श कहीं भी मजबूत स्थिति में दिखाई नहीं पड़ता | इसलिए आज न तो उनका जनक्रांति का वह सपना निर्विवाद है और न उस जनक्रांति के लिए लड़ने वाले जन की निष्ठा | मुक्तिबोध आज होते तो उनकी जनक्रांति के सपने को कई ओर से चुनौतियां मिलतीं | कारण साफ़ है- आज शोषक और शोषित के विभाजन की स्वीकार्यता निर्विवाद नहीं है | प्रगतिशील मार्क्सवादी आलोचक रामविलास शर्मा का यथार्थ और वर्ग का आग्रह ब्राह्मणवादी करार दिया जा चुका है | नागार्जुन की कविता ‘हरिजन गाथा’ का विरोध दलित विमर्शकारों द्वारा किया जा चुका है | ‘सरस्वती’ में हीरा डोम की कविता ‘अछूत की शिकायत’ के प्रकाशन को महावीर प्रसाद द्विवेदी का षडयंत्र बताया जा चुका है, आदि-आदि | ऐसे में ‘अँधेरे में’ के सामने का जो काव्य-परिदृश्य है उसमें बहुत बदलाव आया है | यह बदलाव लाने में स्त्रियों की भूमिका तो है ही, दलित कवियों की भी भूमिका है | ......मैंने पहले कहा कि ‘अँधेरे में’ में भारतीय जन के प्रतिरोध का जो का दृढ स्वर है और जनक्रांति का जो सपना है उसे हमारे दौर की अस्मितावादी प्रतिरोधी आवाजें उस रूप में स्वीकार नहीं करतीं, उन्हें मुक्ति की समाजवादी  क्रांति के बदले अपनी-अपनी मुक्ति का सवाल ज्यादा परेशान करता है | ओम प्रकाश वाल्मीकि की एक कविता है- ‘ठाकुर का कुआँ’ | यह प्रेमचंद की कहानी का कविता में दलित पाठ है-



चूल्हा मिट्टी का

मिट्टी तालाब की

तालाब ठाकुर का

रोटी बाजरे की


बाजरा खेत का

खेत ठाकुर का


बैल ठाकुर का हल ठाकुर का


हल की मुठ पर हथेली अपनी 
 फसल ठाकुर की 
 कुआँ ठाकुर का 
 खेत खलिहान ठाकुर के 
 फिर अपना क्या? 
 गाँव?
 शहर? 
 देश ?

इस कविता का कैनवास निश्चित रूप से ‘अँधेरे में’ जैसा बड़ा नहीं, बहुत छोटा है | प्रश्न है कि इसके भीतर उठने वाले सवाल दलित जीवन के सन्दर्भ में बड़े हैं या नहीं ? यह ‘अँधेरे में’ जैसी जटिल वितान वाली कविता के सामने सीधी-सपाट है, लेकिन दलित भारत की ओर से सवाल तो ऐसी ही कविताएँ उठाती हैं | जय प्रकाश कर्दम की एक कविता है- ‘किले’ |  उसका एक अंश है –


ब्राम्हण का मान

ठाकुर की शान

सेठ की तिजोरी

खेत-खलिहान


मिल-कारखाने

कोठी और हवेली मेरे श्रम और शोषण से 
फले-फूले हैं


.............. 
असमानता और अन्याय के


ये सारे किले मेरी 
आँखों में गड़े हैं |

ये दलित कविताएँ एक बयान की तरह हैं- सरल और सपाट | रेटोरिक से भरी हुई | हिंदी कविता भाव और शिल्प की जिस ऊंचाई पर पहुँच चुकी है, उसे देखते हुए ये बयानधर्मी कविताएँ कविता के परिभाषित परिसर की  नहीं लगतीं | खुद अँधेरे में कविता के जरिए हिंदी कविता का आकाश जितना विस्तृत और ऊँचा हुआ है उसे देखते हुए इन्हें सरल कविताओं के खाते में डाला जा सकता है, लेकिन इसमें उठने वाले सवाल हिंदी कविता में बिलकुल नए हैं | इन नए सवालों से बनने वाली हिंदी कविता चाहे जितनी सरल-सपाट लगे वह ‘अँधेरे में’ के आगे हिंदी कविता की नई ज़मीन है इससे कौन इनकार करेगा ! भले वह भूमि अभी थोड़ी अनुर्वर और उबड़-खाबड़ ही सही |   
‘अँधेरे में’ से पता चलता है कि मुक्तिबोध ने प्रगतिशील हिंदी कविता का अलग रास्ता पकड़ा | वह रास्ता नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल आदि प्रगतिशील कवियों से भिन्न था | वे ‘नई कविता’ के भीतर ही प्रगतिशील मूल्यों की स्थापना का संघर्ष कर रहे थे | कामरेड डांगे के नाम उनका जो ऐतिहासिक पत्र है वह इसका प्रमाण है | मुक्तिबोध ने समाज और विचारधारा के साथ व्यक्ति के ह्रदय पक्ष को जोड़ा | हृदय-पक्ष यानी व्यक्ति का अनुभव, द्वंद्व, आत्मसंघर्ष आदि | विचारधारा के साथ उनकी आत्मा के दर्पण पर पड़ने वाले अनुभव के प्रकाश से यह कविता निर्मित होती है | उन्होंने उभरते हुए नए मध्यवर्ग की शक्ति को पहचाना, उन्होंने यह भी देखा कि इस वर्ग की कथनी और करनी में द्वैत है | मध्यवर्गीय व्यक्ति के माध्यम से उन्होंने मुक्तिकामी संघर्ष का आकलन किया और एक आदर्श जनवादी व्यक्ति की तस्वीर पेश की, जिसका चरम उद्देश्य है-अभिव्यक्ति के पूर्ण रूप की खोज | लेकिन अँधेरे में’ के आगे हिंदी कविता का जो प्रगतिशील-जनवादी परिदृश्य है, उसमें आत्मा का आयतन कम वैचारिक चेतना का आयतन ज्यादा प्रमुख है | इस लिहाज से मैं आलोकधन्वा, राजेश जोशी और अरुण कमल की कविताओं को उदाहरण रूप में रखना चाहूँगा |  ‘मैं’ इन कविताओं में भी है, लेकिन यह ‘अँधेरे में’ के ‘मैं’ से अलग लगता है | आलोकधन्वा की कविता ‘जनता का आदमी’ की कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं –



जब कविता के वर्जित प्रदेश में

मैं एकबारगी कई करोड़ आदमियों के साथ घुसा

तो उन तमाम कवियों को 
मेरा आना एक अश्लील उत्पात-सा लगा 
जो केवल अपनी सुविधा के लिए 
अफीम के पानी में अगले रविवार को चुरा लेना चाहते थे 
अब मेरी कविता एक ली जा रही जान की तरह बुलाती है,
 भाषा और लय के बिना,केवल अर्थ में-
 उस गर्भवती औरत के साथ 


जिसकी नाभि में सिर्फ इसलिए गोली मार दी गयी 
 कि कहीं एक और ईमानदार आदमी पैदा न हो जाए |

कुछ लोगों ने ‘जानता का आदमी’ को ‘अँधेरे में’ के बाद सबसे महत्वपूर्ण कविता घोषित किया था | इस कविता का जितना शोर एक ज़माने में था, आज उसका अता-पता नहीं है | उसका कारण यह है कि इस कविता का प्रपेक्षण बिंदु ही जनक्रांति का किताबी आइडिया है, जिसका कवि के जीवनानुभव से कुछ लेना-देना नहीं है | यह वैचारिक चेतना से संचालित है जिसमें ‘अँधेरे में’ जैसा ईमानदार आत्मालोचन का अभाव है | ‘जानता का आदमी की तुलना में आलोक की ‘पतंग’ और ‘कपड़े के जूते’ अधिक विश्वसनीय और प्रभावशाली कविताएँ हैं | ‘जनता का आदमी’ के साथ ही बहुतेरी ऐसी कविताएँ उस दौर में लिखी गई जो थोड़े दिन के शोर-शराबे के बाद सतह पर बैठ गईं | अब इससे अलग राजेश जोशी की एक कविता ‘मै झुकता हूँ’ को देखते हैं, जिसमे मध्यवर्गीय व्यक्ति की चापलूसी और चालाकी पर चोट है | मानवीय गरिमा को स्वाभिमान दिलाने के क्रम में राजेश जोशी लिखते हैं -



दरवाजे से बाहर जाने से पहले

अपने जूतों के तस्में बाँधने के लिए मैं झुकता हूँ

रोटी का कौर तोड़ने और खाने

झुकता हूँ अपनी थाली पर

जेब से अचानक गिर गई कलम या सिक्के को उठाने को झुकता हूँ| 
 झुकता हूँ लेकिन उस तरह नहीं 
 जैसे एक चापलूस की आत्मा झुकती है 
 किसी शक्तिशाली के सामने
 जैसे लज्जित या अपमानित होकर झुकती हैं आखें
 झुकता हूँ
 जैसे शब्दों को पढ़ने के लिए आँखें झुकती हैं

आलोकधन्वा और राजेश जोशी की कविताओं के साथ अरुण कमल की ‘अंत’ शीर्षक कविता को भी इसी  क्रम में देखा जा सकता है –



आखिर इसी जान 
 इसी देह की खातिर तो सब किया


जहाँ बोलना था चुप रहा 
 जिससे बोलना बंद कर देना था उससे 
 हँस-हँस कर बोला 
 आखिर इसी देह की खातिर 
 नाक पर डाले रुमाल 
 गरीब बहन के आँगन से गुजरा 
और बलवंत के आगे टांगे रहा भरा पीकदान

‘अँधेरे में’ और मुक्तिबोध की जो जनवादी काव्य-परंपरा है, ये कवि उसी परंपरा के माने जाते हैं | इन कवियों की जो तीन कविताएँ यहाँ रखी गई हैं, इन तीनो कविताओं में ‘मैं’ है, जो पाठक से संवाद करता दिखाई पड़ रहा है | क्या इन कविताओं का ‘मैं’ ‘अँधेरे में’ के ‘मैं’ से तुलनीय है ? ‘अँधेरे में’ कविता में जगत समीक्षा और आत्म समीक्षा का जो द्वंद्व है, वह क्या इनमें है ? ‘अँधेरे में’ के ‘मैं’ के भीतर जो द्वंद्व और तनाव है, वह इनमें कम है | कहना ही हो तो मैं कहना चाहूँगा कि ‘अंत’ का जो ‘मैं’ है वह पाठक को ज्यादा भरोसे का लगता है | ‘मैं झुकता हूँ’ और ‘जानता का आदमी’ का स्थान क्रमशः उसके बाद होगा | मुक्तिबोध ‘नई कविता का आत्मसंघर्ष’ नामक अपने प्रसिद्ध निबंध में अपने समय की कविता का ‘अपने परिवेश के साथ द्वंद्व स्थिति’ अनिवार्य मानते हैं और कवि के लिए उन द्वंद्वों का अध्ययन जरुरी समझते हैं | क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके समय की कविता ‘पुराने काव्य-युगों से कहीं अधिक, बहुत अधिक, अपने परिवेश के साथ द्वंद्व स्थिति में प्रस्तुत है | इसलिए उसके भीतर तनाव का वातावरण है |’ पाब्लो नेरुदा अपने ‘मेम्वायर्स’ में कविता के लिए ‘रियल’ और ‘अनरिअल’ के बीच तनाव और द्वंद्व की उपस्थिति को ज्यादा ठीक मानते हैं |  
लेकिन प्रश्न है कि ‘अँधेरे में’ को उसके बाद की प्रगतिशील-जनवादी कविता का निकष क्यों बनाया जाए ? मुक्तिबोध के समय का न तो विश्वव्यापी-राष्ट्रव्यापी वैसा राजनीतिक माहौल है और न सपनो-आदर्शों से अनुप्रमाणित मुक्तिबोध सरीखी पीढ़ी | ‘अँधेरे में’ कविता जिस यूटोपिया, सामजिक-राजनीतिक संघर्ष और आत्म संघर्ष की उपज है, जितने विस्तृत एवं जटिल वितान तथा ताने-बाने की रचना है, वह उसे महाख्यानपरक कविता के दर्जे में बिठाता है | वह कविता अंतर्वस्तु के स्तर पर बहुस्तरीय तथा शिल्प एवं काव्यभाषा के स्तर पर बहुआयामी है | इसमें भाषा, भाव और शिल्प के बहुतेरे उतार-चढ़ाव हैं | यह एक सम पर चलने वाली कविता नहीं है, जैसे कि ‘असाध्य वीणा’ | यथार्थ और फैंटेसी तथा स्वप्न और जागृति के धरातल पर यह एक साथ चलती है | इतने जटिल वितान और ‘विजन’ की कविता हर दौर में लिखी ही जाए, कोई जरुरी नहीं | इसका अनुकरण तो हरगिज संभव नहीं, प्रभाव की कुछ छायाएँ भले ही कहीं-कहीं दीख जाएँ | इस अर्थ में मुक्तिबोध ‘निरबंसिया’ कवि हैं | बाद की पीढ़ी पर ‘अँधेरे में’ का प्रभाव कितना है, यह तो विस्तृत छानबीन का विषय है, लेकिन इतना तय है कि बाद की हिंदी कविता ‘अँधेरे में’ की तत्सम बहुलता से मुक्त हो गई | यह मुक्ति जरुरी थी |
‘अँधेरे में’ कविता को पढ़ते हुए एक बात से मैं थोड़ा हैरान हुआ | मुक्तिबोध इसमें तोल्स्तोय, तिलक और गांधी का बड़ा ही सकारात्मक स्मरण करते हैं | १९६० के दशक में कम्युनिस्ट पार्टी के आइकन तो ये हर्गिज  नहीं थे | तोलस्ताय को लेनिन ने ‘सोवियत क्रांति का दर्पण’ जरुर कहा था | इसलिए उनके प्रति सम्मान तो था, लेकिन आइकन तो गोर्की थे | कम्युनिस्ट पार्टी का नजरिया गांधी के प्रति ही काफी कठोर था, तिलक की तो खैर बात ही छोड़िए ! ऐसे में इन तीनों के स्मरण का अर्थ क्या है ? लगता है तब कम्युनिस्ट पार्टी की जो लाइन थी, मुक्तिबोध उसका अतिक्रमण करते हैं | ऐसा करके क्या वे तब की मार्क्सवादी समझ को अद्यतन कर रहे थे ? एक बात और ध्यान देने लायक है- ‘अँधेरे में’ का प्रकाशन ‘कल्पना’ में हुआ था | ‘कल्पना’ समाजवादियों की पत्रिका थी | उसके प्रेरणा-पुरुष राममनोहर लोहिया थे और संचालक उनके समाजवादी सखा बदरीविशाल पित्ती | संपादक मंडल में प्रायः समाजवादी लोग ही थे | मुक्तिबोध का मार्क्सवादी रुझान जगजाहिर था | कम्युनिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी के अपने-अपने विवाद भी थे | फिर भी ‘कल्पना’ ने व्यापक वामपंथी समझ का परिचय देते हुए मुक्तिबोध समेत किसी भी मार्क्सवादी कवि-लेखक को छापने से परहेज नहीं किया | मेरी सहज जिज्ञासा है कि तब मार्क्सवादी मंचों से निकलने वाली पत्रिकाएं भी इसी उदारता और व्यापक समझ के तहत समाजवादी लेखकों को छापती थीं या नहीं ? मुझे लगता है कि तब की बात तब के लोग जानें, लेकिन आज भी मार्क्सवादी मंचों की पत्रिकाओं में यह उदारता और खुलापन नहीं आया है | जिस परम अभिव्यक्ति की खोज करते हुए मुक्तिबोध ने ‘अँधेरे में’ कविता लिखी थी, उस अभिव्यक्ति पर तब की तुलना में आज कई गुणा अधिक खतरा है | ऐसे वक्त में यह कविता व्यापक लोकतान्त्रिक और वामपंथी (अगर वामपंथ सिर्फ कम्युनिस्ट संगठनों तक महदूद नहीं है तो) समझ और पहल की मांग करती है | ........... ‘अँधेरे में और हिंदी कविता के पचास वर्ष’ पर बात करते हुए अपनी कुछ समझ, कुछ ऊहापोह को इस तरह मैंने आपसे साझा किया | अपनी समझ से कुछ आयामों पर मैंने बात की | संभव है कुछ आयाम और भी हों, जिनपर आगे बातचीत होगी .............
(म. गाँ. अं. हि. वि. वि., वर्धा के इलाहाबाद केंद्र द्वारा २९ दिसंबर २०१४ को आयोजित गोष्ठी में दिए गए वक्तव्य का लिखित एवं किंचित सम्पादित-संवर्धित रूप)

प्रस्तुति : सुनील कुमार मिश्र