Monday, 16 March 2015

महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नव जागरण के सवाल

महावीर प्रसाद द्विवेदी हिंदी के पहले लेखक थे, जिन्हें जनता ने आचार्य की उपाधि दी | वे शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य आदि की तरह न तो किसी मत के प्रवर्तक थे और न किसी महाविद्यालय के प्रधान अध्यापक | उन्होंने आचार्य की कोई परीक्षा भी पास नहीं की थी | फिर जनता ने उन्हें इस आचार्य विशेषण से क्यों नवाज़ा ? गुरु, मत-प्रवर्तक आदि कोशगत अर्थों के साथ उसका अर्थ असाधारण पंडित भी होता है और पूज्य पुरुष भी | इसी के साथ आचार्य का एक अर्थ आचरणीय भी होता है- ऐसा व्यक्ति जिसका अनुसरण किया जाए | मुझे लगता है कि जनता ने इसी अर्थ में उन्हें आचार्य की उपाधि दी | वे असाधारण विद्वान और पूज्य पुरुष तो थे ही, ऐसे आचरणीय भी थे, जिनका लोगों ने अनुसरण किया | उनके बहुआयामी व्यक्तित्व में आचार्यत्व की जो आभा है, उसका गहरा सम्बन्ध हिंदी नवजागरण से है | हिंदी नवजागरण  की जो चेतना उन्हें विरासत में भारतेंदु युग से मिली थी, उसे उन्होंने स्वाधीनता और स्वदेशी का मजबूत आधार देकर और प्रखर बना दिया | आचार्य उनके इसी ऐतिहासिक कार्य का जनता द्वारा किया गया लोक सम्मान था |
            एक तरफ यह लोकमत और लोक सम्मान था तो दूसरी ओर हिंदी के आलोचक थे | रामचंद्र शुक्ल, नन्ददुलारे वाजपेयी और हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे आलोचकों के द्विवेदी सम्बन्धी मतों को देखने से पता चलता है की वे सरस्वतीके यशस्वी संपादक और भाषा परिष्कारक भर थे | महावीर प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली के संपादक भारत यायावर ने ऐसे सभी मतों का परिक्षण किया है | शुक्ल जी का मत है कि “....लिखने की  सफलता वे इस बात में मानते थे कि पाठक भी उससे बहुत कुछ समझ जाएँ | कई उपयोगी पुस्तकों के अतरिक्त उन्होंने फुटकल लेख भी बहुत लिखे | पर इन लेखों में अधिकतर लेख बातों के संग्रहके रूप में ही हैं | भाषा के नूतन शक्ति चमत्कार के साथ नए- नए विचारों के उद्भावना वाले निबंध बहुत ही कम मिलते हैं |......द्विवेदी जी के लेखों को पढ़ने से ऐसा जान पड़ता है कि लेखक बहुत मोटी अक्ल के पाठकों के लिए लिख रहा है |” ऐसी स्थिति में उनका ऐतिहासिक योगदान क्या है ? शुक्ल के विचार हैं : “....यदि द्विवेदी जी न उठ खड़े होते तो जैसा अव्यवस्थित, व्याकरण विरुद्ध और ऊटपटांग भाषा चारों ओर दिखाई पड़ती थी, उसकी परंपरा जल्दी न रुकती |” कुल मिला कर शुक्ल जी के विचार से द्विवेदी जी का महत्व भाषा सुधार के क्षेत्र में है और उनका साहित्य मोटी अक्लवालों के लिए है | कुछ ऐसे ही विचार हजारी प्रसाद द्विवेदी के भी हैं | ‘हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास’ (१९३२) नामक पुस्तक में उन्होंने लिखा है : “पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी के स्पष्टवादिता से भरे हुए और नई प्रेरणा देने वाले निबंध यद्यपि बहुत गंभीर नहीं कहे जा सकते, परन्तु उन्होंने गंभीर साहित्य के निर्माण में बहुत सहायता पहुँचाई |” 
             एक तरफ आलोचकों की यह बंधी-बंधाई धारणा थी तो दूसरी तरफ वह लोकमत था जो महावीर प्रसाद द्विवेदी को आचार्य और बीसवीं सदी के प्रारंभिक दो दशकों का नेता मानता था | कई बार विद्वानों की राय से लोकमत अधिक सही हुआ करता है और इतिहास की नई प्रस्तावना का आधार भी  बनता है | आलोचकों से अलग प्रेमचंद, निराला और पन्त जैसे रचनाकार थे जो द्विवेदी जी को सही परिप्रेक्ष्य में देख रहे थे | प्रेमचंद ने लिखा है : “आज हम जो कुछ भी हैं, उन्हीं के बनाए हुए हैं .....उन्होंने हमारे लिए पथ भी बनाया और पथ प्रदर्शक का काम भी किया |” आगे है : “हिंदी के लिए उन्होंने अपना तन-मन-धन सबकुछ अर्पित कर दिया | हमारी उपस्थित उपलब्धि उन्हीं के त्याग का परिणाम है |” निराला ने भी लगभग इन्हीं शब्दों में आचार्य द्विवेदी के योगदान का आकलन किया है | उन्हें हिंदी भाषा के सर्वश्रेष्ठ संपादक, समालोचक और लेखकबताते हुए निराला ने १९३३ में लिखा- “....वह आधुनिक हिंदी के निर्माता हैं | विधाता हैं | सर्वस्व हैं | वह राष्ट्रभाषा हिंदी के मूर्तिमान स्वरुप हैं | उन्हें लोग आचार्य कहते हैं- वह सचमुच आचार्य हैं | आधुनिक हिंदी की उन्नति और विकास का अधिकांश श्रेय उन्हीं आचार्य को है |”
            प्रेमचंद, निराला आदि की आचार्य द्विवेदी सम्बन्धी धारणा के आलोक में डॉ. रामविलास शर्मा ने महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’ (१९७७) लिख कर न सिर्फ उनकी युगांतकारी भूमिका का विस्तार से वस्तुनिष्ठ आकलन किया, बल्कि यह भी बताया कि हिंदी में भाषा,साहित्य और विचार की दृष्टि से नए युग को संभव बनाने वाले वे अद्वितीय योद्धा थे | डॉ. शर्मा ने हिंदी नवजागरण को बंगाल, गुजरात और महाराष्ट्र के नवजागरण की शाखा न मानकर १८५७ की स्वातंत्र्य चेतना से जोड़ा और महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा उनके काल को हिंदी नवजागरण का तीसरा चरण बताया | पहला चरण १८५७ का स्वाधीनता संग्राम और दूसरा चरण भारतेंदु युग है |
            सन् ५७ के प्रथम स्वतंत्रता- संग्राम के भीतर सक्रिय चेतना की छः विशेषताओं की चर्चा रामविलास शर्मा ने की है- १. राष्ट्रीय एकता, २. राज्यसत्ता का जनता के हित में होना,३. सामंत विरोधी रुख, ४. उच्च वर्ण और निम्न वर्ण के किसानों की भागीदारी, ५. असाम्प्रदायिक राष्ट्रीय रूप तथा ६. हिंदी क्षेत्र का जातीय संग्राम | ये सारी विशेषताएँ  द्विवेदी जी के व्यक्तित्व में तो थी हीं, तिलक और गाँधी के नेतृत्व में उनके समय में जारी स्वाधीनता आन्दोलन की व्यापकता, सक्रियता और स्पष्टता भी उनके व्यक्तित्व में जुड़ी | इस कारण वे हिंदी जाति की चेतना को नयी भूमिका के लिए आंदोलित करने में सफल हुए और युग नेता बने | १९०० से १९२० के हिंदी साहित्य के कालखंड को द्विवेदी युगकी संज्ञा किसने दी, यह ठीक-ठीक कहना कठिन है | ऐसा संभव है कि हिंदी समाज ने जैसे आचार्य उपाधि दी, वैसे ही द्विवेदी युगभी कहना शुरू कर दिया हो और आलोचकों- इतिहासकारों को मानना पड़ा हो | वैसे नंददुलारे वाजपेयी ने १९३३ में और रामविलास शर्मा ने १९७६ में द्विवेदी युगकी चर्चा की है |
            नंददुलारे वाजपेयी ने स्थायी और शाश्वत साहित्य के प्रणेता के रूप में उनके महत्व को स्वीकार नहीं किया था | उनकी दृष्टि में द्विवेदी जी का महत्व उनके द्वारा सम्पादित ‘सरस्वती’ के अंकों के कारण है | यद्यपि इतिहास ने वाजपेयी जी की इस धारणा को गलत साबित करते हुए सरस्वतीके संपादन-कार्य के साथ उनके तमाम लेखन के ऐतिहासिक महत्व को नए सिरे से उद्घाटित कर दिया है, फिर भी यहाँ यह दुहराने की जरुरत है कि द्विवेदी जी और सरस्वतीने जो केन्द्रीयता और हैसियत अपने समय में हासिल की, वह न तो किसी दूसरे संपादक को मिली और न किसी दूसरी पत्रिका को | ऐसा यशस्वी और विद्वान संपादक हिंदी में दूसरा न हुआ |
            महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अनेक विधाओं में रचना की | कविता, कहानी, आलोचना, पुस्तक समीक्षा, अनुवाद, जीवनी आदि विधाओं के साथ उन्होंने अर्थशास्त्र, विज्ञान, इतिहास आदि अन्य अनुशासनों में न सिर्फ विपुल मात्रा में महत्वपूर्ण लिखा, बल्कि अन्य लेखकों को भी इस दिशा में काम करने के लिए प्रोत्साहित किया | द्विवेदी जी सिर्फ कविता, कहानी, आलोचना आदि को ही साहित्य मानने के विरुद्ध थे | वे अर्थशास्त्र, इतिहास, पुरातत्व, समाजशास्त्र आदि विषयों को भी साहित्य के ही दायरे में रखते थे | असल में स्वाधीनता, स्वदेशी और स्वावलंबन को गति देने वाले ज्ञान-विज्ञान के तमाम आधारों को वे आंदोलित करना चाहते थे | इसके लिए उन्होंने सिर्फ उपदेश नहीं दिया, बल्कि मनसा, वाचा, कर्मणा स्वयं लिखकर दिखा दिया | इसलिए उनके लिखे हुए को स्थायी और शाश्वत साहित्य के अपने तराजू से तौलने वाले आलोचक भूल गए कि द्विवेदी जी किसी एक विधा के लेखक नहीं हैं | उनका युगांतकारी व्यक्तित्व अनेक प्रकारों से बना था | हिंदी नवजागरण की एक बड़ी चिंता हिंदी परिसर को साहित्य के साथ अन्य ज्ञानानुशासनों के मौलिक लेखन से समृद्ध करने की थी | इस अर्थ में हिंदी नवजागरण के सबसे बड़े योद्धा महावीर प्रसाद द्विवेदी थे | उनके इस रूप का सबसे बड़ा प्रमाण १९०६-७ में लिखी उनकी विख्यात पुस्तक ‘सम्पतिशास्त्र’ है | कहने की जरुरत नहीं कि हिंदी को ज्ञानानुशासन के अनेक विषयों से समृद्ध करने की जो मशाल द्विवेदी जी ने जलाई, वह आज़ादी के बाद धीरे-धीरे बुझती गई है | अब हिंदी सिर्फ साहित्य और मनोरंजन की भाषा है | ज्ञान-विज्ञान और शासन की भाषा आज भी हिंदी नहीं है | नवजागरण के सन्दर्भ में महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पूर्ण रचना कर्म और उनकी चिंता को आज बार-बार रेखांकित करने की जरुरत है |
            रामविलास शर्मा ने हिंदी नवजागरण को जब सन्’५७ की चेतना की उपज माना था तब उनके ध्यान में कंधे से कंधा मिलाकर एक लक्ष्य के लिए एक साथ लड़ने वाले हिन्दू मुसलमान दोनों थे, दोनों की साझी भाषा- हिंदी-उर्दू की एकता भी थी | स्वतंत्रता सेनानियों ने जो इश्तहार सन्’ ५७ में निकाले थे, वह उर्दू-हिंदी दोनों में थे | द्विवेदी जी नवजागरण के अग्रदूत इस अर्थ में भी हैं कि वे जहाँ हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर हैं, वहीं हिंदी-उर्दू की साझी विरासत के भी | वे अनेक भाषाओं के गहरे जानकार तो थे ही, उर्दू-फारसी भी ठीक से जानते थे | उनकी प्रारंभिक शिक्षा अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू और फारसी में ही हुई थी | मराठी, गुजराती, बांग्ला आदि भाषाएँ तो उन्होंने स्वेच्छया सीखीं | उन्होंने जिस हिंदी में लिखा, वह तत्सम प्रधान हिंदी नहीं, बल्कि भारतेंदु युग से प्राप्त सहज-सरल हिंदी है | छायावाद के साथ हिंदी कविता में तत्समता बढ़ी | इसका परिणाम यह हुआ किहिंदी-उर्दू की दूरी तो बढ़ी ही, हिंदी कविता भी धीरे-धीरे जनता से दूर होती गई | हिंदी नवजागरण के सन्दर्भ में महावीर प्रसाद द्विवेदी की विरासत पर विचार करते हुए हिन्दू-मुस्लिम समस्या तथा हिंदी-उर्दू समस्या जिस रूप में और जिस वजह से राष्ट्रीय एकता के लिए गंभीर प्रश्न बन गई है, उसपर विचार करने की जरुरत है | यह इसलिए भी जरुरी है कि भारतेन्दुयुगीन नवजागरण की चेतना से द्विवेदीयुगीन चेतना का पार्थक्य समझा जा सके |
            कुरीतियों का विरोध और वैज्ञानिक चेतना का प्रसार द्विवेदीयुगीन नवजागरण का मुख्य एजेंडा था | विज्ञान और वैज्ञानिकों पर द्विवेदी जी ने खुद तो लिखा ही, अपने युग के लेखकों को भी लिखने के लिए प्रेरित किया | द्विवेदी जी द्वारा विज्ञान और वैज्ञानिकों पर लिखी गई टिप्पणियों से ही उस युग की चेतना का पता चलता है | इस दृष्टि से उस काल की हिंदी पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन दिलचस्प होगा | देखना चाहिए की उस काल की पत्र-पत्रिकाओं में अन्धविश्वास अधिक है या आज की | उसी तरह यह भी देखना चाहिए कि तकनीकी पिछड़ेपन के बावजूद तब की पत्रकारिता का वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर जोर क्यों अधिक है ?
            भारत के विकास का अर्थ है – गाँवों का विकास, किसान का विकास | यह गाँधी के शब्द और कर्म की धुरी है तो महावीर प्रसाद द्विवेदी के भी शब्द और कर्म की | किसानों की हीन अवस्था की चर्चा करते हुए द्विवेदी जी लिखते हैं : “यह देश इने-गिने अंग्रेजी पढ़े हुए वकीलों, बैरिस्टरों, मास्टरों, इंस्पेक्टरों, दफ्तर के बाबुओं, कौंसिल के मेम्बरों, महाजनों और व्यवसायियों से ही आबाद नहीं | आबाद है वह उन लोगों से जिनकी संख्या फीसद ७५ है, जो देहात में रहते हैं और जो विशेष करके खेती से अपना गुजर-बसर करते हैं | अब यदि जन-समुदाय की यह इतनी बड़ी संख्या दुःख, दारिद्र और मूर्खता के पंक में पड़ी सड़ा करे और समर्थ देशवासी उनके उद्धार की चेष्टा न करें तो कितने परिताप की बात है | इन्हीं किसानों या काश्तकारों ही से तो देश आबाद है |” यह स्थिति कैसे बदले, इसके लिए वे किसानों के संगठन पर जोर देते हैं | वे मानते हैं कि संगठन में ही परिवर्तन की शक्ति है | वे हिन्दू-मुसलमान, शिया-सुन्नी, ब्राह्मण-गैर ब्राह्मण, शैव-शाक्त आदि के बीच भेद और वैमनस्य को दूर कर जनता की एकता पर जोर देते हैं |
            स्त्री-शिक्षा और स्त्री-स्वाधीनता नवजागरण का मुख्य एजेंडा था | यह द्विवेदी जी के चिंतन और लेखन का भी मुख्य एजेंडा था | “स्त्रियों के कर्तव्य क्या हैं ? परिवार और समाज में उनका दरजा कौन सा है ? पुराने ज़माने में उनकी स्थिति कैसी थी ? अब कैसी है ?” ऐसे सवाल द्विवेदी जी को अक्सर परेशान करते थे | स्त्री-शिक्षा सम्बन्धी उनके एक लेख पर कड़ी बहस हुई थी | पंडितों ने द्विवेदी जी के स्त्री-शिक्षा और स्वाधीनता सम्बन्धी मतों का जबर्दस्त विरोध किया था | द्विवेदी जी ने उनको उत्तर देते हुए लिखा : “पढ़ने-लिखने में स्वयं कोई बात ऐसी नहीं जिससे अनर्थ हो सके | अनर्थ का बीज इसमें हर्गिज नहीं | अनर्थ पुरुषों से भी होते हैं | अपढों और पढ़े-लिखों, दोनों से | अनर्थ, दुराचार और पापाचार के कारण और ही होते हैं और व्यक्ति विशेष का चाल-चलन देखकर जाने भी जा सकते हैं | अतएव स्त्रियों को अवश्य पढ़ाना चाहिए | जो लोग यह कहते हैं कि पुराने ज़माने में स्त्रियाँ न पढ़ती थीं  अथवा उन्हें पढ़ने की मुमानियत थी, वे या तो इतिहास से अनभिज्ञता रखते हैं या जान-बूझकर लोगों को धोखा देते हैं | समाज की दृष्टि में ऐसे लोग दंडनीय हैं | क्योंकि स्त्रियों को निरक्षर रखने का उपदेश देना समाज का अपकार और अपराध करना है – समाज की उन्नति में बाधा डालना है |”
            द्विवेदी जी राष्ट्र और राष्ट्रभाषा के प्रबल पक्षधर थे | उन्हें न तो देश की गुलामी पसंद थी और न अपनी भाषा की | उनका सम्पूर्ण चिंतन और लेखन स्वतंत्र और मजबूत राष्ट्र तथा हिंदी के विकास को समर्पित है | लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वे अंधराष्ट्रवादी थे | वे अंधराष्ट्रवाद को बुरा मानते थे | वे यह मानकर नहीं चलते थे कि ज्ञान-विज्ञान और भाषा-साहित्य में जो कुछ अच्छा है, वह भारत का है | उन्हें अपनी विरासत पर गर्व था, अपनी विरासत के वे गहरे जानकार थे | इसलिए उन्हें विरासत की शक्ति का पता था तो उसकी कमजोरी का भी | अपनी विरासत के साथ देश-दुनिया में जहाँ कहीं अच्छाई है, उसका वे स्वागत करते थे | इसीलिए उन्होंने संसार भर के वैज्ञानिकों-चिंतकों का अध्ययन किया और उन पर लिखा भी | अंधराष्ट्रवाद को उन्होंने ‘विषाक्त स्वदेश-प्रेम’ की संज्ञा दी और बताया कि यह योरप की उपज है | उन्होंने उसकी आलोचना करते हुए लिखा : “स्वदेश-प्रेम से मनुष्य के ह्रदय में एक मिथ्या अहंकार का उदय होता है, उसकी बुद्धि संकुचित हो जाती है, यहाँ तक कि उसके प्रत्येक कार्य में, उसकी प्रत्येक इच्छा में, एक घृणित स्वार्थ की दुर्गन्ध आने लगती है |” वे स्वस्थ राष्ट्रवाद के साथ अंतर्राष्ट्रीयतावाद में भरोसा करते थे | अंधराष्ट्रवाद और राष्ट्रों के बीच गलत प्रतिस्पर्द्धाओं को नकारते हुए उन्होंने सभी देशों के बीच भ्रातृभाव पर जोर दिया : “संसार की वर्तमान विकट समस्या को हल करने के लिए हमें राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धाओं और वैमनस्यों से हाथ खींच लेने पड़ेंगे | राष्ट्रों के परे भी कोई वस्तु है | राष्ट्रों का अस्तित्व उसी वस्तु के लिए है | और वह है मानव जातीयता | संसार के पुनर्निर्माण की नवीन समस्याओं पर हमें आदर्श अंतर्राष्ट्रीयतावाद की दृष्टि से ही विचार करना होगा | राष्ट्रों को अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि से अपने पथ पर अग्रसर होना होगा, तभी हम सार्वजनिक भ्रातृभाव स्थापित कर सकेंगे और ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का आदर्श कार्य में परिणत हो सकेगा | संसार के उद्धार का एकमात्र यही साधन है |”
            महावीर प्रसाद द्विवेदी ने माधव राव सप्रे, महामहोपाध्याय रामावतार शर्मा और चंद्रधर शर्मा गुलेरी जैसे अपने समकालीन विद्वान लेखकों को याद किया है | इसलिए कि ये सभी द्विवेदी जी की तरह बहुभाषाविद्, बहुज्ञ और विज्ञान एवं वैज्ञानिक दृष्टि को महत्व देने वाले लेखक थे | इन्हीं के प्रयासों से हिंदी में नवजागरण संभव हो सका | द्विवेदी युग के बाद हिंदी में साहित्यिक विधाओं का तो विकास हुआ किन्तु हिंदी में ज्ञान-विज्ञान का अंतरानुशासनिक परिसर वैसा नहीं बन सका जैसा सपना द्विवेदी जी ने देखा था | उनकी परंपरा में जिन लेखकों को याद किया जा सकता है, उनकी संख्या बहुत अधिक नहीं है | राहुल सांकृत्यायन, हजारी प्रसाद द्विवेदी, भगवतशरण उपाध्याय और रामविलास शर्मा जैसे थोड़े नाम हैं, जिनके लेखन की दुनिया द्विवेदी जी की तरह विस्तृत है |
            सम्प्रदायवाद, जातिवाद और अन्धविश्वास के घनघोर विरोधी तथा वैज्ञानिक चेतना के समर्थक महावीर प्रसाद द्विवेदी ब्राह्मण जाति में पैदा जरुर हुए थे, लेकिन वे ब्राह्मणवादी नहीं थे | ब्राह्मणवाद के मुख्य चार आधार हैं-  वर्णव्यवस्था, अवतारवाद, पुनर्जन्म और कर्मकांड | द्विवेदी जी के जीवन, चिंतन और लेखन को देखने पर पता चलता है कि उस समय पूरी दुनिया में विवेकवाद की जो लहर थी, उसके वे भारतीय रूप थे | लेकिन आज विमर्शकारों द्वारा उनके चिंतन और लेखन को ब्राह्मणवादी करार देने में तनिक भी देरी नहीं की जाती | विमर्शों के जरिए खंडित मुक्ति की जो बहस जारी है, उसमें उनके द्वारा ‘सरस्वती’ में प्रकाशित की गई हीरा डोम की कविता ‘अछूत की शिकायत’ भी दलित विमर्शकारों द्वारा उनका एक षडयंत्र बता दी जाती है | व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और सम्पूर्ण मनुष्य जाति की मुक्ति का जो विराट स्वप्न द्विवेदी जी और उनके युग के विवेकशील लोग देख रहे थे, उसको विमर्शकार मुक्ति के खंडित स्वप्न में बदलने में लगे हुए हैं | यह हिंदी नवजागरण की मूल प्रतिज्ञा पर आघात-सा है|   
                                                                   

(“महात्मा गाँधी अंतररास्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय”, वर्धा तथा “महादेवी सृजन पीठ” के संयुक्त तत्वावधान में महावीर प्रसाद दूवेदी की डेढ़ सौवीं जयंती के उपलक्ष में २९-३० अगस्त २०१४ को रामगढ़ में आयोजित संगोष्ठी में पढ़ा गया आलेख|)

Monday, 9 March 2015

रागी मन की वापसी

दो महीने बाद अपना यह पोस्ट लिख रहा हूँ/ सर गंगा राम अस्पताल के डाक्टरों की दवा और आप सब की दुआ से स्वस्थ हो कर आपके बीच हूँ/ जीवन और मृत्यु से संघर्ष करते हुए जो अनुभव हुए उसी  से यह पोस्ट शुरू कर रहा हूँ/ ...... ‘अब आप खतरे से बाहर हैं | इस नए जीवन का आनंद लें |’ आपरेशन के बाद जरूरी हिदायत के साथ अस्पताल से डिस्चार्ज करते हुए डॉक्टर ने अंग्रेजी में जो कहा,उसका सार यही था | लगभग यही बात संबंधियों-शुभेच्छुओं ने भी कही कि यह मेरा पुनर्जन्म है| पुनर्जन्म भी होता है क्या? इन दिनों जिज्ञासा और प्रश्न घेर लेते हैं-जब कभी अकेला होता हूँ | स्वास्थ्य लाभ के लिए घर पर पड़ा हूँ|कमजोरी के कारण न तो कहीं आ-जा सकता हूँ और न लिख-पढ़ सकता हूँ|ऐसे में अच्छे-बुरे खयालों का आना-जाना लगा ही रहता है|
          पुनर्जन्म में मेरा रत्ती भर भी विश्वास नहीं,लेकिन बचपन से एक दार्शनिक किस्म का आवारा-सा खयाल मेरे मन में कभी-कभार आता रहा है कि मरने के बाद अपने जीवन को दूर से देखना कैसा रहेगा ! कैसा लगेगा अपने गुरुजनों,परिजनों,मित्रों और आलोचकों की प्रतिक्रियाओं को देखना-सुनना! मैं नहीं मानता कि मृत्यु के बाद अपने जीवन का पुनरवलोकन संभव है| लेकिन यह जरूर मानता हूँ कि अपने से अपने आप को अलग करके जीवन को देखा जा सकता है| अपने भीतर के राग को विराग में बदलने से यह संभव है | जीवन से हमारा इतना अधिक रागात्मक मोह होता है कि इस विराग भाव के बारे में सामान्य मनुष्य सोच ही नहीं सकता | जो ऐसा सोच पाते हैं, वे इसे संभव बनाते हैं | मुझे लगता है कि हिंदी में निराला ने इसे संभव किया था, तभी तो ‘आँखों के डोरे लाल-लाल’ जैसी रागात्मक पंक्ति लिखने वाले कवि ने गहन विराग भाव से भरी ये पंक्तियाँ लिखी होंगी-‘मैं अकेला,देखता हूँ,आ रही मेरे दिवस की सांध्य बेला’ | इन्हीं विपरीत भावों के कारण वे ‘राग-विराग’ के कवि हैं | ग़ालिब तो इस विराग भाव के उस्ताद हैं ही | इस विराग भाव की उपलब्धि के कारण रवीन्द्र मृत्यु-संगीत का आनंद लेते हैं| इसी विराग भाव को उपलब्ध करके दार्शनिकों ने जीवन और जगत की निर्मम-बेबाक व्याख्या की है| यह विराग ही वैराग्य की आधारभूमि है| 
   सामान्य लोग  जीवनभर राग में डूबे रहते हैं| मुझे लगता है कि सबके जीवन में कभी-कभी विराग के क्षण भी जरुर आते होंगे| कुछ उसे समझते होंगे, कुछ नहीं| यह विराग भाव कुछ के ही जीवन में आकार ले पाता है, बाकी उसे भूले रहते हैं| मैं अपने को ऐसे ही भूल जानेवाले लोगों की श्रेणी में रखता हूँ| पिछले दिनों बीमारी के कारण मृत्यु मेरे इतना करीब आती गई कि मुझे उसकी स्पष्ट पदचाप सुनाई देने लगी | डाक्टरों ने बीमारी की गंभीरता और उसके खतरनाक परिणाम की चर्चा की,जिसका अर्थ था कि मेरा जीवन खतरे में है, अर्थात् आपरेशन का परिणाम कुछ भी हो सकता है| जाँच –रिपोर्ट के मुताबिक अपेंडिक्स चार–पांच दिन पहले फट चुका था,उसके  जहर के  शरीर में फैल जाने के कारण आंत पूरी तरह बंद हो चुकी थी,जो बहुत खतरनाक स्थिति थी| पल भर में मन एक दिशा से दूसरी दिशा में घूम गया-जीवन से मृत्यु की दिशा में | लगने लगा कि मृत्यु चारों ओर से मेरी जिंदगी की चौखट पर दस्तक दे रही है और मैं उसे साफ़ सुन रहा हूँ | मृत्यु-भय से मेरे ऊपर भावुकता हावी होती गई | बचपन से लेकर अब तक की जीवन-यात्रा स्मृति के परदे पर एकबारगी कौंध गई | मृत-जीवित सभी रक्त सम्बन्धी,अच्छे-बुरे सभी तरह के दोस्त,जीवन में उपस्थित रहे सभी स्त्री-पुरुष तेजी से याद आते रहे | जो जीवित हैं, उनसे एक बार मिल लेने की इच्छा तेज हुई | डाक्टर और नर्स जीवन-रक्षक उपकरण लगा चुके थे और उन्हें मानिटर कर रहे थे | इसी बीच कुछ खल मित्रों ने मोबाइल सन्देश के जरिए यह अफ़वाह उड़ा दी कि मेरा निधन हो गया है | यह सन्देश मेरे मोबाइल पर भी आया जिसे घरवालों ने पढ़ा ...| दिल्ली,पटना ,बनारस आदि जगहों से फोन आने लगे | जीवन के छूटने की आशंकाजनित पीड़ा से मैं नीम बेहोशी में चला गया | मेरे भाई और वहाँ उपस्थित लोगों ने समझा कि मुझे नींद आ गई है |
     लगभग एक घंटे बाद मेरी चेतना लौटी तो लगा कि इस अति ‘जीवन-मोह’ के कारण बचने की जो थोड़ी उम्मीद है,वह भी जाती रहेगी | फिर उपाय क्या है ! मृत्यु-भय शरीर के पोर-पोर में समा चुका था | मैंने अपनी स्वर्गीया माँ को याद किया | हर संकट में वह मुझे याद आती है | उसकी याद से मुझे ताकत मिलती है ,जैसे आस्तिकों को ईश्वर से मिलती है,वैसे ही | जानता हूँ कि यह शक्ति मनोवैज्ञानिक भर है,लेकिन उससे क्या,यह मेरे लिए तो भौतिक सच्चाई से बढ़कर है | शायद अवचेतन में यह बात बैठी है कि माँ हर मुसीबत से उबार लेगी | आखिर बचपन में तो उबार ही लेती थी न ! मृत्यु-भय से उपजी भावुकता को मैंने झटका और सोचा- हो जाए,जो होना है,मृत्यु ही सही | थोड़ी देर बाद मैं हर तरह के भय से मुक्त था | मन स्थिर हो चुका था | बचपन से अब तक का जीवन मेरे सामने था | अपना ही किया-अनकिया ; अच्छा-बुरा सब साफ़ –साफ़ दिख रहा था | बहुत-सी वे चीजें,जिनके लिए मैंने जमीन-आसमान एक कर दिया था, अब व्यर्थ थीं | ईर्ष्या नहीं थी,जीवन में जिन्हें शत्रु मानता था,उनके प्रति कोई कटुता नहीं थी | पत्नी,पुत्र,भाई,सम्बन्धी जिनके लिए अच्छे-बुरे का भेद भूलकर जीवन होम कर देने का जो भाव था,वह तिरोहित हो चुका था और उसकी जगह असम्पृक्त ह्रदय धड़क रहा था | भले ही न कर पाया होऊं,लेकिन दुनिया के लिए कुछ करने की जो युवा दीवानगी थी,वह भी शांत-चित्त थी | मैं अपने को बहुत सुखी महसूस कर रहा था | मन की यह स्थिति बहुत दिनों तक बनी रही | शायद यह मन का विराग भाव था ! 
    लेकिन आपरेशन के बाद सर गंगाराम अस्पताल के डाक्टरों की दवा और मित्रों-शुभेच्छुओं की दुआ से जैसे-जैसे स्वस्थ हो रहा हूँ,विरागी मन वैसे-वैसे तिरोहित हो रहा है | मनपसंद चीजें खाने की इच्छा होने लगी है,प्रिय मित्रों-सम्बन्धियों को याद करने लगा हूँ,देर से आने पर अखबार वाले को डांटने लगा हूँ,पत्नी से लड़ाई भी होने लगी है, बेटों के देर तक सोने पर गुस्सा होने लगा हूँ,विश्यविद्यालय का अपना काम याद आने लगा है,जंतर-मंतर पर भूमि अधिग्रहण बिल के खिलाफ अन्ना के धरने में शामिल होने की इच्छा जोर मारने लगी है...| यह शायद मेरे भीतर रागी मन की वापसी है | दो महीने की यातना और मौत से संघर्ष के परिणामस्वरूप उपजा विराग भाव यादों से गायब हो रहा है | लगने लगा है कि यह रागी जीवन ही सच है,बाकी सब तो एक सपना था !    

                                                       

Saturday, 24 January 2015

कुआँ प्यासे के पास आया:- पृथ्वीराज कपूर

कुआँ प्यासे के पास आया
पृथ्वीराज कपूर
दरियागंज की एक छोटी –सी गली में, एक छोटे –से मकान की,एक छोटी सी बैठक के छोटे –से दरवाजे में घुसते ही, एक छोटी सी चारपाई पर एक विशाल मूर्ति को बैठे देख, मैं मंत्रमुग्ध कुछ झुका-झुका सा,बस, खड़ा – खड़ा सा ही रह गया. मूर्ति की पीठ मेरी ओर थी. शरद जो मुझे वहां लिवा ले गए थे लपक कर आगे बढ़े, मूर्ति के सामने की ओर जा प्रणाम कर बोले “पृथ्वीराज आए हैं” . मूर्ति ने एक उचटती हुई निगाह अपने विशाल  कंधो पर से मुझ पर डाली जैसे कौंदा पहाड़ पर से लपके और फिर गायब हो जाए – शरद की ओर देखते हुए, एक गंभीर आवाज ने कहा – “मैंने इन्हें पहले कहीं देखा है !” शारद मेरी ओर देखने लगे. उसकी ऑंखें कह रही थी कि आप तो कहते थे कि यह पहली ही मुलाकात होगी, क्या रहस्य है?मैं स्वं विचार मग्न हो गया कि वह वृषभ स्कंध तेजी से घुमे और दो बड़ी- बड़ी आँखे मेरे चेहरे पर रुक गई जैसे रात के अंधियारे में किसी पहाड़ी रस्ते पर चलते- चलते एक मोड़ पर अचानक  कोई मोटर गाड़ी नमूदार (प्रगट) हो और अपनी बड़ी बत्तियां आपके मुंह पर गाड़ दे – हाँ बस फर्क था तो इतना कि उस रौशनी की उष्णता जला दे,और चमक आँखों को चुंधिया दे, किन्तु इन आँखों के तेज में चन्द्रमा की शीतलता थी जिससे मेरी आँखे चुन्धियाई नहीं, वरन कमल की भांति खिल उठीं – मै मन्त्र मुग्ध बड़ी-बड़ी आँखों को निहारता रहा और उनके पास से ही आ रही गंभीर और मीठी आवाज का रसपान करता रहा, जो कह रही थी: ‘जी हाँ ! मै आपसे पहले ही मिल चुका हूँ, मुझे खूब याद है, अच्छी तरह याद है- सन १९३४- लखनऊ.’ सन १९३४ लखनऊ ? मैं तो पहली बार जब लखनऊ गया तो वह था अपने थियेटर के साथ सन ४८ में, यह ३४ कह रह हैं, इन्हें भ्रम हुआ है. मैं इधर यह सोच ही रहा था कि उधर वह आवाज बराबर कहे जा रही थी- हाँ हाँ!सन ३४, सन ३४, लखनऊ , मुझे कल की तरह याद है- सन ३४ –लखनऊ – सीता-राम, राम-राम कहते – कहते,वह भव्य मूर्ति लपकी, हवं कुंद की ज्वाला की भांति, यूँ लपलपाती हुई जैसे कसी पंजाबी कवि ने कहा है : -सुल्फे दी लात बरंगी.
और उस ज्योति ने मेरे अंधियारों को अपने आलिंगन में ले लिया और यूँ जान  पड़ा कि ऋषि वाल्मीकि राम- राम का मन्त्र उच्चारण कर रहे हों!
शरद और साथ गए हुए सब सज्जन चकित हो इस दृश्य को देख रहे थे. मैंने कहा- कवि सत्य कहते हैं, सन ३४ में श्री देवकी कुमार बोस कृत “सीता” फिल्म में मैंने राम की भूमिका की थी- कवि ने उसे लखनऊ में देखा था.
यही थी मेरे अंधियारों की उस ज्योति  से पहली भेंट, पहली मुलाकात, जिसमे से मुलाकातों का ताँता चल निकला. फिर तो जब-जब मैं इलाहाबाद थियेटर के साथ गया, साथियों को साथ ले, यह प्यासा अपनी प्यास प्यास बुझाने कुएं के पास जाता ही जाता. पर एक बार यूँ भी हुआ कि स्वंय कुआ प्यासे के पास आया. यह सन ५५ की बात है. मैं थियेटर के साथ गया और हम कृष्णा सिनेमा के हाल में थियेटर कर रहे थे – दीवार, पठान, आहुति, गद्दार, कलाकार और पैसा.
प्रयाग के कविजन, जब-जब मै प्रयाग गया, बड़े प्यार से अपने चरणों में जगह देते,-पंत जी, महादेवी जी, डॉ. रामकुमार वर्मा, फ़िराक गोरखपुरी और बच्चन जी ने बार-बार मेरी झोली रत्नों से भर-भर दी. थियेटर की छत पर बैठे हैं, खेल हो चुका है, भोजन आदि से निवृत हो, सब कलाकार साथी जुटे हुए हैं- नींद जो खेल ख़त्म होते ही झपट अपनी लपेट में ले लेती थी, आज कोसों दूर है – रोशनियाँ गुल हैं, तारों की छहों में, मंद मंद स्वरों में, बच्चन कविता पर कविता सुनाए जा रहे हैं, कि वहीँ भोर हो गई- और खेल से पहले फ़िराक जी के साथ वह वह महफिलें जमी हैं कि सुरूर अभी तक कायम है. और त्रिवेणी –स्नान और निराला- दर्शन, यह तो एक लड़ी में गुथे हुए पुण्य कर्म मेरा सौभाग्य ही बन गए थे.
उधर इन्फोर्मेशन विभाग के सज्जनों को ज्यों ही पता मिलता है कि निराला के दर्शनों को जा रहा हूँ, अपना तामझाम लेकर उपस्थित हो जाते, शरद जी तो साथ ही होते, डाक्टर रामकुमार जी वर्मा, और फ़िराक साहब का भी वहां साथ रहा- यह महानुभाव अपनी- अपनी रचनाओं का पाठ करते और फिर निराला जी, बांध तोड़ती हुई नदी की भांति बह निकलते और इन्फोर्मेशन विभाग के साथी उस उमड़ते ज्वार को टेप रिकार्डों में भर-भर लेते. यह लोग कहा करते :, ‘तुम्हारे आने यह अवसर जुटता है, नहीं तो कवि माने नहीं मानते और यूँ कविता पाठ नहीं करते.’ मै सोचता, कोई पुराने जन्म का ही सम्बन्ध होगा – नहीं तो कहाँ रजा भोज, कहाँ गंगुवा तेली – इस जन्म का तो कवि- समाज से मेरा यही एक नाता है कि: -
बंदऊँ  कवि- पद पद्म  –परागा !
और उस पराग को मस्तक पर लेने के लिए, वह पराग मैलो न हो जाए, मुझे अपने  मस्तक को सौ –सौ बार पोंछ –पोंछ कर स्वच्छ करना होगा !हाँ, उसी बार कि बात है कि कुआँ प्यासे के पास आया या यूँ कहो कि छलछलाती भागीरथी, मेरे तन की गलियों का मल दूर करने को मचल उठी और घाट- बाट उलान्घती इधर को उमड़ पड़ी.
कवि के यहाँ ही बैठे थे, किसी साहब ने कहा : “कवि ने आपका कोई नाटक भी देखा है पृथ्वी जी ?’’ मैंने कहा “नहीं”. वह कहने लगे: “यह क्या बात है, इन्हें कहना चाहिए’’ दूसरे एक साहब बोले: “आजकल कवि का मन स्थिर नहीं, कहीं नहीं जाते, पीछे कहीं गए थे, आधे में उठ आये, जलसा भंग हुआ, नहीं, इन्हें ले चलने में आपत्ति होगी, नाटक छिन्न- भिन्न न हो जाए!’’ कवि का ध्यान इन बातों की ओर आकर्षित हुआ, पूछने लगे: ‘’क्या  बात है ?” जब बताया तो कहने लगे “मै जरूर चलूँगा. मैं अवश्य नाटक देखूंगा, आज नहीं, शायद कल आऊँ, आऊंगा सही, जरूर आऊंगा .”
बात हो गई, हम चले आये. दूसरे ही दिन, नाटक के समय से, कुछ देर पहले, एक गोष्ठी से मै जो वापस लौट थियेटर पंहुचा तो क्या देखता हूँ, अपने साब साथियों की भीड़ लगी है, बीच में चारपाई पर चादर बिछी है और निराला जी बड़ी शांत मुद्रा में विराजमान हैं. मुझे देखते ही बोले: “ लो, मैं आ गया, बहुत देर से आया बैठा हूँ, आपके साथी बड़े अच्छें हैं, इन्होंने मेरी बड़ी ख़ातिर की. अब खेल कब शुरू होगा- हम थिएटर में बैठते हैं, तुम मेकअप करो”. उस दिन हम ‘’आहुति’ खेल रहे थे, खेल शुरू होने से पाँच मिनट पहले निराला जी और उनके साथी साब थिएटर हाल में पहुँचा दिए गए. कुछ भाइयों ने संदेह प्रगट किया कि अब भी टाल जाओ. नहीं तो शो बिगड़ेगा. मैंने कहा: “बने, भले बिगड़े, मेरे लिए तो उनका आना ही आशीर्वादस्वरुप है, घर आई गंगा को लौटा दूँ? वह कैसे हो सकता है- अरे देखते नहीं हो, कुआँ प्यासे के पास आया है, मैं कितना भाग्यशाली हूँ, यह तो निहारो, यह तो समझो.”
‘मानो, न मानो, जानेजहाँ, अख्तियार है.
हम नेकोबाद हुज़ूर को समझाए जाते हैं.’
      यह कहके वह लोग अलग हो गए और मैं मेकअप में जुट गया.
      पहला अंक, दूसरा अंक, तीसरा अंक पूरा खेल हो गया, कवि टस से मस न हुए. दो-दो विश्राम भी हो गये. कवि उठे नहीं, हिले नहीं, जल तक नहीं पिया. पूछने पर कहला भेजा ‘मैं मज़े में हूँ, मेरी चिंता न करो,- नाटक समाप्ति पर रोज़ कि तरह मैंने दो शब्द कहे, उपस्थित दर्शकजनों से आशीर्वाद माँगा, अपने लिए, अपने कलाकार साथियों के लिए, कि देखा कवि अपनी स्थान पर से उठ रहे हैं; समझा , बाहर जा रहे हैं- कि कवि खड़े हो गये और अपनी गरजती हुई आवाज़ में बोले “मुझे कुछ कहना है”. मैं स्टेज पर हाथ जोड़े खड़ा रहा, पर्दा जो बंद होने जा रहा था, रोक दिया गया कि कवि घुमे और दर्शक गणों को संबोधित कर बोले- “यह पुण्यभूमि, यह तपोभूमि, प्रयाग: इलाहाबाद- किसके लिये मशहूर है.” वह अंग्रेजी में बोल रहे थे. उन दिनों यही देखा कि जब-जब कवि उत्तेजित हुए- अंग्रेजी में बोलते, क्यों? यह नहीं समझ पाया. हो सकता है, किसी समय उन्हें एहसास दिलाया गया हो कि इस देश में जो अंग्रेजी की महत्ता है, वह दूसरी किसी भाषा की नहीं, और यह बात उनके मस्तिष्क में बैठ गयी हो कि यहाँ का माना गया, पढ़ा-लिखा वर्ग अंग्रेजी को हिंदी से अधिक समझता है, या कोई और वजह हो, कह नहीं सकता. हाँ! तो वह अंग्रेजी में बोल रहे थे. वह कह रहे थे: प्रयाग, इलाहाबाद यह ऋषि भूमि है, यह तपोभूमि, यह पुण्यभूमि पूज्य है, मान्य है त्रिवेणी के कारण. त्रिवेणी: गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम; गंगा, यमुना सरस्वती; गंगा. हाँ गंगा है. यमुना! हाँ यमुना भी है, हम देख पा सकते हैं, गंगा भी, यमुना भी, पर सरस्वती? किस ने देखा है सरस्वती को? कहाँ है सरस्वती? कहाँ है?” कवि जोर से कह  रहे थे : कहाँ है, कहाँ है?- सन्नाटा? कुछ देर स्तब्ध रहे- रहे , साथ ही यूँ जान पड़ा कि हाल में बैठे सब लोगों ने अपनी सासें रोक रखी हों- और फिर जो कवि घुमे- तो वही कम सम बड़े-बड़े नेत्र मोटर गाडी की हेड लाइट्स की भान्ति मुझ पर गड़े थे- और बाईं को पूरा फैला मेरी ओर संकेत कर कवि कह रहे थे ‘‘वह है; वह है; वह है’’ साथ साथ आवाज़ उठती जा रही थी- वह है! वह है!! वह है!!!
      मैं काँप उठा- दोनों हाथ आपसे आप जुड़गये, नतमस्तक हो मैंने प्रणाम किया- हाल तालियों से गूँज उठा- और वह आवाज़- वह सिंह-गर्जन-आज भी मेरे कानों में गूँज रहा है- वह है, वह है!काव्य और साहित्य की गंगा-यमुना के बीच नाट्यकला की सरस्वती का संगम हो, तब त्रिवेणी बनती है- वह उस दिन जाना!
      कुआँ  प्यासे के पास आया- प्यास बुझा गया कि अधिक भड़का गया, यह राम जाने. मैं तो इतना ही जानता हूँ कि जब-जब सरस्वती के प्रवाह में बहा जा रहा होता हूँ, तो कवि की गर्जना सुनाई पड़ती है- वह है- वह है- वह है- वह है- वह है- वह-!!!

(जानकीवल्लभ शास्त्री की पुस्तक—‘नाट्यसम्राट श्री पृथ्वीराज कपूर’ से)
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Thursday, 22 January 2015

आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की कविताएँ


माघ शुक्ल द्वितीया (२२-१-२०१५, जन्मदिन पर)
कौन मेरे प्राण को पागल किए है!
कौन मेरे प्राण को पागल किए है!

डालियों से फूल झर-झर झर रहे हैं,
तर रहे हैं, बिखर-बिखर निखर रहे हैं,
कौन अंचल दिग्वधू का भर दिए है!
कौन मेरे प्राण को पागल किए है!!

मंजरित वन, पिन्जरित तन, गुंजरित मन,
और सौरभ-भरित वातावरण उन्मन,
कूकती कोयल कि जैसे मधु पिए है!
कौन मेरे प्राण को पागल किए है!!

चकित हो चंचल चराचर देखता हूँ,
फिर स्वयं में लौट कर कुछ लेखता हूँ,
सर्ग को कि निसर्ग मुट्ठी में लिए है!!
कौन मेरे प्राण को पागल किए है!

विधि- निषेध स्वयं-रचित है जाल ही क्या?
सत्य यमुना-पुलिन-तरुण तमाल ही क्या?
नीति आहत, नियति शत जीवन जिए है!
कौन मेरे प्राण को पागल किए है!!







बाँसुरी
किसने बाँसुरी बजाई?

जनम-जनम की पहचानी-
वह तान कहाँ से आई?
अंग-अंग फूले कदम्ब-सम
साँस-झकोरे झूले,
सूखी आँखों में यमुना की-
लोल लहर लहराई!

किसने बाँसुरी बजाई?
जटिल कर्म-पथ पर थर-थर-थर
काँप लगे रुकने पग,
कूक सुना सोये-सोये-से
हिय में हूक जगाई!

किसने बाँसुरी बजाई?
मसक-मसक रहता मर्म-स्थल,
मर्मर करते प्राण,
कैसे इतनी कठिन रागिनी
कोमल सुर में गाई!

किसने बाँसुरी बजाई?
उतर गगन से एक बार-
फिर पीकर विष का प्याला,
निर्मोही मोहन से रूठी
मीराँ मृदु मुस्काई!
किसने बाँसुरी बजाई?
 






3
भारतीवसन्‍तगीति:

निनादय नवीनामये वाणि ! वीणाम्।
मृदुं गाय गीतिं ललित-नीति-लीनाम्।।
मधुरमंजरीपिंजरीभूतमाला:, वसन्‍ते लसन्‍तीह सरसा रसाला:;

कलापा: सकलकोकिलाकाकलीनाम्।
निनादय नवीनामये वाणि ! वीणाम्।।

वहति मन्‍दमन्‍दं सनीरे समीरे, कलिन्‍दात्‍मजायास्‍सवानीरतीरे;

नतां पंक्तिमालोक्‍य मधुमाधवीनाम्।
निनादय नवीनामये वाणि ! वीणाम्।।

चलितपल्‍लवे पादपे पुष्‍पपुंजे, मलयमारुतोच्‍चुम्बिते मंजुकुंजे;

स्‍वनन्‍तीन्‍ततिम्‍प्रेक्ष्‍य मलिनामलीनाम्।
निनादय नवीनामये वाणि ! वीणाम्।।

लतानां नितान्‍तं सुमं शान्तिशीलम्, चलेदुच्‍छलेत्‍कान्‍तसलिलं सलीलम्-

तवाकर्ण्‍य वाणीमदीनां नदीनाम्।
निनादय नवीनामये वाणि ! वीणाम्।।




पृथवीराज कपूर के दो पत्र शास्त्रीजी के नाम
कवि,
तुम तुम ही हो! पद्य क्या और गद्य क्या, - तुम्हें दोनों पर उबूर हासिल है। रात सोने से पहले ‘स्मृति के वातायन’ में रोज़ झाँकता ही हूँ, सोते में भी उन्हीं खिडकियों में झाँकता फिरता हूँ।

अब कहीं जाकर यह रहस्‍य खुला है कि तुम्‍हारी रचनाओं में इतना रस, यह दर्द, यह सोज, यह कैफ, यह सुरूर, यह बुलंदियाँ, यह गहराइयाँ कहाँ से आती हैं। मनुष्‍य तो एक तरफ, तुमने तो पशु-पक्षियों की पी‍ड़ाओं का भी गरल पी रखा है, तभी तो तुम्‍हारी लेखनी से अमृत चूता है।


     
पृथ्‍वीराज कपूर
2.
पृथ्‍वी झोंपड़ा
जानकी कुटीर
जुहू- बंबई 54
07.03.1971
कवि,
      सस्‍नेह, सादर वन्‍दे !
      आशा है, आपकी यात्रा सुख-पूर्वक बीती होगी, और इस वक्‍त तक आप निराला निकेतन में पहुँच कर बहू जी और उन सब आश्रम-वासियों के लिए सुख का बाइस बन रहे होंगे।
      इधर यह आलम है कि फारसी का वह शेर बार-बार दिलो-दिमाग में घूम-घूम जाता है:
      हैफ दर चश्‍मे जदन सोहबते यार आखिर शुद
      रूए गुल सेर न दीदम के बहार आखिर शुद !’
      आखिर आँख झपकने में मित्र की मुलाकात समाप्‍त हो गई। अभी जी भर के फूल को देख भी न पाए थे कि बहार खत्‍म हो गई।
      रात के साढ़े बारह बज रहे हैं, मैं यह पत्र लिख रहा हूँ। आज शूटिंग न थी। कल भी छुट्टी रही, कि यहाँ वोटिंग का दिन था। मैं सबेरे ही माटुंगा चला गया। रमा जी, कृपाराम जी और उनकी पत्‍नी प्रभाजी को साथ लेकर वोट डालने गए। वहाँ से लौट कर माटुंगा में ही दोपहर का भोजन किया। वहीं सो गया। शाम को चाय पी। और साढ़े सात बजे वहाँ से चल कर झोंपड़े में लौट आया।
      कल सुबह आर.के. स्‍टूडियो में नागपंचमी की शूटिंग में काम करने जाऊँगा। मंगल और बुध को भी। बृहस्‍पतिवार को एक पंजाबी तस्‍वीर की शूटिंग है। बारह को होली की छुट्टी होगी। तेरह को डब्‍बू की कल आज और कल की शूटिंग में शामिल रहूँगा। चौदह की छुट्टी, फिर पन्‍द्रह से 22 तक डब्‍बू की शूटिंग और 23 को बंगलौर चला जाऊँगा। 31 को वहाँ से लौटूँगा।
      4 और 5 को रमेश सेहगल की नई तस्‍वीर की शूटिंग थी। ईश्‍वर-कृपा से तबीयत अभी तक ठीक है अब वह खुद ही तो देखरेख की बागडोर संभाले हुए हैं। बाकी आपके पत्र आने पर। प्‍यार और प्‍यार-भरी दुआओं के साथ आप दोनों के लिए –
                              पृथ्वी