Wednesday, 17 January 2018

आलोचना: साहित्य के जनतंत्र में प्रतिपक्ष



साहित्य के जनतंत्र में आलोचना प्रतिपक्ष की रचनात्मक भूमिका निभाने वाली विधा है
             (वरिष्ठ आलोचक गोपेश्वर सिंह से अनुराधा गुप्ता की बातचीत )


गोपेश्वर सिंह हमारे समय के महत्त्वपूर्ण आलोचक व चिन्तक हैं. आधुनिक साहित्य के साथ भक्ति साहित्य  को अलग नजरिए से देखने और उसके महत्त्वपूर्ण आयाम उद्घाटित करने में उनका विशेष योगदान है.उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं - नलिन विलोचन शर्मा, साहित्य से संवाद, आलोचना का नया पाठ तथा भक्ति आंदोलन और काव्य. उनके द्वारा संपादित महत्त्वपूर्ण पुस्तकें हैं: भक्ति आंदोलन के सामाजिक आधार, शमशेर बहादुर सिंह: संकलित कविताएँ, ‘कल्पनाकाउर्वशीविवाद, नलिन विलोचन शर्मा: रचना संचयन आदि.
उत्कृष्ट आलोचना कर्म के लिए उन्हें ‘केदारनाथ अग्रवाल स्मॄति संस्थान’ का प्रतिष्ठित  रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान’ दिया जा रहा है. गोपेश्वर सिंह से उनके लम्बे लेखकीय और जीवनगत अनुभवों के साथ समकालीन आलोचना से जुड़े कई महत्त्वपूर्ण  मुद्दों पर बात करने का अवसर मिलाप्रस्तुत हैं  बातचीत के  कुछ अंश ..
प्रश्न- गोपेश्वर जी, सबसे पहले रामविलास शर्मा पुरस्कार मिलने की आपको बहुत-बहुत बधाई. आप कैसा महसूस कर रहे हैं?
उत्तर- मैं आभारी हूँ रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान देने वाले संस्थान का और निर्णायकों का उन्होंने मुझे इस योग्य माना. रामविलास शर्मा का जीवन और कर्म मेरे लिए हमेशा प्रेरक रहा है. उनका विशाल ज्ञान, लेखन के प्रति समर्पण, जनपक्षधर रुझान, दुनिया के छल-छंद से निर्लिप्त, लाभ-लोभ की राजनीति से दूर रहने वाली प्रवृत्ति के लिए मेरे मन में गहरा सम्मान है. इस लिए इस सम्मान को दिए जाने की सूचना जब विभूति नारायण राय ने दी तो मुझे बेहद खुशी हुई. खुशी एक तो अपने आलोचना कर्म के पहचाने जाने की तथा दूसरी, जिन रामविलास शर्मा को हिंदी आलोचना का मैं शिखर मानता हूँ, उनके नाम पर मिले इस सम्मान की.
प्रश्न- आलोचना आपकी प्रिय विधा रही है, ऐसा क्यों?
उत्तर- लिखने के लिहाज से आलोचना मेरी प्रिय विधा है. वैसे मेरी सर्वाधिक प्रिय विधा तो कविता है, लेकिन एक पाठक के तौर पर. मुझे जो बहुत सारे अफ़सोस हैं उनमें से एक  कवि न होने का भी है . बचपन में कुछ कविताएँ लिखी थीं लेकिन अंतत: कविता मुझसे सध न सकी और कविता से मेरा प्रेम सिर्फ़ पढ़ने तक सीमित हो गया. अच्छी कविता पढ़ने पर मुझे समाधि में जाने का सुख मिलता है. लेकिन मैं लिखता तो हूँ आलोचना. आलोचना में मैं क्यों आया मैं कह नहीं सकता, उसकी कोई तैयारी नहीं थी. परिचित सम्पादक मित्रों ने आलोचना लिखने के काम में लगा दिया और मैं तब से लगा हुआ हूँ. आलोचना अब मैं इसलिए लिखता हूँ कि साहित्य के जनतंत्र में वह प्रतिपक्ष की रचनात्मक भूमिका में है. आलोचना के बिना ग़लत के विरुद्ध सही समय पर सही आवाज़ नहीं उठ सकती. साहित्य के जनतंत्र में आलोचना प्रतिपक्ष की रचनात्मक भूमिका निभाने वाली विधा है.
प्रश्न- आज के समय में आलोचना की वास्तविक भूमिका क्या है और ये क्यों जरूरी है?
उत्तर- आलोचना का जो आधुनिक रूप है उसका गहरा संबंध लोकतंत्र, लोकतांत्रिक आकांक्षा और लोकतांत्रिक मिजाज़ से है. मैं अगर कह रहा हूँ कि आलोचना साहित्य के जनतंत्र का प्रतिपक्ष है तो उसके पीछे यह भाव निहित है कि उसका जन्म लोकतंत्र के उदय से जुड़ा हुआ है. पहले जब राजतंत्र था तब जिसे साहित्य शास्त्र कहते हैं उसका ज़माना था. चूंकि हम राजतंत्र में राजा की अलोचना नहीं कर सकते, क्योंकि आलोचना का अधिकार जनता को नहीं था इसलिए उस ज़माने की आलोचना यानी साहित्य शास्त्र, रस-छन्द, अलंकार , वक्रोक्ति आदि के माध्यम से तैयार हुआ. वहाँ साहित्य के कंटेट पर जोर कम और रूप विधान पर अधिक है लेकिन जब लोकतांत्रिक समाज व्यवस्था का जन्म हुआ तब सत्ता पक्ष के साथ प्रतिपक्ष का भी जन्म हुआ. संसद में जो भूमिका प्रतिपक्ष की है साहित्य में वही भूमिका आलोचना की है. प्रतिपक्ष के बिना आधुनिक साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती . आलोचना समाज और साहित्य को जन आकांक्षाओं के अनुरूप बनाए रखने का सबसे बड़ा हथियार है.
प्रश्न- आप हिन्दी के किन आलोचकों को महत्त्वपूर्ण मानते हैं और क्यों?
उत्तर- मेरे  प्रिय आलोचक हैं जो हमेशा मेरी आँखों में रहते हैं, वे हैं रामचंद्र शुक्ल, रामविलास शर्मा, नलिन विलोचन शर्मा, विजयदेव नारायण साही और नामवर सिंह .और भी बहुत से आलोचक हैं जिनसे मैंने बहुत कुछ सीखा है लेकिन बहुधा जिन्हें मैं उद्धॄत करता हूँ और जो मेरे दॄष्टि पथ में प्राय: रहते हैं वे यही हैं. सीखने के लिए तो हमने अंग्रेजी के और दूसरी भाषा के आलोचकों से भी बहुत कुछ सीखा है लेकिन हिंदी का होने के नाते मेरे दॄष्टि पथ में यही आलोचक रहते हैं.
प्रश्न- जिन आलोचकों का आपने जिक्र किया उनकी कौन सी बात आपको अच्छी लगती है?
उत्तर- रामचंद्र शुक्ल मुझे इसलिए अच्छे लगते हैं कि उनकी आलोचना में सिद्धांत और व्यवहार का मणि कांचन योग है. उनके यहाँ दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे रचना के मर्म को पहचानने वाले आलोचक हैं. शुक्ल जी ने कहा कि महाकवि वह  होता है जिसे जीवन के मार्मिक स्थलों की पहचान हो. इसी वजन पर मैं कहना चाहूँगा कि आलोचक भी बड़ा वह  होता है जो रचना के मर्म को पहचानता है. शुक्ल जी ने यदि कह दिया कि केशव को कवि हॄदय नहीं मिला था तो साहित्य के आचार्य अज्ञेय और विश्वविद्यालय के आचार्य विजयपाल सिंह के कलम तोड़ लिखाई के बावजूद उन्हें कवि हॄदय नहीं मिला. शुक्ल जी की ही तरह रचना के मर्म को उद्घाटित करने में नामवर सिंह की आलोचक प्रतिभा कमाल करती रही है. रामविलास शर्मा इसलिए प्रिय हैं कि आज हिन्दी पाठक का जो कामनसेंस है उसका अधिकांश  उन्हीं का बनाया हुआ  है. भारतेन्दु, प्रेमचंद, रामचन्द्र शुक्ल, निराला, हिन्दी नवजागरण, हिन्दी जाति, लोकजागरण का जो बोध हिन्दी पाठक के पास है वह रामविलास शर्मा का निर्मित किया हुआ है, यह कोई सामान्य बात नहीं. यह काम कोई असाधारण मेधा वाला आलोचक ही कर सकता है. इनके अलावा नलिन विलोचन शर्मा बहुत प्रिय रहे हैं. वे मानते थे कि आलोचना वही अच्छी है जो किसी कॄति का निर्माण करे. रचना के रूप पक्ष की घनघोर सराहना करने वाले नलिन जी ने विज्ञान सम्मत साहित्य  दॄष्टि पर जोर दिया और किसी भी तरह की चमत्कार प्रियता, वह चाहे धर्म की हो या साहित्य की, का विरोध किया. विजय देव नारायण साही ने समाज सापेक्ष जिस आलोचना की प्रस्तावना लिखी वह समाज सापेक्षता बहुत हद तक भारतीय ज़मीन से जुड़ी हुई है. इन्हीं सब कारणों से ये आलोचक मुझे प्रिय लगते हैं. लेकिन इनमें से किसी एक को चुनने की मज़बूरी हो तो मैं रामचंद्र शुक्ल को ही चुनूँगा.
प्रश्न- आपकी आलोचना और  भाषा में कोई उलझाव नहीं. वह बेहद सम्प्रेषणीय और साफ़ है. यह गुण आपने किस आलोचक से अर्जित किया?
उत्तर- हाँ, यह कहना आपका सही है कि मेरी भाषा और मेरे कथन में सफ़ाई है. सफ़ाई का सीधा संबंध आपकी साफ़ समझ और साफ़ दॄष्टि और साफ़ मन से है. मैं वही लिखता हूँ जिसके बारे में मेरी समझ साफ़ है और जो मेरी समझ का हिस्सा है. मैं मानता हूँ कि हमारे कहने में उलझाव तब पैदा होता है जब हमारी दॄष्टि और हमारी समझ में उलझाव हो. उलझी समझ और उलझी दॄष्टि के साथ मैं नहीं लिखता. मैं उन्हीं विषयों और व्यक्तियों के बारे में लिखता हूँ जिनके बारे में दॄष्टि और समझ साफ़ हो. साफ़गोई मेरे जीवन व्यवहार में भी है और आलोचना व्यवहार में भी. जहाँ तक भाषा की सफ़ाई की बात है तो वह गुण मैंने हिन्दी के दो कवियों से लेने की कोशिश की. लोगों को आश्चर्य तो होगा लेकिन मेरे लिए यह सत्य है कि साफ़-सुथरा गद्य लिखने की कला मैंने बच्चन और दिनकर से सीखी. इन दोनों का गद्य हिन्दी प्रकॄति का है, कर्ता कर्म और क्रिया वाला गद्य. उस पर अंग्रेजी वाक्य रचना का प्रभाव बिल्कुल नहीं. यह गुण रामविलास शर्मा के गद्य में भी है. तो कहने की सफ़ाई मैंने इन्हीं लोगों से सीखी. यों सीखने के लिए तो हम बहुतों से बहुत कुछ सीखते रहते हैं. साही की बहसधर्मी भाषा और नामवर सिंह की काव्यात्मक  भाषा मुझे अच्छी लगती रही है. इसी के साथ ही मैं यह भी कह दूँ कि जब मैं आलोचना लिखता हूँ तो अपने आप को मंच पर खड़े वक्ता के रूप में देखता हूँ और मुझे लगता है कि मेरे पाठक जो हैं वो मेरे श्रोता की तरह हैं जो मेरे कथन के उलझाव को समझने की जगह साफ़-साफ़ कहते-लिखते देखना चाहते हैं इसलिए मेरी कोशिश होती है कि जो मैं कहूँ वह पढ़ने वाले की समझ से सीधे टकराए. मेरा कहा हुआ या तो मेरे पाठक को बदल देगा या वह उसे अस्वीकार करके मुँह पर दे मारेगा. मैं अपने लिखे शब्दों की ताकत इसी रूप में आजमाना चाहता हूँ.
प्रश्न- आलोचना के लिए जिस समाज दॄष्टि की जरूरत की बात की जाती है, वह आपने किस तरह अर्जित की?
उत्तर-दॄष्टि और समझ के निर्माण में बहुत सारे दार्शनिकों, विचारकों, समाज-सुधारकों नेताओं लेखकों आदि का योगदान होता है. किसका कौन सा योगदान हमारे चेतन-अवचेतन में किस रूप में बैठा हुआ है कहना मुश्किल है. मेरी चेतना के निर्माण में सचेत रूप से जिनका योगदान मैं महसूस करता हूँ वे हैं बुद्ध, विवेकानंद, गाँधी और राममनोहर लोहिया. जे०पी० आंदोलन में मैं रहा हूँ अपने छात्र जीवन के दो वर्ष मैंने धरना प्रदर्शन, लाठी खाने, जेल जाने, नारे लगाने आदि में बिताए हैं तो जयप्रकाश जी के क्रांतिकारी व्यक्तित्व का भी असर है. बाद में मैने मार्क्सवाद का अध्ययन  किया. जयप्रकाश जी की प्रेरणा से मार्क्सवाद का भी असर मेरे सोच-विचार पर है. अम्बेडकर के लेखन से भी बहुत कुछ सीखा है. समाजवादी नेताओं में मैं स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर के करीब रहा हूँ. इन सबका मिला-जुला असर मेरी चेतना पर होगा. लेकिन बुद्ध, विवेकानन्द और गाँधी मेरी चेतना के तीन नेत्र हैं. जिनका विस्तार अन्य लोगों के जरिए भी हुआ.
प्रश्न- प्राय: यह शिकायत सुनने को मिलती है कि आलोचना वह दायित्व नहीं निभा रही है जो पहले की आलोचना निभाती रही है. दूसरे शब्दों में यह आरोप लगता है कि नामवर सिंह के बाद आज हिन्दी में कोई बड़ा आलोचक नहीं है.
उत्तर- नामवर सिंह निश्चित रूप से पिछले दौर के महत्त्वपूर्ण आलोचक रहे हैं लेकिन यह सही नहीं है कि आज सार्थक आलोचना नहीं लिखी जा रही. नामवर सिंह के बाद लिखी गई आलोचना पर आप नज़र डालें तो पाएंगे कि आलोचनात्मक विवेक का विस्तार हुआ है और उसके कई नए आयाम उद्घाटित हुए हैं. पिछले दौर की, रामविलास शर्मा, साही, नामवर सिंह आदि की आलोचना अच्छी रही है. लेकिन इधर लिखी जा रही आलोचना पर यदि ध्यान दे तो आप को आश्चर्यजनक रूप से हमारे इन महान आलोचकों की आलोचना दॄष्टि की सीमाएं नज़र आएंगी. अब यथार्थवाद, लघुमानव या व्यंग्य विडंबना और तनाव तक ही हिंदी आलोचना सीमित नहीं है. उसमें स्त्री दॄष्टि, दलित दॄष्टि और हाशिए के समाज को मुख्यधारा में लाने की संघर्ष करती हुई दॄष्टि भी शामिल है. उपन्यास और लोकतंत्र को लेकर मैनेजर पांडेय की चिंता, हिन्दी नवजागरण की बहस को आगे ले जाने वाली शम्भूनाथ और वीरभारत तलवार की चिंता, कथा साहित्य को स्त्री नज़रिए से देखने वाली रोहिणी अग्रवाल की चिंता और दलित नज़रिए से हिन्दी साहित्य को देखने वाले धर्मवीर, कंवल भारती या बजरंग बिहारी तिवारी की दॄष्टि को देखते हुए कैसे कहा जा सकता है कि हिन्दी आलोचना कहीं से भी पिछड़ी हुई है. आज भक्ति काल, रीति काल आदि के बारे में हमारी वही धारणा नहीं जो ३०-४० साल पहले थी.
प्रश्न- हिन्दी आलोचना में भी क्या आप उतनी ही निर्भीकता और ईमानदारी देखते हैं? क्या वर्तमान हिन्दी आलोचना अभिव्यक्ति के खतरे उठाती दिखती है?
उत्तर- आपकी चिंता वाज़िब है. रचनाकारों और आलोचकों के चरित्र, ईमानदारी आदि को लेकर आज तरह-तरह की बातें की जाती हैं. अवसरवादी प्रवॄत्ति भी आज, पहले की तुलना में, लेखकों में ज़्यादा है. किसी बड़े आदर्श, किसी बड़े नेता या कहें किसी महास्वप्न के अभाव का यह दौर है.बाजारवादी प्रवृत्तियां और लाभ-लोभ की प्रवृत्ति अपने विकॄत और विकराल रूप में हमारे चारों ओर फैली हुई  है. स्वाभाविक रूप से इसका असर  जीवन और समाज के सभी क्षेत्रों पर पड़ा है. मुक्तिबोध का यह शताब्दी वर्ष है और वे ऐसे कवि-आलोचक हैं जिनका असर लेफ्ट-राइट सभी पर है. उनकी एक बात ध्यान देने लायक है वे रचनाकार की ईमानदारी और आलोचक के चरित्र पर बहुत जोर देते हैं. उसके अभाव में रचना और आलोचना दोनों की चमक थोड़ी मद्धिम पड़ेगी. जो अपने को आलोचक मानते हैं और जिनकी प्रतिबद्धता इस विधा से है वे अवश्य ही अभिव्यक्ति के खतरे उठाते हैं. आप के प्रश्न में जो आपकी आशंका है वह निर्मूल नहीं है. हमारे समय ने जिस तरह रचना के सामने संकट उपस्थित किए हैं उसी तरह आलोचना के मार्ग में भी बाधाएं उपस्थित की हैं. लेखक संगठनों की गुटबाजी, लेखकों के अपने गुट, लाभ-लोभ और पुरस्कारों की राजनीति में आलोचना ने अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने की प्रवॄत्ति को कमजोर किया है. नई पीढ़ी के रचनाकारों की आकांक्षा भी निर्भीक और तटस्थ आलोचना के मार्ग की बाधा हैं. रचनाकार आलोचना का अर्थ सिर्फ़ अपनी प्रशंसा मानने लगे हैं वे आलोचकों से प्रतिकूल टिप्पणी सुनना नहीं चाहते. मेरा ख़्याल है कि इन सबका असर आलोचना पर कहीं न कहीं तो पड़ता ही है. दलित लेखक तो अपनी आलोचना हरगिज़ नहीं सुनना चाहते. स्वस्थ आलोचना के लिए स्वस्थ लोकतांत्रिक माहौल और स्वस्थ संवाद की जरूरत है. दुर्भाग्य से जिसका हिंदी में कुछ क्षरण हुआ है.
प्रश्न- आलोचना के क्षेत्र में सोशल मीडिया की क्या कोई भूमिका है? यदि है तो आप उसे कैसे देखते हैं? आपने अपने एक लेख में वर्तमान पुस्तक समीक्षा के चलतेट्रैंडको देखते हुए आलोचना के गिरते स्तर की बात की थी उसी परिप्रेक्ष्य में सोशल मीडिया का जिक्र भी आया था. क्या सोशल मीडिया में तुरत-फुरत आती प्रतिक्रियाएँ और आम आदमी की सहभागिता आलोचना का अच्छा संकेत है या फिर इसने आलोचना का बिगाड़ ही किया है?
उत्तरसोशल मीडिया नि:संदेह एक ऐसा माध्यम या मंच है जिसके जरिए बेजुबानों को ज़ुबान मिली है. वैसे लोग जिनकी अभिव्यक्ति की भूख मर जाया करती थी वे इस माध्यम के जरिए अपनी रचनात्मक क्षमता की अभिव्यक्ति कर रहे हैं. लेकिन यह बहुत तेज़ी से भागता तुरंता माध्यम है इसका न कोई सम्पादक है, न एक-दूसरे को जानने- समझने का कोई  उपाय हैं यहाँ . इसलिए सोशल साइट्स पर बेतहाशा रचनाएं आ रही हैं और जा रही हैं उससे कोई गम्भीर साहित्यिक कॄति सामने आ रही हो ऐसा मुझे नहीं लगता. वहाँ विचार की उपस्थिति और गंभीर रचनाकर्म की संभावना अभी कम है. मुझे फेसबुक के माध्यम से नीलिमा चौहान की किताबपतनशील पत्नियों के नोट्सपढ़ने का मौका मिला. मुझे खुशी हुई कि स्त्री-विमर्श की सैद्धान्तिकी के बोझ से परे बहुत ही खिलंदड़ी भाषा और अंदाज़ में स्त्री जीवन की विभिन्न समस्याओं को लेखिका ने उठाया है. लेकिन हिंदी सोशल साइट्स पर मिलने वाले ऐसे उदाहरण बहुत कम ही देखने को मिले हैं. इसी के साथ एक बात और जोड़ना बहुत जरूरी है कि यह अब बहुत तेज़ी से भागता हुआ ओवर क्राउडेड माध्यम है. यहाँ अच्छी से अच्छी सामग्री को ठहर कर इत्मीनान से पढ़ने का अवकाश नहीं है. फिर भी सोशल साइट्स की भूमिका लोकमत के निर्माण और साहित्य के प्रचार-प्रसार में तो है ही.लेकिन  उससे आलोचना की कोई गंभीर ज़मीन नहीं बनती. ....आप ने मेरे जिस लेखआभासी दुनिया के राग रंगपर उठे बवाल की चर्चा की तो सुन लीजिए कि उसके बाद सोशल साइट्स पर मुझे कितनी गालियाँ दी गई. मेरा चरित्र हनन किया गया और अपने  व्यक्तिगत स्वार्थ के मुद्दों को भी उससे जोड़ दिया गया. निश्चित रूप से इन प्रतिक्रियाओं को वहीं छपना चाहिए जहाँ मेरा लेख छपा है . लेकिन चूंकि वहाँ एक सम्पादक बैठा है और वह गाली गलौज नहीं छपने देगा. ऐसी स्थिति में सोशल साइट्स ने कुछ अलेखकों या कुलेखकों को यह  सुविधा तो दे ही रखी है कि वे जिस पर चाहें हमले करें या गालियाँ दें. फिर भी मैं सोशल साइट्स के महत्त्व से इंकार नहीं कर रहा. यह नए ज़माने की नई तकनीक है, जो समता और स्वतंत्रता की हमारी आकांक्षा को उड़ने का नया  प्लेटफार्म   देती  है.


Sunday, 7 January 2018

भोजपुरी के पहिलका सोप आपेरा -'लोहा सिंह'

भोजपुरी में- शायद हिंदी समेत दोसरो भारतीय भाषा में- नाटक के कवनों चरित्र से लेखक के जियत पहिचान बनि गइल होखे, एकर दोसर उदहारण रामेश्वर सिंह ‘काश्यप’ के लिखल नाटक ‘लोहा सिंह’ के अलावा ना मिली. एक नाटक के लोकप्रियता अइसन भइल कि एकर लेखक के लोग असली नाम से कम, लोहा सिंह नाम से अधिक जाने लागल. रेडिओ नाटक के रूप में ‘लोहा सिंह’ नाटक के प्रसारण जब शुरू भइल त लोगबाग का अइसन पसंद आइल कि ओकर प्रसारण हफ्ता में एक बार नियमित रूप से आकाशवाणी पटना से होखे लागल. धारावाहिक रूप में ‘लोहा सिंह’ के प्रसारण बरिसन चलल. जेह दिन ‘लोहा सिंह’ के प्रसारण होखे, गाँव मोहल्ला के लोग रेडियो सेट के लगे बहुत पहिलिए से इकठ्ठा हो जात रहे आ दम साध के नाटक के एक-एक संवाद सुनत रहे. आगे चलिके दूरदर्शन से प्रसारित ‘रामायण’‘महाभारत’ धारावाहिक के जइसन लोकप्रियता मिलल, करीब-करीब ओइसने लोकप्रियता भोजपुरी क्षेत्र में ‘लोहा सिंह’ नाटक के मिलल रहे. ‘लोहा सिंह’ के हर कड़ी में समाज के कवनों-ना-कवनों समस्या रहत रहे, जवना के समाधान बड़ा आसानी से लोहा सिंह चरित्र के जरिए लेखक प्रस्तुत कर देत रहे. कवनों कड़ी में दहेज-समस्या होखे त कवनो में परिवार-नियोजन, कवनों कड़ी में देशभक्ति मुख्य होखे त कवनो में गाँव के सामूहिक भाईचारा. हास्य-व्यंग्य शैली में चले वाला ए नाटक के खूबी ई रहे कि बिना कवनो वैचारिक दबाव के श्रोता के चेतना बदले के काम ई करे. जेकरा ए नाटक के देखे आ सुने का मौका मिलल बा, ऊ सहजे ए बात के पुष्टि करी.
          हमार ई सौभाग्य बा कि हमरा ना सिर्फ ‘लोहा सिंह’ के रचयिता डॉ. रामेश्वर सिंह ‘काश्यप’ से मिले आ समपर्क में रहे के मौका मिलल, बल्कि आकाशवाणी पटना से प्रसारित उहाँ के लिखल नाटक ‘लोहा सिंह’ सुने के भी मौका मिलल. हमार इहो सौभाग्य बा कि ‘लोहा सिंह’ नाटक के मंचन भी हम देखनी आ ‘लोहा सिंह’ फिलिम भी देखनी. ओ फिलिम के कश्यप जी पटकथा आ गीत त लिखलहीं रहीं, ओमें लोहा सिंह के चरित्र भी निभवले रहीं. ओ फिलिम के उहाँ के लिखल आ मन्ना डे के गावल- ‘अजब कइला लीला, गजब कइला मालिक, जनम दे के जग में दरद दे ल मालिक’- भोजपुरी समाज में अपना समय में बहुत लोकप्रिय भइल रहल. हम अपन आँख से देखले बानी कि ‘काश्यप’ जी कहीं जाई आ लोग के मालूम हो जाए कि ‘लोहा सिंह’ नाटक के लेखक, अभिनेता, निर्देशक काश्यप जी आइल बानीं त लोग ‘लोहा सिंह-लोहा सिंह’ कहत उहाँ के घेर लेत रहे. लोग उहाँ के काश्यप जी कम, लोहा सिंह जादे कहत रहे. ‘लोहा सिंह’ के लेखक काश्यप जी भोजपुरी भाषा के सेलिब्रिटी नाटककार रहलीं. ‘लोहा सिंह’ नाटक सामाजिक सन्देश जनता के पहुँचावे के अइसन माध्यम बनल, जवना के दोसर उदाहरण भोजपुरी में नइखे.
          ‘लोहा सिंह’ नाटक के मुख्य चरित्र गाँव के रहे वाला लोहा सिंह नाम के एगो रिटायर फौजी बा, जवन ब्रिटिश आर्मी में काबुल के मोर्चा पर काम कर चुकल बा. पढाई-लिखाई ओकर ना के बराबर, चाहे बहुत मामूली बा. फ़ौज में रहिके टूटल-फूटल हिंदी आ भोजपुरी फेंट-फांट के ओकरा बोले के आदत बा. बीच-बीच में कवनों-कवनों अंग्रेजी के शब्द के बिगड़ल भोजपुरिया के रूप में सामने बा- ‘जिद त हम धरबे करेगा. तुम देहाती बैकुफाना को बात करेगा त हम खूब जिद धरेगा, अ तुमको घामा में डबल मारच कराएगा. काबुल को मोरचा पर हम निमन-निमन जवान को धुरछक छोड़ा घाला, तुम कवना खेत के मुरई है जी’.  एही तरह के डायलग के कारण ‘लोहा सिंह’ नाटक के लोकप्रियता बढ़त गइल. कहल जाला कि आकाशावाणी के ई पहिलका धारावाहिक रहे, जवन एतना लोकप्रिय भइल. ‘लोहा सिंह’ नाटक के शुरूआती ड्राफ्ट के नाम रहे- ‘लोहा सिंह ने मुरब्बे खाए’. बाद में ई नाटक जब लोकप्रिय भइल त ओकर अगिला कड़ी ‘लोहा सिंह ने खेती की’, ‘लोहा सिंह ने डॉक्टरी की’ जइसन दर्जनन ओकर रूप देखे-सुने के मिलल. जब जइसन देश आ समाज के जरूरत पड़ल, काश्यप जी ‘लोहा सिंह’ के अगिला कड़ी लिख डालत रहीं. भारत-चीन युद्ध का समय ‘लोहा सिंह’ धारावाहिक के माध्यम से आकाशवाणी के जरिए काश्यप जी देशभक्ति के भावना जगावे के जवन काम कइनीं, ओकर सराहना चारु ओर भइल. ‘लोहा सिंह ने मुरब्बा खाए और अन्य करतूते’ नाम से एक या दो खंड में ऊ सगरी धारावाहिक के प्रकाशन भइल रहे. बाद में जनता भूल गइल कि ओ नाटक के का नाम रहे, लोहा सिंह चरित्र का लोकप्रियता के कारण ‘लोहा सिंह’ ही प्रसिद्ध हो गइल. लोहा सिंह के संवाद के भाषा त हिंदी मिश्रित भोजपुरी बा लेकिन अउरी पात्र, जइसे पाठक जी, खदेरन की माँ, खदेरन, बुलाकी, अछैबट आदि पात्रन के भाषा शुद्ध भोजपुरी बा.
          भोजपुरी के मस्ती के भाषा मानल जाला. लोहा सिंह खुद एगो मस्त टाइप के चरित्र बा. मस्ती में लोग सबदन के बिगाड़ के बोलेला. लोहा सिंह के मस्त स्वभाव में ई आदत कूट-कूट के भरल बा. लोहा सिंह पाठक जी के फाटक बाबा, खदेरन की माँ के खदेरन को मदर, मार्च के मारच, क्वालिटी के कलाउटी, मेम के मेमिन, घिरनी के घरनई आदि कहत रहलन. एक तरह से नाटक में हंसी-मजाक के अइसन वातावरण बने कि लोग के दिलचस्पी बढ़ जाव. खदेरन की माँ बात-बात में ‘आ मार बढ़नी रे’ बोलत रहलीं, इहो आकर्षण के बड़ा आधार रहे.
          भोजपुरी में अलिखित लोकनाटक के परंपरा त खूब पुरान बा, लेकिन लिखित नाटक के कवनो बड़ इतिहास नइखे. राहुल सांकृत्यायन, भिखारी ठाकुर जइसन कमे नाम ‘लोहा सिंह’ के पहिले देखे के मिलेला. लेकिन जवन लोकप्रियता ‘लोहा सिंह’ के मिलल, ओकर उदहारण दोसर नइखे. ‘लोहा सिंह’ के बाद भोजपुरी में ओइसन दोसर कवनो नाटक ना आइल. हास्य-व्यंग्य का शैली में चले वाला ए नाटक के जरिए सामाजिक-सांस्कृतिक आ राजनीतिक सन्देश बड़ा लोक-लुभावन शैली में जनता तक पहुँचावे के काम कई दशक में चलल. एही से हम ‘लोहा सिंह’ नाटक के भोजपुरी के पहिलका ‘सोप आपेरा’ कहत बानी.  
          अइसन काल्पनिक कहानी, जवना के धारावाहिक रूप में प्रस्तुत क इल जाला, ओकरा के ‘सोप आपेरा’ कहल जाला. साधारण भाषा में कहल जाव त सोप आपेरा अइसन काल्पनिक कहानियनके नाम ह, जवन बहुत दिन तक चलत रह सके. ए काल्पनिक कहानियन के खूबी ई होखेला कि ई अइसन नाटकीय मोड़ पर खतम होली सन, जवना से ओकरा अगिलका कड़ी के नाटकीयता के अंदाजा हो जाला. ए में पारिवारिक, निजी, लैंगिक, भावनात्मक और आदर्शात्मक द्वंद्व रहेला. एकर विषय सामजिक चेतना से भी जुड़ल रहेला. ए तरह के कहानी में भूत-पिशाच अउर अलौकिकता के भी आधार रहेला. शुरूआती काल में ए तरह के कहानियन के ‘ड्रामेटिक सीरियल’ कहल जाव आ रेडिओ पर एकर प्रसारण होखे. अइसन प्रसारण के साबुन कंपनी प्रायोजित करे, एही से एकर नाम ‘सोप आपेरा’ पड़ल. एकर शुरुआत अमेरिका-यूरोप में भइल. आगे चलके एही तरह के कंटेट के साथे धारावाहिक रूप में आवे वाला रेडिओ प्रोग्राम ‘सोप आपेरा’ कहाए लागल. भारत में ‘लोहा सिंह’ नाटक का रूप में भोजपुरी के ई सौभाग्य बा कि ना सिर्फ भोजपुरी के, बल्कि शायद सम्पूर्ण भारतीय भाषा के पहिलका ‘सोप आपेरा’ कहलावे के एकरा गौरव प्राप्त बा. एह रूप में ‘लोहा सिंह’ नाटक के ऐतिहासिक महत्त्व बा.
          जब लोकप्रियता के अभिजन समाज में बहुत इज्जत के निगाह से ना देखल जात रहे, ‘लोहा सिंह’ नाटक लोकप्रियता के उड़नखटोला पर सवार होक ग्रामीण समाज से लेके अभिजन समाज का बीच अइसन जगह बनवलस, जवना के दोसर उदाहरण भोजपुरी नाटक साहित्य में शायदे मिले. भिखारी ठाकुर आ ‘विदेसिया’ के सामजिक प्रतिष्ठा पावे में काफी समय लागल, लेकिन ‘लोहा सिंह’ नाटक अपना जनमे काल से लोकप्रियता आ सामाजिक प्रतिष्ठा दुनूं एक साथे अर्जित कइलस. एकर कारण का रहे? हमरा समझ में एकर दुगो प्रधान कारण रहे. पहिलका ई कि ‘लोहा सिंह’ मूल रूप में रेडिओ नाटक रहे. 1960 का दशक में रेडिओ नाटक नया संचार माध्यम रहे, जवना के जादू के परभाव नगर से लेके गाँव तक, पढ़ल-लिखल से लेके अनपढ़ तक एक समान रहे. रेडिओ से प्रसारित भइला के मतलबे रहे कि ओकरा सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त बा. तेजी से उभरत लोकप्रिय संचार माध्यम त ऊ रहबे कइल. ओकर पहुँच के दायरा एक साथे बहुत व्यापक रहे. ओकर पहुँच पुरुष-दालान में भी रहे आ जनानखाना में भी. नाच-नाटक भी लोकप्रिय संचार माध्यम रहे, लेकिन ओकर पहुँच एतना व्यापक ना रहे. दोसर बात ई कि नाच-नौटंकी करे वाला लोग के प्रति ओ जमाना में समाज के नजरिया भी अच्छा ना रहे. अइसने समय में नया संचार माध्यम के रूप में रेडिओ आइल. ऐसन लोकप्रिय आ समाज-समादृत संचार माध्यम पर सवार होक ‘लोहा सिंह’ नाटक प्रसारित भइल, जवना के लेखक कवनो नाच-नौटंकी वाला न रहे, ईगो प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित प्रोफेसर रहे, जिनकर नाम रामेश्वरी सिंह ‘काश्यप’ रहे. जब लोग का ई मालूम होखे कि लोहा सिंह के कड़कत आवाज काश्यपे जी के ह, त एकर आकर्षण अउरी बढ़ जाव.
          एगो बात अउरी बा. जवना समय में हास्य के मात्र जोकर के काम मानल जात रहे, वोह टाइम में ‘लोहा सिंह’ नाटक हास्य के अइसन तत्त्व लेके आइल, जवन शुरू से आखिर तक हास्य रस से सराबोर रहे, लेकिन हास्य का जरिए सामाजिक चेतना के भी बदले के काम हो सकेला, ई बात एक नाटक से साबित भइल. कवनो वैचारिक सन्देश वाला नाटक के लोग बहुत मन से ना पसंद करेला, लेकिन उहे विचार हास्य का ठहाका के साथ जनता के बीच जाब आइल त लोग ओकरा से सहजे जुड़ गइल.
          एक साथे ‘लोहा सिंह’ नाटक के एगो अउरी विशेषता बा. हर पात्र के आपन-आपन खूबी रहे. लोहा सिंह जवना ढंग के रहलन, पाठक जी ओकरा से अलग रहले, ओही तरह से खदेरन के माई, बुलाकी आ खदेरन के भी आपन-आपन स्टाइल रहे. हर पात्र अपना-अपना खूबी के साथे जनता के दिल दिमाग में बइठ गइल रहे. लोग ए पात्रन के अपना-अपना भीतर जिए लागल आ हर पात्र के डायलग बोले के ढंग अपनावे लागल. भोजपुरिया क्षेत्र के कई गो नेता लोग का बेजोड़ लोकप्रियता के पीछे ‘लोहा सिंह’ के डायलग के परभाव बा. उनकर भाषा में भोजपुरी, हिंदी आ अंग्रेजी के मिक्सचर बा. उदहारण के रूप में लोहा सिंह के ई डायलग देखल जा सकेला- “काबुल के मोरचा पर जब हम हुकुम देते थे त संउसे पलटन का जवान बनूक उठा के एक टंगरी पर ठड़ा हो जावता था. जब हम गर्जन करता था त लफ्टन को में आ करनइल को मेमिन बादहोस हो जाता था, अउर हमारी रोबलाइ सूरतको  खाबसूरती देखकर को जरनइल का कुक्कुर भूँकने लगता था....अउर एगो तुम हो जे हमारा हुकुम का नरेटी काट के बीग घालता है, बिलाई लेख मेऊँ-मेऊँ करता है”. दोसर उदहारण खदेरन की मदर के डायलग में देखल जा सकेला- “आ मार बढ़नी रे, इनका खातिर हम जतने जीव दिहीला, ओतने ई छान्ही पर चढ़ल जालन”. एही तरह के पाठक जी के भी बोले के आपण स्टाइल रहे. जइसे पाठक जी के एगो डायलग देखल जा सकेला- “जजमान! तू चल्हांकी के चीलम ह व, हिम्मत के हाथी ह व. केकर हिमायूं बा जे तोहरा मोकाबला करी? जावर भर में तोहरा नांव के डंका डगडगात बा. कहल बा जेबासे का बीच के बगल में कि- को नहीं जानत है जग में, कपि संकट मोचन नाम तिहारे”.  
          ‘लोहा सिंह के लोकप्रियता के एगो बड़ा कारण रहे, काश्यप जी के ऊ नजर, जवन दुनिया भर के नाटक-रंगमंच का क्षेत्र में होत बदलाव के पारखी रहे. काश्यप जी बड़ा आ कुशल नाटककार त रहले रहीं, उहाँ का हिंदी-भोजपुरी समेत विश्व-साहित्य के धाकड़ पढ़वइया भी रहनीं. 1930 ई. का दशक में रेडिओ के जरिए लोकप्रिय भइल सोप आपेरा का बारे में उहाँ का जरुर अध्ययन कइले होखब. ई सही बा कि विदेश सोप आपेरा के रेडिओ पर प्रायोजित करे में प्राक्टर एंड गेम्बल, कोलगेट, पामोलिव आ लेवल ब्रदर्स जइसन कंपनी के भूमिका रहे. अइसन कवनो भूमिका आकाशवाणी पटना से प्रसारित ‘लोह सिंह’ नाटक का पीछे कवनो कंपनी के ना रहे. लेकिन आपन लोकप्रिय सामाजिक सन्देश का कारण परोक्ष रूप में सरकारी प्रायोजन त ई रहबे कइल. सोप आपेरा के स्टाइल के अपना माटी-बानी के अनुसार काश्यप जी लेहनीं आ ‘लोहा सिंह’ जइसन धाकड़ चरित्र के जनमानस में बइठा दिया.
          ‘लोहा सिंह’ भोजपुरी समेत सगरो भारतीय नाटक साहित्य में अलबेला चरित्र रहे. लोहा सिंह के संवाद त मुर्दा आदमी के धड़कत जवान बनावे वाला रहबे कइल, ओकर देशभक्ति, समाजसुधारक, हंसोड़ आ गंवई मन-मिजाज के मेल से बनल व्यक्तित्व में जवन जादू रहे, ऊ जादू दोसरा नाटक के कवनो चरित्र में आज ले न लउकल. ‘लोहा सिंह’ के देखा-देखी अउर कई गो नाटक रेडिओ पर आइल, लेकिन लोहा सिंह का सामने कवनो नाटक ना टिक सकल. ‘लोहा सिंह’ भोजपुरी नाटक के लोकप्रिय, साथहीं अमर चरित्र बा.
          ‘लोहा सिंह’ का जइसन बेजोड़ सफलता रेडिओ पर मिलल, ओइसन ना त मंच पर मिलल, ना फिलिम का परदा पर. एकर कारण का बा? एकर एगो बड़ कारण ई बा कि ‘लोहा सिंह’ संवाद प्रधान नाटक रहे, अभिनय प्रधान ना. एकर सब जादू संवादे में बा. रेडिओ स्टेशन के वातानुकूलित साउंडप्रूफ कमरा में माइक्रोफोन के सामने बइठ के संवाद बोलल आ आवाज के अभिनय कइल एगो बात बा, जन-समूह का सामने देह-भंगिमा आ आवाज के अभिनय दोसर बात बा. काश्यप जी के ‘लोहा सिंह’ नाटक के सगरो परिकल्पना रेडिओ नाटक के सीमा में बा- अइसन हमार विचार बा. हो सकेला कि बढ़िया निर्देशक के हाथ में पड़ के ‘लोहा सिंह’ के मंच वाला रूप भी शानदार हो जाव. आखिर प्रसाद जी के ‘स्कंदगुप’ नाटक के ब.व. कारंत जइसन निर्देशक मंचित करिके ई साबित कर देहलें कि ना, कि नाटक जेतना नाटकार के विधा ह, ओतने निर्देशकों के भी.

          जइसे ‘मधुशाला’ से बच्चन जी के पीछा न छूटल, ओसहीं ‘लोहा सिंह’ से रामेश्वर सिंह ‘काश्यप’ के पीछा ना छूटल. उहाँ का लिखनीं त बहुत कुछ, लेकिन ‘लोहा सिंह’ के लोकप्रियता उहाँ के अइसन पीछा करे लागल कि बाकी सब पर लोग के नजर पड़ के भी ना पड़ल. ‘लोहा सिंह’ उहाँ के पहिचान भी बनल आ कैदखाना भी. अइसन लोकप्रिय आ अमर चरित्र काश्यप जी के जदि भोजपुरी नाटक के देन बा त ई एह बात के प्रमाण भी बा कि कइसे एगो जीनियस नाटककार के ई सीमा भी बन गइल. लेकिल एकरा साथे ‘लोहा सिंह’ के ई श्रेय त दिहले जाई कि भोजपुरी में पहिलका बार सोप आपेरा शैली में एगो नाटक लोकप्रियता के नया आ ऐतिहासिक कीर्तिमान बनवलस अउर भिखारी ठाकुर के नाटकन का समानांतर आ ओह से बड़ एगो नया नाटक-प्रेमी वर्ग पैदा कइलस. भोजपुरी नाटक के लोकप्रिय बनावे में जइसन भूमिका रामेश्वर सिंह ‘काश्यप’ आ ‘लोहा सिंह’ के बा. एगो में लोक नाटक शैली के प्रधानता बा, त दोसरा में लोक-शैली के साथे नया माध्यम के उपज सोप आपेरा शैली के विशेषता. एगो में भोजपुरी समाज के दुःख-दर्द बा त दोसरका में ओ समाज के मस्ती आ जागरुक मन-मिजाज. ‘लोहा सिंह’ का जरिए भोजपुरी नाटक में युगांतर उपस्थित हो गइल. ‘लोहा सिंह’ भोजपुरी नाटक के ऊ खिड़की रहे जवना से होके आधुनिक नाटक के झोंका भोजपुरी के आँगन में आइल.          

Saturday, 9 December 2017

आलोचक नलिन विलोचन शर्मा

नलिन विलोचन शर्मा(18 फ़रवरी 1916-12 सितम्बर 1961) बहु-उद्धृत आलोचक नहीं हैं, न प्रगतिशील खेमे में और न गैर-प्रगतिशील खेमे में. हिंदी आलोचकों की जो सूची अक्सर जारी होती है उसमें उनका नाम नहीं होता. वे बहुत कम उपलब्धियों के लिए याद किए जाते हैं. अधिक-से-अधिक तब के गुमनाम से उपन्यास ‘मैला आँचल’ को कालजयी उपन्यास के रूप में पहचान दिलाने वाले आलोचक के रूप में याद किए जाते हैं. हिंदी के इतिहास दर्शन की चर्चा जब न के बराबर थी तब ‘साहित्य का इतिहास दर्शन’ जैसी किताब लिखने वाले आलोचक के रूप में भी उनका नामोल्लेख होता है. और किसी प्रसंग में उन्हें याद करते या उन्हें उद्धृत करते प्राय:  नहीं देखा-सुना जाता . ऐसा क्यों है; जबकि वे हिंदी के ‘सिगनिफिकेंट’ आलोचक हैं?
        नलिन जी के आलोचनात्मक लेखन का समय 1940-1960 के बीच का है. यह  शीतयुद्ध की छाया का दौर  है. दुनिया सोवियत और अमेरिकी शिविर  में बंटी हुई थी. राजनीतिक  रूप से दो सिरों में विभाजित विचारधारा का प्रभाव दुनिया के साहित्य पर भी था. माना जाता था कि या तो आप प्रगतिशील हैं या गैर-प्रगतिशील. इस प्रभाव से हिंदी साहित्य भी अछूता नहीं था. हिंदी का समूचा वातावरण प्रगतिवाद बनाम आधुनिकतावाद का बना हुआ था. नलिन विलोचन शर्मा आलोचना का एक तीसरा पक्ष लेकर सामने आए. वे न प्रगतिवादी शिविर में शामिल हुए न गैर-प्रगतिवादी शिविर में. दोनों से उनकी दूरी समान बनी रही. उन्होंने आलोचना के इन दोनों धरातलों को अपर्याप्त माना और तीसरे धरातल के रूम में  नए मान निर्मित करने की कोशिश की. जैसे  शीतयुद्ध काल में दो शिविरों में बंटी हुई दुनिया में गुटनिरपेक्ष आंदोलन एक तीसरा शिविर  बनकर उभरा, वैसी ही स्थिति लगभग नलिन विलोचन शर्मा की  आलोचना की भी है. दो महाशक्तियों के बीच गुटनिरपेक्ष आंदोलन जैसे उपेक्षित रहा वैसी ही स्थिति नलिन विलोचन शर्मा की भी रही. आज जबकि दुनिया शीतयुद्ध की छाया से मुक्त है, हिंदी में भी प्रगतिशीलता और गैर-प्रगतिशीलता की वैसी फौजदारी नहीं है, तब उनकी आलोचना का महत्त्व पहचानने की जरुरत है. आखिर वे कौन-से मान हैं जिनके जरिए नलिन जी हिंदी आलोचना के विकास में ज़रूरी हस्तक्षेप करते हैं?
        नलिन विलोचन शर्मा ऐसी आलोचना के पक्षधर थे जो रचना का पुनः निर्माण करे. वे ऐसी आलोचना को महत्त्व देते थे जो रचना की निर्माण प्रक्रिया और उसकी कला की भाश्वरता को रेखांकित करे. उनकी दृष्टि में आलोचना ‘सृजन’ है. लेकिन ऐसा ‘सृजन’ जो किसी ‘कृति का निर्माण’ करे. वे आलोचना को किसी कृति की व्याख्या न मानकर यह मानते थे कि ‘आलोचना कला का शेषांश ’ है. वे ‘कला के धरातल पर उन्नीत’ हो जाने वाली आलोचना के समर्थक थे. वे किसी कृति की विषय-वस्तु से अधिक उसकी भाषा, शिल्प, अभिव्यंजना शैली आदि को अधिक महत्त्व देते थे. उनके लिए साहित्य में ‘क्या है’ से अधिक ‘कैसे है’ पर जोर अधिक है. इस कारण कुछ लोग उन्हें रूपवादी आलोचक कहते हैं. लेकिन उनका रूपवाद समाज सापेक्ष आलोचना दृष्टि का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करता है. उन्होंने लिखा है: “कोयल और पपीहे की सुरीली तान पर भी भावुकतापूर्ण तथा थोथी कविता हो सकती है. फैक्ट्री की सिटी पर भी प्राणवंत पद्य लिखे गए हैं. साहित्य का विषय गाँधीवाद भी हो सकता है और समाजवाद भी, पर साहित्य उत्कृष्ट या निकृष्ट विषय के कारण नहीं, विषय के बावजूद होगा”. रचना में इस ‘बावजूद’ की खोज ही नलिन जी की आलोचना का उद्देश्य है.
        नलिन विलोचन शर्मा का प्रगतिशील आलोचना से द्वंद्वात्मक सबंध है. यद्यपि वे मार्क्सवादी नहीं हैं, वे गाँधीवादी भी नहीं हैं. विचारधारा की दृष्टि से देखना हो तो वे एम.एन. राय के ‘रेडिकल ह्युमिनिज्म’ से प्रभावित लगते हैं. उन पर टी.एस. इलियट का प्रभाव देखा गया है, लेकिन कई मुद्दों पर वे टी.एस. इलियट की कई मान्यताओं से असहमत हैं. टी.एस. इलियट राजतंत्र के समर्थक थे, जबकि नलिन जी लोकतंत्र को जरुरी मानते हैं; इलियट धर्म पर विश्वास करते थे, जबकि नलिन जी विज्ञान सम्मत आधुनिक दृष्टि के समर्थक थे. वे कविता को विज्ञान का पूरक मानते थे. वे परंपरा के मूल्यांकन में टी.एस. इलियट की धारणा के करीब हैं. इलियट की तरह नलिन जी साहित्य को सबसे पहले साहित्य की कसौटी पर रखकर देखते हैं और इस अर्थ में वे इलियट के करीब हैं. साहित्य संबंधी मान्यताओं के लिए उन्होंने मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन की प्रशंसा की है. साथ ही परंपरा के सम्यक मूल्यांकन के लिए हिंदी की प्रगतिशील आलोचना की भी प्रशंसा की है,लेकिन उन्होंने प्रगतिवादी साहित्य चिंतन और आंदोलन में उभरती हुई संकीर्ण प्रवृत्तियों पर हमला भी किया है. इसलिए हिंदी में प्रगतिशील और गैर-प्रगतिशील दो तरह के शिविरों की जो अक्सर चर्चा होती है उसमें नलिन जी नहीं आते हैं. वे हिंदी आलोचना का तीसरा पक्ष निर्मित करते हैं.  
        बीसवीं सदी का चौथा-पाँचवाँ दशक भारत में प्रगतिशील आंदोलन के उत्कर्ष का काल है. इसी दौरान नलिन विलोचन शर्मा का महत्त्वपूर्ण आलोचनात्मक लेखन प्रकाशित होता है. यही समय है जब अज्ञेय और इलाहाबाद की संस्था ‘परिमल’ की ओर से साहित्य चिंतन और मूल्यांकन के भिन्न धरातल खोजे जाते हैं. यही समय है जब भारतीय राजनीति में राम मनोहर लोहिया का धमाकेदार प्रवेश होता है और उनके चिंतन का प्रभाव साहित्य पर लक्षित किया जाता है. निश्चित रूप से देश-विदेश से उठने वाले इन वैचारिक झंझावातों का प्रभाव नलिन जी पर भी पड़ा होगा. लेकिन वे किसी एक शिविर में जाना पसंद नहीं करते, वे असल में साहित्य में शिविरबद्धता के विरुद्ध थे. उन्हें साहित्यकार का किसी राजनीतिक दल का ‘पिछलग्गू’ होना पसंद नहीं था. वे भारतीय और पश्चिमी साहित्य के गंभीर अध्येता थे, उनके सामने भारतीय साहित्य की महान परम्पराएं भी थी और पश्चिम से आने वाले मार्क्सवादी और आधुनिक साहित्यिक मूल्य भी. नलिन जी संग्रह- त्याग के विवेक का विरल उदहारण प्रस्तुत करते हैं. वे न तो भारतीयता की आँधी में बहते हैं और न मार्क्सवाद -आधुनिकतावाद का कीर्तन करते हैं. मार्क्सवादी और आधुनिकतावादी दोनों प्रतिमानों को नकारते हुए वे साहित्य के मूल्यांकन के लिए ‘मुक्ति’ और ‘स्वच्छंता’ दो आधार निर्मित करते हैं. मुक्ति और स्वच्छंदता में भी वे ‘मुक्ति’ को नए और उत्कृष्ट साहित्य का आधार मानते हैं. वे मानते हैं कि साहित्यिक रुढियों से मुक्ति के बिना नए साहित्य का सृजन नहीं हो सकता. 
        नलिन जी के अनुसार मुक्ति दो तरह की होती है- विषयगत और रूपगत. लेखक जब नए विषय को लेकर आता है तब विषयगत मुक्ति संभव होती है जो वस्तुतः स्वच्छंदता है. नलिन जी के अनुसार अंग्रेजी के लेखक बर्नार्ड सॉ और हिंदी के पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ में यही विषयगत स्वच्छंदता है. उनके अनुसार ये दोनों लेखक अपने युग की अलस-ऊँघती हुई चेतना को विषयगत परिवर्तन के जरिए ठोकर मारकर जगाते हैं. लेकिन वे साहित्य के रूपगत ढाँचे में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं करते हैं. नलिन जी के अनुसार डी.एच. लारेंस मुक्त और स्वच्छंद रचनाकार हैं और इसी अर्थ में अधिक महत्त्वपूर्ण भी. लारेंस पर लिखते हुए उन्होंने लिखा है-  लारेंस ने “मनुष्य की यौन समस्यायों का मुक्त तथा स्वच्छंद विवेचन कुछ ऐसी गहराई और तलस्पर्शिता के साथ किया है कि वह अपनी पूर्णता में आश्चर्यजनक रूप से उदात्त हो गया है”. नलिन जी के कथन का तात्पर्य यह है कि बर्नार्ड सॉ ने अपने नाटकों के शिल्प  में वैसी कोई क्रांति नहीं की, इस क्षेत्र में उन्होंने परंपरागत नियमों का ही पालन किया. लारेंस उनकी दृष्टि में अधिक महत्त्वपूर्ण इसलिए हैं कि उनके उपन्यास न केवल विषय की दृष्टि से बल्कि भाषा और शिल्प की दृष्टि से भी रूढी- मुक्त है. नलिन जी के अनुसार मुक्ति और स्वच्छंदता की कसौटी पर हिंदी में निराला और अंग्रेजी में वाल्ट व्हिटमैन विराट् व्यक्तित्व के कवि- रचनाकार हैं, क्योंकि वे दोनों अपनी रचनाओं में भीतर-बाहर दोनों जगह क्रान्ति उपस्थित करते हैं.
        हिंदी आलोचना में मुक्ति संबंधी नलिन विलोचन शर्मा की अवधारणा का नयापन समझने की जगह कुछ मार्क्सवादी आलोचकों ने उन्हें रूपवादी आलोचक माना है. नलिन जी आत्यंतिक रूप से नवीनता के आग्रही आलोचक थे. वे तात्कालिक यथार्थवाद और रुपवाद जैसे आलोचनात्मक प्रत्ययों से इत्तेफाक नहीं रखते. ‘मुक्तता’ और ‘स्वच्छंदता’ की अपनी कसौटी पर वे प्रगतिशीलों की भी आलोचना करते हैं तो इनकी कमी के कारण अज्ञेय और अज्ञेय पंथियों की भी.
        नलिन विलोचन शर्मा की आलोचना में ‘मुक्ति’ और ‘स्वच्छंदता’ संबंधी धारणा के कारण एक तरह का खुलापन है. वे प्रगतिवाद की आलोचना करते हैं तो मार्क्स और प्रमुख मार्क्सवादी सिद्धांतकारों की साहित्य संबंधी विचारों की प्रशंसा भी करते हैं. बर्नार्ड सॉ और डी.एच. लारेंस तथा प्रेमचंद और जैनेन्द्र जैसे सर्वथा विरोधी स्कूल के माने जाने वाले लेखकों को एक साथ पसंद करने वाले नलिन जी की आलोचना दृष्टि वैसी सरल नहीं है जैसी  आम तौर पर समझ लिया जाता है.
        नलिन जी आलोचना में रामचंद्र शुक्ल के प्रशंसक हैं  और उनकी परंपरा का विकास करते हैं. वे मानते हैं कि “शुक्ल जी वैसे आलोचक हैं, जिनके विवरण तो पुराने पड़ सकते हैं, किन्तु सिद्धांत और मीमांसा महार्घ बनी रहती है”. इसीलिए वे शुक्ल को शास्त्र का विद्वान आलोचक ही नहीं, बल्कि एक महान कलाकार कहने में संकोच नहीं करते.  प्रगतिवाद से असहमति के बावजूद वे प्रगतिशील आलोचक डॉक्टर रामविलास शर्मा द्वारा लिखित ‘हिंदी आलोचना और रामचंद्र शुक्ल’ नामक पुस्तक की वे प्रशंसा करते हैं. नलिन जी के लिए यह महत्त्वपूर्ण नहीं था कि यह किताब किसी प्रगतिशील आलोचक ने लिखी है, उनके लिए  महत्त्वपूर्ण यह  था कि इससे शुक्ल जी की आलोचना -पद्दति का विकास होता है. आलोचना की यह पद्धति विवेकवादी समझ और दृष्टि से बनी थी. नलिन जी भी इसी विवेकवाद  के कायल थे. परंपरा के सातत्य में उनका विश्वास था और विज्ञान द्वारा प्राप्त निष्कर्षों का वे समर्थन करते थे. वे शुक्ल जी की ही तरह जीवन और साहित्य में रहस्यवाद के विरोधी थे. किसी अलौकिक सत्ता में उनका विश्वास नहीं था. वे अनीश्वरवादी और वैज्ञानिक चेतना के आलोचक थे. लेकिन वे मार्क्सवाद को विवेकवाद की एकमात्र राह नहीं मानते थे. बाहरी सत्य के साथ आतंरिक सच की वास्तविकता को भी वे स्वीकार करते थे. इसलिए सिगमन फ्रायड के वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर मानव चरित्र का विवेचन-विश्लेषण आवश्यक मानते थे.
        नलिन विलोचन शर्मा प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल और निराला को आधुनिक हिंदी साहित्य का शिखर मानते थे. इनको शिखरासीन करने में रामविलास शर्मा के साथ सबसे पहले जो याद किए जाएँगे वे नलिन विलोचन शर्मा ही होंगे. यद्यपि नलिन विलोचन शर्मा की कसौटी रामविलास शर्मा से भिन्न है. उनके अनुसार प्रेमचंद, शुक्ल जी और निराला आधुनिक हिंदी साहित्य के महान लेखक ही नहीं, महान कलाकार भी थे.
        नलिन विलोचन शर्मा को लिखने के लिए पर्याप्त उम्र नहीं मिली. फिर भी उन्होंने हिंदी के अतिरिक्त संस्कृत और अंग्रेजी के बड़े लेखकों पर प्रचूर मात्रा में लेखन -कार्य किया. उनकी आलोचनात्मक कसौटी का मुख्य आधार ‘स्वच्छंदता’ और ‘मुक्ति’ ही है. इसी आधार पर वे साहित्य का मूल्यांकन करते हैं और उस लेखक की कला का वह पक्ष उद्घाटित करते हैं जो बहुतों के लिए कठिन था. वे सच में  कृति का निर्माण करने वाले आलोचक थे.
        नलिन जी ने कई विषयों पर लिखा है, लेकिन उनकी सबसे बड़ी देन कथा साहित्य की आलोचना को है. कथा साहित्य में भी प्रेमचंद की उपन्यास कला और कहानी कला के वे बड़े आलोचक हैं. रामविलास शर्मा ने आधुनिक हिंदी का महान लेखक प्रेमचंद को तो बना दिया था लेकिन यह कार्य उन्होंने उनकी सामाजिक चेतना के आधार पर किया था. इस कारण बहुतेरे कलावादी लोग प्रेमचंद को महान लेखक मानने को तैयार नहीं थे. नलिन विलोचन शर्मा ने हिंदी आलोचना की उस रिक्त स्थान की पूर्ति की जो प्रगतिशील आलोचना की अतिशय समाजशास्त्रीयता से पैदा हुई थी. कहा जा सकता है कि इस अर्थ में हिंदी आलोचना के विकास में उनका योगदान ऐतिहासिक महत्त्व का है. उन्होंने कला विहीन मानने वाले आलोचकों के आरोपों का उत्तर तो दिया ही, प्रेमचंद को कला की ऊँचाई पर भी प्रतिष्ठित किया. जितने विस्तार और जितने मनोयोग से उन्होंने प्रेमचंद की कला का विवेचन-विश्लेषण किया वह उनके पूर्व तो हुआ ही नहीं था, अब तक नहीं हो पाया  है.
        हिंदी उपन्यास की आलोचना के विकास में नलिन विलोचन शर्मा का महत्त्वपूर्ण स्थान है. वे हिंदी के पहले आलोचक थे जिसने उपन्यास के शास्त्र के निर्माण की दिशा में महत्त्वपूर्ण कोशिश की. वे उपन्यास को आधुनिक विधा मानते थे तो इसलिए नहीं कि उनका जन्म आधुनिक काल में हुआ, बल्कि इसलिए कि आधुनिकता एक सामाजिक और मानवीय मूल्य की तरह है जो उपन्यास नामक विधा में समग्रता में प्रकट हुई है. वे उपन्यास को साहित्य का ‘अंत्यज’ मानते थे. ‘अंत्यज’ भारतीय सन्दर्भ में दलित जातियों को कहा जाता था. कविता, नाटक, कथा साहित्य आदि विधाओं की तुलना में यह अंत में पैदा हुई साहित्यिक विधा भी थी. इसलिए नलिन जी का उपन्यास को ‘अंत्यज’ कहना बहुत ही अर्थ-व्यंजक है. यह काल सूचक तो है ही, इस विधा के समाज से जुड़ाव और वैशिष्ट्य को भी परिभाषित करता है. नलिन जी मानते थे कि आधुनिक युग की विषमता, जटिलता और जीवन संघर्ष ने उपन्यास नामक विधा को जन्म दिया. पाश्चिमी उपन्यासों की तुलना में हिंदी उपन्यास पिछड़े हुए हैं, इसका क्या कारण है? नलिन जी के अनुसार इसका मुख्य कारण हमारी आज की सभ्यता का कम जटिल होना है. उन्होंने लिखा है “हिंदी उपन्यास का इतिहास किसी भी देश के इतिहास की तरह हिंदी भाषी क्षेत्र की सभ्यता और संस्कृति के नवीन रूप के विकास का साहित्यिक प्रतिफल है. समृद्धि और ऐश्वर्य की सभ्यता महाकाव्य में अभिव्यंजना पाती है, जटिलता, वैषम्य और संघर्ष की सभ्यता उपन्यास में..... हमारे उपन्यास यदि आज पश्चिमी उपन्यासों के समकक्ष सिद्ध नहीं होते तो मुख्यतः इसलिए कि हमारी वर्त्तमान सभ्यतया आज भी कम जटिल, कम उलझी हुई और कहीं ज्यादा सीधी-साधी है”. नलिन जी उपन्यास को जब ‘अंत्यज’ विधा कह रहे थे तब महाकाव्यों के समक्ष उसकी स्थिति अंत्यज जैसी ही थी. उन्होंने इस अंत्यज विधा द्वारा महाकाव्य के अपदस्त किए जाने का स्वागत किया. उन्होंने लिखा “शताब्दियों की प्रतीक्षा के बाद साहित्य का यह अंत्यज अपने छिपी संभावनाओं को लेकर अपनी सामर्थ्य का परिचय दे सका है. और अब तो अभिजात्य का भी दावा कर सकता है”.
        नलिन जी हिंदी में जिस तरह से उपन्यास का शास्त्र तैयार करने की कोशिश कर रहे थे उसी उन्होंने तरह प्रेमचंद की उपन्यास- कला के वैशिष्ट्य को भी रेखांकित करने की कोशिश की. वे कहते थे कि प्रेमचंद ने हिंदी उपन्यास के स्थापत्य को क्रन्तिकारी ढ़ंग से परिवर्तित कर दिया. वे यह भी मानते थे कि यह क्रांति अहिंसक किस्म की थी. ‘गोदान’ के बाद उन्होंने ‘मैला आँचल’ को मन से पसंद किया. ‘मैला आँचल’ को डिस्कवर करने का श्रेय नलिन विलोचन शर्मा को ही जाता है. जब ‘मैला आँचल’ पर किसी का ध्यान नहीं गया था, तब उन्होंने उसकी ओर हिंदी संसार का ध्यान दिलाते हुए लिखा कि “गोदान के बाद हिंदी उपन्यास में जो गत्यवरोध था वह ‘मैला आँचल’ के प्रकाशन से दूर हुआ.” उनकी यह भविष्यवाणी सच हुई और हिंदी संसार ने रेणु को सिर माथे पर बिठा लिया. नलिन जी के उपन्यास संबंधी चिंतन परख लेख और टिप्पणियाँ उनकी पुस्तक ‘हिंदी उपन्यास: विशेषतः प्रेमचंद’ में संकलित है. इन पंक्तियों के लेखक द्वारा संपादित ‘नलिन विलोचन शर्मा: रचना संचयन’ में भी उनकी आलोचनात्मक टिप्पणियों को देखा जा सकता है.

        नलिन विलोचन शर्मा हिंदी के ऐसे आलोचक हैं जो जाने तो गए पर माने नहीं गए. इसके मुख्य तीन कारण है. पहला कारण हिंदी साहित्य में शीतयुद्ध की छाया का प्रभाव और हिंदी संसार का दो शिविरों में बंटा होना है जिनसे नलिन जी की आलोचना समान दूरी बनाकर चल रही थी. दूसरा कारण है 46 वर्ष की अल्पायु में मृत्यु के कारण एक आलोचक के रूप में  फैलने और स्थापित होने का कम समय मिलना. और तीसरा कारण है उनकी रचनाओं का आज भी अनुपलब्ध होना. वे हिंदी में ‘सिग्निफिकेंट’ आलोचक तो थे ही,  नया आधार तैयार करने वाले हिंदी आलोचना के जरुरी अध्याय भी थे.