Wednesday, 22 November 2017

अब तो सारा मुल्क ही चंपारण है|

चंपारण सत्याग्रह का यह सौवाँ साल है!
बोल्शेविक क्रांति का भी यह सौवाँ साल है!
दोनों को एक साथ क्यों याद किया जाए? कहाँ बोल्शेविक क्रांति और कहाँ चंपारण सत्याग्रह! दोनों में तुलना लायक क्या है?
 बोल्शेविक क्रांति ने न सिर्फ रूस को बदला था, बल्कि पूरी दुनिया में समाजवादी बदलाव की आँधी ला दी थी. देखते-ही-देखते दर्जनों देशों में समाजवादी क्रांति हुई और पूँजीवादी देशों के शिविर के समानांतर समाजवादी शिविर अस्तित्व में आया जो पूँजीवादी व्यवस्था को चुनौती देने का मंच बना. समाजवादी शिविर का नेतृत्व यू.एस.एस.आर. कर रहा था, जो रूस और उसके अनेक गणराज्यों के जबरन मेल का परिणाम था. गैर समाजवादी शिविर वाले देशों में भी मार्क्सवाद और समाजवादी व्यवस्था के दीवाने लोगों की बड़ी संख्या थी. मार्क्सवाद से प्रेरित कम्युनिस्ट पार्टी या दूसरे नामों से पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष करने वाले समूहों की छोटी-बड़ी हलचलें तब आम बात थीं. संक्षेप में यह कि बोल्शेविक क्रांति के कारण जहाँ समतामूलक समाज बनाने के स्वप्न का सगुण-साकार होना संभव हुआ. वहीं पूरी दुनिया में उसकी धमक सुनाई पड़ने लगी.
          लेकिन सत्तर साल बाद ही यू.एस.एस.आर. ताश के पत्तों की तरह बिखर गया. वहाँ पूँजीवादी व्यवस्था कायम हो गई. गणराज्य स्वतंत्र होते गए और यह बात भी कही जाने लगी कि वे सोवियत साम्राज्य के अधीन थे. यू.एस.एस.आर. के बिखरने के साथ ही दूसरे समाजवादी देशों में भी जनता ने समाजवादी व्यवस्था उखाड़ फेंकी और पूँजीवादी व्यवस्था स्वीकार कर ली. चीन जैसे देश ने पूँजीवादी बाज़ार नीति अपनाकर किसी तरह अपनी प्राण की रक्षा की. अब वह कितना समाजवादी है, यह वही जाने! आज के दिन क्यूबा जैसे कुछ छोटे देशों में समाजवादी व्यवस्था टिमटिमाते दीये की तरह है!
          चंपारण सत्याग्रह वैसी परिघटना न थी. उसकी गूंज दुनिया में वैसी न सुनाई पड़ी, जैसी बोल्शेविक क्रांति की थी.  ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध जो भारत का स्वतंत्रता आन्दोलन था, उसकी दिशा उसने ज़रूर तय कर दी. भारत में गाँधी के प्रयोग की यह प्रथम प्रयोगशाला है, जिसने उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष की शब्दावली और उसके तौर-तरीके बदलकर रख दिए. चंपारण सत्याग्रह को गाँधी ने अपनी तरह से परिभाषित किया और गाँधी को भी वहाँ के अनुभवों ने भविष्य के मुक्ति-संघर्ष की राह दिखाई. इस आन्दोलन के दौरान संघर्ष के जो हथियार विकसित हुए, वे आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं; न सिर्फ भारत के लिए बल्कि सारी दुनिया के लिए. साउथ अफ्रीका के मुक्ति संग्राम में नेलसन मंडेला के लिए गाँधी और उनके सत्याग्रह का जो महत्त्व था, वह उसके धीरे-धीरे, पर दूरगामी असर का प्रमाण था.
          गाँधी 10 अप्रैल 1917  को कलकत्ता से सुवह 10 बजे पटना पहुंचे. यह उनकी पहली बिहार यात्रा थी. वे 1 फरवरी 1918 तक बिहार में रहे. 15 अप्रैल को वे चंपारण मुख्यालय मोतीहारी पहुँचे और 30 जनवरी 1918 को वे चंपारण से सत्याग्रह का संचालन करने के पश्चात् विदा हुए. दो दिन पटना में रहने के बाद बम्बई के लिए निकल पड़े, जहाँ से उन्हें अहमदावाद जाना था. नौ महीने बीस-बाईस दिन के करीब वे बिहार में रहे, जिसका मुख्य केंद्र चंपारण था. इस दौरान उन्होंने जिस ढंग से काम किया, जो जन-जागृति पैदा की, सामाजिक-राजनीतिक, शैक्षणिक और आध्यात्मिक जो आदर्श गढ़े, जितने समर्पित नेता-कार्यकर्ता तैयार किए तथा सत्याग्रह की सफलता की जो सघन तैयारी की, उसने स्वतंत्रता आन्दोलन की दशा और दिशा दोनों बदल दी. चंपारण सत्याग्रह के पहले कांग्रेस, गाँधी के ही अनुसार सिर्फ प्रस्ताव पास करने तथा जलसे करने वाली संस्था भर थी, वह चंपारण के बाद व्यापक आन्दोलन में बदलने लगी. चंपारण आने पर जो गाँधी मि. एम.के. गाँधी या मि. गाँधी थे, वे ‘गान्ही महात्मा’ या ‘महातमा जी’ कहलाने लगे. ‘बापू’ संबोधन भी यहीं प्रचलित हुआ. जो गाँधी चंपारण के एक अनपढ़ किसान राजकुमार शुक्ल के साथ बिहार की धरती पर अकेले गए थे, जहाँ वे किसी को जानते न थे, जहाँ की बोली-बानी से परिचित न थे, वही गाँधी लाखों लोगों के ‘बापू’ और ‘महात्मा’ बनकर चंपारण और बिहार से विदा हुए. व्यापक जन भागीदारी से सफल हुए सत्याग्रह के बाद गाँधी जब चंपारण से विदा हुए तो वे नए गाँधी थे. नई वेश-भूषा, नए संबोधन और नए संकल्प से युक्त. इन नौ-दस महीनों में गाँधी ने चंपारण को बदल दिया था और चंपारण ने गाँधी को.
          बिहार का उत्तरी-पश्चिमी इलाका, जिसके उत्तर में नेपाल और पश्चिम में उत्तर प्रदेश है, चंपारण कहलाता है. अब यह पूर्वी चंपारण और पश्चिमी चंपारण नाम से दो जिलों में बंट चुका है. पूर्वी चंपारण का मुख्यालय मोतीहारी और पश्चिमी चंपारण का बेतिया है. जब चंपारण एक था, तब उसका मुख्यालय मोतीहारी था. 15 अप्रैल 1917 को इसी मोतीहारी के छोटे-से स्टेशन पर गाँधी उतरे थे, जहाँ राजकुमार शुक्ल समेत उनका स्वागत करने के लिए बहुत से लोग  उपस्थित थे. वहाँ उमड़े जन-समूह  को देखकर गाँधी को चंपारण की पीड़ा और अपने से लोगों की जो उम्मीदें थीं, उसका अहसास हुआ. पटना में जब वे राजकुमार शुक्ल के साथ पाँच दिन पहले उतरे थे, तब स्टेशन पर उनके स्वागत में कोई नहीं था. शुक्ल उन्हें लेकर राजेन्द्र प्रसाद के घर गए, लेकिन उन दोनों के दुर्भाग्य से वे घर पर नहीं मिले. नौकरों ने उन्हें वहाँ टिकने न दिया. शुक्ल की कोई दूसरी  जान-पहचान नहीं थी. तब गाँधी को संकट काल में इंग्लैंड के अपने सहपाठी मित्र मजहरुल हक़ की याद आई. मजहरुल हक़ तब पटना के मशहूर बैरिस्टर थे. खबर मिलते ही वे अपने घर ले गए. गाँधी का दिल खोलकर स्वागत किया, लेकिन चंपारण मामले में उदासीनता बरती, बल्कि गाँधी को हतोत्साहित ही किया. पटना के बाद गाँधी का पड़ाव मुजफ्फरपुर में था. वहाँ स्थिति थोड़ी बेहतर थी. एल.एस. कॉलेज में पढाने वाले जे.बी. कृपलानी और उनके कुछ छात्र स्टेशन पर आगवानी करने आए थे. वहाँ कुछ वकीलों का गाँधी को साथ मिला. मुजफ्फरपुर तिरहुत कमिश्नरी का मुख्यालय था, जिसका एक जिला चंपारण था. मुजफ्फरपुर के कमिश्नर ने गाँधी को चंपारण जाने से मना कर दिया. बावजूद गाँधी वहाँ गए, क्योंकि उनका तर्क था कि मुझे अपने देश में कहीं जाने से कैसे रोका जा सकता है! वही गाँधी पटना और मुजफ्फरपुर की परेशानियों-रुकावटों को पार कर जब मोतीहारी पहुँचे तो वहाँ दूसरा नजारा था. उनके भीतर अपने चंपारण आने का संकल्प मजबूत होता गया.
          मोतीहारी में राजेन्द्र प्रसाद, ब्रजकिशोर प्रसाद, गोरख प्रसाद, धरणीधर प्रसाद आदि नामी वकीलों का भी उन्हें भरपूर सहयोग मिला. भोजपुरी न जानने वाले गाँधी को नील की खेती के साथ जनता के दुःख-दर्द और चंपारण की परेशानियों को समझना  इन वकील साथियों के बिना कठिन होता.तब बिहार में कांग्रेस नाम मात्र को सक्रिय थी. उसका कोई ख़ास संगठन भी नहीं था कि गाँधी को कोई सहयोग मिलता. वे वकील ही आगे चलकर प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी बनें. इसमें कई राष्ट्रीय स्तर के नेता बनें. राजेन्द्र प्रसाद ने बाद में वकालत छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े. जे.पी. कृपलानी ने भी प्रोफेसरी छोड़ दी. इन दोनों की पहचान स्वतंत्रता के पूर्व तो राष्ट्रीय स्तर पर थी ही, स्वतंत्र भारत में भी दोनों बड़े नेता के रूप में समादृत हुए. राजेन्द्र प्रसाद को स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान ‘देश रत्न’ कहा जाता था. वे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संविधान सभा के अध्यक्ष और 1952 से 1962 तक भारत के राष्ट्रपति बने. जे.बी. कृपलानी ने आज़ादी के बाद ‘प्रजा सोशलिस्ट पार्टी’ बनाई और भारत के लोकतंत्र को जनोन्मुख बनाने में अपनी भूमिका निभाई. ब्रजकिशोर प्रसाद के बिना बिहार में कांग्रेस के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती. उन्हीं के प्रयास से लखनऊ कांग्रेस में चंपारण संबंधी प्रस्ताव पेश हुआ था. ब्रजकिशोर बाबू की ही बड़ी बेटी से जय प्रकाश नारायण की बाद में शादी हुई. जय प्रकाश नारायण जो बाद में प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी आन्दोलन के शिखर नेता बने. मजहरुल हक़ बाद के वर्षों में गाँधी प्रभाव में सब कुछ छोड़-छाड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े. वे एक सफल बैरिस्टर थे. बैरिस्टरी से उन्होंने खूब पैसे कमाए थे. गाँधी जब पटना से मोतीहारी जाने के क्रम में उनसे मिले थे तो उनके मन में गाँधी की मोतीहारी यात्रा और उसके प्रयोजन को लेकर किंचित व्यंग्य भाव ही था. बाद के दिनों में वे ऐसे बदले कि मौलाना मजहरुल हक़ कहलाने लगे. अमीर का जीवन छोड़कर फकीर की तरह रहने लगे. उन्होंने पटना के बगल में दीघा गाँव की अपनी पैंतालिस एकड़ जमीन कांग्रेस को दान कर दी. गांधीवादी आदर्शों के अनुरूप वहाँ एक आश्रम बना जो ‘सदाकत आश्रम’ कहलाया. यही बिहार में स्वतंत्रता आन्दोलन का केंद्र बना. मजहरुल हक़ यहीं रहते थे. आश्रम का काम अगल -बगल के गाँवों से ‘मुठिया’ वसूलकर चलता था. राजेन्द्र प्रसाद भी बाद में इसी सदाकत आश्रम में रहने लगे. आज़ादी प्राप्ति के बाद वहीं से वे राष्ट्रपति भवन गए और वहाँ का कार्यकाल पूरा होने पर पुनः वहीं लौटे और मृत्युपर्यंत वहीं रहे. वह खपड़ैल मकान अब भी उसी रूप में है. सदाकत आश्रम में ही गाँधी की प्रेरणा से राष्ट्रीय विश्वविद्यालय ‘बिहार विद्यापीठ’ की स्थापना हुई. चरखा केंद्र समेत दूसरे गांधीवादी रचनात्मक कार्यों का केंद्र ‘सदाकत आश्रम’ बना. मौलाना मजहरुल हक़, राजेन्द्र प्रसाद और जय प्रकाश नारायण आज़ादी के दौरान बने लोकगीतों में गाँधी के साथ शामिल किए गए. यह उन नेताओं की लोक स्वीकृति का प्रमाण था. कहने दीजिए कि यह गाँधी के चंपारण सत्याग्रह का ‘बाइ प्रोडक्ट’ था.
          गाँधी को चंपारण ले जाने का एकमात्र श्रेय जिस व्यक्ति को है, वह राजकुमार शुक्ल थे. वे धोती मिरजई पहनने वाले सीधे-सादे अनपढ़ किसान थे, लेकिन उनकी जन चेतना और सामजिक सक्रियता ग़जब की थी. पत्राचार के जरिए वे चंपारण के निलहे गोरों के अत्याचार से तथा गरीब जनता की दुर्दशा से गाँधी को अवगत करा चुके थे.लखनऊ कांग्रेस के दौरान वे बड़ी मिहनत से गाँधी से मिले. उन्हें वहाँ की स्थिति की जानकारी दी और वहाँ चलने का आग्रह किया. गाँधी ने उन्हें आश्वस्त किया. बाद में गाँधी के बुलाने पर वे कलकत्ता गए और गाँधी को लेकर चंपारण लौटे. उनकी ही सक्रियता का परिणाम था कि मुजफ्फरपुर, मोतीहारी और चंपारण के दूसरे इलाकों में गाँधी गए और व्यापक जन आन्दोलन और जागरण की शुरुआत हुई. वे कोई साधन संपन्न व्यक्ति नहीं थे. उस जमाने में यातायात और संचार के साधन भी कम थे. फ़िर भी उस अनपढ़ किसान ने गाँधी के जरिए चंपारण की धरती पर वह करिश्मा कर दिया जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम का नया प्रस्थान बिंदु बना.
          चंपारण उपजाऊ भूमि का इलाका है. दूसरी फसलें भी होती हैं, लेकिन धान की खेती के लिए वह विख्यात है. धान की न जाने कितने किस्में वहाँ मिलती रही हैं. चंपारण के बासमती चावल का जोड़ पूरी दुनिया में मिलना कठिन है. स्वाद में तो वह बेजोड़ है ही, उसकी सुगंध का कोई जवाब नहीं! जब तक धान और दूसरी फसलों की खेती होती रही, तब तक कोई समस्या नहीं आई. समस्या तब आई जब परंपरागत खेती की जगह नकदी फसलों की खेती कराई जाने लगी. ऐसी नकदी फसलों में गन्ना के अलावा नील की फसल थी जिसकी खेती के लिए किसान विवश किए गए. नील की कंपनियों के मालिक अंग्रेज थे. ये ज्यादातर फ़ौज या प्रशासन के रिटायर्ड ऑफिसर्स थे. नील कंपनी के मालिक को स्थानीय जन ‘निलहा’ कहते थे. चंपारण नील के कारोबारी ये ‘निलहे’ तब सौ के ऊपर थे. सरकार से इन्हें नील के कारोबार का अधिकार मिला हुआ था. उन्होंने नील की फसल इकठ्ठा करने, उन्हें उबालने और नील की टिकिया बनाने के लिए बड़ी-बड़ी कोठियाँ कायम कर रखी थीं ; जिन्हें लोग ‘निलहा कोठी’ कहते थे. निलहा कोठी के अलावा इन कंपनी मालिकों के बड़े-बड़े फॉर्म हाउस थे जिनमें ये रहते थे. उसकी सेवा में हर कोठी में दर्जनों देसी  नौकर-चाकर  लगे  होते थे. इनके नील के कारोबार के लिए नील की खेती का काम किसान करते थे. प्रति बीघा तीन कट्ठे में नील लगाना चंपारण के किसानों के लिए बाध्यकारी था. इसे ही ‘तीन कठिया’ कहा गया. नील की खेती का काम हाड़-तोड़ मिहनत मांगता था. खेत की बहुत ही महीन जुताई करनी पड़ती थी. धान, गेंहूँ, मकई आदि की तुलना में नील के खेतों को बीज डालने के पूर्व तैयार करना, किसानों के लिए ऐसा काम था, जैसा इन्होंने कभी किया नहीं था. खेतों की जांच में कमी पाने पर निलहे या उसके मैनेजर और कारिंदे कड़ी सजा देते थे. नील के बीज विदेश से आते थे, जिसे किसान खरीदते या उधार लेते थे. नील के पौधे बहुत नाजुक होते थे और उसके रख रखाव में बहुत मिहनत और सावधानी बरतनी होती थी. इनकी सिंचाई के लिए पानी की बहुत जरूरत थी. फसल कटने पर जरा-सा पानी पड़ने पर फसल बर्बाद हो जाती थी. कार्तिक में नील के बीज डाले जाते थे और भादो तक इसकी अंतिम कटाई होती थी. जिस अनुपात में मिहनत थी उस अनुपात में किसानों को आमदनी नहीं होती थी. नील की खेती से किसान तबाह हो रहे थे. निलहों  के खिलाफ किसानों में असंतोष बढ़ रहा था. कुछ हिंसक झड़पें भी हुईं. इन हिंसक झड़पों में किसानों पर खूब मार पड़ी. पुलिस और प्रशासन प्रायः निलहों का साथ देता था. निलहों का अत्याचार जब सीमा पार करने लगा तो किसान जगने लगे और प्रतिरोध की आवाजें उठने लगीं. ऐसे ही किसानों के प्रतिनिधि के तौर पर राजकुमार शुक्ल उभरे.
          नील की खेती करने वाले किसान तो निलहों के शोषण के शिकार थे ही, उनसे अधिक शोषण के शिकार वे मजदूर थे जो नील के पौधों से नील की टिकिया बनाने का काम करते थे. नील के पौधे को बड़े-बड़े हौंदों में कमर तक पानी में डूबकर मड़ाई करना, फ़िर पौधों के डंठल  को अलग करना, उस पानी को कडाहों में उबालना और टिकिया बनाना इन मजदूरों का काम होता था. नील की टिकिया को बक्सों में पैक किया जाता था फ़िर उसे नदी के रास्ते पटना, कलकत्ता ले जाया जाता था, जहाँ से उसे विदेश भेजा जाता था. विदेश में वह कई गुना ऊँची कीमत पर बिकता था. एक तो इन मजदूरों का पूरा शरीर नीला पड़ जाता था, हाथ-पाँव सड़ जाते थे, दूसरे उन्हें सामजिक रूप से हिकारत के भाव से देखा जाता था. यह काम ज्यादातर पिछड़ी-दलित जातियों के मजदूर करते थे. ऐसे मजदूरों में झारखंड से आए आदिवासी मजदूर भी होते थे. किसानों से भी ज्यादातर इन मजदूरों का भयंकर शोषण था. कुल मिलाकर चंपारण के किसान और मजदूर दोनों नील की खेती से बर्बाद हो रहे थे और वे निलहे साहबों के अत्याचार सहने को अभिशप्त थे.
गाँधी ने अपने वकील साथियों के साथ बैठकें कीं और सारे तथ्य जुटाए. इसके अतिरिक्त उन्होंने वकील साथियों और राजकुमार शुक्ल सहित अन्य किसानों के साथ बेतिया और सुदूर ग्रामीण इलाकों की यात्राएँ कीं. कभी हाथी पर चढ़कर, कभी पैदल चलकर ये यात्राएँ पूरी हुई. गाँधी ने सीधे किसानों की बातें सुनीं; उनकी दुर्दशा देखी और अपने आन्दोलन यानी सत्याग्रह की रुपरेखा बनाई. वे आए तो थे पाँच-दस दिनों के लिए लेकिन रुक गए लगभग दस महीने. इसका कारण यह था कि सत्याग्रह के रास्ते ‘निलहा राज’ से मुक्ति के अतिरिक्त चंपारण सत्याग्रह के जो एजेंडे उन्होंने तय किए वे बिना वहाँ जमकर बैठे पूरे  नहीं होते. उन्होंने जैसे तय कर लिया था कि निलहा राज से मुक्ति के बहुत आगे भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की दिशा तय कर देनी है, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को प्रस्ताव पास करने वाली पार्टी से आगे व्यापक जन भागीदारी और जन आन्दोलन की पार्टी बनाना है. इसके लिए कांग्रेस का एक करोड़ ‘चवनिया मेंबर’ और पच्चीस लाख चरखा चलाने वाले सत्याग्रहियों का जत्था तैयार करने का विचार उनके मन में वहीं आया. हिन्दू-मुस्लिम एकता, छुआछूत का खात्मा, बुनियादी शिक्षा पर जोर, ग्राम स्वराज आदि अपनी बुनियादी धारणाओं का बीज- वपन गाँधी ने चंपारण में ही किया. इसके लिए उन्होंने संगठन बनाए, लोगों को जागरुक किया, पाठशालाएँ खोलीं, आश्रम बनाया, सत्याग्रहियों को नए आचार-विचार में ढाला और संघर्ष की सत्य-अहिंसा आधारित नई जमीन तैयार की. इस तरह चंपारण सत्याग्रह के रूप में उन्होंने भारत के भावी स्वतंत्रता संग्राम की खूबसूरत प्रस्तावना लिखीं. और अब कौन नहीं जानता कि हमारा स्वातंत्र्य-संग्राम उसी दिशा में चला जिस दिशा में गाँधी उसे ले गए.
          सत्याग्रह प्रतिरोध और संघर्ष के औजार के रूप में चंपारण में ही सगुण-साकार हुआ. एक प्रयोग वे दक्षिण अफ्रीका में कर चुके थे, लेकिन वहाँ उनके संघर्ष के लक्ष्य सीमित थे. चंपारण में सत्याग्रह को परिभाषित भी किया और आजमाया भी. अपने उस प्रयोग में वे सफल हुए और उनका सिक्का चल गया. उन्होंने सबसे पहले अपनी प्रतिरोधी राजनीति को सत्य और अहिंसा का आधार दिया. उस आधार को सादगी, श्रम, सफाई, निर्भयता, स्वावलंबन आदि स्वदेशी जीवन मूल्यों से मजबूत किया और सत्याग्रह को मुक्ति और प्रतिरोध के पवित्र हथियार के रूप में देश-दुनिया के सामने रखा.
          चंपारण सत्याग्रह का एक सीमित उद्देश्य था- निलहा राज से मुक्ति. यह लड़ाई गाँधी ने कानून के दायरे में लड़ी. उनका वकील होना और अंग्रेजी भाषा का जानकार होना इस कानूनी लड़ाई में बहुत काम का साबित हुआ. कलक्टर, कमिश्नर, मजिस्ट्रेट आदि अंग्रेज अधिकारियों से बात करते हुए गाँधी ने उन्हीं के अखाड़े में उन्हें चित्त कर दिया और उन्हें निरुत्तर कर दिया. चंपारण प्रवेश पर रोक लगाने वाले और चंपारण से निकल जाने की बात करने वाले अंग्रेज अधिकारियों को कुछ सूझ नहीं पाया कि यह आदमी जब असत्य नहीं कहता और अपनी बात के लिए हिंसा का सहारा नहीं लेता तो किस बिना पर इसे गिरफ्तार किया जाए या चंपारण से निकल जाने को कहा जाए ! इसलिए बहुत-से ईमानदार अंग्रेज गाँधी के प्रशंसक हो गए. लेकिन इसी के साथ यह तथ्य भी ध्यान में रखने का है कि व्यापक जन समर्थन और गाँधी के लिए लोगों में जो जज्बा था, उसकी अनदेखी ब्रिटिश सरकार नहीं कर सकती थी. निलहों का जुल्मी राज ख़त्म हुआ और चंपारण की जनता ने गीत गाया- ‘गईल निलहवा के राज...’.
          चंपारण में नील की खेती लगभग तीन दशक तक चली. 1890 के बाद और 1917 के आसपास तक. पहले बंगाल में इसकी खेती हो चुकी थी- लगभग पचास वर्षों तक. वहाँ भी लम्बा संघर्ष चला. तब निलहे भागे और उनमें बहुत-से चंपारण की ओर गए. 1917 में भी नील की खेती भले चंपारण में होती रही हो, लेकिन कृत्रिम नील का विकास यूँ भी नील की परम्परागत खेती को अप्रासंगिक बना रहा था. चंपारण आन्दोलन न होता तो भी देर-सबेर नील की खेती को बंद होना ही था. लेकिन समय से पूर्व ‘निलहा राज’ की समाप्ति से जो राष्ट्रीय और वैश्विक सन्देश गया उसका असर बहुत दूरगामी साबित हुआ. ‘निलहा राज’ की समाप्ति के साथ गाँधी ने सत्याग्रह और अपने रचनात्मक कार्यों की जो अतिरिक्त जमीन तैयार की, वहीं से भारत के स्वतंत्रता-आन्दोलन के इतिहास में गाँधी युग का प्रारम्भ हुआ. वह ‘अतिरिक्त’ क्या था?
          उस ‘अतिरिक्त’ में बहुत कुछ है. बुनियादी शिक्षा, सांप्रदायिक सौहार्द, स्वावलंबन, सफाई, खान-पान में छुआछूत की समाप्ति आदि. लेकिन उनका सबसे बड़ा काम   सत्याग्रह के लिए जनता को ‘अभय’ करना था. अभय वही होगा जो लोभ-लाभ रहित जीवन-पथ का अनुयायी होगा, जिसके न्याय का आधार सत्य होगा और अहिंसा प्रेम के जरिए उसे वह हासिल करेगा. इन्हीं के सहारे गाँधी ने चंपारण की जनता को अन्याय के प्रतिकार के लिए अभय होकर सत्याग्रही होना सिखलाया. गाँधी चंपारण गए थे तो उनके विदेशी साथी चार्ली और एंड्रूज भी बाद में वहाँ पहुँचे. उन गोरी चमड़ी वालों को अपने बीच पाकर वहाँ के लोगों को मानसिक राहत महसूस होती थी. जब वे अपने काम से जाने की तैयारी करने लगे तो लोग नहीं चाहते थे कि वे जाएँ. लोगों को लगता था कि ये रहेंगे तो निलहे हम पर अत्याचार नहीं करेंगे. गाँधी ने लोगों की यह कमजोरी महसूस की और अपने मित्र चार्ली और एंड्रूज को जाने दिया. शासन और निलहों का जो भय लोगों के दिलों में था, उसे वे दूर करना चाहते थे.
सत्याग्रही के लिए, गाँधी ने कहा कि, गरीबी का जीवन जीना अनिवार्य होगा. कम से कम में अपनी जरूरतें पूरी करना और सादा जीवन जीना उनका यह सन्देश सभी सत्याग्रहियों के लिए था. इसका व्यापक असर पड़ा. चंपारण में उनके साथ काम करने वालों पर उनके गरीबी वाले इस दर्शन का तो असर पड़ा ही, इसका व्यापक असर भारतीय राजनीति पर भी पड़ा. सादगी भारतीय राजनीति का आदर्श हो गई. सुभाष, पटेल, नेहरू  आदि नेताओं पर भी इसका असर पड़ा. चंपारण में अपने साथ काम करने वाले राजेन्द्र प्रसाद के वे प्रशंसक हो गए. इसकी पहली वजह थी उनकी विलक्षण स्मृति और लिखने-पढ़ने की विलक्षण प्रतिभा, लेकिन जिस चीज ने गाँधी को प्रभावित किया वह थी राजेन्द्र बाबू की सादगी. गाँधी से मुलाक़ात के पूर्व ही वे स्वदेशी के प्रेमी थे, यह बात गाँधीजी को बहुत अच्छी लगी. हालाँकि मि. जिन्ना और डॉ. अम्बेडकर ने गाँधी के सत्याग्रहियों के लिए इस गरीबी वाले दर्शन को कभी स्वीकार नहीं किया.
          गाँधी जब चंपारण गए तो काठियाबाड़ी वेश-भूषा में थे. नंगे पाँव रहते थे. अपने राजनीति गुरू गोपाल कृष्ण गोखले के शोक में उन्होंने तत्काल जूते-चप्पल पहनना छोड़ रखा था. उन दिनों खाने में सूखे मेवे, मूंगफली और शहद का वे प्रयोग कर रहे थे. चंपारण में रहते हुए इसे उन्होंने बदला और वहाँ के चावल खाने लगे. शुरू में उन्होंने देखा कि उनके साथ के जितने वकील साहबान और अन्य लोग हैं, सबके रसोइए अलग-अलग हैं. यह खान-पान में शुद्धता के आग्रह का और भेद-भाव का लक्षण था. गाँधी ने इसे बदला और सत्याग्रहियों के लिए सामूहिक खान-पान की आदत डाली. जन संपर्क के दौरान उन्हें चंपारण की जनता की भयावह आर्थिक-सामाजिक दुर्दशा का तो पता चला ही, गरीबी के एक ऐसे सच से उनका साक्षात्कार हुआ जिसने उन्हें हिलाकर रख दिया.इसी दौरान उन्हें एक ऐसी औरत मिली जिसके तन पर केवल एक साड़ी थी उसके अतिरिक्त कोई वस्त्र उसके पास नहीं था. इस कारण उसका नहाना-धोना बहुत मुश्किल था. यह देखने के बाद गाँधी को अपनी काठियाबाड़ी पगड़ी, लम्बी धोती और कुर्ता व्यर्थ लगने लगा.
          गाँधी की सक्रियता, श्रम करने की आदत, सादगी और पारदर्शी जीवन का चंपारण और वहाँ के साथियों पर गहरा असर पड़ा. वहीं वे ‘महात्मा जी’ कहलाने लगे. राजकुमार शुक्ल और उनके साथी इसी संबोधन से उन्हें संबोधित करते थे. बाद में कानपुर के ‘प्रताप’ अखबार ने भी  महात्मा जी लिखना शुरू किया.यह ठीक है कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बाद में विधिवत उन्हें ‘महात्मा’ कहना शुरू किया और वे मि. गाँधी से ‘महात्मा गाँधी’ हो गए, लेकिन शुरुआत चंपारण की जनता ने और कानपुर के अखबार ‘प्रताप’ ने की. यहीं रहते हुए हिंदी के राष्ट्रभाषा का ख्याल उनके मन में आया और रवीन्द्रनाथ से इस सम्बन्ध में उनका पत्राचार भी हुआ. गाँधी जब चंपारण गए थे, तब साबरमती आश्रम बन रहा था. बीच-बीच में वे न सिर्फ साबरमती की बल्कि दक्षिण अफ्रीका के अपने आश्रमों की भी चिंता करते रहे. कस्तूरबा और देवदास के चंपारण आने के बाद गाँधी के संबोधन में एक और परिवर्तन आया. देवदास माता-पिता को चूँकि ‘बा’ और ‘बापू’ कहते थे, इसलिए उनकी देखा-देखी दूसरे लोग भी ‘बा’ और ‘बापू’ कहने लगे. बाद के वर्षों में ये संबोधन दोनों के लिए चल निकले. इस तरह देखें तो निलहा समस्या समेत चंपारण सत्याग्रह के जरिए गाँधी ने कई अर्थों में परिवर्तनकारी भूमिकाएँ निर्मित कीं, साथ ही चंपारण में वे भी कई अर्थों में निर्मित हुए. गाँधी को देश की जमीनी हक़ीकत को सही अर्थों में समझने का अवसर चंपारण सत्याग्रह के दौरान ही मिला. चंपारण भारत में गाँधी की प्रथम प्रयोगशाला है जहाँ से तपकर और सिद्ध होकर वे निकले. इस तरह ठीक ही वह उनकी ‘सिद्धशाला’ भी है.
          1916 में राजकुमार शुक्ल को पीर मोहम्मद मुनीस का लिखा हुआ परचा जो ‘एक दुखी आत्मा’ की ओर से लिखा गया था और जो ‘प्रताप’ में छपा था, से पता चलता है कि निलहा राज की समाप्ति के लिए वे सभी कुछ वर्षों से संघर्षरत थे, लेकिन सरकार उनकी सुन नहीं रही थी. उन लोगों को एक सच्चे और कुशल नेतृत्व की जरूरत थी. लखनऊ में गाँधी से मुलाक़ात के बाद 27/02/1917 को राजकुमार शुक्ल का एक पत्र जो अनुमानतः पीर मोहम्मद मुनीस का लिखा हुआ था, गाँधी को मिला, जिसमें ‘मान्यवर महात्मा’ कहकर उन्हें संबोधित किया गया है. उसमें कहा गया था कि जिस तरह राम के चरण स्पर्श से अहिल्या तर गई, उसी तरह चंपारण में पैर रखते ही वहाँ की प्रजा का उद्धार हो जाएगा. वह पत्र बड़ा ही मार्मिक था. गाँधी अपने को रोक नहीं पाए. वे चंपारण गए. लेकिन सवाल यह है कि शुक्ल और उनके साथियों ने गाँधी को ही क्यों याद किया? उसका कारण उस पत्र के अनुसार साउथ अफ्रीका का उनका वह प्रयोग था, जो सफल साबित हुआ था और जिसकी गूंज चंपारण तक पहुँच चुकी थी. लेकिन सबसे बड़ा कारण गाँधी में उन सबका अटूट भरोसा भी था.
30 जनवरी 1918  को गाँधी चंपारण से विदा हुए. 15 अप्रैल 1917 को जब उन्होंने  चंपारण की धरती पर कदम रखा था, तब वे सर्वमान्य नेता नहीं थे, जब लौटे तो चंपारण ने उन्हें भारत के सबसे चमत्कारी व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया था और देश-दुनिया ने उन्हें उसी रूप में मान भी लिया. गाँधी के हाथ सामान्य से अधिक लम्बे थे. ऐसे ‘आजानुबाहु’ को जनता ‘विशिष्ट’ का दर्जा देती रही है. कहा जाता है कि भगवान राम भी ‘आजानुबाहु’ थे. अजानबाहु होने के कारण जो जन भरोसा गाँधी के प्रति था उसका आभास उन्हें था. हालाँकि इस तरह के चमत्कारों में उनका भरोसा नहीं था. लेकिन इसे एक संयोग ही माना जाएगा कि गाँधी एक चमत्कारी व्यक्तित्व बनकर  चंपारण से विदा हुए.
चंपारण प्रयोग के जरिए स्वाधीन भारत का जो सपना गाँधी ने देखा था और जिस सपने के साथ वे वहाँ से विदा हुए थे, वह था मशीनी और पूँजीवादी पश्चिमी सभ्यता का वैकल्पिक सपना- समता, श्रम और सौहार्द की ऐसी सभ्यता का सपना जिसका आधार प्रेम था, जिसमें मानव-जाति के साथ सभी जीवों और पर्यावरण के लिए सुरक्षा का बोध था. जिस पूँजीवादी पश्चिमी सभ्यता को वे ‘शैतानी सभ्यता’ कहते थे और जिसे भारतीय सभ्यता के विरुद्ध मानते थे, वही सौ साल बाद दुनिया को तो छोड़िए, ‘राष्ट्रपिता’ के रूप में पूजे जाने वाले गाँधी के भारत का भी आज डरावना सच है!अंग्रेज निलहों का राज 1917 में भले समाप्त हो गया था लेकिन इसे हम अपना विकास कहें या विनाश, अब ‘नए निलहे’ फ़िर से चंपारण की धरती पर उग आए हैं .चंपारण ही क्यों, अब तो पूरा भारत ही चंपारण है जिस पर नए निलहे फैलते जा रहे हैं !
2017 में यानी सौ वर्षों बाद भारत विषमता के जिस मुहाने पर खड़ा है,वहाँ  से 1917 के चंपारण को याद करने का अर्थ एक शोक गीत को याद करने –सा  है.  

(यह शोध और अकादमिक लेख नहीं है. स्मृति में कहीं अटके चंपारण सत्याग्रह पर एक ‘रनिंग कमेंट्री’ भर है. इन पंक्तियों के लेखक का गाँव चंपारण के बगल के जिला  में है. सहज रूप से चंपारण और उसका इतिहास कभी सच्चाई तो कभी किवदंती के रूप में उसके बोध के हिस्से रहे  हैं. उसे पटना के ‘सदाकत आश्रम’ में लगभग एक दशक तक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में रहने का भी मौका मिला है, जो मौलाना मजहरुल हक़, राजेन्द्र प्रसाद और ब्रजकिशोर प्रसाद जैसे चंपारण सत्याग्रह में सक्रिय भागीदारी निभाने वाले स्वतंत्रता सेनानियों की तपस्या भूमि रही है. इस कारण इन पंक्तियों के लेखक को, चंपारण सत्याग्रह से सीधे जुड़े लोगों से तो नहीं, उनके परिजनों-साथियों से उस दौर की स्मृतियों को साझा करने का मौका मिला है. यूँ ब्रजकिशोर प्रसाद, राजेन्द्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिंह आदि स्वतंत्रता सेनानियों के चंपारण सत्याग्रह पर लिखे हुए के साथ पत्रकार अरविंद मोहन और युवा आलोचक आशुतोष पार्थेश्वर और अन्य लोगों के शोधकार्यों का भी उसके बोध निर्माण  में महत्वपूर्ण योग है- लेखक)

Tuesday, 7 November 2017

मानवीय अंत:करण और मुक्तिबोध

नयी कविता के कवियों में मुक्तिबोध शीर्ष स्थान के अधिकारी अपनी कविताओं के कारण तो हैं ही, अपनी आलोचना के लिए भी हैं. उनका आलोचना साहित्य इतना विचारपूर्ण और समृद्ध है जितना उनके पहले नहीं था. इस अर्थ में उनकी महिमा से सहज तुलनीय एक ही नाम है- ‘अज्ञेय’ का. हालाँकि दोनों के साहित्य चिंतन की दिशाएँ अलग हैं. मुक्तिबोध ने हिंदी कविता और आलोचना को जितने नए पद और प्रत्यय दिए हैं वे उनके नए साहित्यिक सोच के प्रमाण हैं. ज्ञानात्मक संवेदना, संवेदनात्मक ज्ञान, फैंटेसी, सभ्यता-समीक्षा आदि नए प्रत्ययों ने आगे के साहित्य चिंतन को कितना प्रभावित किया है, यह कहने की जरुरत नहीं . इसी तरह का एक नया शब्द मुक्तिबोध के सन्दर्भ में है- ‘अन्तःकरण’.
                   मुक्तिबोध को ठीक-ठीक समझने के लिए इस ‘अन्तःकरण’ को भी समझना जरूरी है. एक मार्क्सवादी का अन्तःकरण की बात करना हमारा ध्यान भी खींचता है और हमें चकित भी करता है. यह ‘अन्तःकरण’ क्या है? मुक्तिबोध के पहले स्वतंत्रता आन्दोलन के महानायक महात्मा गाँधी के यहाँ ‘अंतरात्मा’ की चर्चा अक्सर मिलती है. वे कभी-कभी लोकप्रिय कार्यक्रमों और विचार-सरणियों से अलग ‘अंतरात्मा’ की पुकार पर अपना निर्णय लेते हुए और अपने समानधर्मा साथियों को असमंजस में डालते हुए पाए जाते हैं. गाँधी की अंतरात्मा की यह आवाज अपने साथियों को तो असमंजस में डालती ही थी, प्रेमचंद जैसे प्रशंसक लेखक को भी परेशान करती थी. अन्तःकरण की मौजूदगी के कारण मुक्तिबोध के भी समानधर्मा साथियों में असमंजस की स्थिति है. इस अन्तःकरण के कारण ही उनके यहाँ आत्मसंघर्ष का प्राचुर्य और प्राधान्य है. उनके इस आत्मसंघर्ष को उनके पूर्ववर्ती मार्क्सवादी कवि-आलोचक ठीक नहीं मानते और अवमूल्यित करते हुए उसे ‘मन-मंथन’ तक कह डालते हैं.
                     जिसे महात्मा गाँधी ‘अंतरात्मा’ कहते हैं, उसे ही मुक्तिबोध ‘अन्तःकरण’ कहते हैं. अंतरात्मा के साथ चूँकि आत्मा-परमात्मा का भी सन्दर्भ जुड़ा हुआ है इसलिए वे अंतरात्मा की जगह अन्तःकरण का प्रयोग करते हैं. यूँ तो अन्तःकरण संस्कृत का शब्द है और भारतीय सन्दर्भ में इसका प्रयोग होता रहा है. लेकिन मुक्तिबोध इसे आधुनिक और सेक्युलर सन्दर्भ प्रदान करते हैं. कहा जा सकता है कि उनका यह अन्तःकरण जो भले-बुरे का विवेक प्रदान करने वाली भीतरी इन्द्रिय शक्ति है, अंतरात्मा का ही अधिक आधुनिक और सेक्युलर रूप है. सच तो यह है कि अन्तःकरण किसी भी व्यक्ति की सांस्कृतिक उपलब्धियों का सार होता है. इसलिए मुक्तिबोध वैचारिक चेतना के साथ अन्तःकरण पर भी जोर देते हैं. यद्यपि उनका एक प्रसिद्ध निबंध है- “अंतरात्मा और पक्षधरता’ जिसमें वे अंतरात्मा का प्रयोग अन्तःकरण के अर्थ में ही कर रहे हैं. उन्हें आशंका थी कि उन्हीं के समानधर्मा लोगों को यह बात पसंद नहीं आएगी और वे लोग उन्हें धिक्कारेंगे भी. अपने उस निबंध में वे लिखते हैं: “हाँ, यह सही है कि मेरी जैसी अंतरात्मा वाले लोग मुझे धिक्कार भी सकते हैं. मेरे ही शिविर में मेरी ही हत्या हो सकती है, वास्तविक तिरस्कार हो सकता है, हुआ है, होता रहा है, होता रहेगा- संभवतः” मुक्तिबोध के यहाँ बौद्धिकता के आग्रह के साथ अन्तःकरण पर जोर का जो तनाव है, वह महत्त्वपूर्ण है और उसे समझने की जरूरत है.
                      मुक्तिबोध का साहित्य जितनी जगत-समीक्षा है, उतनी ही आत्म-समीक्षा भी. इन दोनों के सम्यक योग के कारण ही उनका साहित्य पाठकीय भरोसा अर्जित करता है और हमें उनकी कविता अपने अन्तःकरण की आवाज लगती है जिसमें नैतिक आवेश-सा है.जगत ज्ञान जब अन्तःकरण के इलाके से गुजरता है तभी वह महत्त्वपूर्ण और भरोसे का साहित्य बनता है. कई बार हमारी वैचारिक चेतना और भले-बुरे का विवेक करने वाले अन्तःकरण के बीच पटरी नहीं बैठती. जो लोग वैचारिक चेतना को प्रमुखता देते हैं, वे इन दोनों के सामंजस्य की चिंता नहीं करते. वे ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ होने के दबाव के तहत रचते हैं और अन्तःकरण की आवाज की अनसुनी करते हैं. मुक्तिबोध के यहाँ वैचारिक चेतना और अन्तःकरण में द्वंद्व है. उनका साहित्य उनके इसी संघर्ष का परिणाम है. इसलिए यह अकारण नहीं है कि उन्हें पहचानने में उनके समानधर्मा साथी प्रारम्भ में विफल रहे. तब उनको पहचानने वाले ज्यादातर वे लोग थे जो गैर-प्रगतिशील थे. प्रगतिशीलों में परसाई और नामवर सिंह जैसे लोग कम थे. ‘अन्तःकरण का आयतन’ शीर्षक कविता मुक्तिबोध ने जैसे अपनी ही मनःस्थिति को व्यक्त करने के लिए लिखी हो या अपने समय के मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी समाज पर टिपण्णी करते हुए लिखी हो लेकिन यह तय है कि वे उस द्वंद्व को महत्त्व दे रहे हैं जो चेतना और अन्तःकरण के द्वंद्व का प्रतिफल है. उनकी अपेक्षा यह है कि मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी के अन्तःकरण को विशाल होना चाहिए जिसमें शोषित-पीड़ित मनुष्यता का दुःख-दर्द समा जाए लेकिन वह संकीर्ण और छोटा है. कविता का प्रारम्भिक अंश उस दृष्टि से द्रष्टव्य है:
अन्तःकरण का आयतन संक्षिप्त है,
आत्मीयता के योग्य
             मैं सचमुच नहीं!
पर, क्या करूँ,
यह छाँह मेरी सर्वगामी है !
हवाओं में अकेली सांवली बेचैन उड़ती है
कि श्यामल-अंचला के हाथ में
              तब लाल कोमल फूल होता है
चमकता है अँधेरे में
प्रदीपित द्वंद्व-चेतस एक
               सत-चित-वेदना का फूल

                        न सिर्फ मुक्तिबोध बल्कि सम्पूर्ण नयी कविता का अधिकांश मध्यवर्गीय बोध की कविता है. मुक्तिबोध इस अर्थ में विशिष्ट हैं कि वे मध्यवर्ग में निम्नवर्गीय बुद्धिजीवी जमात के आत्मसंघर्ष को प्रमुखता देते हैं. इसे ही आलोचक उनका आत्मसंघर्ष कहते हैं जिसकी चर्चा मुक्तिबोध के  साहित्य चिंतन में तो है ही, उनकी कविताओं में भी है. इस आत्मसंघर्ष के साथ जगत-संघर्ष की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है. जगत-संघर्ष की दृष्टि या विचारधारा मनुष्य विभिन्न स्रोतों से प्राप्त करता है और चेतना संपन्न बनता है, लेकिन उसका अन्तःकरण तो उसके संस्कार, उसके अनुभव, पारिवारिक-सामाजिक परिवेश आदि से निर्मित होता है. एक लम्बी प्रक्रिया के दौरान भले-बुरे का विवेक करने वाला भीतरी इन्द्रिय बोध ही अन्तःकरण का रूप ग्रहण करता है. मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष उनके अन्तःकरण और बाह्य संघर्ष के द्वंद्व का प्रतिफल है जिसके कारण वे हिंदी कविता का विशिष्ट स्वर बनकर उभरते हैं. अपने उसी निबंध में वे कहते हैं: “मेरी अंतरात्मा ने जीवन यात्रा में जिन लक्ष्यों और भाव-दृश्यों को प्राप्त किया है, जिस भावधारा का विकास किया है, उसमें महत्त्वपूर्ण सचाईयाँ भी हैं. उस अंतरात्मा ने जिन विशेष आग्रहों का विकास किया है, वे उनके लक्ष्यों से प्रसूत आग्रह हैं. वे प्रयोजन हैं. वे अंतरात्मा के संवेदनात्मक उद्देश्य हैं, वे कर्म-प्रक्रिया के लक्ष्य हैं- चाहे वह कर्म-प्रक्रिया कलाकार का कर्म ही क्यों न हो. उन उद्देश्यों और प्रयोजनों, उनसे प्रसूत आग्रहों और अनुरोधों से, मैं तटस्थ नहीं हूँ. मैं अपनी आत्मा का पक्षधर हूँ. इसलिए आप ही आप मेरे अनजाने मेरा अपना एक शिविर बन जाता है, चाहे उसे मैं शिविर कहूँ या न कहूँ, भले ही मैं उस शिविर के सदस्यों के भौतिक अस्तित्त्व से अपरिचित रहूँ.” इस तरह मुक्तिबोध की अंतरात्मा का अर्थ पक्षधरता है. पक्षधरता अपनी तरह से सोचने-समझने वाले लोगों की, जिनसे उनका शिविर है.
                             अंतःकरण या अंतरात्मा मुक्तिबोध के लिए बहुत भरोसे की है. वे उसकी आवाज सुनते हैं, वे उसके निर्णय को मानने के पक्ष में हैं. अंतरात्मा के निर्णय का अर्थ सिर्फ अपना निर्णय नहीं, बल्कि वह सामूहिक सत्य है जो देश-दुनिया में फैले उन जैसे लोग सोचते हैं. इसलिए उस सत्य के खोज की प्रक्रिया सपाट नहीं, द्वंद्वात्मक है और वे द्वंद्व के बिना अन्तःकरण की भी कल्पना नहीं करते. वे मानते हैं कि संसार का सत्य सबके लिए खुला है. वे लिखते हैं: “अगर मैं पहचान जाऊं कि उसने यह सही-सही, ये सच्ची-सच्ची बातें कही हैं, तो मैं उन्हें उठा लूँगा. जिस प्रकार यथार्थ का एक अंश मेरे सम्मुख खुला हुआ है, उसी प्रकार यथार्थ का एक अंश उसके सम्मुख भी खुला हुआ है.” विरोधी शिविर से सीखने की इस प्रक्रिया को वे द्वंद्व मानते हैं, लेकिन वे इस बात के लिए सावधान करते हैं कि द्वंद्व कहीं झूठे न हों. वे मानते हैं कि बौद्धिक अहंकार से ग्रस्त लोग झूठे द्वंद्व का सृजन कर लेते हैं. वे लिखते हैं: “अहंकार अपना एक इंद्रजाल खड़ा करता है. तर्क और युक्ति, सही और आधी सही बातों का एक अस्त्रागार उनके पास है. लेखक अपनी लेखनी से भी अपने अहंकार की तुष्टि करता है. वह खुद ही अपनी आँखों के सामने कैसा-कैसा अभिनय करता है, तन्मय होकर.” इस बौद्धिक अहंकार से, चाहे वह जिस शिविर के व्यक्ति का हो, वे बचना चाहते हैं. वे मानते हैं कि साहित्य या कला का सृजन युक्तियों का कोई संग्राम नहीं है. वह अपनी ही तरह के लोगों के अन्तःकरण की सृजनात्मक शक्ति है.जहाँ वह नहीं है और जहाँ तर्कों से भरा बौद्धिक अहंकार है उससे वे अपने को पराजित होने की हद तक बचाना चाहते हैं. उसी निबंध में उनके शब्द हैं: “मैं इससे बचना चाहता हूँ, और पराजित हो जाने में ही अपना कल्याण समझता हूँ. क्योंकि पराजित हो जाने से ही कोई विजित नहीं हो सकता.” बौद्धिक अंहकार के सामने पराजित हो जाने की जो यह स्वीकारोक्ति है वह उसी व्यक्ति की हो सकती है जिसके पास ज्ञान के साथ अन्तःकरण के आयतन का विस्तार भी हो. इसलिए जिनके अंतःकरण का आयतन विस्तृत नहीं, संक्षिप्त है या जो अंतःकरण की नहीं सुनते, जो सिर्फ तर्कों का वकीली कारोबार करते हैं और लकीर के फ़क़ीर हैं, ऐसे लोगों को वे जड़वादी कहते हैं और लिखते हैं: “जड़वाद कई तरह से प्रकट होता है. वह अध्यात्म का जामा पहनकर आता है, और भौतिकवाद का भी.” इस तरह जड़वाद को व्यक्तित्व और ज्ञान के विकास में बाधक मानते हुए वे अंतरात्मा के प्रश्न पर आते हैं और मानते हैं कि आत्मचेतना का अर्थ विश्वचेतना है. उनके शब्द हैं: “अंतरात्मा का प्रश्न, अपनी जीवन यात्रा में विकसित तथा अर्जित उस मूलभूत यथार्थ-बोध तथा मानव मूल्यों की तत्पर क्रियाशीलता से लगा हुआ है कि जिस मूलभूत यथार्थ-बोध के बिना, और उन मानव मूल्यों के बिना अपने आप को एक ही साथ विश्वचेतन और आत्मचेतन नहीं कह सकते.”
          अन्तःकरण के रूप में मुक्तिबोध सृजन के लिए ज्ञान के साथ एक ऐसे स्पेस की ओर इशारा करते हैं जो भारत की विकसनशील चिन्ताधारा के मूल में है. उनका यह अन्तःकरण ही है जिसके कारण उनकी हर रचना में एक तड़पती हुई ऐसी बेचैनी है जो दूसरों को अपनी लगने लगती है. उनका यह अन्तःकरण कभी अंतरात्मा के रूप में तो कभी आत्मालोचन के रूप में और कभी अंतर्द्वंद्व के रूप में उनके सृजन में शुरू से आखिर तक मौजूद है. इस कारण वे नयी कविता के दौर में प्रगतिशील और गैर-प्रगतिशील शिविरों में समान आकर्षण के केंद्र बनते हैं. इस अन्तःकरण के कारण वे अपने पूर्ववर्ती प्रगतिशीलों से संघर्ष करते हुए अपने को अलग करते हैं और नयी साहित्य-दृष्टि के साथ सामने आते हैं. श्रीपाद अमृत डांगे के नाम अंग्रेजी में जो उनका पत्र है  उसका सार यही है कि नयी रचनाशीलता को समझने-सराहने में पुरानी प्रगतिशील अवधारणा अपना अर्थ खो चुकी है. उनका यह अन्तःकरण उन कलाप्रेमियों से भी उन्हें पृथक करता है जो अपनी अंतरात्मा की आवाज तो सुनते हैं लेकिन समाज की पुकार उन्हें नहीं सुनाई पड़ती. वे उनकी समाज विमुखता की आलोचना करते हैं लेकिन उनकी कला-चेतना की तारीफ भी करते हैं : “प्रगतिवादियों की तुलना में निःसंदेह ये नए लोग अधिक कला-मर्मज्ञ थे.”  इसलिए मुक्तिबोध का अन्तःकरण नयी कविता के दौर में उन्हें वह विशिष्ट दर्जा देता है, उनके साहित्य को वह नयी चमक देता है, जो दूसरों के पास नहीं है.
          लेखक के चरित्र और ईमानदारी का सवाल मुक्तिबोध के यहाँ प्रमुख है, जिसकी चर्चा प्रगतिवादी जमात में प्रायः नहीं होती. असल में यह सवाल वही उठा सकता है जिसके पास विकासोन्मुख विश्व-दृष्टि और विशाल आयतन वाला निष्कलुष, साथ ही निजी लाभ-लोभ रहित, अंतःकरण हो.यह सवाल भी वही उठा सकता है जो संगठन और विचारधारा के अतिक्रमण का साहस करता है और अन्तःकरण की आवाज सुनता है. कहना न होगा कि संसार में ऐसे ही लोगों ने महान रचना और कला को जन्म दिया है. अंतःकरण के कारण लेखक आत्मालोचन के लिए हमेशा सजग और तत्पर रहता है. लेकिन विशाल आयतन वाले अंतःकरण के अभाव में किसी महान विचारधारा के साथ होने के बावजूद अपने चरित्र और विचारधारा प्रेरित कार्यक्रमों की आलोचना का जोखिम बहुतेरे लेखक नहीं उठाते. इस कारण उनके चरित्र  या विचारधारा में गहरे अंतर्विरोध का पैदा होना स्वभाविक है. तब लेखक अंतर्विरोधों की अनदेखी करता है और महान विचारधारा के साथ होने के अहंकार में जीने लगता है. उसे पता भी नहीं होता कि वह एक ऐसी ‘हिपोक्रेसी’ का शिकार है जिसके कारण उसकी महान विचारधारा भी जनता के बीच प्रश्नांकित हो रही है. ऐसा बाहर भी हुआ है, भारत में भी और हिंदी में भी.इसलिए मुक्तिबोध जोर-शोर से लेखकों के चरित्र और ईमानदारी का सवाल उठाते हैं. उनके शब्द हैं - “समीक्षक को भी चरित्र की उतनी ही आवश्यकता है जितनी कि लेखक को ईमानदारी की.” ध्यान में रखने लायक बात यह है कि चरित्र और ईमानदारी- इन दोनों जीवन मूल्यों के प्रति वे स्वयं भी बहुत आग्रहशील थे.यहाँ यह कहना जरुरी नहीं कि चरित्र और ईमानदारी की अंतःकरण के निर्माण में क्या भूमिका है. विचारधारा की भूमिका यदि मनुष्य को सामाजिक रूप से नैतिक बनाने में है तो अंतःकरण की निजी रूप से नैतिक बनाने में. यूँ दोनों भूमिकाएं एक दूसरे के यहाँ आवाजाही भी करती हैं. इसलिए वे लेखक के लिए सही विश्वदृष्टि से जुड़ी विचारधारा और विस्तृत आयतन वाले अंतःकरण दोनों को आवश्यक मानते हैं. ऐसा नहीं होता तो ‘अँधेरे में’ समेत मुक्तिबोध की उन महत्त्वपूर्ण कविताओं का सृजन संभव नहीं था जिनमें ज्ञान और अन्तःकरण का भरपूर द्वंद्व है. ‘अँधेरे में’ कविता का पागल द्वारा गाया हुआ जो गीत है वह आदर्श और यथार्थ के गहन टकराव का ही परिणाम है.
                        मुक्तिबोध ने जब लेखक के चरित्र और ईमानदारी का सवाल उठाया था तब उनके सामने भारत का उभरता हुआ विशाल मध्यवर्ग था, उस मध्यवर्ग का बुद्धिजीवी वर्ग था, जिसकी कथनी और करनी में गहरी फाँक थी. उनके अनुसार लाभ-लोभ के आकर्षण में फँसा हुआ बुद्धिजीवी साहित्य की जनवादी आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सकता. मुक्तिबोध इस मध्यवर्ग पर बार-बार लिखते हैं, उसकी कमजोरियों को रेखांकित करते हैं और अंततः उसी से उम्मीद भी करते हैं कि एक दिन वह वास्तविकता को समझेगा और सर्वहारा के पक्ष में खड़ा होगा. उनके सामने स्वतंत्रता आन्दोलन और भारतीय नवजागरण के गर्भ से पैदा हुआ मध्यवर्ग था, जिसके भीतर परिवर्तन की चेतना थी. वह जाति और संप्रदाय से मुक्त भारत का सपना देखता था. उसके एजेंडे में कहीं न कहीं समतावादी-समाजवादी सपना भी था. आज के मध्यवर्ग से वह हर तरह से भिन्न था. आज नए वेतनमानों से अघाया मध्यवर्ग है जिसके सपने में दूर-दूर तक वे पुराने एजेंडे नहीं हैं. यह उपभोक्तावादी समय का मध्यवर्ग है जिसका पहला और अंतिम सपना अतिशय भोग है. उपभोक्ता समाज में बदल चुके आज के मध्यवर्गीय व्यक्ति-बुद्धिजीवी के लिए जातिवाद-सम्प्रदायवाद कोई मुद्दा नहीं है. तेजी से पैर पसारते धार्मिक फांसीवाद को वह कोई खतरा नहीं मानता, उसे अपने भोग से मतलब है. मुक्तिबोध को अपने ज़माने के मध्यवर्गीय व्यक्ति के अंतःकरण का आयतन ‘संक्षिप्त’ लगा था. आज उसके पास शायद अंतःकरण है ही नहीं. एक तरफ यह मध्यवर्ग है और दूसरी तरफ वह विशाल वंचित समाज है जिसके दुखों का कोई अंत नहीं है. मुक्तिबोध जब रचनाकार के चरित्र-ईमानदारी की बात करते हैं तब समाज में बढ़ती असमानता की खाई पर उनकी नजर है और रचनाकार से उनकी अपेक्षा है कि इसके चित्रण में वह किसी भटकाव का शिकार नहीं हो. आज लेखक के चरित्र और ईमानदारी पर उनके समय से अधिक संकट और संदेह है. तब प्रश्न है कि मुक्तिबोध को कैसे याद करें ? उनकी एक कविता है, ‘गुंथे तुमसे, बिंधे तुमसे’, जिसमें ‘विचारों की वेदना’ में अपने सरीखे जन से जुड़ने का हृदयग्राही चिंतन है. कविता का एक अंश देखा जा सकता है :
वेदना में हम विचारों की
गुंथे तुमसे,
बिंधे तुमसे,          
...कोई नहीं थे हम तुम्हारे किन्तु
सहचर हो गए
चाहे जलधि, पर्वत, हजारों मील की दूरी
हमारे बीच में आ जाए,
फ़िर भी मानसिक अदृश्य सूत्रों से
हमारी आत्माएँ परस्पर बात करती हैं.. 
यहाँ ध्यान की बात है कि विचारों का संबंध भले मस्तिष्क से हो वेदना का संबंध तो आत्मा से ही है. इस आत्मा को नजरअंदाज करके विचारों की वेदना को नहीं समझा जा सकता.
           मुक्तिबोध मार्क्सवादी थे, लेकिन उनकी कविताएँ प्रगतिशील शैली की न थीं. उनकी काव्य-भाषा, प्रतीक, बिम्ब, अभिव्यंजना प्रणाली आदि प्रगतिशील धारा के मेल में न थीं. उनमें निजता, आत्मसंघर्ष, अन्तःकरण आदि पर भी जोर था. इस कारण उनकी कविताओं की प्रायः उपेक्षा होती थी और उनमें अनेक कमियाँ भी देखी जाती थीं. ऐसी स्थिति में उनकी जो मनः स्थिति थी उसका बड़ा ही व्यंजक चित्र उन्होंने अपनी एक कविता में खींचा है:
कहते हैं लोग-बाग़ बेकार है मेहनत तुम्हारी सब
कविताएँ रद्दी हैं.
बेडौल हैं उपमाएँ, विविध है कल्पना की तस्वीरें
उपयोग मुहावरों का शब्दों का अजीब है
सुरों की लकीरों की रफ्तार टूटती ही रहती है.
शब्दों की खड़-खड़ में खयालों की भड़-भड़
अजीब समां बाँधे हैं!!
गड्ढों भरे उखड़े हुए जैसे रास्ते पर किसी
पत्थरों को ढोती हुई बैलगाड़ी जाती हो.
माधुर्य का नाम नहीं; लय-भाव-सुरों का तो काम नहीं
कौन तुम्हारी कविताएँ पढ़ेगा..
अज्ञेय द्वारा सम्पादित ‘तार सप्तक’(१९४३) में तो वे थे ही, फ़िर उनकी यह मनोरंजक शिकायत 1950 के दशक में किनसे है? प्रगतिवादियों से? या किसी और से? वे जो भी हों, इतना तय है कि उनकी कविताओं को लेकर तब बहुत से किन्तु-परन्तु थे. संभव है उस किन्तु-परन्तु में यह अंतःकरण भी हो जो तब लोगों को गुजरे ज़माने का लगता हो. आज भी मुक्तिबोध के कीर्तनिये उनके सन्दर्भ में अंतःकरण की कितनी चर्चा करते हैं ! 
                        मुक्तिबोध के लिए विचारधारा जितने महत्व की है उससे कम अंतःकरण नहीं. क्या रचना और क्या आलोचना हर जगह वे अंतःकरण के धरातल पर विचारधारा को रचना में रखकर देखते  हैं. ‘समीक्षा की समस्याएँ’ शीर्षक अपने प्रदीर्घ निबंध में वे विचारधारा के साथ अंतःकरण की जरुरत पर भी बल देते हुए दिखाई देते हैं. हमारा जितना निर्माण बाहरी समाज में होता है उतना ही परिवार में भी. मुक्तिबोध का मानना है : “हमलोग परिवार और पारिवारिक जीवन को साहित्य के अध्ययन में विशेष महत्व ही नहीं देते हैं. आज भी व्यक्ति का विकास बाह्य समाज में तो होता ही है,वह परिवार में भी होता है.परिवार व्यक्ति के अंतःकरण के संस्कार में प्रवृत्ति विकास में पर्याप्त योग देता है.” वे यह भी मानते हैं कि परिवार के भीतर नए और पुराने तथा उदार व अनुदार दृष्टियों के बीच टकराहट चलती रहती है. उस टकराव में अंततः नई और उदार दृष्टियाँ विजयी होती हैं जिनका हमारे ऊपर प्रभाव पड़ता है. इस तरह से हमारे भीतरी जगत के निर्माण में बाहर के साथ परिवार के भीतर की भी भूमिका है. बाहर और भीतर के द्वंद्व के स्वरुप हमारा जो अंतःकरण निर्मित होता है, रचना में उसकी भूमिका से कैसे इंकार किया जा सकता है ! इसलिए मुक्तिबोध काव्य रचना के प्रसंग में कहते हैं, “....कविता एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है. इस अर्थ में वह सांस्कृतिक प्रक्रिया है कि लेखक अपने जाने-अनजाने अपने अंतःकरण में संचित भावावेगों के साथ जीवन-मूल्य भी प्रकट कर रहा है – गूँज की एक अनुगूँज के रूप में.”
                  अंतःकरण की भूमिका वैचारिक रूढ़ियों से लेखक को मुक्त करने में है. ऐसा करके वह रचना की नई भावभूमि में प्रवेश करता है. रूढ़ियों के अतिक्रमण का साहस लेखक तभी कर पाता है जब वह अंतःकरण की सचाई को सुनता है. किसी ज़माने में प्रगतिवादियों ने प्रयोगवाद को खूब लांक्षित किया. अब भी यह सिलसिला बंद नहीं हुआ है. लेकिन मुक्तिबोध इस प्रवृत्ति को ठीक नहीं मानते. वे लिखते है : “किसी ज़माने में प्रयोगवादी कविता प्रगतिवाद के अधिक निकट थी. किन्तु प्रगतिवादियों ने उसकी खूब उपेक्षा की.” जो उन से भिन्न है उसे प्रगतिवादी अपना विरोधी मानते हैं. इस प्रवृत्ति पर भी मुक्तिबोध ने टिप्पणी करते हुए लिखा : “जो अपने से भिन्न है, वह अपना विरोधी भी है. जो काव्य के अपने माने हुए ढांचे में जमा हुआ नहीं है, वह ग़लत भी है, असुंदर भी है, प्रतिक्रियावादी है. इस प्रकार का सोच-विचार समीक्षकों की मानव यथार्थ से दूरी-लम्बे चौड़े फ़ासले- सूचित करती है.” मुक्तिबोध आगे प्रगतिवादियों के व्यवहार पर टिपण्णी करते हुए यह भी कहते हैं- “....वे मुक्ति-संघर्ष,राष्ट्र-प्रेम,प्राकृतिक-सौन्दर्य,नारी-सौन्दर्य,यथार्थ-आलोचन-भावना,आशा,उत्साह तथा तत्समान अन्य भावों को प्रगतिशील समझते हैं किन्तु शेष सब भावनाएँ,जैसे,भयानक-ग्लानि,आशा-अनाशा,वैफल्य तथा इसी श्रेणी की अन्य भावनाएँ,प्रतिक्रियावादी हैं.” इसलिए मुक्तिबोध मानते हैं कि सिद्धांतों को साहित्य पर लागू करते वक्त जीवन-तथ्यों की वास्तविकता को दृष्टि से ओझल नहीं करना चाहिए. उनके अनुसार जिन प्रगतिवादियों ने ऐसा किया, वे ‘सिद्धांत-व्यवस्था के भीतर अटक गए थे.’
                       मार्क्सवादी मुक्तिबोध यदि प्रगतिवादियों की इस तरह कड़ी आलोचना कर रहे हैं तो इसलिए कि वे खुद ‘सिद्धांत-व्यवस्था’ के भीतर अटके हुए नहीं हैं. उनकी दृष्टि ‘जीवन-तथ्यों की वास्तविकता’ पर भी है. जीवन और रचना में यह काम वही करेगा जो जरुरत पड़ने पर ‘सिद्धांत-व्यवस्था’ का अतिक्रमण करेगा. इस अतिक्रमण का साहस वही कर सकता है जिसे अपने अंतःकरण पर भरोसा हो. इस कारण मुक्तिबोध में जो आत्मसंघर्ष है उसे व्यक्तिवाद समझने की भूल न करना चाहिए. वे स्वयं अपनी एक कविता में आत्मसंघर्ष को व्यक्तिवाद कहने वालों को ‘आत्मग्रस्त मूर्ख’ कहते हैं| जो मुक्तिबोध यह मानते हैं कि ‘कभी अकेले में मुक्ति नहीं मिलती / यदि वह है तो सबके ही साथ है’ उस मुक्तिबोध पर व्यक्तिवाद का आरोप कैसे लग सकता है! ‘चम्बल की घाटी’ में एक अंश है जिसमें आत्मा की आवाज़ को दबा कर सिद्धांतों के सहारे अपने को सही बतलाने वालों पर कड़ी टिपण्णी की गयी है-
ऐसी जो अँधेरे में पड़ी हुई
किरनों की भीतरी गुत्थी
चिलकती- लौंकती,
कहती है-
‘हमने तो पहले भी कहा था|
पर, तुम
अनसुनी करते हो आदतन!’
किन्तु, वे जड़ता के पंजे
अपनी ही स्तिथियों का औचित्य
करते हैं स्थापित;
विशेष दृष्टि से चरित्र-विश्लेश
निज-इतिहासिक-विवरण
प्रस्तुत करते हैं,
न्यायोचित वे बताते हैं निज को,
(अनसुनी करते हैं आत्मा की आवाज)
       
                   मुक्तिबोध का अध्ययन अब तक अधिकांशतः उनकी विश्वदृष्टि, विचारधारा, फेंटेसी, आदि आधारों पर होता रहा है. उनके प्रसंग में अंतःकरण का भी कोई महत्व है, इस पर हमारा ध्यान न के बराबर है.  अंतःकरण का अर्थ है मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी के अन्तःकरण को प्रश्नांकित करना जो तब की तुलना में अब और अधिक ‘रक्तपायी वर्ग से नाभिनालबद्ध’ हो चुका है. ‘भूतों की शादी में कनात से तन’ जाने वाले इस वर्ग की ‘उदरम्भरि’ प्रवृत्ति खतरनाक रूप ले चुकी है. ‘स्वार्थों के टेरियर कुत्ते’ पालने वाले इस वर्ग के भीतर का ‘राक्षसी-स्वार्थ’ अट्टाहास कर रहा है. मुक्तिबोध की कविताएँ उस वर्ग को ‘बौद्धिक जुगाली’ से मुक्त होकर अपने अंतःकरण में झांकने और उसके आयतन को विस्तृत करने का आह्वान करती हैं. ‘ मुझे कदम-कदम पर’ शीर्षक अपनी कविता में उन्हें दूसरों के अनुभव और अपने सपने दोनों ही सच्चे लगते हैं तथा उन्हें संभावना की अनेक राहें फूटती हुई लगती हैं :

मुझे कदम-कदम पर
                 चौराहे मिलते हैं
                  बाहें    फैलाये !!

एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
व मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ;
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तजुर्बे और अपने सपने.....
                 सब सच्चे लगते हैं;
उन्हें जनता में अटूट भरोसा है और हर आदमी की भीतरी शक्ति एवं सौंदर्य की सम्भावना को वे सराहते हैं तथा भावावेग में उसे गाते भी हैं. अंतःकरण की गीतात्मक लय और जनता से रागात्मक सम्बन्ध का श्रेष्ठ उदाहरण इसी कविता की अगली पंक्तियों में दिखाई पड़ता है :
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
चमकता हीरा है,
हर-एक छाती में आत्मा अधीरा है,
प्रत्येक सुस्मित में विमल सदानीरा है,
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
महाकव्य-पीड़ा है,
पलभर मैं सबसे गुजरना चाहता हूँ
प्रत्येक उर में से तिर आना चाहता हूँ...

जनता की इस भीतरी शक्ति – सम्भावना को वही कवि लक्षित करता है जिसके ‘अंतःकरण का आयतन’ विस्तृत होता है. मुक्तिबोध का अंतःकरण  विस्तृत था इसमें क्या दो राय !

Sunday, 1 October 2017

गाँधी का 'अभय' मंत्र

विनोबा भावे की एक छोटी-सी पुस्तक है - ‘गाँधी जैसा मैंने देखा’.उसमें साबरमती आश्रम में गाँधी के साथ बिताए दिनों की यादें हैं. ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए...’ भजन वहां गया जाता था. विनोबा के मन में यह सवाल उठा कि इस भजन में एक वैष्णव व्यक्ति के जो लक्षण बताए गए हैं वे गाँधी में कितने हैं! अपने अनुभव के आधार पर बिनोवा भावे ने लिखा है कि एक सच्चे वैष्णव के सभी गुण गाँधी में थे. वे गुण थे- सादगी, सच्चाई, अपरिग्रह, अभय, निरभिमान आदि. इन गुणों को गाँधी ने भारत की राजनीति से जोड़कर नए भारत का और नयी सभ्यता का सपना देखा.गाँधी राजनीति और समाज को जिन गुणों से जोड़ना चाहते थे,उन्हें अब कोई याद भी नहीं करता.राजनीति में जब सारा जोर ‘राज’ पर हो और उससे ‘नीति’ गायब हो, जब ‘ग्राम स्वराज’ की कल्पना स्थगित कर दी गई हो और देश ‘स्मार्ट सिटी’ के सपने में मुबत्तिला हो, तब गाँधी को याद करने का अर्थ क्या है?
     ‘सत्याग्रह’ के रूप में गाँधी ने सामजिक और राजनीतिक प्रतिरोध का नया औजार भारत को दिया. इस सत्याग्रह के जरिए उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में नयी जान फूँक दी. जो ‘इंडियन नेशनल कांग्रेस’ सिर्फ प्रस्ताव पारित करने वाली जमात थी, उसे गाँधी ने जन आन्दोलन में बदल दिया. उनके ‘सत्याग्रह’ की प्रथम प्रयोगशाला चंपारण है जिसका 2017 शताब्दी वर्ष है.उन्होंने सत्याग्रहियों की एक बड़ी फ़ौज खड़ी की और नए स्वतंत्र भारत का सपना देखा. गाँधी के सपनों का यह भारत वैकल्पिक सभ्यता का भारत था जो अतिशय भोग को नकारता था और अतिशय मशीनीकृत दुनिया के समानांतर श्रम आधारित सभ्यता को महत्त्व देता था.गाँधी ने मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के फर्क को ख़त्म किया और शौचालय की सफाई से लेकर राष्ट्र निर्माण के काम को एक ही समान माना.इस तरह उन्होंने हर तरह के श्रम को नए सिरे से परिभाषित किया और श्रम-विभाजन पर टिकी  भेदभाव कारी वर्ण-व्यवस्था पर चोट की.
     भक्ति साहित्य ने यदि उन्हें मोहनदास करमचंद गाँधी से महात्मा गाँधी बनने में बड़ी भूमिका निभाई तो आधुनिक साहित्य से प्राप्त गहरे संस्कारों ने भी उनके आत्मबल को मजबूत किया. गाँधी जब दांडी मार्च पर जाने को थे और उसकी सफलता को लेकर बहुतों के मन में संदेह था, तब टैगोर ने अपने प्रसिद्ध गीत ‘एकला चलो रे’ पर पोस्टर बनाकर कलकत्ते में लगाया था और गाँधी को इस तरह अपना नैतिक समर्थन दिया था. उस पोस्टर के चित्र नंदलाल बोस ने बनाए थे. वही गाँधी जब 1947 में अपनी जान जोखिम में डालकर दंगाग्रस्त नोआखाली में घूमते हुए लोगों के जख्मों पर मरहम लगा रहे थे, तब उनके साथी ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ के साथ ‘एकला चलो रे’ भी गाते थे. भारतीय राजनीति के सबसे भयावह दौर में जब जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा से वे गुजर रहे थे, तब उनके आत्मबल को बनाए रखने में कविताओं की बड़ी भूमिका रही. यह भारत की आधुनिक राजनीति का साहित्य से जुड़ाव का परिणाम था. इसका असर उस समय की राजनीति पर व्यापक रूप से पड़ा. राजनीति से साहित्य के जुडाव का यह सिलसिला आज़ादी के बाद लगभग दो-ढाई दशक तक कमोबेश चलता रहा. लेकिन उसके बाद से राजनीति यदि संस्कारहीन हुई तो उसका मुख्य कारण उसका साहित्य-संस्कृति के सरोकारों से वंचित होना है .
    
     गाँधी ने सत्याग्रही का ‘अभय’ होना अनिवार्य माना. आज देश में गाँधी के मंत्र अभय की बहुत जरूरत है. चंपारण सत्याग्रह के दौरान गाँधी ने जो अनेक काम किए उनमें सबसे पहला स्थान अभय का है. चंपारण की जनता ‘निलहों’ के अत्याचार से पीड़ित तो थी ही, बहुत डरी हुई भी थी. लोग अत्याचार सहना पसंद करते थे, लेकिन अत्याचार के खिलाफ बोलना नहीं.गाँधी जब गए तब उनके साथ खड़े होने वाले राजकुमार शुक्ल समेत बहुत कम लोग थे. इसका कारण यह था कि जनता में अंग्रेजों का भय व्याप्त था. गाँधी ने वहाँ सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए अभय होकर न्याय के लिए लड़ना सिखाया. गाँधी के विदेशी साथी चार्ली और एंड्रूज जब चंपारण से वापस लौटने लगे तो वहाँ के लोग चाहते थे कि ये चंपारण में ही बने रहें. कारण यह था कि गोरों  की उपस्थिति चंपारण की जनता को मानसिक तोष देती थी कि इनके रहते अंग्रेज गोरे उन पर अत्याचार नहीं करेंगे. गाँधी ने लोगों की यह कमजोरी महसूस की और अपने दोनों साथियों को जाने दिया. गाँधी चाहते थे कि न्याय के रास्ते पर लोग निर्भय होकर चलना सीखे. लोगों ने उनकी यह बात मानी और चंपारण सत्याग्रह में व्यापक जन भागीदारी हुई. गाँधी का यह मंत्र आज भी किसी फासिस्ट कारवाई के विरुद्ध सबसे कारगर हथियार है.
     गाँधी का मानना था कि देश में जो भी नीति बने, उसे बनाते समय ध्यान में रखा जाए कि समाज के सबसे कमजोर आदमी पर उसका क्या असर होगा. राजनीति की जगह गाँधी की यह लोकनीति थी. कहने की जरूरत नहीं कि हमारी वर्त्तमान राजनीति की चिंता के केन्द्र में समाज का वह आखिरी आदमी नहीं है जो गाँधी की लोकनीति में पहला स्थान रखता है. हमारी विकास नीति अब आखिरी व्यक्ति को ध्यान में रखकर नहीं बनती, पूंजीपतियों को ध्यान में रखकर बनती है. इस कारण समाज में सुविधा संपन्न और वंचित तबके के बीच गैर-बराबरी की खाई चौड़ी हुई है. दुखद यह है कि गाँधी की लोकनीति को दरकिनार करके विकास की जो फसल उगाई जा रही है वह गरीबों के हित में नहीं. इस विकासनीति से उपजा हुआ जो मध्यवर्ग है वह समाज चिंता से कटा हुआ मध्यवर्ग है. वह भारतीय नवजागरण की चेतना वाला मध्यवर्ग नहीं है जिसकी चिंता के दायरे में समतामूलक समाज का एजेंडा था. नए वेतनमानों से अघाया हुआ यह मध्यवर्ग आत्मकेंद्रित और लालची मध्यवर्ग है. यही कारण है कि एक तरफ गंडा ताबीज बेचने वाले बाबाओं की देश में बाढ़ आ गई है जिनके ज्यादातर भक्त इसी मध्यवर्गीय समाज से आते हैं. एक कहावत है कि लालचियों के गाँव में ठग कभी भूखे नहीं रहते.  इसका दूसरा पहलू यह है कि इस विकासनीति को चुनौती देने वाले सत्याग्रहियों के साथ जो व्यापक जन भागीदारी होनी चाहिए थी, उसका सर्वथा अभाव है.
     गाँधी ने ‘हिन्द स्वराज’ में कहा था कि यह धरती दुनिया के सभी लोगों की जरूरतें पूरी करने के लिए काफी है, लेकिन एक लालची व्यक्ति के लिए छोटी है. उस पृथ्वी का दोहन जब हम अपनी जरूरत के लिए नहीं, लालच के लिए कर रहे हैं और संकट को आमंत्रित कर रहे हैं, तब जो व्यक्ति सबसे पहले याद आता है वह गाँधी हैं. गाँधी अपने घर की खिड़कियाँ खुली रखना चाहते थे ताकि बाहर की हवा आ सके, लेकिन इतनी नहीं कि बाहर की आँधी उसे उड़ा ले जाए. नयी आर्थिक नीति के समय में हमने सिर्फ खिड़कियाँ ही नहीं बल्कि सारे दरवाजे भी खोल रखे हैं, फल यह है कि बाहर से आई विकास की आँधी हमारी परंपरा और संस्कार समेत घर की सारी वस्तुओं को उड़ाए लिए जा रही है. गाँधी ऐसे समय में बरबस याद आते हैं,और याद आता है उनका स्वदेशी का अभियान.
     गाँधी की कहानी लिखने वाले अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर ने गाँधी और जिन्ना की तुलना करते हुए लिखा है कि गाँधी हर हाल में भारत विभाजन रोकना चाहते थे और जिन्ना हर हाल में पाकिस्तान बनाना चाहते थे. विभाजन के लिए गाँधी अपनी हर कुर्बानी देने को तैयार थे और पाकिस्तान प्राप्त करने के लिए जिन्ना हर तरह की बर्बादी देखने को तैयार थे. फिशर ने इस विडम्बना पर आश्चर्य व्यक्त किया है कि नास्तिक जिन्ना धर्म के आधार पर पाकिस्तान बनाना चाहते थे और धार्मिक गाँधी धर्म निरपेक्ष अविभाजित भारत चाहते थे. दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन्ना जीते और गाँधी अपने मिशन में कामयाब नहीं हुए.धर्म की राजनीति करने वालों को इससे सीखने की जरूरत है.

     गाँधी बुद्धि के साथ अतःकरण पर जोर देने वाले व्यक्ति थे. बुद्धि और अन्तः करण के मेल का अद्भुत समन्वय उनके जीवन में दिखाई देता है. इस अर्थ में वे भक्त कवियों से जुड़ते हैं जिनके यहाँ शब्द और कर्म में कोई द्वैत नहीं है. गाँधी को याद करने का मतलब अपने आचरण और अपने अन्तःकरण को फिर से  टटोलना है. 

Saturday, 16 September 2017

एक जन बुद्धिजीवी के वैचारिक नोट्स

‘समकालीन सोच’ के अग्रलेखों को एक साथ पढ़ना अपने समय-समाज के जरूरी सवालों के सामने खड़ा होना है. राजनीति, भाषा, जाति, धर्म, आधुनिकता, मार्क्सवाद, सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता आदि के प्रश्नों से टकराने के क्रम में लिखे गए इन अग्रलेखों को पढ़ना अपने को वैचारिक रूप से उन्नत करना और बौद्धिक रूप से समृद्ध करना है. भूमंडलीकरण के भारत में पांव पसारने के बाद भारतीय समाज, साहित्य, राजनीति तथा अन्य क्षेत्रों में जो बदलाव आए, उनकी पड़ताल करने का काम जिन पत्रिकाओं ने किया उनमें अग्रणी भूमिका ‘समकालीन सोच’ और उसके अग्रलेखों की भी है. इसलिए इनका एक जगह प्रकाशन आवश्यक था.
          पी.एन. सिंह वैचारिक ऊर्जा मार्क्सवाद से प्राप्त करते हैं. इसी के साथ वे गांधी, अम्बेडकर , लोहिया आदि समाज-चिंतकों को भी सहानुभूति के साथ अपने दृष्ठि-पथ में रखते हैं. देश-दुनिया और अपने आस-पास की सामाजिक-राजनीतिक हलचलों पर भी उनकी नजर रही है. इस कारण उनके चिंतन में खुलापन और गतिशीलता है. वे मार्क्सवाद के कठमुल्लापन से मुक्त मार्क्सवादी समाज-साहित्य के गहरे अध्येता हैं. उनके कथन में ‘पालिटिकली करेक्ट’ होने की चिंता की जगह सच को कहने का साहस है. वह साहस जिसका इधर के वर्षों में अभाव होता गया है. वे समाज की तथ्यगत सच्चाई पर तो नजर रखते ही हैं, समाज की ‘साइकी’ को भी अपने चिंतन के क्रम में समझने की कोशिश करते हैं. इसी के साथ यह भी कहने दीजिए कि वे देश-दुनिया के बड़े-बड़े लेखकों को जहाँ उद्धृत करते हैं, वहीं किसी स्थानीय व्यक्ति के अध्ययन-अनुभव को भी पूरे सम्मान के साथ अपने चिंतन में जगह देते हैं. इन कारणों से उनका चिंतन हमारा अपना लगता है.
          हर समाज को महानायकों की जरूरत होती है. लोग अपनी समस्याओं के निराकरण के लिए किसी ऐसे नायक की खोज करते हैं जो संघर्ष में उनका नेतृत्त्व कर सके. स्वयं नेतृत्त्व न संभाल कर किसी अन्य के नेतृत्त्व में किसी आन्दोलन या क्रांति में भाग लेने का मनोविज्ञान प्रायः सभी देशों और सभी कालों में होता है. हमारे यहाँ तो अवतारवाद के मूल में यह धारणा ही काम करती है कि जब समाज पर संकट के क्षण आते हैं तो भगवान मनुज रूप में धरती पर आते हैं. भारतीय समाज में राम-कृष्ण अवतार लेने वाले महानायक तो हैं ही आगे चलकर अनीश्वरवादी गौतम बुद्ध को भी भगवान का अवतार मान लिया गया. भगवान का दर्जा प्राप्त इन महानायकों के अतिरिक्त मार्क्स, लेनिन, गांधी, माओ आदि को भी महानायकों की श्रेणी में ही रखा जाता है. आखिर ऐसे महानायकों की जरूरत क्या है?
          ‘महानायकों पर कुछ विचार’ शीर्षक अपने अग्रलेख में पी.एन. सिंह ब्रेख्त के नाटक ‘गैलिलियो का जीवन’ से दो संवाद उद्धृत करते हैं. गैलिलियो का एक शिष्य जब कहता है कि ‘वह भूमि दुखी रहती है जिसके पास नायक नहीं होते’ तो गैलिलियो कहता है कि ‘नहीं, उस दुखी भूमि को ही नायकों की आवश्यकता रहती है’. ब्रेख्त के इस कथन के आलोक में पी.एन. सिंह ने महानायकों के स्वरूप, उनकी आवश्यकता और उनकी कोटि पर चिंतन किया है. अपने यहाँ से लेकर दुनिया भर के नायकों को दृष्टिपथ में रखते हुए वे उन्हें नायक, महानायक, महापुरुष आदि कोटियों में रखते हैं. इसी के साथ वे लिखते हैं कि ‘नायकों का भौतिक आकार-प्रकार एवं सांस्कृतिक स्वरूप उनके सन्दर्भ समूहों की राजनीतिक, सामाजिक शक्ति और उनके सांस्कृतिक स्तर पर निर्भर करता है. इसी शक्ति एवं स्तर के बल पर वर्णधर्म के पुजारियों ने राम और कृष्ण को गढ़ा, वर्गधर्म के पुजारियों ने मार्क्स, लेनिन एवं माओ को, राष्ट्रधर्म के पुजारियों ने गांधी को और आज दलित धर्म के पुजारी अम्बेडकर को गढ़ने में लगे हैं. कृतज्ञ पुजारी हमेशा एकांतिकता का (Exclusivism) का शिकार होता है. वह अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ धर्म और अपने नायक को सर्वज्ञ, सर्वगुण संपन्न एवं सर्वश्रेष्ठ बताता है.
नायक से महानायक और महामानव की यात्रा के भी अपने कारण होते हैं. पी.एन. सिंह लिखते हैं कि ‘अगर इतिहास प्रवाह में किसी वर्ग-विशेष का समूह-विशेष की ‘हेजीमनी’ स्थापित होती है तो वह अपने नायक को महानायक बनाता है, उस पर अप्रतीम वीरत्व आरोपित करता है. इसी प्रक्रिया में वह अपने महानायक को भी सुसंगत एवं परिनिष्ठित बनाता है और उसके मानवीय एवं करुणामय रूप को ऊकेर कर उसे सार्वत्रिक एवं सार्वकालीक बताता हुआ महामानव की श्रेणी में ले आता है’. समाज की विकास प्रक्रिया में कभी-कभी ऐसे नायक भी महानायक मान लिए जाते हैं जो कल तक उस समाज में उतने मान्य नहीं थे. ऐसा क्यों होता है? पी.एन. सिंह की राय है कि ‘कभी अपनी ‘हेजीमनी’ को कायम रखने की विवशता में तो कभी अपनी उन्नत सांस्कृतिक समझ के चलते वह अपने देव-लोक में प्रतितीर्थंकरो को भी सम्मान समायोजित करता है और इस प्रकार एक विराट सांस्कृतिक सामाजिक समझौते का प्रारूप गढ़ता है. तुलसी के राम शिव पूजक हैं और शक्ति- पूजक भी. उन पर न शम्बूक की हत्या का अपराध है और न ही गर्भिणी सीता के निष्कासन का. वे शबरी की जूठी बेर खाते हैं और निषादराज को अनुज बताते हैं. नास्तिक और इसीलिए त्याज्य गौतम बुद्ध भी कालान्तर में ‘भगवान बुद्ध’ घोषित हुए और विष्णु के अवतार मान लिए गए. इसी प्रकार ईसाइयों में विधर्मी एवं ‘चुड़ैल’ जॉन ऑफ आर्क को चर्च द्वारा संत की गरिमा प्रदान की गई और अब लूथर कैथोलिकों के बीच भी आदरणीय हैं. समय के साथ नायकों का अर्थ विस्तार होता रहता है और कभी के निन्दित अम्बेडकर  आज विभिन्न कारणों से सर्वाधिक सम्मानित किए जा रहे हैं’. अपने लम्बे विश्लेषण के बाद पी.एन. सिंह उस मनोवृत्ति का विश्लेषण करते हैं जिसमें स्वार्थ प्रेरित समाज अपने नायकों-महानायकों में से किसी की प्रशंसा और किसी का अवमूल्यन करता है. अंत में वे हमारे समय के इस अराजक दौर में उस मनोवृत्ति की चर्चा करते हैं जहाँ महात्मा गांधी को गोली मार दी जाती है. उनका कहना है और ठीक ही कहना है कि आज हमारे पास कोई महानायक नहीं है, यह बौने नेताओं का समय है. वे अपने नेताओं, गांधी, अम्बेडकर ,लोहिया आदि को उचित सम्मान नहीं देते. आज के हालात पर उनकी टिप्पणी है : “संत जॉन की ही तरह गांधी को भी आम जन ने महात्मा और संत माना, वे बुद्धिजीवी जो उनके चमत्कारी व्यक्तित्व को समझ सके उन्होंने यथासंभव अनुगमन किया, मतवादियों ने गालियां दीं, निहित स्वार्थों ने जेल में रखा और धर्मान्धों ने गोली मार दी. आज भी स्थिति कहाँ बेहतर है! बल्कि कुछ अतिरिक्त गिरावट ही आई है. छोटे-छोटे हितों में विभक्त जनता केवल अपने-अपने बौने नेताओं को ही आज सुनने-समझने के लायक बना दी गई है. मानो किसी महानायक के आगमन की पृष्ठभूमि बन रही हो. वह समाज तो हतभाग्य होता ही है जिसे बार-बार महानायकों की आवश्यकता पड़ती है. किन्तु उससे भी अभागा वह समाज होता है जो अपने महापुरुषों को उचित सम्मान देने की तमीज नहीं विकसित कर पाता. आज हम इस दोहरे दुर्भाग्य के शिकार हैं”.
          पी.एन. सिंह जब अपने अग्रलेख लिख रहे थे तब उन्हें भरोसा था कि हिंदूवादी शक्तियां सत्ता में नहीं आएंगी! जब उनके अग्रलेख पुस्तकाकार प्रकाशित होने को हैं तब यूपी और केंद्र दोनों जगह हिंदूवादी शक्तियां ही प्रचंड बहुमत से सत्ता में हैं. उनके भरोसे को इस बीच का राजनीतिक परिवर्तन प्रश्नचिन्ह लगाता-सा लगता है. ‘धार्मिक उन्माद और बुद्धिधर्मी का दायित्व’ शीर्षक अपने अग्रलेख में वे लिखते हैं ‘ आज अचानक धर्मनिरपेक्षतावादी सुरक्षात्मक बना दिए गए हैं और सांप्रदायिक ताकतें आक्रामक बनी हैं. यह विवेक पर नफ़रत के बढ़ते दवाब का सूचक है. कैसा होगा वह भारत जिसमें नफ़रत जीत चुकी होगी और विवेक तथा संयम पराजित हो चुके होंगे!’ जिसकी आशंका उन्हें थी अब वह घटित हो चुका है- विवेक तथा संयम पराजित हो चुके हैं और सांप्रदायिक ताकतें जीत चुकी हैं. क्यों ऐसा हुआ? इसकी गहन पड़ताल करते हुए पी.एन.सिंह मंडलवादी राजनीति, दलित राजनीति के साथ कम्युनिस्ट राजनीति की उन कमजोरियों को रेखांकित करते हैं जिनकी वजह से सांप्रदायिक राजनीति को पैर पसारने का मौका मिला. आज़ादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर अपने अग्रलेख ‘राष्ट्रीय आज़ादी की स्वर्णजयंती’ में वे आज़ादी के सपनों के धीरे-धीरे टूटते जाने की बात करते हैं और यह भी बताते हैं कि वैश्वीकरण ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी है. जाति निरपेक्ष, धर्म निरपेक्ष और आर्थिक-सामजिक समतामूलक समाज बनाने का हमारा सपना टूट रहा है. भ्रष्टाचार का बोलबाला है और आम आदमी परेशान हैं. पी.एन. सिंह इसी अग्रलेख में लिखते हैं: “चारों ओर अराजकता एवं भ्रष्टाचार व्याप्त है और ये दोनों ही गांधीवादी, लोहियावादी, मंडलवादी अथवा अम्बेडकरवादी राजनीति के मुद्दे नहीं हैं. आम लोगों की इहलौकिक नियति से जुड़ा समाजवाद अवमूल्यित है तथा राष्ट्रीय एकता और अखंडता की अनिवार्य शर्त ‘सेक्युलरिज्म’ अत्यंत विवादित. आज ‘सेक्युलर’ राजनीति जातिपरस्त है और राष्ट्रवादी साम्प्रदायपरस्त. इन दोनों में कोई गुणात्मक अंतर नहीं दिखता. विचारधारा का स्थान जातिवाद अथवा क्षेत्रवाद ने और संस्कृति का स्थान साम्प्रदायिकता ने ले लिया है. आरक्षण की साकारात्मक नीति भी आरक्षणवादी राजनीति में विकृत होकर सत्ता हथियाने एवं सामजिक वर्चस्व स्थापित करने का उपकरण बन गई है जिसके फलस्वरूप एक उल्टे किस्म का आक्रामक मनुवाद राजनीतिक एजेंडा है. ‘अगड़ों’, ‘पिछड़ों’, ‘दलितों’, ‘अल्पसंख्यकों’ आदि की राजनीति मूलतः ‘क्रीमीलेयर’ की राजनीति है जिसके चलते अंतिम निरीह व्यक्ति को उतने में ही छीना-झपटी कर लहूलुहान होना है जितना इस ‘क्रीमीलेयर’ के टेबुल से जूठन के रूप में नीचे गिरता है या उस पर छूट जाता है.”
          ऊपर के उद्धरणों से साफ़ है कि पी.एन. सिंह अपने समय के गहरे विश्लेषक हैं. वे असुविधाजनक सवालों से मुंह नहीं चुराते बल्कि अपनी राय दोटूक ढंग से रखते हैं. इधर के वर्षों में बुद्धिजीवियों में असुविधाजनक सवालों से बचने और ‘पॉलिटकली करेक्ट’ होने की प्रवृत्ति खूब बढ़ी है. वे अभिव्यक्ति के खतरे उठाने की बात खूब करते हैं लेकिन खतरे उठाते नहीं देखे जाते. पी.एन. सिंह के लिखे अग्रलेख इस तरह के चतुर-चालाक बुद्धिजीवियों से उलट असुविधाजनक सवालों से तो टकराते ही हैं, अभिव्यक्ति के खतरे भी उठाते हैं और ‘पॉलिटकली करेक्ट’ होने की चिंता से भी पूरी तरह मुक्त होते हैं. भाजपाई राजनीति ने मुसलमानों को अघोषित तरीके से राष्ट्रीय शत्रु घोषित कर रखा है तो मंडलवादी राजनीति ने अगड़ों को. इस पर पी.एन. सिंह की दोटूक राय है कि, “सवर्ण अथवा मुसलमान को राष्ट्रीय शत्रु घोषित करने वाली किसी भी राजनीतिक पहल को बंद गली में प्रविष्ट कर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाना है”.
          पी.एन. सिंह दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, हाशिए के समाज के उत्थान के समर्थक हैं पर उत्तर-आधुनिकता के बहुत से अतिरेकों से वे बचते हैं. कुलमिलाकर वे आधुनिकता के गर्भ से निकले मूल्यों के हिमायती दिखते हैं. उनके लिखे पर नजर डालते हैं: “प्रबोधन युग अर्थात् औद्योगिक युग आधुनिकतावाद का विधायक सोच का अग्रदूत और अलंबरदार था. वह ज्ञान, विज्ञान, तर्क, विवेक, प्रगति, विचारधारा आदि की बात करता था, वह आगे देखू था. 19वीं सदी का हिंदुत्व भी कमोबेश उसका उत्तराधिकारी था. लेकिन उद्योगोत्तर समाज अर्थात् तकनीकी क्रांति वाले समाज का उत्तर-आधुनिकतावादी पीछे देखू है, भावात्मक विवेक की बात करता है और यह मानकर चलता है कि व्यक्ति को तार्किक विवेक दिया ही नहीं जा सकता, वह भावना और अतर्क के पाश में फंसे रहने के लिए अभिशप्त है.”
          पी.एन. सिंह के चिंतन का क्षेत्र बहुत व्यापक है. वे समता, स्वतंत्रता, आरक्षण, जाति, धर्म आदि के सवालों पर खुले मन और प्रगतिशील दृष्टि से विचार करते हैं तो राहुल सांकृत्यायन, भगत सिंह, कॉडवेल और पी.सी. जोशी के भी वैचारिक अवदानों का आकलन करते हैं. गौतम बुद्ध और प्रेमचंद यदि एक साथ उनके लिए विचारणीय हैं तो दलित जागरण से पैदा हुए प्रश्नों पर उनकी नजर है.  कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो की वैचारिक शक्ति और उत्तर औपनिवेशिक दौर में उसकी सीमाओं को रेखांकित करते हुए पी.एन. सिंह कहीं अतिरेक का शिकार नहीं होते. हिंदी-उर्दू विवाद हो या हिंदी प्रदेशों का आर्थिक-सामाजिक पिछड़ापन, राजनीति में नैतिकता के आग्रह का सवाल हो या एक बुद्धिजीवी की समाज-निर्माण में भूमिका का सवाल- पी.एन. सिंह की गहन विश्लेषण-क्षमता देखने लायक होती है. 1990 के बाद के लगभग ढाई दशक के समाज, देश और देश से बाहर के हालात पर हिंदी का कोई बुद्धिजीवी इतने व्यापक स्तर पर टिप्पणी करता रहा हो और अपनी टिप्पणी से झकझोरता रहा हो, वह पी.एन. सिंह के अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं हो सकता. यही दौर है जब ‘हंस’ में लिखे राजेन्द्र यादव के अग्रलेख भी चर्चा में होते थे, लेकिन श्री यादव के अग्रलेखों में दलित विमर्श और स्त्री विमर्श की प्रमुखता होती थी और विमर्शधर्मी आरोप होते थे, वहीं पी.एन. सिंह के अग्रलेखों में वैचारिक खुलापन और दुराग्रहों से मुक्ति दिखती थी. समाज को जागरुक बनाने वाली पी.एन. सिंह की यह बौद्धिक-वैचारिक पहल हिंदी प्रदेश के उन बुद्धिजीवियों की कतार में उन्हें शामिल करती है जो राहुल सांकृत्यायन, हजारी प्रसाद द्विवेदी, भगवतशरण उपाध्याय, रामविलास शर्मा आदि से बनती है. 1990 के बाद लगभग पचीस वर्षों तक उन्होंने हिंदी के वैचारिक माहौल को गर्माए रखने में अपने को होम कर दिया. वे हिंदी से बटोरने वाले नहीं, उसे समृद्ध करने वाले हिंदी के सच्चे पब्लिक इंटेलेक्चुअल हैं.

Saturday, 5 August 2017

उपवास और प्रतिरोध

उपवास प्रतिरोध का सबसे पवित्र और अहिंसक हथियार है| इसे राजनीतिक और सामाजिक प्रतिरोध का साधन महात्मा गाँधी ने बनाया | गाँधी के पहले इसका प्रयोग व्यक्तिगत प्रतिरोध के तौर पर होता था | प्रतिरोध के इस पवित्र, नैतिक और अहिंसक हथियार के जरिए साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में उन्होंने नई जान डाल दी | तब से यह जनता के लिए प्रतिरोध का सबसे कारगर हथियार है |
उपवास प्रतिरोध का ऐसा साधन है जो उपवास करने वाले को तो नैतिक बनाता ही है, जिसके विरुद्ध किया जा रहा है उसे भी नैतिक बनाता है | एक तरह से पक्ष–विपक्ष दोनों को बदलने की ताक़त प्रतिरोध के इस साधन में है | ऐसी ताक़त प्रतिरोध के दूसरे तरीक़ों में शायद ही हो! धरना, प्रदर्शन, आक्रमण आदि भी विरोधी को झुकाने और उसे पराजित करने के साधन रहें हैं, लेकिन उन साधनों में उन्हें भौतिक रूप से पराजित करने पर ज़ोर अधिक है; जबकि उपवास के जरिए विरोधी को भौतिक के साथ आत्मिक रूप सेम मित्र बनाने पर जोर है| किसी अनैतिक व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले उपवास के उद्देश्य को सही ठहराने के पूर्व लोग सौ बार सोचेंगे | इसीलिए प्रतिरोध के रूप में जब कोई व्यक्ति उपवास का प्रयोग करता है तो उसका शत-प्रतिशत नैतिक होना जरुरी है |
उपवास सत्याग्रह का ही दूसरा नाम है | किसी गलत उद्देश्य और आचरण का व्यक्ति इस हथियार का प्रयोग नहीं कर सकता | सत्य के आग्रह के साथ ही उपवास का प्रयोग शोभनीय और नैतिक है | सत्याग्रह को महात्मा गाँधी ने ‘आत्मबल’ का ही समानार्थी माना है, जिसे अंग्रेजी में ‘पैसिव रेसिस्टेंस’ कहते हैं | गाँधी के शब्दों में यह ‘शस्त्र बल’ के उलटा है | इसके आगे सत्याग्रह की और साफ़ व्याख्या करते हुए उन्होंने ‘हिन्द स्वराज’ में लिखा है कि “मुझे जो काम पसंद न हो उसे मैं न करूँ तो मैं सत्याग्रह या आत्मबल से काम लेता हूँ | मिसाल के लिए मान लीजिए सरकार ने एक कानून बनाया जो मुझ पर लागू होता है | वह मुझे पसंद नहीं है | अब अगर मैं सरकार पर हमला करके उसे वह कानून रद्द करने को मजबूर करूँ तो मैंने शस्त्र बल से काम लिया | पर मैं उस क़ानून को मंजूर ही न करूँ और उसे न मानने की जो सजा मिले उसे ख़ुशी से भुगत लूँ तो मैंने आत्मबल से काम लिया अथवा सत्याग्रह किया | सत्याग्रह में अपनी ही बलि देनी पड़ती है” | इसी के साथ गाँधी ने यह भी जोड़ा कि ‘पर बल’ से ‘आत्मबल’ ज्यादा बड़ी चीज है | प्रतिरोध के इसके रास्ते में ‘पर बलि’ है | जबकि सत्याग्रह ‘आत्म-बलि’ पर आधारित है |
सत्याग्रह के रास्ते पर चलने वाले आदमी के स्वाभाव का अनिवार्य हिस्सा विनम्रता होती है | इस रास्ते में बौद्धिक या शारीरिक शक्ति की बजाय आत्मा की शक्ति और आचरण पर जोर दिया जाता है | इसलिए अहंकार के लिए सत्याग्रही के जीवन में कोई जगह नहीं है | प्रतिरोध के दूसरे मार्गों के जो राही है उनमें अपनी शक्ति का, वह चाहे बौद्धिक हो या शारीरिक, अहंकार प्रायः देखने को मिलता है | विनम्रता भयजनित नहीं होती. उसके पीछे सत्याचरण की शक्ति होती है | इसलिए सत्याग्रही में जहाँ अहंकार की जगह विनम्रता होती है, वहीँ वह दयनीयता से मुक्त आत्मविश्वास से भरा होता है |
सत्याग्रही के लिए बलशाली होना या अपने समर्थकों की बड़ी फ़ौज इकट्ठी करना कतई जरुरी नहीं | शरीर से वह कमजोर है या बलवान, वह अकेले है या उसके पास समर्थकों की बड़ी भीड़ है, ये सारे प्रश्न उसके लिए फिजूल है | गाँधी कहते हैं “सत्याग्रह के लिए जिस हिम्मत और मर्दानगी की जरुरत होती है वह तोप-बंदूक का बल रखने वालों के पास हो ही नहीं सकती | सत्याग्रही को फ़ौज खड़ी करने की जरुरत नहीं पड़ती. कुश्ती की कला सीखने की भी जरुरत नहीं होती | उसने अपने मन को वश में किया कि फिर बलराज सिंह की तरह दहाड़ करता है और उसकी गर्जना जो लोग उनके दुश्मन बने बैठे हों, उन्हें कंपा देती है” |
सत्याग्रही के लिए गाँधी लोभ रहित जीवन की वकालत करते हैं. वे सत्याग्रही के लिए गरीबी का जीवन आवश्यक मानते हैं. गरीबी का जीवन से आशय है कम से कम में जीवन यापन करना. वे मानते हैं कि सत्याग्रही के पीछे सत्य का बल काम करता है. इसलिए उसे सत्य की राह कभी नहीं छोड़नी चाहिए.
सत्याग्रही के लिए अभय होना जरुरी है | अभय हुए बिना सत्याग्रही की यात्रा एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकती | गाँधी के शब्दों में “उसे सब प्रकार और सभी बातों में निर्भय होना चाहिए | धन-दौलत, झूठा मान-सम्मान, नेह-नाता, राज दरबार, चोट-मृत्यु सबके भय से मुक्त हो जाए तभी सत्याग्रह का पालन हो सकता है” |
आज़ाद भारत में सत्याग्रह को प्रतिरोध का हथियार जेपी और लोहिया ने बनाया | वे सत्याग्रह को ‘सिविल नाफरमानी’ कहते थे | लोहिया उपवास के पक्ष में नहीं थे, लेकिन सत्याग्रह के जरिए शांतिपूर्ण प्रतिरोध के हिमायती थे | शांतिपूर्ण धरना, मार्च, प्रदर्शन आदि को वे सिविल नाफरमानी कहते थे | उनकी नजर में सिविल नाफरमानी अन्याय के प्रतिकार का सबसे कारगर औजार है | सिविल नाफरमानी की परिभाषा करते हुए उन्होंने कहा है, “सिविल नाफरमानी अथवा अन्याय से शांतिपूर्ण लड़ना अपने आप में एक कर्तव्य है...सिविल नाफरमानी का एक मतलब यह होता है कि विरोधी के दिल से गुस्सा दूर करे, तो इसका मतलब होता है कि जनता के दिल की कमजोरी को दूर करें...अगर सिविल नाफरमानी करने वाले लोगों के काम के नतीजे से हिंदुस्तान के करोड़ों लोगों के दिल से कमजोरी और डरपोकपन दूर हो जाए तो सिविल नाफरमानी कामयाब समझी जाएगी” |
उपवास सिविल नाफरमानी का ही एक तरीका है. इसके जरिए बड़े प्रतिरोध का आधार तैयार होता है, लेकिन सबसे पहले उपवास हमें अभय करता है. अभय होकर हम क्रूर से क्रूर सत्ता की अनीति का विरोध करने का नैतिक साहस हासिल करते हैं. रघुवीर सहाय कहते हैं:
“न टूटे न टूटे तिलिस्म सत्ता का मेरे अन्दर एक
कायर टूटेगा”

इसे पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि सहाय जी लोहिया के प्रतिरोध के औजार सिविल नाफरमानी को ही कविता का सुन्दर बाना पहना रहे थे | जिसके पास न अनुयायियों की बड़ी भीड़ है और न प्रतिरोध को इवेंट बना देने की एनजीओ मार्का तरकीब है, ऐसा हमारा एक साथी जब सरकार की जन विरोधी नीतियों के खिलाफ जंतर-मंतर पर उपवास का रास्ता चुनता है तब वह गाँधी के सत्याग्रह और लोहिया के सिविल नाफरमानी वाले रास्ते पर चलकर नैतिक प्रतिरोध के लिए हमारे सामने एक सगुण उदहारण बन जाता है |

(नर्मदा सरोवर बाँध से विस्थापित लोगों के समुचित पुनर्वास हेतु हमारे समय की महान सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटेकर पिछले दस दिनों से उपवास पर हैं |उनकी हालत ठीक नहीं है|हमारा ध्यान उनकी सेहत और उन कारणों की ओर जाना चाहिए जिनके लिए वे उपवास पर हैं|25 जून से 3 जुलाई 2017 तक हमारे एक समाजवादी साथी प्रेम सिंह ‘मॉब लिंचिन’ के खिलाफ सात दिन उपवास पर थे|प्रतिरोध स्वरुप  अपने इन साथियों के उपवास के समर्थन में लिखी गयी यह टिप्पणी आज 06/08/2017 के 'जनसत्ता' अखबार में प्रकाशित है|)