Friday, 21 July 2017

प्रेमचंद की नज़र में राष्ट्र


रामविलास शर्मा ने 1936 ई. को इस अर्थ में विशिष्ट माना है कि इस वर्ष तीन ऐसी रचनाएँ प्रकाशित हुईं जिनमें भविष्य के भारत का सपना था। इनमें पहली रचना आधुनिक भारत के निर्माता जवाहर लाल नेहरू की ‘आत्मकथा’ है। दूसरी रचना लोकनायक जयप्रकाश नारायण की समाजवाद ही क्यों?’ (‘why socialism?’) है जबकि तीसरी रचना प्रेमचंद का निबंध महाजनी सभ्यता है। पहली दोनों रचनाएँ पुस्तक रूप में थीं और अंग्रेजी में लिखी गई थीं। ‘आत्मकथा’ सिर्फ नेहरू की निजी कथा न होकर स्वतंत्रता आन्दोलन और स्वतंत्र भारत के आधुनिक जनतांत्रिक सपने की भी कथा है। समाजवाद ही क्यों? भारत में समाजवादी व्यवस्था की आवश्यकता पर जोर देने वाली पहली व्यवस्थित पुस्तक है। नेहरू और जे.पी. प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी, अपने-अपने समय के युवा ह्रदय सम्राट तथा गाँधी के बाद देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता थे। ऐसे महानों की अति प्रसिद्ध पुस्तकों के साथ रामविलास जी ने हिंदी के लेखक प्रेमचंद के एक निबंध को याद किया है तो इसका विशेष अर्थ है| वे ऐसे लेखक थे जिनकी नजर वर्तमान के साथ बेहतर भविष्य पर भी थी। इसलिए यह अकारण नहीं है कि नेहरू और जे.पी. की पुस्तकों के साथ रामविलास शर्मा प्रेमचंद के निबंध का नाम लेते हैं जो उनकी लेखकीय दृष्टि को समझने के खयाल से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। महाजनी सभ्यता यानी पूँजीवादी सभ्यता। पूँजीवाद के पहले सामंतवादी सभ्यता थी। ये दोनों सभ्यताएँ जनता के शोषण और सामजिक भेदभाव पर आधारित थीं। जो सभ्यता शोषण और भेदभाव पर आधारित हो वह प्रेमचंद को किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं थी। उन्होंने उस सभ्यता का स्वागत किया जिसका सूर्य पश्चिम में उग रहा था। निस्संदेह पश्चिम के उस सूर्य से तात्पर्य रूस में स्थापित समाजवादी व्यवस्था से है। प्रेमचंद ने पूँजीवादी सभ्यता की कठोरतम आलोचना करने के बाद लिखा: “परन्तु अब नई सभ्यता का सूर्य सुदूर पश्चिम से उदय हो रहा है जिसने इस नारकीय महाजनवाद या पूँजीवाद की जड़ खोदकर फेंक दी है जिसका मूल सिद्धांत यह है कि प्रत्येक व्यक्ति, जो अपने शरीर या दिमाग से मेहनत करके कुछ पैदा कर सकता है, राज्य और समाज का परम सम्मानित सदस्य हो सकता है और जो दूसरों की मेहनत या बाप-दादों के जोड़े हुए धन पर रईस बना फिरता है वह पतीततम प्राणी है।”1
प्रेमचंद भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के गर्भ से पैदा हुए ऐसे लेखक थे जिसके लिए स्वतंत्रता का अर्थ राजनीतिक मुक्ति के साथ सामजिक और आर्थिक मुक्ति भी है। वे पूँजीवादी व्यवस्था के जितने खिलाफ थे, उतने ही सामंती व्यवस्था के भी। जाति, संप्रदाय और गरीबी के सवाल उनके शब्द-कर्म के जरूरी एजेंडे थे। पुराना क्या है जो अप्रासंगिक हो चुका है और नया क्या है जो प्रासंगिक है, उसकी जितनी साफ़ समझ उनके पास थी, वैसी हिंदी के उनके समकालीन किसी दूसरे लेखक के पास शायद ही हो! वे यदि 1936 में ‘महाजनी सभ्यता’ का क्रीटिक तैयार करते हैं तो इसका कारण यह है कि वे पुराने समय और नए समय में फर्क करना ठीक से जानते हैं। 1919 में प्रकाशित उनके ‘पुराना जमाना: नया जमाना’ शीर्षक निबंध को देखने से पता चलता है कि 1936 में वे जहाँ पहुंचे थे उसकी तैयारी वे बहुत पहले से कर रहे थे। अपने उस निबंध में वे लिखते हैं: ”आने वाला जमाना अब जनता का है, और वह लोग पछताएंगे जो ज़माने के कदम-से-कदम मिलाकर न चलेंगे।”2
ज़माने के कदम-से-कदम मिलाकर चलने की जो सबसे बड़ी कसौटी प्रेमचंद की थी वह थी किसानों की हालत। उनके सारे रचनात्मक और वैचारिक लेख के मूल में किसान जीवन की वास्तविकता और उनकी चिंता सर्वोपरि है। जैसे महात्मा गाँधी के ‘स्वराज’ के केंद्र में गाँव था और गाँव के किसान थे, वैसे ही प्रेमचंद के लेखकीय चिंतन के केंद्र में किसान हैं। ‘पूस की रात’ का हलकू हो या ‘गोदान’ का होरी या उनका वैचारिक लेखन, किसान जीवन की दशा-दुर्दशा और उसका भविष्य उनकी सजग-सचेत नजर से कभी ओझल नहीं होता। ‘पुराना जमाना, नया जमाना’ का एक अंश इस दृष्टि से देखा जा सकता है:  ”क्या यह शर्म की बात नहीं कि जिस देश में नब्बे फीसदी आबादी किसानों की हो उस देश में कोई किसान सभा, कोई किसानों की भलाई का आन्दोलन, कोई खेती का विद्यालय, किसानों की भलाई का कोई व्यवस्थित प्रयत्न न हो... मगर नए ज़माने ने नया पन्ना पलटा है। आने वाला जमाना अब किसानों और मजदूरों का है। दुनिया की रफ़्तार इसका साफ़ सबूत दे रही है। हिंदुस्तान इस हवा से बेअसर नहीं रह सकता। हिमालय की चोटियाँ उसे इस हमले से नहीं बचा सकतीं। जल्द या देर से, शायद जल्द ही, हम जनता को केवल मुखर ही नहीं, अपने अधिकारों की माँग करने वाले के रूप में देखेंगे और तब वह आपकी किस्मतों की मालिक होगी।”3
प्रेमचंद जिस आधुनिक भारत का सपना देख रहे थे वह ऐसा राष्ट्र-राज्य है जिसमें किसान-मजदूर खुद अपनी किस्मत के मालिक होंगे। वे यह तो मानते हैं कि ‘वर्तमान सभ्यता का सबसे अच्छा पहलू राष्ट्रीयता की भावना का जन्म लेना है।’4 लेकिन सच्ची राष्ट्रीयता उनकी नजर में तब तक नहीं आ सकती जब तक कि सामजिक, आर्थिक और शैक्षणिक गैर बराबरी जनता में है। वे कहते हैं: ”आपका आधुनिक शिक्षा से वंचित भाई आपको इस ठाट में देखता है और यह समझता है कि यह आदमी हममें नहीं है, हम उनके नहीं हैं। फिर चाहे आप कितनी बुलंद आवाज से राष्ट्रीयता की हाँक लगाएँ।”5 वे राष्ट्रीयता को आधुनिक सभ्यता का सबसे अच्छा पहलू कहते हैं लेकिन वे यह भी बताते चलते हैं कि ‘जनतांत्रिक’ का समावेश ‘आधुनिक सभ्यता का सबसे प्रधान गुण है।”6 इससे पता चलता है कि प्रेमचंद के लिए जो भविष्य का भारत है उसका ताना-बाना जनतांत्रिकता और आधुनिकता के रेशे से निर्मित है जिसमें किसान-मजदूर अपनी किस्मत के मालिक हैं। लगभग सौ वर्ष पूर्व देखा गया भारतीय राष्ट्र-राज्य का प्रेमचंद का सपना मुहावरे के अर्थ में अब भी सपना है! किसान मजदूर अब भी अपनी किस्मत के मालिक नहीं हैं! हमारी जनतांत्रिक आकांक्षाओं पर अब भी पहरेदारी है! आर्थिक और शैक्षणिक गैर बराबरी की तो बात ही मत पूछिए! “किसानों की हालत और खराब है. गरीबों और अमीरों के बीच खाई और चौड़ी हो चुकी है. समाजवादी दुनिया बिखर चुकी है. ऐसे पूँजीवाद की उनके द्वारा की गई आलोचना का महत्त्व और बढ़ गया है. रामविलास शर्मा ने ठीक ही गणेश शंकर विद्यार्थी के बाद प्रेमचंद को पूँजीवाद का सबसे महत्त्वपूर्ण आलोचक कहा है|7
भारत के राष्ट्री आन्दोलन में प्रेमचंद सदेह शामिल नहीं थे। कुछ लोगों को आश्चर्य हो सकता है कि जनता की मुक्ति की बात करने वाला लेखक जनता के मुक्ति-संघर्ष में सदेह शामिल क्यों नहीं होता? उस ज़माने में हिंदी विभिन्न भारतीय भाषाओं के अनेक लेखक स्वतंत्रता संग्राम में सदेह शामिल थे और उस कारण उन्हें तरह-तरह की यातनाएँ भी झेलनी पड़ीं। ऐसे सभी लेखकों से भारत के मुक्ति-संग्राम को बल मिला। उनके कर्म से भी और उनके शब्द से भी। लेकिन ऐसे भी बहुतेरे लेखक थे जो स्वतंत्रता संग्राम में सदेह शामिल न होकर मनसा-वाचा शामिल थे। नके लिखे से भारतीय राष्ट्र-राज्य का नया रूप बन रहा था। नका एक-एक शब्द हजारों-लाखों को प्रेरित-प्रभावित कर रहा था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ऐसे ही लेखक थे जिनसे भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम को नयी ऊर्जा मिलती थी। प्रेमचंद भी ऐसे ही लेखक थे जो भारतीय समाज और राष्ट्र की मुक्ति के मार्ग में बाधक सभी तत्त्वों से लड़ते रहे। अमृत राय ने ‘कलम का सिपाही’ नाम से उनकी जीवनी लिखी है। सही अर्थों में वे कलम के सिपाही थे। वे कलम से स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने वाले हिंदी के सबसे बड़े लेखक थे।
कलम से जिस तरह जनता और राष्ट्र की मुक्ति की लड़ाई प्रेमचंद लड़ रहे थे, सका सही पता-ठिकाना तभी चलता है जब हम उनके रचनात्मक साहित्य के साथ उनके वैचारिक लेखन को भी देखते हैं। अपने लेखन काल के प्रारंभ से लेकर मृत्यु पर्यंत लगभग तीन दशक का उनका जो वैचारिक लेखन है वह भारत की स्वतंत्रता, स्वावलंबन, आर्थिक-सामजिक गैरबराबरी और विश्व बंधुत्व जैसी अनेक चिंताओं से मुठभेड़ का प्रतिफल है। हम अक्सर उन्हें आर्य समाजी, गाँधीवादी और मार्क्सवादी प्रभावों के सन्दर्भ में देखते-दिखाते हैं। उनके साहित्य पर इनके प्रभाव से किसी को इंकार भी नहीं है। लेकिन उनकी चेतना सबसे अधिक स्वतंत्रता आन्दोलन के मूल्यों से संचालित है। विदेशी दासता से मुक्ति के लिए स्वशासन जरूरी था। लेकिन कैसा स्वशासन? वे सही अर्थों में जनता के शासन के पक्ष में थे और जनता का शासन तब आएगा जब बेजबानों की ताकत जाहिर होने लगेगी। उन्हीं के शब्द देखें...”अब एक फाकाकश मजदूर भी अपनी अहमियत समझने लगा है और धन-दौलत की ड्योढ़ी पर सर झुकाना पसंद नहीं करता। उसे अपने कर्त्तव्य चाहे न मालूम हों लेकिन अपने अधिकारों का पूरा ज्ञान है। वह जानता है कि इस सारे राष्ट्रीय वैभव और प्रभुत्व का कारण मैं हूँ। यह सारा राष्ट्रीय विकास और उन्नति मेरे ही हाथों का करिश्मा है। अब वह मूक संतोष और सर झुकाकर सबकुछ स्वीकार कर लेने में विश्वास नहीं रखता।”8 तो प्रेमचंद इसी मजदूर की हिस्सेदारी स्वशासन में सुनिश्चित करना चाहते थे।
‘स्वदेशी आन्दोलन’ स्वतंत्रता संग्राम का एक बड़ा एजेंडा था। स्वदेशी के बिना भारत राष्ट्र के रूप में खड़ा नहीं हो सकता था। स्वतंत्रता आन्दोलन में महात्मा गाँधी के प्रवेश के बहुत पहले स्वदेशी की माँग जोर-शोर से उठने लगी थी। महात्मा गाँधी के आने के बाद इस आन्दोलन ने और जोर पकड़ा जब वे 1915 में भारत आए। प्रेमचंद 1905 में ‘देशी चीजों का प्रचार कैसे बढ़ सकता है’9  शीर्षक निबंध लिखकर घरेलू उद्योग-धंधों के विकास और उनकी मार्केटिंग के मार्ग में आने वाली बाधाओं की चिंता करते हैं। वे उसी वर्ष ‘स्वदेशी आन्दोलन’ की वकालत करते हैं और उसे ‘देशभक्तिपूर्ण आन्दोलन’10 की संज्ञा देते हैं। ‘स्वराज से किसका अहित होगा?’ (1930) शीर्षक अपने निबंध में वे निर्भय होकर इस संग्राम में सम्मिलित होने की मांग करते हैं। 1931 में ‘देश की वर्त्तमान परिस्थिति’ की चर्चा करते हुए वे किसानों से अपील करते हैं कि ‘महात्मा जी के मार्ग’ से यदि वे हटे तो उन्हें पछताना पड़ेगा। ‘स्वदेशी आन्दोलन’ का जबर्दस्त समर्थन करने के साथ प्रेमचंद भारत और पूरी दुनिया में गोरी जातियों की सभ्यता के अन्यायपूर्ण आचरण और दमन-शोषण की आलोचना करते हैं और उके पाखंड पर चोट करते हैं। ‘गोरी जातियों का प्रभाव क्यों कम है’ (1931) शीर्षक निबंध में वे लिखते हैं कि “...गोरों ने आदि से ही प्रेम के बल पर नहीं, आतंक के बल पर संसार पर प्रभुत्व जमाया है। वह कालों की नज़रों से अपने ऐबों को छिपाकर अपनी नीतिमता की साख बिठाये थे|”11 अंग्रेजों की अन्यायपूर्ण नीति और गरीब जनता को टैक्स के जरिए लूटने की उकी आदत के कारण प्रेमचंद को ‘स्वराज की कामना’ का भारतीय जन में जन्म लेना स्वाभाविक जान पड़ता है।
      प्रेमचंद के लिए राष्ट्र का अर्थ सिर्फ कोई निश्चित भू-भाग ही नहीं, उसके आगे भी बहुत कुछ है। उनके लिए राष्ट्र का अर्थ सबसे पहले उस भू-भाग की शोषित, पीड़ित जनता है। ‘नवयुग’ (1932) शीर्षक अपने एक निबंध में राष्ट्र और राष्ट्रीयता की ओर संकेत करते हुए वे लिखते हैं: “राष्ट्र केवल एक मानसिक प्रवृत्ति है। जब यह प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है तो किसी प्रांत या देश के निवासियों में भ्रातृभाव जागरित हो जाता है। तब उनमें रुढियों से पैदा होने वाले भेद, पुराने संस्कारों से उत्पन्न होनेवाली विभिन्नताएँ और ऐतिहासिक तथा धार्मिक विषमताएँ, एक प्रकार से मिट जाती हैं।”12 जब तक ‘विविधताएँ’ और ‘विषमताएँ’ किसी राष्ट्र में मौजूद हैं तब तक वह सही अर्थों में राष्ट्र नहीं है। जनता का जिस तरह शोषण है, गरीबी का जैसा साम्राज्य है, गाँवों की जो हालत है, उस पर वे ‘दमन की सीमा’ (1932) शीर्षक निबंध में गंभीर और तल्ख़ टिप्पणी करते हैं। ब्रिटिश सरकार, प्रशासन और जमींदारों को कठघरे में खड़ा करते हुए कहते हैं: “देहात से, सुधार और सहयोग और शिक्षा और स्वास्थ्य और सभी आयोजनाएँ, जिनसे राष्ट्र बनता है, जिनसे उसका विकास होता है, लापता हैं।”13 इसीलिए औरों के लिए राष्ट्र और राष्ट्रीयता का जो भी अर्थ हो, प्रेमचंद के लिए उसका ठेठ भारतीय अर्थ है। उनकी दो टूक राय है,  “राष्ट्रीयता की पहली शर्त वर्ण-व्यवस्था, ऊँच-नीच के भेदभाव और धार्मिक पाखण्ड की जड़ खोदना है।”14
      जाति भेद की समस्या को भारतीय राष्ट्रीयता की केन्द्रीय समस्या मानते हुए ऐसे लोगों पर प्रेमचंद जोरदार हमला करते हैं जो जाति की श्रेष्ठता और धार्मिक विद्वेष की भावना से भरे हुए हैं। राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद के नकली प्रवक्ताओं को ‘क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं?’ (1934) शीर्षक निबंध लिखकर वे कठघरे में खड़ा करते हैं। वे लिखते हैं: “हम अभी तक केवल मुँह से राष्ट्र-राष्ट्र का गुल मचाते हैं, हमारे दिलों में अभी वही जाति भेद अन्धकार छुपा हुआ है। और यह कौन नहीं जानता कि जाति भेद और राष्ट्रीयता दोनों में अमृत और विष का अंतर है।”15 इसलिए जो पुजारी, पुरोहित और पंडे जातिभेद करते हैं उन्हें वे ‘टके पंथी’ और हिन्दू जाति का कलंक कहकर संबोधित करते हैं।
      भारत का विशाल भू-भाग, शस्य श्यामला धरती और यहां की पुरानी अच्छी बातें उन्हें भाती हैं। इस अर्थ में वे सच्चे देश-प्रेमी हैं। इसलिए वे औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति की बात जोरदार ढंग से उठाते हैं। काँग्रेस और महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चलने वाले राष्ट्रीय आन्दोलन की जोरदार वकालत करते हैं। इस विषय पर लिखते हुए उनका राष्ट्रवादी रुझान और उनकी राष्ट्रीयता पूरी बुलंदी पर है। इसलिए ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ जैसी भावना प्रधान देशभक्तिपूर्ण कहानी हो या ‘कर्मभूमि’ जैसा स्वाधीनता संग्राम के झंझावतों से भरा उपन्यास, ‘देशी चीजों का प्रसार कैसे बढ़ सकता है’ (1905) और ‘स्वदेशी आन्दोलन’ (1905) जैसे प्रारम्भिक वैचारिक लेख हों या आर्य समाज, गाँधीवाद और मार्क्सवाद जैसी विचारधाराओं के प्रभाव से गुजरने के बाद अंतिम दिनों के लेख, प्रेमचंद साम्राज्यवाद से भारत की मुक्ति के हमेशा पक्षधर हैं। लेकिन मुक्ति से प्रेरित उनकी राष्ट्रीयता सिर्फ कुछ प्रतीकों तक सीमित नहीं है। वे सिर्फ अपनी सरकार बन जाने से संतुष्ट होने वाले राष्ट्रप्रेमी नहीं हैं। राष्ट्र, जो मेहनतकश जनता से बनता है, वे उस राष्ट्र की मुक्ति के पक्षधर हैं। इसलिए ऐसे राष्ट्रवादियों को जिनके एजेंडे में भेदभाव मिटाना नहीं है, फटकार लगाते हुए वे कहते हैं “राष्ट्रीयता की पहली शर्त है, साम्य का दृढ होना। इसके बिना राष्ट्रीयता की कल्पना ही नहीं की जा सकती।”16  
      सच्ची राष्ट्रीयता का विकास कब होगा? जब समतामूलक समाज बनेगा, जब जाति भेद न होगा। प्रेमचंद हिंदी के इस अर्थ में अकेले लेखक हैं जो जीवन भर जातिप्रथा का विरोध करते रहे। उनका सारा साहित्य जातिप्रथा के विरुद्ध सतत संघर्ष का साहित्य है। सामजिक समता के लिए संघर्ष करते हुए वे कभी आर्थिक गैर बराबरी को नहीं भूलते। इसीलिए वे स्वराज्य के साथ-साथ आर्थिक स्वराज्य का प्रश्न उठाते हैं। अपनी एक टिप्पणी ‘आर्थिक स्वराज्य’ (1933) में वे आर्थिक और राजनैतिक स्वराज्य दोनों को एक-दूसरे का पूरक मानते हुए दिखाई देते हैं। उसी वर्ष की अपनी एक दूसरी टिप्पणी ‘अविश्वास’ में वे यही बात और साफ़ तरीके से कहते हुए दिखाई देते हैं। वे लिखते हैं “अधिकांश भारतीय स्वराज्य इसलिए नहीं चाहते कि अपने देश के शासन में उनकी आवाज ही पहले सुनी जावे, पर स्वराज्य का अर्थ उनके लिए आर्थिक स्वराज्य होता है। अपने प्राकृतिक साधनों पर अपना अधिकार, अपनी प्राकृतिक उपजों पर अपना नियंत्रण, अपनी वस्तुओं का स्वच्छंद उपभोग और अपनी पैदावार पर अपनी इच्छानुसार मूल्य लेने का स्वत्व- यही उनकी सबसे बड़ी, सबसे पहली, सबसे उत्कृष्ट माँग है। यह माँग स्वराज्य का अंग नहीं, स्वराज इसी माँग का अंग है।”17 इस तरह प्रेमचंद का स्वराज्य, उनके भारत का सपना, आर्थिक आत्मनिर्भरता से अलग नहीं था। भारत में आज भी किसानों-मजदूरों और आदिवासियों की आर्थिक पर निर्भरता, उनके अपने ही साधनों पर अपने अधिकार न होने पर हिंदी के कितने लेखक चिंतित दिखाई देते हैं? प्रेमचंद स्वराज्य के साधन के रूप में सबसे पहला स्थान इसीलिए ‘स्वावलंबन’ को देते हैं।18    
यह सही है कि प्रेमचंद भारत के लिए जिस स्वराज्य का स्वप्न देखते थे, वह ‘आर्थिक स्वराज्य’ से भिन्न न था। लेकिन वे उसके आगे सोशलिज्म का समर्थन करते हुए भी देखे जाते हैं। अपनी एक टिप्पणी ‘रूस में समाचार पत्रों की उन्नति’ (1933)  में जहाँ वे सोवियत संघ की प्रशंसा करते हैं, वहीँ वे भारत के नेताओं में जवाहरलाल नेहरू की उनके समाजवादी विचारों के लिए खुलकर तारीफ़ करते हैं। नेहरू के एक व्याख्यान की चर्चा करते हुए लिखते हैं, जैसे नेहरू उनके ही मन की बात कह रहे हों। प्रेमचंद के शब्द हैं, “श्री जवाहर लाल नेहरू ने अपने व्याख्यानों में वैज्ञानिक साम्यवाद (साइंटिफिक सोशलिज्म) शब्द का प्रयोग किया। आपका अभिप्राय यह था कि वर्तमान समाज में मनुष्य-मनुष्य में जो भीषण असमानता है, वह दूर हो। यह ठीक नहीं है कि एक मनुष्य के पास अथाह धन भरा पड़ा हो और दूसरा मनुष्य भूखा मरता हो। समाज का इस प्रकार संगठन होना चाहिए जिससे कोई मनुष्य भूखा न रहने पावे, सबको पर्याप्त अन्न और वस्त्र मिले और सबको उन्नति करने का समान अवसर हो।”19 1930 के दशक में जवाहर लाल नेहरू की जो छवि जनता में थी वह प्रेमचंद के उक्त कथन में दिखती है।
      प्रेमचंद की राष्ट्रीय भावना कभी अंध-राष्ट्रवाद का रूप ग्रहण नहीं करती। वे अपने राष्ट्र से प्रेम तो करते हैं, पर विश्वबंधुत्व की भावना को तिलांजलि देकर नहीं। वे राष्ट्रीय आन्दोलन के समर्थक हैं, लेकिन उस अंध-राष्ट्रवाद के समर्थक नहीं हैं जो विश्वबंधुत्व का शत्रु है। इसीलिए वे अंध-राष्ट्रवाद की आलोचना करते हैं और अंतरराष्ट्रीयता को भारत के पुरातन सन्देश ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ से जोड़कर देखते हैं। राष्ट्र की सेवा, उसकी स्वतंत्रता आदि सवालों को वे राष्ट्री भावना के अंतर्गत रखते हैं, लेकिन जब हमारा राष्ट्रीय हित पड़ोसी मुल्क के हित के खिलाफ हो जाए, दूसरे देशों के अस्तित्व के लिए खतरा हो जाए तो वह अंध-राष्ट्रवाद में बदल जाता है। प्रेमचंद ऐसी अन्ध-राष्ट्रीयता के विरोध में हैं। अपनी एक टिप्पणी ‘राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता’ (1933) में वे अंध-राष्ट्रीयता की तुलना मध्ययुगीन साम्प्रदायिकता से करते हैं। वे लिखते हैं: “राष्ट्रीयता वर्त्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह मध्यकालीन युग का कोढ़ साम्प्रदायिकता थी। नतीजा दोनों का एक है। साम्प्रदायिकता अपने घेरे के अन्दर पूर्ण शांति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थी, मगर उस घेरे के बाहर जो संसार था उसको नोचने-खसोटने में उसे जरा भी मानसिक क्लेश न होता था। राष्ट्रीयता भी अपने अपरिमित क्षेत्र के अन्दर रामराज्य का आयोजन करती है। उस क्षेत्र के बाहर का संसार उसका शत्रु है। सारा संसार ऐसे ही राष्ट्रों या गिरोहों में बंटा हुआ है और सभी एक-दूसरे को हिंसात्मक संदेह की दृष्टि से देखते हैं और जब तक इसका अंत न होगा संसार में शांति का होना असंभव है। जागरुक आत्माएँ संसार में अंतरराष्ट्रीयता का प्रचार करना चाहती है और कर रही हैं। लेकिन राष्ट्रीयता के बंधन में जकड़ा हुआ संसार उन्हें ड्रीमर या शेखचिल्ली समझकर उनकी उपेक्षा करता है।”20 उसके आगे वे लिखते हैं: “इसमें तो कोई संदेह नहीं कि अंतरराष्ट्रीयता मानव संस्कृति और जीवन का बहुत ऊँचा आदर्श है और आदि से संसार के विचारकों ने इसी आदर्श का प्रतिपादन किया है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ इसी आदर्श का परिचायक है।”
      अंतरराष्ट्रीयता के सम्बन्ध में प्रेमचंद की यह धारणा अचानक नहीं बनती है। देश में जो स्वाधीनता संघर्ष चल रहा था उसका लक्ष्य निश्चित रूप से स्वतंत्रता की प्राप्ति था। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारतवासियों में राष्ट्रीय भावना का जागरण आवश्यक था। किन्तु हमारे राष्ट्र नायकों ने दूसरे राष्ट्रों की कीमत पर अपने राष्ट्र की मुक्ति और उन्नति की कामना नहीं की। उसका प्रभाव भारतीय साहित्य और हिंदी साहित्य पर भी पड़ा। हिंदी साहित्य की चेतना स्वस्थ राष्ट्रीयता के साथ उदार अंतरराष्ट्रीयता से निर्मित हुई। प्रेमचंद की राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता उसी चेतना की उपज है। इस सम्बन्ध में प्रेमचंद के पूर्ववर्ती महावीर प्रसाद द्विवेदी के भी विचारों को देखना उचित होगा। राष्ट्र-प्रेम जब संकुचित होकर दूसरे देश के विरोध में चला जाए, इसको द्विवेदी जी ‘धूर्तों के भयंकर ढोंग’ के अंतर्गत रखते हुए अंतरराष्ट्रीयता को प्रमुखता से रेखांकित करते हैं और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के प्राचीन भारतीय आदर्श को आधुनिक सन्दर्भ में प्रासंगिक बताते हैं।21 द्विवेदी जी ने ठीक ही इस सम्बन्ध में रवीन्द्रनाथ ठाकुर को भी याद किया है जिनका चिंतन राष्ट्रीयता के साथ अंतरराष्ट्रीयता के विचारों को पुष्ट करता है। द्विवेदी जी अंधराष्ट्रीयता को यूरोप की देन मानते हैं और इसे भारत की स्वाभाविक वृत्ति नहीं मानते। कहने की जरुरत नहीं कि प्रेमचंद उसी धारा से निकले हिंदी चेतना के मुखर स्वर हैं।
      एक तरफ काँग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन चल रहा था तो दूसरी तरफ मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की सांप्रदायिक राजनीति थी। प्रेमचंद लीग और सभा दोनों की सांप्रदायिक राजनीति का विरोध करते हैं और कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाले मुक्ति संघर्ष के पक्ष में खड़े रहते हैं। साम्प्रदायिकता को वे राष्ट्रीयता का शत्रु मानते हैं और सभी सम्प्रदायों के बीच मेल मुहब्बत का माहौल बनाने में अपनी सारी लेखकीय ऊर्जा झोंक देते हैं। वे धर्म के आधार पर आधुनिक राष्ट्र-राज्य की कल्पना के विरुद्ध हैं। अपनी एक टिप्पणी ‘पाकिस्तान की नयी उपज’ (1933) में वे न सिर्फ मुहम्मद इकबाल के धर्म के आधार पर पाकिस्तान के निर्माण संबंधी प्रस्ताव का विरोध करते हैं, बल्कि यह भी कहना नहीं भूलते कि धर्म राष्ट्र निर्माण का आधार नहीं हो सकता।”22 वे धर्म के ऊँचे भावों का सम्मान करते  हैं, उसे जीवन में उतारने की बात करते भी हैं, लेकिन उसके संकीर्ण अर्थ का हमेशा विरोध करते हैं।
      सांप्रदायिक ढंगों पर, हिन्दू-मुस्लिम समस्याओं पर उन्होंने जितनी अधिक मात्रा में जोरदार टिप्पणियाँ लिखी है, उतनी और वैसी हिन्दी के किसी दूसरे लेखक ने शायद ही लिखी हों। सांप्रदायिकता को विष समझनेवाले प्रेमचंद सांप्रदायिक राजनीति के पीछे की उस चतुराई को भी बेनकाब करते हैं जो संस्कृति का रूप धारण कर तरह-तरह से राष्ट्रीय जीवन में जहर घोलने का काम करती है। सांप्रदायिकता और संस्कृति(1934) नामक अपने प्रसिद्ध निबंध में उन्होंने साफ शब्दों में कहा है: “सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रौब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति मगर हम आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोए चले जाते हैं।“23 सांप्रदायिकता, अंधविश्वास आदि की आलोचना करते हुए वे आगे लिखते हैं: “ये जमाना सांप्रदायिक अभ्युदय का नहीं है। ये आर्थिक युग है और आज वही नीति सफल होगी जिससे जनता अपनी आर्थिक समस्याओं को हल कर सके, जिससे ये अंधविश्वास और ये धर्म के नाम पर किया गया पाखंड या नीति के नाम पर गरीबों को दुहने की कथा मिटाई जा सके।”24
       प्रेमचंद का एक प्रसिद्ध वाक्य कहावत की तरह हिंदी समाज में लोगों की जुबान पर है, जो उनकी कहानी आहुति का है: “ऐसे स्वराज का आना व्यर्थ है जिसमें जॉन की जगह गोविंद गद्दी पर बैठ जाए।” इसीलिए ठीक ही रामविलास शर्मा ने उन्हें ‘स्वाधीनता-संग्राम के सैनिक साहित्यकार’25 के रूप में याद किया है|उनके मन में स्वराज और राष्ट्र का जो चित्र था वह बहुत साफ था। वे सिर्फ पात्र परिवर्तन के नहीं, व्यवस्था परिवर्तन के हिमायती थे। वे जाति-भेद के सवाल पर अम्बेडकर की तरह, संप्रदाय-भेद पर गाँधी की तरह और अमीरी-गरीबी के सवाल पर एक समाजवादी की तरह सोचते थे। जीवन, समाज और राष्ट्र के इतने व्यापक धरातल को छूने वाले वे हिंदी के सबसे बड़े लेखक थे। गाँधी के नेतृत्व में काँग्रेस ने प्रस्ताव पारित कर स्वराज के जिस रूप का संकल्प लिया था, उस पर प्रेमचंद ने अपनी एक टिप्पणी काँग्रेस (1931) में लिखा: “अब काँग्रेस का ध्येय राष्ट्र के सामने है। वह गरीबों की संस्था है, गरीबों के हितों की रक्षा उसका प्रधान कर्तव्य है। उसके विधान में मजदूरों, किसानों और गरीबों के लिए वही स्थान है जो अन्य लोगों के लिए। वर्ग, जाति, वर्ण आदि के भेदों को उसने एकदम मिटा दिया है।”26 प्रेमचंद की नजर में स्वराज्य के लिए लड़ने वाली काँग्रेस का यही रूप था! अफसोस यह है कि यह देखने के लिए वे जीवित न रहे ! स्वराज्य तो आया किन्तु भारत वैसा राष्ट्र-राज्य नहीं बन सका जिसका वे सपना देखते थे|
संदर्भ सूची:
1.     Anavaratblogspot.in
2.       विविध प्रसंग; भाग-1, पृष्ठ- 269
3.       वही, पृष्ठ- 268
4.       वही, पृष्ठ- 259
5.       वही
6.       वही
7.       भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद, पृष्ठ- 275
8.       वही, पृष्ठ- 264
9.       वही, पृष्ठ- 15
10.   वही, पृष्ठ- 20
11.   विविध प्रसंग; भाग-2, पृष्ठ- 77-78
12.   वही, पृष्ठ- 98
13.   वही, पृष्ठ- 92
14.   वही, पृष्ठ- 476
15.   वही, पृष्ठ- 470
16.   वही, पृष्ठ- 471
17.   वही, पृष्ठ- 152
18.   वही, पृष्ठ- 272
19.   वही, पृष्ठ- 222
20.   वही, पृष्ठ- 334
21.   महावीर प्रसाद द्विवेदी रचना संचयन; संपादक: भरत यायावर, समस्या शीर्षक निबंध।
22.   विविध प्रसंग; भाग-2, पृष्ठ- 409-10
23.    Krantiswarblogspot.in
24.   वही
25.   प्रेमचंद और उनका युग ,पृष्ठ -122
26.   वि.प्र.,भाग-2, पृष्ठ-75  

                                                                                                                                              

Thursday, 13 July 2017

हाशिए की सक्रिय आवाज़ें


लेखक और मनुष्य दोनों ही रूपों में डॉक्टर पी.एन. सिंह मेरे प्रिय हैं. मुलाकात सिर्फ दो बार की है. लेकिन उनके वैचारिक लेखों ने मुझे हमेशा सोचने-समझने का पर्याप्त खुराक दिया है. जितनी साफ़ उनकी दृष्टि और समझ है उतना ही पारदर्शी उनका व्यक्तित्व है. उनके लेख जब मैं पढ़ता हूं, फोन पर जब भी हमारी बातचीत होती है, मैं हमेशा बौद्धिक और आत्मिक ऊष्मा महसूस करता हूं. सच्चे अर्थों में वे हिंदी के पब्लिक इंटेलेक्चुअल हैं.
        इसलिए उनके वैचारिक लेखों की किताब की भूमिका लिखने की जब बात आई तो अनेक व्यस्तताओं के बावजूद मैं इनकार नहीं कर सका और मैंने सहर्ष हामी भर दी. मैंने इसे अपना सम्मान माना. यद्यपि मुझे लगता है कि अब किसी अन्य लेखक की किताब की भूमिका लिखना लगभग पुराना फैशन हो चुका है. फिर भी मैं भूमिका लिख रहा हूँ तो इसके पर्याप्त कारण हैं, जो समाज, राजनीति, साहित्य और संस्कृति संबंधी पी.एन. सिंह की व्यापक चिंताओं की देन है.
        पी.एन. सिंह ‘समकालीन सोच’ नाम से वर्षों तक एक पत्रिका निकालते रहे हैं. पत्रिका अपने सामाजिक, साहित्यिक सरोकारों के कारण मेरे लिए हमेशा पठनीय रही. मेरे लिए उसका सम्पादकीय विशेष आकर्षण का केंद्र था. इस सम्पादकीय में उनके व्यापक अध्ययन, अनुभव और सामाजिक सरोकारों से उपजे हुए प्रश्न होते थे. ‘समकालीन सोच’ के सम्पादकीय को पढना हर दृष्टि से अपने को समृद्ध करना था. व्यापक तैयारी के साथ लिखे हुए उनके अग्र लेखों में जितनी वैचारिक ऊष्मा होती थी, उतनी ही अनुभव की ऊष्मा भी. अब जबकि पी.एन. सिंह बीमार हैं, ‘समकालीन सोच’ का प्रकाशन मित्रों के सहयोग से रुक-रुक कर जारी है तब उनका महत्त्व समझ में आता है. मैं चाहता था कि उन अग्र लेखों को एक जगह पुस्तकाकार प्रकाशित किया जाए. मुझे ख़ुशी है कि यह शुभकार्य संपन्न हो रहा है और पी.एन. सिंह के जीवनकाल में हो रहा है. ‘समकालीन सोच’ और पी.एन. सिंह के प्रति मेरी राय हमेशा ही उंची रही. इसका प्रमाण है वह टिपण्णी जो वर्षों पहले ‘जनसत्ता’ (23 मार्च 2009) में ‘हाशिए की सक्रिय आवाजें’ शीर्षक से मैंने लिखी थी. वह टिपण्णी मुझे आज भी प्रासंगिक लगती है. इसलिए पी.एन. सिंह के वैचारिक लेखों पर कुछ कहने के पहले मैं उसे पढ़ने का आग्रह करूँगा.


‘समकालीन सोच’ का नया अंक (45 वां) सामने हैं. गाजीपुर (उ.प्र) से लगभग सत्रह वर्षों से डॉक्टर पी.एन. सिंह के संपादन में निकलने वाली यह पत्रिका त्रैमासिक हैं. पंजीकृत है, इसलिए कहने को त्रैमासिक है, वरना निकलती अनियतकालीन की तरह है. जब कागज़-प्रेस के खर्चे का इंतजाम हुआ और रचनाएं जुट गईं, तब पत्रिका निकल गई. संपादक और उनके साथियों की अनियतकालीन रचनात्मक मस्ती की तर्ज पर निकलने वाली इस पत्रिका के संरक्षक एवं संपादक मंडल में कई लोग हैं. उनमें सबसे बड़ा नाम नामवर सिंह का है. लेकिन लगता नहीं कि उनका संरक्षण कभी इस पत्रिका को मिला होगा. नाम शोभा के लिए हैं. शेष लोगों से कितनी मदद मिलती है, यह तो पी.एन.सिंह जानें! लेकिन कुल मिलाकर वे ही इसके पीर-बावर्ची-भिस्ती-खर हैं. बीमार हैं, पर पत्रिका निकाले जा रहे हैं.
        पत्रिका का नया अंक सामने है और पी.एन. सिंह का चेहरा आंखों के सामने घूम रहा है. दो बार की मुलाकात है. दिल्ली में और बलिया में. सेमिनार के दौरान. अंग्रेजी के रिटायर्ड अध्यापक. खूब पढ़े-लिखे और बेहद शरीफ. आधुनिक और प्रगतिशील सोच के व्यक्ति. अंग्रेजी में भी लिखते हैं, लेकिन मन रमता है हिंदी में. कई पुस्तकें हिंदी-अंग्रेजी में प्रकाशित है. लघु पत्रिकाओं में उनके लेख कभी-कभार पढ़ने को मिल जाते हैं. अच्छा लिखते हैं और साफ लिखते हैं. मित्रवत्सलता के मारे हैं, सो परिचितों-मित्रों को फोन कर हालचाल पूछते रहते हैं. अब वे बीमार हैं. स्मृति साथ नहीं दे रही है. कभी-कभी कुछ याद नहीं रहता. फिर भी पत्रिका निकल रही है. समानधर्मा साथियों की एक बड़ी जमात जो है उनके साथ.
        ‘समकालीन सोच’ जैसी पत्रिका न भी निकले तो क्या फर्क पड़ेगा? आज तक इस पत्रिका ने ऐसा कोई विवाद न खड़ा किया, जिसके कारण कोई इसे याद रखे या इसकी भूमिका रेखांकित करे. कोई नवीनता का आग्रही और विवादधर्मी या विवादप्रेमी व्यक्ति पी.एन. सिंह को सलाह दे सकता है कि आराम कीजिए. क्यों हलकान हुए जा रहे हैं! बहुत-सी पत्रिकाएं निकल रही हैं. आप जिन्हें छाप रहे हैं, उन्हें वे छाप देंगी. लेकिन सवाल सिर्फ ‘समकालीन सोच’ जैसी पत्रिकाओं का नहीं है. ऐसी दर्जनों पत्रिकाएं छोटे-बड़े शहरों से निकल रही हैं. गाजीपुर से हैदराबाद तक, कलकत्ता से जम्मू तक. हिंदी में निकलने वाली लघु साहित्यिक पत्रिकाओं की संख्या, एक अनुमान के आधार पर, चार-पांच सौ तो होगी ही. ज्यादातर पत्रिकाओं के पास संपादक और उसके साथी रचनाकार साथियों की घर-फूंक मस्ती और कुछ कर गुजरने की रचनात्मक बेचैनी के अलावा कोई दूसरा संसाधन नहीं. खुद ही लिखते हैं और खुद ही जेबें ढीली करते हैं. दिल्ली में बैठे ज्यादातर लेखक उन पत्रिकाओं में नहीं लिखते. ये पत्रिकाएं लिखने वालों को कुछ दे नहीं पातीं, इनकी प्रसार संख्या हजार-दो हजार से अधिक नहीं होती. इनके प्रोडक्शन का स्तर भी ठीक नहीं होता. सो ज्यादातर सफल और तथाकथित बड़े लेखक इसमें नहीं लिखते. इन लघु पत्रिकाओं का काम घरेलू कुटीर उद्योग की तर्ज पर चलता है. इनके पीछे न तो कोई संस्था या बड़ा घराना होता है और न विज्ञापन बटोरने की कला में माहिर दिमाग. बस, ये निकलती जाती हैं. हांफती, सुस्ताती और आगे बढ़ती. बिना कोई हंगामा बरपा किए. प्रश्न है कि ‘समकालीन सोच’ जैसी छोटी जगहों और छोटे संसाधनों से निकलने वाली पत्रिकाओं की भूमिका क्या है? दिल्ली में या बड़ी जगहों में बैठे मुझ जैसे पाठक को कोई फर्क नहीं पड़ता. ऐसी पत्रिकाएं निकले तब भी, न निकलें तब भी.
        लेकिन तभी भीतर से एक आवाज आती है. फर्क ऐसी ही पत्रिकाओं और उसके जुनूनी संपादकों तथा उसके लेखक साथियों की वजह से पैदा होता रहा है. ‘उदंत मार्तंड’ से चलकर ‘समकालीन सोच’ तक हिंदी पत्रकारिता की यात्रा अनेक कड़वे-मीठे अनुभवों और उतार-चढ़ावों का इतिहास है. इस बिच हिंदी बाजार की और कमाने के साथ ही हैसियत बनाने की भाषा बन चुकी है. उसकी दुनिया बड़ी पूंजी से संचालित है और बड़ी पूंजी के जो खेल होते हैं, वे सब उसके साथ हैं. कुछ लघु पत्रिकाएं भी बहुत ही चमक-दमक के साथ निकल रही हैं और लेखकों को पारिश्रमिक भी दे रही हैं. कहा जाता है कि इनके संपादक-प्रकाशक विज्ञापन के जरिए इतना जुटा लेते हैं कि न सिर्फ पत्रिका की चमक बनी रहती है, बल्कि बिना नौकरी किए उनके जीवन की भी चमक बनी रहती है. बहरहाल, पूंजी की चमक से चमकती-दमकती पत्रिकाओं से अलग ‘समकालीन सोच’ जैसी साधारण ढंग से लगभग चुपचाप-सी निकलने वाली पत्रिकाओं की भूमिका पर विचार करें तो हम पाएंगे कि नई रचनाशीलता और सोच के प्रकाशन में इनकी कितनी बड़ी भूमिका है.
        भूमंडलीकरण के दौर में पूंजी की माया ने बहुत कुछ बदला है. न तो बुनियादी परिवर्तन के आदर्शों से संचालित राजनीतिक दल हैं और न भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की चेतना वाले अखबार और मीडिया के दूसरे रूप. चेतना संपन्न मध्यवर्ग की जगह लालची और अवसरवादी मध्यवर्ग दाखिल हो चुका है. तथाकथित मुख्यधारा के राजनीतिक दल और तुमुल कोलाहल पैदा करता मीडिया जब कुछ भी  सार्थक नहीं कर रहा है, तब परिधि से उठती आवाजों की ओर ध्यान जाता है. छोटी-छोटी पत्रिकाओं, छोटे-छोटे ग्रुप और छोटे-छोटे आंदोलनों के जरिए ‘हैव’ और ‘हैव नॉट’ के बीच के विकराल अंतराल के विरुद्ध आंदोलनरत आवाजों की ओर महानगरों में कम ध्यान दिया जाता है. लेकिन मुझे लगता है कि साहित्य, संस्कृति और राजनीति की बुनियादी और परिवर्तनकारी लड़ाई की असल चमक इन्हीं आवाजों में है. परिधि से उठने वाली आवाजों में मार्क्स, गांधी, अम्बेडकर  आदि के नाम पर चलने वाला सोच आगे का है मगर उनकी चेतना से संपन्न. ये छोटी-छोटी आवाजें और लड़ाइयां ही समता, स्वतंत्रता और विश्व बंधुत्व के निर्माण की नई जमीन बनाएंगी.
        जरा सोचिए कि जब तथाकथित मुख्य धारा के राजनीतिक दल सिर्फ चुनावी धंधेबाजी में लगे हों, मीडिया फूहड़ मनोरंजन और अंधविश्वास बेच रहा हो, धर्माचार्य तंत्र-मंत्र के साथ अफीमी अंधविश्वास का नशा बेच रहे हों, सामाजिक कार्यकर्ता एन.जी.ओ. के जरिए कमाई करते हुए लड़ाई का भ्रम पैदा कर रहे हों, तब उम्मीद किससे की जाए! अपनी निराश मनोदशा में हम जब-जब नजर उठाते हैं, हमारी नजर परिधि की ऐसी ही ईमानदार कोशिशों पर टिकती हैं. पर्यावरण, साहित्य, नाटक, राजनीति आदि क्षेत्रों में सक्रिय और प्राणप्रण से लगी इन कोशिशों की अपनी सीमाएं होंगी और उनके अंतर्विरोध भी होंगे, किन्तु उसकी नीयत में खोट न मिलेगी.
         नलिन विलोचन शर्मा ने साहित्य के इतिहास दर्शन पर बात करते हुए कहा है कि साहित्य का इतिहास वस्तुतः गौण लेखकों का इतिहास होता है. आशय यह है कि बड़े और महान लेखक जिस वातावरण की उपज होते हैं, उसके निर्माण में बुनियादी भूमिका गौण लेखकों की ही होती है. महानों की चमक से चौंधियाती हमारी आंखें अकसर गौण लेखकों की भूमिका की अनदेखी करती हैं. हिंदी के जो महान लेखक आज इतिहास के पन्नों पर दिखते हैं, उनका इतिहास लिखते हुए उनकी पृष्ठभूमि पर भी हमारी नजर होनी चाहिए. हम जब अपने साहित्य और पत्रकारिता के इतिहास पर नजर डालते हैं तो हैरत होती है कि बड़े नगरों के साथ छोटे-छोटे शहरों और कस्बों की सक्रियताओं ने कितनी बड़ी भूमिका निभाई है. लहेरियासराय, आरा, खंडवा, अजमेर, मिर्जापुर आदि कुछ छोटे शहर इतिहास के पन्नों में अपनी चमक के साथ मौजूद हैं और मौजूद हैं वहां से निकलने वाली पत्रिकाएं, जिन्होंने न सिर्फ नई रचनाशीलता की जमीन तैयार की, बल्कि इतिहास बनाने की भी शुरुआत की.

        ‘समकालीन सोच’ तो एक बहाना है. मैं इसके जरिए हिंदी की उन सैकड़ों पत्रिकाओं की ओर आपका ध्यान चाहता हूं जो अपने-अपने शहरों-कस्बों में इस नाउम्मीद और मायावी पूंजी के दौर में नई पीढ़ी के लिए ‘लाइट हाउस’ की तरह हैं. उनमें छपकर या उनके द्वारा आयोजित छोटी-छोटी बैठकों में शामिल होकर नए लेखक वह तमीज और संस्कार पाते हैं, जो उन्हें आज न तो कोई नेता दे रहा है, न धर्माचार्य, न मीडिया और न कोई समाजसेवी. सेकुलर सोच और आधुनिक दृष्टि के निर्माण में जगह-जगह अलख जगाती इन दर्जनों पत्रिकाओं की भूमिका बड़ी जगहों और बड़े घरानों से निकलने वाली पत्रिकाओं की तुलना में ज्यादा सक्रिय और रचनात्मक है. क्या ही अच्छा हो कि हर कस्बे और हर मोहल्ले में पी.एन. सिंह जैसे लोग हों और ‘समकालीन सोच’ जैसी पत्रिकाएं हों और उनके प्रकाश-वृत्त में नया आकर ग्रहण करता, छोटा ही सही, लेखकों-पाठकों का वर्ग हो. दुनिया बड़े प्रयासों से ही नहीं, छोटे प्रयासों से भी सुन्दर बनती है.