Friday, 21 July 2017

प्रेमचंद की नज़र में राष्ट्र


रामविलास शर्मा ने 1936 ई. को इस अर्थ में विशिष्ट माना है कि इस वर्ष तीन ऐसी रचनाएँ प्रकाशित हुईं जिनमें भविष्य के भारत का सपना था। इनमें पहली रचना आधुनिक भारत के निर्माता जवाहर लाल नेहरू की ‘आत्मकथा’ है। दूसरी रचना लोकनायक जयप्रकाश नारायण की समाजवाद ही क्यों?’ (‘why socialism?’) है जबकि तीसरी रचना प्रेमचंद का निबंध महाजनी सभ्यता है। पहली दोनों रचनाएँ पुस्तक रूप में थीं और अंग्रेजी में लिखी गई थीं। ‘आत्मकथा’ सिर्फ नेहरू की निजी कथा न होकर स्वतंत्रता आन्दोलन और स्वतंत्र भारत के आधुनिक जनतांत्रिक सपने की भी कथा है। समाजवाद ही क्यों? भारत में समाजवादी व्यवस्था की आवश्यकता पर जोर देने वाली पहली व्यवस्थित पुस्तक है। नेहरू और जे.पी. प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी, अपने-अपने समय के युवा ह्रदय सम्राट तथा गाँधी के बाद देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता थे। ऐसे महानों की अति प्रसिद्ध पुस्तकों के साथ रामविलास जी ने हिंदी के लेखक प्रेमचंद के एक निबंध को याद किया है तो इसका विशेष अर्थ है| वे ऐसे लेखक थे जिनकी नजर वर्तमान के साथ बेहतर भविष्य पर भी थी। इसलिए यह अकारण नहीं है कि नेहरू और जे.पी. की पुस्तकों के साथ रामविलास शर्मा प्रेमचंद के निबंध का नाम लेते हैं जो उनकी लेखकीय दृष्टि को समझने के खयाल से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। महाजनी सभ्यता यानी पूँजीवादी सभ्यता। पूँजीवाद के पहले सामंतवादी सभ्यता थी। ये दोनों सभ्यताएँ जनता के शोषण और सामजिक भेदभाव पर आधारित थीं। जो सभ्यता शोषण और भेदभाव पर आधारित हो वह प्रेमचंद को किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं थी। उन्होंने उस सभ्यता का स्वागत किया जिसका सूर्य पश्चिम में उग रहा था। निस्संदेह पश्चिम के उस सूर्य से तात्पर्य रूस में स्थापित समाजवादी व्यवस्था से है। प्रेमचंद ने पूँजीवादी सभ्यता की कठोरतम आलोचना करने के बाद लिखा: “परन्तु अब नई सभ्यता का सूर्य सुदूर पश्चिम से उदय हो रहा है जिसने इस नारकीय महाजनवाद या पूँजीवाद की जड़ खोदकर फेंक दी है जिसका मूल सिद्धांत यह है कि प्रत्येक व्यक्ति, जो अपने शरीर या दिमाग से मेहनत करके कुछ पैदा कर सकता है, राज्य और समाज का परम सम्मानित सदस्य हो सकता है और जो दूसरों की मेहनत या बाप-दादों के जोड़े हुए धन पर रईस बना फिरता है वह पतीततम प्राणी है।”1
प्रेमचंद भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के गर्भ से पैदा हुए ऐसे लेखक थे जिसके लिए स्वतंत्रता का अर्थ राजनीतिक मुक्ति के साथ सामजिक और आर्थिक मुक्ति भी है। वे पूँजीवादी व्यवस्था के जितने खिलाफ थे, उतने ही सामंती व्यवस्था के भी। जाति, संप्रदाय और गरीबी के सवाल उनके शब्द-कर्म के जरूरी एजेंडे थे। पुराना क्या है जो अप्रासंगिक हो चुका है और नया क्या है जो प्रासंगिक है, उसकी जितनी साफ़ समझ उनके पास थी, वैसी हिंदी के उनके समकालीन किसी दूसरे लेखक के पास शायद ही हो! वे यदि 1936 में ‘महाजनी सभ्यता’ का क्रीटिक तैयार करते हैं तो इसका कारण यह है कि वे पुराने समय और नए समय में फर्क करना ठीक से जानते हैं। 1919 में प्रकाशित उनके ‘पुराना जमाना: नया जमाना’ शीर्षक निबंध को देखने से पता चलता है कि 1936 में वे जहाँ पहुंचे थे उसकी तैयारी वे बहुत पहले से कर रहे थे। अपने उस निबंध में वे लिखते हैं: ”आने वाला जमाना अब जनता का है, और वह लोग पछताएंगे जो ज़माने के कदम-से-कदम मिलाकर न चलेंगे।”2
ज़माने के कदम-से-कदम मिलाकर चलने की जो सबसे बड़ी कसौटी प्रेमचंद की थी वह थी किसानों की हालत। उनके सारे रचनात्मक और वैचारिक लेख के मूल में किसान जीवन की वास्तविकता और उनकी चिंता सर्वोपरि है। जैसे महात्मा गाँधी के ‘स्वराज’ के केंद्र में गाँव था और गाँव के किसान थे, वैसे ही प्रेमचंद के लेखकीय चिंतन के केंद्र में किसान हैं। ‘पूस की रात’ का हलकू हो या ‘गोदान’ का होरी या उनका वैचारिक लेखन, किसान जीवन की दशा-दुर्दशा और उसका भविष्य उनकी सजग-सचेत नजर से कभी ओझल नहीं होता। ‘पुराना जमाना, नया जमाना’ का एक अंश इस दृष्टि से देखा जा सकता है:  ”क्या यह शर्म की बात नहीं कि जिस देश में नब्बे फीसदी आबादी किसानों की हो उस देश में कोई किसान सभा, कोई किसानों की भलाई का आन्दोलन, कोई खेती का विद्यालय, किसानों की भलाई का कोई व्यवस्थित प्रयत्न न हो... मगर नए ज़माने ने नया पन्ना पलटा है। आने वाला जमाना अब किसानों और मजदूरों का है। दुनिया की रफ़्तार इसका साफ़ सबूत दे रही है। हिंदुस्तान इस हवा से बेअसर नहीं रह सकता। हिमालय की चोटियाँ उसे इस हमले से नहीं बचा सकतीं। जल्द या देर से, शायद जल्द ही, हम जनता को केवल मुखर ही नहीं, अपने अधिकारों की माँग करने वाले के रूप में देखेंगे और तब वह आपकी किस्मतों की मालिक होगी।”3
प्रेमचंद जिस आधुनिक भारत का सपना देख रहे थे वह ऐसा राष्ट्र-राज्य है जिसमें किसान-मजदूर खुद अपनी किस्मत के मालिक होंगे। वे यह तो मानते हैं कि ‘वर्तमान सभ्यता का सबसे अच्छा पहलू राष्ट्रीयता की भावना का जन्म लेना है।’4 लेकिन सच्ची राष्ट्रीयता उनकी नजर में तब तक नहीं आ सकती जब तक कि सामजिक, आर्थिक और शैक्षणिक गैर बराबरी जनता में है। वे कहते हैं: ”आपका आधुनिक शिक्षा से वंचित भाई आपको इस ठाट में देखता है और यह समझता है कि यह आदमी हममें नहीं है, हम उनके नहीं हैं। फिर चाहे आप कितनी बुलंद आवाज से राष्ट्रीयता की हाँक लगाएँ।”5 वे राष्ट्रीयता को आधुनिक सभ्यता का सबसे अच्छा पहलू कहते हैं लेकिन वे यह भी बताते चलते हैं कि ‘जनतांत्रिक’ का समावेश ‘आधुनिक सभ्यता का सबसे प्रधान गुण है।”6 इससे पता चलता है कि प्रेमचंद के लिए जो भविष्य का भारत है उसका ताना-बाना जनतांत्रिकता और आधुनिकता के रेशे से निर्मित है जिसमें किसान-मजदूर अपनी किस्मत के मालिक हैं। लगभग सौ वर्ष पूर्व देखा गया भारतीय राष्ट्र-राज्य का प्रेमचंद का सपना मुहावरे के अर्थ में अब भी सपना है! किसान मजदूर अब भी अपनी किस्मत के मालिक नहीं हैं! हमारी जनतांत्रिक आकांक्षाओं पर अब भी पहरेदारी है! आर्थिक और शैक्षणिक गैर बराबरी की तो बात ही मत पूछिए! “किसानों की हालत और खराब है. गरीबों और अमीरों के बीच खाई और चौड़ी हो चुकी है. समाजवादी दुनिया बिखर चुकी है. ऐसे पूँजीवाद की उनके द्वारा की गई आलोचना का महत्त्व और बढ़ गया है. रामविलास शर्मा ने ठीक ही गणेश शंकर विद्यार्थी के बाद प्रेमचंद को पूँजीवाद का सबसे महत्त्वपूर्ण आलोचक कहा है|7
भारत के राष्ट्री आन्दोलन में प्रेमचंद सदेह शामिल नहीं थे। कुछ लोगों को आश्चर्य हो सकता है कि जनता की मुक्ति की बात करने वाला लेखक जनता के मुक्ति-संघर्ष में सदेह शामिल क्यों नहीं होता? उस ज़माने में हिंदी विभिन्न भारतीय भाषाओं के अनेक लेखक स्वतंत्रता संग्राम में सदेह शामिल थे और उस कारण उन्हें तरह-तरह की यातनाएँ भी झेलनी पड़ीं। ऐसे सभी लेखकों से भारत के मुक्ति-संग्राम को बल मिला। उनके कर्म से भी और उनके शब्द से भी। लेकिन ऐसे भी बहुतेरे लेखक थे जो स्वतंत्रता संग्राम में सदेह शामिल न होकर मनसा-वाचा शामिल थे। नके लिखे से भारतीय राष्ट्र-राज्य का नया रूप बन रहा था। नका एक-एक शब्द हजारों-लाखों को प्रेरित-प्रभावित कर रहा था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ऐसे ही लेखक थे जिनसे भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम को नयी ऊर्जा मिलती थी। प्रेमचंद भी ऐसे ही लेखक थे जो भारतीय समाज और राष्ट्र की मुक्ति के मार्ग में बाधक सभी तत्त्वों से लड़ते रहे। अमृत राय ने ‘कलम का सिपाही’ नाम से उनकी जीवनी लिखी है। सही अर्थों में वे कलम के सिपाही थे। वे कलम से स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने वाले हिंदी के सबसे बड़े लेखक थे।
कलम से जिस तरह जनता और राष्ट्र की मुक्ति की लड़ाई प्रेमचंद लड़ रहे थे, सका सही पता-ठिकाना तभी चलता है जब हम उनके रचनात्मक साहित्य के साथ उनके वैचारिक लेखन को भी देखते हैं। अपने लेखन काल के प्रारंभ से लेकर मृत्यु पर्यंत लगभग तीन दशक का उनका जो वैचारिक लेखन है वह भारत की स्वतंत्रता, स्वावलंबन, आर्थिक-सामजिक गैरबराबरी और विश्व बंधुत्व जैसी अनेक चिंताओं से मुठभेड़ का प्रतिफल है। हम अक्सर उन्हें आर्य समाजी, गाँधीवादी और मार्क्सवादी प्रभावों के सन्दर्भ में देखते-दिखाते हैं। उनके साहित्य पर इनके प्रभाव से किसी को इंकार भी नहीं है। लेकिन उनकी चेतना सबसे अधिक स्वतंत्रता आन्दोलन के मूल्यों से संचालित है। विदेशी दासता से मुक्ति के लिए स्वशासन जरूरी था। लेकिन कैसा स्वशासन? वे सही अर्थों में जनता के शासन के पक्ष में थे और जनता का शासन तब आएगा जब बेजबानों की ताकत जाहिर होने लगेगी। उन्हीं के शब्द देखें...”अब एक फाकाकश मजदूर भी अपनी अहमियत समझने लगा है और धन-दौलत की ड्योढ़ी पर सर झुकाना पसंद नहीं करता। उसे अपने कर्त्तव्य चाहे न मालूम हों लेकिन अपने अधिकारों का पूरा ज्ञान है। वह जानता है कि इस सारे राष्ट्रीय वैभव और प्रभुत्व का कारण मैं हूँ। यह सारा राष्ट्रीय विकास और उन्नति मेरे ही हाथों का करिश्मा है। अब वह मूक संतोष और सर झुकाकर सबकुछ स्वीकार कर लेने में विश्वास नहीं रखता।”8 तो प्रेमचंद इसी मजदूर की हिस्सेदारी स्वशासन में सुनिश्चित करना चाहते थे।
‘स्वदेशी आन्दोलन’ स्वतंत्रता संग्राम का एक बड़ा एजेंडा था। स्वदेशी के बिना भारत राष्ट्र के रूप में खड़ा नहीं हो सकता था। स्वतंत्रता आन्दोलन में महात्मा गाँधी के प्रवेश के बहुत पहले स्वदेशी की माँग जोर-शोर से उठने लगी थी। महात्मा गाँधी के आने के बाद इस आन्दोलन ने और जोर पकड़ा जब वे 1915 में भारत आए। प्रेमचंद 1905 में ‘देशी चीजों का प्रचार कैसे बढ़ सकता है’9  शीर्षक निबंध लिखकर घरेलू उद्योग-धंधों के विकास और उनकी मार्केटिंग के मार्ग में आने वाली बाधाओं की चिंता करते हैं। वे उसी वर्ष ‘स्वदेशी आन्दोलन’ की वकालत करते हैं और उसे ‘देशभक्तिपूर्ण आन्दोलन’10 की संज्ञा देते हैं। ‘स्वराज से किसका अहित होगा?’ (1930) शीर्षक अपने निबंध में वे निर्भय होकर इस संग्राम में सम्मिलित होने की मांग करते हैं। 1931 में ‘देश की वर्त्तमान परिस्थिति’ की चर्चा करते हुए वे किसानों से अपील करते हैं कि ‘महात्मा जी के मार्ग’ से यदि वे हटे तो उन्हें पछताना पड़ेगा। ‘स्वदेशी आन्दोलन’ का जबर्दस्त समर्थन करने के साथ प्रेमचंद भारत और पूरी दुनिया में गोरी जातियों की सभ्यता के अन्यायपूर्ण आचरण और दमन-शोषण की आलोचना करते हैं और उके पाखंड पर चोट करते हैं। ‘गोरी जातियों का प्रभाव क्यों कम है’ (1931) शीर्षक निबंध में वे लिखते हैं कि “...गोरों ने आदि से ही प्रेम के बल पर नहीं, आतंक के बल पर संसार पर प्रभुत्व जमाया है। वह कालों की नज़रों से अपने ऐबों को छिपाकर अपनी नीतिमता की साख बिठाये थे|”11 अंग्रेजों की अन्यायपूर्ण नीति और गरीब जनता को टैक्स के जरिए लूटने की उकी आदत के कारण प्रेमचंद को ‘स्वराज की कामना’ का भारतीय जन में जन्म लेना स्वाभाविक जान पड़ता है।
      प्रेमचंद के लिए राष्ट्र का अर्थ सिर्फ कोई निश्चित भू-भाग ही नहीं, उसके आगे भी बहुत कुछ है। उनके लिए राष्ट्र का अर्थ सबसे पहले उस भू-भाग की शोषित, पीड़ित जनता है। ‘नवयुग’ (1932) शीर्षक अपने एक निबंध में राष्ट्र और राष्ट्रीयता की ओर संकेत करते हुए वे लिखते हैं: “राष्ट्र केवल एक मानसिक प्रवृत्ति है। जब यह प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है तो किसी प्रांत या देश के निवासियों में भ्रातृभाव जागरित हो जाता है। तब उनमें रुढियों से पैदा होने वाले भेद, पुराने संस्कारों से उत्पन्न होनेवाली विभिन्नताएँ और ऐतिहासिक तथा धार्मिक विषमताएँ, एक प्रकार से मिट जाती हैं।”12 जब तक ‘विविधताएँ’ और ‘विषमताएँ’ किसी राष्ट्र में मौजूद हैं तब तक वह सही अर्थों में राष्ट्र नहीं है। जनता का जिस तरह शोषण है, गरीबी का जैसा साम्राज्य है, गाँवों की जो हालत है, उस पर वे ‘दमन की सीमा’ (1932) शीर्षक निबंध में गंभीर और तल्ख़ टिप्पणी करते हैं। ब्रिटिश सरकार, प्रशासन और जमींदारों को कठघरे में खड़ा करते हुए कहते हैं: “देहात से, सुधार और सहयोग और शिक्षा और स्वास्थ्य और सभी आयोजनाएँ, जिनसे राष्ट्र बनता है, जिनसे उसका विकास होता है, लापता हैं।”13 इसीलिए औरों के लिए राष्ट्र और राष्ट्रीयता का जो भी अर्थ हो, प्रेमचंद के लिए उसका ठेठ भारतीय अर्थ है। उनकी दो टूक राय है,  “राष्ट्रीयता की पहली शर्त वर्ण-व्यवस्था, ऊँच-नीच के भेदभाव और धार्मिक पाखण्ड की जड़ खोदना है।”14
      जाति भेद की समस्या को भारतीय राष्ट्रीयता की केन्द्रीय समस्या मानते हुए ऐसे लोगों पर प्रेमचंद जोरदार हमला करते हैं जो जाति की श्रेष्ठता और धार्मिक विद्वेष की भावना से भरे हुए हैं। राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद के नकली प्रवक्ताओं को ‘क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं?’ (1934) शीर्षक निबंध लिखकर वे कठघरे में खड़ा करते हैं। वे लिखते हैं: “हम अभी तक केवल मुँह से राष्ट्र-राष्ट्र का गुल मचाते हैं, हमारे दिलों में अभी वही जाति भेद अन्धकार छुपा हुआ है। और यह कौन नहीं जानता कि जाति भेद और राष्ट्रीयता दोनों में अमृत और विष का अंतर है।”15 इसलिए जो पुजारी, पुरोहित और पंडे जातिभेद करते हैं उन्हें वे ‘टके पंथी’ और हिन्दू जाति का कलंक कहकर संबोधित करते हैं।
      भारत का विशाल भू-भाग, शस्य श्यामला धरती और यहां की पुरानी अच्छी बातें उन्हें भाती हैं। इस अर्थ में वे सच्चे देश-प्रेमी हैं। इसलिए वे औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति की बात जोरदार ढंग से उठाते हैं। काँग्रेस और महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चलने वाले राष्ट्रीय आन्दोलन की जोरदार वकालत करते हैं। इस विषय पर लिखते हुए उनका राष्ट्रवादी रुझान और उनकी राष्ट्रीयता पूरी बुलंदी पर है। इसलिए ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ जैसी भावना प्रधान देशभक्तिपूर्ण कहानी हो या ‘कर्मभूमि’ जैसा स्वाधीनता संग्राम के झंझावतों से भरा उपन्यास, ‘देशी चीजों का प्रसार कैसे बढ़ सकता है’ (1905) और ‘स्वदेशी आन्दोलन’ (1905) जैसे प्रारम्भिक वैचारिक लेख हों या आर्य समाज, गाँधीवाद और मार्क्सवाद जैसी विचारधाराओं के प्रभाव से गुजरने के बाद अंतिम दिनों के लेख, प्रेमचंद साम्राज्यवाद से भारत की मुक्ति के हमेशा पक्षधर हैं। लेकिन मुक्ति से प्रेरित उनकी राष्ट्रीयता सिर्फ कुछ प्रतीकों तक सीमित नहीं है। वे सिर्फ अपनी सरकार बन जाने से संतुष्ट होने वाले राष्ट्रप्रेमी नहीं हैं। राष्ट्र, जो मेहनतकश जनता से बनता है, वे उस राष्ट्र की मुक्ति के पक्षधर हैं। इसलिए ऐसे राष्ट्रवादियों को जिनके एजेंडे में भेदभाव मिटाना नहीं है, फटकार लगाते हुए वे कहते हैं “राष्ट्रीयता की पहली शर्त है, साम्य का दृढ होना। इसके बिना राष्ट्रीयता की कल्पना ही नहीं की जा सकती।”16  
      सच्ची राष्ट्रीयता का विकास कब होगा? जब समतामूलक समाज बनेगा, जब जाति भेद न होगा। प्रेमचंद हिंदी के इस अर्थ में अकेले लेखक हैं जो जीवन भर जातिप्रथा का विरोध करते रहे। उनका सारा साहित्य जातिप्रथा के विरुद्ध सतत संघर्ष का साहित्य है। सामजिक समता के लिए संघर्ष करते हुए वे कभी आर्थिक गैर बराबरी को नहीं भूलते। इसीलिए वे स्वराज्य के साथ-साथ आर्थिक स्वराज्य का प्रश्न उठाते हैं। अपनी एक टिप्पणी ‘आर्थिक स्वराज्य’ (1933) में वे आर्थिक और राजनैतिक स्वराज्य दोनों को एक-दूसरे का पूरक मानते हुए दिखाई देते हैं। उसी वर्ष की अपनी एक दूसरी टिप्पणी ‘अविश्वास’ में वे यही बात और साफ़ तरीके से कहते हुए दिखाई देते हैं। वे लिखते हैं “अधिकांश भारतीय स्वराज्य इसलिए नहीं चाहते कि अपने देश के शासन में उनकी आवाज ही पहले सुनी जावे, पर स्वराज्य का अर्थ उनके लिए आर्थिक स्वराज्य होता है। अपने प्राकृतिक साधनों पर अपना अधिकार, अपनी प्राकृतिक उपजों पर अपना नियंत्रण, अपनी वस्तुओं का स्वच्छंद उपभोग और अपनी पैदावार पर अपनी इच्छानुसार मूल्य लेने का स्वत्व- यही उनकी सबसे बड़ी, सबसे पहली, सबसे उत्कृष्ट माँग है। यह माँग स्वराज्य का अंग नहीं, स्वराज इसी माँग का अंग है।”17 इस तरह प्रेमचंद का स्वराज्य, उनके भारत का सपना, आर्थिक आत्मनिर्भरता से अलग नहीं था। भारत में आज भी किसानों-मजदूरों और आदिवासियों की आर्थिक पर निर्भरता, उनके अपने ही साधनों पर अपने अधिकार न होने पर हिंदी के कितने लेखक चिंतित दिखाई देते हैं? प्रेमचंद स्वराज्य के साधन के रूप में सबसे पहला स्थान इसीलिए ‘स्वावलंबन’ को देते हैं।18    
यह सही है कि प्रेमचंद भारत के लिए जिस स्वराज्य का स्वप्न देखते थे, वह ‘आर्थिक स्वराज्य’ से भिन्न न था। लेकिन वे उसके आगे सोशलिज्म का समर्थन करते हुए भी देखे जाते हैं। अपनी एक टिप्पणी ‘रूस में समाचार पत्रों की उन्नति’ (1933)  में जहाँ वे सोवियत संघ की प्रशंसा करते हैं, वहीँ वे भारत के नेताओं में जवाहरलाल नेहरू की उनके समाजवादी विचारों के लिए खुलकर तारीफ़ करते हैं। नेहरू के एक व्याख्यान की चर्चा करते हुए लिखते हैं, जैसे नेहरू उनके ही मन की बात कह रहे हों। प्रेमचंद के शब्द हैं, “श्री जवाहर लाल नेहरू ने अपने व्याख्यानों में वैज्ञानिक साम्यवाद (साइंटिफिक सोशलिज्म) शब्द का प्रयोग किया। आपका अभिप्राय यह था कि वर्तमान समाज में मनुष्य-मनुष्य में जो भीषण असमानता है, वह दूर हो। यह ठीक नहीं है कि एक मनुष्य के पास अथाह धन भरा पड़ा हो और दूसरा मनुष्य भूखा मरता हो। समाज का इस प्रकार संगठन होना चाहिए जिससे कोई मनुष्य भूखा न रहने पावे, सबको पर्याप्त अन्न और वस्त्र मिले और सबको उन्नति करने का समान अवसर हो।”19 1930 के दशक में जवाहर लाल नेहरू की जो छवि जनता में थी वह प्रेमचंद के उक्त कथन में दिखती है।
      प्रेमचंद की राष्ट्रीय भावना कभी अंध-राष्ट्रवाद का रूप ग्रहण नहीं करती। वे अपने राष्ट्र से प्रेम तो करते हैं, पर विश्वबंधुत्व की भावना को तिलांजलि देकर नहीं। वे राष्ट्रीय आन्दोलन के समर्थक हैं, लेकिन उस अंध-राष्ट्रवाद के समर्थक नहीं हैं जो विश्वबंधुत्व का शत्रु है। इसीलिए वे अंध-राष्ट्रवाद की आलोचना करते हैं और अंतरराष्ट्रीयता को भारत के पुरातन सन्देश ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ से जोड़कर देखते हैं। राष्ट्र की सेवा, उसकी स्वतंत्रता आदि सवालों को वे राष्ट्री भावना के अंतर्गत रखते हैं, लेकिन जब हमारा राष्ट्रीय हित पड़ोसी मुल्क के हित के खिलाफ हो जाए, दूसरे देशों के अस्तित्व के लिए खतरा हो जाए तो वह अंध-राष्ट्रवाद में बदल जाता है। प्रेमचंद ऐसी अन्ध-राष्ट्रीयता के विरोध में हैं। अपनी एक टिप्पणी ‘राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता’ (1933) में वे अंध-राष्ट्रीयता की तुलना मध्ययुगीन साम्प्रदायिकता से करते हैं। वे लिखते हैं: “राष्ट्रीयता वर्त्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह मध्यकालीन युग का कोढ़ साम्प्रदायिकता थी। नतीजा दोनों का एक है। साम्प्रदायिकता अपने घेरे के अन्दर पूर्ण शांति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थी, मगर उस घेरे के बाहर जो संसार था उसको नोचने-खसोटने में उसे जरा भी मानसिक क्लेश न होता था। राष्ट्रीयता भी अपने अपरिमित क्षेत्र के अन्दर रामराज्य का आयोजन करती है। उस क्षेत्र के बाहर का संसार उसका शत्रु है। सारा संसार ऐसे ही राष्ट्रों या गिरोहों में बंटा हुआ है और सभी एक-दूसरे को हिंसात्मक संदेह की दृष्टि से देखते हैं और जब तक इसका अंत न होगा संसार में शांति का होना असंभव है। जागरुक आत्माएँ संसार में अंतरराष्ट्रीयता का प्रचार करना चाहती है और कर रही हैं। लेकिन राष्ट्रीयता के बंधन में जकड़ा हुआ संसार उन्हें ड्रीमर या शेखचिल्ली समझकर उनकी उपेक्षा करता है।”20 उसके आगे वे लिखते हैं: “इसमें तो कोई संदेह नहीं कि अंतरराष्ट्रीयता मानव संस्कृति और जीवन का बहुत ऊँचा आदर्श है और आदि से संसार के विचारकों ने इसी आदर्श का प्रतिपादन किया है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ इसी आदर्श का परिचायक है।”
      अंतरराष्ट्रीयता के सम्बन्ध में प्रेमचंद की यह धारणा अचानक नहीं बनती है। देश में जो स्वाधीनता संघर्ष चल रहा था उसका लक्ष्य निश्चित रूप से स्वतंत्रता की प्राप्ति था। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारतवासियों में राष्ट्रीय भावना का जागरण आवश्यक था। किन्तु हमारे राष्ट्र नायकों ने दूसरे राष्ट्रों की कीमत पर अपने राष्ट्र की मुक्ति और उन्नति की कामना नहीं की। उसका प्रभाव भारतीय साहित्य और हिंदी साहित्य पर भी पड़ा। हिंदी साहित्य की चेतना स्वस्थ राष्ट्रीयता के साथ उदार अंतरराष्ट्रीयता से निर्मित हुई। प्रेमचंद की राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता उसी चेतना की उपज है। इस सम्बन्ध में प्रेमचंद के पूर्ववर्ती महावीर प्रसाद द्विवेदी के भी विचारों को देखना उचित होगा। राष्ट्र-प्रेम जब संकुचित होकर दूसरे देश के विरोध में चला जाए, इसको द्विवेदी जी ‘धूर्तों के भयंकर ढोंग’ के अंतर्गत रखते हुए अंतरराष्ट्रीयता को प्रमुखता से रेखांकित करते हैं और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के प्राचीन भारतीय आदर्श को आधुनिक सन्दर्भ में प्रासंगिक बताते हैं।21 द्विवेदी जी ने ठीक ही इस सम्बन्ध में रवीन्द्रनाथ ठाकुर को भी याद किया है जिनका चिंतन राष्ट्रीयता के साथ अंतरराष्ट्रीयता के विचारों को पुष्ट करता है। द्विवेदी जी अंधराष्ट्रीयता को यूरोप की देन मानते हैं और इसे भारत की स्वाभाविक वृत्ति नहीं मानते। कहने की जरुरत नहीं कि प्रेमचंद उसी धारा से निकले हिंदी चेतना के मुखर स्वर हैं।
      एक तरफ काँग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन चल रहा था तो दूसरी तरफ मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की सांप्रदायिक राजनीति थी। प्रेमचंद लीग और सभा दोनों की सांप्रदायिक राजनीति का विरोध करते हैं और कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाले मुक्ति संघर्ष के पक्ष में खड़े रहते हैं। साम्प्रदायिकता को वे राष्ट्रीयता का शत्रु मानते हैं और सभी सम्प्रदायों के बीच मेल मुहब्बत का माहौल बनाने में अपनी सारी लेखकीय ऊर्जा झोंक देते हैं। वे धर्म के आधार पर आधुनिक राष्ट्र-राज्य की कल्पना के विरुद्ध हैं। अपनी एक टिप्पणी ‘पाकिस्तान की नयी उपज’ (1933) में वे न सिर्फ मुहम्मद इकबाल के धर्म के आधार पर पाकिस्तान के निर्माण संबंधी प्रस्ताव का विरोध करते हैं, बल्कि यह भी कहना नहीं भूलते कि धर्म राष्ट्र निर्माण का आधार नहीं हो सकता।”22 वे धर्म के ऊँचे भावों का सम्मान करते  हैं, उसे जीवन में उतारने की बात करते भी हैं, लेकिन उसके संकीर्ण अर्थ का हमेशा विरोध करते हैं।
      सांप्रदायिक ढंगों पर, हिन्दू-मुस्लिम समस्याओं पर उन्होंने जितनी अधिक मात्रा में जोरदार टिप्पणियाँ लिखी है, उतनी और वैसी हिन्दी के किसी दूसरे लेखक ने शायद ही लिखी हों। सांप्रदायिकता को विष समझनेवाले प्रेमचंद सांप्रदायिक राजनीति के पीछे की उस चतुराई को भी बेनकाब करते हैं जो संस्कृति का रूप धारण कर तरह-तरह से राष्ट्रीय जीवन में जहर घोलने का काम करती है। सांप्रदायिकता और संस्कृति(1934) नामक अपने प्रसिद्ध निबंध में उन्होंने साफ शब्दों में कहा है: “सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रौब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति मगर हम आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोए चले जाते हैं।“23 सांप्रदायिकता, अंधविश्वास आदि की आलोचना करते हुए वे आगे लिखते हैं: “ये जमाना सांप्रदायिक अभ्युदय का नहीं है। ये आर्थिक युग है और आज वही नीति सफल होगी जिससे जनता अपनी आर्थिक समस्याओं को हल कर सके, जिससे ये अंधविश्वास और ये धर्म के नाम पर किया गया पाखंड या नीति के नाम पर गरीबों को दुहने की कथा मिटाई जा सके।”24
       प्रेमचंद का एक प्रसिद्ध वाक्य कहावत की तरह हिंदी समाज में लोगों की जुबान पर है, जो उनकी कहानी आहुति का है: “ऐसे स्वराज का आना व्यर्थ है जिसमें जॉन की जगह गोविंद गद्दी पर बैठ जाए।” इसीलिए ठीक ही रामविलास शर्मा ने उन्हें ‘स्वाधीनता-संग्राम के सैनिक साहित्यकार’25 के रूप में याद किया है|उनके मन में स्वराज और राष्ट्र का जो चित्र था वह बहुत साफ था। वे सिर्फ पात्र परिवर्तन के नहीं, व्यवस्था परिवर्तन के हिमायती थे। वे जाति-भेद के सवाल पर अम्बेडकर की तरह, संप्रदाय-भेद पर गाँधी की तरह और अमीरी-गरीबी के सवाल पर एक समाजवादी की तरह सोचते थे। जीवन, समाज और राष्ट्र के इतने व्यापक धरातल को छूने वाले वे हिंदी के सबसे बड़े लेखक थे। गाँधी के नेतृत्व में काँग्रेस ने प्रस्ताव पारित कर स्वराज के जिस रूप का संकल्प लिया था, उस पर प्रेमचंद ने अपनी एक टिप्पणी काँग्रेस (1931) में लिखा: “अब काँग्रेस का ध्येय राष्ट्र के सामने है। वह गरीबों की संस्था है, गरीबों के हितों की रक्षा उसका प्रधान कर्तव्य है। उसके विधान में मजदूरों, किसानों और गरीबों के लिए वही स्थान है जो अन्य लोगों के लिए। वर्ग, जाति, वर्ण आदि के भेदों को उसने एकदम मिटा दिया है।”26 प्रेमचंद की नजर में स्वराज्य के लिए लड़ने वाली काँग्रेस का यही रूप था! अफसोस यह है कि यह देखने के लिए वे जीवित न रहे ! स्वराज्य तो आया किन्तु भारत वैसा राष्ट्र-राज्य नहीं बन सका जिसका वे सपना देखते थे|
संदर्भ सूची:
1.     Anavaratblogspot.in
2.       विविध प्रसंग; भाग-1, पृष्ठ- 269
3.       वही, पृष्ठ- 268
4.       वही, पृष्ठ- 259
5.       वही
6.       वही
7.       भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद, पृष्ठ- 275
8.       वही, पृष्ठ- 264
9.       वही, पृष्ठ- 15
10.   वही, पृष्ठ- 20
11.   विविध प्रसंग; भाग-2, पृष्ठ- 77-78
12.   वही, पृष्ठ- 98
13.   वही, पृष्ठ- 92
14.   वही, पृष्ठ- 476
15.   वही, पृष्ठ- 470
16.   वही, पृष्ठ- 471
17.   वही, पृष्ठ- 152
18.   वही, पृष्ठ- 272
19.   वही, पृष्ठ- 222
20.   वही, पृष्ठ- 334
21.   महावीर प्रसाद द्विवेदी रचना संचयन; संपादक: भरत यायावर, समस्या शीर्षक निबंध।
22.   विविध प्रसंग; भाग-2, पृष्ठ- 409-10
23.    Krantiswarblogspot.in
24.   वही
25.   प्रेमचंद और उनका युग ,पृष्ठ -122
26.   वि.प्र.,भाग-2, पृष्ठ-75  

                                                                                                                                              

Thursday, 13 July 2017

हाशिए की सक्रिय आवाज़ें


लेखक और मनुष्य दोनों ही रूपों में डॉक्टर पी.एन. सिंह मेरे प्रिय हैं. मुलाकात सिर्फ दो बार की है. लेकिन उनके वैचारिक लेखों ने मुझे हमेशा सोचने-समझने का पर्याप्त खुराक दिया है. जितनी साफ़ उनकी दृष्टि और समझ है उतना ही पारदर्शी उनका व्यक्तित्व है. उनके लेख जब मैं पढ़ता हूं, फोन पर जब भी हमारी बातचीत होती है, मैं हमेशा बौद्धिक और आत्मिक ऊष्मा महसूस करता हूं. सच्चे अर्थों में वे हिंदी के पब्लिक इंटेलेक्चुअल हैं.
        इसलिए उनके वैचारिक लेखों की किताब की भूमिका लिखने की जब बात आई तो अनेक व्यस्तताओं के बावजूद मैं इनकार नहीं कर सका और मैंने सहर्ष हामी भर दी. मैंने इसे अपना सम्मान माना. यद्यपि मुझे लगता है कि अब किसी अन्य लेखक की किताब की भूमिका लिखना लगभग पुराना फैशन हो चुका है. फिर भी मैं भूमिका लिख रहा हूँ तो इसके पर्याप्त कारण हैं, जो समाज, राजनीति, साहित्य और संस्कृति संबंधी पी.एन. सिंह की व्यापक चिंताओं की देन है.
        पी.एन. सिंह ‘समकालीन सोच’ नाम से वर्षों तक एक पत्रिका निकालते रहे हैं. पत्रिका अपने सामाजिक, साहित्यिक सरोकारों के कारण मेरे लिए हमेशा पठनीय रही. मेरे लिए उसका सम्पादकीय विशेष आकर्षण का केंद्र था. इस सम्पादकीय में उनके व्यापक अध्ययन, अनुभव और सामाजिक सरोकारों से उपजे हुए प्रश्न होते थे. ‘समकालीन सोच’ के सम्पादकीय को पढना हर दृष्टि से अपने को समृद्ध करना था. व्यापक तैयारी के साथ लिखे हुए उनके अग्र लेखों में जितनी वैचारिक ऊष्मा होती थी, उतनी ही अनुभव की ऊष्मा भी. अब जबकि पी.एन. सिंह बीमार हैं, ‘समकालीन सोच’ का प्रकाशन मित्रों के सहयोग से रुक-रुक कर जारी है तब उनका महत्त्व समझ में आता है. मैं चाहता था कि उन अग्र लेखों को एक जगह पुस्तकाकार प्रकाशित किया जाए. मुझे ख़ुशी है कि यह शुभकार्य संपन्न हो रहा है और पी.एन. सिंह के जीवनकाल में हो रहा है. ‘समकालीन सोच’ और पी.एन. सिंह के प्रति मेरी राय हमेशा ही उंची रही. इसका प्रमाण है वह टिपण्णी जो वर्षों पहले ‘जनसत्ता’ (23 मार्च 2009) में ‘हाशिए की सक्रिय आवाजें’ शीर्षक से मैंने लिखी थी. वह टिपण्णी मुझे आज भी प्रासंगिक लगती है. इसलिए पी.एन. सिंह के वैचारिक लेखों पर कुछ कहने के पहले मैं उसे पढ़ने का आग्रह करूँगा.


‘समकालीन सोच’ का नया अंक (45 वां) सामने हैं. गाजीपुर (उ.प्र) से लगभग सत्रह वर्षों से डॉक्टर पी.एन. सिंह के संपादन में निकलने वाली यह पत्रिका त्रैमासिक हैं. पंजीकृत है, इसलिए कहने को त्रैमासिक है, वरना निकलती अनियतकालीन की तरह है. जब कागज़-प्रेस के खर्चे का इंतजाम हुआ और रचनाएं जुट गईं, तब पत्रिका निकल गई. संपादक और उनके साथियों की अनियतकालीन रचनात्मक मस्ती की तर्ज पर निकलने वाली इस पत्रिका के संरक्षक एवं संपादक मंडल में कई लोग हैं. उनमें सबसे बड़ा नाम नामवर सिंह का है. लेकिन लगता नहीं कि उनका संरक्षण कभी इस पत्रिका को मिला होगा. नाम शोभा के लिए हैं. शेष लोगों से कितनी मदद मिलती है, यह तो पी.एन.सिंह जानें! लेकिन कुल मिलाकर वे ही इसके पीर-बावर्ची-भिस्ती-खर हैं. बीमार हैं, पर पत्रिका निकाले जा रहे हैं.
        पत्रिका का नया अंक सामने है और पी.एन. सिंह का चेहरा आंखों के सामने घूम रहा है. दो बार की मुलाकात है. दिल्ली में और बलिया में. सेमिनार के दौरान. अंग्रेजी के रिटायर्ड अध्यापक. खूब पढ़े-लिखे और बेहद शरीफ. आधुनिक और प्रगतिशील सोच के व्यक्ति. अंग्रेजी में भी लिखते हैं, लेकिन मन रमता है हिंदी में. कई पुस्तकें हिंदी-अंग्रेजी में प्रकाशित है. लघु पत्रिकाओं में उनके लेख कभी-कभार पढ़ने को मिल जाते हैं. अच्छा लिखते हैं और साफ लिखते हैं. मित्रवत्सलता के मारे हैं, सो परिचितों-मित्रों को फोन कर हालचाल पूछते रहते हैं. अब वे बीमार हैं. स्मृति साथ नहीं दे रही है. कभी-कभी कुछ याद नहीं रहता. फिर भी पत्रिका निकल रही है. समानधर्मा साथियों की एक बड़ी जमात जो है उनके साथ.
        ‘समकालीन सोच’ जैसी पत्रिका न भी निकले तो क्या फर्क पड़ेगा? आज तक इस पत्रिका ने ऐसा कोई विवाद न खड़ा किया, जिसके कारण कोई इसे याद रखे या इसकी भूमिका रेखांकित करे. कोई नवीनता का आग्रही और विवादधर्मी या विवादप्रेमी व्यक्ति पी.एन. सिंह को सलाह दे सकता है कि आराम कीजिए. क्यों हलकान हुए जा रहे हैं! बहुत-सी पत्रिकाएं निकल रही हैं. आप जिन्हें छाप रहे हैं, उन्हें वे छाप देंगी. लेकिन सवाल सिर्फ ‘समकालीन सोच’ जैसी पत्रिकाओं का नहीं है. ऐसी दर्जनों पत्रिकाएं छोटे-बड़े शहरों से निकल रही हैं. गाजीपुर से हैदराबाद तक, कलकत्ता से जम्मू तक. हिंदी में निकलने वाली लघु साहित्यिक पत्रिकाओं की संख्या, एक अनुमान के आधार पर, चार-पांच सौ तो होगी ही. ज्यादातर पत्रिकाओं के पास संपादक और उसके साथी रचनाकार साथियों की घर-फूंक मस्ती और कुछ कर गुजरने की रचनात्मक बेचैनी के अलावा कोई दूसरा संसाधन नहीं. खुद ही लिखते हैं और खुद ही जेबें ढीली करते हैं. दिल्ली में बैठे ज्यादातर लेखक उन पत्रिकाओं में नहीं लिखते. ये पत्रिकाएं लिखने वालों को कुछ दे नहीं पातीं, इनकी प्रसार संख्या हजार-दो हजार से अधिक नहीं होती. इनके प्रोडक्शन का स्तर भी ठीक नहीं होता. सो ज्यादातर सफल और तथाकथित बड़े लेखक इसमें नहीं लिखते. इन लघु पत्रिकाओं का काम घरेलू कुटीर उद्योग की तर्ज पर चलता है. इनके पीछे न तो कोई संस्था या बड़ा घराना होता है और न विज्ञापन बटोरने की कला में माहिर दिमाग. बस, ये निकलती जाती हैं. हांफती, सुस्ताती और आगे बढ़ती. बिना कोई हंगामा बरपा किए. प्रश्न है कि ‘समकालीन सोच’ जैसी छोटी जगहों और छोटे संसाधनों से निकलने वाली पत्रिकाओं की भूमिका क्या है? दिल्ली में या बड़ी जगहों में बैठे मुझ जैसे पाठक को कोई फर्क नहीं पड़ता. ऐसी पत्रिकाएं निकले तब भी, न निकलें तब भी.
        लेकिन तभी भीतर से एक आवाज आती है. फर्क ऐसी ही पत्रिकाओं और उसके जुनूनी संपादकों तथा उसके लेखक साथियों की वजह से पैदा होता रहा है. ‘उदंत मार्तंड’ से चलकर ‘समकालीन सोच’ तक हिंदी पत्रकारिता की यात्रा अनेक कड़वे-मीठे अनुभवों और उतार-चढ़ावों का इतिहास है. इस बिच हिंदी बाजार की और कमाने के साथ ही हैसियत बनाने की भाषा बन चुकी है. उसकी दुनिया बड़ी पूंजी से संचालित है और बड़ी पूंजी के जो खेल होते हैं, वे सब उसके साथ हैं. कुछ लघु पत्रिकाएं भी बहुत ही चमक-दमक के साथ निकल रही हैं और लेखकों को पारिश्रमिक भी दे रही हैं. कहा जाता है कि इनके संपादक-प्रकाशक विज्ञापन के जरिए इतना जुटा लेते हैं कि न सिर्फ पत्रिका की चमक बनी रहती है, बल्कि बिना नौकरी किए उनके जीवन की भी चमक बनी रहती है. बहरहाल, पूंजी की चमक से चमकती-दमकती पत्रिकाओं से अलग ‘समकालीन सोच’ जैसी साधारण ढंग से लगभग चुपचाप-सी निकलने वाली पत्रिकाओं की भूमिका पर विचार करें तो हम पाएंगे कि नई रचनाशीलता और सोच के प्रकाशन में इनकी कितनी बड़ी भूमिका है.
        भूमंडलीकरण के दौर में पूंजी की माया ने बहुत कुछ बदला है. न तो बुनियादी परिवर्तन के आदर्शों से संचालित राजनीतिक दल हैं और न भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की चेतना वाले अखबार और मीडिया के दूसरे रूप. चेतना संपन्न मध्यवर्ग की जगह लालची और अवसरवादी मध्यवर्ग दाखिल हो चुका है. तथाकथित मुख्यधारा के राजनीतिक दल और तुमुल कोलाहल पैदा करता मीडिया जब कुछ भी  सार्थक नहीं कर रहा है, तब परिधि से उठती आवाजों की ओर ध्यान जाता है. छोटी-छोटी पत्रिकाओं, छोटे-छोटे ग्रुप और छोटे-छोटे आंदोलनों के जरिए ‘हैव’ और ‘हैव नॉट’ के बीच के विकराल अंतराल के विरुद्ध आंदोलनरत आवाजों की ओर महानगरों में कम ध्यान दिया जाता है. लेकिन मुझे लगता है कि साहित्य, संस्कृति और राजनीति की बुनियादी और परिवर्तनकारी लड़ाई की असल चमक इन्हीं आवाजों में है. परिधि से उठने वाली आवाजों में मार्क्स, गांधी, अम्बेडकर  आदि के नाम पर चलने वाला सोच आगे का है मगर उनकी चेतना से संपन्न. ये छोटी-छोटी आवाजें और लड़ाइयां ही समता, स्वतंत्रता और विश्व बंधुत्व के निर्माण की नई जमीन बनाएंगी.
        जरा सोचिए कि जब तथाकथित मुख्य धारा के राजनीतिक दल सिर्फ चुनावी धंधेबाजी में लगे हों, मीडिया फूहड़ मनोरंजन और अंधविश्वास बेच रहा हो, धर्माचार्य तंत्र-मंत्र के साथ अफीमी अंधविश्वास का नशा बेच रहे हों, सामाजिक कार्यकर्ता एन.जी.ओ. के जरिए कमाई करते हुए लड़ाई का भ्रम पैदा कर रहे हों, तब उम्मीद किससे की जाए! अपनी निराश मनोदशा में हम जब-जब नजर उठाते हैं, हमारी नजर परिधि की ऐसी ही ईमानदार कोशिशों पर टिकती हैं. पर्यावरण, साहित्य, नाटक, राजनीति आदि क्षेत्रों में सक्रिय और प्राणप्रण से लगी इन कोशिशों की अपनी सीमाएं होंगी और उनके अंतर्विरोध भी होंगे, किन्तु उसकी नीयत में खोट न मिलेगी.
         नलिन विलोचन शर्मा ने साहित्य के इतिहास दर्शन पर बात करते हुए कहा है कि साहित्य का इतिहास वस्तुतः गौण लेखकों का इतिहास होता है. आशय यह है कि बड़े और महान लेखक जिस वातावरण की उपज होते हैं, उसके निर्माण में बुनियादी भूमिका गौण लेखकों की ही होती है. महानों की चमक से चौंधियाती हमारी आंखें अकसर गौण लेखकों की भूमिका की अनदेखी करती हैं. हिंदी के जो महान लेखक आज इतिहास के पन्नों पर दिखते हैं, उनका इतिहास लिखते हुए उनकी पृष्ठभूमि पर भी हमारी नजर होनी चाहिए. हम जब अपने साहित्य और पत्रकारिता के इतिहास पर नजर डालते हैं तो हैरत होती है कि बड़े नगरों के साथ छोटे-छोटे शहरों और कस्बों की सक्रियताओं ने कितनी बड़ी भूमिका निभाई है. लहेरियासराय, आरा, खंडवा, अजमेर, मिर्जापुर आदि कुछ छोटे शहर इतिहास के पन्नों में अपनी चमक के साथ मौजूद हैं और मौजूद हैं वहां से निकलने वाली पत्रिकाएं, जिन्होंने न सिर्फ नई रचनाशीलता की जमीन तैयार की, बल्कि इतिहास बनाने की भी शुरुआत की.

        ‘समकालीन सोच’ तो एक बहाना है. मैं इसके जरिए हिंदी की उन सैकड़ों पत्रिकाओं की ओर आपका ध्यान चाहता हूं जो अपने-अपने शहरों-कस्बों में इस नाउम्मीद और मायावी पूंजी के दौर में नई पीढ़ी के लिए ‘लाइट हाउस’ की तरह हैं. उनमें छपकर या उनके द्वारा आयोजित छोटी-छोटी बैठकों में शामिल होकर नए लेखक वह तमीज और संस्कार पाते हैं, जो उन्हें आज न तो कोई नेता दे रहा है, न धर्माचार्य, न मीडिया और न कोई समाजसेवी. सेकुलर सोच और आधुनिक दृष्टि के निर्माण में जगह-जगह अलख जगाती इन दर्जनों पत्रिकाओं की भूमिका बड़ी जगहों और बड़े घरानों से निकलने वाली पत्रिकाओं की तुलना में ज्यादा सक्रिय और रचनात्मक है. क्या ही अच्छा हो कि हर कस्बे और हर मोहल्ले में पी.एन. सिंह जैसे लोग हों और ‘समकालीन सोच’ जैसी पत्रिकाएं हों और उनके प्रकाश-वृत्त में नया आकर ग्रहण करता, छोटा ही सही, लेखकों-पाठकों का वर्ग हो. दुनिया बड़े प्रयासों से ही नहीं, छोटे प्रयासों से भी सुन्दर बनती है.      

Sunday, 25 June 2017

‘साहित्य का अनुवाद नहीं है सिनेमा’

साहित्य और सिनेमा अभिव्यक्ति के दो माध्यम हैं. प्रभाव की दृष्टि से कौन अधिक ताकतवर और दीर्घजीवी है यह बताना बहुत मुश्किल नहीं है. साहित्य अभिव्यक्ति का आदिम माध्यम है जबकि सिनेमा तकनीक आधारित बिलकुल नया. साहित्य को सिनेमा की जरुरत है या नहीं,  कहना मुश्किल है लेकिन सिनेमा का काम साहित्य के बिना नहीं चल सकता.
          हिंदी लेखकों में सिनेमा को लेकर कभी सम्मान भाव नहीं रहा. उनके लिए सिनेमा की दुनिया हमेशा बदनाम गली की तरह रही है. वहां जाने का अर्थ साहित्य के ऊँचे और पवित्र आसन से नीचे उतरना माना जाता रहा है. साहित्य का उद्देश्य व्यवसाय नहीं है लेकिन सिनेमा का काम बिना व्यवसाय के चल नहीं सकता. इसलिए यह भी माना जाता है और कुछ हद तक ठीक माना जाता है कि सिनेमा में साहित्य को व्यवसायिक समझौता करना ही पड़ेगा. इसी के साथ हिंदी समाज की सिनेमा के प्रति मानसिकता को भी ध्यान में रखना जरुरी है. हिंदी समाज में नाच-नौटंकी और नृत्य-संगीत के लिए सम्मान भाव कभी नहीं रहा. नाचने और गाने वाले कलाकारों को समाज में ‘नचनिया’ और ‘गवैया’ कहकर हिकारत भाव से देखा जाता रहा है. खैर, ग्लैमर और पैसा जुड़ जाने के कारण सिनेमा के प्रति समाज का रवैया बदला है. लेकिन साहित्यकारों का सिनेमा के प्रति जो रवैया पहले था, उसमें कोई ख़ास फर्क नहीं आया है. एक माध्यम के रूप में सिनेमा की प्रतिष्ठा पूरी दुनिया समेत हिंदी में भी बढ़ी है, लेकिन साहित्यकारों में अपने माध्यम को लेकर जो श्रेष्ठता और पवित्रताबोध पहले था, वह कमोबेश अब भी बरकरार है. हर कथाकार यह तो चाहता है कि उसकी कहानी पर फिल्म बने, कवि की इच्छा रहती है कि उसकी कविता सिनेमा में गाई जाकर जन-जन तक पहुंचे, ऐसा होता है तो वह अपने परिचय में सगर्व उसका उल्लेख भी करता है, लेकिन सीधे तौर पर उससे जुड़ने में उसे परहेज अब भी है. कुल मिलाकर हिंदी समाज और साहित्य का रवैया गुड़ खाए और गुलगुले से परहेज वाली कहावत की तरह है. इसलिए पहले यदि प्रेमचंद, भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर, गोपाल सिंह नेपाली आदि कथाकार-कवि सिनेमा में गए और फिर साहित्य की दुनिया में वापस लौट आए तो आज भी किसी कवि-लेखक में सिनेमा में जाने का उत्साहजनक उदहारण न के बराबर ही मिलता है. जावेद अख्तर, गुलजार, प्रसून जोशी आदि को स्टार की हैसियत तो प्राप्त है, लेकिन उनकी जगह साहित्य के ऊँचे और पवित्र आसन पर तो हरगिज नहीं है. इन सबका कारण क्या है? क्या साहित्य और सिनेमा का कोई सहज संवादधर्मी संबंध संभव नहीं? या इसमें मुख्य बाधा वह ‘व्यवसायिकता’ है जिसके बिना सिनेमा की दुनिया भले कायम न रह सके साहित्य के लिए उसमें फंसना अपने को नष्ट करना है?
          सिनेमा में गीत का आत्यंतिक महत्त्व न भी माना जाए तब भी एक कहानी की दरकार तो होती ही है. वह चाहे साहित्यिक हो या फिल्म को ही ध्यान में रखकर लिखी गई मसालेदार कहानी. कहानी के साथ संवाद, पटकथा, गीत-संगीत, अभिनय, निर्देशन, छायांकन आदि कला-रूपों के कुशल संयोजन का नाम सिनेमा है, जिसमें बड़ी टीम, बड़ी पूंजी और नए से नए तकनीकी ज्ञान की जरुरत है. सिनेमा निर्माण एक सामूहिक काम है. एक फिल्म के असफल होने का मतलब है बड़ी पूंजी का डूब जाना. साहित्य-सृजन का काम इससे भिन्न है. लेखक में प्रतिभा और जीवन-दृष्टि के साथ मेहनत करने की क्षमता है तो वह साहित्य-सृजन कर सकता है. कोई साहित्यिक कृति असफल होती है तो एक लेखक असफल होता है. लेखक सृजन के लिए जोखिम उठाता है तो उसके नफे-नुकसान का जिम्मेदार वह खुद होता है, लेकिन फिल्म निर्माण में कोई जोखिम उठाने के पहले सौ बार क्या, हजार बार सोचना पड़ता है. फिर भी कुछ ऐसे फ़िल्मकार हैं जो जोखिम उठाते रहते हैं. ऐसे लोगों में कुछ सफल भी हुए हैं और कुछ बर्बाद भी.
          हिंदी सिनेमा और साहित्य का संबंध दो तरह से है. कुछ लेखक फिल्मों के लिए गीत-कहानी लिखने गए और फिल्मकारों की शर्त पर लिखते रहे और वहीं के होकर रह गए. मसलन नरेंद्र शर्मा, शैलेन्द्र, साहिर, प्रदीप, राही मासूम रजा आदि. सिनेमा में जाकर इनका साहित्य सृजन कितना प्रभावित हुआ, यह तो मूल्यांकनकर्ता बताएंगे, लेकिन इतना तय है कि इनके जरा से स्पर्श से सिनेमा सुन्दर जरुर हुआ. कुछ लेखकों की कहानी को फिल्मकारों ने चुना और लेखक को भागीदार बनाकर फिल्म-निर्माण हुआ. फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम’ पर इसी नाम पर शैलेन्द्र ने फिल्म बनाई, जिसकी पटकथा और संवाद खुद रेणु ने लिखे. फिल्म में एक खलनायकनुमा चरित्र ठाकुर विक्रम सिंह को जोड़ा गया जो फ़िल्मी सफलता के लिए जरुरी माना गया. रेणु को इसके लिए तैयार होना पड़ा. लेकिन अंत बदलने की जब बात रेणु के सामने आई तो वे इसके लिए तैयार नहीं हुए. उन्होंने कहा कि लेखक के रूप में फिल्म से मेरा नाम हटा दिया जाए. फिल्म के अंत में हीरामन और हीराबाई का मिलन कराकर फिल्म की व्यवसायिक सफलता के लिए कहानी में परिवर्तन का प्रस्ताव था. रेणु की जिद के कारण निर्माता शैलेन्द्र जो स्वयं गीतकार थे, मान तो गए लेकिन फिल्म असफल हुई. कर्ज के बोझ तले दबकर उसकी इहलीला समाप्त हो गई. साहित्य की कसौटी पर किसी साहित्यिक कृति पर फिल्म बनाने की कीमत शैलेन्द्र को अपनी जान गंवाकर देनी पड़ी.
          कमलेश्वर और राही मासूम रजा दोनों कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित होने के बाद फिल्मों में गए. ‘आंधी’ और ‘मौसम’ जैसी फ़िल्में कमलेश्वर के उपन्यासों पर बनीं जो याद की जाएंगी, लेकिन उनकी लिखी कोई फिल्म याद करने लायक नहीं याद आती. ‘राम बलराम’ या ‘ललकार’ जैसी व्यवसायिक दृष्टि से सफल उनकी लिखी फिल्में याद की जाएंगी क्या? ‘आधा गाँव’ के मसहूर लेखक राही मासूम रजा कोई ऐसी फिल्म नहीं लिख सके जो उनकी ऐतिहासिक देन मानी जाए! ‘मैं तुलसी तेरे आँगन की’ व्यवसायिक दृष्टि से ही सफल थी, अन्य दृष्टि से नहीं. उनकी सबसे बड़ी देन ‘महाभारत’ धारावाहिक का संवाद और उसकी पटकथा ही मानी जाएगी.
          शरतचंद के ‘देवदास’ पर बहुतेरी फिल्में बनीं. विमल राय और संजयलीला भंसाली के ही ‘देवदास’ को लें. व्यवसायिक सफलता दोनों को मिली, लेकिन फिल्म में शरतचंद कितने थे और उसके निर्माता-निर्देशक कितने यह हम आप जानते हैं. ‘शतरंज के खिलाडी’ का अंत सत्यजीत राय ने भी बदला था. बहुत रचनात्मक अंत था. प्रेमचंद के अंत से अधिक अर्थगर्भित, लेकिन फिल्म व्यवसायिक दृष्टि से सफल नहीं हो सकी. ‘गोदान’, ‘चित्रलेखा’ से लेकर अनेक उपन्यासों-कहानियों पर फिल्में बनी हैं, जिसमें से अधिकतर असफल हुई हैं. व्यवसायिक दृष्टि से भी और कला की दृष्टि से भी. कला की दृष्टि से जो ठीक थीं भी वे व्यवसाय की दृष्टि से पिट गईं.
          सिनेमा जब शुरू हुआ तो कहानी के लिए उसने साहित्य का सहारा लिया. दुनिया की सभी भाषाओं में शुरू के दौर में साहित्यिक कृतियों को आधार बानकर फिल्में बनीं, लेकिन धीरे-धीरे फिल्मों के लिए ही कहानी लिखी जाने लगी. ‘शोले’ जैसी पटकथा या कथा अब लिखी ही जाती हैं सिनेमा को ध्यान में रखकर. उसमें कहानी से अधिक दृश्य, एक्शन, संवाद आदि पर जोर रहता है. लेकिन इसी के साथ ‘पिपली लाइव’, ‘चक दे इंडिया’ आदि फिल्में भी आती हैं जो अपनी यथार्थपरक कहानी के लिए ज्यादा याद की जाती हैं.
          इधर के वर्षों में तकनीक, सिनेमेटोग्राफी, क्रोमा आदि की प्रमुखता ज्यादा हो गई है जिसमें रियलाइजेशन से अधिक विजुआलाइजेशन पर जोर अधिक होता है. उसमें यथार्थ या फैंटेसी को इतने भव्य ढंग से दिखाने का चलन है कि कहानी के सहारे धीरे-धीरे चलनेवाले स्लो सिनेमा का दौर लगता है कि गुजरे जमाने की चीज है. फिल्मों में आए इस बदलाव ने दर्शकों की रूचि पर जबर्दस्त प्रभाव डाला है. अब दिलीप कुमार-सुचित्रा सेन अभिनीत ‘देवदास’ की जगह शाहरुख़ खान और ऐश्वर्या राय अभिनीत ‘देवदास’ को पसंद करने वाली पीढ़ी आ चुकी है. क्लासिक की तरह हमारे मन-मिजाज में जगह बना चुकी देवदास-पारो की कथा का जो भंसाली संस्करण है वह नई पीढ़ी को अधिक पसंद है, लेकिन उसमें शरतचंद के ‘देवदास’ से बड़ा ‘डेविएशन’ है. कुँवर नारायण का कहना है कि सिनेमा साहित्य का अनुवाद नहीं होता, किन्तु किसी क्लासिक के साथ इस तरह का वर्ताव जो उसे क्लासिक ही न रहने दे, उचित नहीं.
          साहित्य और सिनेमा पर बात करते हुए गुलजार ने एक बार कहा था कि सिनेमा की तुलना में साहित्य का प्रभाव ज्यादा गहरा और स्थायी होता है, एक फिल्म के जरिए हम पर जो प्रभाव पड़ता है वह कई कलाओं का होता है. इसलिए साहित्य और फिल्म के प्रभाव में फर्क होता है. यूँ ‘टाइटेनिक’ जैसी कुछ फिल्में अपने प्रभाव में फिल्म होने के बावजूद कविता होती हैं. अच्छे फिल्मकारों ने सिनेमा को साहित्य के करीब लाकर उसमें साहित्य का प्रभाव पैदा करने की कोशिश की है. इसके लिए उन्होंने जीवन के अछूते प्रसंगों को बहुत गहराई से छूने की कोशिश की है. समकालीन हिंदी  कथा साहित्य और हिंदी सिनेमा पर इस दृष्टि से देखने पर मुझे कई बार सिनेमा आगे निकलता हुआ दिखाई देता है.

Saturday, 17 June 2017

डिजिटल समय में वसंत

वसंत आ गया है और सम्पादक मित्र पीछे पड़ गए हैं कि वसंत पर निबंध लिखो। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने जब लिखा था-वसंत आ गया है’, तब सम्पादक गण पीछे नहीं पड़े थे। शांति निकेतन के प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारते हुए, पेड़ों-वनस्पतियों के बीच रच-बसकर लिखा था। उन्हें न फ़ोन-मोबाइल का व्यवधान था और न वाट्सएप-फेसबुक की माया से दो-चार होना था। कहने को तो यहाँ भी, जहाँ मैं रहता हूँ-दिल्ली विश्वविद्यालयके परिसर में प्रकृति कम नहीं है। पेड़-पौधों और फूलों से पूरा परिसर भरा हुआ है, लेकिन कौन इसे निहारे! जो मज़ा व्हाट्स-एप्प और फेसबुक, यूटयूब की मायावी दुनिया में है, उसका आमंत्रण बाहर के वासंती आमंत्रण में कहाँ! वह सब तो व्हाट्स-एप्प और फेसबुक पर सुबह से दिखने लगता है। बाहर कौन जाए और कौन हजारी प्रसाद द्विवेदी की तरह पेड़-पौधों को निहारता फिरे। वे लोग फटीचर जमाने के लोग थे। गृहस्थी के झंझट से भागते थे तो पेड़-पौधों के पास जाते थे। हमलोग तो सोते-जागते व्हाट्स-एप्प, फेसबुक आदि के जरिए घर के भीतर हीवाह वसंत-आह वसंतके मैसेजिया फूल-गेंदे फेंक-फेंककर न सिर्फ़ दोस्तों-सम्बन्धियों का बल्कि घर के लोगों का भी दिल गुदगुदाते रहते हैं। सब अपने में मगन हैं, लेकिन दूसरे के मैसेज पर नज़र है। भेट-मुलाक़ात भले कम है पर आपसी संवाद जारी है। इन्हीं संवाद ने शोर मचाया कि वसंत आ गया है तो मैंने भी चौंककर आँख खोली। व्हाट्स-एप्प-फेसबुक के पेज़ खोले तो वसंत वहाँ रंग-बिरंगे परिधानों में धूमधाम से हाज़िर था। मुझे देखा तो बोला; आओ, आओ मास्टर! कहाँ थे? मैं तुम्हारे इंतज़ार में हजारों बधाइयाँ समेटे बैठा हूँ। मैंने कहा कि मैं तो तुम्हें बाहर खोज रहा था। बधाइयों के मैसेज और फूलों की तस्वीरें उसने मेरे ऊपर लाद दी। उनके बोझ से मैं हाफ़ने लगा तो उसने कहा कि यह सब हजारी परसादी हरक़त छोड़ों! बाहर कुछ नहीं रखा। मैं तो तुम्हारे डिजिटल आँगन में हाज़िर हूँ।
          सच ही कहा उसने। उसके आने का शोर मचा तो कल ही पार्क की ओर दौड़ा। अभी पेड़-पौधों को निहारना शुरू ही किया था कि एक अध्यापक साथी ने टोका कि भले आदमी गँवार की तरह वसंत को यूँ ढूढ़ते न फिरते। जब इच्छा हो मोबाइल ऑन करो और देखो, जितना देखना हो। यह कहने के साथ उन्होंने अपना मोबाइल मेरे सामने किया। तरह-तरह के नायाब दृश्य सामने थे। रंग-बिरंगे फूल, तितलियाँ, भौरे क्या नहीं था वहाँ। तस्वीर भी और विडियो भी। वहाँ कुछ कवि भी थे जो वसंत आने की ख़ुशी में चुटकुलेनुमा कविताएँ सुना रहे थे। उन कविताओं को सुननेवाले कुछ खुशनुमा लोग हँसते-हँसते लोटपोट हो रहे थे। मित्र ने बताया कि इनकी तोंद में जो चर्बी है, वह वसंत के महीने में ऐसी कविताओं से हरक़त में आती है और साल भर इनका हाजमा ठीक रहता है जिससे ये पूरे साल देश की हरियाली चरते हैं।
          तो मित्रों! वसंत को अब कहाँ खोजते फिरोगे! खोजने लायक रहोगे तब न खोजोगे! अपने एक मित्र को पिछले साल मैं वसंत दिखाने उद्यान ले गया। मैंने सोचा कि वहाँ वह फूलों के बीच खुश होगा, लेकिन देखता हूँ कि वह मोबाइल ऑन करके जॉब पोर्टल देख रहा है। मैंने पूछा तो बोला कि बेटे ने अब विज्ञापन देखना बंद कर दिया है। उसी के लिए वेकेंसी ढूँढ़ रहा हूँ। अब तुम्हीं कहो कि वह देखूँगा या वसंत? मैंने कुछ न कहा। चुपचाप उसका मुँह देखता रहा। वसंत को देखने का मूड न रहा! मतलब यह कि वसंत भी मूड-मूड की बात है।
कवि  धूमिल ने जब कहा था कि वसंत हमारे बिल भरने का समय है,तभी हम समझ गए थे कि वसंत के साथ कुछ गड़बड़ होने वाला है । इस क्रांतिकारी कवि की क्रांतिकारी घोषणा से अभी जूझ रहा था कि हमारे समय की एक कवयित्री रश्मि रेखा ने घोषणा कर दी : वसंत अब अफवाहों में आता है । अफवाह का ध्यान आया तो फेंकू की याद आई । वही फेंकू जिसके फेंके का कोई जवाब नहीं । लोग फेंकू की फेंकने की कला का आनंद उठाने लगे हैं । मुझ से मेरे मित्रों ने कहा कि क्या सरसों-तीसी-आम आदि को निहारने में हलकान हो रहे हो,फेंकू की फेंकने की कला टी.वी. व्हाट्स-एप्प ,फेसबुक आदि पर देखो !वसंत फीका लगने लगेगा। सो,कुछ दिनों तक फेंकने की कला का  मजा लेता रहा,लेकिन तुरंत बोर होने लगा । बोरियत दूर करने के लिए बाहर  निकलने की तैयारी करने लगा क्योंकिबागों में बहार हैके मैसेज आ रहे थे । अभी निकलने की सोच ही रहा था कि व्हाट्स-एप्प कीटुनकी आवाज आई । देखा तो गुलाब के लाल-लाल फूलों के बीच एक कवितानुमा सन्देश है; “किरन बोली मुझसे,उठकर बाहर देखो ,कितना हसीन नजारा है;मैंने कहा रुक,पहले उसे एस एम एस तो कर लूँ जो इस सुबह से भी प्यारा है।मुझे अचानक अपराध बोध-सा हुआ कि मैंने तो किसी को कोई मैसेज नहीं भेजा । मैं तुरत उसी को ताबड़तोड़ फारवर्ड करने लगा! भूल गया कि बाहरबागों में बहार है ।हुआ करे-बागों में बहार !बहार का मैसेज भेजने और उधर से आए मैसेजिया बहारों को देखने-पढ़ने का जो मजा है,वह बाहर के बागों में आये बहार को निहारने में कहाँ !पिछले साल वसंत के प्रेमी हमारे एक मित्र यूँ ही बागों के बहार में खोये थे कि एक नौजवान ने प्रणाम किया और बोला :अरे भाई देवदास;क्यों भए उदास। मेरे मित्र ने उसे नाराज होकर देखा,लेकिन तुरंत शांत हो गए । भलाई इसी में थी । मित्र के वसंत-प्रेम के कारण उस उद्यान में नौजवान जोड़ों को वसंतोत्सव मनाने में बाधा उपस्थित हो रही थी । वे चुपचाप घर लौट आये और डिजिटल संसार में आये वसंत-बहार का आनंद लेने लगे । उन्हें इतना आनंद आने लगा कि उसी में खो  गए । मुझे भी उस डिजिटल वसंत बहार में आने का आमंत्रण देते रहे । अब तो खैर मेरी चिंता नहीं उन्हें। उन्हीं की तरह अब उस वसंत-लीला में भारी भीड़ शामिल है। मैं भी कब उस लीला में शामिल हो जाऊँगा,कहना मुश्किल है।
वसंत पंचमी की अपनी याद कुछ दूसरी है। तब वेलेंनटाइन डे नहीं आया था । उस दिन घर की औरतें पुए पकवान बनाती थीं और हम जमकर खाते थे। हमारे लिए वसंत वैसे ही आता था । शाम को पुरुष लोग ढोलक-मजीरे बजाते हुए वसंत का स्वागत करते थे -आए वसंत कंत घर नाहिं  … वसंत के आने और कंत के घर में न होने यानी परदेश में होने का द्वन्द्व-तनाव वसंत आगमन के साथ व्याप जाता था। खैर,अब पुए खाकर प्रेम के पीर के गीत गाने का ज़माना नहीं है।वसंत प्रेम के दमामे बजाता हुआ बागों,पार्कों और गाड़ियों में झूम रहा है और डिजिटल दुनिया को भी झुमा रहा है ।
बचपन में एक कविता पढ़ी थी :पिकी पुकारती रही,पुकारते धरा गगन;मगर कहीं रुके नहीं,वसंत के चपल चरण। जब वसंत के चपल चरण कहीं रुकते नहीं ;तो मैं क्यों उसे अपने जमाने में बाँध लेना चाहता हूँ । मैं क्यों पुए और वसंत-गीतों की पुरानी धुनों की महक में वसंत के आने की राह देख रहा हूँ । जमाने को न उन पकवानों में रूचि है और न उन पुरानी धुनों में जिनमें लोक जीवन धड़कता था । इस ज़माने के पकवान और धुनों को समझने के लिए ही तो हमारे मित्र आभासी दुनिया के आभासी वसंतोत्सव में शामिल हो गए हैं और शामिल होने के लिए मुझे भी ललकार रहे हैं । और मैं हूँ कि बागों के बहार और डिजिटल दुनिया में आये बहार के बीच झूल रहा हूँ !
लेकिन झूलना ठीक नहीं । वसंत के स्वागत का पुराना तरीका हो या नया-मैं यह क्यों भूल रहा हूँ कि वसंतोत्सव से वर्जनाएं तब भी टूटती थी;अब भी टूटती हैं । वसंत आगमन के साथ तब बूढ़े भी जवान हो जाया करते थे -भर फागुन बुढ़उ देवर लागें’, यह कहावत यूँ थोड़े लोकप्रिय थी। नया देवर नहीं;तो पुराना देवर ही सही । भाभी के लिए वसंत  देवर को छेड़ने के रूप में  आता था और देवर भाभियों के बहाने होली गीत गा कर अपनी सारी कुंठाए निकाल लिया करते थे । लोग जोगीरा तब भी गाते थे अब भी गाते हैं। फर्क इतना ही है कि तब जिनको सुनाना होता था,उनके दरवाजे जाकर सुनाते थे और वे दरवाजे खुले भी रहते थें ,अब फेसबुक,व्हाट्स-एप्प के जरिये सुनाते हैं |  इसलिए हे मन ! पुराना ज़माना लौटने से रहा !
नए जमाने के साथ चलो और व्हाट्स-एप्प के जरिए नए जमाने का नया जोगीरा मित्रों को भेज दो ,जो तुम्हें भी आभासी दुनिया से मिला है :
उत्तर पट्टी बिल्ली पाले,दक्खिन पाले मूस ,
देश भक्ति के ठेकेवाले पाल रहे जासूस
जोगीरा सा रा रा रा     

Sunday, 11 June 2017

प्रगतिवाद और मुक्तिबोध

मुक्तिबोध  कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे या नहीं,यह तो नहीं मालूम,लेकिन उनका साहित्य और उन पर लिखे गए अधिकांश साहित्य को पढ़ने से पता चलता है कि मार्क्सवादी दर्शन में उनकी गहरी आस्था थी |वे शोषण युक्त व्यवस्था को समाप्त कर शोषण मुक्त समाज  व्यवस्था कायम करना चाहते थे|वे मानते थे कि यह पूंजीवादी समाज,जो जनता के शोषण पर कायम है,चल नहीं सकता,उसे बदलना ही होगा|बदलाव के लिए क्रांति जरूरी है|उनका विश्वास था कि शोषण की चक्की में पिसता हुआ सामान्य जन जगेगा और एक दिन अवश्य ही जनक्रांति होगी |उनकी प्रसिद्द कविता ‘अँधेरे में’ को जिन्होंने पढ़ा है,वे जानते हैं कि जनक्रांति का स्वप्न कैसे वहाँ सगुण-साकार होता हुआ दिखाई देता है|चूँकि ‘पूंजी से जुड़ा हुआ ह्रदय बदल नहीं सकता’ इसलिए उसे बदलने के लिए ‘जन-क्रांति’ जरूरी है | ‘अँधेरे में’ कविता में मार्शल लॉ का  चित्रण है- वह  ‘किसी जन-क्रांति के दमन के  निमित्त’ है|उस कविता में प्रोसेशन का जो दृश्य है,उसमें कई ‘प्रतिष्ठित पत्रकार’ तो शामिल हैं ही, ‘कई प्रकांड आलोचक,विचारक,जगमगाते कवि गण’ भी हैं |साथ ही उस प्रोसेशन में मंत्री,उद्योगपति,विद्वान भी हैं|यहाँ तक कि ‘शहर का कुख्यात हत्यारा डोमाजी उस्ताद’ भी शामिल है उसमें |मुक्तिबोध मानते हैं कि यह सब ‘जन-क्रांति’ के दमन के लिए लगाए गए मार्शल लॉ को लागू कराने के अभियान में लगे हुए  लोग हैं|उसी कविता में इस तरह के मार्शल लॉ का प्रतिकार करनेवाले ‘सांवले मुख के कुछ बलवान जन हैं’ जो ‘आत्मा के चक्के परसंकल्प शक्ति के लोहे का मजबूत ज्वलंत टायर’ चढ़ा रहे हैं |
मार्क्सवादी दर्शन में आस्था रखने वाले और ‘जनक्रांति’ का स्वप्न देखने वाले मुक्तिबोध की प्रगतिवाद के बारे में क्या धारणा थी,जानना जरुरी है|यह इसलिए जरुरी है कि रामविलास शर्मा मुक्तिबोध पर अस्तित्ववाद का प्रभाव मानते हैं|मुक्तिबोध,डॉ शर्मा के अनुसार,सिजोफ्रेनिक हैं और उनका व्यक्तित्व विभाजित है,वे कभी स्वप्न में जीतें हैं और कभी यथार्थ में|ऐसी स्थिति में यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रगतिवाद और प्रगतिशीलता के सम्बन्ध में मुक्तिबोध का चिंतन कैसा है |वे नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल आदि की तरह प्रगतिवादी कवि नहीं हैं|प्रगतिवाद की जैसी  सरल और भास्वर रेखाएं इन कवियों की कविताओं में दिखती है,वैसी रेखाएं मुक्तिबोध के यहाँ नहीं हैं |वे अंततः नई कविता के कवि-विचारक हैं|वे उस ‘तारसप्तक’ के कवि हैं जो अज्ञेय जैसे ‘प्रगतिवाद’ विरोधी करार दिए गये कवि के संपादन में निकला|वे श्रीकांत वर्मा,अशोक वाजपेयी जैसे युवतर कवियों के सघन संपर्क में थे|श्रीकांत और अशोक प्रगतिवादी साहित्यिक धारणा के प्रभाव में कभी नहीं रहे लेकिन मुक्तिबोध उनके लिए हमेशा महत्त्वपूर्ण बने रहे |मुक्तिबोध ने निराला पर नहीं लिखा|निराला. जो प्रगतिशील खेमे के लिए,रामविलास शर्मा के प्रयत्न से,आधुनिक कविता के शिखर कवि हो गए|आगे चलकर जनवादी खेमे में निराला के बाद और उनके साथ मुक्तिबोध का नाम आग्रहपूर्वक लिया जाने लगा,जबकि  मुक्तिबोध ने प्रसाद पर लिखा और ‘कामायनी’ में उठने वाली समस्याओं से जूझते रहे|निष्कर्ष यह कि मुक्तिबोध की प्रगतिवादी राह वैसी नहीं है जैसी नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल या रामविलास शर्मा की है|कामरेड डांगे के नाम उनका जो पत्र है,उससे भी पता चलता है कि प्रगतिवाद की जैसी समझ हिंदी में विकसित हो रही थी,उससे मुक्तिबोध स्पष्ट मतभेद रखते थे |तब प्रगतिवाद या प्रगतिशीलता की उनकी अपनी समझ या धारणा क्या थी,इसे जानने के लिए सबसे अच्छे आधार उनकी वे टिप्पणियाँ हैं जो उन्होंने प्रगतिवाद के नाम पर लिखीं |
 मुक्तिबोध की प्रगतिवाद से सम्बंधित जो  टिप्पणियाँ और साहित्य-चिंतन से सम्बंधित जो निबंध है,उन्हें देखने से स्पष्ट होता है कि वे अपने अध्ययन-अनुभव को अधिक महत्त्व देते हैं,दूसरों के उद्धरणों के सहारे अपनी प्रगतिवादी समझ की दुनिया वे नहीं नहीं निर्मित करते|इसलिए उनके यहाँ ‘लाल सुबह’,’लाल सितारा’, ‘लाल पताका’ आदि प्रगतिवाद समर्थक प्रतीक नहीं दिखाई पड़ते|मुक्तिबोध मानते हैं कि ‘प्रगतिवाद साहित्य-कला की अत्याधुनिक धारणा है|’यह क्यों ‘अत्याधुनिक धारणा’ है ?इसलिए कि अब तक की कला और साहित्य में ‘सामाजिक तत्व का आभाव’ है |इस सामाजिक तत्व के आभाव के कारण साहित्य और विश्व का विकास ठीक से नहीं हो सका|वे लिखते हैं : ‘मानवता के सब उच्च संस्कृति की ओर किये गये प्रयत्नों में  का मुख्य दोष सामाजिक तत्वों की अपेक्षाकृत उपेक्षा रही है,जिसके कारण विश्व-प्रगति  उतनी नहीं हो सकी जितनी कि होनी चाहिए,कला उतनी नहीं बढ़ सकी जितना कि बढ़ना चाहिए थी,विचार उतने ऊँचे और व्यापक नहीं हो सके जितने कि होने चाहिए थे |प्रगतिवाद उस मुख्य कारण को चीन्ह लेता है और कहता है कि जब तक सामजिक न्याय नहीं होगा तब तक व्यक्ति के चिंतन में हमेशा दोष उत्पन्न होते रहेंगे| (‘प्रगतिवाद :एक दृष्टि’ शीर्षक निबंध,मु. रचनावली,खंड-५ ,पृष्ठ. २८ )
 समाज वर्गों में विभाजित है |वर्गों में विभाजित समाज में जो कला विकसित हुईं वह शासक वर्ग की ‘इच्छाओं और आकांक्षाओं’ का प्रतिबिम्ब हैं|चूँकि वह समाज शोषण के बल पर टिका हुआ है,शोषक और शोषित का फर्क है,दोनों के मध्य जो विभाजक रेखा रही है उसने कलाकारों को दलित वर्ग की ओर देखने नहीं दिया|इसलिए पुरानी कला-रचनाएं मानवतापूर्ण होने के बावजूद सम्पूर्ण मानवजाति की इच्छाओं की प्रतिबिम्ब न बन सकीं|इस कारण कला-साहित्य की दुनिया में व्यक्तिवादी प्रवृतियाँ पैदा हुयीं |अब प्रगतिवाद पुरानी कला-रूचि को मिटाकर उसकी जगह उस कला-रूचि का विकास करना चाहता है,जिसमें सामाजिकता पर जोर अधिक हो,वह युग की आवश्यकताओं को लेकर चलना सीखे|युग की आवश्यकताओं को लेकर चलने का मतलब कला की  उपेक्षा नहीं है |मुक्तिबोध लिखते हैं : ‘प्रगतिवाद कला-मार्ग बनना चाहता है|कला-शरीर की नसों में नया रक्त और नवस्फूर्ति का संसार जनता के अथाह ह्रदय के संपर्क में आने से ही होगा|उससे अछूता रखने पर वह मर जाएगा |अतएव प्रत्येक सृजक कलाकार को जनता से चैतन्यमय सहानुभूति प्राप्त कर तेज प्राप्त करना होगा |कला या ईश्वर प्राप्त करने के लिए मंदिरों या पुरानी श्रद्धेयताओं  की ओरनहीं  जाना होगा,बल्कि उस सैनिक तत्व,उस संग्रामशील धैर्य के अथाह  आंतरिक तेज और संतुलन के पास पहुंचना होगा |उसका ईश्वर सैनिक रूप में आ रहा है |विकराल मूर्तिभंजक के रूप में प्रगट हो रहा है |”(वही पृष्ठ-२९)
 प्रगतिवाद का ईश्वर सैनिक रूप में आ रहा है और वह विकराल मूर्तिभंजक होगा!क्या जबर्दस्त रूपक है !कोई इसका पाठ करते हुए मध्यकाल के मूर्तिभंजक आक्रान्ता सैनिकों तक जा सकता है लेकिन मुक्तिबोध तो प्रगतिवाद के उस स्वप्न की बात कर रहे हैं जो ‘वर्गहीन’ और ‘भेदहीन’ समाज का स्वप्न है |मुक्तिबोध मनुष्य के मनोभावों को उसकी वैयक्तिक निधि मानते हैं |इससे ऊपर उठकर कल्पना के मनुष्य की जगह यथार्थ के मनुष्य,जो अधिक मूर्त है,की वकालत करते हैं|उनके अनुसार –“प्रगतिवाद का मानव कल्पना युग के (ऐब्सट्रैक्शन) पर आधारित नहीं है |वह मनुष्य को अधिक मूर्त रूप में ग्रहण कर रहा है |इसलिए उसमें रोमांस,प्रेम,संघर्ष,कल्पना सभी का महत्त्वपूर्ण स्थान है,क्योंकि प्रगतिवाद मानव के यथार्थ पर टिका हुआ है,इसलिए कला-व्यवस्था में उसका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है |” (वही-पृष्ठ -३०)लेकिन मुक्तिबोध यहीं नहीं रुकते |वे जानते हैं की कार्य-कारण सम्बन्ध पर अधिक जोर देना यथार्थ चित्रण नहीं है|इसलिए वे विकासवाद का समर्थन तो करते हैं,पर उसमें कार्य-कारणवाद की जो यांत्रिकता है,उसका विरोध भी करते हैं |उनके अनुसार प्रगतिवाद ‘जीवन को अधिक मूर्त रूप में ग्रहण’ करने का आग्रही है,इसलिए ‘जीवन की दृष्टि से प्रगतिवाद आज तक की सबसे ऊँची मंजिल है...|”
 मुक्तिबोध साहित्य को राजनीति से अलग स्वायत्त संसार मानने के हिमायती नहीं है|वे मानते हैं की साहित्य को ‘वर्गहीन समाज-सत्ता का पुजारी’ होना चाहिए |इसलिए उनके अनुसार ‘राजनैतिक दृष्टि से प्रगतिवाद प्रसार का हिमायती  है|’प्रसार के द्वारा एक देश के दलित दूसरे देश के दलित के सम्पर्क में आयेंगे और वर्गहीन समाज-सत्ता के निर्माण के लिए क्रांति के वाहक बनेंगे |प्रगतिवाद कलाकारों से अपेक्षा रखता है कि ‘तुम अधिक से अधिक जन-ह्रदय के संपर्क में आओ और क्रांति को आगमनशील बनाओ|”क्रांति को आगमनशील बनाने की जरूरत पर जोर देने के साथ मुक्तिबोध कलाकार से उस द्वंद्व की अपेक्षा रखते हैं जो उसे सरलीकरण से बचाती है और यथार्थ को भीतर-बाहर दोनों ओर से देखने का आधार बनती है|वे कहते हैं : “प्रगतिवादी एक निश्चित दार्शनिक ऐटीट्यूड उत्पन्न करता है ,जो न ‘स्व’ से अधिक ‘बाह्य’को ,और न बाह्य’ से अधिक ‘स्व’ को महत्त्व देता है |वह कहता है कि इन दोनों की परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया से विकास होता है |’(वही)
  बहुत-से कवि अपने मनोभावों को ही अपनी कविता का विषय बनाते हैं,उन कविताओं में ऊपरी तौर पर उस सामाजिकता का अभाव दीखता है जिसकी अपेक्षा प्रायः प्रगतिवादी लोग करते हैं|समाज के बीच स्वाभाविक रूप से विकसित किसी व्यक्ति के मनोभाव को मुक्तिबोध जनविरोधी नहीं मानते |उनके अनुसार ‘जन-मन की सर्व-साधारण मनःस्थिति व्यक्ति की मनोदशाओं द्वारा प्रगट’ होती है |ऐसे ‘मनोभाव तो उत्पीडित वर्गों की साधारण मनःस्थिति के ही द्योतक हैं |” ऐसे मनोभावों से सृजित साहित्य में महान ‘मनुष्य सत्य’ होता है |लेकिन कई प्रगतिशील आलोचक /लेखक मनोभावों के आधार पर लिखे गए साहित्य की आलोचना करते हैं और उसे प्रगतिशील रचना नहीं मानते |ऐसे प्रगतिशीलों की मुक्तिबोध ने कड़ी आलोचना की है और अपनी एक टिप्पणी “प्रगतिशीलता’ और मानव सत्य” में उन्होंने लिखा है कि ये लोग हैं “...जो मात्र क्रांतिकारी शब्दों का शोर खडा करने वालों के हिमायती के रूप में अपने सिद्धांतों की यांत्रिक चौखट तैयार रखते हैं-जो उसमें फिट हो जाए वह प्रगतिशील,और जो उसमें कसा न जा सके वह प्रगति-विरोधी |यह उनका प्रत्यक्ष,परोक्ष,प्रस्तुत और अप्रस्तुत ,मुखर और गोपनीय निर्णय होता है |ये लोग उत्पीडित मध्यवर्ग के जीवन के तत्वों से दूर अलग-अलग होते हैं|भले ही ये लोग शाब्दिक रूप से गरीबों के कितने ही हिमायती क्यों न हो,इनका व्यक्तित्व स्वयं आत्मबद्ध,अहंग्रस्त महत्त्वाकांक्षाओं का शिकार और राग-द्वेष की प्रवृतियों से निपीडित होता है|बोधहीन बौद्धिकता का शिकार,यह वर्ग जिस संवेदनमय कविता की आलोचना करता है,उसकी संवेदनाओं की मूल आधार-भूमि को वह हृदयंगम नहीं कर सकता|”(रचनावली,खंड-५ ,पृष्ठ -७९)ऐसे ‘बोधहीन बौद्धिकों’ के  प्रगतिशील समाज को मुक्तिबोध प्रश्नांकित करते हैं और ‘राजनैतिक शब्दोंवाली परिभाषाओं की कविता’ को कविता मानने की प्रगतिवादी जिद की भर्त्सना करते हैं |ऐसे प्रगतिवादियों को वे ‘अहंवादी’ और ‘आस्थाहीन’ कहते हैं |प्रगतिशील कविता एक तरह की नहीं कई तरह की हो सकती है |प्रगतिशीलता के अनेक आयाम और रूप हैं |इसकी अनदेखी करके सीधी-सरल और सपाट लगनेवाली प्रगतिशील कविताओं को ही ‘प्रगतिवादी’ ढांचे में फिट करने वाले आलोचकों –बौद्धिकों पर प्रहार करते हुए मुक्तिबोध लिखते हैं : ‘...हमारे ये साहित्यिक नेता ह्रदय और बुद्धि के क्षेत्र में कठोर अहंवादी हैं,कष्ट्ग्रस्त मनुष्य जीवन के मर्मग्य होने के पहले वे आलोचक और मसीहा हैं |मनुष्य जीवन के भव्य संवेदना-सत्यों के प्रति उनमें आवश्यक नम्रता भी नहीं है |न इतनी आस्था है कि वे ये माने कि युग-सत्य विभिन्न रूपों और विविध आलोकों में विविध विचारों और भावनाओं में वलयित होकर आज की कष्टग्रस्त मानवता के ह्रदय में अधिष्ठित है |इस आस्थाहीनता के  कारण  ही,उनके द्वारा समर्थित कविता में सम्पूर्ण मनुष्य की गौरवपूर्ण नीतिमत्ता,सर्वांगीण मानवीय पक्षों का भव्य दृश्य,सुकुमार भावनाओं की मनुष्योंचित गरिमा दिखाई नहीं देती,वरन पिटी-पिटायी क्रांतिकारिता का सभामंची आत्म-प्रदर्शन दिखाई देता है|”(वही पृष्ठ -८०)
मुक्तिबोध प्रगतिवाद के समर्थक हैं,लेकिन प्रगतिशीलता की यांत्रिक समझ के विरुद्ध भी हैं|जनता में जन-भावना में,उसकी मुक्ति में, मुक्ति के लिए किये जाने वाले प्रयत्नों में उनकी गहरी आस्था है |लेकिन प्रगतिवादी कवियों-आलोचकों की जो समझ बीसवीं सदी के चौथे-पांचवे दशक में थी,उससे वे प्रायः असहमत हैं|यही कारण है कि वे मानते हैं कि प्रगतिशील कविता का उतना विकास नहीं हो सका,जितना कि होना चाहिए|इसलिए मार्क्सवादी होने के बावजूद वे प्रगतिशील कवि कहलाने की आकांक्षा नहीं रखते|उनका सारा संघर्ष ‘नयी कविता’ को प्रगतिशील चेहरा देने का,साथ ही नयी कविता का कवि कहलाने का है |वे अपने आप को प्रगतिशील कवि नहीं ‘आधुनिकतावादी’ कवि मानते हैं | ‘दिग्विजय कॉलेज” राजनांद गाँव, के प्राचार्य को लेक्चरर  पद के लिए लिखे गये आवेदन में अपने साहित्यिक रुझान का परिचय देते हुए वे लिखते हैं : “मैं हिंदी कविता के वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में प्रभावी आधुनिकातिवादी रुझान का अगुआ रहा हूँ |इस रुझान का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रथम ग्रन्थ ‘तारसप्तक’ में मेरी सोलह कवितायें शामिल हैं |”(छत्तीसगढ़ में मुक्तिबोध’,सं-राजेंद्र मिश्र,पृष्ठ-२९१ ) यहाँ यह स्पष्ट है कि मुक्तिबोध अपने को ‘तारसप्तक’ की परम्परा से जोड़कर देखते हैं |उनकी दृष्टि में ‘१९४३ में प्रकाशित यह ग्रन्थ समग्र हिंदी कविता को पूरी तरह नयी दिशा प्रदान करने में निर्णायक है |’ (वही)
  मार्क्सवादी मुक्तिबोध अपने को ‘आधुनिकतावादी’ कवि क्यों कहते हैं ?हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना में ‘आधुनिकतावाद” को पतनशील साहित्यिक प्रवृति माना गया है और आधुनिकतावाद के लक्षण अज्ञेय और उनके समर्थक कवियों की कविताओं में देखे गए हैं |मुझे लगता है कि मुक्तिबोध इस अर्थ में अपने को आधुनिकतावादी कवी नहीं कहते |आधुनिकतावाद का आशय यहाँ प्रगतिवाद से भिन्न उस नए साहित्यिक रुझान से है जो जटिल यथार्थ को समझने में ज्यादा सक्षम है|उनका सारा संघर्ष इस नए रुझान को प्रतिष्ठित करने है |वे स्वयं मानते हैं : ‘इस नयी साहित्यिक प्रवृति के संरक्षण की जरुरत ने मुझे समालोचना के क्षेत्र में ला खडा किया |’(वही )
    प्रगतिवाद और प्रगतिशीलता से सम्बंधित मुक्तिबोध की टिप्पणियों से स्पष्ट है कि वे पुरानी साहित्यिक रुढियों और चेतना के विरुद्ध हैं ,वे नए साहित्य और समाज के निर्माण का स्वप्न देखते हैं |वे प्रगतिशीलता को एकरेखीय और सरलीकृत अवधारणा मानने के खिलाफ हैं और यथार्थ को जटिल तथा बहुस्तरीय मानते हैं |इसलिए वे बिना नाम लिए उन प्रगतिशील लोगों की आलोचना करते हैं जो प्रगतिशीलता को कुछ राजनीतिक सिद्धांतों तक सीमित कर देना चाहते हैं|इसके लिए वे दोतरफा संघर्ष करते हैं |नयी काव्य प्रवृति- जिसे आगे चलकर नयी कविता कहा गया- को प्रतिष्ठित करने का संघर्ष  तो वे करते ही हैं ; प्रगतिशील  आन्दोलन के भीतर जो यांत्रिक समझ विकसित हो गयी थी,उससे भी कडा संघर्ष करते हैं |इसलिए उनका संघर्ष भीतर-बाहर दोनों स्तरों पर है|उनके संघर्ष का तीसरा धरातल भी है |वह है प्रगतिशीलता के विरोधियों का ‘व्यक्ति-स्वातन्त्र्य’| ‘अंतर्मुखता’ और ‘व्यक्ति स्वातंत्र्य’ की चर्चा एक जमाने में प्रगतिवाद के विरोधी कवी लेखक करते थे |मुक्तिबोध मानते हैं कि ‘कष्टग्रस्त जीवन’ के कारण कवि में ‘अंतर्मुखता’ विकसित होती है |मुक्तिबोध के अनुसार प्रगतिशीलता के विरोधी ‘अंतर्मुखता’ के मूल उद्वेगों के क्रांतिकारी अभिप्रायों को दबाकर ,उस अंतर्मुखता को इस प्रकार से प्रोत्साहन देते हैं कि वह अंतर्मुखता अपने प्रधान विद्रोहों से छूटकर अलग हट जाए |अंतर्मुखता में ‘व्यक्ति’ को ही प्रधान मानकर उस व्यक्ति को सामाजिक परिवर्तन के आग्रही शक्तियों से अलग हटाते हुए,वे ‘व्यक्ति स्वातंत्र्य’ की घोषणा करते हैं |”(रचनावली ,खंड-५ ,पृष्ठ-८० )

   प्रश्न है कि मार्क्सवाद और प्रगतिवाद को व्यापक-जनपक्षधर विचार-प्रवृति मानने वाले मुक्तिबोध प्रगतिशील कविता को नए यथार्थ के चित्रण के लिए क्यों अपर्याप्त मानते हैं ?और नयी कविता इस दायित्व के निर्वहन के लिए ज्यादा उपयुक्त क्यों?नागर्जुन,केदारनाथ अग्रवाल की कविता में क्या वह द्वंद्व और तनाव नहीं है जिसे मुक्तिबोध नए यथार्थ चित्रण के लिए जरुरी मानते हैं?प्रगतिशीलता सम्बन्धी मुक्तिबोध की और नागर्जुन-केदार की धारणाओं में जो फर्क है,वह वस्तुतः गाँव और किसान-मजदूर के नजरिये से समाज को देखने के आग्रह का परिणाम है|मुक्तिबोध के यहाँ प्रगतिशीलता का जो आग्रह है वह मार्क्सवाद के प्रभाव से निर्मित्त शिक्षित शहरी मध्यवर्गीय व्यक्ति का है|भारत जैसे विशाल देश में जीवन और जीवन-यथार्थ का जो वैविध्य  है,उसे कई  स्तरों पर देखे जाने की जरुरत क्या नहीं है? मुक्तिबोध जिस शिक्षित मध्यमवर्ग से आते हैं,उस नजरिये से प्रगतिवाद और प्रगतिशील आन्दोलन का किया गया उनका मूल्याङ्कन क्या निर्विवाद है ?जिस ‘तारसप्तक’ को वे ‘समग्र हिंदी कविता को पूरी तरह नयी दिशा प्रदान करने वाला निर्याणक’ ग्रन्थ मानते हैं,उसी  ‘तारसप्तक’ के कवि अज्ञेय उन्हें ‘आत्मान्वेषण’ का कवि घोषित करते हुए जो कहते हैं ,वह मुक्तिबोध के कवि-मन  और उनके समाज बोध का परिचय देता है : “मुक्तिबोध आत्मान्वेषण के कवि थे,पर यह एक आत्मान्वेषण ,अपनी किसी विशिष्टता की खोज नहीं थी,यह अपने उस रूप की खोज थी जो कवि को पूरे समाज से,मानव मात्र से, मिला दे|कोई सोच सकता है कि कवि को आत्मान्वेषी कहना उसकी अवमानना करना है ,पर मैं इसे कठिनतर यात्रा समझता हूँ ,और कवि मुक्तिबोध का विशेष सम्मान इसलिए करता हूँ कि वह आजीवन इस कृच्छ साधना में लगे रहे,अपने भीतर पैठना पर पैठ कर उसे बाहर लाना जो अपना नहीं,सबका है|यह किसी के लिए भी कठिन कार्य है,मुक्तिबोध की परस्थितियों में और भी कठिन था,पर वह निष्ठापूर्वक उसमें लगे रहे|”(आत्मान्वेषण का कवि ,तिमिर में झरता समय ,सं-राजेंद्र मिश्र ,पृष्ठ -९ )

Sunday, 15 January 2017

मेले में गोपेश्वर

पुस्तक मेले को पुस्तकों का कुंभ कहा जाता है। लेकिन इससे मेरी विनम्र असहमति है। कम से कम हिंदी के मामले में यह एक भयानक बाढ़ है जिसका दुर्गंधमय पानी वितृष्णा पैदा करता है। हिंदी का हर पुस्तक मेला पिछले की तुलना में ज्यादा घटिया होता जा रहा है। अगर दस नई पुस्तकें आती हैं, तो उनमें से नौ कूड़ा होती हैं, जो इसलिए छपती हैं क्योंकि प्रत्येक  प्रकाशक को बेचने के लिए लगातार कुछ चाहिए। साहित्य का उत्पादन कम हो रहा है और वितरण तथा विक्रय ज्यादा। माँग और पूर्ति के सरल सिद्धांत के अनुसार हर ऐरे-गैरे लेखक को अपनी किताब छपवाने का अवसर मिल जा रहा है – रॉयल्टी भले ही किसी एक या दो को मिले। यह हिंदी में पुस्तक के अवमूल्यन का समय है।

        इस निराशाजनक माहौल में हाथ में एक भी अच्छी किताब पड़ जाए, तो मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूँ। मैं बिना किसी हिचक के कह सकता हूँ कि प्रो. गोपेश्वर सिंह की ताजा कृति ‘भक्ति आंदोलन और काव्य’ एक ऐसी ही गंभीर, नवोन्मेषी और विचारोत्तेतक किताब है। व्यक्तिगत रूप से मुझे भक्ति काल और उसके साहित्य से चिढ़ है। यह चिढ़ बुनियादी रूप से धर्म और अध्यात्म से चिढ़ है और तब और बढ़ जाती है जब धर्मविहीन अध्यात्म की बात की जाती है। धर्म सीधा-सादा है, अध्यात्म में पाखंड की गुंजाइश रहती  है। मुझे यह देख कर बहुत खुशी हुई कि इस पुस्तक के अनेक निबंधों में इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना आदि को बकवास बता कर इनकी भर्त्सना की गई है। कबीर में इन नाड़ियों का, जिनके होने के बारे में आधुनिक ज्ञान कोई सूचना नहीं देता, जिक्र सब से ज्यादा है – इसके बावजूद भक्त कवियों में कबीर ही सब से ज्यादा तार्किक और विवेकवादी हैं। गोपेश्वर सिंह की खूबी यह है कि वे पूरब की ओर देखते हुए पश्चिम या उत्तर-दक्षिण की अनदेखी नहीं करते।

        मानव स्वभाव शायद हमेशा इतना चौकस रहने का नहीं है। इसीलिए हिंदी के साहित्य आलोचकों में सहज ही दो संप्रदाय विकसित हो गए है – एक कबीर पंथियों का और दूसरा तुलसी पंथियों का। शुरुआत रामचंद्र शुक्ल ने की थी – उनका भावुक मन तुलसी और खासकर मानस  में रमा हुआ था। कबीर को कवि मानने में भी उन्हें दिक्कत थी। शुक्ल जी के जमाने में कविता जिस तरह परिभाषित थी, उस कसौटी पर कबीर को महान कवि मान पाना आज भी कठिन है। कबीर के मर्म को पहली बार हजारी प्रसाद द्विवेदी ने खोला, जिसके आधार पर ‘दूसरी परंपरा की खोज’ शुरू हुई। उसके कुछ वर्ष बाद कबीर हिंदी के सब से बड़े कवि हो गए। आज लगता है कि कबीर और मुक्तिबोध को छोड़ कर हिंदी में कोई और कवि हुआ ही नहीं।

        गोपेश्वर सिंह इस अतिवाद के सख्त खिलाफ हैं और यही उनकी ताकत है। वे कबीर के प्रतिक्रियावादी तत्वों को हमारे सामने रखते हैं और तुलसी तथा सूर के प्रगतिशील तत्वों को रेखांकित करते हैं। इसलिए नहीं कि उन्हें अपना एक तीसरा पंथ खड़ा करना है, बल्कि इसलिए कि पहले के दोनों पंथों की प्रामाणिकता को खंडित किए बिना सत्य को प्रगट ही नहीं किया जा सकता। मेरा खयाल है, वामपंथ ने हिंदी आलोचना के क्षेत्र में सब से ज्यादा खोटे लेबेल पैदा किए हैं। प्रगतिशीलता के नाम पर जिनकी दुकानें उठा देने की कोशिश की गईं, उनमें तुलसी और रामचंद्र शुक्ल सब से ऊपर हैं। दिलचस्प है कि भक्ति आंदोलन और उसके साहित्य पर सब से उच्छृंखल नुक्ताचीनी मुक्तिबोध ने की है और गोपेश्वर सिंह ने बहुत ही तार्किक ढंग से और सप्रमाण उसका निराकरण किया है। रामचंद्र शुक्ल वास्तव में ब्राह्मणवादी थे या ब्राह्मणवाद के विरोधी, यह जानने के लिए उनके विचारों के कई अज्ञात टुकड़े गोपेश्वर जी ने खोज निकाले हैं। यद्यपि बुद्धि से ब्राह्मणवाद-विरोधी होते हुए भावना से कोई ब्राह्मणवादी हो सकता है, जैसे कबीर के अकथ प्रेम, गहरी सामाजिकता और तर्कदृष्टि की वाह-वाह करने वाले अनेक लेखक महानुभाव परस्पर घृणा, तिकड़म और लोभ के कुंड में डूबे नजर आते हैं।

        रामविलास शर्मा को अपने देश से अगाध प्रेम था और उसकी सांस्कृतिक विरासत को वे झटकना नहीं, समझना चाहते थे, ताकि आज के भारत के लिए रास्ता निकाला जा सके। इसीलिए तुलसी पर रीझते हुए भी वे कबीर की महत्ता के कायल थे। यह समन्वयवाद नहीं, सार्वभौमिकता थी, जिसकी व्याप्ति उन विचारधाराओं में नहीं है जो साहित्य से जीवन  प्राप्त करने की जगह समाज में कलह पैदा करना चाहती हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी का मिजाज थोड़ा रोमांटिक था, उनका मन कालिदास और बाणभट्ट में ज्यादा रमता था। इसीलिए वे तुलसी की अनुशासित कविता के सौंदर्य का आस्वाद नहीं ले सके। नामवर सिंह में एक विद्रोहीनुमा व्यक्ति  की अदाएँ हैं।  इन अदाओं के लिए कबीर ज्यादा मुआफिक पड़ते हैं। लेकिन मैं ऐसे लाखों रसिकों की कल्पना कर सकता हूँ जो अपने-अपने कारणों से कबीर, सूर, तुलसी  और मीरा चारों का आनंद ले सकते हैं और इसमें उन्हें कोई अंतर्विरोध दिखाई नहीं पड़ता।


        मेरा खयाल है, गोपेश्वर सिंह कुछ इसी तरह के आलोचक हैं। साहित्य का रस लेते हुए उनकी आँखें हमेशा खुली रहती हैं। इसीलिए वे गुलाब से लिपटे काँटों और कमल का जिसमें वास होता है, उस गँदले पानी की ओर से आँख मींच नहीं लेते। समन्वय उनके स्वभाव में है – लेकिन ऐसा समन्वय नहीं कि बाभन बाभन रहे और कायस्थ कायस्थ और दोनों मिल कर जाति प्रथा का विरोध करते रहें, बल्कि ऐसा समन्वय जिसमें गुड़ और चीनी दोनों का अलग-अलग स्वाद लिया जा सके और गुड़ से चीनी होने की और चीनी से गुड़ होने की माँग न की जाए। इसीलिए गोपेश्वर जी तुलसी और कबीर, किसी से भी पूरी तरह संतुष्ट नहीं  हैं, लेकिन हर एक में इतना पाते हैं कि उस पर मुग्ध हुआ जा सके। साहित्य के प्रति यह सकारात्मक दृष्टि ही वह नागरिक पैदा कर सकती है जो अपनी संपूर्ण सांस्कृतिक विरासत को समग्रता में समझ पाएगा। मुझे अतिरिक्त खुशी है कि इस कोशिश में राममनोहर लोहिया को बार-बार याद किया गया है जो भारत के महान प्रेमी और मर्मज्ञ थे।​

राजकिशोर ------------------