Sunday, 25 June 2017

‘साहित्य का अनुवाद नहीं है सिनेमा’

साहित्य और सिनेमा अभिव्यक्ति के दो माध्यम हैं. प्रभाव की दृष्टि से कौन अधिक ताकतवर और दीर्घजीवी है यह बताना बहुत मुश्किल नहीं है. साहित्य अभिव्यक्ति का आदिम माध्यम है जबकि सिनेमा तकनीक आधारित बिलकुल नया. साहित्य को सिनेमा की जरुरत है या नहीं,  कहना मुश्किल है लेकिन सिनेमा का काम साहित्य के बिना नहीं चल सकता.
          हिंदी लेखकों में सिनेमा को लेकर कभी सम्मान भाव नहीं रहा. उनके लिए सिनेमा की दुनिया हमेशा बदनाम गली की तरह रही है. वहां जाने का अर्थ साहित्य के ऊँचे और पवित्र आसन से नीचे उतरना माना जाता रहा है. साहित्य का उद्देश्य व्यवसाय नहीं है लेकिन सिनेमा का काम बिना व्यवसाय के चल नहीं सकता. इसलिए यह भी माना जाता है और कुछ हद तक ठीक माना जाता है कि सिनेमा में साहित्य को व्यवसायिक समझौता करना ही पड़ेगा. इसी के साथ हिंदी समाज की सिनेमा के प्रति मानसिकता को भी ध्यान में रखना जरुरी है. हिंदी समाज में नाच-नौटंकी और नृत्य-संगीत के लिए सम्मान भाव कभी नहीं रहा. नाचने और गाने वाले कलाकारों को समाज में ‘नचनिया’ और ‘गवैया’ कहकर हिकारत भाव से देखा जाता रहा है. खैर, ग्लैमर और पैसा जुड़ जाने के कारण सिनेमा के प्रति समाज का रवैया बदला है. लेकिन साहित्यकारों का सिनेमा के प्रति जो रवैया पहले था, उसमें कोई ख़ास फर्क नहीं आया है. एक माध्यम के रूप में सिनेमा की प्रतिष्ठा पूरी दुनिया समेत हिंदी में भी बढ़ी है, लेकिन साहित्यकारों में अपने माध्यम को लेकर जो श्रेष्ठता और पवित्रताबोध पहले था, वह कमोबेश अब भी बरकरार है. हर कथाकार यह तो चाहता है कि उसकी कहानी पर फिल्म बने, कवि की इच्छा रहती है कि उसकी कविता सिनेमा में गाई जाकर जन-जन तक पहुंचे, ऐसा होता है तो वह अपने परिचय में सगर्व उसका उल्लेख भी करता है, लेकिन सीधे तौर पर उससे जुड़ने में उसे परहेज अब भी है. कुल मिलाकर हिंदी समाज और साहित्य का रवैया गुड़ खाए और गुलगुले से परहेज वाली कहावत की तरह है. इसलिए पहले यदि प्रेमचंद, भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर, गोपाल सिंह नेपाली आदि कथाकार-कवि सिनेमा में गए और फिर साहित्य की दुनिया में वापस लौट आए तो आज भी किसी कवि-लेखक में सिनेमा में जाने का उत्साहजनक उदहारण न के बराबर ही मिलता है. जावेद अख्तर, गुलजार, प्रसून जोशी आदि को स्टार की हैसियत तो प्राप्त है, लेकिन उनकी जगह साहित्य के ऊँचे और पवित्र आसन पर तो हरगिज नहीं है. इन सबका कारण क्या है? क्या साहित्य और सिनेमा का कोई सहज संवादधर्मी संबंध संभव नहीं? या इसमें मुख्य बाधा वह ‘व्यवसायिकता’ है जिसके बिना सिनेमा की दुनिया भले कायम न रह सके साहित्य के लिए उसमें फंसना अपने को नष्ट करना है?
          सिनेमा में गीत का आत्यंतिक महत्त्व न भी माना जाए तब भी एक कहानी की दरकार तो होती ही है. वह चाहे साहित्यिक हो या फिल्म को ही ध्यान में रखकर लिखी गई मसालेदार कहानी. कहानी के साथ संवाद, पटकथा, गीत-संगीत, अभिनय, निर्देशन, छायांकन आदि कला-रूपों के कुशल संयोजन का नाम सिनेमा है, जिसमें बड़ी टीम, बड़ी पूंजी और नए से नए तकनीकी ज्ञान की जरुरत है. सिनेमा निर्माण एक सामूहिक काम है. एक फिल्म के असफल होने का मतलब है बड़ी पूंजी का डूब जाना. साहित्य-सृजन का काम इससे भिन्न है. लेखक में प्रतिभा और जीवन-दृष्टि के साथ मेहनत करने की क्षमता है तो वह साहित्य-सृजन कर सकता है. कोई साहित्यिक कृति असफल होती है तो एक लेखक असफल होता है. लेखक सृजन के लिए जोखिम उठाता है तो उसके नफे-नुकसान का जिम्मेदार वह खुद होता है, लेकिन फिल्म निर्माण में कोई जोखिम उठाने के पहले सौ बार क्या, हजार बार सोचना पड़ता है. फिर भी कुछ ऐसे फ़िल्मकार हैं जो जोखिम उठाते रहते हैं. ऐसे लोगों में कुछ सफल भी हुए हैं और कुछ बर्बाद भी.
          हिंदी सिनेमा और साहित्य का संबंध दो तरह से है. कुछ लेखक फिल्मों के लिए गीत-कहानी लिखने गए और फिल्मकारों की शर्त पर लिखते रहे और वहीं के होकर रह गए. मसलन नरेंद्र शर्मा, शैलेन्द्र, साहिर, प्रदीप, राही मासूम रजा आदि. सिनेमा में जाकर इनका साहित्य सृजन कितना प्रभावित हुआ, यह तो मूल्यांकनकर्ता बताएंगे, लेकिन इतना तय है कि इनके जरा से स्पर्श से सिनेमा सुन्दर जरुर हुआ. कुछ लेखकों की कहानी को फिल्मकारों ने चुना और लेखक को भागीदार बनाकर फिल्म-निर्माण हुआ. फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम’ पर इसी नाम पर शैलेन्द्र ने फिल्म बनाई, जिसकी पटकथा और संवाद खुद रेणु ने लिखे. फिल्म में एक खलनायकनुमा चरित्र ठाकुर विक्रम सिंह को जोड़ा गया जो फ़िल्मी सफलता के लिए जरुरी माना गया. रेणु को इसके लिए तैयार होना पड़ा. लेकिन अंत बदलने की जब बात रेणु के सामने आई तो वे इसके लिए तैयार नहीं हुए. उन्होंने कहा कि लेखक के रूप में फिल्म से मेरा नाम हटा दिया जाए. फिल्म के अंत में हीरामन और हीराबाई का मिलन कराकर फिल्म की व्यवसायिक सफलता के लिए कहानी में परिवर्तन का प्रस्ताव था. रेणु की जिद के कारण निर्माता शैलेन्द्र जो स्वयं गीतकार थे, मान तो गए लेकिन फिल्म असफल हुई. कर्ज के बोझ तले दबकर उसकी इहलीला समाप्त हो गई. साहित्य की कसौटी पर किसी साहित्यिक कृति पर फिल्म बनाने की कीमत शैलेन्द्र को अपनी जान गंवाकर देनी पड़ी.
          कमलेश्वर और राही मासूम रजा दोनों कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित होने के बाद फिल्मों में गए. ‘आंधी’ और ‘मौसम’ जैसी फ़िल्में कमलेश्वर के उपन्यासों पर बनीं जो याद की जाएंगी, लेकिन उनकी लिखी कोई फिल्म याद करने लायक नहीं याद आती. ‘राम बलराम’ या ‘ललकार’ जैसी व्यवसायिक दृष्टि से सफल उनकी लिखी फिल्में याद की जाएंगी क्या? ‘आधा गाँव’ के मसहूर लेखक राही मासूम रजा कोई ऐसी फिल्म नहीं लिख सके जो उनकी ऐतिहासिक देन मानी जाए! ‘मैं तुलसी तेरे आँगन की’ व्यवसायिक दृष्टि से ही सफल थी, अन्य दृष्टि से नहीं. उनकी सबसे बड़ी देन ‘महाभारत’ धारावाहिक का संवाद और उसकी पटकथा ही मानी जाएगी.
          शरतचंद के ‘देवदास’ पर बहुतेरी फिल्में बनीं. विमल राय और संजयलीला भंसाली के ही ‘देवदास’ को लें. व्यवसायिक सफलता दोनों को मिली, लेकिन फिल्म में शरतचंद कितने थे और उसके निर्माता-निर्देशक कितने यह हम आप जानते हैं. ‘शतरंज के खिलाडी’ का अंत सत्यजीत राय ने भी बदला था. बहुत रचनात्मक अंत था. प्रेमचंद के अंत से अधिक अर्थगर्भित, लेकिन फिल्म व्यवसायिक दृष्टि से सफल नहीं हो सकी. ‘गोदान’, ‘चित्रलेखा’ से लेकर अनेक उपन्यासों-कहानियों पर फिल्में बनी हैं, जिसमें से अधिकतर असफल हुई हैं. व्यवसायिक दृष्टि से भी और कला की दृष्टि से भी. कला की दृष्टि से जो ठीक थीं भी वे व्यवसाय की दृष्टि से पिट गईं.
          सिनेमा जब शुरू हुआ तो कहानी के लिए उसने साहित्य का सहारा लिया. दुनिया की सभी भाषाओं में शुरू के दौर में साहित्यिक कृतियों को आधार बानकर फिल्में बनीं, लेकिन धीरे-धीरे फिल्मों के लिए ही कहानी लिखी जाने लगी. ‘शोले’ जैसी पटकथा या कथा अब लिखी ही जाती हैं सिनेमा को ध्यान में रखकर. उसमें कहानी से अधिक दृश्य, एक्शन, संवाद आदि पर जोर रहता है. लेकिन इसी के साथ ‘पिपली लाइव’, ‘चक दे इंडिया’ आदि फिल्में भी आती हैं जो अपनी यथार्थपरक कहानी के लिए ज्यादा याद की जाती हैं.
          इधर के वर्षों में तकनीक, सिनेमेटोग्राफी, क्रोमा आदि की प्रमुखता ज्यादा हो गई है जिसमें रियलाइजेशन से अधिक विजुआलाइजेशन पर जोर अधिक होता है. उसमें यथार्थ या फैंटेसी को इतने भव्य ढंग से दिखाने का चलन है कि कहानी के सहारे धीरे-धीरे चलनेवाले स्लो सिनेमा का दौर लगता है कि गुजरे जमाने की चीज है. फिल्मों में आए इस बदलाव ने दर्शकों की रूचि पर जबर्दस्त प्रभाव डाला है. अब दिलीप कुमार-सुचित्रा सेन अभिनीत ‘देवदास’ की जगह शाहरुख़ खान और ऐश्वर्या राय अभिनीत ‘देवदास’ को पसंद करने वाली पीढ़ी आ चुकी है. क्लासिक की तरह हमारे मन-मिजाज में जगह बना चुकी देवदास-पारो की कथा का जो भंसाली संस्करण है वह नई पीढ़ी को अधिक पसंद है, लेकिन उसमें शरतचंद के ‘देवदास’ से बड़ा ‘डेविएशन’ है. कुँवर नारायण का कहना है कि सिनेमा साहित्य का अनुवाद नहीं होता, किन्तु किसी क्लासिक के साथ इस तरह का वर्ताव जो उसे क्लासिक ही न रहने दे, उचित नहीं.
          साहित्य और सिनेमा पर बात करते हुए गुलजार ने एक बार कहा था कि सिनेमा की तुलना में साहित्य का प्रभाव ज्यादा गहरा और स्थायी होता है, एक फिल्म के जरिए हम पर जो प्रभाव पड़ता है वह कई कलाओं का होता है. इसलिए साहित्य और फिल्म के प्रभाव में फर्क होता है. यूँ ‘टाइटेनिक’ जैसी कुछ फिल्में अपने प्रभाव में फिल्म होने के बावजूद कविता होती हैं. अच्छे फिल्मकारों ने सिनेमा को साहित्य के करीब लाकर उसमें साहित्य का प्रभाव पैदा करने की कोशिश की है. इसके लिए उन्होंने जीवन के अछूते प्रसंगों को बहुत गहराई से छूने की कोशिश की है. समकालीन हिंदी  कथा साहित्य और हिंदी सिनेमा पर इस दृष्टि से देखने पर मुझे कई बार सिनेमा आगे निकलता हुआ दिखाई देता है.

Saturday, 17 June 2017

डिजिटल समय में वसंत

वसंत आ गया है और सम्पादक मित्र पीछे पड़ गए हैं कि वसंत पर निबंध लिखो। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने जब लिखा था-वसंत आ गया है’, तब सम्पादक गण पीछे नहीं पड़े थे। शांति निकेतन के प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारते हुए, पेड़ों-वनस्पतियों के बीच रच-बसकर लिखा था। उन्हें न फ़ोन-मोबाइल का व्यवधान था और न वाट्सएप-फेसबुक की माया से दो-चार होना था। कहने को तो यहाँ भी, जहाँ मैं रहता हूँ-दिल्ली विश्वविद्यालयके परिसर में प्रकृति कम नहीं है। पेड़-पौधों और फूलों से पूरा परिसर भरा हुआ है, लेकिन कौन इसे निहारे! जो मज़ा व्हाट्स-एप्प और फेसबुक, यूटयूब की मायावी दुनिया में है, उसका आमंत्रण बाहर के वासंती आमंत्रण में कहाँ! वह सब तो व्हाट्स-एप्प और फेसबुक पर सुबह से दिखने लगता है। बाहर कौन जाए और कौन हजारी प्रसाद द्विवेदी की तरह पेड़-पौधों को निहारता फिरे। वे लोग फटीचर जमाने के लोग थे। गृहस्थी के झंझट से भागते थे तो पेड़-पौधों के पास जाते थे। हमलोग तो सोते-जागते व्हाट्स-एप्प, फेसबुक आदि के जरिए घर के भीतर हीवाह वसंत-आह वसंतके मैसेजिया फूल-गेंदे फेंक-फेंककर न सिर्फ़ दोस्तों-सम्बन्धियों का बल्कि घर के लोगों का भी दिल गुदगुदाते रहते हैं। सब अपने में मगन हैं, लेकिन दूसरे के मैसेज पर नज़र है। भेट-मुलाक़ात भले कम है पर आपसी संवाद जारी है। इन्हीं संवाद ने शोर मचाया कि वसंत आ गया है तो मैंने भी चौंककर आँख खोली। व्हाट्स-एप्प-फेसबुक के पेज़ खोले तो वसंत वहाँ रंग-बिरंगे परिधानों में धूमधाम से हाज़िर था। मुझे देखा तो बोला; आओ, आओ मास्टर! कहाँ थे? मैं तुम्हारे इंतज़ार में हजारों बधाइयाँ समेटे बैठा हूँ। मैंने कहा कि मैं तो तुम्हें बाहर खोज रहा था। बधाइयों के मैसेज और फूलों की तस्वीरें उसने मेरे ऊपर लाद दी। उनके बोझ से मैं हाफ़ने लगा तो उसने कहा कि यह सब हजारी परसादी हरक़त छोड़ों! बाहर कुछ नहीं रखा। मैं तो तुम्हारे डिजिटल आँगन में हाज़िर हूँ।
          सच ही कहा उसने। उसके आने का शोर मचा तो कल ही पार्क की ओर दौड़ा। अभी पेड़-पौधों को निहारना शुरू ही किया था कि एक अध्यापक साथी ने टोका कि भले आदमी गँवार की तरह वसंत को यूँ ढूढ़ते न फिरते। जब इच्छा हो मोबाइल ऑन करो और देखो, जितना देखना हो। यह कहने के साथ उन्होंने अपना मोबाइल मेरे सामने किया। तरह-तरह के नायाब दृश्य सामने थे। रंग-बिरंगे फूल, तितलियाँ, भौरे क्या नहीं था वहाँ। तस्वीर भी और विडियो भी। वहाँ कुछ कवि भी थे जो वसंत आने की ख़ुशी में चुटकुलेनुमा कविताएँ सुना रहे थे। उन कविताओं को सुननेवाले कुछ खुशनुमा लोग हँसते-हँसते लोटपोट हो रहे थे। मित्र ने बताया कि इनकी तोंद में जो चर्बी है, वह वसंत के महीने में ऐसी कविताओं से हरक़त में आती है और साल भर इनका हाजमा ठीक रहता है जिससे ये पूरे साल देश की हरियाली चरते हैं।
          तो मित्रों! वसंत को अब कहाँ खोजते फिरोगे! खोजने लायक रहोगे तब न खोजोगे! अपने एक मित्र को पिछले साल मैं वसंत दिखाने उद्यान ले गया। मैंने सोचा कि वहाँ वह फूलों के बीच खुश होगा, लेकिन देखता हूँ कि वह मोबाइल ऑन करके जॉब पोर्टल देख रहा है। मैंने पूछा तो बोला कि बेटे ने अब विज्ञापन देखना बंद कर दिया है। उसी के लिए वेकेंसी ढूँढ़ रहा हूँ। अब तुम्हीं कहो कि वह देखूँगा या वसंत? मैंने कुछ न कहा। चुपचाप उसका मुँह देखता रहा। वसंत को देखने का मूड न रहा! मतलब यह कि वसंत भी मूड-मूड की बात है।
कवि  धूमिल ने जब कहा था कि वसंत हमारे बिल भरने का समय है,तभी हम समझ गए थे कि वसंत के साथ कुछ गड़बड़ होने वाला है । इस क्रांतिकारी कवि की क्रांतिकारी घोषणा से अभी जूझ रहा था कि हमारे समय की एक कवयित्री रश्मि रेखा ने घोषणा कर दी : वसंत अब अफवाहों में आता है । अफवाह का ध्यान आया तो फेंकू की याद आई । वही फेंकू जिसके फेंके का कोई जवाब नहीं । लोग फेंकू की फेंकने की कला का आनंद उठाने लगे हैं । मुझ से मेरे मित्रों ने कहा कि क्या सरसों-तीसी-आम आदि को निहारने में हलकान हो रहे हो,फेंकू की फेंकने की कला टी.वी. व्हाट्स-एप्प ,फेसबुक आदि पर देखो !वसंत फीका लगने लगेगा। सो,कुछ दिनों तक फेंकने की कला का  मजा लेता रहा,लेकिन तुरंत बोर होने लगा । बोरियत दूर करने के लिए बाहर  निकलने की तैयारी करने लगा क्योंकिबागों में बहार हैके मैसेज आ रहे थे । अभी निकलने की सोच ही रहा था कि व्हाट्स-एप्प कीटुनकी आवाज आई । देखा तो गुलाब के लाल-लाल फूलों के बीच एक कवितानुमा सन्देश है; “किरन बोली मुझसे,उठकर बाहर देखो ,कितना हसीन नजारा है;मैंने कहा रुक,पहले उसे एस एम एस तो कर लूँ जो इस सुबह से भी प्यारा है।मुझे अचानक अपराध बोध-सा हुआ कि मैंने तो किसी को कोई मैसेज नहीं भेजा । मैं तुरत उसी को ताबड़तोड़ फारवर्ड करने लगा! भूल गया कि बाहरबागों में बहार है ।हुआ करे-बागों में बहार !बहार का मैसेज भेजने और उधर से आए मैसेजिया बहारों को देखने-पढ़ने का जो मजा है,वह बाहर के बागों में आये बहार को निहारने में कहाँ !पिछले साल वसंत के प्रेमी हमारे एक मित्र यूँ ही बागों के बहार में खोये थे कि एक नौजवान ने प्रणाम किया और बोला :अरे भाई देवदास;क्यों भए उदास। मेरे मित्र ने उसे नाराज होकर देखा,लेकिन तुरंत शांत हो गए । भलाई इसी में थी । मित्र के वसंत-प्रेम के कारण उस उद्यान में नौजवान जोड़ों को वसंतोत्सव मनाने में बाधा उपस्थित हो रही थी । वे चुपचाप घर लौट आये और डिजिटल संसार में आये वसंत-बहार का आनंद लेने लगे । उन्हें इतना आनंद आने लगा कि उसी में खो  गए । मुझे भी उस डिजिटल वसंत बहार में आने का आमंत्रण देते रहे । अब तो खैर मेरी चिंता नहीं उन्हें। उन्हीं की तरह अब उस वसंत-लीला में भारी भीड़ शामिल है। मैं भी कब उस लीला में शामिल हो जाऊँगा,कहना मुश्किल है।
वसंत पंचमी की अपनी याद कुछ दूसरी है। तब वेलेंनटाइन डे नहीं आया था । उस दिन घर की औरतें पुए पकवान बनाती थीं और हम जमकर खाते थे। हमारे लिए वसंत वैसे ही आता था । शाम को पुरुष लोग ढोलक-मजीरे बजाते हुए वसंत का स्वागत करते थे -आए वसंत कंत घर नाहिं  … वसंत के आने और कंत के घर में न होने यानी परदेश में होने का द्वन्द्व-तनाव वसंत आगमन के साथ व्याप जाता था। खैर,अब पुए खाकर प्रेम के पीर के गीत गाने का ज़माना नहीं है।वसंत प्रेम के दमामे बजाता हुआ बागों,पार्कों और गाड़ियों में झूम रहा है और डिजिटल दुनिया को भी झुमा रहा है ।
बचपन में एक कविता पढ़ी थी :पिकी पुकारती रही,पुकारते धरा गगन;मगर कहीं रुके नहीं,वसंत के चपल चरण। जब वसंत के चपल चरण कहीं रुकते नहीं ;तो मैं क्यों उसे अपने जमाने में बाँध लेना चाहता हूँ । मैं क्यों पुए और वसंत-गीतों की पुरानी धुनों की महक में वसंत के आने की राह देख रहा हूँ । जमाने को न उन पकवानों में रूचि है और न उन पुरानी धुनों में जिनमें लोक जीवन धड़कता था । इस ज़माने के पकवान और धुनों को समझने के लिए ही तो हमारे मित्र आभासी दुनिया के आभासी वसंतोत्सव में शामिल हो गए हैं और शामिल होने के लिए मुझे भी ललकार रहे हैं । और मैं हूँ कि बागों के बहार और डिजिटल दुनिया में आये बहार के बीच झूल रहा हूँ !
लेकिन झूलना ठीक नहीं । वसंत के स्वागत का पुराना तरीका हो या नया-मैं यह क्यों भूल रहा हूँ कि वसंतोत्सव से वर्जनाएं तब भी टूटती थी;अब भी टूटती हैं । वसंत आगमन के साथ तब बूढ़े भी जवान हो जाया करते थे -भर फागुन बुढ़उ देवर लागें’, यह कहावत यूँ थोड़े लोकप्रिय थी। नया देवर नहीं;तो पुराना देवर ही सही । भाभी के लिए वसंत  देवर को छेड़ने के रूप में  आता था और देवर भाभियों के बहाने होली गीत गा कर अपनी सारी कुंठाए निकाल लिया करते थे । लोग जोगीरा तब भी गाते थे अब भी गाते हैं। फर्क इतना ही है कि तब जिनको सुनाना होता था,उनके दरवाजे जाकर सुनाते थे और वे दरवाजे खुले भी रहते थें ,अब फेसबुक,व्हाट्स-एप्प के जरिये सुनाते हैं |  इसलिए हे मन ! पुराना ज़माना लौटने से रहा !
नए जमाने के साथ चलो और व्हाट्स-एप्प के जरिए नए जमाने का नया जोगीरा मित्रों को भेज दो ,जो तुम्हें भी आभासी दुनिया से मिला है :
उत्तर पट्टी बिल्ली पाले,दक्खिन पाले मूस ,
देश भक्ति के ठेकेवाले पाल रहे जासूस
जोगीरा सा रा रा रा     

Sunday, 11 June 2017

प्रगतिवाद और मुक्तिबोध

मुक्तिबोध  कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे या नहीं,यह तो नहीं मालूम,लेकिन उनका साहित्य और उन पर लिखे गए अधिकांश साहित्य को पढ़ने से पता चलता है कि मार्क्सवादी दर्शन में उनकी गहरी आस्था थी |वे शोषण युक्त व्यवस्था को समाप्त कर शोषण मुक्त समाज  व्यवस्था कायम करना चाहते थे|वे मानते थे कि यह पूंजीवादी समाज,जो जनता के शोषण पर कायम है,चल नहीं सकता,उसे बदलना ही होगा|बदलाव के लिए क्रांति जरूरी है|उनका विश्वास था कि शोषण की चक्की में पिसता हुआ सामान्य जन जगेगा और एक दिन अवश्य ही जनक्रांति होगी |उनकी प्रसिद्द कविता ‘अँधेरे में’ को जिन्होंने पढ़ा है,वे जानते हैं कि जनक्रांति का स्वप्न कैसे वहाँ सगुण-साकार होता हुआ दिखाई देता है|चूँकि ‘पूंजी से जुड़ा हुआ ह्रदय बदल नहीं सकता’ इसलिए उसे बदलने के लिए ‘जन-क्रांति’ जरूरी है | ‘अँधेरे में’ कविता में मार्शल लॉ का  चित्रण है- वह  ‘किसी जन-क्रांति के दमन के  निमित्त’ है|उस कविता में प्रोसेशन का जो दृश्य है,उसमें कई ‘प्रतिष्ठित पत्रकार’ तो शामिल हैं ही, ‘कई प्रकांड आलोचक,विचारक,जगमगाते कवि गण’ भी हैं |साथ ही उस प्रोसेशन में मंत्री,उद्योगपति,विद्वान भी हैं|यहाँ तक कि ‘शहर का कुख्यात हत्यारा डोमाजी उस्ताद’ भी शामिल है उसमें |मुक्तिबोध मानते हैं कि यह सब ‘जन-क्रांति’ के दमन के लिए लगाए गए मार्शल लॉ को लागू कराने के अभियान में लगे हुए  लोग हैं|उसी कविता में इस तरह के मार्शल लॉ का प्रतिकार करनेवाले ‘सांवले मुख के कुछ बलवान जन हैं’ जो ‘आत्मा के चक्के परसंकल्प शक्ति के लोहे का मजबूत ज्वलंत टायर’ चढ़ा रहे हैं |
मार्क्सवादी दर्शन में आस्था रखने वाले और ‘जनक्रांति’ का स्वप्न देखने वाले मुक्तिबोध की प्रगतिवाद के बारे में क्या धारणा थी,जानना जरुरी है|यह इसलिए जरुरी है कि रामविलास शर्मा मुक्तिबोध पर अस्तित्ववाद का प्रभाव मानते हैं|मुक्तिबोध,डॉ शर्मा के अनुसार,सिजोफ्रेनिक हैं और उनका व्यक्तित्व विभाजित है,वे कभी स्वप्न में जीतें हैं और कभी यथार्थ में|ऐसी स्थिति में यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रगतिवाद और प्रगतिशीलता के सम्बन्ध में मुक्तिबोध का चिंतन कैसा है |वे नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल आदि की तरह प्रगतिवादी कवि नहीं हैं|प्रगतिवाद की जैसी  सरल और भास्वर रेखाएं इन कवियों की कविताओं में दिखती है,वैसी रेखाएं मुक्तिबोध के यहाँ नहीं हैं |वे अंततः नई कविता के कवि-विचारक हैं|वे उस ‘तारसप्तक’ के कवि हैं जो अज्ञेय जैसे ‘प्रगतिवाद’ विरोधी करार दिए गये कवि के संपादन में निकला|वे श्रीकांत वर्मा,अशोक वाजपेयी जैसे युवतर कवियों के सघन संपर्क में थे|श्रीकांत और अशोक प्रगतिवादी साहित्यिक धारणा के प्रभाव में कभी नहीं रहे लेकिन मुक्तिबोध उनके लिए हमेशा महत्त्वपूर्ण बने रहे |मुक्तिबोध ने निराला पर नहीं लिखा|निराला. जो प्रगतिशील खेमे के लिए,रामविलास शर्मा के प्रयत्न से,आधुनिक कविता के शिखर कवि हो गए|आगे चलकर जनवादी खेमे में निराला के बाद और उनके साथ मुक्तिबोध का नाम आग्रहपूर्वक लिया जाने लगा,जबकि  मुक्तिबोध ने प्रसाद पर लिखा और ‘कामायनी’ में उठने वाली समस्याओं से जूझते रहे|निष्कर्ष यह कि मुक्तिबोध की प्रगतिवादी राह वैसी नहीं है जैसी नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल या रामविलास शर्मा की है|कामरेड डांगे के नाम उनका जो पत्र है,उससे भी पता चलता है कि प्रगतिवाद की जैसी समझ हिंदी में विकसित हो रही थी,उससे मुक्तिबोध स्पष्ट मतभेद रखते थे |तब प्रगतिवाद या प्रगतिशीलता की उनकी अपनी समझ या धारणा क्या थी,इसे जानने के लिए सबसे अच्छे आधार उनकी वे टिप्पणियाँ हैं जो उन्होंने प्रगतिवाद के नाम पर लिखीं |
 मुक्तिबोध की प्रगतिवाद से सम्बंधित जो  टिप्पणियाँ और साहित्य-चिंतन से सम्बंधित जो निबंध है,उन्हें देखने से स्पष्ट होता है कि वे अपने अध्ययन-अनुभव को अधिक महत्त्व देते हैं,दूसरों के उद्धरणों के सहारे अपनी प्रगतिवादी समझ की दुनिया वे नहीं नहीं निर्मित करते|इसलिए उनके यहाँ ‘लाल सुबह’,’लाल सितारा’, ‘लाल पताका’ आदि प्रगतिवाद समर्थक प्रतीक नहीं दिखाई पड़ते|मुक्तिबोध मानते हैं कि ‘प्रगतिवाद साहित्य-कला की अत्याधुनिक धारणा है|’यह क्यों ‘अत्याधुनिक धारणा’ है ?इसलिए कि अब तक की कला और साहित्य में ‘सामाजिक तत्व का आभाव’ है |इस सामाजिक तत्व के आभाव के कारण साहित्य और विश्व का विकास ठीक से नहीं हो सका|वे लिखते हैं : ‘मानवता के सब उच्च संस्कृति की ओर किये गये प्रयत्नों में  का मुख्य दोष सामाजिक तत्वों की अपेक्षाकृत उपेक्षा रही है,जिसके कारण विश्व-प्रगति  उतनी नहीं हो सकी जितनी कि होनी चाहिए,कला उतनी नहीं बढ़ सकी जितना कि बढ़ना चाहिए थी,विचार उतने ऊँचे और व्यापक नहीं हो सके जितने कि होने चाहिए थे |प्रगतिवाद उस मुख्य कारण को चीन्ह लेता है और कहता है कि जब तक सामजिक न्याय नहीं होगा तब तक व्यक्ति के चिंतन में हमेशा दोष उत्पन्न होते रहेंगे| (‘प्रगतिवाद :एक दृष्टि’ शीर्षक निबंध,मु. रचनावली,खंड-५ ,पृष्ठ. २८ )
 समाज वर्गों में विभाजित है |वर्गों में विभाजित समाज में जो कला विकसित हुईं वह शासक वर्ग की ‘इच्छाओं और आकांक्षाओं’ का प्रतिबिम्ब हैं|चूँकि वह समाज शोषण के बल पर टिका हुआ है,शोषक और शोषित का फर्क है,दोनों के मध्य जो विभाजक रेखा रही है उसने कलाकारों को दलित वर्ग की ओर देखने नहीं दिया|इसलिए पुरानी कला-रचनाएं मानवतापूर्ण होने के बावजूद सम्पूर्ण मानवजाति की इच्छाओं की प्रतिबिम्ब न बन सकीं|इस कारण कला-साहित्य की दुनिया में व्यक्तिवादी प्रवृतियाँ पैदा हुयीं |अब प्रगतिवाद पुरानी कला-रूचि को मिटाकर उसकी जगह उस कला-रूचि का विकास करना चाहता है,जिसमें सामाजिकता पर जोर अधिक हो,वह युग की आवश्यकताओं को लेकर चलना सीखे|युग की आवश्यकताओं को लेकर चलने का मतलब कला की  उपेक्षा नहीं है |मुक्तिबोध लिखते हैं : ‘प्रगतिवाद कला-मार्ग बनना चाहता है|कला-शरीर की नसों में नया रक्त और नवस्फूर्ति का संसार जनता के अथाह ह्रदय के संपर्क में आने से ही होगा|उससे अछूता रखने पर वह मर जाएगा |अतएव प्रत्येक सृजक कलाकार को जनता से चैतन्यमय सहानुभूति प्राप्त कर तेज प्राप्त करना होगा |कला या ईश्वर प्राप्त करने के लिए मंदिरों या पुरानी श्रद्धेयताओं  की ओरनहीं  जाना होगा,बल्कि उस सैनिक तत्व,उस संग्रामशील धैर्य के अथाह  आंतरिक तेज और संतुलन के पास पहुंचना होगा |उसका ईश्वर सैनिक रूप में आ रहा है |विकराल मूर्तिभंजक के रूप में प्रगट हो रहा है |”(वही पृष्ठ-२९)
 प्रगतिवाद का ईश्वर सैनिक रूप में आ रहा है और वह विकराल मूर्तिभंजक होगा!क्या जबर्दस्त रूपक है !कोई इसका पाठ करते हुए मध्यकाल के मूर्तिभंजक आक्रान्ता सैनिकों तक जा सकता है लेकिन मुक्तिबोध तो प्रगतिवाद के उस स्वप्न की बात कर रहे हैं जो ‘वर्गहीन’ और ‘भेदहीन’ समाज का स्वप्न है |मुक्तिबोध मनुष्य के मनोभावों को उसकी वैयक्तिक निधि मानते हैं |इससे ऊपर उठकर कल्पना के मनुष्य की जगह यथार्थ के मनुष्य,जो अधिक मूर्त है,की वकालत करते हैं|उनके अनुसार –“प्रगतिवाद का मानव कल्पना युग के (ऐब्सट्रैक्शन) पर आधारित नहीं है |वह मनुष्य को अधिक मूर्त रूप में ग्रहण कर रहा है |इसलिए उसमें रोमांस,प्रेम,संघर्ष,कल्पना सभी का महत्त्वपूर्ण स्थान है,क्योंकि प्रगतिवाद मानव के यथार्थ पर टिका हुआ है,इसलिए कला-व्यवस्था में उसका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है |” (वही-पृष्ठ -३०)लेकिन मुक्तिबोध यहीं नहीं रुकते |वे जानते हैं की कार्य-कारण सम्बन्ध पर अधिक जोर देना यथार्थ चित्रण नहीं है|इसलिए वे विकासवाद का समर्थन तो करते हैं,पर उसमें कार्य-कारणवाद की जो यांत्रिकता है,उसका विरोध भी करते हैं |उनके अनुसार प्रगतिवाद ‘जीवन को अधिक मूर्त रूप में ग्रहण’ करने का आग्रही है,इसलिए ‘जीवन की दृष्टि से प्रगतिवाद आज तक की सबसे ऊँची मंजिल है...|”
 मुक्तिबोध साहित्य को राजनीति से अलग स्वायत्त संसार मानने के हिमायती नहीं है|वे मानते हैं की साहित्य को ‘वर्गहीन समाज-सत्ता का पुजारी’ होना चाहिए |इसलिए उनके अनुसार ‘राजनैतिक दृष्टि से प्रगतिवाद प्रसार का हिमायती  है|’प्रसार के द्वारा एक देश के दलित दूसरे देश के दलित के सम्पर्क में आयेंगे और वर्गहीन समाज-सत्ता के निर्माण के लिए क्रांति के वाहक बनेंगे |प्रगतिवाद कलाकारों से अपेक्षा रखता है कि ‘तुम अधिक से अधिक जन-ह्रदय के संपर्क में आओ और क्रांति को आगमनशील बनाओ|”क्रांति को आगमनशील बनाने की जरूरत पर जोर देने के साथ मुक्तिबोध कलाकार से उस द्वंद्व की अपेक्षा रखते हैं जो उसे सरलीकरण से बचाती है और यथार्थ को भीतर-बाहर दोनों ओर से देखने का आधार बनती है|वे कहते हैं : “प्रगतिवादी एक निश्चित दार्शनिक ऐटीट्यूड उत्पन्न करता है ,जो न ‘स्व’ से अधिक ‘बाह्य’को ,और न बाह्य’ से अधिक ‘स्व’ को महत्त्व देता है |वह कहता है कि इन दोनों की परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया से विकास होता है |’(वही)
  बहुत-से कवि अपने मनोभावों को ही अपनी कविता का विषय बनाते हैं,उन कविताओं में ऊपरी तौर पर उस सामाजिकता का अभाव दीखता है जिसकी अपेक्षा प्रायः प्रगतिवादी लोग करते हैं|समाज के बीच स्वाभाविक रूप से विकसित किसी व्यक्ति के मनोभाव को मुक्तिबोध जनविरोधी नहीं मानते |उनके अनुसार ‘जन-मन की सर्व-साधारण मनःस्थिति व्यक्ति की मनोदशाओं द्वारा प्रगट’ होती है |ऐसे ‘मनोभाव तो उत्पीडित वर्गों की साधारण मनःस्थिति के ही द्योतक हैं |” ऐसे मनोभावों से सृजित साहित्य में महान ‘मनुष्य सत्य’ होता है |लेकिन कई प्रगतिशील आलोचक /लेखक मनोभावों के आधार पर लिखे गए साहित्य की आलोचना करते हैं और उसे प्रगतिशील रचना नहीं मानते |ऐसे प्रगतिशीलों की मुक्तिबोध ने कड़ी आलोचना की है और अपनी एक टिप्पणी “प्रगतिशीलता’ और मानव सत्य” में उन्होंने लिखा है कि ये लोग हैं “...जो मात्र क्रांतिकारी शब्दों का शोर खडा करने वालों के हिमायती के रूप में अपने सिद्धांतों की यांत्रिक चौखट तैयार रखते हैं-जो उसमें फिट हो जाए वह प्रगतिशील,और जो उसमें कसा न जा सके वह प्रगति-विरोधी |यह उनका प्रत्यक्ष,परोक्ष,प्रस्तुत और अप्रस्तुत ,मुखर और गोपनीय निर्णय होता है |ये लोग उत्पीडित मध्यवर्ग के जीवन के तत्वों से दूर अलग-अलग होते हैं|भले ही ये लोग शाब्दिक रूप से गरीबों के कितने ही हिमायती क्यों न हो,इनका व्यक्तित्व स्वयं आत्मबद्ध,अहंग्रस्त महत्त्वाकांक्षाओं का शिकार और राग-द्वेष की प्रवृतियों से निपीडित होता है|बोधहीन बौद्धिकता का शिकार,यह वर्ग जिस संवेदनमय कविता की आलोचना करता है,उसकी संवेदनाओं की मूल आधार-भूमि को वह हृदयंगम नहीं कर सकता|”(रचनावली,खंड-५ ,पृष्ठ -७९)ऐसे ‘बोधहीन बौद्धिकों’ के  प्रगतिशील समाज को मुक्तिबोध प्रश्नांकित करते हैं और ‘राजनैतिक शब्दोंवाली परिभाषाओं की कविता’ को कविता मानने की प्रगतिवादी जिद की भर्त्सना करते हैं |ऐसे प्रगतिवादियों को वे ‘अहंवादी’ और ‘आस्थाहीन’ कहते हैं |प्रगतिशील कविता एक तरह की नहीं कई तरह की हो सकती है |प्रगतिशीलता के अनेक आयाम और रूप हैं |इसकी अनदेखी करके सीधी-सरल और सपाट लगनेवाली प्रगतिशील कविताओं को ही ‘प्रगतिवादी’ ढांचे में फिट करने वाले आलोचकों –बौद्धिकों पर प्रहार करते हुए मुक्तिबोध लिखते हैं : ‘...हमारे ये साहित्यिक नेता ह्रदय और बुद्धि के क्षेत्र में कठोर अहंवादी हैं,कष्ट्ग्रस्त मनुष्य जीवन के मर्मग्य होने के पहले वे आलोचक और मसीहा हैं |मनुष्य जीवन के भव्य संवेदना-सत्यों के प्रति उनमें आवश्यक नम्रता भी नहीं है |न इतनी आस्था है कि वे ये माने कि युग-सत्य विभिन्न रूपों और विविध आलोकों में विविध विचारों और भावनाओं में वलयित होकर आज की कष्टग्रस्त मानवता के ह्रदय में अधिष्ठित है |इस आस्थाहीनता के  कारण  ही,उनके द्वारा समर्थित कविता में सम्पूर्ण मनुष्य की गौरवपूर्ण नीतिमत्ता,सर्वांगीण मानवीय पक्षों का भव्य दृश्य,सुकुमार भावनाओं की मनुष्योंचित गरिमा दिखाई नहीं देती,वरन पिटी-पिटायी क्रांतिकारिता का सभामंची आत्म-प्रदर्शन दिखाई देता है|”(वही पृष्ठ -८०)
मुक्तिबोध प्रगतिवाद के समर्थक हैं,लेकिन प्रगतिशीलता की यांत्रिक समझ के विरुद्ध भी हैं|जनता में जन-भावना में,उसकी मुक्ति में, मुक्ति के लिए किये जाने वाले प्रयत्नों में उनकी गहरी आस्था है |लेकिन प्रगतिवादी कवियों-आलोचकों की जो समझ बीसवीं सदी के चौथे-पांचवे दशक में थी,उससे वे प्रायः असहमत हैं|यही कारण है कि वे मानते हैं कि प्रगतिशील कविता का उतना विकास नहीं हो सका,जितना कि होना चाहिए|इसलिए मार्क्सवादी होने के बावजूद वे प्रगतिशील कवि कहलाने की आकांक्षा नहीं रखते|उनका सारा संघर्ष ‘नयी कविता’ को प्रगतिशील चेहरा देने का,साथ ही नयी कविता का कवि कहलाने का है |वे अपने आप को प्रगतिशील कवि नहीं ‘आधुनिकतावादी’ कवि मानते हैं | ‘दिग्विजय कॉलेज” राजनांद गाँव, के प्राचार्य को लेक्चरर  पद के लिए लिखे गये आवेदन में अपने साहित्यिक रुझान का परिचय देते हुए वे लिखते हैं : “मैं हिंदी कविता के वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में प्रभावी आधुनिकातिवादी रुझान का अगुआ रहा हूँ |इस रुझान का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रथम ग्रन्थ ‘तारसप्तक’ में मेरी सोलह कवितायें शामिल हैं |”(छत्तीसगढ़ में मुक्तिबोध’,सं-राजेंद्र मिश्र,पृष्ठ-२९१ ) यहाँ यह स्पष्ट है कि मुक्तिबोध अपने को ‘तारसप्तक’ की परम्परा से जोड़कर देखते हैं |उनकी दृष्टि में ‘१९४३ में प्रकाशित यह ग्रन्थ समग्र हिंदी कविता को पूरी तरह नयी दिशा प्रदान करने में निर्णायक है |’ (वही)
  मार्क्सवादी मुक्तिबोध अपने को ‘आधुनिकतावादी’ कवि क्यों कहते हैं ?हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना में ‘आधुनिकतावाद” को पतनशील साहित्यिक प्रवृति माना गया है और आधुनिकतावाद के लक्षण अज्ञेय और उनके समर्थक कवियों की कविताओं में देखे गए हैं |मुझे लगता है कि मुक्तिबोध इस अर्थ में अपने को आधुनिकतावादी कवी नहीं कहते |आधुनिकतावाद का आशय यहाँ प्रगतिवाद से भिन्न उस नए साहित्यिक रुझान से है जो जटिल यथार्थ को समझने में ज्यादा सक्षम है|उनका सारा संघर्ष इस नए रुझान को प्रतिष्ठित करने है |वे स्वयं मानते हैं : ‘इस नयी साहित्यिक प्रवृति के संरक्षण की जरुरत ने मुझे समालोचना के क्षेत्र में ला खडा किया |’(वही )
    प्रगतिवाद और प्रगतिशीलता से सम्बंधित मुक्तिबोध की टिप्पणियों से स्पष्ट है कि वे पुरानी साहित्यिक रुढियों और चेतना के विरुद्ध हैं ,वे नए साहित्य और समाज के निर्माण का स्वप्न देखते हैं |वे प्रगतिशीलता को एकरेखीय और सरलीकृत अवधारणा मानने के खिलाफ हैं और यथार्थ को जटिल तथा बहुस्तरीय मानते हैं |इसलिए वे बिना नाम लिए उन प्रगतिशील लोगों की आलोचना करते हैं जो प्रगतिशीलता को कुछ राजनीतिक सिद्धांतों तक सीमित कर देना चाहते हैं|इसके लिए वे दोतरफा संघर्ष करते हैं |नयी काव्य प्रवृति- जिसे आगे चलकर नयी कविता कहा गया- को प्रतिष्ठित करने का संघर्ष  तो वे करते ही हैं ; प्रगतिशील  आन्दोलन के भीतर जो यांत्रिक समझ विकसित हो गयी थी,उससे भी कडा संघर्ष करते हैं |इसलिए उनका संघर्ष भीतर-बाहर दोनों स्तरों पर है|उनके संघर्ष का तीसरा धरातल भी है |वह है प्रगतिशीलता के विरोधियों का ‘व्यक्ति-स्वातन्त्र्य’| ‘अंतर्मुखता’ और ‘व्यक्ति स्वातंत्र्य’ की चर्चा एक जमाने में प्रगतिवाद के विरोधी कवी लेखक करते थे |मुक्तिबोध मानते हैं कि ‘कष्टग्रस्त जीवन’ के कारण कवि में ‘अंतर्मुखता’ विकसित होती है |मुक्तिबोध के अनुसार प्रगतिशीलता के विरोधी ‘अंतर्मुखता’ के मूल उद्वेगों के क्रांतिकारी अभिप्रायों को दबाकर ,उस अंतर्मुखता को इस प्रकार से प्रोत्साहन देते हैं कि वह अंतर्मुखता अपने प्रधान विद्रोहों से छूटकर अलग हट जाए |अंतर्मुखता में ‘व्यक्ति’ को ही प्रधान मानकर उस व्यक्ति को सामाजिक परिवर्तन के आग्रही शक्तियों से अलग हटाते हुए,वे ‘व्यक्ति स्वातंत्र्य’ की घोषणा करते हैं |”(रचनावली ,खंड-५ ,पृष्ठ-८० )

   प्रश्न है कि मार्क्सवाद और प्रगतिवाद को व्यापक-जनपक्षधर विचार-प्रवृति मानने वाले मुक्तिबोध प्रगतिशील कविता को नए यथार्थ के चित्रण के लिए क्यों अपर्याप्त मानते हैं ?और नयी कविता इस दायित्व के निर्वहन के लिए ज्यादा उपयुक्त क्यों?नागर्जुन,केदारनाथ अग्रवाल की कविता में क्या वह द्वंद्व और तनाव नहीं है जिसे मुक्तिबोध नए यथार्थ चित्रण के लिए जरुरी मानते हैं?प्रगतिशीलता सम्बन्धी मुक्तिबोध की और नागर्जुन-केदार की धारणाओं में जो फर्क है,वह वस्तुतः गाँव और किसान-मजदूर के नजरिये से समाज को देखने के आग्रह का परिणाम है|मुक्तिबोध के यहाँ प्रगतिशीलता का जो आग्रह है वह मार्क्सवाद के प्रभाव से निर्मित्त शिक्षित शहरी मध्यवर्गीय व्यक्ति का है|भारत जैसे विशाल देश में जीवन और जीवन-यथार्थ का जो वैविध्य  है,उसे कई  स्तरों पर देखे जाने की जरुरत क्या नहीं है? मुक्तिबोध जिस शिक्षित मध्यमवर्ग से आते हैं,उस नजरिये से प्रगतिवाद और प्रगतिशील आन्दोलन का किया गया उनका मूल्याङ्कन क्या निर्विवाद है ?जिस ‘तारसप्तक’ को वे ‘समग्र हिंदी कविता को पूरी तरह नयी दिशा प्रदान करने वाला निर्याणक’ ग्रन्थ मानते हैं,उसी  ‘तारसप्तक’ के कवि अज्ञेय उन्हें ‘आत्मान्वेषण’ का कवि घोषित करते हुए जो कहते हैं ,वह मुक्तिबोध के कवि-मन  और उनके समाज बोध का परिचय देता है : “मुक्तिबोध आत्मान्वेषण के कवि थे,पर यह एक आत्मान्वेषण ,अपनी किसी विशिष्टता की खोज नहीं थी,यह अपने उस रूप की खोज थी जो कवि को पूरे समाज से,मानव मात्र से, मिला दे|कोई सोच सकता है कि कवि को आत्मान्वेषी कहना उसकी अवमानना करना है ,पर मैं इसे कठिनतर यात्रा समझता हूँ ,और कवि मुक्तिबोध का विशेष सम्मान इसलिए करता हूँ कि वह आजीवन इस कृच्छ साधना में लगे रहे,अपने भीतर पैठना पर पैठ कर उसे बाहर लाना जो अपना नहीं,सबका है|यह किसी के लिए भी कठिन कार्य है,मुक्तिबोध की परस्थितियों में और भी कठिन था,पर वह निष्ठापूर्वक उसमें लगे रहे|”(आत्मान्वेषण का कवि ,तिमिर में झरता समय ,सं-राजेंद्र मिश्र ,पृष्ठ -९ )

Sunday, 15 January 2017

मेले में गोपेश्वर

पुस्तक मेले को पुस्तकों का कुंभ कहा जाता है। लेकिन इससे मेरी विनम्र असहमति है। कम से कम हिंदी के मामले में यह एक भयानक बाढ़ है जिसका दुर्गंधमय पानी वितृष्णा पैदा करता है। हिंदी का हर पुस्तक मेला पिछले की तुलना में ज्यादा घटिया होता जा रहा है। अगर दस नई पुस्तकें आती हैं, तो उनमें से नौ कूड़ा होती हैं, जो इसलिए छपती हैं क्योंकि प्रत्येक  प्रकाशक को बेचने के लिए लगातार कुछ चाहिए। साहित्य का उत्पादन कम हो रहा है और वितरण तथा विक्रय ज्यादा। माँग और पूर्ति के सरल सिद्धांत के अनुसार हर ऐरे-गैरे लेखक को अपनी किताब छपवाने का अवसर मिल जा रहा है – रॉयल्टी भले ही किसी एक या दो को मिले। यह हिंदी में पुस्तक के अवमूल्यन का समय है।

        इस निराशाजनक माहौल में हाथ में एक भी अच्छी किताब पड़ जाए, तो मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूँ। मैं बिना किसी हिचक के कह सकता हूँ कि प्रो. गोपेश्वर सिंह की ताजा कृति ‘भक्ति आंदोलन और काव्य’ एक ऐसी ही गंभीर, नवोन्मेषी और विचारोत्तेतक किताब है। व्यक्तिगत रूप से मुझे भक्ति काल और उसके साहित्य से चिढ़ है। यह चिढ़ बुनियादी रूप से धर्म और अध्यात्म से चिढ़ है और तब और बढ़ जाती है जब धर्मविहीन अध्यात्म की बात की जाती है। धर्म सीधा-सादा है, अध्यात्म में पाखंड की गुंजाइश रहती  है। मुझे यह देख कर बहुत खुशी हुई कि इस पुस्तक के अनेक निबंधों में इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना आदि को बकवास बता कर इनकी भर्त्सना की गई है। कबीर में इन नाड़ियों का, जिनके होने के बारे में आधुनिक ज्ञान कोई सूचना नहीं देता, जिक्र सब से ज्यादा है – इसके बावजूद भक्त कवियों में कबीर ही सब से ज्यादा तार्किक और विवेकवादी हैं। गोपेश्वर सिंह की खूबी यह है कि वे पूरब की ओर देखते हुए पश्चिम या उत्तर-दक्षिण की अनदेखी नहीं करते।

        मानव स्वभाव शायद हमेशा इतना चौकस रहने का नहीं है। इसीलिए हिंदी के साहित्य आलोचकों में सहज ही दो संप्रदाय विकसित हो गए है – एक कबीर पंथियों का और दूसरा तुलसी पंथियों का। शुरुआत रामचंद्र शुक्ल ने की थी – उनका भावुक मन तुलसी और खासकर मानस  में रमा हुआ था। कबीर को कवि मानने में भी उन्हें दिक्कत थी। शुक्ल जी के जमाने में कविता जिस तरह परिभाषित थी, उस कसौटी पर कबीर को महान कवि मान पाना आज भी कठिन है। कबीर के मर्म को पहली बार हजारी प्रसाद द्विवेदी ने खोला, जिसके आधार पर ‘दूसरी परंपरा की खोज’ शुरू हुई। उसके कुछ वर्ष बाद कबीर हिंदी के सब से बड़े कवि हो गए। आज लगता है कि कबीर और मुक्तिबोध को छोड़ कर हिंदी में कोई और कवि हुआ ही नहीं।

        गोपेश्वर सिंह इस अतिवाद के सख्त खिलाफ हैं और यही उनकी ताकत है। वे कबीर के प्रतिक्रियावादी तत्वों को हमारे सामने रखते हैं और तुलसी तथा सूर के प्रगतिशील तत्वों को रेखांकित करते हैं। इसलिए नहीं कि उन्हें अपना एक तीसरा पंथ खड़ा करना है, बल्कि इसलिए कि पहले के दोनों पंथों की प्रामाणिकता को खंडित किए बिना सत्य को प्रगट ही नहीं किया जा सकता। मेरा खयाल है, वामपंथ ने हिंदी आलोचना के क्षेत्र में सब से ज्यादा खोटे लेबेल पैदा किए हैं। प्रगतिशीलता के नाम पर जिनकी दुकानें उठा देने की कोशिश की गईं, उनमें तुलसी और रामचंद्र शुक्ल सब से ऊपर हैं। दिलचस्प है कि भक्ति आंदोलन और उसके साहित्य पर सब से उच्छृंखल नुक्ताचीनी मुक्तिबोध ने की है और गोपेश्वर सिंह ने बहुत ही तार्किक ढंग से और सप्रमाण उसका निराकरण किया है। रामचंद्र शुक्ल वास्तव में ब्राह्मणवादी थे या ब्राह्मणवाद के विरोधी, यह जानने के लिए उनके विचारों के कई अज्ञात टुकड़े गोपेश्वर जी ने खोज निकाले हैं। यद्यपि बुद्धि से ब्राह्मणवाद-विरोधी होते हुए भावना से कोई ब्राह्मणवादी हो सकता है, जैसे कबीर के अकथ प्रेम, गहरी सामाजिकता और तर्कदृष्टि की वाह-वाह करने वाले अनेक लेखक महानुभाव परस्पर घृणा, तिकड़म और लोभ के कुंड में डूबे नजर आते हैं।

        रामविलास शर्मा को अपने देश से अगाध प्रेम था और उसकी सांस्कृतिक विरासत को वे झटकना नहीं, समझना चाहते थे, ताकि आज के भारत के लिए रास्ता निकाला जा सके। इसीलिए तुलसी पर रीझते हुए भी वे कबीर की महत्ता के कायल थे। यह समन्वयवाद नहीं, सार्वभौमिकता थी, जिसकी व्याप्ति उन विचारधाराओं में नहीं है जो साहित्य से जीवन  प्राप्त करने की जगह समाज में कलह पैदा करना चाहती हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी का मिजाज थोड़ा रोमांटिक था, उनका मन कालिदास और बाणभट्ट में ज्यादा रमता था। इसीलिए वे तुलसी की अनुशासित कविता के सौंदर्य का आस्वाद नहीं ले सके। नामवर सिंह में एक विद्रोहीनुमा व्यक्ति  की अदाएँ हैं।  इन अदाओं के लिए कबीर ज्यादा मुआफिक पड़ते हैं। लेकिन मैं ऐसे लाखों रसिकों की कल्पना कर सकता हूँ जो अपने-अपने कारणों से कबीर, सूर, तुलसी  और मीरा चारों का आनंद ले सकते हैं और इसमें उन्हें कोई अंतर्विरोध दिखाई नहीं पड़ता।


        मेरा खयाल है, गोपेश्वर सिंह कुछ इसी तरह के आलोचक हैं। साहित्य का रस लेते हुए उनकी आँखें हमेशा खुली रहती हैं। इसीलिए वे गुलाब से लिपटे काँटों और कमल का जिसमें वास होता है, उस गँदले पानी की ओर से आँख मींच नहीं लेते। समन्वय उनके स्वभाव में है – लेकिन ऐसा समन्वय नहीं कि बाभन बाभन रहे और कायस्थ कायस्थ और दोनों मिल कर जाति प्रथा का विरोध करते रहें, बल्कि ऐसा समन्वय जिसमें गुड़ और चीनी दोनों का अलग-अलग स्वाद लिया जा सके और गुड़ से चीनी होने की और चीनी से गुड़ होने की माँग न की जाए। इसीलिए गोपेश्वर जी तुलसी और कबीर, किसी से भी पूरी तरह संतुष्ट नहीं  हैं, लेकिन हर एक में इतना पाते हैं कि उस पर मुग्ध हुआ जा सके। साहित्य के प्रति यह सकारात्मक दृष्टि ही वह नागरिक पैदा कर सकती है जो अपनी संपूर्ण सांस्कृतिक विरासत को समग्रता में समझ पाएगा। मुझे अतिरिक्त खुशी है कि इस कोशिश में राममनोहर लोहिया को बार-बार याद किया गया है जो भारत के महान प्रेमी और मर्मज्ञ थे।​

राजकिशोर ------------------

Sunday, 25 December 2016

2016 की हिंदी आलोचना




समकालीन हिंदी आलोचना को लेकर रचनाकारों की शिकायत आम बात है |अक्सर सुनने को मिलता है कि हिंदी में आलोचना की दशा ठीक नहीं है |इंदिरा गांधी कला केंद्र की एक गोष्ठी में केन्द्रिय मंत्रियों के साथ आलोचक नामवर सिंह के मंच साझा करने पर तो विवाद हुआ ,लेकिन उन्हीं के संपादन में ‘रामचंद्र शुक्ल रचनावली’ और उसमें लिखी उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका की चर्चा न के बराबर हुई |हजारी प्रसाद द्विवेदी के समर्थक और शुक्ल विरोधी के रूप में नामवर सिंह को देखने की आदत जो हिंदी आलोचना में विकसित होती गई है,यह रचनावली उसका प्रत्याख्यान है |
 ‘नामवर के नोट्स’ (सं.-शैलेश कुमार,नीलम सिंह) इस वर्ष की एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है| इसमें कक्षाओं में दिए गए नामवर सिंह के व्याख्यान हैं| भारतीय काव्यशास्त्र को आधुनिक दृष्टि से देखने वाली  यह अत्यंत जरुरी पुस्तक है|मैनेजर पाण्डेय की पुस्तक ‘मुग़ल बादशाहों की हिंदी कविता’ न सिर्फ हिंदी साहित्य बल्कि भारतीय समाज और राजनीति को नई दृष्टि देने वाली आलोचनात्मक पहल के रूप में इस वर्ष की उपलब्धि मानी जायेगी|वरिष्ठ आलोचक राजेन्द्र कुमार की  –‘कविता का समय-असमय’ तथा ‘कथार्थ और यथार्थ’ समकालीन हिंदी आलोचना को समृद्धि और विस्तार देने वाली किताबें हैं | अवधेश कुमार सिंह की पुस्तक ‘समकालीन आलोचना विमर्श’ गंभीर आलोचनात्मक पहल का श्रेष्ठ उदहारण है|  वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी की ‘कहानी के साथ-साथ’ हिंदी कहानी की आलोचना का विकास करने वाली पुस्तक है | रोहिणी अग्रवाल की ‘हिंदी उपन्यास : समय से संवाद’, कथा आलोचना की महत्वपूर्ण पुस्तक भी  इस वर्ष के खाते में दर्ज है | इस वर्ष आलोचना के महत्वपूर्ण प्रकाशनों में वरिष्ठों की सक्रिय उपस्थिति आश्वस्ति कारक है | अशोक वाजपेयी की पुस्तक ‘कविता के तीन दरवाजे’ और नन्दकिशोर नवल की पुस्तक ‘कवि अज्ञेय’ तथा ‘नागार्जुन और उनकी कविता’ आलोचना के भिन्न मिजाज और आधार का पता देती हैं | रेवती रमण की इस वर्ष प्रकशित नई पुस्तक ‘परंपरा का पुनरीक्षण’ अपने गंभीर विवेचन-विश्लेषण के कारण हमारा ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट करती है | सुधीर रंजन सिंह की पुस्तक ‘कविता के  प्रस्थान’ भी यहाँ सहज स्मरणीय है | 
इस वर्ष दो वरिष्ठ आलोचक विजय बहादुर सिंह और मैनेजर पाण्डेय उम्र का पचहत्तरवां पड़ाव पार कर गए | भोपाल में वहां के साहित्यिक समाज द्वारा विजय बहादुर के आलोचनात्मक अवदान पर  ‘आलोचना का देशज विवेक’ (सं. – आनंद कुमार सिंह और महेंद्र गगन ) शीर्षक  पुस्तक  जारी हुई | पाण्डेय जी की आलोचना से सम्बंधित दो पुस्तकें ‘दूसरी परंपरा का शुक्ल पक्ष’ ( कमलेश वर्मा) तथा ‘आलोचना और समाज’ (संपादक- रविकांत)  हिंदी समाज की सक्रियता के रूप में याद की जाने वाली पहल है | बहुजन साहित्य की अवधारणा को लेकर पिछले कुछ वर्षों से सक्रियता बढ़ी है | ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’ (संपादक- प्रमोद रंजन : आयवन कोस्का) तथा ‘हिंदी साहित्येतिहास का बहुजन पक्ष’ (संपादक- प्रमोद रंजन) पुस्तकों के जरिए बहुजन साहित्य के सैद्धांतिकी को ठोस रूप देने की कोशिश भी इस वर्ष के आलोचना खाते में दर्ज  है |  ‘बांग्ला दलित साहित्य : सम्यक अनुशीलन’ (संपादक- बजरंग बिहारी तिवारी) पुस्तक भी इसी  वर्ष आई जो हिंदी दलित साहित्य सम्बन्धी चिंतन को विस्तार देने वाली है | ‘बहुजन वैचारिकी’ (संपादक- धर्मवीर यादव ‘गगन’) का तुलसीराम विशेषांक दलित साहित्य की सैद्धांतिकी को मजबूत आधार देने वाला सार्थक आलोचनात्मक प्रयास कहा जायेगा | सार्थक रचनाशीलता के मूल्यांकन के लिए आलोचना पुस्तकें जहाँ नई दृष्टि और सोच का आधार बनती है वहीं रचनाकारों पर केन्द्रित पत्रिकाओं के विशेषांकों और शताब्दी वर्ष में होने वाली संगोष्ठियों के जरिए भी आलोचना का माहौल और आधार तैयार होता है | इस दृष्टि से देखें तो इस वर्ष जानकीवल्लभ शास्त्री, नलिन विलोचन शर्मा, अमृतलाल नागर, मुक्तिबोध और त्रिलोचन पर मुजफ्फरपुर, पटना, लखनऊ, बनारस, दिल्ली आदि शहरों में जो गभीर और बहस-तलब गोष्ठियाँ हुईं वे हिंदी में जीवंत आलोचनात्मक माहौल का उदाहरण है | ‘साखी’ (संपादक- सदानंद शाही), ‘सामयिक सरस्वती’ (अतिथि संपादक- दिनेश कुमार) और ‘आलोचना’ (संपादक- अपूर्वानंद) के मुक्तिबोध पर केन्द्रित अंक मुक्तिबोध सम्बन्धी आलोचना में बहुत कुछ जोड़ते हैं | ‘उत्तरप्रदेश’ (संपादक- कुमकुम शर्मा) पत्रिका का अमृतलाल नागर विशेषांक तथा ‘समकालीन भारतीय साहिय’ (संपादक- रणजीत साहा) के नगेन्द्र और भीष्म साहनी पर केन्द्रित अंकों के जरिए भी आलोचना की बदलती भंगिमा का पता चलता है | ‘बहुवचन’ (अतिथि संपादक- कृष्ण कुमार सिंह) का  नामवर सिंह पर केन्द्रित अंक चर्चित रहा | वह चर्चा नए ढंग से नामवर के मूल्यांकन का परिणाम थी | इस वर्ष के अन्य उल्लेखनीय आलोचना पुस्तकों में ‘कविता का संघर्ष’ (कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह ),’नई सदी की कविता’ (गणेश पाण्डेय),’शताब्दी का प्रतिपक्ष’ (वैभव सिंह),आदि सहज ही स्मरणीय है |
सीमित स्थान और समय में स्मृति के आधार पर की गई यह टिप्पणी 2016 में हिंदी आलोचना साहित्य का विहगावलोकन भर है, जिसमे कुछ छूट जाने की भी संभावना है | बावजूद इसके यह कहने की जरूरत है कि हिंदी आलोचना सक्रिय है और नया आकार ग्रहण कर चुकी है | वह व्यंग्य, विडम्बना, तनाव, यथार्थवाद आदि आलोचनात्मक प्रतिमानों से आगे बढ़ते हुए अपने समय-समाज के यथार्थ को देखने की नई दृष्टि से अपने को युक्त कर चुकी है | जो लोग हिंदी में आलोचना के अभाव का रोना रोते हैं वे आलोचना को समकालीनता तक या अपने तक सीमित कर देना चाहते हैं | आलोचना समकालीन रचनाशीलता का मूल्यांकन तो करती ही है, उसके साथ वह पुराने साहित्य का मूल्यांकन और पुनर्मूल्यांकन भी करती है और साहित्य की नई समझ पैदा करती है | इस दृष्टि से 2016 की आलोचनात्मक सक्रियताएं – जो पुराने अधवयस और नए आलोचकों के कारण संभव हो पाई है – हिंदी आलोचना के विकास की गवाही देती प्रतीत होती हैं |


Wednesday, 5 October 2016

भीष्म साहनी : सादगी के सौन्दर्य का कहानीकार

भीष्म साहनी की कहानियों में चमक नहीं है  !
क्या यह कथन किसी कथाकार की छवि और विशिष्टता में बाधक  बनता है ?
प्रेमचंद,जैनेन्द्र,यशपाल आदि की कहानियों के पाठक को निर्मल वर्मा,मोहन राकेश,कमलेश्वर,कृष्णा सोबती आदि की कहानियों के  भाषागत,शिल्पगत और विषयगत जिस नएपन ने  चौंकाया था और एकबारगी कहानी की नई जमीन पर ला खड़ा किया था,उसकी कुछ कमी-सी भीष्म साहनी की कहानियों में लगती रही |
 लेकिन  इससे  उनकी लोकप्रियता प्रभावित नहीं हुई | नहीं हुई  तो  क्यों ?
 भीष्म साहनी की कहानियों पर सोचते हुए सबसे पहले ये बातें ध्यान में आईं | तभी उनकी समकालीन और महत्त्वपूर्ण कथाकार कृष्णा सोबती के एक लेख की याद आई|भीष्म जी पर  लिखते हुए उन्होंने कुछ ऐसा ही लिखा है,हालाँकि उन्होंने अपने कथन को दोस्तों के हवाले से कहा है :’’कुछ दोस्तों को भीष्म के साफ-सुथरे शिल्प और शैली में उस अतिरिक्त की कमी खटकती है जो खुद ही रचना को चमकाती-दमकाती है|’’
इस ‘अतिरिक्त की कमी’  उनके कथा-साहित्य में तो देखी ही गई,उनके जीवन में भी देखी गई|अपने उसी लेख में कृष्णा जी ने लिखा है :’’ भीष्म के रहन-सहन और सलीके में भी आप अंदाज देख सकते हैं|लेखक के व्यक्तित्व को रूमानी बनाने वाले चोंचले और किसी हद तक जरूरी साज-सामान भीष्म के यहाँ गैरहाजिर हैं|” उन्होंने आगे लिखा है : “
 मिसाल के तौर पर भीष्म की साफ़-सुथरी गृहस्थी में दूर-दूर तक भीष्म की किसी असली या काल्पनिक महबूबा का नाम हवा में नहीं लहराया|दरअसल भीष्म की बीवी ही इस सांझे आसन पर विराजमान है|दोस्तों का कहना है कि भीष्म को ‘एक में तीन ‘ जैसी बेनयाज बीवी मिली हुई है | बीवी,प्रेमिका और पाठिका-थ्री इन वन |”
    स्वाभाविक है कि जब न रचना में कुछ अतिरिक्त-सा चमक-दमक लाने वाला गुण हो और न  ‘रूमानी बनाने वाले चोंचले’  हों तो नयी कहानी के धमाकेदार जलसे में शामिल होकर भी वे  देर से आये पिछली पंक्ति के मेहमान मान लिए जाएँ |नयी कहानी दौर में भले ऐसा समझ लिया गया हो या समझाया गया हो,लेकिन ऐसा है नहीं|कृष्णा सोबती ने इस ‘अतिरिक्त की कमी’ के बावजूद उन्हें विशिष्ट कथाकार माना है |
      भीष्म साहनी नई कहानी के समय और उसके बाद भी सबसे अधिक पढे गए कहानीकार हैं| उनकी कहानियाँ शहर से लेकर गाँव तक और शिक्षित समाज से लेकर सामान्य कथा प्रेमियों के  बीच समान रूप से पसंद की गयीं-पढ़ी गयीं |उनके पास नई कहानी वालों  की तरह न तो भाषागत और न शिल्पगत सचेत रूप से  पैदा की गई चमक थी  और न व्यक्तित्व को  बनाने  और चमकाने वाले अपने इर्द- गिर्द मडराते कुछ सच -कुछ झूठ रोमानी  किस्सें थे जो नयी कहानी वालों ने अपने लिए चला रखें  थे| किस्सा कोताह यह कि बिना किसी अतिरिक्त चमक के  भीष्म सहनी ने नई कहानी और उसके बाद के दौर में वह मुकाम हासिल किया जो हिंदी कहानी में क्लासिकल मिजाज का दर्जा है,जो प्रेमचंद को बड़े पैमाने पर हासिल है|लिखने को उन्होंने उपन्यास भी लिखा, ‘तमस’ को पुरस्कार भी मिला और अपार लोकप्रियता भी मिली,पर मुझे लगता है कि उनकी बड़ी  देन कहानी के क्षेत्र में है| वे धीरे-धीरे स्थायी प्रभाव पैदा करने वाले कहानीकार बने |
 भीष्म सहनी और फणीश्वर नाथ रेणु वय में बड़े थे ,लेकिन कहानी-लेखन का उनका सिलसिला शुरू हुआ नई कहानीकारों के साथ|साथ का मतलब कदम ताल करते हुए- से नहीं,सामानांतर चलते हुए से है|एक की कथा भूमि गाँव है और दूसरे की शहरी मध्यवर्गीय-निम्न मध्यवर्गीय जीवन ,लेकिन दोनों में एक चीज समान है वह है कहानी को किस्सा बनाने की कला|’मैला आँचल’ के प्रकाश का तेज इतना प्रखर था कि रेणु का कहानीकार पक्ष उसके सामने दब-सा गया,साथ ही नई कहानी के शोर-शराबे से वे असम्पृक्त भी रहे|वे जब कहानी लेखन के क्षेत्र में आये तो वय में उनसे छोटे निर्मल वर्मा ,शिवप्रसाद सिंह ,अमर कान्त ,मार्कंडेय,शेखर जोशी आदि के साथ मोहन राकेश,कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव हिंदी कहानी में अपनी सक्रीय, साथ ही रचनात्मक उपस्थिति दर्ज करा चुके थे |उनके पास न निर्मल जैसी चमकदार भाषा थी,न शिल्प,न अन्यों की तरह यथार्थ को फैंटेसी बनाने का हुनर था और न लोक कथा के समान्तर नयी जीवन-स्थितियों  की कहानी बुनने की  कला|उनके पास प्रेमचंद और यशपाल जैसी सादगी से भरी भाषा थी और था  कहानी कहने का वही सादा ढंग|लेकिन इन सबके  ऊपर जो चीज उनके पास थी,वह था विशाल जीवन-अनुभव जो अनेक तरह के विस्थापनों और जीवन-स्थितियों से बना था|कहानीकार भीष्म साहनी की संवेदना का जो विस्तार है,उसकी तुलना में दूसरा नाम खोजना कठिन –सा  है|यही कारण है कि जो कहानीकार ‘चीफ की दावत’ और ‘समाधि भाई राम सिंह’ जैसी कहानी लिख सकता है,जो कहानीकार ‘अमृतसर आ गया है’ और ‘पाली’ जैसी कहानी लिख सकता है,वही ‘वांगचू’ भी लिख सकता है|इनसे एक कहानीकार के विस्तृत जीवन-बोध और वर्गों,सम्प्रदायों और देश-देशांतर की सीमाओं का अतिक्रमण करती उस कथा-संवेदना का पता चलता है जो हिंदी कहानी के क्षितिज का चुपचाप विस्तार करती है|
    कवि अरुण कमल ने भीष्म साहनी के सन्दर्भ में ‘धोखा देने वाली सादगी’ की चर्चा की है |इसका अर्थ यह है  कि भीष्म जी में जो सादगी है, वह अंधे के हाथ बटेर लगने की तरह नहीं है| अरुण कमल के ही शब्दों में वह  ‘ भाषा के गहन संस्कार का फल है’|अपनी कहानी कला के लिए उन्होंने उस सादगी को सचेत रूप से अपनाया है|सादगी में भी सौन्दर्य होता है ,इसका सुन्दर उदाहरण भीष्म जी की कहानियाँ हैं| कोई नायाब प्लाट  खोज लेने की महत्त्वाकांक्षा और उसे नए शिल्प में प्रस्तुत करने के कथा-कौशल के लिए हलकान होने वाले कहानीकार नहीं है भीष्म सहनी|उनको पढ़ते हुए नई कहानी  के किसी कहानीकार को पढने का भाव मन में नहीं आता|आधुनिकता बोध को नई कहानी के कुछ लेखक  जीवन-मूल्य की तरह प्रचारित करते थे|भीष्म जी आधुनिकता-बोध की उस अवधारणा से सहमत नहीं थे|उन्होंने ‘मेरी प्रिय कहानियाँ’ की भूमिका में इस पर लिखा भी है|वे लिखते हैं :’’आधुनिकता-बोध की जिस कसौटी पर कहानी को परखा जाने लगा है उससे मैं सहमत नहीं हूँ|जहां कहानी जीवन का साक्षात्कार कराती है,उसके भीतर पाए जाने वाले अंतर्विरोधों से साक्षत्कार कराती है,वहाँ वह अपने आप ही समय और युग का बोध भी कराती है |पर आधुनिक –‘भाव बोध’ को साहित्य का विशिष्ट गुण मान लिया जाए तो हम दिग्भ्रमित ही होंगे |यदि कहानी में अवसाद है,मूल्यहीनता का भाव है,अनास्था है तो वह आधुनिक,और ...चूँकि आधुनिक है,इसलिए उत्कृष्ट है,इस प्रकार का तर्क मुझे प्रभावित नहीं करता|अपना भाग्य ढोते हुए इंसान का चित्र आधुनिक है,पर अपने भाग्य से जूझते हुए इंसान का चित्र असंगत है,अनास्था आधुनिक है,आस्था असंगत है,मृत्युबोध आधुनिक है और जीवन-बोध असंगत और निरर्थक है,इस प्रकार के तर्क के आधार पर साहित्य को परखना और उसके गुण-दोष  निकालना जिंदगी को भी और साहित्य को भी  टेढ़े शीशे में देखने की कोशिश है|’’
          कहानी को लेकर भीष्म साहनी की यह जो दृष्टि है,वह उन्हें अपने दौर के कहानीकारों से भिन्न और विशिष्ट बनाती है|यह भिन्नता और विशिष्टता ही उन्हें अपने दौर में अलग जगह भी दिलाती है,लेकिन ठीक से और सही जगह न रखे जाने का आधार भी बनती है|इसलिए यह अकारण नहीं है कि नई कहानी सम्बन्धी उस समय की चर्चा में भीष्म साहनी कहीं नहीं हैं या कम हैं | ऐसी दुर्घटना रेणु के साथ भी घटती है|
       सांप्रदायिक मानस की अचूक पहचान के लिए भीष्म जी की कहानियाँ हमेशा याद की जाती हैं और की जानी चाहिए|विभाजन  को लेकर हिंदी-उर्दू में दर्जनों कहानियाँ हैं|सबकी अपनी विशिष्टता है|लेकिन ‘अमृतसर आ गया है’ में साम्प्रदायिकता का बहुसंख्यक आबादी से क्या सम्बन्ध है,इसका जैसा सूक्ष्म रेखांकन इस कहानी में है वैसा अन्यत्र कम है|यह कहानी बोलती कम है पर प्रभाव ज्यादा पैदा करती है|अपनी जमात का संख्याबल किस तरह एक कायर-कमजोर को भी क्रूर चेहरे में बदल देता है,इसकी जबरदस्त पहचान यह कहानी करती है|’अमृतसर आ गया है’ भीष्म जी की और हिंदी की लोकप्रिय कहानियों में से एक है |इसकी चर्चा भी खूब हुई है|लेकिन सांप्रदायिक मानस की उनकी दूसरी  कहानी ‘पाली’ पर इस दृष्टि से कम ध्यान दिया जाता है|’अमृतसर आ गया है ‘ में जो कुछ है उसका प्रत्यक्ष चित्रण है,पर ‘पाली’ में  परस्पर विरोधी साम्प्रदायिक मानसिकता के कारण एक बच्चे  की मन:स्थिति का बड़ा जो  सूक्ष्म और मार्मिक अंकन है, वह देखने लायक है |
   किसी पाठक को कोई कहानी क्यों अच्छी लगती है?इस ‘क्यों’ के अनेक कारण हो सकते हैं|लेकिन जो मुख्य कारण है वह पाठक के भरोसे को कहानी द्वारा जीत लिया जाना ही है |पाठक कहानी पर भरोसा तभी करता है जब उसमें सच्चाई का प्रमाणिक आधार मिलता है |यह प्रमाणिकता के कारण ही कोई कहानी  पाठक का भरोसा अर्जित करती है|भीष्म जी की कहानी-कला की सबसे बड़ी खूबी इस प्रमाणिकता की खोज है जो उनकी प्राय: हर  कहानी में मौजूद है|उन्होंने लिखा भी है : ‘’ कहानी का सबसे बड़ा गुण मेरी नजर में उसकी प्रमाणिकता ही है,उसके अन्दर छिपी सच्चाई जो हमें जिंदगी के किसी पहलू की सही पहचान कराती है|और यह प्रमाणिकता उसमें तभी आती है जब वह जीवन के अंतर्द्वंद्वो से जुडती है|तभी वह जीवन के यथार्थ को पकड़ पाती है|कहानी का रूप-सौष्ठव,उसकी संरचना,उसके सभी शैलीगत गुण,इस एक गुण के बिना निरर्थक हो जाते हैं|कहानी जिंदगी पर सही बैठे,यही सबसे बड़ी मांग हम कहानी से करते हैं|इसी कारण हम किसी प्रकार के बनावटीपन को स्वीकार नहीं करते- भले ही वह शब्दाडंबर के रूप में सामने आये,अथवा ऐसे निष्कर्षों के रूप में जो लेखक की मान्यताओं का तो संकेत करते हैं,पर जो कहानी में खपकर उसका स्वाभाविक अंग बनकर सामने नहीं आते|प्रमाणिकता कहानी का मूल गुण है|कहानी में यह गुण मौजूद है तो कहानी कला के अन्य गुण उसे अत्यधिक प्रभावशाली और कलात्मक बना पाएँगे|प्रमाणिकता कहानी की पहली शर्त है ” ( ‘मेरी प्रिय कहानियों की भूमिका से’)|भीष्म जी के इस कथन के आलोक में उनकी कहानियों का अध्ययन करें तो हम पाएंगे कि यही चीज उनकी कहानियों में सर्वोपरि है |यह गुण उनकी सभी कहानियों में है –वह चाहे बहुप्रशंसित कहानी हो या कम चर्चित कहानी |यही कारण है कि उनकी कहानियां किसी वैचारिक सूत्र का कभी उदाहरण नहीं बनतीं ,हालांकि वे मार्क्सवादी थे और उस विचारधारा में उनका अटूट विश्वास भी था|एक कम्युनिस्ट होने के बावजूद भीष्म जी की कहानियों में विचारधारा का आग्रह या दबाव नहीं दिखाई देता तो इसका कारण उनकी कहानी सम्बन्धी धारणा में है|’दस प्रतिनिधि कहानियां’ की भूमिका में उन्होंने लिखा है : ‘’.......प्रत्येक लेखक अंततः अपने संवेदन,अपनी दृष्टि,जीवन की अपनी समझ के अनुसार लिखता है|हाँ,इतना जरूर कहूँगा कि मात्र विचारों के बल पर लिखी रचना,जिसके पीछे जीवन का प्रमाणिक अनुभव न हो,अक्सर अधकचरी रह जाती है|” कृष्णा सोबती ने भी उनके राजनितिक विचार और कहानी रचना के संबंधों की पड़ताल की है और पाया है कि कहानी  की कीमत पर उन्होंने राजनीति को कभी भारी न पड़ने दिया| वे लिखती हैं :” ......भीष्म की राजनीति उसकी क्षमताओं को सिर्फ उकेरने वाली सहायक पूर्ति नहीं –वे मूल्य और आस्थाएं हैं जिनसे भीष्म का पूरा-का-पूरा दृष्टिकोण स्थिर हुआ है|.....’चीफ की दावत’ से लेकर ‘भगवान के आदमी’ तक की कहानियों में परिवेश के यथार्थ को भीष्म ने अपनी साहित्यिक मान्यताओं से परे नहीं जाने दिया|”
       मेरे मन में अक्सर एक सवाल उठता है कि कहानीकार भीष्म साहनी को पढ़ते हुए कभी  क्यों नहीं लगता कि हम एक कम्युनिस्ट कहानीकार को पढ़ रहे हैं ? यह गुण किसी लेखक में तब आता है जब वह विचारधारा का अतिक्रमण करने की रचनात्मक जीवन-दृष्टि अर्जित करता है|इसके सबसे सुन्दर उदाहरण नई कहानी दौर में भीष्म साहनी हैं| ‘चीफ की दावत’ की माँ  एक सनातन माँ है|एक प्रसिद्द पुरानी कहावत है –‘माई का दिल मलाई जैसा,पूत का दिल कसाई जैसा’|कोई नई बात नहीं है ‘चीफ की दावत’ में,लेकिन भीष्म जी नई बात पैदा कर देते हैं|कोई अतिरिक्त मुखरता नहीं है|रिश्तों के भीतर मनुष्यता की  गरिमा छीज रही है|लेकिन माँ की ममता में वह छीजन नहीं है|भीष्म जी  चुपचाप जिस तरह सनातन वात्सल्य  और उसकी निरंतरता को इस कहानी के जरिये रेखांकित करते हैं,वह हिन्दी पाठक की नजर से ओझल नहीं होता|सफलता के पीछे भागती आधुनिक पीढ़ी रिश्तों के महत्त्व को तो समझने में असमर्थ है ही,उसके अवचेतन में उसके प्रति घृणा भी है| ‘चीफ की दावत’ में रिश्तों की अहमियत से अनजान और सफलता के पीछे भागती पीढ़ी का जो चित्रण है, उसका आधार ख़ुदगर्ज और भरोसे की दुनिया की कशमकश है |यही गुण उनकी प्राय: सभी कहानियों में  है |इस कारण भीष्म साहनी की कहानियां हमारे अनुभव संसार की उपज लगती हैं,किसी विचारधारा या आईडिया की उपज नहीं |
      ‘वांगचू’ में संवेदना का अछोर विस्तार है|एक चीनी बौद्ध भिक्षु जो उपयोगिता की दृष्टि से दुनिया के किसी काम का नहीं है| एक अर्थहीन विश्वास में जीने वाला  ‘वांगचू’ कहानीकार के लिए क्यों महत्त्वपूर्ण है?लोगो को उसके होने में कोई अर्थ नहीं दिखाई देता,लेकिन कहानी में धीरे-धीरे उस व्यर्थ-से को अर्थ देता हुआ संगीत निरंतर बजता रहता है|वांगचू का जीवन जैसा शांत,स्थिरऔर आध्यात्मिक आभा लिए हुए है,इस कहानी के रचाव में भी कुछ-कुछ वैसा ही है |कहानी में ‘वांगचू’ के प्रवेश को बहुत ही खूबसूरत और नाटकीय अंदाज में कहानीकार प्रस्तुत करता है |’तभी दूर से वांगचू आता दिखाई दिया’- इस संक्षिप्त विवरण से कहानी की शुरुआत होती है|यह वाक्य एक पूरे अनुच्छेद की जगह है –कुछ न कहकर भी बहुत कुछ कहता हुआ|दूसरे अनुच्छेद में जो कवित्वपूर्ण वर्णन है उसमें ऐसी पवित्र आभा है,जिसे किसी दूसरे शब्द के अभाव में आध्यात्मिक ही कहा जाएगा|वह यूँ है: ‘‘नदी के किनारे लालमंडी की सड़क पर धीरे-धीरे  डोलता-सा चला आ रहा है |धूसर रंग का चोगा पहने था और दूर से लगता था कि बौद्ध भिक्षुओं की ही भांति  उसका सिर भी घुटा हुआ है|पीछे शंकराचार्य की ऊँची पहाड़ी थी और ऊपर स्वच्छ नीला आकाश |सड़क के दोनों ओर ऊँचे-ऊँचे सफेदे के पेड़ों की कतारें |क्षण-भर के लिए मुझे लगा,जैसे वांगचू इतिहास के पन्नों पर से उतरकर आ गया है|प्राचीन काल में इसी भांति देश-विदेश से आने वाले चीवरधारी भिक्षु पहाड़ों और घाटियों को लांघकर भारत में आया करते होंगे|अतीत के ऐसे ही रोमांचकारी धुंधलके में मुझे वांगचू भी चलता नजर आया|”
   ‘वांगचू’ में जो प्रसंग और चित्रण है,वह इसी तरह शांत,मंद गति से चलता हुआ और दिलचस्प किस्से की आभा से युक्त है |वह ऐसा चरित्र है जो न वह भारत के लिए उपयोगी है और न चीन के लिए |दोनों देशों में वह संदेह की दृष्टि से देखा जाता है |बौद्ध धर्म से सम्बंधित जो शोधकार्य वह कर रहा है,वह भी अर्थपूर्ण नहीं लगता और न साकार रूप ले पाता है|वह दुनियादारी के लिहाज से अनुपयोगी है |उसके न रहने से किसी पर कोई फर्क नहीं पड़ता|कहानीकार भीष्म साहनी उस अनुपयोगी-से वांगचू को ऐसे रचते हैं जैसे वे उसे जी रहे हैं| रचते हुए कोई भावुकता ,रोमानीपन नहीं|कहानीकार निर्वैयक्तिक ढंग से वांगचू को इस रूप में हमारे सामने लाता है कि वह चुपचाप हमारे संवेदना का हिस्सा हो जाता है|उस कहानी में संवेदना का जो अछोर विस्तार,रोचक शैली और आध्यात्मिक-सी आभा है,वह कहानीकार भीष्म साहनी की बड़ी उपलब्धि है|अपनी इन विशिष्टताओं के चलते ‘वांगचू’ हिंदी कहानी के इतिहास का चुपचाप अमर चरित्र-बन जाता है|
      किसी विलक्षणता  या अनोखेपन के कहानीकार के नहीं हैं भीष्म साहनी|वे यदि ‘जीवन में सादगी पसंद सादामिजाज इनसान’ हैं तो कहानी में भी उनके यहाँ कथानक,भाषा और शिल्प सबमें सादगी का सौन्दर्य दिखाई देता है|इस सौन्दर्य की शोभा ही वह आकर्षण है जो उन्हें प्रेमचंद और यशपाल-सा लोकप्रिय भी बनाती है और पाठकों का विश्वास पात्र भी |जिन्हें उनकी सादगी में सपाटपन नजर आता है,उनको कृष्णा सोबती का यह कथन याद दिलाना जरूरी है : “भीष्म का पूरा व्यक्तित्व दाएँ-बाएँ का विस्तार नहीं|उसकी शख्सियत गहराई में बड़ी सादगी से अटी है |इसी से कई लोगों को भीष्म के लेखन की लकीर कुछ सपाट मालूम देती है|शायद इसलिए कि उनके समूचे लेखन में सहज साधारण पात्रों की बहुलता है,अनोखापन नहीं|”

       इसी के साथ यह भी कहने की जरूरत है कि इस सादगी के भीतर अदृश्य-सी तड़पती हुई जो लेखकीय ईमानदारी है,वह उनकी कहानियों की भीतरी शिराओं में आंदोलित वह रफ़्तार है जिसके बिना कहानीकार भीष्म साहनी को समझा नहीं जा सकता |

Saturday, 1 October 2016

जनकवि और जनकविता

कवि मुकुट विहारी सरोज के नाम से ग्वालियर में  एक साहित्यिक सम्मान  दिया जाता है- ‘जनकवि मुकुट विहारी सरोज सम्मान’| यहाँ ‘जनकवि’ विशेषण ने ध्यान आकृष्ट किया | मुकुट विहारी सरोज को क्या ‘जनकवि’ उपाधि से विभूषित करना उचित है ? वे तो एक गौण कवि थे | तभी देखा कि कवि त्रिलोचन के लिए भी  ‘जनकवि’ उपाधि किसी ने प्रयुक्त की  है |विजय बहादुर सिंह की पुस्तक ‘जनकवि’ पर भी  ध्यान गया, जिसमें केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, भवानीप्रसाद मिश्र, शमशेर,मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय कुल छह  कवि  शामिल हैं | कवि नागार्जुन ने ‘जनकवि’ का प्रयोग अपने लिए किया है | नागार्जुन के प्रशंसक अक्सर उनके नाम में ‘जनकवि’ विशेषण जोड़ते रहे हैं | वैसे स्वयं नागार्जुन ने भारतेंदु के लिए ‘जनकवि’ विशेषण का प्रयोग किया है | इन कुछ दृष्टान्तों के अतिरिक्त लोग आदर के लिए जनकवि विशेषण का प्रयोग इधर के वर्षों में अपने प्रिय कवियों के लिए करने लगे हैं | जहाँ तक अनुमान है कि ‘जनकवि’ विशेषण के प्रयोग की प्रवृत्ति का चलन छायावाद के बाद की घटना है | मुझे लगता है कि पहले लोग किसी कवि को जब खूब आदर देते थे तो उसके नाम के पहले ‘महाकवि’ शब्द जोड़ते थे | यूँ महाकवि उसे कहा जाता था जिसने कोई महाकाव्य लिखा है, जैसे- महाकवि तुलसीदास | सूरदास ने कोई महाकाव्य नहीं लिखा था, तब भी उन्हें महाकवि कहा गया | नंददुलारे वाजपेयी की पुस्तक ही है- ‘महाकवि सूरदास’| कहा गया कि सूर ने भले ही कोई महाकाव्य न लिखा हो, लेकिन वे महाकाव्यात्मक प्रभाव पैदा करने वाले कवि हैं | कबीर को महाकवि किसी ने कहा हो, इसकी याद नहीं | पहले  वे समाज सुधारक या संत थे | कवि रूप में प्रतिष्ठा उन्हें बहुत बाद में मिली | जायसी, सूर और तुलसी की तरह वे भी अब  महाकवि हैं | आधुनिक काल में मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, निराला आदि के लिए भी महाकवि पद प्रयुक्त होता रहा है | अब यह विशेषण सुनने को नहीं मिलता | अब किसी कवि को महाकवि कहने पर – चाहे जनवादी हो या गैरजनवादी – वह नाराज हो जाएगा | ऐसा कहना उसे अपना उपहास-सा लगेगा | लगता है उसकी जगह ‘जनकवि’ ने ले ली है | यह भी लगता है कि जनकवि कहना-कहलाना कवि-प्रशंसकों और कवियों को ज्यादा अच्छा लगता है |
महाकवि एक सुपरिभाषित पद था | इसका प्रयोग उसी के लिए किया जाता था जो इसका अधिकारी हो |  जिसने महाकाव्य न लिखा, लेकिन जो महान कवि हो, जैसे- निराला | आधुनिक काल में इसका बड़ा दुरुपयोग हुआ | हर ऐरा-गैरा कवि अपने को महाकवि कहलाना पसंद करने लगा | कवि सम्मेलन का संचालक हर कवि को ‘महाकवि’ कहकर बुलाने लगा | अब उसकी जगह जनकवि प्रचलन में है, लेकिन ‘जनकवि’ वैसा सुपरिभाषित पद नहीं है जैसा महाकवि था | तब प्रश्न है कि जनकवि कौन ? भारतेंदु, नागार्जुन, त्रिलोचन, मुकुट विहारी सरोज आदि  तो जनकवि घोषित किए जा चुके हैं | इसकी परिभाषा स्पष्ट हो तो और भी नाम जुड़ेंगे | क्या जनकवि उसे कहेंगे जो जनता का कवि हो | तब प्रश्न उठेगा कि जनता का कवि कौन ? जनता के लिए तो सबने लिखा है | प्रसाद, निराला, अज्ञेय, नागार्जुन, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, धूमिल आदि सभी कवियों ने जनता के लिए लिखा है | तब प्रश्न उठेगा कि किस जनता के लिए ? उच्च वर्ग के लोग हिंदी कविता पढ़ते होंगे, इसमें संदेह है | निम्न वर्ग से जो किसान मजदूर हैं वे भी शायद ही कविता पढ़ते हों | उनकी जीवन-स्थितियां कविता के पढ़ने के अनुकूल नहीं है | ले-देकर मध्यवर्ग ही हिंदी कविता का पाठक हो सकता है | वकील, पत्रकार, अध्यापक, छात्र, अधिकारी, क्लर्क आदि को ही हिंदी कविता का पाठक माना जा सकता है | क्या इनके बीच जो लोकप्रिय है उसे जनकवि कहा जाए ?
जनकवि शब्दकोश में नहीं है | इससे पता चलता है कि यह पुराना शब्द नहीं है | अनुमान किया जा सकता है कि स्वतंत्रता आन्दोलन में जिन कविताओं को जनता गाती होगी, उनके लिए जनकवि विशेषण चलता होगा | यूँ १९४० के दशक   में लिखी अपनी कविता ‘भारतेंदु’ में नागार्जुन  ने भारतेंदु हरिश्चंद्र को ‘जनकवि’ कहा है | क्यों कहा है ? उ न्हीं से सुनिए :
हिंदी की है असली रीढ़ गवारु  बोली,
यह उत्तम भावना तुम्हीं ने हममें घोली...
हे जनकवि सिरमौर, सहज भाषा लिखवइया
तुम्हें नहीं पहचान सकेंगे, बाबू- भइया  |
शिक्षित जन जिसे गवाँरु बोली समझते हैं, वही हिंदी की असली ताकत है | ऐसा उत्तम विचार भारतेंदु का था | उनकी जैसी सहज भाषा लिखने वाला व्यक्ति ही ‘जनकवि सिरमौर’ है | यही कारण है कि उन्हें बाबू भइया का यानी ऊँचे तबके का समर्थन नहीं मिला | नागार्जुन की नजर में ऐसा ही व्यक्ति जनकवि हो सकता है | बाद में उन्होंने खुद अपने को जनकवि घोषित करते हुए लिखा :
जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊं
जनकवि हूँ, सत्य कहूँगा, क्यों हकलाऊं ?
यहाँ नागार्जुन के अनुसार जनकवि वह है जो जनता के जीवन-मरण के सवालों से परिचित  हो, जो यथार्थ चित्रण करता हो और साफ़-साफ़ दो टूक कहता हो | नागार्जुन की परिभाषा के आधार पर भारतेंदु और नागार्जुन दोनों जनकवि हैं | यूँ नागार्जुन प्रेमी नागार्जुन को ही प्रायः जनकवि कहते रहे हैं | ऊपर उद्धृत पंक्तियों से पता चलता है कि नागार्जुन के लिए जनकविता और जनकवि का सवाल हमेशा सर्वोपरि रहा है |
जनप्रियता के आधार पर बात करें तो मैथिलीशरण गुप्त की काव्य पुस्तक ‘भारत- भारती’ (१९१२ ई.) की याद सहज रूप से आती है | स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान यह काव्य पुस्तक खूब पढ़ी गई | यह कृति इतनी लोकप्रिय हुई कि गुप्त जी को ‘राष्ट्रकवि’ की लोकोपाधि मिली | ‘भारत-भारती’ में जनता की आजादी का प्रश्न केंद्र में था | सुभद्रा कुमारी चौहान की ‘झांसी की रानी’ शीर्षक कविता स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान तो खूब लोकप्रिय हुई ही, आज भी लोकप्रिय है | बच्चन की ‘मधुशाला’ (१९३५) की अपार लोकप्रियता को हम भूले नहीं हैं | जाति-धर्म निरपेक्ष समाज की रचना का सपना ‘मधुशाला’ की केंद्रीय भाव-भूमि है | दिनकर की कविता इतनी लोकप्रिय हुई कि जन आंदोलनों का नारा बन गई | १९४० के दशक में यदि नेहरु राजनीति में युवा हृदय-सम्राट बन गए थे तो हिंदी कविता के युवा हृदय-सम्राट दिनकर थे | सहज भाषा, स्पष्ट कथन, जनता और समाज के व्यापक सवालों के आधार पर गुप्त, बच्चन और दिनकर भी सच्चे अर्थों में जनकवि हैं | और भी कवि हैं जिनकी कवितायेँ जनता के बीच खूब लोकप्रिय हुई | १९६० के दशक में बिहार के हमारे अंचल के स्कूलों में एक गीत खूब लोकप्रिय था : ‘देश हमारा, धरती अपनी, हम धरती के लाल, नया संसार बनायेंगे, नया इंसान बनायेंगे |’ यह किसकी कविता है, न हमें मालूम था, न शायद हमारे शिक्षकों को | बाद में पता चला कि प्रगतिशील कवि ‘शील’ का गीत है | दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल-पंक्तियाँ अक्सर साधारण लोगों द्वारा उद्धृत की जाती हैं  | इन ग़ज़लों में जनता के सवाल भी है और भाषा का सहज रूप भी है | धूमिल की काव्य पंक्तियाँ भी अक्सर लोग दुहराते हैं | सवाल है कि ये सभी कवि जनकवि क्यों नहीं हैं और उनकी कविताएँ  जन कविता क्यों नहीं हैं ? कोई पूछ सकता है कि जनकविता किसे कहा जाए ? जनकविता पद का प्रयोग किए बिना तुलसीदास ने वैसी कविता को मानस में इस रूप में परिभाषित किया है कि आदर पाने योग्य वही कविता है जो सरल हो और जिसमें निर्मल चरित्र वाले व्यक्ति का वर्णन हो और जिसकी प्रशंसा शत्रु भी करें :
सरल कबित कीरति बिमल सो आदरहिं सुजान |
सहज बयर बिसराह रिपु जो सुनि करहिं बखान ||
कविता के इस आदर्श को लेकर चलने के कारण ही तुलसीदास जन-जन के कवि बने | बड़ी से बड़ी बात को सहज ढंग से कह देने की कला तो  कोई तुलसीदास से सीखे | यही कारण है कि निराला ने उन्हें ‘अशेष छविधर’ कवि कहा तो त्रिलोचन ने उन्हें अपना आदर्श कवि घोषित किया – ‘तुलसी बाबा, कविता मैंने तुमसे सीखी, मेरी सजल चेतना में तुम रमे हुए हो |’ तुलसीदास की सरलता दिनकर को इतनी प्रिय थी कि उन्होंने एक बार कहा था कि हम रिल्के की बात तुलसीदास की सफाई से कहना चाहते हैं | कविता में यह सरलता बड़ी बात है | तभी तो प्रचंड पांडित्य के धनी और  रामकथा लिखने वाले केशवदास जनता के बीच ‘कठिन काव्य का प्रेत’ बनकर रह गए |
कविताएँ जनता की जुबान पर दो कारणों से चढ़ती हैं |एक तो पाठ्यक्रमों  में शामिल कवितायें प्रायः लोगों को याद हो जाती हैं|पाठ्यक्रमों में अनिवार्य रूप से शामिल होने के कारण प्रसाद ,निराला,अज्ञेय ,मुक्तिबोध आदि कवियों की कुछ एक पंक्तियाँ भी लोगों की जुबान पर हैं| लेकिन  भारतेंदु ,मैथलीशरण गुप्त ,सुभद्रा कुमारी चौहान ,बच्चन ,दिनकर नागार्जुन ,धूमिल आदि की कवितायें यदि लोगों की जुबान पर हैं तो इसका कारण इनके भीतर का वह काव्य-गुण है,जो उन्हें सहज ही स्मरणीय बना देता है| जनकवि वही है जिनकी काव्य-पंक्तियाँ सहज रूप में याद हों,जो जन आन्दोलनों का हिस्सा रही हों और जिन्हें समझने के लिए किसी आलोचक की जरुरत न हो |सच्चे अर्थ में तो  हिंदी भाषी क्षेत्र के जनकवि कबीर ,सूर,और तुलसीदास जैसे कवि ही माने जायेंगे |आधुनिक युग में साहित्यिकता के साथ लोकप्रियता की दृष्टि से मैथलीशरण गुप्त और बच्चन की मधुशाला का स्थान सबसे ऊपर है| बिना पाठ्यक्रम में शामिल हुए इन काव्यकृतियों का जादू पाठकों के ऊपर बना रहा |

  जनकवि जैसा कोई प्रत्यय अंग्रेजी कविता में नहीं है |वहाँ शेक्सपियर के लिए भी  इस तरह का कोई शब्द नहीं चलता | उर्दू में भी ‘शायरे-इन्कलाब’ तो है पर ‘शायरे अवाम’ नहीं | हाँ , मीर और नजीर अकराबादी जैसे शायरों को कुछ लोग अवामी शायर कहते हैं |  हिंदी में भी यह कोई पद नहीं है|नागार्जुन ने जब अपने को जनकवि कहा तो भाव यह था कि वे जनता से प्रतिबद्ध कवि हैं| उनके भीतर अपनी कविता के जरिये जनता तक पहुचने की बलवती चाह भी थी| इसलिए विषयवस्तु के साथ शिल्प शैली के प्रयोग में उन्होंने जन रूचि का ध्यान रखा |आज जो कविताएँ लिखीं जा रहीं हैं उनमें जनता के प्रति प्रतिबद्धता तो दिखती है ,लेकिन संप्रेषणीयता के उस गुण का अभाव है ,जो उसे जन प्रिय भी बनाता है | इसलिए हिंदी कविता के सन्दर्भ में जन कविता का प्रश्न विचारणीय विषय  होना चाहिए |