Tuesday, 2 August 2016

नलिन विलोचन शर्मा



आचार्य नलिन विलोचन शर्मा का जन्म 18 फरवरी 1916 को पटना में हुआ था और मृत्यु मात्र साढ़े पैंतालीस साल की उम्र में 12 सितम्बर 1961 को पटना में ही हुई | वे दर्शन और संस्कृत के महान विद्वान महामहोपाध्याय पं. रामावतार शर्मा के ज्येष्ठ पुत्र थे | कहावत है कि बरगद की छाया में उगा हुआ पौधा बड़ा वृक्ष नहीं बनता, लेकिन नलिन जी इसके अपवाद सिद्ध हुए | वे स्वनाम धन्य पिता के स्वनाम धन्य पुत्र थे | उनके व्यक्तित्व-निर्माण में पिता के पांडित्य और उनके प्रगतिशील दृष्टि की महत्वपूर्ण भूमिका थी | रामावतार शर्मा संस्कृत और दर्शन के ख्यातिप्राप्त विद्वान तो थे ही, संस्कृत, अंग्रेजी, लैटिन, फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाओं पर भी अधिकार रखते थे | नलिन जी को पिता का भाषा-ज्ञान विरासत में मिला | संस्कृत, अंग्रेजी और हिंदी तीनों भाषाओं पर उनका एक-सा अधिकार था | कामचलाऊ ज्ञान जर्मन और फ्रेंच का भी था | लेकिन उनके व्यक्तित्व-निर्माण में पिता की पदार्थवादी दृष्टि की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी | यूँ तो रामावतार शर्मा संस्कृत वांग्मय के प्रकांड पंडित थे, लेकिन अन्य पंडितों की तरह वे दकियानूश और पोंगापंथी नहीं थे | वे पदार्थवादी थे और शास्त्र के नाम पर पोंगापंथ और अंधविश्वास का प्रचार करने वाले पंडितों से बराबर लोहा लिया करते थे | वे हिंदी नवजागरण के अग्रदूतों में से एक थे और 1916 में जबलपुर में संपन्न हिंदी साहित्य सम्मलेन के 16वें अधिवेशन की उन्होंने अध्यक्षता की थी | नलिन जी के व्यक्तित्व-निर्माण में उस विद्वान पिता की पदार्थवादी और प्रगतिशील दृष्टि की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता |  
नलिन जी ने पहले संस्कृत में एम. ए. किया और जैन कॉलेज, आरा में संस्कृत के प्राध्यापक हो गए | बाद में उन्होंने हिंदी से एम. ए. किया और उनकी नियुक्ति पटना विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में हो गई, जहाँ वे प्रोफेसर और अध्यक्ष हुए | आमतौर से हिंदी अध्यापकों की अंग्रेजी और संस्कृत में स्थिति अधिक मजबूत नहीं होती, लेकिन नलिन जी इसके अपवाद थे | हिंदी के साथ उनका समान अधिकार संस्कृत और अंग्रेजी भाषा पर भी था | यही कारण है कि युवा-काल में ही उनके नाम में आचार्य विशेषण लगाकर लोग संबोधित करने लगे |
संस्कृत भाषा पर अधिकार होने के कारण नलिन जी भारतीय वांग्मय की प्राणधारा का संधान करने में सहज ही सक्षम थे | इसलिए उनके चिंतन और लेखन में भारतीय वांग्मय की पदार्थवादी परंपरा का प्रवाह है | अंग्रेजी ज्ञान के कारण पश्चिम के साहित्य और वहाँ  साहित्य-दृष्टि में आ रहे बदलावों का उन्हें अच्छा ज्ञान था | इस कारण उनकी रचना और आलोचना में विलक्षण नवीनता और मौलिकता प्रकट हुई, जिसे न तब ठीक-ठीक समझा गया और अब भी कम ही समझा जाता है |
नलिन विलोचन शर्मा को बहुत कम उम्र मिली | मात्र साढ़े पैंतालीस साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई, लेकिन कम उम्र के बावजूद कविता, कहानी, आलोचना, निबंध, जीवनी आदि विधाओं में उन्होंने भरपूर लेखन किया | उनके जीवन-काल में ‘दृष्टिकोण’, ‘साहित्य का इतिहास-दर्शन’ शीर्षक पुस्तकें आलोचना और इतिहास की प्रकाशित हुईं | ‘नकेन के प्रपद्य’ शीर्षक से प्रपद्यवादी कविताओं का समवेत संग्रह प्रकाशित हुआ | ‘विष के दांत’ तथा ‘सत्रह  अप्रकाशित पूर्व छोटी कहानियाँ’ नामक कहानी संकलन प्रकाशित हुए | अंग्रेजी में लिखी जगजीवन राम की जीवनी भी उनके जीवन-काल में प्रकाशित हुई | उनके निधन के बाद ‘मानदंड’, ‘हिंदी उपन्यास- विशेषतः प्रेमचंद’, ‘साहित्य तत्व और आलोचना’ तथा ‘नलिन विलोचन शर्मा : संकलित निबंध’ नामक आलोचना पुस्तकें प्रकाशित हुईं | ‘नकेन- २’ शीर्षक से प्रपद्यवादी कविताओं का संग्रह भी छपा, लेकिन ये सारी किताबें भी आज ठीक से पाठकों के लिए उपलब्ध नहीं हैं | उनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी पड़ी हैं जिन्हें संग्रहित करना एक बड़ा काम है | उनकी पत्नी कुमुद शर्मा ने छः खण्डों में उनकी रचनावली तैयार की थी और एक प्रकाशक को प्रकाशनार्थ सौंपा भी था, लेकिन उस प्रकाशक की लापरवाही और एक विश्वविद्यालय की कृपा से वह पांडुलिपि गायब हो गई | इस तरह हिंदी का एक बहुत ही महत्वपूर्ण आलोचक और रचनाकार अपनी सम्पूर्णता में हिंदी जगत के सामने नहीं आ सका | नलिन विलोचन शर्मा के मूल्यांकन में उनके साहित्य की अनुपलब्धता एक बड़ी चुनौती है |
नलिन विलोचन शर्मा ने अनेक विधाओं में लिखा है, लेकिन मुझे लगता है कि हिंदी साहित्य को उनकी सबसे बड़ी देन उनकी आलोचना के क्षेत्र में है | मौलिक दृष्टि, दुर्लभ वैदुष्य और चिंतनपूर्ण लेखन के द्वारा उन्होंने आलोचना का नया मानदंड निर्मित किया | अपने चिंतनपूर्ण और बहसतलब आलोचनात्मक लेखों, साहित्यिक टिप्पणियों और पुस्तक समीक्षाओं के द्वारा वे हिंदी संसार को नए ढंग से आंदोलित करते रहे | वे नए-पुराने सभी लेखकों के बीच आलोचक-रूप में समान रूप से प्रतिष्ठित थे | पुराने साहित्य पर यदि उनकी राय सुनी जाती थी तो नए साहित्य पर भी | उनकी दूसरी देन कहानीकार के रूप में है | नलिन विलोचन शर्मा हिंदी के विलक्षण कहानीकार थे | उनका रचनाकार व्यक्तित्व कविता के साथ कहानी लेखन के क्षेत्र में भी समान रूप से सक्रिय था | उनकी साहित्यिक देन का तीसरा क्षेत्र कविता है, जिसमें उन्हें ज्यादा प्रसिद्धि मिली | प्रपद्यवाद के प्रवर्तकों में से पहला नाम उन्हीं का आता है | नलिन विलोचन शर्मा की चौथी देन निबंधों के क्षेत्र में है | जहाँ उनकी आधुनिक दृष्टि के दर्शन होते हैं | लेकिन आइए सबसे पहले प्रपद्यवादी कवि के रूप में उनका परिचय प्राप्त करें |
प्रपद्यवाद को नकेनवाद भी कहा जाता है | प्रपद्यवादी कविताओं का पहला संकलन ‘नकेन के प्रपद्य’ शीर्षक से १९५६ में प्रकाशित हुआ | जिसमें नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार और नरेश की कविताएँ संकलित थीं | नकेन इन तीनों कवियों के नामों के प्रथमाक्षरों को मिलाने से बना था | इसलिए इनकी कविताएँ प्रपद्यवाद और नकेनवाद दोनों नामों से पुकारी जाती हैं | पद्य में ‘प्र’ उपसर्ग लगाने से प्रपद्य बना है जिसका अर्थ किया गया है- प्रयोगवादी पद्य | प्रपद्यवादी अपने को वास्तविक प्रयोगवादी और अज्ञेय आदि को प्रयोगशील कवि मानते थे | प्रपद्यवादियों के अनुसार प्रयोग उनका साध्य है, जबकि अज्ञेय आदि के लिए साधन | प्रपद्यवाद छायावाद की तरह कोई स्वतःस्फूर्त आन्दोलन नहीं था | यह एक संगठित और सुविचारित काव्यान्दोलन था | यह संगठन मात्र तीन कवियों का था और ये तीनों कवि एक ही नगर पटना में रहते थे | तीनों सुशिक्षित थे और देश-विदेश के काव्यान्दोलनों के गहरे अध्येता थे | उन्होंने प्रपद्यवाद नाम से जिस काव्यान्दोलन का सूत्रपात किया उसका एक-एक शब्द और सिद्धांत सुविचारित था | वे सचेत ढंग से हिंदी कविता को अपनी प्रपद्यवादी कविताओं के जरिए विश्व कविता के बौद्धिक धरातल तक ले जाना चाहते थे | वे कविता में भावुकता के विरोधी थे और उसमें बौद्धिकता तथा वैज्ञानिकता के योग से नयापन पैदा करने के पक्षधर थे | नलिन विलोचन शर्मा ने विनोद-भाव से एक द्विपदी लिखी थी जो प्रपद्यवादी कविता के नए मिजाज की सूचना देती थी-
दिल तो अब बेकार हुआ जो कुछ है सो ब्रेन,                                                           गाय हुई बकेन है, कविता हुई नकेन |
तात्पर्य यह कि कविता बौद्धिक रूप से सघन और गाढ़ी होनी चाहिए, उसमें भावुकता की मिलावट बिलकुल नहीं होनी चाहिए |
प्रपद्यवाद या नकेनवाद आलोचकों की दी हुई संज्ञा नहीं है | ये दोनों नाम तीनों कवियों द्वारा अपने लिए अपनाए गए नाम हैं | ‘नकेन के प्रपद्य’ नामक काव्य संकलन में प्रपद्यवाद के सिद्धांत-सूत्रों की घोषणा ‘प्रपद्य द्वादश सूत्री’ शीर्षक से की गई है | यह ‘प्रपद्य द्वादश सूत्री’ उन कवियों के अनुसार ‘प्रपद्यवाद के घोषणापत्र का प्रारूप’ है | प्रपद्यवादी कविताओं को समझने के लिए इन सिद्धांत-सूत्रों को समझना आवश्यक है | ये सिद्धांत-सूत्र हैं-
1. प्रपद्यवाद भाव और व्यंजना का स्थापत्य है |                                                         २. प्रपद्यवाद सर्वतंत्र- स्वतंत्र है, उसके लिए शास्त्र या दल निर्धारित अनुपयुक्त है |             ३. प्रपद्यवाद महान पूर्ववर्तियों की परिपाटियों को भी निष्प्राण मानता है |                  ४. प्रपद्यवाद दूसरों के अनुकरण की तरह अपना अनुकरण वर्जित मानता है |                 ५. प्रपद्यवाद को मुक्त काव्य नहीं, स्वच्छंद काव्य की स्थिति अभीष्ट है |                       ६. प्रयोगशील प्रयोग को साधन मानता है, प्रपद्यवादी साध्य |                                       ७. प्रपद्यवाद की दृक्वाक्यपदीय प्रणाली है |                                                                 ८. प्रपद्यवाद के लिए जीवन और कोष कच्चे माल की खान हैं |                                         ९. प्रपद्यवादी प्रयुक्त प्रत्येक शब्द और छंद का स्वयं निर्माता है |                                   १०. प्रपद्यवाद दृष्टिकोण का अनुसन्धान है |                                                                    ११. प्रपद्यवाद मानता है कि पद्य में उत्कृष्ट केन्द्रण होता है और यही गद्य और पद्य में अंतर है |                                                                                                            १२. प्रपद्यवाद मानता है कि चीजों का एकमात्र सही नाम होता है |
          बाद में ‘नकेन- २’ का जब प्रकाशन हुआ तो द्वादश सूत्रों के साथ छः और सूत्र जोड़कर ‘प्रपद्य अष्टादश सूत्री’ की घोषणा की गई | बाद में जोड़े गए सूत्र थे-
१३. प्रपद्यवाद आयाम की खोज है और अभिनिष्क्रमण भी, ठीक वैसे, जैसे वह भाव और व्यंजना का स्थापत्य है और उससे अभिनिष्क्रमण भी |                                                 १४. प्रपद्यवाद चित्रेतना है |                                                                                       १५. प्रपद्यवाद मिथक का संयोजक नहीं, स्रष्टा है |                                                 १६. प्रपद्यवाद बिम्ब का काव्य नहीं, काव्य का बिम्ब है |                                         १७. प्रपद्यवाद सम्पूर्ण अनुभव है |                                                                         १८. प्रपद्यवाद अविभक्त काव्य-रुचि है |
इन अठारह सूत्रों के अलावा ‘नकेन के प्रपद्य’ में ‘पसपशा’ शीर्षक से केसरी कुमार ने प्रपद्यवाद की व्याख्या की | उन्होंने लिखा है- “प्रपद्यवाद प्रयोग का दर्शन है .......प्रयोग के वाद से तात्पर्य यह है कि वह भाव और भाषा, विचार और अभिव्यक्ति, आवेश और आत्मप्रेषण, तत्व और रूप, इनमें से कई में या सभी में प्रयोग को अपेक्षित मानता है |” इस कथन के साथ केसरी कुमार ने यह भी दुहराया है कि सतत प्रयोग करना ही प्रपद्यवाद है | प्रपद्यवादियों का मानना था कि कविता भाव, विचार या दर्शन से नहीं लिखी जाती ....वह नए विचारों या नए शब्दों से भी नहीं लिखी जाती | उनके अनुसार कविता नए विचारों, नए शब्दों के केन्द्रण से बनती है | दैनंदिन की भाषा की व्यवस्था को व्यतिरेकित करके ही इसे प्राप्त किया जा सकता है | हमारे दैनंदिन जीवन की भाषा और अनुभव के आगे की भाषा तथा अनुभव को कविता प्रकट करती है | प्रपद्यवादी मानते हैं कि कविता के लिए जीवन की प्रतिष्ठित व्यवस्था आवश्यक नहीं है, बल्कि जीवन की जागृति आवश्यक है |
          प्रपद्यवादियों के लिए साधारणीकरण कोई समस्या नहीं है | साधारणीकरण की प्रक्रिया में रचनाकार और पाठक का एक ही भाव-सत्ता में होना आवश्यक है | लेकिन प्रपद्यवादी न तो भाव-सत्ता को स्वीकारते हैं, न रसानुभूति को | उनके लिए कविता वैयक्तिक चीज है, सार्वजनिक नहीं | प्रपद्यवादी कविता में जिस वैयक्तिक अनुभूति, शब्द और अर्थ पर जोर देते हैं, उसमें साधारणीकरण के लिए कोई जगह नहीं है | वे साधारणीकरण के स्थान पर विशिष्टीकरण को महत्वपूर्ण मानते हैं | विशिष्टीकरण का आधार विज्ञान है | जिस तरह से ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में विशिष्टीकरण आवश्यक है, उसी तरह से कविता में भी | नलिन विलोचन शर्मा कवि के लिए ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ तथा ‘विज्ञान-सम्मत दर्शन’ की जरुरत पर बल देते हैं | वे मानते हैं कि कविता का उद्देश्य सत्य का संधान है |
          प्रपद्यवादी काव्य-सिद्धांत के अनुसार काव्य-रचना के लिए बुद्धि आवश्यक है | बौद्धिकता को कविता का आवश्यक गुण स्वीकार करते हुए केसरी कुमार ने लिखा है- “जब कविता अपने समय की बौद्धिकता से संपर्क-विच्छेद कर लेती है, तब भाव-प्रवण, जाग्रत-मति समाज की उसमें दिलचस्पी नहीं रह जाती | यह अत्यंत खेदजनक स्थिति है, क्योंकि यह समाज यद्यपि अल्पसंख्यकों का होता है, पर यही बड़े समाज को गति देने वाला सिद्ध होता है |”
          प्रपद्यवाद की काव्य-पूँजी थोड़ी है | नलिन विलोचन शर्मा की भी काव्य-पूँजी मात्रा रूप में कम ही है | प्रपद्यवादी काव्यधारा में दूसरे कवि शामिल नहीं हुए | वह इन्हीं तीन कवियों तक सीमित रही | कोई भी आन्दोलन तभी विस्तार और दीर्घ जीवन पाता है, जब उसमें अधिक से अधिक लोगों की समाही होती है | हिंदी कविता के इतिहास में जगह बनाने के लिए जिस मात्रा की आवश्यकता होती है, वह मात्रा न तो प्रपद्यवाद के पास है, न नलिन जी के पास | लेकिन अल्पमात्रा के बावजूद अपनी विशिष्ट भंगिमा के कारण प्रपद्यवादी कविताओं ने 1960 के दशक में हिंदी कविता को नई चमक से भर दिया था | यह कविता की नई भंगिमा थी और नई जमीन थी | अज्ञेय ने नलिन विलोचन शर्मा और केसरी कुमार की काव्य-नवीनता को रेखांकित करते हुए लिखा है- “वैसी कविताएँ जैसी केसरी कुमार की ‘साँझ’ अथवा नलिन विलोचन शर्मा की ‘सागर संध्या’ है, ऐसे बिम्ब उपस्थित करती हैं, जिनके लिए परंपरा ने हमें तैयार नहीं किया है और जो उस अनुभव के सत्य को उपस्थित करना चाहते हैं, जो उसी अर्थ में अनन्य है, जिस अर्थ में एक व्यक्ति अनन्य होता है |” नलिन जी की ‘सागर संध्या’ शीर्षक कविता को उनके काव्य-उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है-
बालू के ढूह हैं जैसे बिल्लियाँ सोई हुई,                                                                उनके पंजों से लहरें दौड़ भागतीं |                                                                          सूरज की खेती चर रहे मेघ-मेमने                                                                    विश्रब्ध, अचकित |                                                                                                 मैं महाशून्य में चल रहा....                                                                              पीली बालू पर जंगम बिंदु एक-                                                                            तट-रहित सागर एवं अम्बर और धरती के                                                           काल-प्रत्न त्रयी-मध्य से होकर |                                                                               मेरी गति के अवशेष एकमात्र                                                                       लक्षित ये होते :                                                                                     सिगरेट का धुँआ वायु पर ;                                                                                        पैरों के अंक बालू पर                                                                                               टंकित, जिन्हें ज्वार भर देगा आकर |
          कविता के अलावा लगभग चार दर्जन कहानियाँ नलिन जी की लिखी हुई मिलती हैं | कविता के क्षेत्र में उन्होंने जिस तरह मौलिक और विशिष्ट प्रयोग किए, उसी तरह कहानी के क्षेत्र में भी किए | उनकी कहानियों में सामाजिकता और मनोवैज्ञानिकता का बड़ा ही सफल गुम्फन हुआ है | भाषा, भाव और शिल्प हर स्तर पर उनकी कहानियाँ उनकी कविताओं की ही तरह ठोस स्थापत्य की हैं | ‘विष के दांत तथा अन्य कहानियाँ’ और ‘सत्रह असंग्रहित पूर्व छोटी कहानियाँ’ नामक संग्रहों में लगभग तीस कहानियाँ मिलती हैं, जबकि शेष कहानियाँ अभी भी पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी पड़ी हैं | उन्होंने कुल ५५ कहानियाँ लिखी थीं | नलिन जी कहानी में सामाजिक सत्य को मनोवैज्ञानिक सत्य के साथ प्रतिष्ठित करना चाहते थे | केसरी कुमार ने लिखा है- “वे विज्ञान और दर्शन के मिलन-बिंदु के विरल कवि तथा दुर्लभ मनोवैज्ञानिक उपलब्धियों के कहानीकार थे |” विषय के आधार पर उनकी कहानियों को तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है- १. सामाजिक विषयों से सम्बंधित कहानियाँ, २. मनोग्रंथि से सम्बंधित कहानियाँ, ३. प्रेम कहानियाँ | वैसे यह विभाजन ऊपरी है | कहानियों के भीतर व्याप्त कथा-चेतना एक-सी है | वह चेतना है मानव-मनोविज्ञान के अध्ययन की | इसकी कमी नलिन जी हिंदी कहानी में महसूस करते हैं | विष के दांत, ये बीमार लोग, बरसाने की राधा और रोबोट जैसी अमर कहानियाँ लिखने का श्रेय नलिन विलोचन शर्मा को ही जाता है | मेरा अनुमान है कि इनको शामिल किए बिना हिंदी कहानी का इतिहास पूरा नहीं होगा |
          नलिन विलोचन शर्मा की वास्तविक देन आलोचना के क्षेत्र में है | उसी के साथ उन्होंने महत्वपूर्ण हस्तक्षेप साहित्य के इतिहास-दर्शन के क्षेत्र में भी किया | प्रगतिवादी और गैर-प्रगतिवादी आलोचना शिविर से अलग उन्होंने हिंदी आलोचना की नई जमीन तैयार की | शीतयुद्धकालीन राजनीतिक शब्दावली का इस्तेमाल करें तो कह सकते हैं कि नलिन विलोचन शर्मा का हिंदी आलोचना में वही स्थान और महत्व है जो शीतयुद्ध काल में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का था | नलिन विलोचन शर्मा आलोचना लिखते समय भारतीय साहित्य की पाँच महान परम्पराओं की चर्चा करते हैं | उन्होंने भौतिकता को भारतीय साहित्य की पहली विशेषता घोषित किया | उनके अनुसार दूसरी परंपरा यथार्थता की है | मानवता यानी ह्यूमनिज्म, नलिन जी के अनुसार भारतीय साहित्य की तीसरी परंपरा है | मानववाद यानी ह्यूमेनिटेरियलिज्म को वे हिंदी साहित्य की चौथी महान परंपरा मानते हैं | धार्मिकता, नलिन जी के अनुसार भारतीय साहित्य की पाँचवी विशेषता है | भौतिकता को प्रथम और धार्मिकता को भारतीय साहित्य की अंतिम विशेषता मानने वाले नलिन विलोचन शर्मा की आलोचना-दृष्टि को अलग से समझने की जरुरत है | वे प्रगतिवादी और आधुनिकतावादी आलोचनात्मक प्रत्ययों से भिन्न नए मानदंड का निर्माण करते हैं | नलिन जी की आलोचनात्मक कसौटी के मुख्य आधार हैं- मुक्ति और स्वच्छंदता | इन दोनों में भी मुक्ति को वे मुख्य आलोचनात्मक कसौटी मानते हैं | उनके अनुसार पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ और बर्नाड शॉ में स्वच्छंदता के गुण हैं, जबकि निराला और वाल्ट व्हिटमैन में मुक्ति के | रचना में विषयगत नवीनता को नलिन जी स्वच्छंदता का गुण मानते हैं, जबकि विषयगत और रूपगत नवीनता को वे रचना की मुक्ति से जोड़कर देखते हैं | स्वच्छंदता और मुक्ति की अपनी आलोचनात्मक कसौटी पर वे निराला को आधुनिक युग का सबसे बड़ा कवि और प्रेमचंद को आधुनिक युग का सबसे बड़ा कथाकार घोषित करते हैं |
नलिन विलोचन शर्मा की वास्तविक देन उपन्यास की आलोचना के क्षेत्र में है | उन्होंने अपने चिंतनपरक आलोचनात्मक लेखों के जरिए हिंदी उपन्यास का शास्त्र विकसित करने की कोशिश की | वे मानते थे कि उपन्यास साहित्य की ‘अन्त्यज विधा’ है | अन्त्यज शब्द से ही उनकी साहित्यिक और सामाजिक दृष्टि की नवीनता का पता चलता है | प्रेमचंद को उपन्यास के कलाकार के रूप में प्रतिष्ठित करने का अथक संघर्ष नलिन विलोचन शर्मा ने हिंदी आलोचना में किया | वे मानते थे कि प्रेमचंद ने हिंदी उपन्यास की दुनिया में अहिंसक क्रांति के जरिए उसके पूरे स्थापत्य को बदल कर रख दिया | मुझे लगता है कि प्रेमचंद की कला का नलिन विलोचन शर्मा जैसा पारखी आलोचक हिंदी में दूसरा नहीं हुआ |
          उपन्यास का शास्त्र तैयार करते हुए नलिन जी ने कथा-भूमि की सभ्यता और संस्कृति से जोड़कर उसे देखा है | उन्होंने लिखा है- “हिंदी उपन्यास का इतिहास, किसी भी देश के इतिहास की तरह हिंदी-भाषी क्षेत्र की सभ्यता और संस्कृति के नवीन रूप के विकास का साहित्यिक प्रतिफलन है | समृद्धि और ऐश्वर्य की सभ्यता महाकाव्य में अभिव्यंजना पाती है, जटिलता, वैषम्य और संघर्ष की सभ्यता उपन्यास में .........हमारे उपन्यास यदि आज पश्चिमी उपन्यासों के समकक्ष सिद्ध नहीं होते तो मुख्यतः इसलिए कि हमारी वर्तमान सभ्यता अपेक्षतया आज भी कम जटिल, कम उलझी हुई और कहीं ज्यादा सीधी-सादी है |” नलिन जी उपन्यास को अन्त्यज कहते हैं | अन्त्यज का अर्थ सबसे अंत में पैदा हुआ तो होता ही है, उसका अर्थ यह भी है कि उसका गहरा सम्बन्ध हाशिए पर रहने वाले समाज से है |
          मुक्ति और स्वच्छंदता की कसौटी पर नलिन विलोचन शर्मा का सारा आलोचना- साहित्य टिका हुआ है | इसीलिए वे साहित्य में किसी भी तरह की विषयगत और रूपगत रूढ़ि को स्वीकार नहीं करते | वे नवीनता के आग्रही आलोचक थे | यही कारण है कि यदि उन्होंने अज्ञेय आदि के आधुनिकतावादी आग्रहों की आलोचना की तो प्रगतिवादी मान्यताओं पर भी प्रहार करने में वे पीछे नहीं रहे | उन्होंने साहित्य और समाज की रूढ़ियाँ तोड़ने के लिए और परंपरा का मूल्यांकन करने के लिए प्रगतिवादियों की प्रशंसा की तो उनकी निषेधकारी और एकांगी दृष्टि की कड़ी आलोचना भी की | ‘प्रगतिवाद की मान्यताएँ’ शीर्षक उनका एक प्रसिद्ध निबंध है, जिसमें उन्होंने प्रगतिवादियों की आलोचना करते हुए लिखा है- “उन्होंने पुरानी जंजीरें तोड़ फेंकी हैं, लेकिन उन्होंने जिसे गले का हार समझकर प्रसन्नतापूर्वक पहना है, वह हाथ-पैर का नहीं, हृदय और मस्तिष्क का बंधन बन गया है | उन्होंने गुरु-पूजा का त्याग किया है, पर वीर-पूजा अपनाने के लिए, मूर्ति-पूजा से छुटकारा पाया है, किन्तु जन-पूजा के कर्मकांड में फंसने के लिए, और शास्त्र की संकीर्णता के विरुद्ध सफल विद्रोह किया है, लेकिन सिद्धांत की चारदीवारी में कैद हो जाने के लिए |” इस टिप्पणी के साथ नलिन जी ने प्रगतिवादी लेखक पर चार आरोप लगाए- १. वह वीर-पूजा करता है, २. वह जन-पूजा में अन्धविश्वास रखता है, ३. वह कुछ सुचिन्तित सिद्धांतों में बंधा हुआ है और  ४. वह घृणा करता है | प्रगतिवाद के बारे में अपने इस निष्कर्ष के बाद उन्होंने सोवियत-व्यवस्था की आलोचना की, जहाँ नात्सी जर्मनी की तरह लेखकों को यातना दी जा रही थी |
          इस तरह नलिन विलोचन शर्मा हिंदी आलोचना में प्रगतिवादी और आधुनिकतावादी कसौटियों से भिन्न आलोचना का नया मानदंड निर्मित करते हैं | इस कसौटी पर वे रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचंद और निराला को आलोचना, कथा-साहित्य और कविता का शिखर रचनाकार घोषित करते हैं | कहने की जरुरत नहीं कि रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचंद और निराला के बारे में यही निष्कर्ष प्रगतिवादी आलोचक रामविलास शर्मा के भी हैं | लेकिन उसमें मुक्ति के अभाव के कारण रामविलास जी जहाँ ‘मैला आँचल’ का महत्व पहचानने से चूक जाते हैं, वहीं नलिन जी उसे ‘गोदान’ के बाद हिंदी उपन्यास में आए गत्यवरोध को दूर करने वाला मानते हैं | लेकिन जब विषय और रूप का दुहराव वे उसी फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की ‘परती परिकथा’ में पाते हैं, तो उसकी कड़ी आलोचना भी करते हैं | ऐसा इसलिए कि नलिन जी आलोचना को ‘सृजन’ मानते थे, ऐसा सृजन जो किसी ‘कृति का निर्माण’ करे | आलोचना को परिभाषित करते हुए उन्होंने यह भी कहा है कि ‘आलोचना कला का शेषांश’ है | यही कारण है कि उनकी आलोचना में भाषा-शिल्प आदि पर जितना जोर है, उतना विषयवस्तु पर नहीं | वे ‘कला के धरातल पर उन्नीत’ हो जाने वाली आलोचना के समर्थक थे |
          नलिन जी की महत्वपूर्ण देन साहित्य के इतिहास-दर्शन के क्षेत्र में भी है | जब हिंदी में इतिहास-दर्शन की चर्चा से प्रायः लोग अनजान थे, तब उन्होंने ‘साहित्य का इतिहास-दर्शन’ जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक लिखकर इतिहास-लेखन की आधारभूमि को मजबूती दी थी | वे मानते हैं कि साहित्य का इतिहास वस्तुतः गौण लेखकों का इतिहास है | बड़े-बड़े लेखकों के आधार पर साहित्य का इतिहास लिखने वाले इतिहास-दृष्टि से भिन्न यह नई इतिहास-दृष्टि थी | समाज या राष्ट्र का इतिहास राजाओं का इतिहास नहीं बल्कि जनता का इतिहास है, इस कथन से नलिन जी के कथन को मिलाकर देखना चाहिए, तब उनकी इतिहास-दृष्टि की सामाजिकता और व्यापकता दिखाई देगी | इतिहासकार के रूप में अपने प्रिय आलोचक आचार्य शुक्ल को नलिन जी वह महत्व नहीं देते जो हजारीप्रसाद द्विवेदी को देते हैं | इसका कारण यह है कि नलिन जी शुक्ल जी में विधेयवाद और पश्चिमी इतिहास-दृष्टि का आभास पाते हैं | जबकि हजारीप्रसाद द्विवेदी की दृष्टि उन्हें ज्यादा भारतीय लगती है, क्योंकि उसमें मिथकों, पुराकथाओं, किम्वदंतियों का आधार है, जो नलिन जी के अनुसार साहित्य के इतिहास-लेखन की जरुरी सामग्री है |
          कोई कह सकता है कि नलिन जी रूपवादी थे, हालाँकि ऐसा कहना उनके साथ किंचित ज्यादती होगी | रूपवादी लेखक जहाँ भाववादी और प्रायः अवैज्ञानिक तर्कों के कायल होते हैं, वहीं नलिन विलोचन शर्मा विज्ञान के समर्थक और किसी भी अलौकिक शक्ति में न विश्वास करने वाले अनीश्वरवादी थे | उनका विश्वास समाजवाद में था और वे एम.एन.राय के रेडिकल ह्यूमनिस्ट आन्दोलन को पसंद करते थे |

  


Tuesday, 19 July 2016

भक्ति-आन्दोलन और मुक्तिबोध

कवि-आलोचकों में मुक्तिबोध का विशेष महत्व है | वे न सिर्फ नई कविता के शीर्ष कवि हैं बल्कि शीर्ष सिद्धांतकार और व्याख्याकार भी हैं | नई कविता की आधार भूमि को उनके बिना नहीं समझा जा सकता | वे नई कविता के सिद्धांत और व्यवहार दोनों हैं | इस तरह वे नई कविता आन्दोलन के सबसे प्रखर व्यक्तित्व हैं | उनकी प्रखरता में जितना योग उनकी कविता का है, उससे कम उनकी आलोचना का नहीं है | आलोचक के रूप में उन्होंने साहित्य के जिस पक्ष या रचनाकार पर लिखा, अपने वैशिष्ट्य के कारण वह सबके विचार का केंद्र बना |लेकिन उन्होंने कुछ ऐसी भी आलोचना लिखी जो हमेशा विवादों में रही और जिनसे बहुत लोगों की असहमतियां हमेशा बनी रहीं| इसका सबसे सुन्दर उदाहरण ‘मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन का एक पहलू’ शीर्षक उनका लेख है, जो भक्ति-विषयक उनकी एकमात्र रचना है | एकमात्र होने के बावजूद इस लेख का ऐतिहासिक महत्व है | इसके जरिए जब-तब सगुण भक्ति , तुलसी दास, रामचंद्र शुक्ल, रामविलास शर्मा आदि पर वैचारिक गोले  दागे जाते रहे हैं | शुक्ल जी और रामविलास जी की भक्ति-विषयक धारणा पर प्रहार के लिए कभी कुछ प्रगतिशीलों द्वारा और बाद में  दलित लेखकों द्वारा इस लेख को आधार बनाया जाता रहा है और अब  भी बनाया जाता है |
1955 ई. में लिखे इस लेख के निष्कर्ष के रूप में निम्न बिन्दुओं को चिह्नित किया जा सकता है :
1.    कबीर तुलसीदास की तुलना में आधुनिक लगते हैं |
2.    भक्ति साहित्य का ठीक-ठीक विश्लेषण तब तक नहीं हो सकता जब तक हम उस युग की मूल गतिमान सामाजिक शक्तियों से बनने वाले सांस्कृतिक इतिहास को ठीक-ठीक न जान लें |
3.    भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास के सुसंबद्ध इतिहास के लिए आवश्यक सामग्री का बड़ा अभाव है | 
4.    निर्गुण मत के विरुद्ध सगुण मत का संघर्ष निम्न वर्गों के विरुद्ध उच्चवंशीय संस्कारशील अभिरुचि वालों का संघर्ष था | 
5.    दार्शनिक क्षेत्र का निर्गुण मत जब व्यावहारिक रूप से ज्ञानमार्गी भक्तिमार्ग बना, तो उसमें पुराण-मतवाद को स्थान नहीं था | कृष्णभक्ति के द्वारा पौराणिक कथाएँ घुसीं, पुराणों ने रामभक्ति के रूप में आगे चलकर वर्णाश्रम धर्म की पुनर्विजय की घोषणा की | 
6.    पं. रामचंद्र शुक्ल जो निर्गुण मत को कोसते हैं, वह यों ही नहीं | इसके पीछे उनकी सारी पुराण- मतवादी चेतना बोलती है |  
7.    रामभक्ति शाखा के अंतर्गत एक भी प्रभावशाली और महत्वपूर्ण कवि निम्नजातीय शूद्र वर्गों से नहीं आया | 
8.    जो भक्ति आन्दोलन जन साधारण से शुरू हुआ और जिसमें सामाजिक कट्टरपन के विरुद्ध जन साधारण की आशा-आकांक्षाएँ बोलती थीं, उसका ‘मनुष्य सत्य’ बोलता था, उसी भक्ति आन्दोलन को उच्चवर्गियों  ने आगे चलकर अपनी तरह बना लिया, और उससे समझौता करके, फिर उसपर अपना प्रभाव कायम करके, और अनंतर जनता के अपने तत्वों को उनमें से निकालकर, उन्होंने उस पर पूरा प्रभुत्व स्थापित कर लिया |
भक्ति आन्दोलन को निर्गुण और सगुण धारा में बाँटकर देखने वाली यह दृष्टि दोनों को परस्पर विरोधी धारा मानकर चलती है |इसके अनुसार निर्गुण धारा में प्रगतिशीलता और आधुनिकता के तत्व हैं तथा सगुण धारा सवर्णवादी और प्रतिगामी है |इसके पहले  रामचंद्र शुक्ल ने भी ऐसा विभाजन किया था , जिसमें सगुण धारा लोक कल्याणकारी थी  और निर्गुण धारा लोक-मर्यादा की विरोधी | हजारी प्रसाद द्विवेदी निर्गुण मत और कबीर के सामाजिक पक्ष का उद्घाटन बड़े जोरदार ढंग से करते हैं पर वे भक्ति आन्दोलन की केन्द्रीय धुरी ‘प्रेम’ को ही मानते हैं |रामविलास शर्मा निर्गुण मत की अपेक्षा सगुण भक्ति धारा को अधिक महत्व देते हैं पर वे निर्गुण-सगुण विवाद को व्यर्थ मानते हैं और उनका भी जोर ‘प्रेम’ पर है | उनके अनुसार कबीर, सूर, तुलसी सभी प्रेममार्गी हैं |
मुक्तिबोध के सामने यह प्रश्न है कि कबीर तुलसी की तुलना में अधिक आधुनिक क्यों लगते हैं ?आधुनिक होने का अर्थ यहाँ मुक्तिबोध के लिए वर्णव्यवस्था और मंदिर-मस्जिद का विरोध है जो समतामूलक समाज की रचना में बाधक हैं | इसके विपरीत तुलसीदास के यहाँ वर्णव्यवस्था का समर्थन है, वेद-पुराण समर्थित धर्म का समर्थन है जो वर्ण व्यवस्था का मूल आधार है | यदि आधुनिकता को वर्णव्यवस्था विरोध तथा समर्थन तक ही सीमित माना जाए तो कबीर तुलसी की तुलना में जरूर आधुनिक हैं, लेकिन आधुनिकता का अर्थ स्त्री-पुरुष समानता भी है तो इस अर्थ में कबीर आधुनिक नहीं हैं | कुंडलिनी, इंगला, पिंगला, सुषुम्ना आदि भी कबीर की  आधुनिकता की राह के रोड़े हैं, जिनकी उनके साहित्य में भरमार है | असल में आधुनिकता की आज की कसौटी पर जब आधुनिक युग-पूर्व के किसी भी कवि-लेखक को देखेंगे तो उसके अंतर्विरोध सामने आएँगे ही | तुलसी के रामराज्य में यदि एक ओर वर्णव्यवस्था अपने आदर्श रूप में कायम है तो दूसरी ओर ऐसा बहुत कुछ है जो समाज में समता का सूचक है | उस रामराज्य में कोई दीन-दुखी नहीं है, सभी लोग परस्पर प्रीति करते हैं, स्त्रियाँ यदि पतियों का सम्मान करती हैं तो पति भी एक पत्नी व्रती हैं, कहीं कोई भेद नहीं है- भेद है भी तो सिर्फ संगीत में - राग-रागिनियों के भेद के अर्थ में – मानो वर्ग-विहीन समाज हो | इस अर्थ में तुलसी आधुनिक लगते हैं, लेकिन वर्ण व्यवस्था के समर्थक के रूप में नहीं लगते | कबीर भी एक अर्थ में आधुनिक हैं तो दूसरे अर्थ में मध्यकालीन |
आधुनिकता की जिस तुला पर मुक्तिबोध कबीर और तुलसी को तोलते हैं और आधुनिकता के पक्ष में कबीर का पलड़ा झुकाते हैं, वह तुलसी के सन्दर्भ में आधुनिक युग के कई साक्ष्यों के मेल में नहीं है | कहा जाता है कि मॉरीशस, फ़िजी आदि देशों में जब गिरमिटिया मजदूर ले जाए गए तो वे अपने साथ ‘रामचरितमानस’ की प्रति भी लेकर गए थे | विपरीत परिस्थितियों में उस काव्य-ग्रंथ ने उन्हें जीने का संबल दिया|वहाँ जाकर देखने पर तथा उन देशों के भारतवंशी लोगों से बात करने पर आज भी यह तथ्य सहज ढंग से सामने आता है | जो भारतवंशी वहाँ गए, उनमें  ज्यादातर पिछड़ी जाति के थे | वे अपने साथ ‘रामचरितमानस’ की ही प्रति लेकर क्यों गए थे ?इसलिए कि दुखमय जीवन को संभालने की शक्ति उस काव्य ग्रन्थ ने उन्हें दी| राममनोहर लोहिया ने ठीक ही लिखा है: “तुलसी एक रक्षक कवि थे|जब चारों तरफ से अझेल हमले हों,तो बचाना,थामना,टेक देना,शायद ही तुलसी से बढ़कर कोई कर सकता है|” 1  जीवन-संघर्ष में लाखों-करोड़ों लोगों को जीवन जीने की ताकत जो ग्रन्थ देता है, उसे गैर आधुनिक मानने का अर्थ है आधुनिकता को कुछ बिन्दुओं तक सीमित कर देना |स्त्री-पुरुष में समानता आधुनिक होने का बड़ा आधार है|लोहिया इस आधार की मजबूती पर बल देते हैं|तुलसीदास की स्त्री-दृष्टि पर बात करते हुए वे कहते हैं: “... नारी स्वतंत्रता और समानता की जितनी जानदार कविता मैंने तुलसी की पढ़ी और सुनी उतनी और कहीं नहीं,कम से कम इससे ज्यादा जानदार कहीं नहीं| अफ़सोस है कि नारी-हीनता वाली कविता तो हिन्दू नर के मुंह पर चढ़ी रहती है लेकिन नारी-सम्मान वाली कविता तो वह भुलाए रहता है|…यदि दृष्टि ठीक है तो राम-कथा  और तुलसी-रामायण  की कविता सुनने या पढ़ने से नर-नारी के सम स्नेह की ज्योति मिल सकती है|”2  किसी कवि की आधुनिकता पर जब हम बात करें तो एक बड़ा आधार स्त्री-पुरुष समानता भी है,जिसे नजर अंदाज नहीं किया जा सकता|
‘रामचरितमानस’ आधुनिक काल में जनता के मुक्ति-संघर्ष में किस तरह सहायक रहा है, इसका दिलचस्प उदाहरण अवध का किसान आन्दोलन है, जिसके नेता बाबा रामचंद्र दास थे | उन्होंने शोषण-दमन के खिलाफ जनता को ‘मानस’ की पंक्तियाँ सुनाकर जगाया और किसान जागरण का उदघोष किया | उस आन्दोलन की और रामचंद्र दास की चर्चा करते हुए जवाहरलाल नेहरु ने, जो तब अवध के गाँवों में घूम रहे थे, लिखा है : “रामचंद्र महाराष्ट्रीय था और कुली-प्रथा के अन्दर मजदूर बनकर फ़िजी चला गया था | वहाँ से लौटने पर धीरे-धीरे वह अवध के जिलों की तरफ आ गया | तुलसीदास की रामायण गाता हुआ और किसानों के कष्टों और दुखों को सुनाता हुआ वह इधर-उधर घूमने लगा |  ....... उसने भारी संगठन शक्ति का परिचय दिया | उसने किसानों को आपस में समय-समय पर सभा करना और अपनी तकलीफों पर चर्चा करना सिखलाया और हर तरह उनमें एके का भाव पैदा किया | कभी-कभी बड़ी भारी-भारी सभाएँ होतीं और उनसे उन्हें एक बल का अनुभव होता | यों ‘सीताराम’ एक पुरानी और प्रचलित धुन है, मगर उसने उसे करीब-करीब एक युद्ध-घोष का रूप दे दिया और जरुरत के वक्त लोगों को बुलाने का तथा जुदा-जुदा गाँव को आपस में बाँधने का चिन्ह बना दिया | ...रामायण का गान और प्रासंगिक दोहे-चौपाइयों की मिसाल देना बाबा रामचंद्र का एक खास तर्ज था |”3 बाबा रामचंद्र की चर्चा के साथ अवध के किसानों की दुर्दशा का बड़ा ही मार्मिक वर्णन नेहरु ने अपनी आत्मकथा में किया है |जिन किसानों को रामचंद्र ने जगाया था,उनके बीच घूमते हुए नेहरु खुद इस तथ्य से परचित हुए थे| प्रश्न है कि जब बाबा रामचंद्र दास मानस की पंक्तियाँ सुनाकर जनता को शोषण के विरुद्ध गोलबंद कर रहे थे,तब मानस प्रासंगिक था या नहीं?
मुक्तिबोध का यह कथन भी दूर तक उनका साथ नहीं देता कि रामभक्ति शाखा में एक भी शूद्र कवि नहीं हुआ |ऐसा कहते हुए ‘भक्तमाल’ के रचयिता नाभादास उनके ध्यान में क्यों नहीं आए?प्रसिद्द है कि वे दलितों में भी अति निम्न डोम जाति के थे|नाभादास ने अपने ‘भक्तमाल’ में निर्गुण-सगुण,ब्राह्मण-शूद्र,हिन्दू-मुसलमान सभी भक्त कवियों पर समान आदर के साथ आलोचनात्मक टिप्पणियाँ  लिखीं |तेलगु भक्ति कविता में स्त्री भक्त मोल्ला  का विशेष स्थान है,जिसका समय सोलहवीं सदी है|उनकी लिखी ‘मोल्ला रामायण’ तेलगु भाषा का अत्यंत प्रसिद्ध ग्रन्थ है|मोल्ला स्त्री तो थीं  ही,वे अति पिछड़ी कुम्हार जाति की भी थीं| भारतीय भक्ति साहित्य की छानबीन करने पर और भी उदाहरण मिल जाएँगे|उक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि मुक्तिबोध निर्गुण-सगुण का जो सपाट जातीय आधार बनाते हैं,वह वैसा है नहीं|दोनों धाराओं में सभी जातियों के कवि मिल जाएँगे|और यदि मान लिया जाए कि रामभक्ति शाखा में एक भी दलित कवि नहीं हुआ तो भी इस कारण क्या इसकी कोई सकरात्मक भूमिका थी ही नहीं?मैनेजर पाण्डेय ने इस मुद्दे पर ठीक ही प्रश्न उठाया कि प्रगतिशील आन्दोलन में भी कोई दलित लेखक नहीं था,ज्यादातर ऊँची जातियों के लोग थे,तो क्या उसकी भूमिका समाप्त हो गई?निर्गुण-सगुण विवाद में जाति और वंश वाले मुक्तिबोध के तर्क के  साथ ही नामवर सिंह के भी  तर्क को मैनेजर पाण्डेय ने ठीक ही ‘विचित्र’ कहा है और उसे ‘फूहड़ समाजशास्त्र’ की कोटि में रखा है|सूर की जाति निरपेक्षता,मीरा की विद्रोही चेतना और तुलसीदास के गहन आत्मसंघर्ष की अनदेखी करके सबको उच्चजातीय मान लेने की प्रवृति की आलोचना करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है : ‘...सगुण भक्तों को उच्चवंशी और उच्चजातीय वर्गों के प्रभुत्व का पोषक कहना सूर की प्रेम-भावना,मीरा की विद्रोही चेतना और तुलसी के आत्मसंघर्ष का अपमान करना है|”4
मुक्तिबोध का यह लेख अंतर्विरोधपूर्ण है|एक तरफ़ वे कहते हैं कि किसी भी युग के सांस्कृतिक इतिहास को जानने के लिए जरुरी है कि उस युग की मूल गतिमान सामाजिक शक्तियों का ठीक-ठीक पता हो|दूसरी तरफ वे कहते हैं कि निर्गुण मत के विरुद्ध सगुण मत का संघर्ष निम्न वर्गों के विरुद्ध उच्चवंशीय संस्कारशील अभिरुचियों का संघर्ष था| ‘मूल गतिमान सामाजिक शक्तियों’ के ज्ञान का अर्थ है,उस काल में हो रहे सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों का ज्ञान|इसके अभाव में सांस्कृतिक इतिहास को ठीक-ठीक जानना मुश्किल है|यह बात मुक्तिबोध भी जानते हैं कि ‘आवश्यक सामग्री का बड़ा अभाव है|’फिर भी वे निर्णयात्मक स्थापना देते हैं और निर्गुण भक्ति धारा को पिछड़ी जाति से और सगुण भक्तिधारा से अगड़ी  जाति को आत्यंतिक रूप से जोड़कर कर देखते हैं|भक्ति की भावधारा का इतना सरल बंटवारा उसके वैविध्य और जटिल स्वरुप को न समझने का परिणाम है |इस तरह के विभाजन से जो निष्कर्ष निकलेंगे वे इसी तरह स्याह-सफ़ेद रेखाओं वाले होंगे |जो ‘मूल गतिमान सामाजिक शक्तियां’ निर्गुण भक्ति के उभ्युदय में सहायक थीं,तुलसीदास के काल में क्या वे निष्क्रिय हो चुकी थीं?जिस रामानंद को निर्गुणपंथी कबीर,रैदास आदि का गुरु और उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन का सूत्रधार माना जाता है,वे क्या सगुण भक्ति के विरोधी थे? ‘आरती कीजै हनुमान लला की...’ जैसी कविता से उनकी सगुण भक्ति का भी प्रमाण मिलता है |भक्ति आन्दोलन की भावधारा और उसके भीतर का सच क्या परस्पर विरोधी विचारधारा की तरह संचालित है?क्या  निर्गुण मत का एकमात्र लक्ष्य जाति व्यवस्था का खात्मा था?मुझे लगता है कि कई लक्ष्यों में से एक लक्ष्य यह भी था|यदि था भी तो प्रश्न है कि तब निर्गुणपंथी संतों के सैकड़ों सम्प्रदाय क्यों बने?सम्प्रदायों का आधिक्य क्या निर्गुणपंथी भक्तिधारा के भीतर सक्रिय व्यक्तिवाद का द्योतक नहीं है?यदि निर्गुणपंथ का लक्ष्य जाति व्यवस्था की समाप्ति है तो काशी में रहते हुए कबीर और रैदास के संप्रदाय अलग-अलग क्यों हैं?इतिहासकारों ने सम्प्रदायों की अधिकता को उसके उद्देश्य में बाधक माना है |इतिहासकार हरबंस मुखिया ने दादू दयाल का विशेष अध्ययन करते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि निर्गुण पंथी संतों के पास मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं था|उन्होंने दादू के एक पद का उदाहरण दिया है|उस पद में ईश्वर के दरबार की जो झांकी दिखाई गई है ,प्रो.मुखिया के अनुसार,वह मुग़ल बादशाहों के दरबार से मिलती-जुलती है|प्रो.मुखिया का कहना है कि सामाजिक राजनीतिक परिवर्तन का कोई विकल्प इन संतों के पास नहीं है,वे ख़राब राजा की जगह अच्छे राजा की कामना करते हैं|6 कहा जा सकता है कि  सम्प्रदायों में बंटे और निश्चित विकल्प से रहित संतों के पास नए सामाजिक-राजनीतिक बदलाव के लिए जरुरी संकल्प और संगठन का अभाव था|ऐसी स्थिति में मुक्तिबोध के निष्कर्ष कितने सही हैं?
सगुण भक्ति का आधार मठ-मंदिर थे|मठों-मंदिरों के विकल्प के रूप में निर्गुण पंथियों ने अपने-अपने मठ-मंदिर बनाए |इससे सगुण ईश्वर पूजा के केन्द्र मठ-मंदिरों  को कोई चुनौती नहीं मिली|चुनौती मिलती भी कैसे ?जितने निर्गुण पंथी संत थे सबके अपने-अपने संप्रदाय थे|हाँ, इन सम्प्रदायों ने सगुण भक्ति के आधार केन्द्रों को कोई चुनौती तो नहीं दी ,लेकिन अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में जनता को धार्मिक-आध्यात्मिक विकल्प ज़रूर दिए|इन विकल्पों का पैदा होना ही उस युग में बड़ी बात थी|उन लोगों को-  जिनका कोई ईश्वर नहीं था,कोई पूजास्थल, कोई धर्म ग्रन्थ नहीं था- ईश्वर भी मिला ,अपना पूजा गृह भी मिला और अपनी गुरुवाणी भी मिली |गुरुवाणी का अर्थ था-अपना धर्मग्रन्थ|निर्गुण भक्ति ने इतना किया कि निम्न श्रेणी की जनता को धार्मिक-अध्यात्मिक विकल्प दिए|उस ज़माने में इतना भी काफी था|सामाजिक-राजनितिक परिवर्तन के लिए जिस संगठन और नेतृत्व की दरकार होती है,उसका एक सिरे से अभाव था|कबीर द्वारा की गई धार्मिक-सामाजिक –आलोचना से विभेदकारी समाज-व्यवस्था के प्रति उनका आक्रोश तो झलकता है,उससे काशी में ही ,जो उनकी कर्मभूमि-जन्मभूमि दोनों है,जाति व्यवस्था के सामने कोई चुनौती उपस्थित हो गयी हो इसका प्रमाण नहीं मिलता|भेदभाव से भरी समाज व्यवस्था की वे आलोचना करते हैं और अपने लिए ‘स्पेस’ बनाते हैं|ऐसा ही ‘स्पेस’ अन्य निर्गुणपंथी संत अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में बनाते हैं|निर्गुण पंथ के जरिए धार्मिक सत्ता के सैकड़ों केंद्र विकसित हुए और उसके जनतान्त्रीकरण की प्रक्रिया तेज हुई|इस तरह बहु वैकल्पिक धार्मिक समाज की रचना हुई,जिसमें सभी वर्गों,जातियों सम्प्रदायों के लिए धार्मिक अवकाश की पूर्ण स्वतंत्रता थी |इससे कोई प्रत्यक्ष चुनौती सगुण भक्ति के केंद्र यानी मठ-मंदिरों को नहीं मिली|वे अपनी जगह बने रहे |
मुक्तिबोध ने रामचंद्र शुक्ल की ‘पुराण मतवादी’ के रूप में आलोचना की है|क्या वे ‘पुराण मतवादी चेतना’ के आलोचक हैं और अपनी इस चेतना के तहत वे कबीर और निर्गुण पंथ को कोसते हैं?पुराणवादी चेतना का कहने का अर्थ है,उन्हें ब्राह्मणवादी कहना जो आजकल फैशन में है|क्या शुक्ल जी ब्राह्मणवाद के समर्थक हैं ?ब्राह्मण जाति में पैदा होना एक बात है और ब्राह्मणवादी  होना दूसरी बात|आज ब्राह्मण होने मात्र से बहुतेरे लोगों को आलोचनात्मक प्रहार झेलना पड़ता है |बहरहाल,क्या रामचंद्र शुक्ल ब्राह्मणवादी थे?ब्राह्मणवाद भारत की वर्चस्वशाली चिंतन परंपरा है,जिसके चार मुख्य आधार हैं- 1.वर्ण व्यवस्था ,2.पुनर्जन्म,3-अवतारवाद और 4-कर्मकांड |जो व्यक्ति इन चार व्यवस्थाओं में कमोबेश विश्वास करता है ,वह ब्राह्मणवादी कहलायेगा,चाहे वह जिस जाति में पैदा हुआ हो|रामचंद्र शुक्ल के साहित्य से उनके ब्राह्मणवादी होने के प्रमाण नहीं मिलते|1924 ई. के लगभग का उनका एक लेख है-‘जाति व्यवस्था’,जिसमें जाति-प्रथा की कड़ी आलोचना है |भारतीय रक्तवर्ण में मिलावट है,वह शुद्ध नहीं है,शुक्ल जी यह बात हजारी प्रसाद द्विवेदी से पहले कह गए हैं|जाति-प्रथा की जिन शब्दों में उन्होंने व्यर्थता बतलाई है,उसे देखिए- “जाति संस्था ने प्रजाति की शुद्धता को सुरक्षित रखने का असफल प्रयत्न किया है|इतिहास का हर छात्र जानता है कि भारतीय रक्त शक,यवन,यूची,हूण,मंगोल,आर्य,तथा द्रविण रक्तों का मिश्रण है|जाति व्यवस्था के विरुद्ध सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि इसने मनुष्य का स्तरों और श्रेणियों में रूढ़ विभाजन कर दिया है|...कुलीन और ऊपर से दैवीय कहे जाने वाले ब्राह्मण अन्य सबको हेय दृष्टि से देखते हैं|क्रमशः प्रत्येक जाति अपने से नीची जाति को तुच्छ समझती है|इस तरह हम हतभाग्य अस्पृश्यों और वर्गहीन जाति बहिस्कृतों के विशाल जन समूह तक नीचे उतरते हैं|इस प्रकार जाति व्यवस्था हार्दिक सहयोग या प्रतिक्रिया,प्रेम ,विश्वास,पारस्परिक प्रभाव या आचरण की स्वतंत्रता के अवरोध का कारण बनती है|” 7 जाति व्यवस्था को भारतीय संस्कृति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा मानते हुए आगे शुक्ल जी आगे लिखते हैं –‘...जाति व्यवस्था ने वर्गीय भावना और वर्गीय अहम् का पोषण किया है,इसे यदि समाप्त नहीं किया गया तो भारतीय संस्कृति और शिष्टता,राष्ट्रभक्ति और देशभक्ति की मृत्यु निश्चित है|” 8 शुक्ल जी जिस शिक्षित भारतीय मध्यवर्ग के व्यक्ति थे,वह भारतीय नवजागरण और स्वंत्रता आन्दोलन की चेतना से संचालित मध्यवर्ग था|आधुनिक शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान ने इसके मानस को झकझोर कर बदल दिया था|वह अपने गाँव,मुहल्ले और नगर तक सीमित कुंए का मेढ़क नहीं था|आधुनिक संचार माध्यमों के जरिए वह दुनिया की अच्छाइयों  के आलोक में अपनी बुराइयों को देखने लगा था|ब्राह्मणवाद पर हमला करते हुए शुक्ल जी ने लिखा है-“जाति पूर्वी सभ्यता की देन है |विश्व में और कहीं भी इसका अस्तित्व नहीं है|मानवता का (यह) रूढ़ विभाजन स्वार्थी पंडितों द्वारा छद्म धर्म में जोड़ा गया पृष्ठ भाग हैं|वे निर्धन पद दलितों की कीमत पर खुद को समृद्ध करते हैं,आनंद लेते हैं और अज्ञानी जन समूह की सामान्य भ्रांतियों को बढ़ाते हैं|”उस काल के आधुनिक और शिक्षित व्यक्ति के लिए जाति व्यवस्था क्या अर्थ रखती है,यह बताते हुए शुक्ल जी ने आगे लिखा है :-‘जाति व्यवस्था ने अब हम लोगों में से प्रबुद्ध,सुसंस्कृत या सत्यतः शिक्षित व्यक्तियों को आकर्षित करना छोड़ दिया है|ऐसे व्यक्ति अब दूसरी निंदा करते हैं –कुछ प्रकट रूप में स्पष्ट शब्दों में,कुछ संयमित भाषा में और कुछ मात्र ह्रदय में |रामायण काल से ही भारतीय समाज की प्रगति में निर्दयी जाति या वर्ण (व्यवस्था)सबसे बड़ी बाधा रही है|जब तक इस अप्राकृतिक व्यवस्था का चलन है तब तक समाज अभिशप्त  है और उसके साथ हम सब भी|” 9 इसके बाद भी रामचंद्र शुक्ल को वर्ण व्यवस्थावादी  कहने की कोई गुंजाईश बनती है?
जाति की ही तरह धर्म के बारे में भी रामचंद्र शुक्ल का मत जान लेना चाहिए |संसार में जो धर्म प्रचलित हैं,उनसे शुक्ल जी सहमत नहीं लगते|वैज्ञानिक और तकनीकी विकास ने संसार को देखने और इसकी व्याख्या की दिशा बदल दी है|एक तरफ धार्मिक रुढ़िवादियों-यथास्थितिवादियों का समाज है तो दूसरी तरफ विकास की नई रोशनी का स्वागत करने वाला नए लोगों का नया समाज|स्वाभाविक रूप से रूढ़िवादियों की आलोचना उन लोगों को सहनी पड़ती है जो नए विश्व के लिए नए धर्म का सपना देखते हैं|शुक्ल जी नए धर्म का सपना देखने वालों के साथ हैं|उस ज़माने में यथास्थितिवादियों और परिवर्तनवादियों के बीच जो संघर्ष था,उसमें शामिल होते हुए शुक्ल जी ने 1924 ई. में एक लेख लिखा,जिसका शीर्षक है: ‘ सभ्य संसार का भावी धर्म’ |पुराने धर्म के ध्वजवाहकों और सभ्य संसार का भावी धर्म’ के ध्वजवाहकों के बीच अंतर करते हुए और उन पर टिप्पणी करते हुए शुक्ल जी ने अपने उस लेख में लिखा है : ‘...जिनका विश्वास है कि मानव-स्वभाव में मानवीय दुर्बलताओं के साथ साथ मानवोचित उन्नतिशिलता  भी मौजूद है और तमाम कठिनाइयों के होते हुए भी कभी- न कभी मनुष्य उन पर विजय प्राप्त करेगा ही|ऐसे लोगों में इस समय इस बात की खास तलाश है कि इस वर्तमान अस्त-व्यस्त अवस्था का अंत कैसे होगा|इन तमाम घटनाओं का रुख किस ओर है |इन्हीं लोगों का एक दल यह समझता है कि इस व्यापक विप्लव का प्रभाव संसार के धार्मिक जीवन पर भी पड़ेगा और उसमें एक गहरा परिवर्तन होगा |उनका ख्याल है कि जहां संसार में,लोगों में विरोधी दलों के प्रति अविश्वास बढ़ता जाता है,वहाँ साथ ही संसार की वर्तमान अवस्था का एक लक्षण यह भी है कि संसार भर के सभी देशों की दलित जातियों में एक प्रकार की पारस्परिक सहानुभूति भी है|मजदूर,अराजकतावादी,स्त्रियाँ,स्काउट्स,काली जातियां-सभी अपने संगठनों का अन्तर्जातीय रूप देना चाहती हैं भौगोलिक हद्दों की अवहेलना करके पारस्परिक सहयोग करने के लिए तैय्यार हैं| ‘संघे शक्ति कलियुगे’ के सिद्धांत को लोग चरितार्थ करके दिखा रहे हैं |रेल,तार,छापेखाने और अख़बारों ने दुनिया को इतना तंग और सन्निकट कर दिया है कि एक दूसरे के आदर्शों को अब थोड़ी-सी चेष्टा करने पर सहज ही समझ सकते हैं|”10 नए संसार का सपना देखनेवालों को शुक्ल जी आशावादी कहते हैं|वे आशावादियों का जोरदार पक्ष लेते हैं और लिखते  हैं :-“इन सभी बातों को वे आशावादी निरीक्षक संसार के धार्मिक जीवन के लिए शुभ लक्षण समझते हैं|यद्यपि वे इस बात से भी अपरिचित नहीं हैं कि इन सब बातों के होते हुए भी संसार के वर्त्तमान संगठित धर्म के अधिकारी,चाहे वे ईसाई पादरी हों अथवा हिन्दू पंडित,मुसलमान मुल्ला या बौद्ध भिक्षु,अपने पुराने ढंग पर ही चले जाते हैं,नई आकांक्षाओं और नए उत्साह से लाभ नहीं उठाते,और उन्नतशील उदार व्यक्तियों को उच्छृंखल कहकर अपने-अपने मंडल से निकालने पर उद्यत हो जाते हैं|पुरोहितों,पुजारियों और पंडितों की इस अदूरदर्शिता पर खेद प्रकट करते हुए भी आशावादी घबराते नहीं,बल्कि इसे भी परिवर्तन का एक प्रामाणिक लक्षण ही समझते हैं,क्योंकि वे कहते हैं कि धार्मिक संस्थाओं की यह कट्टरता भी इस बात की सूचना देती है कि एक धार्मिक युग का अंत हो रहा है और दूसरे का आरम्भ |” 11
किंचित लम्बा उद्धरण  देने का उद्देश्य यहाँ यह है कि शुक्ल जी के धर्म सम्बन्धी विचारों को उनके ही शब्दों में देखा जाए |शुक्ल जी जिस भावी धर्म की कल्पना करते हैं,वह ऐसा विश्वधर्म है,जो विज्ञान सम्मत है और भेदभाव से रहित है|शुक्ल जी के सपनों का जो सभ्य संसार है उसमें मजदूरों,काली जातियों,स्त्रियों आदि की चिंता है|अपने भावी धर्म की रूपरेखा स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं :-“जिस तरह बौद्ध और ईसाई धर्म ने अपने समय की वंश-प्रतिष्ठा के भीषण स्वरुप का प्रबल विरोध करके सभी को धार्मिक अधिकार दिया था उसी तरह भावी धर्म रंग और राष्ट्र के अभिमान का विरोधी होगा|न केवल पड़ोसी और पीड़ित को प्यार करने की यह शिक्षा देगा बल्कि परदेशी और परतंत्रों के प्रति अनुराग पैदा कराएगा |यह सन्देश किसी जाति अथवा देश में सन्निहित न होकर वर्तमानकालिक रेल,तार और वायुयान के सहारे-संसार व्यापी होगा |इसमें ईश्वरोपासना को एक नया स्वरुप दिया जाएगा जिसके अनुसार ईश्वरभक्त लोग मानवजाति के ही रूप में भगवान् को प्यार करना सीखेंगे |सेवा-धर्म की महिमा बढ़ेगी और बच्चों की शिक्षा और पालन पर अधिक जोर दिया जाएगा|राजभक्ति एक नया रूप धारण करेगी जिसके अनुसार लोग ‘राजा’ की भक्ति से ‘राज्य’ की भक्ति को अधिक महत्व देंगे|भिन्न-भिन्न प्रचलित धर्म नष्ट न होकर अधिक उदार हो जाएगा और इन धर्मों के नाम और रूप की रक्षा करते हुए भी लोग इस नए विश्व प्रेमी धर्म की दीक्षा लेंगे|”12 इसके  बाद भी शुक्ल जी को यदि कोई साम्प्रदायिक और ब्राह्मणवादी कहता है तो उसकी मंशा संदेह से परे नहीं मानी जायेगी|शुक्ल जी न तो कम्युनिस्ट हैं और न आत्यंतिक रूप से नास्तिक,इसके बावजूद वे विश्व के लिए जिस भावी धर्म का सपना देखते है वह विज्ञान सम्मत समतामूलक मानवीय गरिमा से पूर्ण विश्व का है|ऐसे व्यक्ति की चेतना को हिन्दू ‘पुराण मतवाद’ तक सीमित करने वाली एक संकीर्ण  परिपाटी प्रगतिशील आन्दोलन में  रही है,जिसके उदाहरण रांगेय राघव के भक्ति साहित्य विषयक लेखन में तो हैं  ही,मुक्तिबोध के इस लेख में भी हैं|
मुक्तिबोध  जब उच्चवंशीय जातियां कहते हैं तो उनका आशय सवर्ण जातियों से हैं , जिसमें ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य आदि जातियाँ आती हैं,लेकिन जब वे उच्चवंशीय के अतिरिक्त सबको शूद्र जाति में रखते हैं,तब वे तथ्य को उलझा देते हैं|शूद्र से उनका आशय क्या है?शूद्र’ एक पुराना शब्द है,जिसके अंतर्गत आज की कौन-सी जाति है और कौन-सी जाति नहीं,कहना मुश्किल है |सवर्ण जातियों के अतिरिक्त पिछड़ा वर्ग और दलित वर्ग की सैकड़ों जातियां हैं जिनके अपने अंतर्विरोध हैं|पिछड़े और दलित एक नहीं हैं|दलितों की दुर्दशा में जितनी भूमिका सवर्ण जातियों की है,उससे कम पिछड़ी जातियों –जिसे अब अन्य पिछड़ा वर्ग कहा जाता है-की नहीं है|सवर्ण जातियों द्वारा श्रेणीक्रम में नीचे माने जाने की पिछड़ों को शिकायत रही है,जो वाजिब है,लेकिन यही पिछड़ी जातियां दलितों के साथ वही व्यवहार करती रही हैं|कौन नहीं जानता की शक्ति पाते ही इन पिछड़ी जातियों ने भी दलितों पर अत्याचार की सारी हदें तोड़ दी है|1977 में बिहार में घटित ‘बेलछी काण्ड’ अभी पुराना नहीं पड़ा|बिहार में दलित दहन की यह पहली घटना थी,जिसे अंजाम देने का आरोप एक समृद्ध दबंग पिछड़ी जाति पर लगा  था |तब बिहार के मुख्यमंत्री पिछड़ी जाति के समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर थे|पिछड़ों के  आरक्षण की वकालत करने वाले राममनोहर लोहिया को इसकी आशंका थी कि राजशक्ति पाते ही पिछड़ों में जो दबंग जातियां हैं उनका व्यवहार बदल जाएगा|लोहिया ने लिखा है “नीची जातिवाला जब उठता है तो वह ऊँची जातिवाले की नक़ल करके उन्हीं के जैसा बनना चाहता है|”13 इसलिए लोहिया उस मन को बदलना चाहते थे जिसमें ऊंच-नीच का भेद भरा है| लेकिन मुक्तिबोध शूद्र के भीतर आनेवाली सैकड़ों जातियों के भीतर के अंतर्विरोधों की अनदेखी करते हैं और सवर्ण और शूद्र का सपाट बंटवारा करते हैं |जिस शिवाजी में वे गैर सवर्ण चेतना देखते हैं,उसी शिवाजी का इस्तेमाल शिवसेना और भाजपा जैसी पार्टियां मजे में कर रही हैं |भारतीय जाति व्यवस्था की जटिलता और भक्ति आन्दोलन के वैविध्य-विस्तार को पूरी समग्रता में न देखे जाने पर जैसे इकहरे निष्कर्ष सामने आएँगे,मुक्तिबोध का यह लेख उसका श्रेष्ठ उदाहरण है|
सगुण भक्ति और तुलसीदास का समर्थन रामचंद्र शुक्ल क्यों करते हैं ?इसलिए कि निर्गुण पंथ और कबीर में उन्हें रहस्यवाद और योग आदि की उपस्थिति दिखती है|रहस्यवाद उनकी दृष्टि में लोकमंगलकारी नहीं है,विज्ञान सम्मत भी नहीं है|उन्हें लोकमंगलकारी लगती है सगुण भक्ति,उसमें भी तुलसी की भक्ति|लेकिन तुलसी में जहां नारी निंदा है,वर्ण व्यवस्था का समर्थन है,वह उनके आधुनिक मन के अनुकूल नहीं है |ऐसी स्थिति में वे मासूम-सा तर्क देते हैं कि तुलसीदास साधु-महात्मा थे,और साधु-महात्माओं की बात का बुरा नहीं मानना चाहिए|रामविलास शर्मा तुलसी के साहित्य को सामंत विरोधी मूल्य और किसान चेतना की कसौटी पर खरा पाते हैं,पर वर्ण व्यवस्था और स्त्री प्रसंग उन्हें क्षेपक और तुलसी विरोधियों की करतूत प्रतीत होते  हैं|इन दोनों समर्थ आलोचकों की ऐसी दलीलों से तुलसीदास की रक्षा संभव नहीं है|वे बड़े कवि हैं तो इन सबके बावजूद हैं|इसी तरह कबीर भी महान हैं तो इंगला-पिंगला और नारी-निंदा के बावजूद महान हैं|इन सबसे आँख मूंदकर कबीर को आधुनिक घोषित करने का मुक्तिबोध का प्रयास स्वस्थ और संतुलित आलोचना का लक्षण नहीं है |मुक्तिबोध निर्गुण भक्ति को जनवादी और सगुण भक्ति को गैर जनवादी की कोटि में जिस सरलता से रखते हैं,वैसा है नहीं|भक्ति आन्दोलन और साहित्य का अखिल भारतीय विस्तार-वैविध्य इसकी छूट भी नहीं देता|असम के शंकरदेव तो कृष्णभक्त हैं,पर उनके यहाँ योग आदि निर्गुण भक्ति साधना की बहुत सी बातें मिलती हैं|शुक्ल जी का विश्वास किसी धार्मिक कर्मकांड में नहीं है,न वे किसी धार्मिक पाखण्ड के समर्थक हैं|वे राम के चरित्र को अवतार के कारण नहीं महत्व देते|वे राम में कर्म का सौन्दर्य देखते हैं|तब वे किस अर्थ में ब्राह्मणवादी हैं ?इसका कोई माकूल जवाब न तो मुक्तिबोध के उक्त लेख में मिलता है और न शुक्ल जी को ब्राह्मणवादी कहने वाले अन्य लेखकों के लेखन में|
भक्ति साहित्य को लेकर प्रगतिशील आन्दोलन के प्रारंभ में एक सिरे से नकार का भाव था|प्रगतिशील आन्दोलन के अनुसार वह जीवन की वास्तविकताओं से पलायन का साहित्य था|बाद में प्रगतिशीलों के बीच दो तरह के लेखक आये|रामविलास शर्मा ने सगुण भक्ति और तुलसीदास पर अधिक जोर दिया और सामंत विरोधी चेतना का नया पक्ष तैयार किया,जिसमें आधुनिकता के तत्व भरे पड़े हैं|शुक्ल जी की तरह रामविलास जी ने निर्गुण पंथ और निर्गुणियों की निंदा तो नहीं की,पर अधिक जोर उनका सगुण भक्ति पर अंत-अंत तक बना रहा|दूसरी तरफ प्रगतिशील चेतना वाले रांगेय राघव और मुक्तिबोध थे|इनके लिए सगुण भक्ति और तुलसीदास ब्राह्मणवाद के कट्टर पोषक थे|वे निर्गुण भक्ति को प्रगतिशील और आधुनिक मानते रहे|निर्गुण भक्ति को प्रगतिशील और आधुनिक मानने के इस अभियान को दलितों-पिछड़ों ने जोर शोर से आगे बढाया|आज दलित विमर्श के भीतर कबीर समर्थन और तुलसी विरोध की जो अतिरेकी गर्जना है,उसका उत्स मुक्तिबोध का यह लेख है |
निश्चित रूप से कबीर ने जाति-पांति,मंदिर-मस्जिद,वेद-कुरान,पंडित-मौलवी और धार्मिक कर्मकांड की आलोचना की है|निश्चित रूप से तुलसी ने निर्गुण भक्ति की तीखी भर्त्सना की है|लेकिन यह इनके काव्य संसार का एक पक्ष है|यह केन्द्रीय भाव नहीं है|केन्द्रीय भाव वहाँ है,जहाँ इनका मन रमता है|इनके काव्य का केन्द्रीय भाव है –मानव पीड़ा का संज्ञान जो सर्वोपरि है|कबीर कहते हैं: ‘कबीरा सोई पीर है जो जाने पर पीर’| तुलसी कहते है: ‘परहित सरिस धरम नहीं भाई,पर पीड़ा सम नहीं अधमाई|’न सिर्फ कबीर-तुलसी के काव्य में,बल्कि समूचे भक्ति साहित्य में यही ‘पीर’ केन्द्रीय भाव है|भक्ति काव्य यदि महान है तो इस कारण की वह मानव जाति की अथाह पीड़ा का आत्मीय इतिहास है|वह निर्गुण-सगुण विवाद के कारण महान नहीं है|जिनकी आँखें इस विवाद को ही देखने में थक जाती हैं,वे पीड़ा के अथाह सागर में नहीं उतर पाते|इस निर्गुण-सगुण विवाद के बावजूद भक्त कवियों के कुछ सामान्य विश्वास हैं,जिनकी चर्चा हजारी प्रसाद द्विवेदी ने की है|14 उनमें अलगाव के जितने सूत्र हैं,उससे कई गुना मानव जाति की एकता के सूत्र हैं|हिंदी आलोचना का दुर्भाग्य यह है कि वह एकता के सूत्र पर कम अलगाव पर ज्यादा ध्यान देती रही है,जिसका एक मुख्य आधार मुक्तिबोध का भक्ति काव्य विषयक उक्त लेख भी है|
हिंदी में निर्गुण-सगुण विवाद पर ज़रूरत से अधिक जोर दिया गया|तिल को ताड़ बनाना इसी को कहते हैं|निर्गुण-सगुण विवाद के बावजूद भक्ति की भावधारा की दिशा एक है|वह दिशा है ऐसी सामजिक-धार्मिक व्यवस्था की,जिसमें सबकी समाही है|निर्गुण-सगुण अलग हैं,लेकिन उनमें एकता के सूत्र भी हैं,जो ज्यादा महत्व के हैं|लोहिया ने निर्गुण-सगुण के द्वंद्व पर विचार किया और लिखा है : “...निर्गुण संपूर्ण आदर्श है,एक हवा,एक भीनी किन्तु सर्वव्यापी महक,एक सपना जो बहुत जल्दी टूट भी सकता है,लेकिन जिसमें यह भी ताकत है कि दुनिया को पलट दे और सगुण है एक ठोस तथा पकड़ में आने वाली चीज,एक इंतजाम,घटना या रस उभाड़ने वाली प्रक्रिया,खून में प्रेम या गुस्से की गर्मी लाने वाला किस्सा,लेकिन ऐसा भी जो आदमी को तेली के बैल की तरह एक बंधी हुयी लीक पर चला दे |निर्गुण है आदर्श या सपना,सगुण है उसके अनुरूप मनुष्य या घटना|दोनों अलग हैं|दोनों को अलग रहना चाहिए|किन्तु दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं और एक दूसरे के साथ सब कोर जुड़े हुए हैं|दिमाग में दोनों के खाने अलग-अलग रहना चाहिए,लेकिन दोनों में निरंतर आवागमन होना चाहिए|किसी भी सिद्धांत को गेंद की तरह सगुण और निर्गुण दोनों दिमागी कीतों में लगातार फेंकते रहने से ही एक सजीव आदर्श गढ़ा जाता है| पूरा अलगाव करने से पाखंड और असभ्यता की सृष्टि होती है|पूरा एकत्व कर देने से क्रूरता या बेमतलब दौड़ की सृष्टि होती है|सिर्फ सगुण में ही फंस जाने से आदमी दकियानूसी हो जाता है |सगुण को पूरी तरह निर्गुण ही मान लेने से आदमी के क्रूर होने की सम्भावना है|”15   


सन्दर्भ और टिप्पणी :
1-राममनोहर लोहिया रचनावली,भाग-8 (सं.-मस्तराम कपूर) में संकलित ‘रामायण मेला’ शीर्षक टिप्पणी से उद्धृत,पृ.-88,प्रकाशक-अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड,नई दिल्ली-2,संस्करण-2013
2-वही ,पृ.-95
3-मेरी कहानी,पृष्ठ:76,संस्करण 2011,सस्ता साहित्य मंडल,नई दिल्ली-11
4-संकलित निबंध,पृष्ठ-29,प्र.-नेशनल बुक ट्रस्ट,नई दिल्ली-70,पहला संस्करण 2008
5-वही
6-हरबंस मुखिया की पुस्तक ‘मध्यकालीन भारत:नए आयाम’ (राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली-2) में ‘भक्ति आन्दोलन की विचारधारा :दादू दयाल का दृष्टान्त’ शीर्षक लेख को इस क्रम में देखा जा सकता है|
7-आ.रा.शु. ग्रंथावली,खंड-4,सं.-ओमप्रकाश सिंह,प्रकाशन संस्थान,नई दिल्ली-2 ,प्रथम संस्करण,पृष्ठ-203
8-वही, पृष्ठ- 203
9-वही,पृष्ठ-204
10-वही,पृष्ठ-193
11-वही,पृष्ठ-194
12-वही,पृष्ठ-196
13-राममनोहर लोहिया रचनावली ,खंड-2 ,पृष्ठ-210
14-‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ नामक पुस्तक में ‘मध्य युग के संतों का सामान्य विश्वास’ शीर्षक अध्याय को इस प्रसंग में देखा जा सकता है|इस अध्याय में निर्गुण और सगुण भक्त कवियों के कुछ सामान्य विश्वासों की चर्चा की गयी है ,इन सामान्य विश्वासों को द्विवेदी जी ने इस क्रम में रखा है-(1) मोक्ष नहीं प्रेम सबसे बड़ा पुरुषार्थ है|(2) भगवान् के प्रति प्रेम ही सब कुछ है|(3) भक्त भगवान् से बड़ा है| (4)शास्त्र ज्ञान और पांडित्य भक्ति के अभाव में व्यर्थ हैं| (5) भगवान् के रूप से उसके  नाम का महात्म्य अधिक है आदि |

15-राममनोहर लोहिया रचनावली ,खंड-4,पृष्ठ-25 

Monday, 25 January 2016

गीत को देश -निकाला

 एक प्रश्न आजकल मुझे अक्सर परेशान करता है कि क्या हिंदी कविता एक लुप्त होती हुई विधा है ? इसका कारण यह है कि अभी जो कविता लिखी जा रही है, उसके पाठक नहीं हैं, जो हैं वे अपवाद स्वरुप हैं | कभी-कभी लगता है कि हिंदी में कवि अधिक हैं और पाठक कम | कवि लिखते हैं, कवि पढ़ते हैं या वे लोग पढ़ते हैं जो साहित्य पढ़ने-पढ़ाने का धंधा करते हैं | समकालीन हिंदी कविता के पास अब प्रायः वैसे पाठक नहीं हैं, कविता जिनका धंधा न हो, फिर भी कविता के आत्मिक सुख के लिए पढ़ते हैं | हिंदी में बड़ी मात्रा में कविता रची जा रही है, लेकिन छोटी मात्रा में भी उसकी खपत हिंदी समाज में दिखाई नहीं पड़ती | ख़राब कविता कि बात जाने दीजिए, हिंदी में खूब बारीक, खूब जटिल, खूब कलात्मक कविताएँ लिखने वाले कवियों के पास भी नाम मात्र के पाठक हैं | मुख्य धारा के नाम पर जो कविताएँ लिखी जा रही हैं, छप रही हैं और प्रशंसित-पुरस्कृत हो रही हैं, वे सब हिंदी पाठक की समझ से परे हैं | ऐसी स्थिति में क्या यह ठहरकर सोचने का समय नहीं आ गया है कि हिंदी कविता कि इस दशा के जिम्मेदार  कारणों पर विचार किया जाए ? मैं तो उस दिन कि कल्पना नहीं कर सकता जिस दिन हमारे साहित्य में कविता नामक विधा नहीं होगी |
वैसे तो हिंदी समाज में साहित्य मात्र के पाठक कम हैं | जितना बड़ा हिंदी क्षेत्र है, उसकी तुलना में पाठक वर्ग बहुत छोटा है | इसके सामाजिक, आर्थिक और साहित्यिक कारणों पर विचार होना चाहिए | लेकिन हिंदी साहित्य की जिस विधा के लिए सबसे पहले और सबसे अधिक चिंतित होने की जरुरत है वह कविता ही है | कविता मैं जब कह रहा हूँ तो उसका अर्थ तुकांत-अतुकांत सबसे है यानी सभी काव्यरूपों से | लेकिन अतुकांत कविता के अलावा तुकांत काव्यरूपों के लिए हिंदी कविता की तथाकथित मुख्यधारा में कोई जगह नहीं है | तुकांत काव्यरूपों में पहला स्थान गीत का है और दूसरा गजल का | हिंदी कविता ने प्रयोगवाद के साथ और उसके बाद जिस काव्यरूप को अवहेलित, उपेक्षित किया, वह गीत ही था | नई कविता के दौरान यह भाव और तीव्र हुआ | क्या प्रगतिशील और क्या गैर प्रगतिशील, सबने गीत को हिंदी कविता के देश से निकाला दे दिया | विजयदेव नारायण साही, नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी आदि ने ऐसे काव्य-निकष बनाए और ऐसी कविताओं कि पोथी ठोकी कि गीत लिखना दोयम दर्जे का कवि कर्म लगने लगा |गजल उर्दू का लोकप्रिय काव्य रूप है|हिंदी कवियों ने भी इसे अपनाया|भारतेंदु,निराला,शमशेर,त्रिलोचन,जानकीवल्लभ शास्त्री आदि ने अच्छी गजलें लिखीं लेकिन गजल को हिंदी आलोचना ने कभी स्वीकृति नहीं दी|हालाँकि हिंदी में गजल लिखने वालों की एक बड़ी जमात है|हिंदी में गजलें लिखी जा रही हैं|लेकिन हिंदी गजलों को हिंदी के आलोचक कभी उद्धृत नहीं करते|इस महादेश के वैज्ञानिक विकास के लिए समर्पित एक पत्रिका ने तो लगभग घोषित कर रखा था कि उसके वहाँ गीत और गजल प्रकाशनार्थ न भेजें|इस घोषणा में गीत गजल के लिए हिकारत का भाव है|दुष्यंत कुमार की गजलें हिंदी समाज में सबसे अधिक लोकप्रिय हुईं|लोग अक्सर उनके शेर उद्धृत करते हैं|लेकिन दुष्यंत को प्रगतिशील गैर प्रगतिशील किसी खेमे में गंभीरता से नहीं लिया जाता|निष्कर्ष यह कि हिंदी में गीत-गजल की रचना तो हुई पर उसे आलोचकों का प्रमाण पत्र नहीं मिला|एक धारणा-सी बना दी गई कि गीत-गजल लिखने वाले प्रायः मेडियाकर हैं|
गीत हिंदी का अपना एक लोकप्रिय काव्यरूप है|व्यक्ति सुख-दुःख में गीत गुनगुनाता है|माना जाता है कि गीत दिल का सीधा उद्गार है|उसमें विचार कम दिल की भावनाएं अधिक व्यक्त होती हैं|हिंदी में गीत लेखन की लम्बी परंपरा रही है|भारतेंदु से लेकर प्रसाद-निराला तक|महादेवी सिर्फ गीत लिखकर छायावाद का चौथा स्तम्भ हैं|निराला ने छंद के बंधन जरूर तोड़ें पर गीतों से उनका संग साथ कभी न छूटा|यदि गंभीर पाठकों के लिए उन्होंने ‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘सरोज स्मृति’ जैसी कविताएँ लिखीं,तो सामान्य पाठक के दिल को छूने वाली ‘सरस्वती वंदना’ भी लिखी |हिंदी में गीत भावना और विचार दोनों को वहन करने वाला सशक्त काव्यरूप रहा है|
गीत हिंदी का जातीय काव्यरूप तो है ही,सबसे लोकप्रिय काव्य रूप भी रहा है|गीत एक तरह से हिंदी कविता का लोकप्रिय चेहरा रहा है|भक्तिकाल में पद के नाम से यह गीत ही था,जो सूर,तुलसी,मीरा,कबीर आदि की अमरवाणी का वाहक बना|महाकाव्य और खंडकाव्य जैसे कठिन काव्य-दुर्ग में प्रवेश की गीत भूमिका तैयार करता रहा|कविता के कठिन दुर्ग में सभी प्रवेश नहीं करते|जो प्रवेश करते हैं उनको काव्य मर्मज्ञ बनाने में गीत प्राथमिक पाठशाला का काम करते रहे हैं|जो काव्य मर्मज्ञ नहीं हैं,साधारण जन हैं ,वैसे पाठक के शुष्क ह्रदय को सरस बनाने में गीतों की सदियों से भूमिका रही है|इसलिए गीत की ताकत को आधुनिक कल के पूर्व के कवि तो जानते ही थे,आधुनिक काल के भी बड़े  कवियों ने भी इसे पहचाना|भारतेंदु,मैथिलीशरण गुप्त,प्रसाद,निराला आदि ने हिंदी गीत को अमरता दी|गीत आधुनिक हिंदी कविता की जमीन को उपजाऊ बनाने में हमेशा सहायक रहे|गीत और गीत लिखने वाले कवियों की ओर हिंदी समाज हमेशा प्रेम और सम्मान से देखता रहा|जब तक हिंदी कविता में गीत रचना होती रही और उसे प्रबुद्ध समाज का प्यार मिलता रहा,हिंदी समाज कभी कविता विमुख नहीं हुआ,और कविता एवं कवियों के प्रति जनता में आदर बना रहा|गीत के प्रति उदासीनता का सिलसिला प्रयोगवाद-नई कविता के साथ शुरू हुआ|पश्चिमी काव्य प्रतिमानों का थोड़ा प्रभाव तो छायावाद पर भी था,किन्तु प्रयोगवाद-नई कविता के साथ हिंदी कविता पश्चिमी काव्यादर्शों के सम्मुख खडी दिखाई देने लगी|क्षणवाद,व्यंग्य,विडंबना,तनाव आदि हिंदी कविता के मुख्य प्रतिमान बन गए|कविता रचना छंद से पूरी तरह मुक्त हो गई|अज्ञेय,मुक्तिबोध आदि ने भले कभी-कभार गीत लिखे हों,उनकी मुख्य अभिव्यक्ति का माध्यम गीत नहीं थे|गीत के प्रति सम्मान और गंभीरता का वह भाव जाता रहा,जो प्रयोगवाद के पूर्व था|नई कविता के बाद कविता पूरी तरह छंदमुक्त और अतुकांत हो गई|ऐसी स्थिति में गीत लिखने वाले कवियों की एक अलग जमात सामने आई|शम्भुनाथ सिंह,ठाकुर प्रसाद सिंह आदि नई कविता के सामानांतर नवगीत के गीतकार कहे जाने लगे|इस तरह कवि और गीतकार की दो श्रेणियां पहली बार हिंदी कविता में बनीं|कवि प्रथम श्रेणी के रचनाकार और गीतकार द्वितीय श्रेणी के,जैसी अघोषित धारणा विकसित होती गई|कवियों में अपने लिए श्रेष्ठता बोध और गीतकारों के लिए उपेक्षा का भाव आता गया|कवि और गीतकार का यह विभाजन हिंदी कविता और समाज के लिए शुभंकर नहीं हुआ|
कवि और गीतकार के विभाजन ने एक और काम किया|कवि सम्मेलनों में काव्यपाठ के जरिए कविता और जनता को जोड़ने का जो काम होता था,वह भी विभाजित हो गया|कवियों ने कवि सम्मेलनों में जाना एक तरह से बंद कर दिया|कवि सम्मलेन अब पूरी तरह गीतकारों के हवाले हो गया|नागार्जुन,भवानीप्रसाद मिश्र ,जानकीवल्लभ शास्त्री आदि संभवतः अतिम पीढ़ी के कवि थे,जो कवि सम्मेलनों में जाते रहे और कविताएँ सुनते-सुनाते रहे|कवि सम्मेलनों में काव्यपाठ जनता के काव्य बोध को बनाए रखने और उसे विकसित करने का एक सशक्त माध्यम था,जिसकी हिंदी की मुख्य धारा के कवियों ने उपेक्षा की|फल यह हुआ कि कवि-सम्मेलनों का मंच पूरी तरह सस्ते गीतकारों और फूहड़ हास्य कवियों के हवाले हो गया|
गीतों की रचना में बाधक बने वे काव्य निकष जो नई कविता के दौरान विकसित हुए|क्षणवाद,व्यंग्य,विडम्बना,तनाव आदि को अच्छी और श्रेष्ठ कविता की कसौटी माना गया और इन्हें ही श्रेष्ठ काव्य मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित किया गया|श्रव्यता को पुरानी कविता का गुण घोषित करके उसे पठ्य बनाने पर जोर दिया गया|अज्ञेय ने तो बाजाप्ता इस पर लिखा भी और आधुनिक कविता के लिए श्रव्यता को अच्छा गुण नहीं माना|उस दौर में प्रतिष्ठित और अत्यंत लोकप्रिय कवि दिनकर ‘रेटारिक’ के कवि कहे जाते रहे|
हिंदी कविता जब छंद से मुक्त हुई थी तो कहा गया कि लय मुख्य है|बनावट-बुनावट की लय,भाषा की लय और भाव-विचार की लय के सहारे नई कविता और उसके बाद की कविता लिखी जाती रही|इधर के वर्षों वैचारिक लय की प्रधानता बढ़ी|ऐसी कविताओं ने यथार्थ के सूक्ष्म अंकन के सुन्दर उदाहरण पेश किए,लेकिन पाठक से उसकी दूरी कम नहीं हुई,कुछ बढ़ी ही|ऐसे में प्रश्न उठता है कि उर्दू कविता क्यों गजल और नज्म के अपने जातीय रूप विधान में आधुनिक और समकालीन बनी रही|उसको सराहने वाले भी बने रहे और उसका कोई-कोई शेर हम कभी-कभार उद्धृत करते रहें|क्यों अहमद फराज समकालीन भी लगते हैं और शायरी प्रेमियों में लोकप्रिय भी हैं?हिंदी के पास कोई अहमद फराज क्यों नहीं है?
उर्दू काव्य रूपों- गजल और नज्म- की तुलना में हिंदी में अनेक काव्यरूप हैं|गीत उसका सफल और दिल को छूनेवाला शक्तिशाली काव्यरूप है|उसको तुक्कड़ कवि सम्मेलनी कवियों के भरोसे छोड़कर हिंदी कविता का भला नहीं हो सकता |सम्प्रेषनियता किसी कविता का दोष नहीं होती|व्यंग्य,विडम्बना,तनाव ही कविता के सार्वभौम और स्थायी निकष नहीं हैं|यूँ हिंदी के अच्छे गीतकारों ने इस कसौटी की अनदेखी नहीं की|रमेश रंजक के एक गीत का टुकड़ा इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य है :
अजगर के पाँव दिए जीवन को और समय को डैने,
ऐसा क्या पाप किया था मैंने |
समय  की विडम्बना यहाँ भी है|जरुरत है गीत के प्रति आलोचना दृष्टि बदलने की|माना कि गीत में महाकाव्यात्मक संवेदना की समाही नहीं है, मगर उतनी कम समाही भी नहीं है ,जितना कि समझ लिया गया है और समझा दिया गया है|