1970 के आसपास आए काव्य- संग्रहों पर नजर डालें तो ‘ शहर अब
भी संभावना है’(1966) की याद जरूर आएगी। उस दौर के जिन संग्रहों
की चर्चा अनिवार्य रूप से होती है , उनमें प्रस्तुत संग्रह भी है। चर्चा का
प्रमुख कारण है उस संग्रह की भाषा, उसके भाव और कथन का वह
अंदाज जो नई कविता से भिन्न काव्य परिदृश्य की याद दिलाता है।
अपने पहले ही संग्रह से कवि - रूप में प्रतिष्ठित हो जाने वाले
प्रतिभाशाली कवियों में अशोक वाजपेयी भी शामिल कर लिए गए। इस
संग्रह की कविताओं के जरिए अपने समय की विडम्बना को बहुत ही
नए अंदाज में प्रस्तुत करने के कारण सहज ही लोगों का ध्यान इस कवि
की ओर गया। ‘निश्शब्द’ कविता को इस प्रसंग में याद किया जा सकता
है:
एक ऊँची इमारत की पाँचवी मंजिल की
एक खिड़की से
एक आदमी ने अपने को बाहर फेंक दिया है
मेरे शब्द उछलकर
उसे बीच में ही झेल लेना चाहते हैं
पर मैं हूँ
कि दौड़कर लिफ्ट में चढ़
दफ्तर तक जाता हूँ
पता लगाने
कि नई जगह पर
नियुक्ति कब होगी?
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युवा स्वप्न और उसके यथार्थ के बीच के द्वंद्व और तनाव को कविता में
व्यक्त करने का यह जो अंदाज है वह अशोक वाजपेयी को अपनी पीढ़ी
के कवियों के बीच अलग पहचान दिलाता है। यहाँ अपने समय को
बदलने के युवकोचित उत्साह से भरी घोषणा नहीं, बल्कि एक युवा के
स्वप्न और यथार्थ की कशमकश है, जो पाठक का ध्यान अलग से आकृष्ट
करती है।
किसी भी नए कवि की पहचान उसकी नई काव्यभाषा और कहने
का नया अंदाज है | इसी के साथ यह भी है कि वह किस तरह के काव्य
विषय चुनता है। ‘शहर अब भी संभावना है’ में नए-नए विषयों पर
अशोक वाजपेयी ने जो कविताएँ लिखीं वे भी हमारा ध्यान आकृष्ट
करती हैं और हिंदी काव्य- विषय का विस्तार करती हैं। काव्य- विषयों
का चयन भी कवि की नवीनता का प्रमाण होता है| उदाहरण के लिए
माँ जैसे विषय को देखा जा सकता है| माँ पर दुनिया की सभी भाषाओं
में कविताएँ लिखी गई हैं। मातृत्व के अनेक पक्षों को कवियों ने बड़े ही
ऊँचे शब्दों में महिमा के शिखर पर पहुंचाया है। उन सबसे अलग अशोक
वाजपेयी ने ‘अपनी आसन्नप्रसवा माँ के लिए तीन गीत’ शीर्षक से तीन
उपशीर्षकों में ऐसी कविता लिखी जो हिंदी कविता की नई उपलब्धि
बन गई। करुणा, त्याग आदि की मूर्ति आदि रूपों में माता की महिमा
कविता में रही है. लेकिन अपनी आसन्नप्रसवा माँ को एक पुत्र कैसे
देखता है, इस विषय पर हिंदी में शायद ही कोई कविता हो! तटस्थ
और निसंग भाव से आसन्नप्रसवा माँ को देखना काव्य विषय के चुनाव
के लिहाज़ से कवि के साहस का परिचायक है। तीन खंडों में बँटी इस
कविता के दूसरे खंड का उपशीर्षक है ‘जन्मकथा’ जिसे उदाहरण के रूप
में देखा जा सकता है:
तुम्हारी आँखों में नई आँखों के छोटे-छोटे दृश्य हैं,
तुम्हारे कंधों पर नए कंधों का
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हल्का-सा दबाव है-
तुम्हारे होंठों पर नई बोली की पहली चुप्पी है
और तुम्हारी उँगलियों के पास कुछ नए स्पर्श हैं
माँ, मेरी माँ
-एक घाटी की पूरी हरी महिमा के साथ!
तुम कितनी बार ही स्वयं से ही उग आती हो
और माँ, मेरी जन्मकथा कितनी ताजी
और अभी-अभी की है।
1960 के बाद यानी नई कविता के प्रभाव से अलग जो कवि
प्रकाश में आए उनकी कविताओं को अशोक वाजपेयी ने ‘युवा कविता’
कहा है। कुछ आलोचक साठोत्तरी कविता भी कहते हैं। धूमिल, कमलेश,
आदि के साथ युवा पीढ़ी की जो कविताएँ सामने आई थीं उन्हें
अकविता, श्यमशानी कविता, जनवादी कविता आदि नामों से पुकारा
गया। युवा कविता का एक प्रमुख कवि होते हुए अशोक वाजपेयी ने
अपना अलग और समानांतर काव्य संसार विकसित किया। उनकी
कविताओं में सतह के यथार्थ से परहेज के साथ मित कथन का सौंदर्य है।
अशोक वाजपेयी अपने समकालीनों से कुछ अन्य कारणों से भी
अलग हैं|हिन्दी कविता में जब यथार्थवाद और जनवाद का ज़ोर था और
रोटी को प्रमुखता से मनुष्य की एकमात्र जरूरत के रूप में प्रस्तुत किया
जा रहा था, तब उन्होंने ऐसी कविताएँ लिखीं जो मात्र इतने तक
सीमित नहीं थीं, बल्कि इनका अतिक्रमण करती थीं। इस लिहाज़ से
‘अगर इतने से’ (1985) शीर्षक कविता को देखना लाजमी होगा।
उसका प्रारंभिक अंश है:
अगर इतने से काम चल जाता
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तो मैं जाकर बुला लाता देवदूतों को
कंबल और रोटियाँ बाँटने के लिए
कंबल और रोटियाँ मनुष्य के लिए जरूरी हैं, लेकिन वही सब कुछ नहीं
हैं। जीवन का अर्थ कंबल और रोटियाँ भी है, लेकिन इसके साथ कुछ
अतिरिक्त भी है। अशोक वाजपेयी की कविता इस ‘अतिरिक्त’ की ओर
अधिक झुकी हुई है| वे साठोत्तरी पीढ़ी के कवियों में इस ‘अतिरिक्त’ की
महिमा के कवि हैं| घर के अँधेरे को लालटेन की रौशनी से भगाया जाता
है| इसलिए लालटेन ज़रूरी है| लेकिन अँधेरा जब आत्मा में हो तब?
आत्मा के अँधेरे को सिर्फ लालटेन की रौशनी से नहीं हराया जा सकता।
अशोक वाजपेयी अपनी कविता में उस रोशनी को ढूँढने का प्रयास करते
हैं जो आत्मा के अँधेरे को हरा सके। वे आत्मा की रोशनी के खोजी कवि
हैं. इस कविता का अंतिम अंश है:
आत्मा के अँधेरे को
अपने शब्दों की लौ ऊँची कर
अगर हरा सकता
तो मैं अपने को
रात भर
एक लालटेन की तरह जला रखता।
अगर इतने से काम चल जाता।
यह कविता अशोक वाजपेयी के कवि- मन का पता बताती है।
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‘एक पतंग अनंत में’ शीर्षक संग्रह जब प्रकाश में आया तो अशोक
वाजपेयी को यथार्थ विरोधी और रहस्यानुभूति वाला कवि कहा गया।
यह वह समय था जब हिंदी में यथार्थवाद पर ज़ोर अधिक था| इस संग्रह
की प्रगतिशील- जनवादी जमात में पर्याप्त आलोचना हुई| अशोक को
यथार्थ चित्रण से परहेज नहीं, लेकिन वे कविता में यथार्थवादी चित्रण
के तौर- तरीक़ों के आत्यंतिक रूप से कायल नहीं हैं | जिसे खुला सच
कहेंगे, उससे अधिक वे जीवन और जगत के उन पक्षों को लेते हैं जो
बहुत साफ-साफ नहीं दिखाई देतीं और जिनके प्रति सहज जिज्ञासा का
भाव हमारे भीतर जन्म लेता है। जीवन और जगत में जो तरह तरह के
आश्चर्य हैं उन्हें वे कविता में खोजते हैं| इसलिए उनकी कविता में यह
‘संसार आश्चर्य की तरह खुलता’ है| इस क्रम में वे कबीर तक जाते हैं और
निर्भय निर्गुण गाने के हौसले का इजहार करते हैं| ‘अनंत में’ (1986)
शीर्षक कविता को इस प्रसंग में देखिए :
मैं शब्द को
शब्द में फंसाकर
बनाता हूँ
नसैनी
अनंत में।
मैं शून्य शिखर पर
निर्भय निर्गुण गाता हूँ
अनंत में।
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नसैनी टूटती,
शब्द बिखरते हैं,
तिरोहित होता,
मैं लुप्त होता हूँ
अनंत में।
कबीर के निर्गुण से होड़ लेने की कवि- आकांक्षा के साथ अशोक
वाजपेयी ‘नित नित नूतन’ होने वाले सच और सौन्दर्य के खोजी कवि हैं|
भारतीय कविता में यथार्थ और सौन्दर्य के हर क्षण बदलते रूप को
देखने वाले कवियों की लम्बी परंपरा है| जब विद्यापति ‘नित नित
नूतन’ और घनानंद ‘नयो नयो लागत’ की बात कहते हैं तब वे सच और
सौन्दर्य के ठस रूप की जगह उसके नए रूप की ही बात करते हैं| अशोक
वाजपेयी को भी नयेपन से प्रेम है | वे नयेपन के आग्रही कवि हैं | उनकी
कविताओं में नयेपन का उनका आग्रही मन बराबर उपस्थित रहता है |
एक कविता देखी जा सकती है। शीर्षक है- ‘वही नहीं’ (1990)-
शाम होने पर पक्षी लौटते हैं
पर वही नहीं जो गए थे।
रात होने पर फिर से जल उठती है
पर वही नहीं जो कल बुझ गई थी।
सुखी पड़ी नदी भर जाती है
किनारों को दुलराता है जल
पर वही नहीं जो
बादल बनकर उड़ गया था।
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हम भी लौटेंगे
प्रेम में, कविता में, घर में
जन्म जन्मांतरों को पार कर
पर वही नहीं
जो यहाँ से उठकर गए थे।
अशोक वाजपेयी की कविताओं में हमारे समय का एक साधारण मनुष्य
बिल्कुल ही नए रूप में उपस्थित है। उदाहरण के लिए एक ही कविता
देखना काफ़ी है | एक गरीब बूढ़ा मुसलमान जो किसी मुहल्ले में रात की
चौकीदारी करता है, सुबह अपने घर लौट रहा है। उसका घर लौटना यूँ
तो रोज का काम है, सामान्य- सी बात है लेकिन अशोक वाजपेयी इस
अति साधारण-सी घर वापसी में कविता के तत्त्व देखते हैं। बड़ी
घटनाओं पर तो कविताएँ लिखी ही जाती हैं, अति साधारण- सी घटना
को कविता के मर्म से कैसे युक्त किया जा सकता है, इसके श्रेष्ठ और
सुंदर उदाहरण उनकी कविताओं में देखे जा सकते हैं | भोर के झुटपुटे में
घर लौटता हुआ वह बूढ़ा मुसलमान कैसा लगता है, यह देखना हो तो
‘वह बूढ़ा मुसलमान’ कविता देखनी चाहिए। उस कविता का एक अंश
है:
एक देवता की तरह निसंग और निस्पृह
वह अपनी समूची जिंदगी और उसके सुख-दुखों को
पान की पोटली की तरह
एक छोटी-सी झोली में डाले हुए,
हर रोज जाता है
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किसी जनाकीर्ण मोहल्ले के धीरे-धीरे ढहते घर की ओर।
यह एक साधारण मनुष्य का चित्र है। इसे बहुत ही कम शब्दों में
मुकम्मल रूप देने की कोशिश कवि ने की है।
आधुनिक कवियों में अशोक वाजपेयी संभवतः अकेले ऐसे कवि हैं,
जिनके यहाँ बड़ी संख्या में सेन्सुअस कविताएं मिलती हैं। शमशेर
बहादुर सिंह ने अवश्य ही कुछ बहुत अच्छी कविताएं इस तरह की
लिखी हैं। अशोक वाजपेयी ने शमशेर की इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए
बहुतेरी ऐसी कविताएँ लिखी हैं जो अपने गठन में अद्वितीय हैं।
उदाहरण के रूप में ‘सद्य:स्नाता’ (1987) को देखा जा सकता है। अभी-
अभी स्नान करके बाहर निकली एक नायिका के सौन्दर्य का वर्णन करते
हुए कवि ने लिखा है:
.
पानी
छूता है उसे
उसकी त्वचा के उजास को
उसके अंगों की प्रभा को-
पानी
झलकता है उसकी
उपत्यकाओं शिखरों में से-
पानी
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उसे घेरता है
चूमता है
पानी सकुचाता
लजाता
गरमाता है
पानी बावरा हो जाता है।
अशोक वाजपेयी राजनीतिक कविताओं के लिए नहीं जाने जाते । जब
यथार्थ को मुखर ढंग से कविता में व्यक्त करने का चलन था और जनवाद
के नाम पर सतही राजनीतिक कविताएँ खूब लिखी जा रही थीं तब
अशोक वाजपेयी ने राजनीतिक कविताओं से भरसक परहेज किया।
लेकिन जब राजनीति पर बोलना आत्यंतिक रूप से जरूरी हो गया तो
कुछ नायाब राजनीतिक कविताएँ लिखीं। ऐसी ही एक कविता है
‘आततायी की प्रतीक्षा’ (2014), जिसमें एक आततायी नायक के रंगमंच
पर प्रवेश का बड़ा ही प्रभावशाली चित्रण है। उस आततायी नायक को
उद्धारक, मसीहा आदि के रूप में प्रचारित किया गया। कविता का
प्रारंभिक अंश है-
सभी कहते हैं कि वह आ रहा है
उद्धारक, मसीहा, हाथ में जादू की अदृश्य छड़ी लिए हुए
इस बार रथ पर नहीं, अश्वारूढ़ भी नहीं,
लोगों के कंधों पर चढ़कर वह आ रहा है;
यह कहना मुश्किल है कि वह खुद आ रहा है
या कि लोग उसे ला रहे हैं।
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कविता के दूसरे खंड में कवि कहता है:
आततायी आएगा अपने सिपहसालारों के साथ,
अपने खूँखार इरादों के साथ,
अश्लील हँसी और असभ्य रोग के साथ-
हो सकता है वह हम जैसे हासिए वालों को नजरंदाज करे
हो सकता है हमें तंग करने के झूठे फरमान जारी करे
हो सकता है उसके दलाल उस तक हमारी कारगुजारियों की खबर
पहुंचाएं ,
हो सकता है उसे हमें मसलने की फुर्सत ही न मिले
हो सकता है उसके दिग्विजय का जुलूस हमारी सड़कों से गुजरे ही न,
हो सकता है कि उसकी दिलचस्पी बड़े जानवरों में हो,
मक्खी-मच्छर में नहीं।
यह कहने के बाद कवि भारत की जनता की प्रकृति और उसके
मनमिजाज पर व्यंग्य करते हुए कहता है:
पर हमें अपनी ही प्रतीक्षा है,
अगर आएगा तो देखा जाएगा।
प्रश्नाकुलता को अशोक वाजपेयी आधुनिकता और आधुनिक
कविता का प्रमुख लक्षण मानते हैं| कविता में अपने समाधानों से पाठक
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को संतुष्ट करने की तुलना में प्रश्नाकुल बनाना उन्हें अधिक ज़रूरी लगता
है| प्रश्नाकुलता की यह प्रवृत्ति कहीं सीधे प्रश्न के रूप में है, कहीं जिज्ञासा
के रूप में और कहीं सोच- समझ के स्थिर जल को फूंक मारकर हिलाने
के अर्थ में | इस कारण स्पष्ट उत्तर की जगह ‘शायद’ का भाव उनके यहाँ
प्रमुख है| उनकी एक कविता है – उम्मीद चुनती है ‘शायद’(1991),
जिसके प्रारम्भिक अंश को इस प्रसंग में देखा जा सकता है:
उम्मीद चुनती है अपने लिए एक छोटा- सा शब्द
शायद –
जब लगता है कि आधी रात को
दरवाज़े पर दस्तक देगा वर्दीधारी
किसी न किये गये जुर्म के लिए लेने तलाशी
तब अँधेरे में पालतू बिल्ली की तरह
कोने में दुबकी रहती है उम्मीद
यह सोचते हुए कि बाहर सिर्फ हवा हो
शायद |
शायद, जिज्ञासा, आश्चर्य, प्रश्नाकुलता, निर्गुण किस्म की कबीरी
दार्शनिकता, धर्म विहीन अध्यात्म, घर- परिवार, पास- पड़ोस,
धर्मनिरपेक्षता आदि अशोक की कविता के मुख्य उपजीव्य हैं| उन्होंने
हमेशा अपने समय के प्रचलित काव्य प्रतिमानों से अलग चलने का
जोख़िम उठाया है| आधुनिक हिंदी कविता में अज्ञेय, शमशेर और
मुक्तिबोध उनके सर्वाधिक प्रिय कवि हैं| उनके काव्य बोध के निर्माण में
इनकी भूमिका है लेकिन उनसे आगे अशोक ने कविता की अपनी राह
बनाई है | वह राह पाठक को कविता के नये इलाके में ले जाती है|
गोपेश्वर सिंह