प्रश्न: नरेश मेहता नयी कविता के महत्वपूर्ण कवियों में शामिल रहे हैं। उनकी रचनाएँ समकालीन कवियों से किन अर्थों में भिन्न हैं?
उत्तर:
नरेश मेहता ‘दूसरा सप्तक’
के कवि हैं। ‘तारसप्तक’
(1943) से प्रयोगवाद की चर्चा शुरू हुई। लेकिन ‘दूसरा
सप्तक’ (1951) से ‘प्रयोगवाद’
का पर्यवसान नयी कविता में हो गया। प्रयोगवाद पद धीरे-धीरे कम हो गया और उसकी जगह
नयी कविता पद का प्रचलन हो गया। नए ढंग की
कविताएं ‘दूसरा सप्तक’
में तो थीं ही, ‘प्रतीक’,
‘नयी कविता’
आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताओं के जरिए नयी कविता पद प्रचलन में आया। ‘दूसरा
सप्तक’ में संकलित कविताएं पाठकों-आलोचकों
के बीच नयी कविता के नाम से ही रेखांकित की गईं। इसलिए इसमें संकलित सभी सात कवि-
भवानी प्रसाद मिश्र, शकुन्त
माथुर, हरीनारायण व्यास,
शमशेर बहादुर सिंह, नरेश कुमार मेहता,
रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती नयी कविता के ही कवि माने गए और वे सब नयी कविता के
कवि हैं भी। इस दृष्टि से नरेश मेहता नयी कविता के कवि हैं। लेकिन नयी कविता के
अन्य कवियों से भाषा, भाव,
शिल्प आदि कई दृष्टियों से वे अलग हैं। इस कारण राजेश जोशी उन्हें दूसरा सप्तक का
कवि होते हुए भी नयी कविता का ‘आउट
साइडर’ कवि मानते हैं। क्या ऐसा
कहना सही है? मुझे लगता है कि वे ऐसा जब
कहते हैं तो नयी कविता को एक सीमा में बांधते हैं। नयी कविता का क्या कोई एक मानक
रूप है? क्या उसकी कोई एक
मान्य परिभाषा है? असल में छायावादी,
उत्तर छायावादी और प्रगतिशील कविता से भाषा,
भाव और शिल्प में अलग तरह से लिखी गई कविताओं को नयी कविता कहा गया। इस दृष्टि से
नरेश मेहता नयी कविता के कवि हैं। अपने नयेपन पर प्रकाश डालते हुए दूसरा सप्तक के
अपने वक्तव्य में वे कहते हैं: “... पिछली अपनी छायावादी एवं रहस्यवादी कविताओं को
मैं कविता नहीं मानता।... विगत,
अनुकरणीय नहीं हो सकता।... नया तो मेरा युग है,
मेरी प्रकृति है तथा सबसे नया मैं हूँ।” ऐसे में सवाल है कि नरेश मेहता किन अर्थों
में नए हैं? नरेश मेहता की नयी
कविताओं में आर्ष साहित्य की अनुगूंजें हैं। उनकी रुचि प्रारम्भ से अंत तक आर्ष
साहित्य में रही है। आर्ष साहित्य उनकी प्रेरणा का एक बड़ा स्रोत है। उदाहरण के रूप
में उनकी ‘जन-गरबा: चरैवेति’
कविता
का एक अंश दृष्टव्य है:
मानव जिस ओर गया
नगर बने,
तीर्थ बने
तुमसे है कौन बड़ा?
गगन-सिंधु मित्र बने,
भूमी का भोगो सुख,
नदियों का सोम पियो।
त्यागो सब जीर्ण वसन,
नूतन के संग-संग चलते चलो!
चलते चलो,
चलते चलो!
इसी तरह ‘उसस्’
शृंखला में लिखी गई उनकी कविताएं इस क्रम में देखी जा सकती हैं जो उन्हें नयी
कविता में अलग मिजाज का कवि बनाती है। ‘उसस्-चार’
का यह अंश देखा जा सकता है:
किरनमयी! तुम स्वर्ण
वेश में!
स्वर्ग देश में!
सिंचित है केसर के जल
से
इंद्र- लोक की सीमा,
आने दो सैन्धव घोड़ों
का
रथ कुछ हल्के धीमा-
पूषा के नभ के मंदिर
में
वरुण देव को नींद आ
रही,
आज अलकनन्दा, किरणों की
वंशी का संगीत गा रही,
अभी निशा का छंद शेष
है,
अलसाए नभ के प्रदेश
में!
इन काव्यांशों की शब्दावली और आर्ष भंगिमा पर ध्यान दें तो नरेश मेहता की अपनी
मौलिकता नजर आएगी।
इस प्रसंग में एक घटना की
चर्चा आवश्यक है। कुछ वर्षों के लिए नरेश मेहता नागपुर में थे । वे और मुक्तिबोध
एक ही जगह काम करते थे। ‘दूसरा
सप्तक’ का प्रकाशन हो चुका था और उसमें संकलित नरेश मेहता की
‘समय देवता’ कविता उन दिनों चर्चा में
थी। उसे एक राजनीतिक कविता के रूप में पढ़ा जा रहा था। वह कविता मुक्तिबोध ने भी
पढ़ी और एक दिन अपनी प्रतिक्रिया नरेश मेहता को बतलाई। उस प्रसंग की चर्चा नरेश
मेहता ने स्वयं की है। मुक्तिबोध ने कहा: “वास्तव में राजनीति आपकी काव्य-भूमि
नहीं है। जिस वैदिक धरातल पर आप खड़े होकर लिखना चाहते हैं,
वही वास्तविक आपकी काव्य-भूमि है।” मुक्तिबोध के इस कथन से नरेश मेहता के काव्य- वैशिष्ट्य
का पूरा तो नहीं, उसकी एक बड़ी विशेषता का पता चलता है। और वह
विशेषता उन्हें नयी कविता के कवियों से अलग करती है। आगे चलकर इस विशेषता का रंग
नरेश मेहता के काव्य में और गाढ़ा होता गया।
नरेश मेहता के एक आलोचक प्रभाकर श्रोत्रिय उनकी
कविता पुस्तक ‘उत्सवा’
में
‘महाभाव’
को उनकी विशेषता के रूप में रेखांकित करते हुए कहते हैं कि यह महाभाव ‘एक
परिपूर्ण वैष्णवता है, जिसमें आर्ष कविता
की विराट अनुगूंजों के साथ ही लौकिक वास्तविकता है।‘ प्रभाकर श्रोत्रिय के ही शब्द
लेकर कहें तो कह सकते हैं कि ‘मनुष्य
के उदात्त, सृष्टि-स्वप्न के लिए कवि
ने आर्ष शब्दावली की जैसी पुनर्सर्जना की है’,
वह उन्हें नयी कविता को नया विस्तार देने वाले कवि के रूप में प्रतिष्ठित करती है।
प्रश्न
2: नरेश मेहता की कविताओं में व्यक्त आधुनिकता बोध और उनके विशिष्ट प्रयोगों के
बारे में आपकी राय क्या है?
उत्तर:
नरेश मेहता नयी कविता के कवि हैं। जब वे अपने को यानी अपने कवि को नया मानते हैं
तो इसका अर्थ उनके आधुनिक होने से है। लेकिन उनका आधुनिकता बोध अपने समकालीनों से कुछ
भिन्न है। उनकी कविता समकालीन भी है और संस्कृति का शोध भी है। संस्कृति को लेकर
नरेश मेहता ने नए प्रयोग किए हैं। संस्कृति संबंधी उनके प्रयोग ‘उषस्’
जैसी प्रकृति परक कविताओं में दिखाई देते हैं। नरेश मेहता कहते हैं: “ऋतु की इस
नित्य-कौमार्य कन्या का मैं प्रतिदिन अपने क्षितिज पर आह्वान करता हूँ। वह हमारे
खेतों में अपने पति सूर्य के साथ हमारे बीजों में अपनी गरम-गरम किरणें बो कर गेहूँ
उपजाती है।” ऐसी कविताओं में कवि प्रकृति का आधुनिक अर्थों में वैदिक ऋषियों-सा
आह्वान करता है। ‘उषस्-3’
की पंक्तियाँ देखी जा सकती है:
तिमिर दैत्य के नील दुर्ग पर
फहराया तुमने केतन,
परिपंथी पर हमें विजय दो
स्वस्थ बने मानव जीवन
इन्द्र हमारे रक्षक होंगे,
खेतों-खेतों औ’ खलिहान
थके गगन में उषा गान
दूसरी तरह का प्रयोग ‘समय
देवता’ जैसी कविताओं में है
जिनमें ‘जीवन के शस्त्र’
से वर्तमान के शृंगार का भाव मिलता है:
नव निर्माण तुझे करना है,
नहीं चाहिए जीर्ण पुरातन,
बासी लहरों से सरिता का कभी नहीं शृंगार हुआ
है।
जीर्ण पूज्य है,
वर्तमान मेरी बाँहें हैं,
मैं भावी की नींव धर रहा।
प्रश्न
3: क्या नरेश मेहता का काव्य वैष्णवता की भूमि पर खड़ा है?
नरेश मेहता की आधुनिकता और वैष्णवता के बीच कैसा संबंध है?
उत्तर:
‘औपनिषदिकता’
और ‘वैष्णवता’
जैसे पद नरेश मेहता के काव्य प्रसंग में अक्सर आते हैं। ये पुरानी अवधारणा के पद
हैं। लेकिन इन्हें वे आधुनिक अभिप्राय से अपनी कविताओं में युक्त करते हैं। एक तरह
से परंपरा से आए इन पदों में वे नया अर्थ भरते हैं। उनकी वैष्णवता न तो भक्त
कवियों की है और न मैथिलीशरण गुप्त की। इन पदों को आधुनिक अर्थ में परिभाषित करते
हुए नरेश जी स्वयं लिखते हैं: “व्यक्ति-विस्तार के बहुस्याम हो जाने की निष्पत्ति
औपनिषदिकता है, तो व्यक्ति-समर्पण की
निष्णात प्रतिश्रुति वैष्णवता है।” इस तरह इन पुराने पदों को नरेश मेहता नया अर्थ
देते हैं और अपने समय को परंपरा की अनुगूंजों से ध्वनित करते हैं। औपनिषदिकता और
वैष्णवता के जरिए वे जिस महाभाव को आधुनिक मनुष्य का संस्कार बनाना चाहते हैं उसका
एक बड़ा उदाहरण उनकी कविता पुस्तक ‘उत्सवा’
है। ‘उत्सवा’
की कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती है:
आकाश में नहीं,
मेघों को पृथ्वी पर गंगा की कृतार्थता मिलती
है।
आकाश में नहीं,
स्वत्व को पृथ्वी पर
वास्तविक सार्थकता मिलती है।
होने दो अवतरित
अपने भीतर भी इस
महाभाव को।
प्रश्न-4: नरेश मेहता के मिथकीय काव्य में आधुनिक सामाजिक
समस्याएँ किस तरह उपस्थित हैं?
उत्तर: ‘संशय की एक रात’, ‘प्रवाद पर्व’, ‘शबरी’ और ‘महाप्रस्थान’ नरेश मेहता लिखित खंडकाव्य हैं। प्रथम
तीन रामायण पर आधारित हैं; जबकि चौथा महाभारत पर। रामायण और महाभारत के कथा
प्रसंगों की भारतीय साहित्य में नई-नई व्याख्याएँ होती रही हैं। नरेश जी ने भी
अपनी इन मिथकीय काव्य-कृतियों में आधुनिक मनुष्य और उसके भीतर के द्वंद्व को रचने
की कोशिश की हैं। ‘संशय की एक रात’ में
राम के भीतर युद्ध को लेकर भारी संशय है। संशय ग्रस्त राम एक साधारण मनुष्य की तरह
दिखते हैं। राम की इस साधारणता और युद्ध के प्रति उनके संशय के कारण यह कृति
आधुनिक धरातल पर मजबूती से खड़ी दिखाई देती है। ‘शबरी’ शूद्र समाज की है, श्रमजीवी है। ‘शबरी’ में नरेश मेहता श्रम को प्रतिष्ठित करते हैं और
वर्ण-व्यवस्था पर प्रहार करते है:
क्या धर्मतत्व से
ऊँची
है वर्णाश्रम मर्यादा?
तब व्यर्थ तपस्या
पूजन
यह गंगा भी है
शूद्रा।
‘महाप्रस्थान’ में राज्य के अधिक ताकतवर और राष्ट्र
प्रमुख के तानाशाह होते जाने के खतरे से सावधान किया गया है।
नरेश मेहता अपने जीवन के
पूर्वार्द्ध में मार्क्सवादी थे और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। बाद में जब वे
पार्टी सदस्य नहीं रहे तब भी उनके चिंतन के केंद्र में साधारण जनता बनी रही। उनके
मिथकीय काव्य में इस कारण प्रसंग भले पुराने हों, समस्याएँ आधुनिक जीवन और मनुष्य की हैं।
प्रश्न-5: नरेश मेहता अपनी परंपरा के प्रति आत्म विस्मृत
भी नहीं हैं और आधुनिक भी हैं। इस बारे में आप क्या कहना चाहते हैं?
उत्तर:
इस प्रश्न से संबंधित कुछ बातें पहले कही जा चुकी हैं। आधुनिक साहित्य की सबसे बड़ी
पहचान है उसके केंद्र में मनुष्य का होना। कविता,
कथा साहित्य, नाटक,
निबंध आदि विधाओं में तीन दर्जन से अधिक पुस्तकें लिखने वाले नरेश मेहता के भीतर
परंपरा और आधुनिकता का द्वंद्व अपने समकालीनों में सबसे अधिक है। उनकी औपनिषदिक और
वैष्णवता की जो अवधारणा है उसे उन्होंने आधुनिकता की जमीन पर खड़े होकर अर्जित किया
है। उनके साहित्य का मूल स्वर आधुनिक युग के लेखकों की तरह वैचारिकता नहीं है। उनका
मूल स्वर करुणा है जिसे वे अपने काव्य में महा करुणा की ऊँचाई तक ले जाने का
प्रयत्न करते दिखाई देते हैं। इसलिए उनके काव्य में सत्य,
न्याय, निर्भयता,
उदात्तता, वैष्णवता,
औपनिषदिकता जैसे काव्य- मूल्य दिखाई पड़ते हैं जो उन्हें 20वीं शताब्दी के महा मानव
गाँधी से जोड़ते हैं। एक समय के मार्क्सवादी नरेश मेहता का गांधीवादी अभिप्रायों
में काव्य संस्कारित होना एक नए तरह के काव्य विवेक का परिचायक है। नरेश मेहता गाँधी की
तरह आधुनिकता के जो बिष - वृक्ष हैं ,
उनसे भारतीय जीवन को प्रदूषित होने से बचाना चाहते हैं। और इस क्रम में साहित्य को
वे सबसे बड़ा हथियार मानते हैं।
प्रश्न-6:
नरेश मेहता काव्य को जांगलिकता से सांस्कृतिकता,
देह से मन की ओर,
जड़त्व से चेतनत्व की एक मानवीय यात्रा मानते हैं। आप उनके इस विचार से कहाँ तक
सहमत हैं?
उत्तर:
प्रश्न में कविता को परिभाषित करने के लिए जिस तरह की शब्दावली का प्रयोग हुआ है,
उसे
छोड़ दिया जाए तो यह लगभग सर्वमान्य बात है कि कविता मनुष्य की सांस्कृतिक यात्रा का
सबसे सूक्ष्म रूप है। कविता साहित्य की सबसे प्राथमिक विधा है। कविता को मनुष्यता
का पर्याय भी कहा गया है और मनुष्यता की मातृभाषा भी। नरेश मेहता कौन-सी नई बात कह
रहे हैं?
प्रश्न-7:
नरेश मेहता के काव्य में राजनीति के स्वर नहीं सुनाई पड़ते हैं,
लेकिन उन पर अक्सर यह आरोप लगता है कि वे राजनीति से जुड़े हुए हैं। इस पर आपको
क्या कहना है?
उत्तर:
जिस युग का सुभाषित हो कि ‘एवरी
थिंग इज पॉलिटिक्स’,
उस युग के किसी कवि में राजनीति के स्वर सुनाई पड़े या न
पड़े, उसे अपने समय,
समाज और उसे संचालित करने वाली राजनीति से अलग नहीं रखा जा सकता। नरेश मेहता पर जब
मार्क्सवाद का प्रभाव था और ‘समय देवता’ जैसी कविता उन्होंने लिखी थी, तब भी उनमें राजनीतिक
शब्दावली की मुखरता नहीं थी। धीरे-धीरे औपनिषदिकता और वैष्णवता का उनमें आग्रह बढ़ा
तब वे मानव समाज पर राजनीति के बढ़ते प्रभाव को कम करने और उसे धर्म शासित बनाने की
बात करने लगे। यह धर्म कर्मकांड का प्रतिरूप न होकर मानवीय संस्कृति का उदात्त रूप
है। ‘महाप्रस्थान’ में अर्जुन के पूछने
पर युधिष्ठिर कहते हैं:
राज्य के नहीं
धर्म के नियमों पर समाज
आधारित है।
राज्य पर अंकुश बने
रहने के लिए
धर्म और विचार को
स्वतंत्र रहने दो
पार्थ!
इसके आगे राज्य में किसी व्यक्ति के इतना शक्तिशाली हो जाने पर कि वह
तानाशाह हो जाए, युधिष्ठिर कहते
हैं:
किसी व्यक्ति को
इतना प्रतिष्ठापित मत
करो कि
शेष सबके लिए
वह अलंघ्य विंध्याचल
हो जाए।
आधुनिक जनतंत्र में किसी नेता का ‘अलंघ्य विंध्याचल’ हो जाना जनतंत्र के लिए खतरा है। इस
खतरे से कवि नरेश मेहता जनता को सचेत कर रहे हैं। आज ये पंक्तियाँ कितनी प्रासंगिक
हो उठी हैं! क्या इसके बाद भी कहा जा सकता है कि उनकी कविता में राजनीतिक स्वर
नहीं सुनाई पड़ते हैं?
** ‘वागर्थ’, फरवरी २०२२ के लिए मधु सिंह के प्रश्न और गोपेश्वर सिंह के उत्तर **
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