फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ (4 मार्च 1921-11 अप्रैल 1977) व्यक्ति और रचनाकार दोनों ही
रूपों में कलाकार थे. उनसे मिलने पर एक कलाकार से मिलने का सुख मिलता था, उन्हें
पढ़कर हम उनकी कला-दृष्टि के कायल थे ही. ऐसे कलाकार लेखक को हमने घनघोर राजनीतिक
उथल-पुथल के बीच आन्दोलन करते देखा. हमने देखा 1974-75 के जेपी आन्दोलन में
धरना-प्रदर्शन करते, लेखकों को संगठित कर सड़कों-चौराहों पर गोष्ठियां करते, जेल
जाते और जेपी के साथ कंधा से कंधा मिलाकर व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई लड़ते.
हमें मालूम हुआ कि यह आदमी
जैसे पैदायशी कलाकार और किस्सागो है, वैसे ही पैदायशी आंदोलनकारी भी है.
स्वतंत्रता आन्दोलन और 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में यह जेल जा चुका है, 1950 की
नेपाली क्रांति में सशस्त्र विद्रोही के रूप में भाग ले चुका है, समाजवादी आन्दोलन
का लड़ाकू सिपाही रह चुका है और अब सम्पूर्ण क्रांति के रूप में बुनियादी परिवर्तन
का सपना लिए संघर्षरत है.
किस्सा कोताह यह कि रेणु
जुबानी जमाखर्च क्रांतिकारी कहनेवाले लेखक नहीं थे. वे सचमुच क्रांतिकारी लेखक थे.
उन्होंने क्रान्ति-पथ की सारी मुश्किलें झेली थीं, लेकिन उनकी राजनीतिक कीमत कभी
नहीं वसूलीं. वे देखने में हमेशा कलाकार जैसा दीखते थे. उन-सी राजनीतिक सक्रियता
की तुलना के लिए राहुल सांकृत्यायन और रामवृक्ष बेनीपुरी जैसे बहुत थोड़े नाम
मिलेंगे. ऐसे लेखक ‘थोड़े-थोड़े होते हैं, कम-कम होते हैं’.
साहित्यिक प्रतिष्ठा अर्जित
करनेवाले बहुत लेखक हैं, लेकिन रेणु ने साहित्यिक प्रतिष्ठा के साथ भरपूर सामजिक
प्रतिष्ठा भी अर्जित की. जो लोग पूर्णिया, फारबिसगंज और औराही हिंगना गए हैं,
उन्हें मालूम है कि कैसे उस जनपद की आहो हवा में रेणु के नाम की गूंज है. जिन्होंने
पटना में उन्हें देखा है और जो काफी हाउस की यादगार और जीवंत बैठकी में उनके
इर्द-गिर्द रहे हैं, उन्हें उनकी साहित्यिक-सामाजिक हैसियत का पता है. साहित्यिक
हलके से लेकर राजनीतिक हलके तक में उनकी जो सार्वजनिक उपस्थिति रही है, वह आज किसी
लेखक के प्रसंग में अकल्पनीय लगती है.
वे ट्रेंड सेंटर कथाकार थे.
जिस तरह प्रेमचंद, जैनेन्द्र और अज्ञेय ने हिंदी कथा-साहित्य में युगांतर उपस्थित
किया, उसी तरह रेणु के साथ हिंदी कथा साहित्य में नए युग का सूत्रपात हुआ. प्रेमचंद
का जैसा व्यापक प्रभाव अपने और आगे के दशकों में दिखा, कुछ वैसा ही रेणु का कथा-प्रभाव
आगे के समय को आंदोलित करता रहा और किसी न किसी रूप में अब भी करता है. इस रूप में
वे जैनेन्द्र और अज्ञेय से भी आगे हैं. ‘मैला आँचल’ का पहली बार महत्त्व
पहचाननेवाले आलोचक नलिन विलोचन शर्मा ने ठीक ही उसे ‘गोदान’ के बाद की
महत्त्वपूर्ण उपलब्धि माना था और कहा था कि कथा-साहित्य में ‘गोदान’ के बाद जो
गत्यवरोध था, वह ‘मैला आँचल’ के प्रकाशन से दूर हुआ.
ग्रामांचल पर लिखने के बावजूद
रेणु का कथा-साहित्य प्रेमचंद से भिन्न सामाजिक सच, भाषा-शैली और मिजाज का है.
उनमें प्रेमचंद की सचाई, अज्ञेय की काव्यात्मकता, गाँव की लोक-लय और बांग्ला
कथा-साहित्य खासकर शरतचंद और सतीनाथ भादुड़ी की रागात्मक अनुगूँज तथा परंपरा से
प्राप्त किस्सागोई की ताकत भी है जिसके कारण वे हिंदी कथा साहित्य में अपार
लोकप्रियता अर्जित करने और युगांतर उपस्थित करने में सक्षम बन सके.
रेणु का कथा-साहित्य
साहित्यिकता और सामाजिकता के सहज मेल का अनुपम उदहारण है. 1942 के भारत छोडो
आन्दोलन, नेपाली क्रांति, समाजवादी आंदोलन और जेपी आन्दोलन से गहरे जुड़ाव और उसमें
सघन भागीदारी के बावजूद उनका साहित्य राजनीतिक नारेबाजी और मुहावरेबजी से मुक्त
है. रेणु हिंदी के ऐसे लेखक थे जिन्हें सही अर्थों में ‘पॉलिटिकल एक्टिविस्ट’ कहा
जा सकता है. जेल जाने, धरना-प्रदर्शन में भाग लेने आदि राजनीतिक कार्यों के बावजूद
साहित्य रचना को राजनीतिक मुहावरेबाजी से बचा लेने की कला रेणु के यहाँ सर्वोत्तम
रूप में विद्यमान है. उनके कथा-साहित्य में ‘सामाजिक धरातल की परतों के भीतर छिपी
वैयक्तिक स्वार्थों की टकराहट’ भी है, ‘राजनीतिक दलों की अवसरवादिता’ भी और साथ ही
‘उच्च आदर्शों के पीछे दबी क्षुद्र-ओछी लिप्साएं’ भी. लेकिन रेणु सिर्फ इन्हीं के
कारण रेणु नहीं हैं. ये चीजें तो अन्यों के यहाँ भी मिल जाएँगी! इनके साथ रेणु जिस
कारण विशिष्ट दर्जा के कथाकार बनते हैं, वह अन्यों के यहाँ नहीं है. उनकी इस
विशिष्टता पर ‘परती परिकथा’ के प्रसंग में निर्मल वर्मा ने जो टिपण्णी की है, वह
उनके सम्पूर्ण कथा-साहित्य पर लागू होती है. टिपण्णी का एक अंश है: “किन्तु इस कलह-क्लेश
के बावजूद परानपुर में पूर्णिमा का चाँद उगता है. लाजमयी और मलारी का गीत-स्वर
परती की सफ़ेद बालू पर पंख फड़फड़ाता हुआ उड़ता है. पाँचों कुंडों में पांच चाँद रात
भर झिलमिलाते हैं, शरद की चाँदनी में पहाड़ से उतरनेवाले पक्षियों की पहली पांत
उतरती है...चांदनी की यह स्वप्निल संगीतमयता ‘परिकथा’ में आद्योपांत छाई रहती है. तनाव
और उल्लास रेणु के कथा साहित्य के ये दो किनारे हैं. इस तनाव और उल्लास के बीच
परानपुर के निवासियों की जीवन-धारा अविरल रूप से प्रवाहमान है”.
उनके साहित्य में राजनीतिक
आशय और संकेतों की भरमार है. लेकिन उस पर व्यक्तिगत राजनीति का ‘लाउड’ प्रभाव नहीं
है. यह उनके कथा-साहित्य की बड़ी उपलब्धि है जो उन्हें जन और जन-साहित्य का आठों याम
जाप करनेवाले कथाकारों से अलग करती है. वे साहित्य में राजनीतिज्ञों की तरह
बोलनेवाले और राजनीति में साहित्यक भंगिमा का भ्रम पैदा करनेवाले लेखक नहीं हैं.
वे साहित्य के लिए राजनीति से और राजनीति के लिए साहित्य से उर्जा लेते हैं, लेकिन साहित्य की संवेदना पर राजनीति के शोर को हावी
नहीं होने देते.
समाज और राजनीति में जब
निर्णायक क्षण आते हैं तो रेणु का ‘सोशल एक्टिविस्ट’ चुप नहीं रहता, लेकिन रोज-रोज
की राजनितिक सक्रियताओं से उनका साहित्यकार मन दूरी बनाए रहता है. जनता और जन संघर्षों से जुड़ाव के
बावजूद उनके साहित्यिक तौर-तरीके, रहन-सहन और सलीके में साहित्यिकता और कलात्मकता
बनी रहती है. उनके इस वैशिष्ट्य पर उनके मित्र और हिंदी के बड़े कवि नागार्जुन की
एक टिप्पणी का उल्लेख जरूरी है, जो उन्होंने पटना के युवा साहित्यकारों से कही थी
और जिससे रेणु के महत्त्व का पता चलता है. नागार्जुन को एक बार युवाओं ने एक
फुटपाथी होटल में, जहाँ आमतौर से मजदूर वर्ग के लोग खाते थे, भोजन करते हुए देखकर
पूछा कि क्या रेणु यहाँ रोटी खाते? नागार्जुन ने कुछ देर सोचने के बाद सधा हुआ
जवाब दिया कि रेणु इन मजदूरों के बीच रोटी भले न खाते, लेकिन वे इन लोगों के लिए
गोली जरुर खा लेते! नागार्जुन के इस उत्तर में साहित्यकार की सामाजिकता की एकरेखीय
और सरलीकृत अवधारणा के विपरीत उसके व्यापक आशयों और सन्दर्भों पर जोर है. रेणु इसी
व्यापक सामाजिक आशय की साहित्यिक अभिव्यक्ति का नाम है.
रेणु समाजवादी आन्दोलन से जुड़े
हुए थे. वे जयप्रकाश नारायण के बेहद करीब थे. इसके बावजूद उनका साहित्य किसी संकीर्ण
राजनीतिक दृष्टिकोण का शिकार नहीं होता. साहित्य वहीं प्रमाणिक और विश्वसनीय होता
है जिसमें उसका लेखक अपने राजनीतिक-सामाजिक सीमाओं का अतिक्रमण करता है. ‘मैला
आँचल’ में सुराजी भी हैं, कांग्रेसी और सोशलिस्ट भी. रेणु जब राजनीतिक विसंगति पर
चोट करते हैं तब उनकी पार्टी लाइन आड़े नहीं आती. रेणु आज़ादी के बाद राजनीतिक
हलचलों के बीच उससे अलग सुनाई पड़नेवाली जन-ह्रदय की धड़कनों का अंकन करनेवाले बेजोड़
कलाकार लेखक थे. उनकी इस विशेषता की चर्चा करते हुए सुरेन्द्र चौधरी ने लिखा था: “देश
की आज़ादी ने समूचे भारत को आंदोलित किया था. आज़ादी के झूठ-सच की पड़ताल करने वाले
लोगों से अलग भी आज़ाद भारत की धड़कनें सुनाई पड़ती रही थीं. शहर और गाँव की दूरियाँ
लाँघकर जन-जीवन में उत्साह आ गया था. अपने देश के लोग कुछ सोचने लगे थे, कुछ चाहने
लगे थे. पहली बार शायद उन्हें अपने चाहने की सार्थकता का एहसास हो रहा था....यह
साधारण घटना न थी. रेणु ने इस धड़कते हुए देश और जन को कलम बंद किया”.
रेणु के साहित्य में वर्ग-भेद
के साथ जाति-भेद की पहचान की चेतना अन्तःसलिला की तरह प्रवाहित है. सामाजिक सचाई
के चित्रण में पिछड़ी जाति का होने के बावजूद अगड़ावाद, पिछड़ावाद की जो संकीर्ण लाइन
है उसका वे अतिक्रमण करते हैं और व्यापक रूप से शोषित- पीड़ित जनता के पक्ष में खड़े
होते हैं. उनका साहित्य यदि पाठकों का भरोसा अर्जित करता है तो इसका कारण उनकी वह
व्यापक कथा-दृष्टि है जो जातिभेद की संकीर्ण परिधि का अतिक्रमण करती है. ‘मैला
आँचल’ में ‘मालिक टोला’ के कायस्थ विश्वनाथ प्रसाद, ‘सिपहिया टोला’ के राजपूत और
‘गुआर टोला’ के अहीर, एक-दूसरे से लड़ते रहते हैं और एक-दूसरे के जानी दुश्मन हैं,
लेकिन संथालों से जब उनके हित टकराते हैं तो ये तीनों ‘एक’ हो जाते हैं और सभी
‘विचार’ एकजुट हो जाते हैं. सब मिलकर संथालों के संहार का संयुक्त अभियान चलाते
हैं. रेणु की कथा-दृष्टि इस पूरे प्रसंग में इतनी विश्वसनीय और मानवीय है कि
पाठकीय सहानुभूति संथालों के साथ दिखाई पड़ती है. जाति विमर्श के अंतर्विरोधों को
खोलनेवाली यह कथा-दृष्टि अत्यंत व्यापक और अधिक मानवीय है. संथाल संहार के बाद ‘रेणु’ ने जो टिपण्णी की है,
वह आज़ादी के बाद की सभी राजनीतिक पार्टियों के क्रिया-कलापों की असलियत उजागर कर
देती है. संथाल-संहार के बाद अगड़ी-पिछड़ी जातियों की ख़ुशी किस रूप में दिखती है, वह
एक पात्र के मुँह से सुनिए: “अब एक सुराजी कीर्तन होना चाहिए. हाँ, भाई! सब संतन
की जै बोलो. गाँव के देवताओं के परताप से, काली माय की कृपा से, महात्माजी की दया
से और किरांती इन किलास जिन्दाबाघ से, गाँव के लोग बाल-बाल बच गए. अब कीर्तन होना
चाहिए”. गाँव के लोगों ने और नेताओं ने जाति और वर्ग के सारे भेद भुलाकर जो एकता
‘अर्जित’ की है, उसका भेद खोलनेवाली यह कथा-दृष्टि हिंदी में दुर्लभ है. ‘आज़ादी’
मिली और ‘सुराज’ आया. लेकिन इस ‘आज़ादी’ और ‘सुराज’ के अलग-अलग लोगों के लिए
अलग-अलग मायने थे. संथाल-संहार के बाद पुलिस-कचहरी होती है, मुकदमा चलता है.
संथालों का संहार करनेवालों को रेखांकित करते हुए रेणु लिखते हैं: “मुकदमा में भी
सुराज मिल गया’’. और संथालों को क्या मिला? “सभी संथालों को दामुल हौज हो गया है.
धूमधाम से सेसन केस चला. संथालों की ओर से भी पटना से बलिस्टर आया था. बलिस्टर का
खर्चा संथालिनों ने गहना बेचकर दिया था”. फिर भी संथाल हार गए. यह हार गाँधी के ‘सुराज’
की हार थी. गाँधी की ‘अहिंसा’ की हार थी. समाजवादी सपने की हार थी.
आज़ाद भारत में दबे-कुचले जिन लोगों को आज़ादी का ‘फल’ मिला वे
भी तरह-तरह की कलाबाजी दिखाने लगे. उनके लिए ‘सुराज’ और ‘अहिंसा’ ऐसी रामनामी हो
गई जिसका कोई जवाब आम जन के पास नहीं था. अपनी एक कविता ‘मिनिस्टर मंगरू’ में रेणु
एक ऐसे ही पात्र की कलाबाजी का आत्म स्वीकृति के अर्थ में जो चित्रण करते हैं वह
देखने लायक है. अपने द्वारा किए गए घोटाले के बारे में लोगों के पूछने पर मिनिस्टर
मंगरू का जवाब है:
“सुना है जाँच होगी मामले की?”- पूछते हैं सब,
जरा गंभीर होकर, मुँह बनाकर बुदबुदाता हूँ!
मुझे मालूम है कुछ गुर निराले दाग धोने के,
‘अहिंसा लाउंड्री’ में रोज मैं कपड़े धुलाता हूँ.
साहित्यिक सच के लिए जो लेखक अपनी वैचारिक और संस्कारगत
सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करता, वह जनता का साहित्य क्या, साहित्य ही नहीं लिख
सकता. समाजवादी आन्दोलन से जुड़े होने के बावजूद रेणु यदि अपने साहित्य में अपनी
वैचारिक सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं तो इसलिए कि वे इसे लेकर काफी सचेत हैं. वे
ऐसा साहित्य लिखना चाहते हैं जो किसी एक ख़ास दृष्टि का उदहारण न हो, किसी ख़ास
दृष्टि का सन्देश वाहक न हो और किसी ख़ास दृष्टि से बंधा न हो. वे वास्तविक अर्थों
में जनता का ऐसा साहित्य लिखना चाहते है जो अपनी विचारधारा और अपनी विचारधारा से
अलग की जनता को भी आंदोलित करे. 3-11-1955 को मधुकर गंगाधर को लिखे अपने एक पत्र
में वे अपनी यह मंशा भी व्यक्त करते हैं. ‘मैला आँचल’ का प्रकाशन हो चुका था और
उसकी धूम मची हुई थी. उस समय के साहित्यिक केंद्र इलाहाबाद जब वे गए तो
प्रगतिशील-गैर प्रगतिशील सभी साहित्यिक जमातों ने उन्हें सिर-माथे पर बिठा लिया. वहाँ
से लौटने के बाद पटना से उन्होंने मधुकर को पत्र लिखा: “.....प्रयाग हिंदी
साहित्यकारों का अखाड़ा समझा जाता है- नए तथा पुराने लेखकों का विशाल झूंड वास करता
है यहाँ. इनकी अलग-अलग छोटी-बड़ी संस्थाएँ हैं- परिमल, साहित्यिकी, झंकार, पराग,
मिलन- आदि-आदि. सबों को आश्चर्य हुआ कि बिना यह पूछे कि अमुक संस्था या व्यक्ति
किस राजनीतिक दल का है, रेणु जी सबों के यहाँ मुक्त ह्रदय से गए, गोष्ठियों में
भाग लिया....आने के दिन सरस्वती प्रेस (श्रीपत राय) के यहाँ जमावड़ा था-
प्रोग्रेसिवों (कम्युनिस्ट पार्टी वाले) ने कहा- रेणुजी की कृति तथा उनके प्रयाग
आगमन के बाद हम यह सोचने को मजबूर हो गए हैं कि ऐसे साहित्य की रचना संभव है, जिसे
सभी दल वाले एक स्वर से स्वीकार करें....”
किसान परिवार से अनेक लेखक आए हैं. उन्होंने किसानों पर खूब
लिखा भी है. लेकिन सचमुच किसानी करते हुए, खेती करते हुए, किसी ने लेखकीय जीवन
जिया हो इसका उदाहरण हिंदी में रेणु के सिवा शायद ही मिले. ‘तीसरी कसम’ की पटकथा लिखने,
साहित्यिक कार्यों से कभी-कभार मुंबई, इलाहबाद, कोलकाता, दिल्ली आदि शहरों में वे भले
गए हों, लेकिन साहित्य और जीविका स्वरुप खेती के लिए पटना और औराही हिंगना के बीच
वे निरंतर आवाजाही करते रहे. पटना और औराही हिंगना उनके राजनीतिक कर्म और
साहित्यिक लेखन को आकार देनेवाले वे स्थान थे जहाँ उनका मन रमता था. पटना में उनके
इर्द-गिर्द राजनीतिकर्मियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, लेखकों और पत्रकारों की जमात
तो साथ में होती ही थी, जब वे औराही हिंगना जाते थे तब वहाँ भी ऐसी जमात उनके साथ
होती थी. खेती, सामाजिक काम और लेखन साथ-साथ चलते थे. एक तस्वीर मिलती है जिसमें नागार्जुन
और कुछ युवा लेखकों-पत्रकारों के साथ रेणु धान की रोपनी कर रहे हैं. खेती से उनका
कितना गहरा लगाव और जुड़ाव था यह 4 मई 1966 को औराही हिंगना से नामवर सिंह को लिखे
एक पत्र से पता चलता है. अपने पत्र में रेणु लिखते हैं: “स्वस्थ हूँ. प्रसन्न
नहीं. खेती सूख रही है. कहीं एक बूंद पानी नहीं”.
रेणु के उपन्यासों, कहानियों और रिपोर्ताजों में इतना जो रस
है, लोक-लय और जीवन की धड़कन है, वह किसान जीवन की देन है. उनके यहाँ जो टप्पर गाड़ी
है, बैल हैं, लहलहाते खेत हैं और वहाँ से उठता हुआ जो लोक संगीत है वह उनके भीतर
के किसान की ही धड़कन है. अपने गाँव-जवार में रेणु न सिर्फ बैलगाड़ी से यात्राएँ
करते थे, बल्कि ‘तीसरी कसम’ का हीरामन जिस तरह बैलों से आत्मीय बातचीत करता है, वैसी
बातचीत वे भी करते थे. खेती, साहित्य और राजनीति वह त्रिवेणी है जिनसे रेणु का
जीवन संचालित था और जहाँ से उनके कथा पात्र पैदा हुए.
जयप्रकाश नारायण और औराही हिंगना उनकी राजनीतिक और
साहित्यिक ऊर्जा के ध्रुव हैं. इनसे गहरे जुड़ाव के कारण उनकी राजनीतिक और
साहित्यिक समझ-संवेदना की धार तेज होती है. जयप्रकाश को लिखे पत्रों में उनके
प्रति जो सम्मान भाव है वह उनकी ताकत है. औराही हिंगना- फारबिस गंज से जो जुड़ाव है
वह उनके साहित्य की धड़कन है. जयप्रकाश को लिखे पत्रों में वे उन्हें ‘पूजनीय’ और
‘श्रीचरणेषु’ विशेषण से संवोधित करते हैं. 1974 में आन्दोलन के दौरान जेपी को लिखे
एक पत्र से पता चलता है कि वे बाढ़ पीड़ितों के जुलूस का, लाठी-गोली की परवाह किए
बिना, धारा-144 तोड़ते हुए, नेतृत्व करते हैं. फरवरी 1977 में जेपी को लिखे एक पत्र
से पता चलता है कि वे अपनी गंभीर बीमारी को भूलकर इमरजेंसी लगानेवाली पार्टी को
हराने के लिए और लोकतंत्र की बहाली के लिए आसन्न चुनाव में प्रचार हेतु कूदने को
तैयार हैं. इस तरह जयप्रकाश और कथा-भूमि औराही हिंगना उनके दो ऐसे ध्रुव हैं जहाँ
उनकी निरंतर आवाजाही बनी रहती है.
रेणु की रचनात्मक ऊर्जा के इन दो ध्रुवांतों के बीच जो
रचनात्मक रिश्ता है उस पर बहुतेरे रेणु विरोधी और समर्थक आलोचकों ने भी ध्यान नहीं
दिया है. उस रिश्ते से जो कथा-दृष्टि बनती है उसकी पड़ताल कथाकार निर्मल वर्मा ने
की है और उसे ‘समग्र मानवीय दृष्टि’ की संज्ञा दी है. उस समग्र मानवीय दृष्टि और
दोनों ध्रुवांतों पर टिप्पणी करते हुए निर्मल ने लिखा है: “....दोनों के भीतर एक
रिश्ता है, जिसके एक छोर पर ‘मैला आँचल’ है, तो दूसरे छोर पर जयप्रकाश जी की सम्पूर्ण
क्रांति. दोनों अलग-अलग नहीं हैं- वे एक ही स्वप्न, एक लालसा, एक ‘विजन’ के दो
पहलू हैं. एक-दूसरे पर टिके हैं. कलात्मक ‘विजन’ और क्रांति दोनों की पवित्रता
उनकी समग्र दृष्टि में निहित है, सम्पूर्णता की माँग करती है- एक ऐसी सम्पूर्णता
जो समझौता नहीं करती, भटकती नहीं, सत्ता के टुकड़ों पर या कोरे सिद्धातों की आड़ में
अपने को दूषित नहीं करती. वह एक ऐसा मूल्य है जो खुली हवा में साँस लेता है और
इसलिए अंतिम रूप से पवित्र और सुन्दर और स्वतंत्र है”.
‘रेणु’ का जनपद मिथिलांचल है. प्रेम और सौंदर्य के कवि
विद्यापति का भी यही क्षेत्र है. ‘नित नित नूतन’ होने वाले ‘अपरूप’ रूप के खोजी
कवि हैं विद्यापति. इस ‘अपरूप’ को खोज लाने का कथा-प्रयत्न रेणु के यहाँ भी है.
लेकिन एक फर्क के साथ. रेणु निम्नवर्गीय जीवन और पात्रों में इस ‘अपूर्व’ को
रेखांकित करते हैं. ‘रसप्रिया’ कहानी का एक वाक्य है: “चरवाहा मोहना छौड़ा को देखते
ही पंचकौड़ी मिरदंगिया के मुँह से निकल पड़ा- अपरूप रूप!” यही बात इस कहानी में
दूसरे ढंग से भी कही गई है; “धूल में पड़े पत्थर को देखकर जौहरी की आँखों में एक नई
झलक झिलमिला गई- अपरूप रूप!” उनका कथा साहित्य ‘अपरूप रूप’ के ऐसे उदाहरणों से भरा
पड़ा है. इस नए सौन्दर्यबोध के कारण ही रेणु प्रेमचंद के बाद हिंदी कथा-साहित्य में
वह मुकाम हासिल करते हैं जो दूसरे नहीं कर पाते !