Friday, 2 September 2022

नंदकिशोर नवल: आधुनिक कविता के आलोचक

लिखने के लिए नंदकिशोर नवल ने कई विधाओं में लिखा है, लेकिन वे मूलतः कविता के आलोचक हैं. कविता में भी छायावाद और उसके बाद के काव्य परिदृश्य में उनकी विशेष रूचि थी. उन्होंने निराला की कविता पर शोध -कार्य किया था. निराला की कविता का प्रभाव उनके ऊपर ऐसा पड़ा कि वह उनके रूचि- निर्माण का वह मुख्य आधार बन गया. वैसे उनके अध्ययन का दायरा बहुत व्यापक था. वे संस्कृत भाषा के कालिदास से लेकर अपभ्रंश के कवियों पर बात कर सकते थे. वे सरहपाद, विद्यापति, तुलसीदास, बिहारी, निराला से लेकर आधुनिक काल तक के कवियों के काव्य-वैशिष्ट्य पर समान रूप से लिखते- बोलते थे. वे यदि निराला के काव्य की अर्थ छवियों को खोलते थे तो संजय कुंदन, राकेश रंजन आदि युवा कवियों के काव्य-वैशिष्ट्य को भी . हिंदी कविता पर इतने विस्तार से लिखने वाले और बातचीत करनेवाले आलोचक के रूप में नामवर सिंह के बाद सहज ही नंदकिशोर नवल का नाम याद आता है.

          नवल जी ने सूरदास, तुलसीदास, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, अज्ञेय, नागार्जुन आदि पर स्वतंत्र पुस्तकें लिखी हैं और उनकी कविता का नया मूल्यांकन प्रस्तुत करने की कोशिश की है. उन्होंने रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, राजकमल चौधरी, केदारनाथ सिंह आदि पर भी लम्बे-लम्बे लेख लिखे हैं. उन्होंने ‘आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास’ लिखा है और अपनी पसंद के कवियों का मूल्यांकन किया है. ‘हिंदी कविता अभी, बिलकुल अभी’ जैसी पुस्तक भी लिखी है और आठवें दशक के प्रमुख कवियों का मूल्यांकन किया है. इसके अतिरिक्त कविता और कवियों पर लिखे हुए निबंधों की उनकी अनेक किताबें हैं. उन्होंने ‘निराला रचनावली’ का तो संपादन किया ही है, कुछ और पुस्तकों का भी संपादन किया है. कुल मिलाकर यह कि नंदकिशोर नवल ने कविता पर प्रचुर मात्रा में  लेखन कार्य किया है, लेकिन आलोचक के रूप में उनकी कीर्ति का मूल आधार ‘मुक्तिबोध: ज्ञान और संवेदना’ तथा ‘निराला: कृति से साक्षात्कार’ नामक दो पुस्तकें हैं. अन्य कवियों पर उनके लिखे हुए की कोई भले अनदेखी कर जाए, लेकिन जिसकी भी रूचि निराला और मुक्तिबोध में है, उसे नवल जी की आलोचना से गुजरना ही होगा. जिस तैयारी के साथ नवल जी ने मुक्तिबोध के कवि- मन में प्रवेश किया है  और उनके काव्य- मर्म को उद्घाटित किया है, वह अपूर्व है. लिखने के लिए मुक्तिबोध पर उनके पूर्व रामविलास शर्मा, नामवर सिंह आदि ने भी लिखा है. लेकिन नवल जी ने जितने विस्तार और गहराई से मुक्तिबोध के मनस्विन रूप की खोज की है, वह मुक्तिबोध को नए रूप में हमारे सामने रखता  है. इसी तरह निराला पर रामविलास शर्मा का प्रबंधात्मक लेखन है. अन्य लोगों की लिखी हुई पुस्तकें भी हैं. लेकिन ‘निराला: कृति से साक्षात्कार’ के जरिए नवल जी ने निराला की कविताओं की जो पाठ आधारित आलोचना लिखी है, वह निराला संबंधी समझ को बदलनेवाली और विकसित करनेवाली है.

          नवल जी का मानना है कि ‘कुछ कवि भावना के साथ ज्ञान को भी महत्त्व देते हैं, कुछ जितना भावना को महत्त्व देते हैं, उतना ज्ञान को नहीं.’ इन दोनों तरह के कवियों के उदाहरण हिंदी कविता के इतिहास में मिल जाएँगे. लेकिन नवल जी की नजर में मुक्तिबोध ऐसे कवि थे जिनकी कविता में ज्ञान और भावना दोनों समान रूप से मौजूद हैं.  नवल जी का कहना है- ‘मुक्तिबोध कविता में संवेदना के साथ ज्ञान को अनिवार्य मानते थे. इसी कारण उन्होंने कवि द्वारा अपने भीतर विश्व-दृष्टि विकसित करने पर बहुत बल दिया है.’ नवल जी का मानना है कि मुक्तिबोध यथार्थवादी कविता के पक्षधर थे, लेकिन उन्होंने आत्मपरकता का निशेष नहीं किया है. नवल जी के अनुसार मुक्तिबोध ‘व्यक्तिबद्ध पीड़ाओं से हटकर’ रची गई कविताओं को महत्त्व देनेवाले कवि थे. मुक्तिबोध जीवन के साथ कविता का अनिवार्य संबंध मानते थे. लेकिन कविता को जीवन का इतिवृत बनाने के पक्ष में वे नहीं थे. नवल जी के अनुसार मुक्तिबोध का लेखन प्रगतिशील चेतना का है, लेकिन उसमें परंपरागत प्रगतिशीलता का आधार नहीं खोजा जा सकता. नवल जी के अनुसार मुक्तिबोध बहुत ही गहरे अर्थों में राजनीतिक कवि थे. लेकिन उनकी राजनीति रोजमर्रा की राजनीति नहीं थी. उनकी राजनीति के मूल में विश्व के शोषित-पीड़ित मनुष्य की मुक्ति का प्रश्न अंतर्निहित है. उनकी दृष्टि व्यापक है और विश्व मानवता से प्रतिबद्ध है. इस कारण मुक्तिबोध की कविता में ‘महाकाव्यात्मक औदात्य और ओजस्विता’ संभव हो सकी है और वे हिंदी कविता का नए रूप में विस्तार करते हैं.

          रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘नई कविता और अस्तित्ववाद’ में मुक्तिबोध की बहुत ही ‘आत्मपरक’ आलोचना की थी. रामविलास जी ने मुक्तिबोध को न सिर्फ अस्तित्ववाद से प्रभावित माना था, बल्कि उन्हें सिजोफ्रेनिक भी करार दिया था. नवल जी ने मुक्तिबोध का मूल्यांकन करते हुए रामविलास शर्मा का न सिर्फ खंडन किया, बल्कि यह भी साबित किया कि मुक्तिबोध अस्तित्ववाद के विरोधी थे. इसी के साथ उनकी कविता की विशेषता बताते हुए नवल जी ने लिखा है: “मुक्तिबोध की कविता जिस तरह अज्ञेय की कविता की तरह ‘जड़ाऊ’ नहीं, उसी तरह वह नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन की कविता की तरह सरल भी नहीं. इसका एक मुख्य कारण यह है कि वह प्रायः आकार में लम्बी ही नहीं, प्रकार में जटिल भी है. इस जटिलता का कारण वह गहन वैचारिकता है, जो ‘प्रसाद’ और ‘निराला’ के बाद सिर्फ मुक्तिबोध में ही दिखलाई पड़ती है, न अज्ञेय में, न किसी अन्य प्रतिष्ठित प्रगतिशील कवि में ही.”

          मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ की अनेक व्याख्याएँ हुई हैं. रामविलास शर्मा ने इसे कवि के विभाजित व्यक्तित्व का परिणाम माना है. वे ‘अँधेरे में’ को असफल कविता मानते हैं. नामवर सिंह ने ‘अँधेरे में’ को ‘व्यक्ति अस्मिता की खोज’ कहा है. लेकिन नवल जी ने इस कविता की बिल्कुल अलग व्याख्या की है. इस कविता की रचना के पीछे वे फासीवाद की मुख्य भूमिका मानते हैं. यह व्याख्या पिछली सभी व्याख्याओं से अलग है और मुक्तिबोध की इस महान कविता को सही परिप्रेक्ष्य में रखने का काम करती है. आगे चलकर नामवर सिंह ने भी नवल जी की व्याख्या को सही माना और इसकी पृष्ठभूमि में फासीवाद की आशंका से इन्कार नहीं किया.

          मुक्तिबोध के प्रसंग में आत्म-संघर्ष की बहुत चर्चा होती है. उनके आत्म-संघर्ष की तरह-तरह से व्याख्याएँ हुई हैं. उनके आत्म-संघर्ष वाले पक्ष पर विचार करते हुए नवल जी ने लिखा है: “मुक्तिबोध को आत्म-संघर्ष का कवि माना जाता है. वे मध्यवर्गीय संस्कारों और सीमाओं से मुक्त होकर सर्वहारा वर्ग से तादात्म होना चाहते थे, लेकिन चूँकि यह काम आसान नहीं था, इसलिए वे आत्म-संघर्ष में गिरफ्तार थे. एक तरफ़ अपने व्यक्तित्त्व का मोह और दूसरी तरफ़ उसके विसर्जन की आकांक्षा- इसने उन्हें विकट अंतर्द्वंद्व में डाल रखा था.... हमारा निष्कर्ष यह है कि मुक्तिबोध का आत्म-संघर्ष उनका अपना संघर्ष होते हुए भी पूरे सचेत प्रगतिशील मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी समुदाय का संघर्ष है और उसका संघर्ष होते हुए भी वह उनका अपना संघर्ष हैं. यह संघर्ष वस्तुतः वर्ग संघर्ष की छाया है, जिसकी द्वंद्वात्मकता उनके यथार्थबोध के साथ बढ़ती गई है.” मुक्तिबोध के भीतर मौजूद इस द्वंद्व की चर्चा नवल जी ने ठीक ही की है, लेकिन उनके यहाँ ‘अन्तःकरण’ की बात भी बार- बार आती है, उसकी अनदेखी अन्य लोगों की तरह नवल जी ने भी की है.

          मुक्तिबोध की कविता में प्रगीतात्मक तत्त्व की नवल जी ने चर्चा की है. यह उनकी कविता की विशेषता है. नवल जी के अनुसार: “उनमें वस्तुपरकता और आत्मपरकता का जटिल संयोग देखने को मिलता है, यह तथ्य है. इस कारण उन्होंने न केवल लम्बी कविताओं की रचना की है, बल्कि छोटी कविताएँ भी अच्छी संख्या में लिखी हैं और उनकी लम्बी कविताओं में भी प्रगीतात्मक संवेदना के खंड पिरोए हुए हैं.” प्रगीतात्मकता के साथ विश्व-दृष्टि मुक्तिबोध की कविता का वह पक्ष है, जिस कारण उनकी कविता का विचार फलक बहुत व्यापक दिखाई देता है. मुक्तिबोध की विश्व-दृष्टि पर विचार करते हुए नवल जी ने लिखा है: “मुक्तिबोध की विश्व-दृष्टि असंदिग्ध रूप से मार्क्सवादी थी, लेकिन यह मार्क्सवाद उनके लिए जितना पराया था, उतना ही वह उनका अपना था. वह उनके लिए कोई जड़ सूत्र या रूढ़ विचार प्रणाली तो कतई नहीं था, जो व्यक्ति की अनुभूति, कल्पना और चिंतन शक्ति को मुक्त करने की जगह परतंत्र बना देती है.” इसी के साथ यह कहना जरुरी है कि मार्क्सवादी विश्व-दृष्टि के बावजूद मुक्तिबोध कम्युनिस्ट रेजिमेंटेशन के खिलाफ़ थे. वे पूँजीवाद का विरोध करते थे और मार्क्सवाद में उनकी आस्था थी. प्रश्न है कि किस कम्युनिस्ट रेजिमेंटेशन के ? सिर्फ हिंदी में जारी रेजिमेंटेशन के या सोवियत संघ समेत अन्य कम्युनिस्ट देशों में हुई कम्युनिस्ट परिणतियों के भी? नवल जी के मुक्तिबोध सम्बन्धी लेखन में इन प्रश्नों के उत्तर प्राय: नहीं मिलते हैं.

प्रारंभ में नंदकिशोर नवल की आलोचना पर प्रगतिशील आलोचना खासतौर से रामविलास शर्मा की आलोचना का गहरा प्रभाव था. जाहिर है कि कंटेंट और फॉर्म के रूढ़ विभाजन के जरिए कविता को समझने की कोशिश उनकी आलोचना में मुख्य रूप से दिखाई देती है. यथार्थवादी दृष्टि से कविताओं का मूल्यांकन और उससे प्राप्त निष्कर्ष प्राय: कविता के साथ न्याय नहीं करते. कविता संबंधी नवल जी की आलोचना का पूर्व पक्ष यथार्थवादी दृष्टि की सीमाओं से घिरा हुआ लगता है. लेकिन धीरे-धीरे वे इस प्रभाव से मुक्त होते हैं और उनका झुकाव पाठ केन्द्रित आलोचना की ओर होता है. उनके लेखन में यह मोड़ सोवियत संघ के पतन के बाद आता है.  उनके इस आलोचनात्मक प्रयत्न का सर्वोत्तम उदाहरण ‘निराला: कृति से साक्षात्कार’ नामक क़िताब है. इसके अतिरिक्त अन्य पुस्तकें भी हैं, जो उनके आलोचनात्मक लेखन में आए तेज और झटकेदार मोड़ का प्रमाण देती हैं. आगे का उनका आलोचनात्मक लेखन इसी दिशा में है. हालाँकि पाठ आधारित आलोचना की अपनी सीमाएँ हैं. उसके जरिए कविता के पूरे आशय को नहीं समझा जा सकता. यह बात नवल जी जानते हैं और उन्होंने यह बात  स्वीकार भी की है: “पाठ आधारित आलोचना की अपनी सीमाएँ हैं. इसमें रचना की जो क्लोज स्टडी की जाती है, वह अध्येता को इसकी इजाजत नहीं देती कि रचना को उससे हटकर, दूर स्थित होकर, सम्पूर्ण रूप में देखा जा सके. अध्येयता प्रायः रचना के छोटे-छोटे और नजदीकी ब्यौरों में उलझकर रह जाता है. यह आलोचना रचना के अदृश्य पक्षों का उद्घाटन नहीं कर पाती, नहीं वह आलोचक की अंतर्दृष्टि से रचना की सर्वथा नवीन व्याख्या कर पाठकों को चमत्कृत कर पाती है.”  यह स्वीकार करने के साथ नवल जी ने निराला की कुछ प्रसिद्ध कविताओं की व्याख्या की है. नवल जी का मानना है कि निराला की कविता पर कालिदास, तुलसीदास, रवीन्द्रनाथ और शेली का गहरा प्रभाव है. निराला की शब्दावली और बिम्बों से लेकर उनके भावलोक तक पर इन कवियों का प्रभाव है. लेकिन इसी के साथ यह भी सही है कि निराला ने अपने कवि- व्यक्तित्त्व का स्वतंत्र विस्तार किया है.

‘जूही की कलि’, ‘बादल राग’, ‘जागो फिर एक बार’, ‘तुलसीदास’, ‘मित्र के प्रति’, ‘सरोज स्मृति’, ‘प्रेयसी’, ‘राम की शक्तिपूजा’, ‘सम्राट एडवर्ड अष्टम के प्रति’ और ‘वन-बेला’ इन दस कविताओं की पाठ आधारित आलोचना करते हुए नंदकिशोर नवल ने बहुत गहराई से इन कविताओं का अर्थ- संधान किया है. इन कविताओं की जो व्याख्याएँ उन्होंने की हैं, वे पूर्ववर्ती आलोचकों की व्याख्याओं से अलग और अधिक विश्वसनीय है. जैसे ‘राम की शक्तिपूजा’ की श्रेष्ठता का कारण नवल जी उसमें पाई जाने वाली ‘नाटकीयता’ को मानते हैं. उनका कहना है: “यह नाटकीयता इसकी घटनाओं में भी है, इसके चरित्रों में भी, इसके भाव में भी और इसमें प्रयुक्त संवादों की भाषा में भी. पूरी कविता एक नाटक की तरह है, जिसमें क्रम-क्रम से सारे दृश्य रंगमंच पर प्रत्यक्ष होते हैं.” इसी के साथ नवल जी इस कविता में पाई जाने वाली उदात्तता की भी चर्चा करते हैं. नवल जी का कहना है: “शक्तिपूजा पत्नी प्रेम की कविता है, जिसका एक अत्यंत व्यापक संदर्भ है- आधुनिक युग में उत्पन्न जनतांत्रिक चेतना. इसी ने इस कविता को वह सुविस्तृत भावभूमि प्रदान की है, जिससे यह अत्यंत उदात्त हो गई है.” अपनी व्याख्या का अंत करते हुए नवल जी ने लिखा है: “राम की शक्तिपूजा आज खड़ी बोली की सर्वोत्कृष्ट काव्य कृति ही नहीं, सर्वाधिक उदात्त काव्य कृति के रूप में भी मान्य है. उदात्त कृति की एक पहचान यह भी है कि भिन्न रूचि और संस्कार के व्यक्तियों के भीतर भी वह प्रखर सौन्दर्यानुभूति उतपन्न करने में समर्थ होती है.”

हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं का इतना विकास हो चुका है कि अब किसी एक व्यक्ति के लिए  अकेले इसका इतिहास लिखना संभव नहीं है. हिंदी कविता का भी परिसर इतना विस्तृत हो चुका है कि एक पुस्तक के जरिए उसके इतिहास को किसी एक व्यक्ति द्वारा प्रस्तुत नहीं किया जा सकता. इसलिए अब समय आ गया है कि अलग-अलग कालखंडों का और अलग-अलग विधाओं का इतिहास अलग-अलग विद्वानों द्वारा लिखा जाए. शायद इसी को ध्यान में रखते हुए नंदकिशोर नवल ने ‘आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास’ नामक पुस्तक लिखी है, जिसमें भारतेंदु से लेकर साठोत्तरी पीढ़ी के धूमिल तक को शामिल किया गया है. इसमें शुक्ल जी के इतिहास की तरह प्रवृत्तियों के आधार पर काल विभाजन न करके हिंदी कविता के विकास क्रम के आधार पर कवियों का विवेचन किया गया है. कोई चाहे तो इसे ‘आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास’ न कहकर ‘आधुनिक हिंदी कविता का विकास’ कह सकता है. सही अर्थों में यह पुस्तक इतिहास न होकर आधुनिक हिंदी कविता के विकास के पड़ावों को समझने का एक प्रयास है. साहित्य के इतिहास में इतिहासकार की रूचि के महत्त्व से इंकार नहीं किया जा सकता. लेकिन वह रूचि कुछ कवियों को शामिल करने और कुछ कवियों को छोड़ देने की दिशा में सक्रिय दिखे तो वह इतिहास की बड़ी सीमा बन जाती है. आधुनिक हिंदी कविता के इस इतिहास को पढ़ते हुए यह बात ध्यान में आती है.

‘हिंदी कविता: अभी, बिलकुल अभी’ नवल जी की महत्त्वपूर्ण आलोचना पुस्तक है. इसमें आठवें दशक के महत्त्वपूर्ण नौ कवियों- विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, आलोक धन्वा, श्याम कश्यप, ज्ञानेंद्रपति, उदय प्रकाश और अरुण कमल- की काव्य- यात्रा का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है. हर दौर अपना आलोचक लेकर आता है. एक ही आलोचक हर पीढ़ी के साथ न्याय नहीं कर सकता. कहा जा सकता है कि नंदकिशोर नवल आठवें दशक की कविता के विशिष्ट आलोचक हैं. यह आलोचना- पुस्तक इन कवियों का अलग-अलग काव्य संसार लेकर हमारे सामने तो आती ही है, वह हिंदी कविता में आए नए बदलावों को भी रेखांकित करती है. जिन कवियों को नवल जी ने शामिल किया है और जिन कवियों को छोड़ दिया है, उनमें से कुछ नामों को लेकर बहस हो सकती है और कहा जा सकता है कि यह आलोचक की निजी पसंद है. कोई पूछ सकता है कि श्याम कश्यप क्यों शामिल किए गए हैं और वीरेन डंगवाल, गिरधर राठी क्यों छोड़ दिए गए हैं? बावजूद इसके कहा जा सकता है कि धूमिल के बाद के कवियों को और काव्य विकास को समझने में नंदकिशोर नवल की लिखी हुई इस आलोचना का विशेष महत्त्व है.

 ‘हिंदी कविता: अभी, बिलकुल अभी’ में पहला निबंध विनोद कुमार शुक्ल पर है. धूमिल के बाद आए कवियों में विनोद कुमार शुक्ल का अलग महत्त्व है. उनकी काव्य शैली सबसे अलग और ध्यान आकृष्ट करनेवाली है. आमतौर से माना जाता है कि वे रूपवादी कवि हैं. लेकिन नवल जी ने यह संकेत किया है कि वे प्रगतिशील कवि हैं. उनकी प्रगतिशीलता का ढाँचा केदार, नागार्जुन और त्रिलोचन वाला नहीं है. वे शमशेर और मुक्तिबोध की तरह जटिल वितान वाले कवि हैं. नामवर सिंह का एक कथन है- ‘यथार्थवाद कोई शैली नहीं, बल्कि जीवन-दृष्टि है’. नवल जी कहते हैं कि इसको ध्यान में रखते हुए विचार करें तो हम पाएँगे कि विनोद कुमार शुक्ल पारिभाषिक रूप से भले ही प्रगतिशील या जनवादी कवि न हों, लेकिन वे सामाजिकता के व्यापक दायरे के करीब है. नवल जी ने लिखा है: “सामाजिकता या सामाजिक चेतना कोई संकीर्ण वस्तु नहीं है. वह मुट्ठी बाँधकर और गला फाड़कर क्रांतिकारी नारा लगाने में भी नहीं हैं. वह अत्यंत व्यापक है, आकाश की तरह, जो हमारे भीतर भी है और बाहर भी है. वस्तुतः समाज से बाहर कुछ भी नहीं है.” इस तरह व्यापक अर्थों में विनोद कुमार शुक्ल को प्रगतिशील कवि मानते हुए नवल जी का कहना है कि उनकी प्रगतिशीलता किसी साँचे में ढली हुई नहीं है.

विष्णु खरे को नवल जी ने ‘हिंदी की प्रचलित काव्य-भाषा के फॉर्म को तोड़ने वाला कवि’ कहा है. नवल जी के अनुसार भाषा के फॉर्म को तोड़ने का मतलब उसकी व्याकरणिक व्यवस्था को तहस-नहस करना नहीं है, बल्कि भाषा का नया इस्तेमाल करते हुए उस तरह कविता लिखना है, जिस तरह अब तक नहीं लिखी गई थी. इसी के साथ नवल जी का यह भी मानना है कि खरे की कविता में यथार्थ चित्रण इतना गहरा होता है कि उन्हें फैंटेसी लिखने की ज़रूरत नहीं होती. राजेश जोशी पर लिखते हुए नवल जी ने कहा है कि धूमिल के बाद की कविता को नया अर्थ देने वाले कवियों में राजेश जोशी प्रमुख हैं. धूमिल में ‘आत्मीयता का अभाव’ था. राजेश की पीढ़ी ‘आत्मीयता और सहजता’ लेकर आई. राजेश की कविता में एक ऐसा जादू है जिसके सौंदर्य का विश्लेषण आलोचक के लिए चुनौती है. इसी के साथ नवल जी ने राजेश की कविता में रुमानीपन को रेखांकित किया है और कहा है- ‘रुमानीपन राजेश की कविता की बहुत बड़ी ताकत है. वह उनकी दृष्टि को धुंधलाता नहीं, बल्कि उसी के कारण उनके यथार्थ के बिम्बों में एक ताजगी और अनुभूति में एक नवीनता संभव हुई है’.

मंगलेश डबराल की कविता पर विचार करते हुए नवल जी का कहना है कि ‘उनमें राजेश जोशी वाली आत्मीयता और सहज सम्प्रेषणीयता नहीं है’. इसी के साथ नवल जी यह भी कहते हैं कि ‘मंगलेश में चीख और रुदन जिस मात्रा में हैं, उस मात्रा में भूख और दुःख नहीं हैं’. मंगलेश की कविताओं में ‘रक्तक्रांति’ के दर्शन करनेवाले नवल जी तीन कारणों से मंगलेश को महत्त्वपूर्ण कवि मानते हैं- ‘एक कारण तो यह कि उन्होंने बड़ी सावधानी से अपनी कविताओं को विचारधारा के आरोपण से बचाया है; दूसरा कारण यह कि उन्होंने अनेक बार संकेतों से भी काम लिया है और तीसरा कारण यह कि उन्होंने कभी-कभी सबसे मुक्त होकर जीवन की कविता लिखी है, जो अपने-आप में बेजोड़ है’. आलोक धन्वा को नवल जी ‘गतिशील काव्य संवेदना का कवि’ मानते हैं. ‘संप्रेषणीयता’ नवल जी की नजर में आलोक का सबसे बड़ा गुण है. पहले नवल जी मानते थे कि आलोक धन्वा की कविता में रेटॉरिक का गुण है. बाद के वर्षों में नवल जी को आलोक में  रेटॉरिक की जगह संप्रेषणीयता का गुण दिखने लगा.

ज्ञानेंद्रपति की कविता में ‘एक ताजगी’ दिखाई देती है. इसी के साथ ‘नई भाषा, नए बिम्ब और नई कल्पना-शक्ति के भी दर्शन होते हैं.’ नवल जी के अनुसार ज्ञानेंद्रपति की काव्य- भाषा मूलतः बिम्बात्मक है. अरुण कमल की कविता के बारे में नवल जी का कहना है: ‘सर्जनात्मक कल्पना के योग से उन्होंने जो बिम्ब बनाए हैं, वे मोहक तो है ही, इस बात का भी प्रमाण देते हैं कि उनका इन्द्रीयबोध आज के कवियों में सर्वाधिक तीक्ष्ण है.’ अरुण कमल को नवल जी ‘स्वतंत्र स्फुट कविताओं का कवि’ कहते हैं. नवल जी यह भी कहते हैं कि ‘अरुण जी बिम्ब-कुशल ही नहीं, शब्द-कुशल भी हैं’. अरुण कमल की कविता में नवल जी ‘आत्मपरकता’ का गुण पाते हैं. लेकिन यह आत्मपरकता ‘आत्मग्रस्तता’ नहीं है, जिसके कारण अरुण कमल की कविता नया प्रभाव पैदा करती है.

यूँ तो हिंदी ‘कविता: अभी, बिलकुल अभी’ में श्याम कश्यप और उदय प्रकाश पर भी लेख हैं. लेकिन आज हिंदी कविता जिस मुकाम पर है वहाँ से देखने पर पता चलता है कि यह आलोचक की निजी पसंद है जो आलोचक की आत्मग्रस्तता की देन है. एक समय में उदय प्रकाश की कविताओं की चर्चा थी. लेकिन बाद में कहानी उनकी मुख्य विधा हो गई. कई अन्य कवियों की अनदेखी करके नवल जी ने श्याम कश्यप को रखा है. इसका कारण किसी की भी समझ में शायद ही आए! नवल जी ने राजेश जोशी, उदय प्रकाश और अरुण कमल की कवि त्रयी भी बनाई है, जिससे आज शायद ही कोई सहमत हो. समकालीन कविता के आलोचक के रूप में यह उनकी परख की सीमा है.  

नवल जी अपनी स्थापनाओं के जरिए हिंदी कविता का नैरेटिव बदलने की जगह उसके पाठ के परिप्रेक्ष्य को सही करनेवाले आलोचक हैं. उनकी आलोचना पढ़ी तो खूब गई, लेकिन हिंदी कविता के प्रति पूर्व की  धारणा को बदलने में कितनी सहायक हुई, यह कहना अभी मुश्किल है. उन्होंने हिंदी की महत्त्वपूर्ण लम्बी कविताओं की जो त्रयी बनाई वह हमारा ध्यान खींचती है. उस त्रयी में ‘राम की शक्तिपूजा’, ‘अँधेरे में’ और ‘मुक्ति प्रसंग’ (राजकमल चौधरी) की इतनी गहन और आत्मीय व्याख्या नवल जी ने की है जिसे पढ़कर हिंदी कविता के विकास का एक नया रूप पाठक के सामने उपस्थित होने लगता है.

‘हिंदी कविता: अभी, बिलकुल अभी’ के प्रारंभ में अपने प्रिय कवि मुक्तिबोध की कुछ काव्य- पंक्तियाँ नंदकिशोर नवल ने उद्धृत की है-

राहगीर को जैसे राहगीर मिल जाए,

                                             बंजारे को गाहक,

                                             पंडित को लघुसिद्धांतकौमुदी

                                             वैसे ही तुम मिले मुझे यह काफी;

                                             भूल-चूक की माफ़ी!

क्या यह एक आलोचक की पसंद की घोषणा है? अपनी पसंद को लेकर क्या उसके भीतर संशय है? अपनी  आलोचना पर की गई क्या यह उनकी अपनी ही टिप्पणी है? अपनी पसंद की आत्मपरकता का भान क्या आलोचक को खुद है? ऐसी आत्मपरकता क्या वस्तुपरक आलोचना के मार्ग में बाधक नहीं है? नंदकिशोर नवल की आधुनिक कविता पर किए गए लेखन के संदर्भ में ये प्रश्न उठेंगे.  

- गोपेश्वर सिंह

Monday, 14 February 2022

नरेश मेहता के जन्मशताब्दी के अवसर पर

प्रश्न: नरेश मेहता नयी कविता के महत्वपूर्ण कवियों में शामिल रहे हैं। उनकी रचनाएँ समकालीन कवियों से किन अर्थों में भिन्न हैं?

उत्तर: नरेश मेहता दूसरा सप्तक के कवि हैं। तारसप्तक (1943) से प्रयोगवाद की चर्चा शुरू हुई। लेकिन दूसरा सप्तक (1951) से प्रयोगवाद का पर्यवसान नयी कविता में हो गया। प्रयोगवाद पद धीरे-धीरे कम हो गया और उसकी जगह नयी कविता पद का प्रचलन  हो गया। नए ढंग की कविताएं दूसरा सप्तक में तो थीं ही, ‘प्रतीक’, ‘नयी कविता आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताओं के जरिए नयी कविता पद प्रचलन में आया। दूसरा सप्तक में संकलित कविताएं पाठकों-आलोचकों के बीच नयी कविता के नाम से ही रेखांकित की गईं। इसलिए इसमें संकलित सभी सात कवि- भवानी प्रसाद मिश्र, शकुन्त माथुर, हरीनारायण व्यास, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश कुमार मेहता, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती नयी कविता के ही कवि माने गए और वे सब नयी कविता के कवि हैं भी। इस दृष्टि से नरेश मेहता नयी कविता के कवि हैं। लेकिन नयी कविता के अन्य कवियों से भाषा, भाव, शिल्प आदि कई दृष्टियों से वे अलग हैं। इस कारण राजेश जोशी उन्हें दूसरा सप्तक का कवि होते हुए भी नयी कविता का आउट साइडर कवि मानते हैं। क्या ऐसा कहना सही है? मुझे लगता है कि वे ऐसा जब कहते हैं तो नयी कविता को एक सीमा में बांधते हैं। नयी कविता का क्या कोई एक मानक रूप है? क्या उसकी कोई एक मान्य परिभाषा है? असल में छायावादी, उत्तर छायावादी और प्रगतिशील कविता से भाषा, भाव और शिल्प में अलग तरह से लिखी गई कविताओं को नयी कविता कहा गया। इस दृष्टि से नरेश मेहता नयी कविता के कवि हैं। अपने नयेपन पर प्रकाश डालते हुए दूसरा सप्तक के अपने वक्तव्य में वे कहते हैं: “... पिछली अपनी छायावादी एवं रहस्यवादी कविताओं को मैं कविता नहीं मानता।... विगत, अनुकरणीय नहीं हो सकता।... नया तो मेरा युग है, मेरी प्रकृति है तथा सबसे नया मैं हूँ।” ऐसे में सवाल है कि नरेश मेहता किन अर्थों में नए हैं? नरेश मेहता की नयी कविताओं में आर्ष साहित्य की अनुगूंजें हैं। उनकी रुचि प्रारम्भ से अंत तक आर्ष साहित्य में रही है। आर्ष साहित्य उनकी प्रेरणा का एक बड़ा स्रोत है। उदाहरण के रूप में उनकी जन-गरबा: चरैवेतिकविता का एक अंश दृष्टव्य है:

मानव जिस ओर गया

नगर बने, तीर्थ बने

तुमसे है कौन बड़ा?

गगन-सिंधु मित्र बने,

भूमी का भोगो सुख,

नदियों का सोम पियो।

त्यागो सब जीर्ण वसन,

नूतन के संग-संग चलते चलो!

चलते चलो, चलते चलो!

इसी तरह उसस् शृंखला में लिखी गई उनकी कविताएं इस क्रम में देखी जा सकती हैं जो उन्हें नयी कविता में अलग मिजाज का कवि बनाती है। उसस्-चारका यह अंश देखा जा सकता है:

किरनमयी! तुम स्वर्ण वेश में!

स्वर्ग देश में!

सिंचित है केसर के जल से

इंद्र- लोक की सीमा,

आने दो सैन्धव घोड़ों का

रथ कुछ हल्के धीमा-

पूषा के नभ के मंदिर में

वरुण देव को नींद आ रही,

आज अलकनन्दा, किरणों की

वंशी का संगीत गा रही,

अभी निशा का छंद शेष है,

अलसाए नभ के प्रदेश में!

इन काव्यांशों की शब्दावली और आर्ष भंगिमा पर ध्यान दें तो नरेश मेहता की अपनी मौलिकता नजर आएगी।

          इस प्रसंग में एक घटना की चर्चा आवश्यक है। कुछ वर्षों के लिए नरेश मेहता नागपुर में थे । वे और मुक्तिबोध एक ही जगह काम करते थे। दूसरा सप्तक का प्रकाशन हो चुका था और उसमें संकलित नरेश मेहता की समय देवता कविता उन दिनों चर्चा में थी। उसे एक राजनीतिक कविता के रूप में पढ़ा जा रहा था। वह कविता मुक्तिबोध ने भी पढ़ी और एक दिन अपनी प्रतिक्रिया नरेश मेहता को बतलाई। उस प्रसंग की चर्चा नरेश मेहता ने स्वयं की है। मुक्तिबोध ने कहा: “वास्तव में राजनीति आपकी काव्य-भूमि नहीं है। जिस वैदिक धरातल पर आप खड़े होकर लिखना चाहते हैं, वही वास्तविक आपकी काव्य-भूमि है।” मुक्तिबोध के इस कथन से नरेश मेहता के काव्य- वैशिष्ट्य का पूरा तो नहीं, उसकी एक बड़ी विशेषता का पता चलता है। और वह विशेषता उन्हें नयी कविता के कवियों से अलग करती है। आगे चलकर इस विशेषता का रंग नरेश मेहता के काव्य में और गाढ़ा होता गया।

      नरेश मेहता के एक आलोचक प्रभाकर श्रोत्रिय उनकी कविता पुस्तक उत्सवामें महाभाव को उनकी विशेषता के रूप में रेखांकित करते हुए कहते हैं कि यह महाभाव एक परिपूर्ण वैष्णवता है, जिसमें आर्ष कविता की विराट अनुगूंजों के साथ ही लौकिक वास्तविकता है।‘ प्रभाकर श्रोत्रिय के ही शब्द लेकर कहें तो कह सकते हैं कि मनुष्य के उदात्त, सृष्टि-स्वप्न के लिए कवि ने आर्ष शब्दावली की जैसी पुनर्सर्जना की है’, वह उन्हें नयी कविता को नया विस्तार देने वाले कवि के रूप में प्रतिष्ठित करती है।

प्रश्न 2: नरेश मेहता की कविताओं में व्यक्त आधुनिकता बोध और उनके विशिष्ट प्रयोगों के बारे में आपकी राय क्या है?

उत्तर: नरेश मेहता नयी कविता के कवि हैं। जब वे अपने को यानी अपने कवि को नया मानते हैं तो इसका अर्थ उनके आधुनिक होने से है। लेकिन उनका आधुनिकता बोध अपने समकालीनों से कुछ भिन्न है। उनकी कविता समकालीन भी है और संस्कृति का शोध भी है। संस्कृति को लेकर नरेश मेहता ने नए प्रयोग किए हैं। संस्कृति संबंधी उनके प्रयोग उषस् जैसी प्रकृति परक कविताओं में दिखाई देते हैं। नरेश मेहता कहते हैं: “ऋतु की इस नित्य-कौमार्य कन्या का मैं प्रतिदिन अपने क्षितिज पर आह्वान करता हूँ। वह हमारे खेतों में अपने पति सूर्य के साथ हमारे बीजों में अपनी गरम-गरम किरणें बो कर गेहूँ उपजाती है।” ऐसी कविताओं में कवि प्रकृति का आधुनिक अर्थों में वैदिक ऋषियों-सा आह्वान करता है। उषस्-3 की पंक्तियाँ देखी जा सकती है:

तिमिर दैत्य के नील दुर्ग पर

फहराया तुमने केतन,

परिपंथी पर हमें विजय दो

स्वस्थ बने मानव जीवन

इन्द्र हमारे रक्षक होंगे, खेतों-खेतों औ’ खलिहान

थके गगन में उषा गान

दूसरी तरह का प्रयोग समय देवताजैसी कविताओं में है जिनमें जीवन के शस्त्र से वर्तमान के शृंगार का भाव मिलता है:

नव निर्माण तुझे करना है, नहीं चाहिए जीर्ण पुरातन,

बासी लहरों से सरिता का कभी नहीं शृंगार हुआ है।

जीर्ण पूज्य है,

वर्तमान मेरी बाँहें हैं, मैं भावी की नींव धर रहा।

 

प्रश्न 3: क्या नरेश मेहता का काव्य वैष्णवता की भूमि पर खड़ा है? नरेश मेहता की आधुनिकता और वैष्णवता के बीच कैसा संबंध है?

उत्तर: औपनिषदिकता और वैष्णवता जैसे पद नरेश मेहता के काव्य प्रसंग में अक्सर आते हैं। ये पुरानी अवधारणा के पद हैं। लेकिन इन्हें वे आधुनिक अभिप्राय से अपनी कविताओं में युक्त करते हैं। एक तरह से परंपरा से आए इन पदों में वे नया अर्थ भरते हैं। उनकी वैष्णवता न तो भक्त कवियों की है और न मैथिलीशरण गुप्त की। इन पदों को आधुनिक अर्थ में परिभाषित करते हुए नरेश जी स्वयं लिखते हैं: “व्यक्ति-विस्तार के बहुस्याम हो जाने की निष्पत्ति औपनिषदिकता है, तो व्यक्ति-समर्पण की निष्णात प्रतिश्रुति वैष्णवता है।” इस तरह इन पुराने पदों को नरेश मेहता नया अर्थ देते हैं और अपने समय को परंपरा की अनुगूंजों से ध्वनित करते हैं। औपनिषदिकता और वैष्णवता के जरिए वे जिस महाभाव को आधुनिक मनुष्य का संस्कार बनाना चाहते हैं उसका एक बड़ा उदाहरण उनकी कविता पुस्तक उत्सवा है। उत्सवा की कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती है:

आकाश में नहीं,

मेघों को पृथ्वी पर गंगा की कृतार्थता मिलती है।

आकाश में नहीं,

स्वत्व को पृथ्वी पर वास्तविक सार्थकता मिलती है।

होने दो अवतरित

अपने भीतर भी इस महाभाव को।

प्रश्न-4: नरेश मेहता के मिथकीय काव्य में आधुनिक सामाजिक समस्याएँ किस तरह उपस्थित हैं?

उत्तर: संशय की एक रात’, प्रवाद पर्व’, ‘शबरीऔर महाप्रस्थान नरेश मेहता लिखित खंडकाव्य हैं। प्रथम तीन रामायण पर आधारित हैं; जबकि चौथा महाभारत पर। रामायण और महाभारत के कथा प्रसंगों की भारतीय साहित्य में नई-नई व्याख्याएँ होती रही हैं। नरेश जी ने भी अपनी इन मिथकीय काव्य-कृतियों में आधुनिक मनुष्य और उसके भीतर के द्वंद्व को रचने की कोशिश की हैं। संशय की एक रात में राम के भीतर युद्ध को लेकर भारी संशय है। संशय ग्रस्त राम एक साधारण मनुष्य की तरह दिखते हैं। राम की इस साधारणता और युद्ध के प्रति उनके संशय के कारण यह कृति आधुनिक धरातल पर मजबूती से खड़ी दिखाई देती है। शबरी शूद्र समाज की है, श्रमजीवी है। शबरी में नरेश मेहता श्रम को प्रतिष्ठित करते हैं और वर्ण-व्यवस्था पर प्रहार करते है:

क्या धर्मतत्व से ऊँची

है वर्णाश्रम मर्यादा?

तब व्यर्थ तपस्या पूजन

यह गंगा भी है शूद्रा।

महाप्रस्थान में राज्य के अधिक ताकतवर और राष्ट्र प्रमुख के तानाशाह होते जाने के खतरे से सावधान किया गया है।

          नरेश मेहता अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में मार्क्सवादी थे और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। बाद में जब वे पार्टी सदस्य नहीं रहे तब भी उनके चिंतन के केंद्र में साधारण जनता बनी रही। उनके मिथकीय काव्य में इस कारण प्रसंग भले पुराने हों, समस्याएँ आधुनिक जीवन और मनुष्य की हैं।

प्रश्न-5: नरेश मेहता अपनी परंपरा के प्रति आत्म विस्मृत भी नहीं हैं और आधुनिक भी हैं। इस बारे में आप क्या कहना चाहते हैं?   

उत्तर: इस प्रश्न से संबंधित कुछ बातें पहले कही जा चुकी हैं। आधुनिक साहित्य की सबसे बड़ी पहचान है उसके केंद्र में मनुष्य का होना। कविता, कथा साहित्य, नाटक, निबंध आदि विधाओं में तीन दर्जन से अधिक पुस्तकें लिखने वाले नरेश मेहता के भीतर परंपरा और आधुनिकता का द्वंद्व अपने समकालीनों में सबसे अधिक है। उनकी औपनिषदिक और वैष्णवता की जो अवधारणा है उसे उन्होंने आधुनिकता की जमीन पर खड़े होकर अर्जित किया है। उनके साहित्य का मूल स्वर आधुनिक युग के लेखकों की तरह वैचारिकता नहीं है। उनका मूल स्वर करुणा है जिसे वे अपने काव्य में महा करुणा की ऊँचाई तक ले जाने का प्रयत्न करते दिखाई देते हैं। इसलिए उनके काव्य में सत्य, न्याय, निर्भयता, उदात्तता, वैष्णवता, औपनिषदिकता जैसे काव्य- मूल्य दिखाई पड़ते हैं जो उन्हें 20वीं शताब्दी के महा मानव गाँधी से जोड़ते हैं। एक समय के मार्क्सवादी नरेश मेहता का गांधीवादी अभिप्रायों में काव्य संस्कारित होना एक नए तरह के  काव्य विवेक का परिचायक है। नरेश मेहता गाँधी की तरह आधुनिकता के जो बिष - वृक्ष हैं , उनसे भारतीय जीवन को प्रदूषित होने से बचाना चाहते हैं। और इस क्रम में साहित्य को वे सबसे बड़ा हथियार मानते हैं।

प्रश्न-6: नरेश मेहता काव्य को जांगलिकता से सांस्कृतिकता, देह से मन की ओर, जड़त्व से चेतनत्व की एक मानवीय यात्रा मानते हैं। आप उनके इस विचार से कहाँ तक सहमत हैं?

उत्तर: प्रश्न में कविता को परिभाषित करने के लिए जिस तरह की शब्दावली का प्रयोग हुआ है, उसे छोड़ दिया जाए तो यह लगभग सर्वमान्य बात है कि कविता मनुष्य की सांस्कृतिक यात्रा का सबसे सूक्ष्म रूप है। कविता साहित्य की सबसे प्राथमिक विधा है। कविता को मनुष्यता का पर्याय भी कहा गया है और मनुष्यता की मातृभाषा भी। नरेश मेहता कौन-सी नई बात कह रहे हैं?

प्रश्न-7: नरेश मेहता के काव्य में राजनीति के स्वर नहीं सुनाई पड़ते हैं, लेकिन उन पर अक्सर यह आरोप लगता है कि वे राजनीति से जुड़े हुए हैं। इस पर आपको क्या कहना है?

उत्तर: जिस युग का सुभाषित हो कि एवरी थिंग इज पॉलिटिक्स, उस युग के किसी कवि में राजनीति के स्वर सुनाई पड़े या न पड़े, उसे अपने समय, समाज और उसे संचालित करने वाली राजनीति से अलग नहीं रखा जा सकता। नरेश मेहता पर जब मार्क्सवाद का प्रभाव था और समय देवता जैसी कविता उन्होंने लिखी थी, तब भी उनमें राजनीतिक शब्दावली की मुखरता नहीं थी। धीरे-धीरे औपनिषदिकता और वैष्णवता का उनमें आग्रह बढ़ा तब वे मानव समाज पर राजनीति के बढ़ते प्रभाव को कम करने और उसे धर्म शासित बनाने की बात करने लगे। यह धर्म कर्मकांड का प्रतिरूप न होकर मानवीय संस्कृति का उदात्त रूप है। महाप्रस्थानमें अर्जुन के पूछने पर युधिष्ठिर कहते हैं:

राज्य के नहीं

धर्म के नियमों पर समाज आधारित है।

राज्य पर अंकुश बने रहने के लिए

धर्म और विचार को

स्वतंत्र रहने दो पार्थ!

इसके आगे राज्य में किसी व्यक्ति के इतना शक्तिशाली हो जाने पर कि वह तानाशाह हो जाए, युधिष्ठिर कहते हैं:

किसी व्यक्ति को

इतना प्रतिष्ठापित मत करो कि

शेष सबके लिए

वह अलंघ्य विंध्याचल हो जाए।

आधुनिक जनतंत्र में किसी नेता का अलंघ्य विंध्याचल हो जाना जनतंत्र के लिए खतरा है। इस खतरे से कवि नरेश मेहता जनता को सचेत कर रहे हैं। आज ये पंक्तियाँ कितनी प्रासंगिक हो उठी हैं! क्या इसके बाद भी कहा जा सकता है कि उनकी कविता में राजनीतिक स्वर नहीं सुनाई पड़ते हैं?

** ‘वागर्थ’, फरवरी २०२२ के लिए मधु सिंह के प्रश्न और गोपेश्वर सिंह के उत्तर **

                                                                                                        

                                                                                                         सी-1203, अरुणिमा पैलेस,                                                                                                        सेक्टर-4, वसुंधरा, गाज़ियाबाद,

                                                                                                        उ. प्र. - 201012                                                                                                                  Gopeshwar1955@gmail.com

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Sunday, 10 October 2021

रामविलास शर्मा की आलोचना-दृष्टि

 सुनते हैं कि रूसी भाषा के महान लेखक लेव तोलस्तोय का सम्पूर्ण साहित्य 90 खंडों में प्रकाशित है.  इधर चर्चा है कि रामविलास शर्मा का सम्पूर्ण लेखन 45 खंडों में प्रकाशित हो रहा है. हिंदी में इतने अधिक खंडों में किसी भी लेखक-आलोचक की ग्रंथावाली नहीं है.इतनी विपुल संख्या में लिखा हुआ साहित्य न सिर्फ रामविलास जी की लेखकीय प्रतिबद्धता का; बल्कि उनके व्यापक मानवीय- साहित्यिक सरोकार का द्योतक माना जाएगा.

          कविता, आलोचना, निबंध, जीवनी, आत्मचरित आदि कई विधाओं में रामविलास शर्मा का साहित्यिक लेखन दिखाई देता है. साहित्य के अलावा भाषा विज्ञान, इतिहास, दर्शनशास्त्र, संगीत आदि अन्य अनुशासनों में भी उन्होंने लेखन कार्य किया है. उनके लिखे हुए ग्रंथों को देखने से पता चलता है कि उनका अध्ययन बहुत व्यापक था. वे बहु-अनुशासनात्मक ज्ञान के धनी लेखक थे. हालाँकि उनके लेखन कार्य को उन अनुशासनों के विद्वान वह महत्त्व नहीं देते जो उन्हें दिया जाना चाहिए. रामविलास शर्मा उनके लिए लिख भी नहीं रहे थे. उनके सामने हिंदी भाषी जनता थी जिसे शिक्षित करने का काम उन्होंने अपने पूर्ववर्ती कई हिंदी लेखकों की तरह किया. वे अकादमिक जगत के विद्वानों के नहीं, हिंदी भाषी जनता के लेखक थे.

          कई विधाओं और कई अनुशासनों में लिखने के बावजूद रामविलास शर्मा की मूल पहचान हिंदी साहित्य के इतिहासकार-आलोचक की है. उन्होंने हिंदी साहित्य का इतिहास नाम से कोई पुस्तक नहीं लिखी, लेकिन जो उनका व्यापक आलोचना-कर्म है वह हिंदी साहित्य के इतिहास की नई प्रस्तावना प्रस्तुत करता है और रामचंद्र शुक्ल की इतिहास-दृष्टि को विस्तृत करते हुए मजबूती प्रदान करता है. उन्होंने अनेक अवधारणात्मक पद दिए हैं जो हिंदी साहित्य के इतिहास को देखने का नया आधार प्रदान करते हैं. आज हिंदी पाठक का अपने साहित्य इतिहास के संबंध में जो कॉमन सेन्स है, वह बहुत हद तक रामविलास शर्मा का बनाया हुआ है. ‘लोक जागरण’, ‘हिंदी नवजागरण’, ‘हिंदी जाति’ आदि पद प्रचलित करनेवाले और इन दृष्टियों से हिंदी साहित्य को देखनेवाले रामविलास शर्मा ने न सिर्फ हिंदी आलोचना साहित्य को समृद्ध किया है, बल्कि हिंदी साहित्य के इतिहास को नया आधार भी दिया है.

          भक्तिकाल से लेकर छायावाद तक साहित्य का जो वस्तृत काल खंड है, उसको देखने की व्यापक दृष्टि रामविलास शर्मा ने तैयार की है. इस दृष्टि के निर्माण में ‘लोक जागरण’ और ‘नव जागरण’ जैसी दृष्टियों का बड़ा हाथ है. वे भारतेंदु युग से पहले के साहित्य को ‘लोक जागरण’ की दृष्टि से देखते हैं तो भारतेंदु युग से लेकर महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल, ‘निराला’, ‘प्रसाद’, माखनलाल चतुर्वेदी, रामवृक्ष ‘बेनीपुरी’ आदि के साहित्य को नवजागरण के आधार पर देखने की जमीन तैयार करते हैं. ‘लोक जागरण’ और ‘नवजागरण’ की चेतना से संपन्न होकर हिंदी समाज विकास की दिशा में आगे बढ़ा है और बढ़ेगा, यह आलोचक रामविलास शर्मा की मुख्य चिंता है. ‘लोक जागरण’ के भीतर मूल रूप से सामंतवाद विरोधी और ‘नव जागरण’ के भीतर साम्राज्यवाद और पूँजीवाद विरोधी चेतना भरी हुई है. इनके आधार पर शोषण मूलक व्यवस्थाओं को हटाकर समता मूलक समाज निर्मित किया जा सकता है, यह उनकी मूल स्थापना है.

          लोक जागरण की चेतना आगे चलकर नवजागरण चेतना में परिवर्तित होती है और उसकी चिंताधारा अधिक व्यापक होती है. लोक जागरण का संबंध मुख्य रूप से भक्ति साहित्य से है, जबकि हिंदी नवजागरण का संबंध भारतेंदु युग और उसके बाद के साहित्य से है. अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी नवजागरण की समस्याएँ’ में रामविलास जी ने लिखा है: “भारतेंदु युग उत्तर भारत में जन जागरण का पहला या प्रारंभिक दौर नहीं है; वह जन जागरण की पुरानी परंपरा का एक ख़ास दौर है. जन जागरण की शुरुआत तब होती है जब यहाँ बोलचाल की भाषाओं में साहित्य रचा जाने लगता है, जब यहाँ के विभिन्न प्रदेशों में आधुनिक जातियों का गठन होता है. यह सामंत विरोधी जन जागरण है.” (पृष्ठ-13) सामंत विरोधी इस जन जागरण का संबंध भक्तिकाल से है जिसे रामविलास जी लोक जागरण कहते हैं. भारतेंदु युग उसी पुराने जन जागरण का ‘एक खास दौर’ है. इसके ख़ास होने का सबसे बड़ा कारण यह है कि इसका संबंध प्लासी युद्ध से शुरू होकर 1857 के व्यापक स्वतंत्रता संग्राम से है. रामविलास जी के शब्दों में ‘यह साम्राज्यवाद विरोधी जन जागरण है. भारतेंदु युग इस जागरण से जुड़ा हुआ है.’ (वही)

          कुछ लोग मानते हैं कि 1857 का संघर्ष देशी सामंतों का अपने स्वार्थ के लिए किया गया संघर्ष था. ऐसे लोग 1857 के संघर्ष को स्वतंत्रता संग्राम नहीं मानते. ऐसे लोग यह भी मानते हैं कि ‘भारतेंदु युगीन साहित्य की मुख्य धारा अंग्रेजी राज के प्रति भक्ति भाव से प्रेरित थी; ऐसे लोगों के लिए 1857 से भारतेंदु युग को जोड़नेवाला कोई सूत्र हो ही नहीं सकता.’ (वही) ऐसे लोगों को जवाब देते हुए रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक में विस्तार से 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का संबंध नये जन जागरण से जोड़ा है और उसे ‘हिंदी नवजागरण’ का नाम दिया है. उनका मानना है कि 1857 की लड़ाई आम जन ने, खास तौर से किसानों ने लड़ी. उस संघर्ष के दौरान विकसित हुई साम्राज्यवाद विरोधी चेतना भारतेंदु और उस काल के लेखकों के चिंतन का  मुख्य आधार बनी . यही दौर है जब हिंदी भाषा का जातीय भाषा के रूप में पूर्ण विकास हुआ और हिंदी जाति का गठन मजबूत हुआ. इस प्रक्रिया का गहरा संबंध हिंदी नवजागरण से है.       

          भक्तिकाल संबंधी रामचंद्र शुक्ल की दृष्टि निर्गुण और सगुण जैसी परस्पर विरोधी भक्ति धाराओं के आधार पर बनी है.वे निर्गुण पंथ और निर्गुण पंथियों के प्रति किंचित अनुदार हैं. उनके ‘लोकमंगल’ के दायरे में सगुणपंथ और तुलसीदास का ही महत्त्व है. रामविलास शर्मा भक्तिकाल के उदय में ‘लोक जागरण’ की महत्त्वपूर्ण भूमिका मानते हैं जो मूल रूप से सामंत विरोधी है और जिसकी मूल चेतना प्रेम की है. इसलिए रामविलास शर्मा किसी निर्गुण-सगुण और कबीर-तुलसी संबंधी विवाद में नहीं पड़ते. वे मानते हैं कि भक्ति-काव्य की केन्द्रीय धारा प्रेम की है और इस कारण कबीर और तुलसी दोनों ‘प्रेममार्गी’ कवि हैं. रामविलास शर्मा कबीर और तुलसी को आमने-सामने करके भिड़ंत करानेवाली जो विमर्शजनित आलोचना है उससे इत्तेफाक नहीं रखते. भक्त कवियों में मानव मात्र को जोड़ने वाले एकता के जो सूत्र हैं वे उन पर जोर देते हैं. एकता के वे सूत्र व्यापक रूप में प्रेम की भावधारा से सिंचित हैं. रामविलास जी के अनुसार भक्ति आंदोलन के केंद्र में यही भावधारा सबसे मजबूत है. उसमें कुछ भिन्नता भी है, लेकिन उससे अधिक महत्त्वपूर्ण और मजबूत आधार प्रेम का है, यह भक्ति आंदोलन की केन्द्रीय चिंता धारा है. इसलिए रामविलास शर्मा भक्ति आंदोलन को निर्गुण-सगुण विभाजनों के जरिए समझने वाली इतिहास और आलोचना दृष्टि का विरोध करते हैं और उसकी जगह नया आधार प्रस्तावित करते हैं. वह आधार- ‘योग बनाम भक्ति’ का है. इसी के साथ वे भक्ति आंदोलन जैसे महान सांस्कृतिक आंदोलन को ‘कनफटे योगियों का मोहताज’ बताई जाने वाली धारणा का विरोध करते हैं.

          भारतीय नवजागरण के संदर्भ में बंगला नवजागरण, मराठी नवजागरण आदि की चर्चा होती है. यह मानकर चला जाता है कि हिंदी प्रदेशों में नवजागरण की जो छिटपुट चेतना आई, वह बंगाल से होकर आई और वह उसकी शाखा मात्र है. यह धारणा व्यापक स्तर पर फैली हुई थी. रामविलास शर्मा ने उसका प्रत्याख्यान किया और ‘हिंदी नवजागरण’ जैसी अवधारणा की बात की. इस हिंदी नवजागरण का संबंध उन्होंने 1857 के ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ से जोड़ा और हिंदी की आधुनिक मनीषा को स्वतंत्र पहचान दी. रामविलास शर्मा का मानना है कि 1857 का ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ मुख्य रूप से हिंदी प्रदेशों की जनता ने लड़ा, जिसमें साम्राज्यवाद विरोधी और सामंतवाद विरोधी चेतना सक्रिय रूप से काम कर रही थी. इस चेतना के आलोक में ही हिंदी नवजागरण का विकास हुआ और भारतेंदु हरिश्चंद्र इसी हिंदी नवजागरण के अग्रदूत थे. अपने प्रिय कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के बारे में रामविलास शर्मा का कथन है: “जैसे 1857 का कोई वीर सेनानी युद्ध छोड़कर साहित्य के मैदान में चला आया हो.” इस पर टिप्पणी करते हुए नामवर सिंह ने लिखा है: “ज्यादा सही है कि यह वीर सेनानी रामविलास शर्मा स्वयं हैं. योद्धा के रूप उनकी ख्याति तो है ही, विशेष रूप से उल्लेखनीय है 57 के स्वाधीनता संग्राम से उनका गहरा लगाव. सन् 57 जैसे उनके समस्त चिंतन की धुरी है और है उनके वैचारिक संघर्ष का बीज भाव.” (केवल जलती मशाल, संकलित निबंध, पृष्ठ-194) अपने वैचारिक संघर्ष के इस बीज भाव को लेकर रामविलास शर्मा ने महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल, ‘प्रसाद’, ‘निराला’, माखनलाल चतुर्वेदी, रामवृक्ष ‘बेनीपुरी’ आदि का मूल्यांकन किया है. महावीर प्रसाद द्विवेदी और प्रेमचंद तक आकर सामंतवाद और साम्राज्यवाद विरोधी जो हिंदी नवजागरण की चेतना है, उसमें वर्ग दृष्टि का समावेश होता है और पूँजीवाद विरोध भी उसमें शामिल हो जाता है. रामविलास शर्मा के सम्पूर्ण लेखन में यह चेतना काम करती है.

          रामविलास शर्मा मार्क्सवादी हैं. जीवन और जगत को देखने का उनका नजरिया भौतिकवादी है. वे अपने सम्पूर्ण लेखन के जरिए भौतिकवाद को प्रतिष्ठित करते हैं, भारतीय वांग्मय में भौतिकवादी चिंतन और साहित्य की परंपरा को रेखांकित करते हुए भाववाद को खारिज करते हैं. वे किसी भी धार्मिक, आध्यात्मिक और दैवीय शक्ति में भरोसा नहीं करते और भौतिकवादी दृष्टि से साहित्य, समाज और संसार की व्याख्या करते हैं. उनका कथन है: “वैज्ञानिक भौतिकवाद के अनुसार मनुष्य प्रकृति की उपज है और विचार चेतना मानव-मस्तिष्क की उपज. मस्तिष्कहीन विचार और चेतना का अस्तित्व केवल कल्पना की वस्तु है. भौतिकता से परे चेतना का निवास नहीं है.” (यथार्थ जगत और साहित्य, ‘आस्था और सौंदर्य’, पृष्ठ-15) वे ‘गोचर सौंदर्य’ की सत्ता स्वीकार करते हैं. उसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि की भूमिका को भी स्वीकार करते हैं, जिससे मनुष्य का ऐन्द्रिय बोध निर्मित होता है. इसी ऐन्द्रिय बोध के साथ मनुष्य का भाव जगत है. रामविलास जी के अनुसार: “भाव जगत व्यक्ति के मन में ही होता है, किन्तु उसका परिष्कृत और समृद्ध रूप सामाजिक विकास और सामाजिक जीवन में ही संभव हुआ है. भाव जगत का आधार व्यक्तिगत और सामाजिक- दोनों ही कोटि की अनुभूतियाँ हैं. इन दोनों ही कोटि की अनुभूतियों का आधार मनुष्य का सामाजिक जीवन है. यह वस्तुगत आधार होने से ही हम एक-दूसरे के अनुभव को जानते-पहचानते हैं; भिन्नता के होते हुए भी इस वस्तुगत आधार के कारण एक-दूसरे के निकट आते हैं. भारतीय काव्यशास्त्र ने साधारणीकरण के सिद्धांत द्वारा इस भाव जगत की सामान्य अनुभूति-भूमि की ओर संकेत किया, यह उसकी बहुत बड़ी विशेषता है.” (सौंदर्य की वस्तुगत सत्ता और सामाजिक विकास, ‘आस्था और सौंदर्य’, पृष्ठ- 30)

          मार्क्सवाद और भौतिकवाद में गहरी आस्था के कारण रामविलास जी भाववादी दर्शन का विरोध करते हैं और इसी कारण साहित्य में रहस्यवाद का भी. उनका यह भी मानना है कि भाववाद व्यक्तिवादी विचारधारा का उत्स है और भौतिक सचाई की प्रायः अनदेखी करता है. वे लिखते हैं: “व्यक्तिवादी विचारधारा क्षीण होकर निर्जीव, विकृत, अस्वस्थ, यथार्थ-विरोधी रचनाओं की सृष्टि कर रही है. यथार्थवादी विचारधारा मनुष्य के सर्वांगीण विकास के उद्देश्य से ऐसी रचनाएँ करने की ओर प्रवृत्त है जिससे हमारी सामाजिक चेतना प्रखर हो, और हमारी सौन्दर्यबोध की वृत्तियाँ भी संतुष्ट हों. आधुनिक हिंदी साहित्य की मूल धारा भी हमें इसी ओर बढ़ने की प्रेरणा देती है.” (यथार्थ जगत और साहित्य, ‘आस्था और सौंदर्य’, पृष्ठ-25)  

          भारत जैसे प्राचीन सभ्यता-संस्कृति वाले देश में अपनी परंपरा के मूल्यांकन की समस्या सबसे बड़ी है. बहु धार्मिक, बहु जातीय, बहु भाषीय और बहु सांस्कृतिक समाज के साहित्य की लम्बी परंपरा का मूल्यांकन कठिन काम है. प्रगतिशील आंदोलन की शुरुआत में परंपरा को देखने की उसकी दृष्टि बहुत संकीर्ण थी. प्राचीन साहित्य और मध्यकालीन साहित्य को लेकर प्रगतिशील आंदोलन का नकारात्मक रवैया था. उस नकारवादी माहौल के भीतर रामविलास शर्मा ने परंपरा के मूल्यांकन का काम शुरू किया और उसे अंजाम तक पहुँचाया. परंपरा के मूल्यांकन के प्रश्न पर विचार करते हुए रामविलास जी ने लिखा: “...साहित्य की परंपरा का मूल्यांकन करते हुए सबसे पहले हम उस साहित्य का मूल्य निर्धारित करते हैं जो शोषक वर्गों के विरुद्ध श्रमिक जनता के हितों को प्रतिबिंबित करता है. इसके साथ हम उस साहित्य पर ध्यान देते हैं जिसकी रचना का आधार शोषित जनता का श्रम है, और यह देखने का प्रयत्न करते हैं कि वर्तमान काल में जनता के लिए कहाँ तक उपयोगी है और उसका उपयोग किस तरह हो सकता है. इसके अलावा जो साहित्य सीधे सम्पत्तिशाली वर्गों की देख-रेख में रचा गया है और उसके वर्ग हितों को प्रतिबिंबित करता है, उसे भी परखकर देखना चाहिए कि यह अभ्युदयशील वर्ग का साहित्य है या ह्रासमान वर्ग का.” (परंपरा का मूल्यांकन, पृष्ठ-10-11).

          प्रगतिशील आंदोलन के प्रथम घोषणा पत्र में पुराना साहित्य और भक्त कवि ‘निस्तेज’ और ‘निष्प्राण’ बताए गए थे. रामविलास शर्मा ने इस नकारवादी प्रवृत्ति के खिलाफ़ संघर्ष किया. उन्होंने कालिदास, भवभूति आदि संस्कृत कवियों के साथ भक्तिकाल के तुलसीदास एवं अन्य कवियों की सकारात्मक व्याख्या की. यही नहीं, ऋग्वेद का भी मूल्यांकन करते हुए उसमें उन्होंने ‘श्रम संस्कृति’ का महत्त्व प्रतिपादित किया. संभवतः रामविलास शर्मा के परंपरा संबंधी मूल्यांकन को ही ध्यान में रखते हुए प्रगतिवाद की आलोचना करनेवाले आलोचक नलिन विलोचन शर्मा ने लिखा: “...प्रगतिवाद का नेतृत्व  दूरदर्शी मनस्वी कर रहे थे और उन्होंने इस धारा को मरुभूमि में जाकर अपने को खत्म करने से बचा लिया. प्रगतिवाद की परंपरा हिंदी के प्राचीन साहित्य से जोड़ी गई. तुलसीदास भक्तों के या पुराणपंथी आलोचकों के ही कंठाहार नहीं रह गए, आज के बुद्धिवादी प्रगतिशील समालोचकों ने भी उनकी महत्ता सादर, साभार स्वीकृत की और छायावाद की भी अपने समय की दृष्टि से सार्थकता मान ली. जो साहित्यिक अपने को आधुनिक कहते थे किन्तु जिनके पास कोई विशिष्ट ध्येय नहीं था, कला की कोई ख़ास कसौटी नहीं थी, उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि प्रगतिवादियों ने यह कौन-सा रुख अख्तियार कर लिया; जो लोग प्रगतिवाद से बहुत आशा रखते थे, किन्तु उसके वर्तमान रूप से क्षुब्ध हो गए थे, उन्हें इस रूप से संतोष हुआ और प्रगतिवाद को प्रतिष्ठित क्षेत्रों में भी प्रश्रय मिला.” (छायावाद और प्रगतिवाद, संकलित निबंध, पृष्ठ-37-38) यह सब लिखने के बाद नलिन जी ने जब प्रगतिशील साहित्य को ‘हिंदी की जागरूकता का सन्देश वाहक’ कहा तो उनके ध्यान में अवश्य ही रामविलास शर्मा जैसे प्रगतिशील आलोचक थे.

          परंपरा के मूल्यांकन की समस्या आई तो रामविलास शर्मा के सामने प्रश्न यह था कि परंपरा को देखने की दृष्टि क्या हो? उन्होंने लिखा: “...साहित्य की परंपरा का मूल्यांकन करते हुए सबसे पहले हम उस साहित्य का मूल्यांकन निर्धारित करते हैं जो शोषक वर्गों के विरुद्ध श्रमिक जनता के हितों को प्रतिबिंबित करता है. इसके साथ हम उस साहित्य पर ध्यान देते हैं जिसकी रचना का आधार शोषित जनता का श्रम है... साहित्य का हर स्तर सम्पत्तिशाली वर्गों के हितों से बंधा हुआ नहीं रहता.” (परंपरा का मूल्यांकन, पृष्ठ -10-11) यह कहने के साथ ही रामविलास जी ने यह भी कहा: “साहित्य विचारधारा मात्र नहीं है. उसमें मनुष्य का इंद्रिय-बोध, उसकी भावनाएँ, आंतरिक प्रेरणाएँ भी व्यंजित होती हैं. साहित्य का यह पक्ष स्थायी होता है.” (वही) अपने इसी सोच के तहत उन्होंने भक्ति साहित्य का मूल्यांकन किया और तुलसीदास को उसका सबसे बड़ा कवि घोषित किया. ऐसा करते हुए उनके ध्यान में तुलसी काव्य के सामंत विरोधी मूल्य थे, न कि ब्राह्मण और शूद्र के बीच की भेदकारी नीति.

          आलोचक के रूप में रामविलास शर्मा का महत्त्व कई कारणों से है. लेकिन उनकी ख्याति का बड़ा आधार छायावाद और निराला संबंधी उनका मूल्यांकन है. छायावाद और निराला के प्रति हिंदी आलोचना में अच्छी राय नहीं थी . नंददुलारे वाजपेयी जैसे आलोचक छायावाद को प्रतिष्ठित करने  का आलोचनात्मक संघर्ष कर रहे थे. उस संघर्ष को व्यापकता प्रदान की रामविलास शर्मा ने. निराला, प्रसाद और पंत की कविताओं को स्वाधीनता आंदोलन के संदर्भ में और साम्राज्यवाद विरोधी चेतना के रूप में प्रतिष्ठित करने का काम उन्होंने व्यापक पैमाने पर किया. तीन खंडों में ‘निराला की साहित्य साधना’ जैसा ग्रंथ लिखकर उन्होंने न सिर्फ निराला को, बल्कि छायावाद को भी सही परिप्रेक्ष्य देने का काम किया. निराला का महत्त्व स्थापित करते हुए उन्होंने पाँच टुकड़ों में एक कविता लिखी है जो ‘तार सप्तक’ में संकलित है और जिससे निराला का कालजयी कवि- रूप दिखाई देता है. ‘कवि’ शीर्षक इस कविता का एक अंश है-

वह सहज विलंबित मंथर गति जिसको निहार

गजराज लाज से राह छोड़ दे एक बार;

काले लहराते बाल देव-सा तन विशाल

आर्यों का गर्वोन्नत, प्रशस्त, अविनीत भाल;

झंकृत करती थी जिसकी वाणी में अमोल,

शारदा सरस वीणा के सार्थक सधे बोल;-

 

‘छायावाद साम्राज्य-विरोधी चेतना के निखार का साहित्य है’, यह बात रामविलास शर्मा ने व्यापक पैमाने पर प्रमाणित की और निराला के साहित्य का संबंध ‘स्वाधीनता आंदोलन के नवीन उत्थान’ के  साथ घोषित किया. कवि निराला का महत्त्व स्थापित करते हुए उन्होंने लिखा: “निराला का सहज स्वर उदात्त है; ओज उनके साहित्य का प्रधान गुण है. उनका माधुर्य अन्य कवियों के माधुर्य से भिन्न है; उनका शोक अन्य कवियों की वेदना से भिन्न है. कोई भी कवि एक ही उदात्त स्तर पर कविता नहीं लिख सकता, न उसे लिखनी चाहिए. निर्माण सौंदर्य के लिए उसे अनुदात्त या स्वरित स्तरों पर भी रचना करनी चाहिए. निराला एक ही कविता में भिन्न स्तरों पर अपने रचना-कौशल का परिचय देते हैं, अलग-अलग रचनाओं में भी. उनके श्रेष्ठ साहित्य में- भाव चाहे कोमल हो, चाहे कठोर- एक अंतर्निहित शक्ति का परिचय मिलता है. यह शक्ति स्वाधीनता आंदोलन के नए उत्थान की थी, यह शक्ति निराला के व्यक्तित्व की थी. दोनों के संयोग से ही निराला की साहित्य साधना पूरी हुई.” (निराला की साहित्य साधना, भाग-2 पृष्ठ-552) निराला संबंधी रामविलास शर्मा के इस मूल्यांकन को देखकर संभवतः कवि दिनकर ने कहा था कि भाग्यशाली है वह कवि जिसे रामविलास शर्मा जैसा आलोचक मिला. इस टिप्पणी से रामविलास शर्मा का आलोचकीय महत्त्व प्रकट होता है.

          कहा जा सकता है कि रामविलास शर्मा मुख्य रूप से छायावाद के आलोचक हैं. इसे विस्तार देकर यह भी कहा जा सकता है कि वे छायावाद के पूर्व के साहित्य के भी महत्त्वपूर्ण आलोचक हैं. लेकिन प्रयोगवाद, नई कविता और प्रेमचंदोत्तर कथा-साहित्य के मूल्यांकन में उनकी आलोचकीय गति और मति शिथिल पड़ने लगती है. वे ‘तार सप्तक’ के कवियों में शामिल हैं, बावजूद इसके वे प्रयोगवाद, नई कविता का महत्त्व ठीक-ठीक नहीं रेखांकित कर पाते हैं. ‘नई कविता और अस्तित्ववाद’ नामक उनकी पुस्तक उनके असफल आलोचनात्मक लेखन का सुन्दर उदाहरण है. यथार्थवाद की आलोचनात्मक कसौटी पर साहित्य को जाँचने की उनकी कोशिश इस पुस्तक में आकर असफल हो जाती है. इसी तरह प्रेमचंद और ‘गोदान’ की कसौटी पर जब वे फनीश्वरनाथ ‘रेणु’ और ‘मैला आँचल’ का मूल्यांकन करते हैं तो उस लेखक औरउसकी कृति के साथ न्याय नहीं कर पाते.

          ‘नई कविता और अस्तित्ववाद’ में यथार्थवाद की जिस कसौटी पर वे नई कविता के कवियों को कसते हैं, वे हैं अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध आदि. इनके समानांतर केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन आदि को रखते हैं. इस तरह नई कविता के कवियों समानांतर उन कवियों का पक्ष रखते हैं, जो प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े हुए हैं. रामविलास शर्मा की समझ यह है कि नई कविता पर अस्तित्ववाद का प्रभाव है और हिंदी की वास्तविक कविता केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन आदि के माध्यम से परवान चढ़ती है. ये कवि यथार्थवादी हैं और इनकी कविताएँ यथार्थ परक हैं. रामविलास जी का निष्कर्ष है कि अज्ञेय, शमशेर आदि पर न सिर्फ अस्तित्ववाद का प्रभाव है; बल्कि उनकी कविताओं में ‘नव रहस्यवाद’ भी है. उनकी नजर में मुक्तिबोध पर न सिर्फ अस्तित्ववाद का प्रभाव है, बल्कि वे सिजोफ्रेनिक भी हैं और उनका कवि-व्यक्तित्व विभाजित है. वे यह भी कहते हैं कि मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता ‘अँधेरे में’ विभाजित व्यक्तित्व की कविता है. रामविलास शर्मा की नजर में नई कविता दौर के सबसे बड़े कवि केदारनाथ अग्रवाल हैं. इस दौर की कविता के बारे में अपनी राय स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं: “नई कविता का उत्थान और प्रसार कई तरह से प्रगतिशील काव्यधारा के इतिहास से जुड़ा हुआ है. प्रगतिशील और प्रगति विरोधी रुझानों के भेद को मिटाने का प्रयत्न तो किया ही गया है, प्रगति विरोधी कविता को भी प्रगतिशील बताकर अनेक बार प्रस्तुत किया गया है. प्रगतिशील कविता की चर्चा में यथार्थवाद पर यथेष्ट जोर न देने के कारण इस कविता के इतिहास को समझने में भूलें होती हैं और अनेक कवियों के योगदान का सही मूल्यांकन नहीं होता.” (नई कविता और अस्तित्ववाद, 256) यह कहने के साथ रामविलास शर्मा ने यथार्थवादी काव्यधारा के विकास में निराला का महत्त्व बतलाते हुए केदारनाथ अग्रवाल के योगदान पर विस्तार से लिखा है. उनके अनुसार निराला के बाद सबसे महत्त्वपूर्ण और बड़े कवि केदारनाथ अग्रवाल हैं. निराला और केदारनाथ अग्रवाल रामविलास शर्मा की दृष्टि में सही राजनीतिक दृष्टि से लिखनेवाले कवि हैं. रामविलास जी की स्पष्ट राय है: “ये दोनों कवि हिंदी कविता में क्रांतिकारी यथार्थवाद के संस्थापक हैं.” (वही-279)

            यथार्थवाद की साहित्यिक कसौटी पर जो कथाकार रामविलास शर्मा को सबसे उपयुक्त लगता है, वे हैं प्रेमचंद.उनके अनुसार सामंतवाद, साम्राज्यवाद और पूँजीवाद-विरोध की सारी शर्तें प्रेमचंद का साहित्य पूरी करता है. इसलिए प्रेमचंद को वे ‘स्वाधीनता-संग्राम के सैनिक साहित्यकार’ के रूप में याद करते हैं. लेकिन यथार्थवाद वाली उनकी साहित्यिक कसौटी ‘मैला आँचल’ और नए मिजाज के उपन्यासों के मूल्यांकन में असफल साबित होती है. प्रगतिशील परंपरा के मूल्यांकन में  व्यापक और उदार दृष्टि का परिचय देनेवाला आलोचक यथार्थवाद की संकीर्ण गली में फँस जाता है.   ‘मैला आँचल’ का मूल्यांकन करते हुए रामविलास जी ने कहा कि वह प्रेमचंद की परंपरा का उपन्यास नहीं है. उन्होंने लिखा है: “... ‘मैला आँचल’ में नई चीज है, लोक संस्कृति का वर्णन. लोक गीतों और लोक नृत्यों के वर्णन द्वारा लेखक ने एक अंचल-विशेष की संस्कृति का चित्र अंकित किया है. इसके साथ कथा कहने की उसकी नई पद्धति है. वह सिनेमा के चित्रों के समान बहुत-से शॉट इकट्ठे कर देता है, ये शॉट एक-दूसरे से कितने विछिन्न हैं, इसका ध्यान नहीं रखता, एक ही अध्याय में तीन-चार बार ‘कट’ लगाकर पाठक को चौंधिया देता है. नतीजा यह है कि चलचित्र में जो सम्बद्धता होती है, उसका यहाँ अभाव है. उसकी चित्रण-पद्धति यथार्थवाद से अधिक प्रकृतिवाद के निकट है.... ‘मैला आँचल’ का लेखक प्रेमचंद की परंपरा से दूर जा पड़ा है.” (प्रेमचंद की परंपरा और आँचलिकता, आस्था और सौंदर्य, पृष्ठ-97) प्रेमचंद उनके लिए वो निकष हैं, जिससे पर वे जैनेन्द्र और रेणु समेत बहुतेरे कथाकारों को खारिज कर देते हैं. जैनेन्द्र की गाँधीपंथी सामाजिकता और उनकी अलग कथा शैली उन्हें यथार्थवादी नहीं लगती, बल्कि प्रतिक्रांतिकारी लगती है. जैनेन्द्र की समूची उपलब्धि को वे ‘देवर भाभी वाद’ तक सीमित कर देते हैं. इसी तरह यशपाल के कथा साहित्य का भी वे मूल्यांकन करते हैं और उसे भी ‘चोली जंफर उतार’ जैसी संज्ञा से चिह्नित करते हैं.यही आलोचनात्मक व्यवहार उन्होंने राहुल सांकृत्यायन, रांगेय राघव, अमृत राय आदि वामपंथी लेखकों के साथ भी किया है.उनकी इस तरह की आलोचना को ‘कुल्हाड़ी मार’ आलोचना की संज्ञा वामपंथी लेखकों ने ही दी है.

          यह सही है कि रामविलास शर्मा ने प्रगतिशील आंदोलन की प्रारंभिक संकीर्णता से संघर्ष किया और उसे व्यापक रूप देते हुए हिंदी साहित्य के लगभग एक हजार वर्षों के इतिहास का मूल्यांकन किया. लेकिन उनका यह मूल्यांकन-कार्य अपने से पूर्व के लेखकों और साहित्य का था. अपने समय और बाद के लेखकों के साहित्य का मूल्यांकन करते हुए वे काफी ‘सब्जेक्टिव’ रहे. कहा जाता है कि वे राजनीतिक सोच के स्तर पर स्टालिनवादी थे और उनके साहित्य चिंतन पर प्लेखानोव, काडवेल आदि मार्क्सवादी साहित्य चिंतकों का प्रभाव था, साथ ही यथार्थवाद वाली उनकी कसौटी घिस चुकी थी, जिसका पता उन्हें नहीं था. उन्होंने साहित्य मूल्यांकन के जो निकष बनाए, मसलन ‘नवजागरण’, ‘यथार्थवाद’ आदि वे बदलते समय में नाकाफी हो चुके थे. छायावाद और निराला के बाद के साहित्य पर लिखी हुई उनकी आलोचना को इसी संदर्भ में देखना चाहिए.

          हिंदी नवजागरण संबंधी उनकी अवधारणा को बाद के वर्षों में चुनौती दी गई और उसे एक तरह से ‘हिन्दू नवजागरण’ की संज्ञा दी गई. उनके हिंदी नवजागरण संबंधी तर्क को अति व्याप्ति दोष से ग्रसित माना गया और यह कहा गया कि जिसे रामविलास शर्मा ‘हिंदी नवजागरण’ कहते हैं, वह सामाजिक नवजागरण नहीं है, वह साहित्यिक नवजागरण भर है. इसे बंगाल और महाराष्ट्र के नवजागरण के समानांतर नहीं देखा जा सकता. हिंदी नवजागरण जैसी किसी सचाई से इंकार करते हुए वीरभारत तलवार ने लिखा है: “हिंदी नवजागरण एक भ्रामक नाम है. कुछ हिंदी लेखकों द्वारा एक मुहावरे की तरह चलाए गए इस शब्द का, उनकी चर्चाओं से बाहर, कहीं कोई अस्तित्व नहीं. जिसे हिंदी नवजागरण कहा जाता है, वह दरअसल ब्राहमों समाज और खासकर आर्य समाज के धार्मिक सुधारों के खिलाफ़, उनकी प्रतिक्रिया में हुआ, सनातनी बुद्धिजीवियों का आंदोलन था जिसमें उस समय के सभी बड़े हिंदी लेखकों और संपादकों ने आगे बढ़कर हिस्सा लिया....उनके आंदोलन को नवजागरण कहना धार्मिक-सामाजिक सुधारों वाली भारतीय नवजागरण की धारा से उन्हें गडमड कर देना होगा.” (रस्साकस्सी, पृष्ठ-342)


इन सब आलोचनाओं के बावजूद रामविलास शर्मा की मान्यताएँ अपनी जगह हैं और वे आज भी हिंदी पाठक का सामान्य बोध बनी हुई हैं.